Book Title: Pati Patni Ka Divya Vyvahaar
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा भगवान प्रापित पति-पत्नी का आदर्श व्यवहार विज्ञान की समझ, जीवन आदर्श बनाये ! यह अक्रम विज्ञान तो देखो। केवल पत्नी के साथ ही 'नहीं, लेकिन सारे संसार के साथ झगड़े बंद हो जाएं। यह विज्ञान ही ऐमा है। प्रगडे बंद ए अर्थात हम मुक्त हए। अपने घर में तो 'व्यवहार सुन्दर कर देना चाहिए। पत्नी के मन में ऐसा लगे कि ऐसा ( अच्छा ) पति कभी नहीं मिलेगा और पति के मन में ऐसा लगे कि ऐसी ( अच्छी ) 'पानी' भी कभी नहीं मिलेगी! एमा। हिसावला दें तब हम मच्चे कहलाये। अगर ऐसी समझ फिटकर। लें तो सारा जीवन बहुत अच्छी तरह व्यतीत हो। दादाश्री THENRBANTARY OSHIYA Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा भगवान प्ररूपित प्रकाशक : अजित सी. पटेल महाविदेह फाउन्डेशन दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९ E-Mail: info@dadabhagwan.org पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India. प्रथम संस्करण : प्रत ३०००, मार्च २००९ मूल गुजराती पुस्तक 'पति-पत्नी नो दिव्य व्यवहार' (संक्षिप्त ) का हिन्दी अनुवाद भाव मूल्य : 'परम विनय' और _ 'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव! द्रव्य मूल्य : २० रुपये लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद | मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन अनुवाद : महात्मागण मुद्रक : महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिंटिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८० ०१४. । फोन : (०७९) २७५४२९६४, ३०००४८२३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिमंत्र दादा भगवान कौन? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्वदर्शन हुआ। 'मैं कौन? भगवान कौन? जगत कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष! उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात बिना क्रम के, और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट! वे स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह जो आपको दिखाई देते है वे दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए.एम.पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। | वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।" _ 'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास (से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?" - दादाश्री परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थीं। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् आज भी जारी है। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हज़ारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं। ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग आज भी खुला है। जैसे प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी से आत्मज्ञान प्राप्त कर के ही स्वयं का आत्मा जागृत हो सकता है। निवेदन आत्मविज्ञानी श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहार ज्ञान संबंधी जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता हैं। ज्ञानीपुरुष संपूज्य दादा भगवान के पास आए कई दंपतियों ने अपनी सांसारिक समस्याओं के समाधान पाए। उनके क्लेशमय जीवन में दादाश्री की बोधकला ने दिव्यता भर दी, जो संक्षिप्त रूप में आपके सामने प्रस्तुत है। यहाँ दादाश्री ने दिव्य दाम्पत्य के अनुठे रहस्य खोले हैं, जिसे आत्मसात् करने से आपके दाम्पत्य जीवन में नि:संदेह दिव्यता प्रकाशमान होगी। प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो। उनकी हिन्दी के बारे में उनके ही शब्द में कहें तो "हमारी हिन्दी याने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का मिक्सचर है, लेकिन जब 'टी' (चाय) बनेगी, तब अच्छी बनेगी।" ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है। प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाये गये शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गये वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गये हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गये हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों रखे गये हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में दिये गये हैं। अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आप से क्षमाप्रार्थी हैं। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना निगोद में से एकेन्द्रिय और एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के उत्क्रमण और उसमें से मनुष्य का परिणमन हुआ तब से युगलिक स्त्री और पुरुष साथ में जन्मे, ब्याहे और निवृत हुए... ऐसे उदय में आया मनुष्य का पतिपत्नी का व्यवहार ! सत्युग, द्वापर और त्रेतायुग में प्राकृतिक सरलता के कारण पति-पत्नी के बीच जीवन में समस्या शायद ही आती थी। आज, इस कलिकाल में प्रतिदिन क्लेश, झगड़े, और मतभेद पति-पत्नी के बीच बहुधा हर जगह देखने में आते हैं। इसमें से बाहर निकल कर पति-पत्नी का आदर्श जीवन कैसे जी सकें, इसका मार्गदर्शन इस काल के अनुरूप किस शास्त्र में मिलेगा? अब क्या किया जाए? आज के लोगों की वर्तमान समस्याएँ और उनकी भाषा में ही उन समस्याओं के हल, इस काल के प्रकट ज्ञानीपुरुष ही दे सकते हैं। ऐसे प्रकट ज्ञानीपुरुष, परम पूज्य दादाश्री को उनकी ज्ञानावस्था के तीस वर्षों में पति-पत्नी के बीच हुए घर्षण के समाधान के लिए पूछे गए हजारों प्रश्नों में से संकलित कर यहाँ प्रस्तुत पुस्तक में प्रकाशित किए जा रहे हैं। पति-पत्नी के बीच की अनेकों जटिल समस्याओं के समाधान रूपी हृदयस्पर्शी और स्थायी समाधान करनेवाली वाणी यहाँ सज्ञ पाठक को उनके वैवाहिक जीवन में परस्पर देव-देवी जैसी दृष्टि निशंक ही उत्पन्न कर देगी, मात्र हृदयपूर्वक पढ़कर समझने से ही। शास्त्रों में गहन तत्त्वज्ञान मिलता है, पर वह शब्दों में ही मिलता है। उनसे आगे शास्त्र नहीं ले जा सकते। जो शब्द है, वह भाषाकीय दृष्टि से सीधे-सादे है किन्तु 'ज्ञानीपुरुष' का दर्शन निरावरण है, इसलिए उनके प्रत्येक वचन आशयपूर्ण, मार्मिक, मौलिक और सामनेवाले के व्यु पोइन्ट को एक्जैक्ट (यथार्थ) समझकर निकलने के कारण श्रोता के दर्शन को सुस्पष्ट खोल देते है और अधिक ऊंचाई पर ले जाते है। व्यवहारिक जीवन के पंक्चर को जोड़ना तो उसके एक्सपर्ट (निपुण) अनुभवी ही सिखा सकते हैं ! संपूर्ण आत्मज्ञानी दादाश्री, पत्नी के साथ आदर्श व्यवहार को पूर्ण अनुभव कर अनुभववाणी से समाधान करते हैं, जो प्रभावपूर्ण रीति से काम करता है। यह इस काल के अक्रम ज्ञानी की विश्व को बेजोड़ भेंट है, व्यवहार ज्ञान की बोधकला की! संपूज्य दादाश्री के पास कई पति पत्नी और यगल ने अपने दुःखमय जीवन की समस्याएँ प्रस्तुत की थीं; कभी अकेले में, तो कभी सार्वजनिक सत्संग में। ज्यादातर बातें अमरीका में हुई थीं, जहाँ फ्रीली, ओपनली (खुले आम, मुक्तता से) सभी निजी जीवन के बारे में बोलते थे। निमित्ताधीन परम पूज्य दादाश्री की अनुभव वाणी निकली, जिसका संकलन पढ़नेवाले प्रत्येक पति-पत्नी का मार्गदर्शन कर सकता है। कभी पति को उलाहना देते, तो कभी पत्नी को झकझोरते, जिस निमित्त को जो कहने की जरूरत हो उसे आरपार देखकर दादाश्री सार निकाल कर वचन बल से रोग निर्मूल करते थे। सुज्ञ पाठकों से निवेदन है कि वे गलत तरीके से अनर्थ न कर बैठे कि दादा ने तो स्त्रियों का ही दोष देखा है अथवा पतिपने को ही दोषित ठहराया है ! पति को पतिपना का दोष दिखाती वाणी और पत्नी को उसके प्राकृतिक दोषों को प्रकट करती वाणी दादाश्री के मुख से प्रवाहित हुई है। उसे सही अर्थ में ग्रहण कर स्वयं के शुद्धिकरण हेतु मनन, चिंतन करने की पाठकों से नम्र विनती है। - डॉ. नीरुबहन अमीन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय ब्याहते ही मिली, मिसरानी फ्री ऑफ कोस्ट में, झाडूवाली, पोंछेवाली और धोबिन मुफ्त में ! चौबीस घण्टे नर्सरी, और पति को सिन्सियर, अपनाया ससुराल छोड़ माँ-बाप, स्वजन पीहर ! माँगे कभी न तनखाह - बोनस कमिशन या बक्षिस ! कभी माँगे अगर साड़ी, तब क्यों पति को आए रीस ? आधा हिस्सा बच्चों में, पर डिलीवरी कौन करे? उस पर पीछे नाम पति का, फिर क्यों देते हो ताने? देखो केवल दो भूलें स्त्री की, चरित्र या घर का नुकसान, नमक ज्यादा, कि फोड़े ग्लास, छोटी भूलों को दो क्षमादान ! पत्नी टेढ़ी चले तब, देखो गुण, गिनो बलिदान, घर - बहू को संभाल, उसी में पुरुष तेरा बड़प्पन ! पति को समझेगी कहाँ तक, भोला कमअक्ल ? देख-भाल कर लाई है तू, अपना ही मनपसंद ! पसंद किया, माँगा पति, उम्र में तुझसे बड़ा, उठक-बैठक करता लाती जो गोदी में छोटा ! रूप, पढ़ाई, ऊँचाई में, माँगा सुपीरियर, नहीं चलेगा बौड़म, बावरची, चाहिए सुपर! शादी के बाद, तू ऐसा तू वैसा क्यों करे? समझ सुपीरियर अंत तक, तो संसार सोहे ! पति सूरमा घर में, खूँटी बँधी गाय को मारे, अंत में बिफरे गाय तो बाघिन का वेश धरे ! पचास साल तक, कुत्ते जैसा भौंके वह दिनरात ! वसूली में फिर पिल्ले करें, कुतिया का पक्षपात ! 'अपक्ष' होकर रहा मुआ, घरवालों की खाये मार, सीधा होजा, सीधा होजा, पाले 'मुक्ति' का मार्ग ! मोटा पति खोजे फिगर, सुन्दरी का जो रखे रौब, सराहते जो पत्नी को, मन से लेते हैं वे भोग ! प्रथम गुरु स्कूल में, फिर बनाया पत्नी को गुरु, पहले पसंद नहीं थे चश्मे, फिर बनाई 'ऐनक बहू' ! मनपसंद की ढूंढने में हो गई भारी भूल, शादी करके पछताये, ठगे गए बहुत ! क्लेश बहुत हो पत्नी संग, तो कर दो विषय बंद, बरस बाद परिणाम देख, खुले दृष्टि विषय अंध ! ब्रह्मचर्य के नियम रखना, शादी-शुदा तेरा लक्ष्य, दवाई पीयो तभी जब चढ़े, बुखार दोनों पक्ष ! मीठी है इसलिए दवाई, बार-बार पीना नहीं, पीयो नियम से जब दोनों को हो बुखार या सर्दी । एक पत्नीव्रत जहाँ, दृष्टि बाहर न बिगड़े, कलियुग में है यही ब्रह्मचर्य, ज्ञानीपुरुष दादा कहें! टेढ़ी बीवी, मैं सीधा, दोनों में कौन पुण्यवान ? टेढ़ी तेरे पाप से, पुण्य से पाया सीधा कंथ! किसका गुनाह? कौन है जज? भुगते उसी की भूल, कुदरत का न्याय समझ लो, भूल होगी निर्मूल ! संभाले मित्र और गाँव को, घर में लठ्ठबाज़ी, संभाला जिसने जीवन भर, वहीं चूक गया पाजी ! Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम पेज नं. बाहर बचाये आबरू, बेआबरू घर में मगर! देखो उल्टा न्याय, मधुर भोजन में डाले कंकर! 'मेरी बीबी मेरी बीबी' कह, डाले ममता के पेच, 'नहीं मेरी, नहीं मेरी' कह, खोलो अंतर् के पेच! शादी कर के कहे पति, तेरे बिन कैसे जीएँ? मरने पर न हुआ 'सता', न ही कोई सती दिखे! यह तो आसक्ति पुद्गल की, नहीं यह सच्चा प्रेम ! न देखे दोष, न अपेक्षा, न द्वेष वहीं शुद्ध प्रेम! तू ऐसा, तू वैसी, अभेदता में आया भेद, हुआ शांति का अंत जो, हुआ ज़रा-सा भेद! एक आँख में प्रेम, और दूसरी में सख्ती जहाँ, देखे इस प्रकार पत्नी को, जीते संसारी वहाँ ! वन फेमिली होकर जीयो, करो नहीं मेरी-तेरी, सुधारने पत्नी को चला, क्या अपनी जात सुधारी ? आर्य नारी के माथे पर बिंदी, एक पति का ध्यान, सारा मुँह और भाल भर जाये, अगर लगाये परदेशन ! एक दूजे की भूल निभालो, वही प्रेममय जीवन, घटे-बढ़े नहीं कभी जो, वही सच्चा प्रेम दर्शन ! -- डॉ. नीरुबहन अमीन १. वन फ़ैमिलि (एक कुटुम्ब) २. घर में क्ले श ३. पति-पत्नी में मतभेद ४. भोजन के समय किट-किट ५. पति चाहिए, पतिपना नहीं ६. दूसरों की भूल निकालने की आदत ७. गाड़ी का गरम मूड ८. सुधारना या सुधरना? ९. कोमनसेन्स से 'एडजस्ट एवरीव्हेर' १०. दो डिपार्टमेन्ट अलग ११. शंका जलाये सोने की लंका १२. पतिपने के गुनाह १३. दादाई दृष्टि से चलो, पतियों... १४. 'मेरी-मेरी' की लपेटें उकलेंगी ऐसे १५. परमात्म प्रेम की पहचान १६. शादी अर्थात् 'प्रोमिस ट पे' १७. पत्नी के साथ तक़रार १८. पत्नी लौटाये तौल के साथ १९. पत्नी की शिकायतें २०. परिणाम, तलाक़ के २१. सप्तपदी का सार २२. पति-पत्नी के प्राकृतिक पर्याय २३. विषय बंद वहाँ प्रेम सम्बन्ध २४. रहस्य, ऋणानुबंध के... २५. आदर्श व्यवहार, जीवन में... Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ज्ञान है? हमारे हिन्दुस्तान में 'हाउ टु ऑर्गनाइज़ फ़ैमिलि' उस ज्ञान की कमी हैं। फ़ॉरिन वाले तो 'फैमिलि' समझते ही नहीं। वे तो जेम्स बीस साल का हो गया तो, उसके माता-पिता, विलियम और मेरी, जेम्स से कहेंगे कि, तू अलग और हम तोता-मैना अलग! उन्हें फैमिलि ऑर्गनाइज़ करने की आदत ही नहीं है न! और उनका फैमिलि तो स्पष्ट ही कहता है। मेरी के साथ विलियम को अच्छा न लगे तो 'डिवोर्स' (तलाक) की ही बात! और हमारे यहाँ 'डिवोर्स' की बात कहाँ? हमें तो साथ-साथ रहना है, तकरार करनी है और फिर साथ में वहीं एक ही कमरे में ही सोना भी है। यह जीने का तरीका नहीं है। इसे फ़ैमिलि नहीं कहते! और अपने देश में तो लोग फ़ैमिलि डॉक्टर भी रखते हैं। अरे, अभी फ़ैमिलि तो हई नहीं, वहाँ फ़ैमिलि डॉक्टर कहाँ रखता है? ये लोग फ़ैमिलि डॉक्टर रखते हैं, पर यहाँ पत्नी ही फ़ैमिलि नहीं! और कहते है, 'हमारे फ़ैमिलि डॉक्टर आए हैं!' उनके साथ कोई तकरार नहीं करते। डॉक्टर ने बिल ज्यादा बनाया हो तब भी तकरार नहीं करते। तब कहते है, 'हमारे फ़ैमिलि डॉक्टर हैं न!' वे मन में ऐसा समझते हैं कि हमारा रौब जम गया, फ़ैमिलि डॉक्टर रखते हैं इसलिए! वन फ़ैमिलि (एक कुटुम्ब) जीवन जीने जैसा कब लगता है कि सारा दिन उपाधि नहीं हो. जीवन शांति से व्यतीत हो, तब जीवन जीना अच्छा लगता है। यह तो घर में गड़बड़ होती रहती हो तब जीवन जीना कैसे अनुकूल लगे? यह तो पुसायेगा ही नहीं न! घर में गड़बड़ नहीं होनी चाहिए। गड़बड़ शायद पड़ोसी के साथ हो या बाहर के लोगों के साथ हो. मगर घर में भी? घर में फ़ैमिलि की तरह लाइफ (जिंदगी) जीनी चाहिए। फैमिलि लाइफ कैसी होती है? घर में प्रेम और प्रेम ही छलकता हो। अब तो फ़ैमिलि लाइफ ही कहाँ हैं? दाल में नमक ज्यादा हो तो सारा घर सिर पर उठा ले। 'दाल खारी है' कहता है! अंडरडिवेलप्ड (अर्धविकसित) लोग। डिवेलप (विकसित) किसे कहते है कि जो दाल में नमक ज्यादा हो, तो उसे एक ओर रखकर बाकी भोजन खा ले। क्या यह नहीं हो सकता? दाल एक ओर रखकर दूसरा सब नहीं खा सकते? 'दिस इज फ़ैमिलि लाइफ (ये है पारिवारिक जीवन)।' बाहर तकरार करो न ! माई फ़ैमिलि (मेरा परिवार) का अर्थ क्या? कि हमारे बीच तकरार नहीं हो, किसी भी तरह की। हमें एडजस्टमेन्ट लेना चाहिए। अपने फ़ैमिलि में एडजस्ट होना आना ही चाहिए। एडजस्ट एवरीव्हेयर (हर जगह अनुकूल)। तुम्हारे पास 'फ़ैमिलि ऑर्गनाइज़ेशन' (पारिवारिक देख-भाल)का फैमिलि के सदस्य का ऐसे हाथ लग जाए तो हम उसके साथ झगड़ते हैं? नहीं! एक फ़ैमिलि की तरह रहना, बनावट मत करना। लोग जो दिखावा करते हैं, ऐसा नहीं। एक फ़ैमिलि... तुम्हारे बिना मुझे अच्छा नहीं लगता, ऐसा कहना। वह हमें डाँटेन, उसके थोडी देर बाद कह देना, 'तू चाहे कितना भी डाँटे मगर मुझे तेरे बगैर अच्छा नहीं लगता।' ऐसा कहना। इतना गुरु मंत्र बोलना। ऐसा कभी बोलते ही नहीं न! तुम्हें बोलने में कोई हर्ज है कि तुम्हारे बगैर अच्छा नहीं लगता? मन में प्रेम ज़रूर रखना पर थोड़ा-बहुत बोलकर भी दिखाना। घर में क्ले श कभी घर में क्लेश होता है? तुम्हें कैसा लगता है? घर में क्लेश होता है तो अच्छा लगता है? Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता : क्लेश बिना तो दुनिया नहीं चलती। दादाश्री : तब तो वहाँ पर भगवान रहेंगे ही नहीं। जहाँ क्लेश है वहाँ भगवान नहीं रहते। प्रश्नकर्ता : वह तो है पर कभी-कभी तो ऐसा क्लेश होना चाहिए न? पति पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : ओहो... ऐसे घरवालों के साथ. बाहरवालों के साथ. वाइफ (पत्नी) के साथ टकराएँ तो उसे क्लेश कहते हैं। मनमुटाव हो और फिर थोड़ी देर अलग रहें उसका नाम क्लेश। दो-तीन घण्टे लड़ें और फिर साथ में हो जाएँ तो हर्ज नहीं। पर टकराकर दूर रहें वह क्लेश कहलाता है। बारह घण्टे दूर रहें तो सारी रात क्लेश में कटती है। प्रश्नकर्ता : आपने जो क्लेश की बात कही वह पुरुष में ज्यादा है कि स्त्री में ज्यादा है? दादाश्री : नहीं, क्लेश होना ही नहीं चाहिए। मनुष्य को यहाँ क्लेश किस लिए हो? और क्लेश होने से अच्छा लगेगा? क्लेश हो तो तुम्हें कितने महीने अच्छा लगेगा? दादाश्री : वह तो स्त्री में ज्यादा होता है, क्लेश। प्रश्नकर्ता : उसकी वजह क्या? दादाश्री : ऐसा है न, कभी झगड़ा हो जाता है, तब क्लेश हो जाता है। क्लेश होना अर्थात् झट से सुलग कर बुझ जाना। पुरुष और स्त्री में क्लेश हो गया तब पुरुष है वह छोड़ देगा, पर स्त्रियाँ उसे जल्दी नहीं छोड़ती और क्लेश में से कज़िया (झगड़ा) खड़ा हो जाता है। फिर वे मुँह फुलाकर घूमती रहती हैं, मानों हमने उसे तीन दिन से भूखी रखी हो! प्रश्नकर्ता : यह क़ज़िया दूर करने के लिए क्या करें? प्रश्नकर्ता : बिलकुल नहीं। दादाश्री : एक महीना भी अच्छा नहीं लगेगा, नहीं? मजेदार खाना, सोने के गहने पहनना और ऊपर से क्लेश करना। यह तो जीवन जीना ही नहीं आता। जीवन जीने की कला नहीं आती, उसका ही यह क्लेश है। हम तो कौन-सी कला के माहिर हैं कि डॉलर किस तरह कमायें! बस उसके ही विचार में रहते हैं। पर जीवन कैसे जीएँ उसका विचार नहीं करते। उसके बारे में नहीं सोचना चाहिए? प्रश्नकर्ता : सोचना चाहिए, लेकिन हर एक का तरीका अलग अलग होता है। दादाश्री : नहीं, सबका तरीका अलग-अलग नहीं होता, एक ही तरह का। डॉलर, डॉलर, डॉलर। और फिर हाथ में आने पर हजार डॉलर वहाँ स्टोर में खर्च कर डालता है। चीजें घर में लाकर रखता है। फिर जब पुराना हो जाए तो दूसरा ले आता है। सारा दिन तोड़-जोड, तोड़जोड़, दुःख, दुःख और दुःख, परेशानी-परेशानी और परेशानी। अरे, यह जीवन है क्या? ऐसा जीवन कैसे जियें? ऐसा मनुष्य को शोभा देता है? क्लेश-झगड़े नहीं होने चाहिए। प्रश्नकर्ता : लेकिन क्लेश किसे कहते हैं? दादाश्री : हम क्लेश नहीं करेंगे तब कज़िया नहीं होगा। वास्तव में हम ही क्लेश करके सुलगाते हैं। आज खाना अच्छा नहीं बनाया, आज तो मेरा मुँह बिगड़ गया, ऐसा करके क्लेश खड़ा करें तो फिर वह तकरार करती है। प्रश्नकर्ता : मुख्य वस्तु यह कि घर में शांति रहनी चाहिए। दादाश्री : मगर शांति कैसे रहे? लड़की का नाम शांति रखें फिर भी शांति न रहे। उसके लिए तो धर्म समझना चाहिए। घर के सभी सदस्यों से कहना चाहिए कि, 'हम सभी घर के सदस्यों में कोई किसी का बैरी नहीं, किसी का किसी से झगड़ा नहीं। हमें मतभेद करने की कोई जरूरत Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार नहीं हैं। आपस में बाँटकर शांतिपूर्वक खाओ-पीओ और आनंद करो, मौज करो।' इस प्रकार हमें सोच-समझकर सब करना चाहिए। घरवालों के साथ क्लेश कभी भी नहीं करना चाहिए। उसी घर में पड़े रहना है फिर क्लेश किस काम का? किसी को परेशान करके खुद सुखी हों ऐसा कभी नहीं होता। हमें तो सुख देकर सुख लेना है। हम घर में सुख दें तभी सुख मिले और वह चाय-पानी भी ठीक से बनाकर दे, वर्ना चाय भी ठीक से नहीं बनायेगी। यह तो कितनी चिंता-संताप! मतभेद ज़रा भी कम नहीं होता फिर भी मन में समझते हैं कि मैंने कितना धर्म किया! अरे, घर में मतभेद टला? कम भी हुआ है? चिंता कम हुई? कुछ शांति आई? तब कहता है कि नहीं, पर मैंने धर्म तो किया न? अरे, तु किसे धर्म कहता है? धर्म से तो भीतर शांति होती है। आधि-व्याधि-परेशानी नहीं हो, उसका नाम धर्म ! स्वभाव (आत्मा) की ओर जाना धर्म कहलाता है। यह तो क्लेश परिणाम बढ़ते ही रहते हैं! वाइफ के हाथ से अगर पंद्रह-बीस इतनी बड़ी काँच की डिश और ग्लास-वेयर (काँच के बर्तन) गिरकर फूट जाएँ तो? उस वक्त तुम्हें कोई असर होता है क्या? पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार वह सोफा तो दस-बीस हज़ार का होगा, उसके लिए झगड़ा कैसा? जिसने फाड़ा हो उसके प्रति द्वेष होता है। अरे मुए, फेंक आ। जो चीज़ घर में झगड़ा खड़ा करे, उस चीज़ को बाहर फेंक आ। जितना समझ में आता है उतनी श्रद्धा बैठती है। उतना ही वह फल देती है, मदद करती है। श्रद्धा नहीं बैठे तो वह मदद नहीं करती। इसलिए समझकर चलो तो अपना जीवन सुखी हो और उनका भी सुखी हो। अरे! आपकी पत्नी आपको पकौड़े और जलेबियाँ बनाकर नहीं देती? प्रश्नकर्ता : बनाकर देती हैं न! दादाश्री : हाँ तो फिर? उसका उपकार नहीं मानना चाहिए? वह हमारी पार्टनर (अर्धांगिनी) है, उसमें उसका क्या उपकार ऐसा कहते हैं। हम पैसे लाते हैं और वह यह सब कर देती है, उसमें दोनों की पार्टनरशिप (साझेदारी) है। बच्चे भी पार्टनरशिप में हैं, उस अकेली के थोड़े हैं? उसने जन्म दिया तो क्या उस अकेली के हैं? बच्चे दोनों के होते हैं। दोनों के हैं या उस अकेली के? प्रश्नकर्ता : दोनों के। दादाश्री : हाँ। क्या पुरुष बच्चे को जन्म देनेवाले थे? अर्थात् यह जगत समझने जैसा है! कुछ मामलों में बिलकुल समझने जैसा है। और ज्ञानीपुरुष वह बात समझाते हैं। उन्हें कुछ लेना-देना नहीं होता। इसलिए वे समझाते हैं कि भाई, यह अपने हित में है। फिर घर में क्लेश कम होता है, तोड़फोड़ भी कम होती है। कृष्ण भगवान ने कहा है, बुद्धि दो प्रकार की है, अव्यभिचारिणी और व्यभिचारिणी। व्यभिचारिणी अर्थात दख ही देती है और अव्यभिचारिणी बुद्धि, सुख ही देती है। दु:ख में से सुख खोज निकालती है। और यह तो बासमती चावल में कंकर मिलाकर खाते हैं। यहाँ अमरीका में खाने का कितना अच्छा ! और शुद्ध घी मिलता है, दही मिलता है, कितना अच्छा भोजन ! ज़िन्दगी सरल है फिर भी जीवन जीना नहीं आता, इसलिए मार खाते हैं न लोग! खुद को दु:ख होता है इसलिए कुछ बड़बड़ाये बगैर रहता नहीं न! यह रेडियो बजे बगैर रहता ही नहीं ! दुःख हुआ कि रेडियो शुरू, इसलिए उसे (वाइफ को) दुःख होता है। तब फिर वह क्या कहेगी? हाँ, जैसे तुम्हारे हाथों तो कभी कुछ टूटता ही नहीं! यह समझने की बात है कि हमसे भी डिशें गिर जाती हैं न! उसे हम कहें कि तू फोड़ डाल तो नहीं फोड़ेगी। फोड़ेगी कभी? वह कौन फोड़ता होगा? इस वर्ल्ड में कोई मनुष्य एक डिश भी फोड़ने की शक्ति नहीं रखता। यह तो सब हिसाब बराबर हो रहा है। डिशे टूटने पर हमें पूछना चाहिए कि तुम्हें लगा तो नहीं है न? अगर सोफे के लिए झगड़ा होता हो तो सोफे को बाहर फेंक दो। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार हमारे लिए हितकारी क्या है इतना तो सोचना चाहिए न ! ब्याहे उस दिन का आनंद याद करें, वह हितकारी या विधुर हुए, उस दिन का शौक़ याद करें, वह हितकारी ? हमें तो ब्याह के समय ही विधुर होने का विचार आया था ! तब व्याहते समय नया साफ़ा बाँधा था। बाद में साफा खिसका तो अंदर विचार आया कि यह ब्याहने तो लगे हैं, दोनों का मिलन हो रहा है लेकिन दो में से एक को वैधव्य आएगा ही! प्रश्नकर्ता उतनी उम्र में आपको ऐसे विचार आए थे? : दादाश्री : हाँ, क्या ऐसा विचार नहीं आएगा? एक पहिया तो टूटेगा न? शादी हुई है तो वैधव्य आए बगैर नहीं रहेगा। प्रश्नकर्ता: पर व्याहते समय तो सिर पर शादी का जोश सवार होता है, कितना मोह होता है! उसमें ऐसा वैराग्य का विचार कहाँ आता है ? दादाश्री : पर उस समय विचार आया कि विवाह हुआ और बाद में वैधव्य तो आएगा। दो में से एक को तो वैधव्य आएगा, या तो उनको आएगा या तो मुझे आएगा। सभी की मौजूदगी में, सूर्यनारायण की साक्षी में, पंडितजी की साक्षी में शादी की। उस समय पंडितजी ने कहा था कि 'समय वर्ते सावधान', तब तुझे सावधान होना भी नहीं आता? समय के अनुसार सावधान होना चाहिए। पंडितजी कहते हैं कि 'समय वर्ते सावधान', तब पंडितजी समझता है, मगर शादी करनेवाला क्या समझेगा? सावधान का अर्थ क्या है? बीवी उग्र हो जाए तब तू ठंडा हो जाना, सावधान हो जाना। 'समय वर्ते सावधान' यानी जैसा समय आए वैसा होकर सावधान रहने की ज़रूरत होती है। तभी संसार में शादी करनी चाहिए। वह उछले और हम भी उछलने लगें तो असावधानी कहलाएगी। वह उछले तब हमें शांत रहना है। सावधान रहने की ज़रूरत नहीं है? हम तो सावधान रहे थे। दरार पड़ने नहीं दी। दरार होने लगे तो तुरंत वेल्डिंग कर देते थे । ८ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता: क्लेश होने का मूल कारण क्या है? दादाश्री : भयंकर अज्ञानता ! उसे संसार में जीना नहीं आता, लड़के का बाप होना नहीं आता, पत्नी का पति होना नहीं आता। जीवन जीने की कला ही नहीं आती। ये तो सुख होने पर भी सुख नहीं भोग सकते। प्रश्नकर्ता: पर क्लेश पैदा होने का कारण स्वभाव मेल नहीं खाता, इसलिए? दादाश्री : अज्ञानता है इसलिए संसार का अर्थ ही यही कि किसी का स्वभाव किसी से मिलता ही नहीं। यह ज्ञान प्राप्त हो उसके पास एक ही रास्ता है, 'एडजस्ट एवरीव्हेयर'। जहाँ क्लेश होता है वहाँ भगवान का वास नहीं रहता। इसलिए हम लोग ही जैसे भगवान से कहते हैं, 'साहब, आप मंदिर में रहना, मेरे घर मत आना। हम मंदिर ज्यादा बनवायेंगे पर हमारे घर मत आना।' जहाँ क्लेश नहीं हो वहाँ भगवान का निवास निश्चित है, इसकी मैं तुम्हें 'गारन्टी' (जमानत ) देता हूँ। क्लेश हुआ कि भगवान चले जाते हैं। और भगवान चले जाएँ तो लोग हमें क्या कहेंगे, धंधे में कुछ बरकत नहीं रही। अरे, भगवान गए इस कारण बरकत नहीं आती। भगवान अगर रहें तो धंधे में अच्छी बरकत आती है। तुम्हें क्लेश पसंद है ? प्रश्नकर्ता: नहीं। दादाश्री : फिर भी हो जाता है न? प्रश्नकर्ता कभी कभी । : दादाश्री : वह तो दिवाली भी कभी कभी ही आती है न, हर रोज़ थोड़े आएगी? प्रश्नकर्ता: बाद में पंद्रह मिनट में शान्त हो जाता है, क्लेश बंद हो जाता है। दादाश्री : अपने में से क्लेश निकाल दो। जिनके यहाँ घर में क्लेश Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार है वहाँ से मनुष्यता चली जाती है। वैसे बड़े पुण्य से मनुष्य जीवन प्राप्त होता है, वह भी हिन्दुस्तान का मनुष्य! कितने पुण्यवान हो! लेकिन इस पुण्य का भी फिर दुरुपयोग होता है। अपने घर में क्लेश रहित जीवन जीना चाहिए, इतनी कुशलता तो हम में होनी चाहिए। दूसरा कुछ नहीं आए तो उन्हें समझाना चाहिए कि 'क्लेश होगा तो हमारे घर में से भगवान चले जाएंगे। इसलिए तू ठान ले कि हमें क्लेश नहीं करना है।' और हम (घर के सदस्य) भी तय करें कि क्लेश नहीं करना है। तय करने के बाद क्लेश हो जाए तो समझना कि यह हमारी सत्ता के बाहर हुआ है। इसलिए वह क्लेश करता हो तो भी हमें ओढ़कर सो जाना है। वह भी थोड़ी देर बाद सो जाएगा। लेकिन अगर हम भी उनसे बहस करें तो? क्लेश नहीं हो ऐसा निश्चय करो न ! तीन दिन के लिए तो निश्चय करके परिणाम देखो! प्रयोग करने में क्या हर्ज है? तीन दिन का उपवास करते हैं न स्वास्थ्य के खातिर? वैसे यह भी तय करके देखो। घर में हम सब मिलकर तय करें कि 'दादा बात करते हैं वह बात हमें पसंद आई है, इसलिए हम आज से क्लेश छोड़ दें।' फिर देखो। प्रश्नकर्ता : यहाँ अमरीका में औरतें भी नौकरी करती हैं न, इसलिए औरतों को ज़रा ज्यादा पावर (रौब) आ जाता हैं, इसलिए हसबन्ड-वाइफ में ज्यादा किट-किट होती है। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दीवार से टकराएगा। वह ऐसा रौब मारे और वैसा रौब मारे पर हमें कुछ असर न हो तो उसका सारा पावर दीवार से टकराकर फिर उसको ही वापिस लगेगा। प्रश्नकर्ता : आपके कहने का मतलब है कि हमें औरतों की ऐसी बातों को सुननी ही नहीं चाहिए। दादाश्री : सुनो, सब ध्यान से सुनो, हमारे हित की बात हो तो सब सुनो और पावर का टकराव हो उस वक्त मौन धारण कर लो। हम देख लें कि कितना पावर का नशा किया है। उस नशे के अनुसार ही पावर इस्तेमाल करेगी न? प्रश्नकर्ता (स्त्री): ठीक है। उसी प्रकार जब पुरुष भी व्यर्थ पावर दिखाएँ तब? दादाश्री : तब हमें ज़रा ध्यान रखना है। आज थोड़े बहके हैं ऐसा मन में कहना, मुँह पर कुछ मत कहना। प्रश्नकर्ता : हाँ... नहीं तो ज्यादा बहकेंगे। दादाश्री : 'आज बहक गये है', ऐसा कहती हैं... सचमुच ऐसा नहीं होना चाहिए। कितना सुन्दर... दो मित्र आपस में ऐसा करते हैं क्या? ऐसा करें तब मैत्री टिकेगी क्या? इस प्रकार ये स्त्री-पुरुष दोनों मित्र ही कहलाते हैं अर्थात् मैत्री भाव से घर चलाना है और यह दशा कर डाली! क्या इसलिए लोग अपनी लड़कियाँ ब्याहते होंगे, ऐसा करने के लिए? क्या यह हमें शोभा देता हैं? तुम्हें क्या लगता हैं? यह हमें शोभा नहीं देता। संस्कारी किसे कहते हैं? घर में क्लेश हो, वे संस्कारी कहलाते हैं या क्लेश नहीं हो वे? पहले तो घर में क्लेश ही नहीं होना चाहिए और अगर होता हो तो उसे रोक लेना चाहिए। थोड़ा हो ऐसा हो, हमें लगे कि अभी आग भड़केगी उससे पहले पानी छिड़क कर ठंडा कर देना। पहले की तरह क्लेशयुक्त जीवन जिए तो उसमें क्या लाभ? उसका अर्थ ही क्या? दादाश्री : पावर आए तो अच्छा है न, हमें तो यह समझना है कि अहोहो! बिना पावर के थे, अब पावर आया तो हमें फायदा हुआ! बैलगाड़ी ठीक से चलेगी न? बैलगाड़ी के बैल ढीले हों तो अच्छा या पावरवाले हों तो? प्रश्नकर्ता : पर गलत पावर करे तब गलत चलता है न? पावर सच्चा करती हो तो ठीक है। दादाश्री : ऐसा है न, पावर माननेवाला नहीं हो तो उसका पावर Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ११ क्लेशयुक्त जीवन नहीं होना चाहिए न? क्या ले जाना हैं? घर में साथ में खाना-पीना फिर तक़रार किस बात की? अगर कोई दूसरा, आपके पति के लिए कुछ कहे तो बुरा लगता है कि मेरे पति के बारे में ऐसा कहते हैं और खुद पति से कहती हैं कि तुम ऐसे हो, वैसे हो, ऐसा नहीं होना चाहिए। पति को भी ऐसा नहीं करना चाहिए। तुम्हारे क्लेश से बच्चों के जीवन पर असर होता है। कोमल बच्चे, उन पर असर होता है। इसलिए क्लेश जाना चाहिए। क्लेश मिटे तभी घर के बच्चे भी सुधरते हैं। यह तो बच्चे भी बिगड़ गए हैं। हमें तो यह ज्ञान हुआ तब से, बीस साल से तो क्लेश है ही नहीं, पर उन बीस सालों से पहले भी क्लेश नहीं था। पहले से क्लेश तो हमने निकाल बाहर किया था। यह जगत किसी भी हालत में क्लेश करने जैसा नहीं है। अब आप सोच कर कार्य करना और 'दादा भगवान' का नाम लेना । मैं भी 'दादा भगवान' का नाम लेकर सभी कार्य करता हूँ न ! 'दादा भगवान' का नाम लोगे तो तुरन्त ही तुम्हारी धारणा अनुसार हो जाएगा। पति-पत्नी में मतभेद हमें तो मूलतः क्रोध- - मान-माया लोभ जाएँ, मतभेद कम हों, ऐसा चाहिए। हमें यहाँ पूर्णत्व प्राप्त करना है, प्रकाश फैलाना है। यहाँ कहाँ तक अंधेरे में रहना ? आपने क्रोध मान-माया-लोभ जैसी निर्बलताएँ, मतभेद देखे हैं? प्रश्नकर्ता: बहुत । दादाश्री : कहाँ, कोर्ट में? प्रश्नकर्ता: घर पर कोर्ट में, सब जगह.... दादाश्री : घर में क्यों? दो-चार पाँच बेटियाँ ऐसा तो कुछ है नहीं । आप तीन जने, वहाँ मतभेद क्यों? १२ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता: नहीं, पर तीन जनों में ही अनेकों मतभेद हैं। दादाश्री : तीन में भी? ऐसा ! प्रश्नकर्ता: अगर जिन्दगी में कॉन्फलिक्ट (झगड़े) नहीं होते, तो जिन्दगी का मजा नहीं आता ! दादाश्री : अहोहो मज़ा इससे आता है? तब तो फिर रोज़ाना ही करो ना ! यह किसकी खोज है? यह किस दिमाग़ की खोज है? फिर तो रोज़ मतभेद होना चाहिए, कॉन्फलिक्ट का मज़ा लेना हो तो । प्रश्नकर्ता: रोज़ तो अच्छा नहीं लगता। .... दादाश्री : ऐसा तो लोग खुद के बचाव के लिए कहते हैं। मतभेद सस्ता होता है या महँगा ? कम मात्रा में या अधिक मात्रा में? प्रश्नकर्ता: कम भी होता हैं और अधिक भी होता है। दादाश्री : कभी दिवाली और कभी होली ! उसमें मज़ा आता है या मज़ा जाता है? प्रश्नकर्ता: वह तो संसार चक्र ही ऐसा है। दादाश्री : नहीं, लोगों को बहाने बनाने के लिए यह अच्छा हाथ लगा है। संसार चक्र ऐसा है, ऐसा बहाना बनाते हैं पर यूँ नहीं कहते कि मेरी कमज़ोरी है। प्रश्नकर्ता: कमज़ोरी तो है ही । कमज़ोरी है तभी तो तकलीफ होती है न! हैं न! दादाश्री : हाँ बस, लोग संसारचक्र कहकर उसे ढकना चाहते हैं। इसलिए ढकने के कारण वह कमज़ोरी वैसी ही रहती है। वह कमज़ोरी क्या कहती है ? जब तक मुझे पहचानोगे नहीं, तब तक मैं नहीं जानेवाली । प्रश्नकर्ता: पर घर में मतभेद तो होता रहता है, यही तो संसार Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : अपने लोग तो हर रोज़ झगड़े करते हैं, फिर भी कहते हैं कि ऐसा तो जीवन में चलता रहता है।' अरे, मगर उससे डिवेलपमेन्ट (प्रगति) नहीं होता। झगड़ा क्यों होता है? किस लिए होता है? ऐसा क्यों बोलते हैं? क्या हो रहा है? उसका पता लगाना पड़ेगा। घर में कभी मतभेद होता है तब क्या दवाई लगाते हो? दवाई की बोतल रखते हो? प्रश्नकर्ता : मतभेद की कोई दवाई नहीं है। दादाश्री : हे! क्या कहते हो? तब फिर आप इस कमरे में चुप, पत्नी उस कमरे में चुप, ऐसे रूठ कर सोये रहना? बगैर दवाई लगाये? फिर वह किस तरह मिट जाता होगा? घाव भर जाता होगा न? मुझे यह बताओ कि दवाई लगाये बगैर घाव कैसे भर जाएगा? यह तो सुबह तक भी घाव नहीं भरता। सवेरे चाय का कप देते समय ऐसे पटकती है। आप भी समझ जाते हो कि अभी रात का घाव भरा नहीं है। ऐसा होता है कि नहीं होता? यह बात कुछ अनुभव से बाहर की थोडी है? हम सभी समान ही हैं। अर्थात् ऐसा क्यों हुआ कि अभी (सुबह तक) भी मतभेद का घाव भरा नहीं? पर रोज रोज वह घाव वैसा ही रहता है, भरता ही नहीं। इसलिए घाव नहीं होने देने चाहिए। क्योंकि अभी उसे दबाया हो, तो जब हमें बुढ़ापा आयेगा तब पत्नी हमें दबायेगी। अभी तो सोचती है कि इसमें शक्ति है, इसलिए थोड़े समय चला लेगी। फिर उसकी बारी आई तब हमें समझा देगी। इसके बजाय व्यवहार ऐसा रखना कि हमें प्रेम करे, हम उसे प्रेम करें। भूलचूक तो सभी की होती ही है न। भूलचूक नहीं होती? भूलचूक होने पर मतभेद क्यों करें? मतभेद करना हो तो किसी बलवान से जाकर झगड़ना ताकि हमें तुरन्त जवाब मिल जाए। यहाँ पर तुरन्त जवाब नहीं मिलेगा कभी। इसलिए दोनों समझ लेना और मतभेद मत होने देना। यदि मतभेद खड़ा हो तो कहना कि दादाजी क्या कहते थे? ऐसा क्यों बिगाड़ते हो? मत ही नहीं रखना चाहिए। अरे! दोनों ने शादी की फिर मत अलग कैसा? दोनों ने शादी की, फिर भी मत अलग रखते होंगे? प्रश्नकर्ता : नहीं रखना चाहिए पर रहता है। दादाश्री: तब हमें (अपना मत) छोड देना है। अलग मत रखा जाता है कहीं? वर्ना शादी नहीं करनी थी। शादी की है तो एक हो जाओ। यह जीवन जीना भी नहीं आया! व्याकुलता से जीते हो! अकेले हो? पूछे तो कहता है, 'नहीं, शादी-शुदा हूँ'। वाइफ है फिर भी तेरी व्याकुलता नहीं मिटी! क्या व्याकुलता नहीं जानी चाहिए? यह सब मैंने सोच लिया था। यह सब लोगों को नहीं सोचना चाहिए? बहुत बड़ा विशाल जगत् है पर यह जगत् अपने रूम के अन्दर है ऐसा ही मान लिया है, और वहाँ पर भी अगर जगत् मानता हो तो अच्छा, पर वहाँ भी वाइफ के साथ लट्ठबाजी करता है! प्रश्नकर्ता : दो बर्तन हों तो आवाज़ होती ही है और फिर शांत हो जाती है। दादाश्री : आवाज़ हो तो मज़ा आता है? 'ज़रा भी अक्ल नहीं' ऐसा भी कहती है। प्रश्नकर्ता : वह तो फिर यह भी कहती है न कि मुझे आपके सिवा दूसरा कुछ अच्छा नहीं लगता। दादाश्री : हाँ, ऐसा भी बोलती है! प्रश्नकर्ता : पर बर्तन घर में खड़बड़ेंगे (टकरायेंगे) ही न? दादाश्री : रोज़ रोज़ बर्तन खड़बड़े तो कैसे अच्छा लगेगा? वह तो समझता नहीं है इसलिए चलता है। जाग्रत हो उसे तो एक ही मतभेद हो तो रातभर नींद नहीं आये! इन बर्तनों (मनुष्यों) को तो स्पंदन हैं, इसलिए रात को सोते-सोते भी स्पंदन होते रहते हैं कि 'ये तो ऐसे हैं. टेढ़े हैं, उलटे हैं, नालायक हैं, निकाल बाहर करने जैसे हैं।' और उन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार बर्तनों को कुछ स्पंदन हैं? हमारे लोग बिना समझे 'हाँ' में 'हाँ' मिलाते हैं कि दो बर्तन साथ में होंगे तो खड़बड़ेंगे! हम क्या बर्तन हैं कि हम टकरायेंगे? इस 'दादा' को किसी ने कभी टकराव में नहीं देखा होगा! सपना भी नहीं आया होगा ऐसा!! टकराव क्यों? टकराव तो अपनी जिम्मेदारी पर है। क्या यह दूसरे की जिम्मेदारी है? चाय जल्दी नहीं आई हो और हम टेबल तीन बार ठोकें इसकी जिम्मेवारी किसकी? इसके बजाय हम चुपचाप बैठे रहें। चाय मिली तो ठीक वर्ना हम तो चले ऑफिस। क्या गलत है? चाय का भी कोई समय होगा न? यह संसार नियम के बाहर तो नहीं होगा न? इसलिए हमने कहा है कि 'व्यवस्थित' (साईटिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स)! समय होगा तो चाय मिलेगी। तुम्हें ठोकना नहीं पड़ेगा। तुम स्पंदन खड़े नहीं करोगे तो भी चाय आयेगी और स्पंदन खडे करोगे तब भी आएगी। पर स्पंदनों का हिसाब वाइफ के बहीखाते में जमा होगा कि उस दिन आप टेबल ठोक रहे थे न ! घर में वाइफ के साथ मतभेद हो तब उसका समाधान करना नहीं आता, बच्चों के साथ मतभेद हो तब उसका समाधान करना नहीं आता और उलझता रहता है। प्रश्नकर्ता : पति तो ऐसा ही कहेगा न कि 'वाइफ' समाधान करे. मैं नहीं करूंगा। दादाश्री : अर्थात् 'लिमिट' (मर्यादा) पूरी हो गई। 'वाइफ' समाधान करे और हम नहीं करें तब हमारी लिमिट पूरी हो गई। (सच्चा) पुरुष तो ऐसा कहे कि 'वाइफ' खुश हो जाए और ऐसा करके अपनी गाड़ी आगे ले जाए। और आप तो पंद्रह-पंद्रह दिन, महीना-महीना भर गाड़ी वहीं की वहीं, आगे ही नहीं बढ़ती। जब तक सामनेवाले के मन का समाधान नहीं होगा तब तक तुम्हें मुश्किल रहेगी। इसलिए समाधान कर लेना। ऐसे घर में मतभेद हो यह कैसे चलेगा? स्त्री कहे 'मैं तुम्हारी हूँ' और पति कहे कि 'मैं तेरा हूँ' फिर मतभेद कैसा? तुम्हारे दोनों के बीच १६ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार 'प्रोब्लम' (समस्या) बढ़ेंगे तो अलगाव पैदा होगा। 'प्रोब्लम' 'सॉल्व' (हल) हों तो फिर अलगाव नहीं होगा। जुदाई के कारण दुःख हैं। और सभी को प्रोब्लम खड़े होते ही हैं, तुम्हारे अकेले को ही होते हों ऐसा नहीं। जितनों ने शादी की उतनों को प्रोब्लम खड़े हुए बिना नहीं रहते। पति को वाइफ के साथ मतभेद होता है। रात को सोते समय उसके साथ झगड़ा हो और लात मारे तब क्या हो? प्रश्नकर्ता : नीचे गिर जाए। दादाश्री : इसलिए उसके साथ एकता रखने की। वाइफ के साथ भी मतभेद होगा, वहाँ भी एकता नहीं रहेगी तब फिर और कहाँ रखोगे? एकता माने क्या कि कभी भी मतभेद नहीं हो। यहाँ पत्नी के साथ तय करना कि तुम्हारे और मेरे बीच मतभेद नहीं होगा, उतनी एकता होनी चाहिए। तुम्हारे बीच ऐसी एकता है? प्रश्नकर्ता : ऐसा कभी सोचा नहीं था। आज पहली बार सोच रहा दादाश्री : हाँ, यह सोचना पड़ेगा न? भगवान कितने सोच-विचार के बाद मोक्ष में गए! बातचीत करो न! इसमें कुछ खुलासा होगा। यह तो संयोगवश इकट्ठा हुए हैं, वर्ना इकट्ठा नहीं होते ! इसलिए कुछ बातचीत करो ! इसमें हर्ज क्या? हम सब एक ही हैं, तुम्हें जुदाई लगती हैं। क्योंकि भेदबुद्धि से मनुष्य को भेद लगता है, बाकी सब एक ही हैं। मनुष्य को भेदबुद्धि होती है न! वाइफ के साथ भेदबुद्धि नहीं होती न? प्रश्नकर्ता : हाँ, वहीं हो जाती है। दादाश्री : यह वाइफ के साथ भेद कौन करवाता है? बुद्धि ही! औरत और उसका पति दोनों पड़ोसी के साथ झगड़ा करते हैं तब कैसे अभेद होकर झगड़ते हैं ! दोनों ऐसे ऐसे हाथ कर के तुम ऐसे और Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार तुम वैसे करते हो। दोनों यूँ हाथ हिलाते हैं तो लोग समझते हैं कि अहोहो! इन दोनों में इतनी एकता! यह इनका 'कोर्पोरेशन' (संगठन) अभेद है, ऐसा हमें लगता है। और बाद में घर में जाकर दोनों झगड़ने लगें तब क्या कहेंगे? घर में वे दोनों झगड़ते हैं कि नहीं झगड़ते? कभी तो झगड़ते हो न? वह कॉर्पोरेशन (पति-पत्नी) अन्दर-अन्दर जब झगड़ते हैं न, 'तू ऐसी और तुम वैसे, तू ऐसी और तुम वैसे...' फिर घर में लड़ाई शुरू, तब तो कहता है, 'तू चली जा, यहाँ से। अपने घर चली जा। मझे तेरी ज़रूरत ही नहीं है।' अब यह नासमझी नहीं है क्या? आपको क्या लगता है? अभेदता टूट गई और भेद उत्पन्न हुआ। अर्थात् वाइफ के साथ भी 'तू तू, मैं मैं' हो जाए। 'तू ऐसी है और तू वैसी है !' तब वह कहेगी, 'तुम कहाँ सीधे हो?' अर्थात् घर में भी 'तू तू, मैं मैं' हो जाता है। तो ऐसे ही चिल्लाते हैं। जाने दो, पति चुनने में मेरी भूल हो गई लगती है। ऐसा पति कहाँ से मिला?' पर अब क्या करें? खूटे से बँधे हैं ! विदेश में 'मेरी' हो तो दूसरे दिन चली जाए, पर इन्डियन (भारतीय) किस तरह चली जाए? खूटी से बँधी। जहाँ झगड़ा ही नहीं हो, ऐसी जगह झगड़ा करें तो फिर झगड़ा करने जैसी जगह पर तो मार ही डालें ये लोग! अरे, अगर पास-पास में बैग रखे हों तब भी कहेगा, 'उठा ले तू अपना बैग यहाँ से।' अरे मुए, शादी-शुदा है, शादी की है, एक हो कि नहीं? और फिर लिखे क्या? अर्धांगिनी लिखता है। अरे! किस जाति का है तू? हाँ, तब अर्धांगिनी क्यों लिखता हैं? उसमें आधा अंग नहीं बैग में सामान रखते वक्त? यह किसका मज़ाक हो रहा है, पुरुषों का या स्त्रियों का? ऐसा नहीं कहते, अर्धांगिनी नहीं कहते? प्रश्नकर्ता: कहते हैं न! जो पहले एक थे, 'हम दोनों एक हैं, हम ऐसे हैं, हम वैसे हैं। यह हमारा ही है। उसका 'मैं और तू' हुआ! इसलिए खींचातानी होती है। वह खींचातानी फिर कहाँ पहुँचती है? आखिर हल्दीघाटी की लड़ाई शुरू हो जाती है। सर्वनाश को निमंत्रित करने का साधन, यह खींचातानी ! इसलिए खींचातानी तो किसी के साथ मत होने देना। रोजाना 'मेरी वाइफ, मेरी वाइफ' कहता है और एक दिन उसने अपने कपडे पति के बैग में रख दिये तब दूसरे दिन पति क्या कहेगा? 'मेरे बैग में तूने साड़ियाँ रखी ही क्यों?' ये आबरूदार की औलाद! उसकी साडियाँ इसे खा गई! लेकिन उनका अलग अस्तित्व है न, इसलिए वाइफ और हसबैंड, वे तो बिज़नेस (रिश्ते) की वजह से एक हुए, कॉन्ट्रेक्ट (करार) है यह । वह अलग अस्तित्व क्या मिट जाता है? अस्तित्व अलग ही रहता है। 'मेरे सन्दूक में साड़ियाँ क्यों रखती हो' ऐसा कहते हैं या नहीं कहते? प्रश्नकर्ता : हाँ, कहते हैं। दादाश्री : यह तो चिल्लाता है कि मेरे बैग में तेरी साड़ियाँ रखीं ही क्यों? इस पर पत्नी कहती है, 'किसी दिन उसके बैग में कुछ रखा दादाश्री : और ऐसे मुकर जाएँ फिर। स्त्रियाँ दखल नहीं करती। स्त्रियों के बैग में यदि हमारे कपड़े रखे हों तो वह दख़ल नहीं करती। और यहाँ तो भारी अहंकार ! बिच्छू की तरह यों डंक मारे। जरा छूए तो मार दे तुरन्त। यह मेरी आपबीती कहता हूँ ताकि आप सबकी समझ में आए कि इन पर ऐसी बीती होगी। आप ऐसे ही सीधे कबूल नहीं करोगे, पर मैं कबूल कर लेता हूँ। प्रश्नकर्ता : आप बोले इसलिए हमें अपना सब याद आ जाता है और कबूल कर लेते हैं। दादाश्री : नहीं, तुम क़बल नहीं करोगे लेकिन मैं क़बूल कर लँगा कि मुझ पर बीती है। आपबीती नहीं बीती? अरे! डंक मारे तब कैसा मारता है, कि 'तू अपने घर चली जा' कहता है। चली जाएगी तब तेरी क्या दशा होगी? वह तो कर्म से बंधी है। कहाँ जाए बेचारी? पर यह जो तू बोलता है वह व्यर्थ नहीं जाएगा। यह दाग़ उसके दिल में होगा, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार १९ बाद में वही दाग़ तुझ पर लगेगा, मुए। ये कर्म भुगतने होंगे। वह तो मन में समझता है कि अब कहाँ जानेवाली है ?! ऐसा नहीं बोलना चाहिए। अगर ऐसा बोलते हों तो वह भूल ही कहलाएगी। सभी ने थोड़े बहुत ताने तो दिये होंगे कि नहीं? प्रश्नकर्ता: हाँ, दिये थे। सभी ने दिये हैं, उनमें अपवाद नहीं । कम-ज्यादा हो पर अपवाद नहीं होगा। दादाश्री : ऐसा है सब । अब इन सबको सयाने बनाने हैं। बोलिए अब। ये किस प्रकार सयाने होंगे? देखो फ़जीहत, फ़जीहत! मुँह जैसे एरंडी का तेल पिया हो ऐसा हो गया हो ! मजेदार दूधपाक और अच्छी-अच्छी रसोई खाएँ फिर भी मुँह एरंडी का तेल पिया हो, ऐसा लगता है। एरंडी का तेल तो महँगा हो गया है, कहाँ से लाकर पियें? यह तो यूँ ही, एरंडी का तेल पिया हो ऐसा मुँह लिए फिरता है ! प्रश्नकर्ता : घर में मतभेद दूर करने के लिए क्या करें? दादाश्री : पहले मतभेद क्यों होता है, इसका पता लगाओ। कभी ऐसा मतभेद होता है कि, एक लड़का और एक लड़की है, दोनों लड़के क्यों नहीं, ऐसा मतभेद होता है ? प्रश्नकर्ता: नहीं, वैसे छोटी-छोटी बातों में मतभेद होता है। दादाश्री : अरे, वह तो इगोइज़म (अहंकार) है। इसलिए वह कहे कि 'ऐसा है', तब कहना, 'आपकी बात ठीक है।' फिर कुछ नहीं होगा। लेकिन हम फिर अपनी अक्ल बीच में लाते हैं। अक्ल से अक्ल लड़ती है, इसलिए मतभेद होता है। प्रश्नकर्ता : 'आपकी बात ठीक है' ऐसा मुँह से बोलने के लिए क्या करना चाहिए? ऐसा बोल नहीं पाते, वह अहम् कैसे दूर करें ? दादाश्री : ऐसा बोल नहीं पाते, सत्य कहते हो। इसके लिए थोड़े दिन प्रेक्टिस करनी होगी। यह जो में करता हूँ वह उपाय करने के लिए पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार २० थोड़े दिन प्रेक्टिस करो न! फिर वह फिट हो जाएगा, एकदम से नहीं होगा। प्रश्नकर्ता : मतभेद क्यों होते हैं? इसकी वजह क्या ? दादाश्री : मतभेद हुआ अर्थात् वह समझती है कि मैं अक्लमंद और यह समझता है मैं अक्लमंद हूँ। अक्ल के ठेकेदार आए ! बेचने जाएँ तो चार आने भी नहीं आएँ! इसके बजाय हम सयाने हो जाएँ, उसकी अक्ल को हम देखा करें कि अहोहो... कैसी अक्लमंद है ! तब वह ठंडी हो जाएगी। पर हम भी अक्लमंद और वह भी अक्लवाली, अक्ल ही जहाँ लड़ने लगे वहाँ क्या हो? तुम्हें मतभेद ज्यादा होता है कि उन्हें ज्यादा होता है? प्रश्नकर्ता: उन्हें ज्यादा होता है। दादाश्री : मतभेद यानी क्या? मतभेद का अर्थ तुम्हें समझाता हूँ। यह रस्सा-कशी का खेल होता है न, देखा है तुमने ? प्रश्नकर्ता: हाँ। दादाश्री : दो-चार आदमी इस ओर खींचते हैं और दो-चार आदमी उस ओर खींचते हैं। मतभेद अर्थात् रस्साकशी। इसलिए हमें देखना है कि घर में बीवी बहुत ज़ोर से खींच रही है और हम भी ज़ोर से खींचेंगे तब फिर क्या होगा ? प्रश्नकर्ता टूट जाएगा। दादाश्री : और टूट जाने पर गाँठ लगानी पड़ती है। तब गाँठ लगाकर चलाना पड़ता है, इससे तो साबुत रखें, उसमें क्या हर्ज है? इसलिए जब वह बहुत खींचे न, तब हमें छोड़ देना है। प्रश्नकर्ता: दो में से छोड़े कौन? दादाश्री समझदार, जिसमें अक्ल ज्यादा है वह छोड़ दे और Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार कमअक्ल खींचे बगैर रहेगा ही नहीं! इसलिए हमें, अक्लमंद को छोड़ देना है और वह भी एकदम नहीं छोड़ना। एकदम छोड़ने से सामनेवाला गिर पड़ेगा। इसलिए धीरे-धीरे, धीरे-धीरे से छोड़ना। इसलिए मेरे साथ कोई खींचने लगे तब मैं धीरे-धीरे छोड़ देता हूँ। वर्ना गिर पड़ेगा बेचारा। अब तुम छोड़ दोगे ऐसे? अब छोड़ना आएगा? छोड़ दोगे न? वर्ना रस्सा गाँठ मारकर चलाना पड़ेगा। रोज़ रोज़ गाँठ लगाना यह क्या अच्छा लगता है? और फिर रस्सा तो चलाना ही पड़ेगा न? तुम्हें क्या लगता है? घर में मतभेद होता होगा? ज़रा-सा भी नहीं होना चाहिए! घर में अगर मतभेद होता है तो यू आर अनफिट (आप अयोग्य हो)। अगर हसबैन्ड (पति) ऐसा करे तो वह अनफिट फोर हसबैन्ड (पति होने के लिए लायक नहीं है) और वाइफ (पत्नी) ऐसा करे तो अनफिट फोर वाइफ (पत्नी होने के लिए लायक नहीं है)। प्रश्नकर्ता : पति-पत्नी के झगड़ों का संतानों पर क्या असर होता पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार 'क्या दिक्कत है तुमको? मुझे बताओ कि तुम्हें औरत पसंद ही नहीं हैं? वास्तविकता क्या है मुझे बताओ।' तब वे कहते हैं, 'नहीं, हमें शादी नहीं करनी।' मैंने पूछा, 'क्यों?' तब बोले, 'शादी में सुख नहीं है, यह हमने देख लिया है।' मैंने कहा, 'अभी तुम्हारी उम्र नहीं हुई है और ब्याहे बगैर तुम्हें कैसे मालूम हुआ, कैसे अनुभव हआ?' तब कहते हैं, 'हमारे मातापिता का सुख(!) हम देखते आए हैं।' हम इन लोगों का सख जान गए! इन लोगों को ही सुख नहीं है, तो हम शादी करेंगे तो ज्यादा दुःखी होंगे। यानी ऐसा भी होता है। ऐसा है न, अभी मैं कहूँ कि भाई, इस समय बाहर अंधेरा हो गया है। इस पर यह भाई कहे, 'नहीं, उजाला है।' तब मैं कहूँ, 'भाई, मैं आपको विनती करता हूँ, आप फिर से देखिये न।' तब कहे, 'नहीं, उजाला है।' तब मैं समझें कि इन्हें जैसा दिखता हैं वैसा कहते हैं। मनुष्य की खद की दृष्टि से आगे दृष्टि नहीं जा सकती। इसलिए फिर मैं उसे कह दूँ कि आपके व्यु पोईन्ट (दृष्टिकोण) से आप ठीक कहते हैं। अब मेरे लिए कोई दूसरा काम हो तो बताओ। इतना ही कहूँ, 'यस, यु आर करेक्ट बाय योर व्यु पोईन्ट !' (हाँ, आप अपने दृष्टिकोण से सही हो।) कहकर मैं आगे बढ़ जाऊँ। इनके साथ कहाँ सारी रात बैठा रहूँ? वे तो वैसे के वैसे ही रहनेवाले हैं। इस तरह मतभेद का हल निकाल लेना। मानो कि यहाँ से पाँच सौ फूट दूर हमने एक सुंदर सफेद घोड़ा खड़ा किया है और यहाँ पर प्रत्येक को दिखाकर पूछे कि वहाँ क्या दिख रहा है? कोई गाय कहे, तब हमें उसका क्या करना? हमारे घोड़े को कोई गाय कहे उस घड़ी हम उसे मारें या क्या करें? प्रश्नकर्ता : मारना नहीं। दादाश्री : क्यों? प्रश्नकर्ता : उसकी नजर में गाय दिखाई दी। दादाश्री : हाँ, उसका चश्मा ऐसा है। हमें समझ लेना है कि इस दादाश्री : अहोहो! बहुत बुरा असर होता है। इतना सा बालक हो वह भी ऐसे देखता रहता है। पापा मेरी मम्मी के साथ बहुत झगड़ा करते हैं। पापा ही खराब हैं। पर वह बोलता नहीं। वह समझता है कि बोलूंगा तो मारेंगे मुझे। मन में यह सब 'नोट' करता है, पर घर में ऐसा तूफान देखता है तो फिर मन में गाँठ बाँध लेता है कि 'बड़ा होने पर पापा को पीयूँगा।' हमारे लिए अभी से तय कर लेता है। फिर बडा होने पर पिटाई करता है। ऐसे पीटने के लिए मैंने तुम्हें बड़ा किया?''तब आपको किसने बड़ा किया था?' कहेगा जवाब में! 'अरे, मेरे बाप तक पहुँचा?' तब कहेगा, 'आपके दादा तक पहुँचूँगा।' हमने ऐसा बोलने का अवसर दिया इसलिए न? ऐसी गाँठ बाँधने दें तब हमारी ही भूल है न! घर में झगड़ना किसलिए? इसलिए झगड़ना ही मत ताकि बच्चे भी देखें तो कहें कि पापा कितने अच्छे हैं! लड़के शादी के लिए 'ना, ना' क्यों कहते हैं? मैंने उनसे पूछा कि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार २४ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार बेचारे को नंबर आए हैं। इसलिए उसका कसूर नहीं। इसलिए हम उसे डाँट नहीं सकते। उससे कहें कि भाई, सही है आपकी बात। फिर दूसरे से पछे कि क्या दिखाई देता है? तब कहे. घोडा दिखता है। तब हम समझें कि इन्हें नंबर नहीं है। और तीसरे से पूछे कि क्या दिखता है? वह कहे, 'बड़ा बैल हो ऐसा लगता है।' तब हम उसके चश्मे का नंबर जान जाएँ। नहीं दिखे अर्थात् नंबर है ऐसा समझ लेना। तुम्हें क्या लगता है? आंतरिक मतभेद जो होते हैं, वे बीहेवीअर (वर्तन) में परिणमित होते हैं, वह तो बहुत भयंकर कहलाता है न? दादाश्री : आंतरिक मतभेद न? वे तो बहुत भयंकर! पर मैंने पता लगाया कि इस आंतरिक मतभेद का कोई उपाय हैं? पर किसी शास्त्र में नहीं मिला। फिर मैंने खुद संशोधन किया कि इसका उपाय इतना ही है कि मैं अपना मत छोड़ दूँ, तब कोई मतभेद नहीं रहेगा। मेरा अभिप्राय ही नहीं, आपका अभिप्राय ही मेरा अभिप्राय। अब एकबार मेरा हीराबा (दादाजी की धर्मपत्नी) से मतभेद हो गया। मैं भी फँस गया। मेरी वाइफ को मैं 'हीराबा' कहता हूँ। हम तो ज्ञानीपुरुष हमें तो सभी (उम्र में बड़ी स्त्रीयों) को 'बा' कहना पड़े और बाकी सब लड़कियाँ कहलायें! यानी बात सुनना चाहो तो कहूँ। यह बहुत लम्बी कहानी नहीं है, छोटी बात है। प्रश्नकर्ता : हाँ, कहिए न! दादाश्री : एक दिन मतभेद हो गया था। उसमें उनका कसूर नहीं था, मेरी ही भूल थी। प्रश्नकर्ता : वह तो उनकी हुई होगी पर आप कहते हो कि मेरी भूल हुई थी। दादाश्री : हाँ, पर उनकी भूल नहीं थी, मेरी भूल । मुझे ही मतभेद नहीं चाहिए, उनको तो हो तो भी हर्ज नहीं और नहीं हो तो भी हर्ज नहीं। मुझे मतभेद नहीं करना, इसलिए मेरी ही भूल कहलाएगी न! यह ऐसे किया (कुर्सी पर हाथ मारा) तो कुर्सी को लगा कि मुझे? प्रश्नकर्ता : आपको। दादाश्री : इसलिए मुझे समझना चाहिए न! तब फिर एक दिन मतभेद हुआ। मैं फँस गया। मुझसे वह कहती है, 'मेरे भैया की चार लड़कियाँ ब्याहनी हैं, उनमें यह पहली की शादी है। हम शादी में क्या देंगे?' वैसे ऐसा नहीं पूछती तो चलता। जो भी दे उसकी मैं 'ना' नहीं करता। मुझे पूछा इसलिए मेरी अक्ल के अनुसार चला। उनके जैसी अक्ल मुझ में कहाँ से होती? उन्होंने पूछा इसलिए मैंने कहा कि इस अलमारी में चाँदी के छोटे-छोटे बर्तन पड़े हैं वे दे देना। नये बनवाने के बजाय उनमें से एकाध-दो दे देना।' इस पर उन्होंने मुझे क्या कहा जानते हो? हमारे घर में 'त-त मैं-मैं' जैसा शब्द नहीं निकलता था।'हम-हमारा' ऐसा ही बोलते हैं। अब वे ऐसा बोली कि 'तुम्हारे मामा की लड़कियों की शादी में तो इतने बड़े-बड़े चाँदी के थाल देते हो न!' उस दिन 'मेरातुम्हारा' बोली। वैसे हमेशा 'हमारा' ही कहतीं। मेरे-तुम्हारे के भेद से नहीं कहतीं। मैंने (मन ही मन) कहा, 'आज हम फँस गए।' मैं तुरन्त समझ गया। इसलिए इसमें से निकलने का रास्ता ढूँढने लगा। अब किस प्रकार इसे सुधार लूँ। खून निकलने लगा, अब किस प्रकार पट्टी लगाएँ कि खून बन्द हो जाए! अर्थात् उस दिन तू-तू, मैं-मैं हुई! आपके मामा के लड़के' कहा! यह दशा हई, मेरी नासमझी के कारण ! मैंने सोचा. यह तो ठोकर लगने जैसा हुआ आज तो! इसलिए मैं तुरन्त ही पलट गया! पलटने में हर्ज नहीं। मतभेद हो इससे पलटना अच्छा। तुरन्त ही बदल गया सारा का सारा। मैंने कहा, 'मैं ऐसा नहीं कहना चाहता।' मैं झूठ बोला, मैंने कहा, 'मेरी बात अलग है, आप उल्टा समझी हो। मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। तब कहे, 'तो क्या कहते हो?' तब मैंने कहा, 'यह चाँदी का छोटा बर्तन देना और दूसरे पाँच सौ रुपये नक़द देना। वे उन्हें काम में आएँगे।' Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार 'तुम तो भोले हो। इतना सारा कोई देता है कहीं?' इस पर मैं समझ गया कि हम जीत गए! फिर मैंने कहा, 'तब तुम्हें जितने देने हो उतने देना, चारों लड़कियाँ हमारी बेटियाँ हैं।' तब वे खुश हो गईं। फिर 'देव जैसे हैं' ऐसा कहती हैं! देखो, पट्टी लगा दी (बाजी संभाल ली) न! मैं जानता था कि मैं पाँच सौ कहूँगा तो वे दे दें ऐसी नहीं हैं ! इसलिए हम उन्हें ही अधिकार सौंप दें न! मैं स्वभाव पहचानता था। मैं पाँच सौ = तो वे तीन सौ दे आएँ। इसलिए बोलिए, सत्ता सौंपने में मुझे क्या हर्ज होगा? भोजन के समय किट-किट प्रश्नकर्ता : कढ़ी खारी हो तो खारी कहना ही पड़ेगा न? दादाश्री : फिर जीवन खारा हो जाएगा न! तुम 'खारी' कहकर दूसरे का अपमान करते हो। उसे फैमिलि (परिवार) नहीं कहते। प्रश्नकर्ता : अपनों को ही कहते हैं न, पराये को थोड़े ही कहते घर में किस लिए यह दखल देते हो? मनुष्य की भूल नहीं होती क्या? करनेवाले से भूल होती है कि नहीं करनेवाले से? प्रश्नकर्ता : करनेवाले से। दादाश्री : तब 'कढ़ी खारी है' ऐसी भूल नहीं निकाल सकते। उस कढ़ी को अलग रखकर, दूसरा जो कुछ है वह खा लेना है हमें। पर उनकी आदत है कि ऐसी कोई गलती निकाल कर उन्हें धमकाना। यह उनकी आदत है। पर यह बहन भी कुछ कच्ची माया नहीं। यह अमरीका ऐसा करे तब रशिया वैसा करे। अर्थात् अमरीका-रशिया जैसा हो गया यह तो, कुटुम्ब में, फ़ैमिलि में। इसलिए निरंतर अन्दर कोल्डवोर (शीतयुद्ध) चलता रहता है। ऐसा नहीं, फैमिलि बना दो। मैं तुम्हें समझाऊँगा कि फ़ैमिलि बनकर कैसे रहना! यहाँ तो घर-घर क्लेश है। 'कढ़ी खारी हुई', ऐसा हम न कहें तो नहीं चलेगा? ओपिनियन (अभिप्राय) नहीं दें तो क्या उन लोगों को पता नहीं चलें या हमें कहना ही पड़े? हमारे यहाँ मेहमान आए हों न, तो मेहमानों को भी खाने नहीं दें। हम ऐसे क्यों बनें? वह खायेगी तो क्या उसे पता नहीं चलेगा या हमें ही उसे कहना पड़े? दादाश्री : तो क्या अपनों को ठेस पहुँचाना? प्रश्नकर्ता : कहें तो दूसरी बार ठीक से करेंगे इसलिए। दादाश्री : वह ठीक बनाये या नहीं बनाये वे बातें सब गप हैं। किस आधार पर होता है, यह मैं जानता हूँ। बनानेवाले के हाथ में सत्ता नहीं है और तुम्हारे कहनेवाले के हाथों में भी सत्ता नहीं है। इन सभी सत्ता का आधार क्या है? इसलिए एक अक्षर भी बोलने जैसा नहीं है। तू अब थोड़ा-बहुत समझदार हुआ कि नहीं हुआ? समझदार होगा न? पूर्णरूप से समझदार होना है। घर में वाइफ कहे, 'अरे! ऐसा पति बार-बार मिले।' मुझे आज तक केवल एक बहन ने कहा, 'दादाजी, पति मिले तो यही का यही मिले।' वर्ना ज्यादातर तो मुँह पर (अच्छा) कहती हैं, पर पीछे से इतनी गालियाँ देती हैं। 'मेरे दिल में आज भी वह घाव है', ऐसा कहनेवाली भी एक औरत मिली! बाकी स्त्री को बार-बार टोकटाक, टोकटाक नहीं करना चाहिए। 'सब्जी ठंडी क्यों हो गई? दाल का छौंक ठीक क्यों नहीं किया?' ऐसी किट-किट क्यों करते हो? बारह महीने में एकाध दिन एकाध शब्द कहा हो तो ठीक है पर यह तो रोज़ाना? 'ससुर मर्यादा में तो बह लाज में।' हमें मर्यादा में रहना चाहिए। दाल ठीक नहीं हुई हो, सब्जी ठण्डी हो गई हो, वह सब तो (अपने कर्मों के अधीन) नियमानुसार होता है। अगर बहुत ज्यादा हो जाए और किसी वक्त कहना पड़े तो धीरे से कहना कि 'यह सब्जी रोज़ गर्म होती है तब बहुत मज़ा आता है। इस प्रकार कहें तो वह इशारा समझ जाएगी। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार हमारे यहाँ तो घर में भी किसी को मालूम नहीं कि 'दादा' को यह पसंद नहीं है और यह पसंद है। यह रसोई बनानी क्या रसोई बनानेवाले के हाथ का खेल है? यह तो खानेवाले के 'व्यवस्थित' के हिसाब से थाली में आता है। उसमें दखल नहीं करनी चाहिए। पति चाहिए, पतिपना नहीं २७ शादी करने से पहले लड़की देखते हैं, उसमें हर्ज नहीं, देखो पर सारा जीवन वैसी की वैसी रहनेवाली है तो देखो। वैसी रहेगी क्या? जैसी देखी है वैसी? परिवर्तन हुए बिना रहेगा? फिर परिवर्तन होना वह सहन नहीं होगा, व्याकुलता होने लगती है। फिर कहाँ जाना? आ फँसे भाई, आ फँसे । तब शादी किस लिए? हम बाहर से कमा लाएँ, वह घर का काम करे और हमारा संसार चले, साथ ही धर्म कर सकें इसके लिए शादी करनी है। और बीवी कहती हो कि एक-दो बच्चे तो चाहिए, तो उतना निबटारा ला दो, फिर राम तेरी माया ! पर यह तो फिर स्वामी होने जाते हैं (बीवी पर स्वामित्व जताते हैं)। अरे, स्वामी होने क्यों चला है? तेरे में बरकत तो है नहीं और स्वामी होने चला ! 'मैं तो स्वामी हूँ' कहता है ! बड़ा आया स्वामी! मुँह तो देखो इनका, पर लोग तो स्वामित्व रखते हैं न? गाय का स्वामी हो बैठता है, भैंस का भी, पर गायें भी तुम्हें स्वामी के रूप में स्वीकार नहीं करती। वह तो तुम मन में समझते हो कि यह गाय मेरी है। तुम तो कपास को भी मेरा कहते हो, 'यह मेरा कपास है।' कपास को तो मालूम भी नहीं बेचारे को तुम्हारे होते तो तुम्हें देखते ही बढ़ते और तुम घर जाओ तो नहीं। पर यह कपास तो रात को भी बढ़ता हैं। कपास रात को बढ़ता है कि नहीं बढ़ता ? प्रश्नकर्ता बढ़ता है। दादाश्री : उसको तुम्हारी ज़रूरत नहीं, उसे तो बरसात की ज़रूरत है। बरसात नहीं होती तब सूख जाता है बेचारा ! २८ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता: लेकिन उनको हमारा सब ख्याल नहीं रखना चाहिए? दादाश्री : अहोहो ! बीवी ख्याल रखने के लिये लाये होंगे? प्रश्नकर्ता: इसीलिए तो बीवी को घर लाये हैं न ! दादाश्री : ऐसा है न, शास्त्रकारों ने कहा है कि स्वामित्व जताना नहीं। वास्तव में तुम स्वामी नहीं, तुम्हारी पार्टनरशिप ( साझेदारी) है। यह तो यहाँ व्यवहार में बोला जाता है कि पत्नी और पति, धनी धनीयानी ! मगर वास्तव में पार्टनरशिप ( साझेदारी) है। स्वामी हो इसलिए तुम्हारा हक़-दावा नहीं है। दावा दायर नहीं कर सकते। समझा-समझा कर सब काम करो। प्रश्नकर्ता : कन्यादान किया, दान में कन्या दी, इसलिए फिर हम उसके स्वामी ही हो गए न ? दादाश्री : यह सुसंस्कृत समाज का काम नहीं हैं, यह वाईल्ड (असंस्कृत) समाज का काम है। हमें, सुसंस्कृत समाज को, यह देखना चाहिए कि स्त्री (पत्नी) को ज़रा भी तकलीफ़ न हो । वर्ना तुम सुखी नहीं होगे। स्त्री (पत्नी) को दुःख देकर कोई सुखी नहीं हुआ । और जिस स्त्री (पत्नी) ने पति को कुछ दुःख पहुँचाया होगा, वह स्त्री भी कभी सुखी नहीं हुई! स्वामित्व भाव को लेकर तो वह (पति) सिर पर चढ़ बैठता है। वाइफ के साथ उसकी पार्टनरशिप है, मालिकी नहीं है। प्रश्नकर्ता: अगर वाइफ बोस (मालिक) बन बैठती है उसका क्या करना? दादाश्री : उसमें हर्ज नहीं, वह तो जलेबी, पकौड़े बना कर देती है न । हम कहें कि अहोहो ! तूने तो पकौड़े जलेबी बनाकर खिलाये न ! ऐसा करो तो खुश हो जाएगी, फिर दूसरे दिन ठंडी पड़ जाएगी, अपने आप । इसकी घबराहट मत रखना। वह हम पर सवार कब होगी? अगर Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार उसकी मूंछे निकलें तब सवार होगी। पर क्या मूंछे निकलनेवाली है? कितनी भी समझदार हो फिर भी मूंछे निकलेंगी? बाक़ी एक जन्म तो तुम्हारा हिसाब है उतना चुकाना होगा। दूसरा लम्बा-लम्बा हिसाब होनेवाला ही नहीं। एक भव का हिसाब तो निश्चित ही है, तब फिर हम क्यों न शांत चित होकर रहें? कछ लोग तो मल में ही क्लेशपर्ण स्वभाव के होते हैं। पर कछ लोग तो ऐसे पक्के होते हैं कि बाहर झगड़ा कर आएँ, पर घर में बीवी के साथ झगड़ा नहीं करते। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार अच्छा कमायें, ऐसी भावना भी थी। और वह दु:ख मुक्त होकर सुखी होवे, ऐसी भावना! मैंने कहा, 'क्यों नहीं आऊँगा? तेरे यहाँ पहले आऊँगा।' तब कहने लगा, 'मेरे यहाँ तो एक ही रूम है, आपको कहाँ बिठाऊँगा?' तब मैंने कहा, 'मैं कहीं भी बैलूंगा, मुझे तो एक कुर्सी ही चाहिए, नहीं तो कुर्सी नहीं होगी तब भी मुझे चलेगा। तेरी इच्छा है इसलिए मैं ज़रूर आऊँगा।' फिर मैं तो गया। हमारा कॉन्ट्रेक्ट का व्यवसाय, इसलिए हम उसके घर भी गये, वहाँ चाय भी पी। हमारा किसी से भेदभाव नहीं होता। मैंने कहा, 'अरे, यह एक ही रूम बड़ा है और दूसरा तो संडास के बराबर ही छोटा है।' तब कहे, 'साहब, क्या करे? हम गरीब के लिए इतना बहुत है।' मैंने कहा, 'तेरी वाइफ कहाँ सोती हैं?' तब कहा, 'इसी रूम में, ये बेडरूम (शयनकक्ष) कहो, ये डाईनींग रूम (भोजन कक्ष) कहो, सब ये ही।' मैंने कहा 'अहमद मियाँ, औरत के साथ कुछ झगड़ावगड़ा होता नहीं है क्या?' 'यह क्या बोले? कभी नहीं होता। मैं ऐसा मर्ख आदमी नहीं।' 'मतभेद?' तब कहे. 'क्या कहते हो? नहीं. मतभेद औरत के साथ नहीं। बीवी के साथ मेरी तकरार नहीं होती।' मैंने कहा, 'कभी बीवी गुस्सा करे तब?' तो कहने लगा, 'प्यारी, वहाँ साहब परेशान करता है और ऊपर से तू परेशान करेगी तो मेरा क्या होगा? तो चुप हो जाती है।' एक दिन हम एक मियाँभाई के वहाँ गए थे तब मियाँभाई बीवी को झूला झुला रहे थे! इस पर मैंने पूछा कि, 'आप ऐसा करते हो इससे वह आप पर सवार नहीं हो जाती?' तब उसने कहा कि 'वह क्या सवार होगी, उसके पास कुछ हथियार तो नहीं, कुछ भी नहीं।' मैंने कहा कि, 'हमें तो डर लगता है कि बीवी सवार हो जाएगी तो क्या होगा? इस लिए हम झूला नहीं झुलाते।' तब मियाँभाई ने कहा कि 'यह झला झलाने की वजह आप जानते हो?' वह तो ऐसा हुआ कि १९४३-४४ में हमने गवर्मेन्ट काम का कॉन्ट्रेक्ट रखा था, उसमें चिनाई काम का लेबर कॉन्ट्रेक्ट था। उसने कॉन्ट्रेक्ट ले लिया था। उसका नाम अहमद मियाँ, वह बहुत दिनों से कहते थे कि, साहब मेरे घर आप आईए, मेरी झोपड़ी में आईए। झोंपड़ी कहता बेचारा। बातचीत में बड़े समझदार होते हैं, व्यवहार में अलग बात होगी या नहीं भी होगी, पर बातचीत में जहाँ स्वार्थ नहीं होता वहाँ अच्छा लगता है। वह अहमद मियाँ एक दिन कहने लगा, 'सेठजी, आज हमारे घर आप तशरीफ़ लायें। मेरे यहाँ पधारिए ताकि मेरे बीवी-बच्चे सभी को आनंद हो।' तब ज्ञान-बान तो नहीं था पर विचार बहुत सुन्दर, सभी के प्रति अच्छी भावना थी। अपने यहाँ से कमाता हो तो उसके लिए, कैसे मैंने कहा, 'मतभेद नहीं होता इसलिए झंझट नहीं न?' तो बोला, "नहीं, मतभेद होगा तो वह कहाँ सोयेगी और मैं कहाँ सोऊँगा? यहाँ दोतीन मंज़िलें हों तो मैं जानूँ कि तीसरी मंजिल पर चला जाऊँ। पर यहाँ तो इसी रूम में सोना है। मैं इस करवट सो जाऊँ और वह उस करवट सो जाए फिर क्या मज़ा आएगा? सारी रात नींद नहीं आएगी। पर अब सेठजी मैं कहाँ जाऊँ? इसलिए इस बीवी को कभी दु:ख नहीं देता। बीवी मुझे पीटे तब भी दुःख नहीं दूंगा। मैं बाहर सब के साथ झगड़ा करके आऊँगा, पर बीवी के साथ 'क्लियर' रखने का। वाइफ को कुछ परेशान Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ३१ नहीं करना। खुजली आती हो तब बाहर झगड़ा करते हैं पर घर में नहीं।" बीवी ने सुलेमान से मिठाई लाने को कहा हो, अब सुलेमान को तनख्वाह कम मिलती हो, इसलिए वह बेचारा मिठाई कहाँ से लाये ? सुलेमान से बीवी महीने भर से कहती रहती हो कि 'इन सभी बच्चों को, बेचारों को बहुत इच्छा है। अब तो मिठाई ले आओ।' फिर एक दिन बीवी मन में बहुत अकुलाये तो वह कहता है, 'आज तो लेकर ही आऊँगा, उसके पास जवाब नक़द होता है, जानता है कि जवाब उधार रखूँगा तो गालियाँ देगी। तब फिर कहता है कि 'आज लाऊँगा।' ऐसा कहकर टाल देता है। अगर जवाब नहीं दे तो जाते समय बीवी किटकिट करेगी। इसलिए तुरन्त पोजिटिव (सकारात्मक) जवाब दे देता है। कि ' आज ले आऊँगा।' इसलिए बीवी समझती है कि आज लेकर आएंगे, पर वह आता है और खाली हाथ देखकर बीवी चिल्लाती है। सुलेमान यूँ तो समझ में बड़ा पक्का होता है, इसलिए बीवी को समझा देता है कि, 'मेरी हालत मैं ही जानता हूँ, तुम क्या समझो।' एक-दो वाक्य ऐसे कहता है कि बीवी कहेगी, अच्छा बाद में लाना। पर दस-पंद्रह दिन बाद बीवी फिर से कहती है तो, 'मेरी हालत मैं जानता हूँ।' ऐसा कहता है और बीवी तो मान जाती है। वह कभी झगड़ा नहीं करती। और कई लोग तो उसी समय कहते हैं कि 'तू मुझ पर रोब जमाती है ?' अरे, ऐसा स्त्री के पास नहीं बोलते। उसका मतलब, तू स्वयं बोलता है, 'तू दबा हुआ है।' और माना कि आज रोब जमाती है तो हमें शांत रहना चाहिए। जिसमें निर्बलता हो वह चिढ़ता है। औरंगाबाद में एक हकीम का लड़का आया था। उसने सुना होगा कि दादा के पास कुछ अध्यात्म ज्ञान जानने योग्य है। इसलिए वह लड़का आया। तब मैंने सत्संग की सारी बातें बताई। वैज्ञानिक तरीके से बात की, इसलिए उसके मन में हुआ कियह वैज्ञानिक पद्धति अच्छी है, हमारे सुनने लायक है। आज तक चला, वह जमाने के अनुसार लिखा गया है। जैसा जमाना था ऐसा वर्णन किया है। अर्थात् जमाना जैसे-जैसे बदलता है वैसे ३२ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार वर्णन बदलता जाता है। और पैगंबर साहब यानी क्या? खुदा का पैग़ाम यहाँ लाकर सबको पहुँचाये उसका नाम पैगंबर | फिर मैंने उसका मज़ाक किया, मैंने पूछा कि 'अरे, शादी-वादी की है या ऐसे ही घूम रहा है?' 'शादी की है' कहता है। मैंने कहा, 'कब की? मुझे बुलाया नहीं तूने?' 'दादाजी मेरी आपसे पहचान नहीं थी वर्ना बुलाता उस दिन, शादी हुए छह महीने ही हुए हैं अभी।' उसने बताया। 'नमाज़ कितनी बार पढ़ता है?' 'साहब, पाँचों बार' कहने लगा। अरे, रात को किस प्रकार नमाज़ पढ़ना अनुकूल होगा तीन बजे ? 'करने की ही, उसमें चलेगा ही नहीं, तीन बजे उठकर अदा करने की। छोटी उम्र से ही करता आया हूँ । मेरे फादर हक़ीम साहब भी करते थे।' फिर मैंने पूछा, 'अब तो बीवी आई, अब कैसे करने देगी, तीन बजे?' 'बीवी ने भी मुझसे कहा है, तुम नमाज़ अदा कर लेना।' तब मैंने पूछा, 'बीवी के साथ झगड़ा नहीं होता?" "यह क्या बोले ? यह क्या बोले ?' मैंने कहा, 'क्यों?' 'ओहोहो बीवी तो मुँह का पान ! वह मुझे डाँटे तो चला लूँ, साहब। बीवी की वजह सेतो जीता हूँ, बीवी मुझे बहुत सुख देती है। बहुत अच्छा-अच्छा भोजन पकाकर खिलाती है। उसे दुःख कैसे दिया जाए?' अब इतना समझे तो भी गनीमत । बीवी पर जोर नहीं चलाते। हमें नहीं समझना चाहिए? बीवी का कुछ गुनाह है ? 'वह गाली दे तब भी कुछ हर्ज नहीं। दूसरा कोई गाली दे तो देख लूँ।' देखो! अब इन लोगों को कितनी क़ीमत है ! दूसरों की भूल निकालने की आदत प्रश्नकर्ता: भूल निकालें तब उसे बुरा लगता है। और नहीं निकालें तब भी बुरा लगता है। दादाश्री : नहीं, नहीं, बुरा नहीं लगता है। हम भूल नहीं निकालें तो वह कहेगी, 'कढ़ी खारी थी फिर भी नहीं कहा!' तब हम कहें, 'तुम्हें पता चलेगा न, मैं क्यों कहूँ?' पर यह तो कढ़ी खारी हुई तो मुँह बिगाड़े, कढ़ी बहुत खारी है ! अरे ! किस बिरादरी के मनुष्य हो? इसे पति के रूप में कैसे रख सकते हैं? ऐसे पति को निकाल बाहर करना चाहिए। ऐसे Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ३३ कमजोर पति ! क्या पत्नी नहीं समझती कि तू उसे समझाने निकला है! उसके साथ माथापच्ची करता है! फिर उसके हृदय पर घाव नहीं होगा क्या? मन में कहेगी, 'क्या मैं यह नहीं समझती? यह तो मुझ पर तीर चलाता है। यह कलमुँहा हर रोज़ मेरी गलतियाँ निकालता रहता है।' तो हमारे लोग जान-बूझकर ये भूलें निकालते हैं, इससे संसार ज्यादा बिगड़ता जा रहा है। तुम्हें क्या लगता है? इसलिए थोड़ा हम सोचें तो क्या हर्ज है? प्रश्नकर्ता : गलतियाँ निकालें तो फिर उनसे फिर से गलती नहीं होगी न? दादाश्री : अहोहो, अर्थात् उपदेश देने के लिए! तब भूल निकालने में हर्ज नहीं, मैं आपसे क्या कहता हूँ भूलें निकालो, पर वह उसे उपकार समझे तब भूल निकालो। वह कहे कि अच्छा हुआ आपने मेरी भूल बताई। मुझे तो मालूम ही नहीं। बहन, तुम इनका उपकार मानती हो? में शक्कर डालो साहब!' तब दादा (भाव से) डाल देते हैं। (चाय मीठी है, मीठी है ऐसा भीतर रखकर एडजस्टमेन्ट ले लेते हैं।) अर्थात् बगैर शक्कर चाय आए तब पी जाते हैं बस। हमें तो कुछ बखेडा ही नहीं न! और फिर वे शक्कर लेकर आए। मैंने पूछा, 'भाई, शक्कर क्यों लाया? ये चाय के कप-प्लेट ले जा!' तब बोला, 'चाय फीकी थी फिर भी आपने शक्कर नहीं माँगी!' मैंने कहा, 'मैं क्यों कहूँ? तुम्हारी समझ में आए ऐसी बात है।' एक भाई से पूछा, 'घर में कभी पत्नी की भूल निकालते हो?' तब बोला, 'वह है ही भूलवाली, इसलिए भूल निकालनी ही पड़ेगी न!' देखो, यह अक्ल का बोरा ! बेचने जाएँ तो चार आने भी नहीं आए और मान बैठा है कि मेरी पत्नी भूलवाली है, लो! प्रश्नकर्ता : कई लोग अपनी भल समझते हैं, पर सुधारते नहीं हों तब? दादाश्री : वे कहने से नहीं सुधरनेवाले। कहने पर तो और उल्टा चलते हैं। वह तो किसी समय जब सोच रहा हो तब हम बतायें कि यह गलती कैसे सुधरेगी! आमने-सामने बातचीत करो, ऐसे फ्रेन्ड की तरह। वाइफ के साथ फ्रेन्डशिप (मित्रता) रखनी चाहिए। नहीं रखनी चाहिए? दूसरों के साथ फ्रेन्डशिप रखते हो न! फ्रेन्ड के साथ ऐसा क्लेश करते हो रोज़-रोज? उसकी भूलें डिरेक्ट (प्रत्यक्ष रूप से) नहीं बताते। क्योंकि फ्रेन्डशिप टिकानी है। और यह तो (उसके साथ) शादी की है, कहाँ जानेवाली है? ऐसा हमें शोभा नहीं देता। जीवन ऐसा बनाओ कि बगीचा लगे। घर में मतभेद नहीं हो, कुछ नहीं हो, घर बगीचा समान लगे। और घर में किसी को थोड़ी भी दख़ल नहीं होने दें। छोटे बच्चे की भी भूल, अगर वह जानता हो तो नहीं दिखा सकते। नहीं जानता हो तो ही भूल दिखा सकते हैं। वह तो व्यर्थ पागलपन था, स्वामित्व सिद्ध करने का। अर्थात् स्वामित्व नहीं दिखाना चाहिए। स्वामित्व तो तब कहलाएगा जब सामनेवाला प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : तब फिर उसका क्या अर्थ? जो भल वह जानती हो, तुम्हें वह भूल उसे बताने का क्या अर्थ है? उन्हें स्त्रियाँ कलमुँहा कहती हैं, कि 'कलमुँहा जब देखो तब बोलता रहता है।' जिस भूल को वह जानती हो, उस भूल को हमें नहीं निकालना चाहिए। दूसरा कुछ भी हुआ हो, या कढ़ी खारी हुई हो या फिर सब्जी बिगड़ गई हो, जब वह खायेगी तब उसे पता चलेगा या नहीं? इसलिए हमें कहने की ज़रूरत नहीं रहती पर जो भूल उसे मालूम नहीं हो वह हम बतायें तब वह उपकार मानेगी। बाक़ी वह जानती हो वह भूल दिखाना तो गुनाह है। हमारे लोग ही निकालते हैं। मैं तो सांताक्रुज में तीसरी मंजिल पर घर में बैठा होऊँ और चाय आती है। तब किसी दिन जरा शक्कर डालना भूल गए हों तब पी जाता हूँ और वह भी दादा के नाम पर। भीतर दादा से कहता हूँ कि 'चाय Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रतिकार नहीं करे तब समझना कि स्वामित्व है। यह तो तुरन्त प्रतिकार करते हैं। घर में तो स्त्री के साथ हर कोई किट-किट करता है, यह वीर की निशानी नहीं। वीर तो कौन कहलाता है, जो स्त्री को अथवा संतानों को, किसी को भी तकलीफ नहीं देता। बच्चा जरा उल्टा बोले पर मातापिता बिगड़ें नहीं तब सही कहलाए। बच्चा तो आखिर बच्चा है। तुम्हें क्या लगता है? न्याय क्या कहता है? किस बात के लिए हमें टोकना पड़ता है, जिसकी उसे समझ नहीं हो। इसलिए हमें उसे समझना चाहिए। उसे अपनी समझ है। उसे हम कहते हैं तब उसका ईगोइजम (अहंकार) घायल होता है। और फिर वह मौका ढूंढता है कि मेरी पकड़ में आने दो एक दिन। मौके की ताक में रहता है। तो फिर हमें ऐसा करने की ज़रूरत क्या? अर्थात् वह जिनजिन बातों को समझ सके ऐसा है, उसके लिए टोकने की जरूरत नहीं होती। ३६ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार चाहिए। इतना परिवर्तन लाओ तो अच्छा है। क्लेश तो होना ही नहीं चाहिए। हमें जितने डॉलर प्राप्त हों उतने में गुजारा कर लेना। और तुम्हें जब पैसों की व्यवस्था न हो, तब साड़ियों के लिए जल्दी नहीं करनी चाहिए। तुम्हें भी सोचना चाहिए कि पति मुश्किल में हो तो परेशान नहीं करना चाहिए। ज्यादा हो तो खर्च करना। गाड़ी का गरम मूड यह तो रात को किसी वक्त पति को घर लौटने में देरी हो जाए, किसी संयोगवश, 'हं... इतनी देर से क्यों आए?' तो वे नहीं जानते कि देर हो गई है? उनके भीतर भी खटकता होगा कि बहुत देर हो गई, बहुत देर हो गई। उसमें फिर यह वाइफ ऐसा कहे कि इतनी देर से कोई आता होगा? बेचारा! ऐसी मीनिंगलेस (अर्थहीन) बातों से क्या फायदा? ऐसा तेरी समझ में आता है? अर्थात् वे घर देर से लौटें उस दिन हम देख लें कि मूड कैसा है? इसलिए फिर तुरन्त कहना कि पहले चाय-वाय पीओ, फिर भोजन के लिए बैठो। ऐसा कहने से अच्छे मूड में आ जाता है। मूड उल्टा हो तो हम उन्हें चाय-पानी पिलाकर खुश करें। जैसे पुलिसवाला आया हो, हमारा मूड नहीं हो, फिर भी चाय-पानी नहीं कराते? यह तो अपना है, उसे खुश नहीं करना चाहिए? अपने हैं, इसलिए खश करना चाहिए। बहुतों को मालूम होगा कि कभी गाड़ी मूड में नहीं होती, ऐसा नहीं होता? गरम हो गई हो तब क्या उसे लाठी मारनी चाहिए? उसे मूड में लाने के लिए ठंडी करनी पड़ती है थोड़ी, रेडीयेटर फिराना, पंखा चलाना। नहीं करते? प्रश्नकर्ता (स्त्री) : उन्हें ब्रान्डी पीना किस तरीके से बंद कराएँ? दादाश्री : घर में तुम्हारा प्रेम देखेंगे तो सब छोड़ देंगे। प्रेम के खातिर सभी चीजें छोड़ने को तैयार हैं। प्रेम नज़र नहीं आता इसलिए शराब से प्रेम करता है, किसी और से प्रेम करता है। नहीं तो बीच (समद्र तट) पर हमला करता है। भैया, यहाँ तेरे बाप ने क्या गाड़ रखा हैं, घर पर जा न! तब कहेगा, 'घर पर तो मुझे अच्छा ही नहीं लगता।' ज्यादा कड़वा हो तो हमें अकेले पी जाना है पर स्त्रियों को कैसे पीने दें? क्योंकि आफ्टर ऑल (आखिर में) हम महादेवजी हैं। हम महादेवजी नहीं हैं ? पुरुष महादेवजी समान होते हैं। अधिक कड़आ हो तो कहो, 'तू सो जा मैं पी लूँगा!' स्त्रियाँ भी संसार में सहयोग नहीं देती बेचारी? फिर उनके साथ अनबन कैसी? उसे कुछ दुःख हो गया हो तब हमें पश्चाताप करना चाहिए एकान्त में कि अब दु:ख नहीं दूंगा, मेरी भूल हो गई। घर में किस प्रकार के दुःख होते हैं, किस प्रकार के झगड़े होते हैं, किस प्रकार मतभेद होता है, यह सब दोनों लिखकर लाओ न, तो एक घण्टे में सभी का निबटारा ला दूँ। मतभेद नासमझी की वजह से ही होते हैं, दूसरा कोई कारण नहीं। हमारे घर की बात घर में रहे ऐसा फ़ैमिलि की तरह जीवन जीना Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार जाएगी किसे मालूम? हम सीधी करें और अगले जन्म में जाए दूसरे के हिस्से में! खुद सीधा हुआ हो वही दूसरे को सुधार सकता है। प्रकृति डाँटडपट से नहीं सुधरती, न ही वश में आती है। डाँट से तो संसार खड़ा हुआ है। डाँट-डपट से तो उसकी प्रकृति और बिगड़ेगी। सुधारना या सुधरना? यह संबंध रिलेटिव है। बहुत लोग क्या करते हैं कि जोरू को सुधारने के लिए इतनी ज़िद पर आते हैं कि प्रेम की डोर टूट जाती है वहाँ तक जिद पकड़ते हैं। वे समझते हैं कि इसे मुझे सुधारना ही होगा। अरे ! तू सुधर न! तू पहले सुधर जा। और यह तो रियल नहीं, रिलेटिव है! अलग हो जाएगी। इसलिए हमें झूठ-मूठ नाटक करके भी गाड़ी पटरी पर चढ़ा देनी है। यहाँ से पटरी पर चढ़ गई तो स्टेशन पहुँच जाएगी, सटासट । अर्थात् यह रिलेटिव है, समझा-बुझाकर निराकरण कर देना। प्रश्नकर्ता : प्रकृति नहीं सुधरती, पर व्यवहार तो सुधारना चाहिए न? दादाश्री : व्यवहार तो लोगों को आता ही नहीं। अगर कभी व्यवहार आता, अरे! आधा घण्टा भी व्यवहार करना आता तब भी बहुत होता! व्यवहार तो समझे ही नहीं है। व्यवहार यानी क्या? ऊपर-ऊपर से। व्यवहार मतलब सत्य नहीं। यह तो व्यवहार को ही सत्य मान लिया है। व्यवहार-सत्य यानी रिलेटिव सत्य। इसलिए यहाँ के नोट असली हों या जाली हों, दोनों 'वहाँ' मोक्ष के स्टेशन पर काम नहीं आएँगे। इसलिए हम अपना काम निकाल लें! व्यवहार यानी दिया था वह वापस लेना। अभी कोई कहे कि 'तुझ में अक्ल नहीं।' तो हम समझें कि यह तो दिया था वह वापस आया। यह जो समझ लो तो वह व्यवहार कहलाएगा। आजकल व्यवहार किसी को है ही नहीं। जिसका व्यवहार व्यवहार है, उसका निश्चय निश्चय है। कोई कहेगा कि, 'भाई, उसे सीधी करो।' अरे! उसे सीधी करने (सुधारने) जाएगा तो तू टेढ़ा हो जाएगा। इसलिए वाइफ को सीधी करने मत जाना, जैसी है वैसी उसे 'करेक्ट' (सही) समझो। हमें उसके साथ कायमी लेन-देन हो तो अलग बात है, यह तो एक जन्म के बाद फिर कहाँ के कहाँ बिखर जाएंगे। दोनों का मरणकाल भिन्न, दोनों के कर्म भिन्न। कुछ लेना भी नहीं और देना भी नहीं! यहाँ से वह किसके वहाँ सामनेवाले को सुधारने के लिए तुम्हें दया हो तो डाँटना मत। उसे सुधारने के लिए तो उसकी बराबरी का उसे मिल ही जाएगा। जो हमारे रक्षण में हो, उसका भक्षण कैसे कर सकते हैं? जो अपने आश्रय में आया उसका रक्षण करना तो मुख्य ध्येय होना चाहिए। उसने गुनाह किया हो तब भी उसकी रक्षा करनी चाहिए। ये विदेशी सैनिक यहाँ (अपने देश में) अभी सभी कैदी हैं फिर भी अपने सैनिक उनकी कैसी रक्षा करते हैं! तब ये तो अपने घरवाले ही हैं न? बाहरवालों के पास (भीगी बिल्ली की तरह) म्याऊँ हो जाते हो, वहाँ झगडा नहीं करते और घर पर ही सब-कुछ करते हैं। कोमनसेन्स से 'एडजस्ट एवरीव्हेर' (सामान्य बुद्धि से हर जगह अनुकूलन) किसी के साथ मतभेद होना और दीवार से टकराना दोनों समान हैं। उन दोनों में फर्क नहीं। जो दीवार से टकराता है वह नहीं दिखता इसलिए टकराता है। और जो मतभेद होता है वह भी नहीं दिखने से मतभेद होता है। आगे का उसे नज़र नहीं आता, आगे का उसे सोल्युशन (हल) नहीं मिलता, इसलिए मतभेद होता है। यह क्रोध होता है, वह भी नहीं दिखने से क्रोध होता है। ये क्रोध-मान-माया-लोभ सभी करते हैं वह नहीं दिखने पर करते हैं। तो बात को ऐसे समझनी चाहिए न ! जिसको लगे उसका दोष है न, क्या दीवार का कोई दोष है? अब इस जगत में सभी दीवारें ही हैं। दीवार से टकराने पर हम उसके साथ खरी-खोटी करने नहीं जाते कि यह मेरा सही है। ऐसे लड़ने की झंझट नहीं करते न? Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार जो टकराते हैं न, समझो वे सब दीवारें ही हैं। फिर दरवाजा ढूंढना तो अंधेरे में भी दरवाजा मिलेगा। ऐसे हाथ से टटोलते टटोलते जाएँ तो दरवाजा मिलता है कि नहीं मिलता? मिले तो वहाँ से फिर निकल जाना। टकराना नहीं है, इस नियम का पालन करके देखो कि 'किसी से टक्कर लेनी ही नहीं है।' दो डिपार्टमेन्ट अलग पुरुष को स्त्री के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और स्त्री को पुरुष के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। प्रत्येक को अपनेअपने 'डिपार्टमेन्ट' (विभाग) में ही रहना चाहिए। प्रश्नकर्ता : स्त्री का डिपार्टमेन्ट कौन-सा? किन-किन में पुरुषों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए? दादाश्री : ऐसा है, खाना क्या पकाना, घर कैसे चलाना, यह सब स्त्री के डिपार्टमेन्ट हैं। गेहूँ कहाँ से लाती है, कहाँ से नहीं यह जानने की हमें क्या ज़रूरत? वह कहती हो कि गेहँ लाने में तकलीफ होती है तो अलग बात है। पर हमें वह कहती नहीं हो, राशन दिखाती नहीं हो, तब हमें उसके 'डिपार्टमेन्ट' में हाथ डालने की ज़रूरत ही क्या है? 'आज खीर बनाना, आज जलेबी बनाना।' ऐसा भी कहने की क्या जरूरत? टाइम (समय) होगा तब वह रखेगी। उसका 'डिपार्टमेन्ट' उसके अधीन ! कभी बहुत इच्छा हुई तो कहना, 'आज लड्डु बनाना।' कहने के लिए मना नहीं करता, पर बिना वजह दूसरी इधर-उधर का हो-हल्ला करो कि 'कढी खारी हो गई, खारी हो गई', यह सब नासमझी की बातें हैं। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार भी होती रहती है। पर यह बिना बात ही ज्यादा अक्लमंद बनता है। उसके रसोई डिपार्टमेन्ट में हाथ नहीं डालना चाहिए। हमें भी शुरू में तीस साल तक थोड़ी झंझट हुई थी। फिर चुन चुन कर सब निकाल फेंका और डिवीज़न (विभाग) अलग कर दिये कि रसोई-खाता तुम्हारा और कमाई-खाता हमारा, कमाना है हमें। तुम्हारे खाते में हमें हाथ नहीं डालना है। हमारे खाते में तुम हाथ नहीं डालोगी। साग-सब्जी तुम्हें लाने की। पर हमारे घर की परंपरा आप देखें तो बहुत सुन्दर लगेगी। हीराबा का शरीर चलता था, तब तक बाहर मोहल्ले के नुक्कड़ पर सब्जीमंडी थी वहाँ खुद सब्जी लेने जातीं। तब हम बैठे हों तो हीराबा मुझसे पूछती, 'क्या सब्जी लाऊँ?' तब मैं कहता, 'तम्हें जो ठीक लगे वह लाना।' फिर वे ले आतीं। पर ऐसे ही रोज चलता रहे तो क्या हो? इसलिए पाँचसात दिन पूछना बंद हो गया। फिर एक दिन मैंने कहा कि 'करेले क्यों लायी?' तब वे कहने लगीं, 'मैं जब पूछती हूँ तब कहते हो, तुम्हें जो ठीक लगे वह ले आना और आज गलती निकाल रहे हो?' तब मैंने कहा, "नहीं, हमें ऐसी परंपरा रखने की, तुम मुझे पूछोगी, 'क्या सब्जी लाऊँ?' तब मैं कहूँगा, 'तुम्हें जो ठीक लगे वह', यह अपनी परंपरा मत छोड़ना।" यह परंपरा उन्होंने अंत तक निभाई। इसमें देखनेवाले को भी शोभनीय लगे कि वाह ! इस घर की परंपरा! अर्थात् हमारा व्यवहार बाहर अच्छा दिखना चाहिए। एक तरफा नहीं होना चाहिए। महावीर भगवान कैसे पक्के थे! व्यवहार और निश्चय दोनों अलग। एक पक्षीय नहीं। लोग व्यवहार नहीं देखते? लोग नहीं देखते रोज़ रोज़ का व्यवहार? 'रोजाना आपसे पूछते हैं?' मैंने कहा, 'हाँ, रोजाना पूछते हैं।' 'थक नहीं जाती?' कहते हैं। मैंने कहा, 'क्यों थकेंगी? क्या मंजिलें चढ़नी हैं या पहाड़ चढ़ने हैं?' हम दोनों का व्यवहार लोग देखें ऐसा करो। प्रश्नकर्ता : स्त्री को पुरुष की किन बातों में हाथ नहीं डालना चाहिए? सच्चा पुरुष तो घर के मामले में हाथ ही नहीं डालता, उसे पुरुष कहते हैं! वर्ना स्त्री जैसा होता है। कछ मर्द तो घर में जाकर मसाले के डिब्बे देखते हैं कि, 'ये दो महीने पहले लाये थे. इतनी देर में खत्म हो गए।' ऐसे कैसे निपटारा होगा? वह तो जिसका 'डिपार्टमेन्ट' है उसे चिंता नहीं होगी क्या? क्योंकि वस्तु तो इस्तेमाल होती रहती है और नई खरीद Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : पुरुष की किसी भी बात में दखल नहीं करनी चाहिए। 'दुकान में कितना माल आया? कितना गया? आज देर से क्यों आए?' फिर उनको कहना पड़े कि 'आज नौ बजे की गाड़ी चूक गया।' तब पत्नी कहेगी कि, 'ऐसे कैसे घूमते हो कि गाडी छूट जाती है?' फिर वह पति गुस्सा करे, उसे मन में हो कि अगर भगवान भी ऐसा पछता, तो उसको फटकारता। पर यहाँ क्या करें अब? बिना वजह दखल देते हैं। अच्छे बासमती चावल बनाते हैं और कंकड़ डालकर खाते हैं। उसमें क्या स्वाद आएगा? स्त्री-पुरुष को परस्पर हेल्प (मदद) करनी चाहिए। पति को चिंता रहती हों तो उसे चिंता नहीं हो ऐसे पत्नी को बोलना चाहिए और पति को भी पत्नी को मुसीबत न आए ऐसा ध्यान रखना चाहिए। पति को भी समझना चाहिए कि पत्नी को घर पर बच्चे कितने परेशान करते होंगे? घर में कुछ टूट-फूट जाए तो पुरुष को शोर नहीं मचाना चाहिए। पर ये तो चीखने लगते हैं कि 'पिछले साल अच्छे से अच्छे दर्जन कप-रकाबी लाया था, वे सारे के सारे क्यों फोड डाले? सब खतम कर दिये।' इससे पत्नी को मन में होता है कि 'मैंने तोड़ डाले? मुझे क्या वे खाने थे? टूट गए सो टूट गए उसमें मैं क्या करूँ?''मी काय करूँ?' कहेगी। कुछ लेना भी नहीं, कुछ देना भी नहीं। जहाँ झगड़ने की कोई वजह नहीं वहाँ भी लड़ने लगे! डिविज़न (विभाग) तो मैंने पहले से, छोटा था तब से कर दिये थे कि, यह रसोई खाता उसका और धंधा खाता मेरा। बचपन से मझसे घर की स्त्री धंधे का हिसाब माँगे, तो मेरा दिमाग हट जाए। क्योंकि मैं कहता, तुम्हारी लाइन नहीं। तुम विदाउट एनी कनेक्शन (बिना कोई संदर्भ) पूछती हो, कनेक्शन (संबंध) समेत होना चाहिए। वह पूछे 'इस साल कितना कमाये?' मैंने कहा, 'ऐसा तुम नहीं पूछ सकती। यह हमारी पर्सनल मेटर (निजी बात) हुई। तुम ऐसा पूछती हो तो कल सुबह अगर मैं किसी को पाँच सौ रुपये दे आऊँगा, तब तुम मेरा तेल निकाल लोगी।' किसी को पैसे दे आया तब कहोगी, 'ऐसे लोगों को पैसे बाँटते फिरोगे तो पैसे खत्म हो जाएँगे।' ऐसे तुम मेरा तेल निकालोगी, इसलिए पर्सनल मेटर में तुम्हें हस्तक्षेप नहीं करना है। शंका जलाये सोने की लंका घर में ज्यादातर तकरारें आजकल शंका की वजह से होती हैं। यह कैसा है कि शंका की वजह से स्पंदन उठते हैं और इन स्पंदनों से लपटें निकलती हैं और अगर नि:शंक हो जाएँ न तो लपटें अपने आप ही शांत हो जाएँगी। पति-पत्नी दोनों शंकाशील होंगे तब लपटें कैसे शांत होंगी? एक नि:शंक हो तो ही छुटकारा हो सकता है। माँ-बापों की तकरार से बच्चों के संस्कार बिगड़ते हैं। बच्चों के संस्कार नहीं बिगड़े इसलिए दोनों को समझकर निबटारा लाना चाहिए। यह शंका निकाले कौन? अपना यह 'ज्ञान' तो संपूर्ण नि:शंक बनाये ऐसा है ! एक पति को अपनी वाइफ पर शंका हुई। वह बंद होगी? नहीं। वह लाइफ टाइम (आजीवन) शंका कहलाती है। काम हो गया न, पुण्यवंत (!) पुण्यवंत मनुष्य को होती हैं न! इसी तरह वाइफ को भी पति पर शंका हुई, वह भी लाइफ टाइम (आजीवन) नहीं जाती। प्रश्नकर्ता : नहीं करनी हो फिर भी होती हैं, यह क्या है? दादाश्री : अपनापन, स्वामित्व। मेरा पति है! पति भले हो, पति का हर्ज नहीं। मेरा कहने में हर्ज नहीं है, ममता नहीं रखनी चाहिए। 'मेरा पति' ऐसा बोलना पर ममता मत रखना। इस दुनिया में दो चीजें रखनी। ऊपर ऊपर से विश्वास खोजना और ऊपर ऊपर से शंका करना। गहराई में मत उतरना। और अंत में तो, विश्वास खोजनेवाला मेड (पागल) होगा, मेन्टल हॉस्पिटल (पागलखाने)में लोग धकेल देंगे। इस पत्नी से एक दिन कहें, 'तू शुद्ध है इसका क्या प्रमाण है?' तब वाइफ क्या कहेगी, 'मुए ये तो जंगली है।' ये लड़कियाँ बाहर जाती हों, पढ़ने जाती हों तब भी ऐसी शंका! 'वाइफ' पर भी शंका ! ऐसे सब दगा! घर में भी दगा ही है न, इस समय ! इस कलियुग में खुद के घर में ही दगा होता है। कलियुग अर्थात् दो का काल। कपट और दगा, कपट और दगा, कपट और दगा! उसमें सुख Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार के लिए क्या करते हैं? वह भी बिना समझ, मूर्छा में! निर्मल बुद्धिमान के यहाँ कपट और दगा नहीं होते। यह तो 'फलिश'(मुर्ख) मनुष्य के यहाँ फिलहाल दगा और कपट होते हैं। कलियुग में 'फूलिश' ही जमा हुए हैं न! लोगों ने कहा हो कि यह नालायक आदमी है. फिर भी हमें उसको लायक कहना। क्योंकि नालायक नहीं भी हो और उसे नालायक कहोगे तो भारी गुनाह होगा। सती हो उसे यदि 'वैश्या' कह दिया तो भयंकर गुनाह है! उसके परिणाम स्वरूप कितने ही जन्मों तक भुगतना होगा। इसलिए किसी के भी चारित्र के बारे में मत बोलना। क्योंकि वह गलत होगा तब? लोगों के कहने पर हम भी कहने लगें तब उसमें हमारी क्या क़ीमत रह गई? हम तो ऐसा कभी भी किसी के बारे में बोलते नहीं, और किसी को कहा भी नहीं, मैं तो हाथ ही नहीं डालन! वह जिम्मेवारी कौन लेगा? किसी के चरित्र के बारे शंका नहीं करनी चाहिए। उसमें भारी जोख़िम है। शंका तो हम कभी करते ही नहीं। हम क्यों जोखिम उठायें? एक आदमी को उसकी वाइफ पर शंका होती थी। उससे मैंने पूछा कि शंका किस कारण होती है? तूने देखा इसलिए शंका होती है? क्या तूने नहीं देखा था, तब नहीं हो रहा था? हमारे लोग तो पकड़ा जाए उसे 'चोर' कहते हैं। पर जो पकड़े नहीं गए वे सब भीतर से चोर ही हैं। पर यह तो पकड़ा गया उसे 'चोर' कहते हैं, अरे ! उसे क्यों चोर कहता है? वह तो ढीला है, छोटा चोर है इसलिए पकड़ा गया। बड़ा चोर पकड़ा जाता होगा? इसलिए जिसे पत्नी के चरित्र संबंधी शांति चाहिए, उसे तो बिलकुल काली बदरूप बीवी लानी चाहिए कि जिसका कोई खरीदार ही नहीं हो, कोई उसे पूछता भी न हो। और वह भी ऐसा कहे कि, 'मुझे कोई अपनानेवाला नहीं हैं, यह एक पति मिला उसने मुझे अपनाया है।' वह तुम्हें सिन्सियर (वफादार) रहेगी, पूरी सिन्सियर रहेगी। बाकी सुन्दर होगी उसे लोग भोगेंगे ही। सुन्दर हो, इसलिए लोगों की दृष्टि बिगड़ेगी ही। कोई सुन्दर पत्नी लाये तब हमें यही विचार आता है कि इसका क्या हाल होगा! काली दागवाली होगी तभी सेफसाइड (सलामती) रहेगी। पत्नी बहुत सुन्दर हुई तो वह भगवान को भूलेगा न! और पति स्वरूपवान होगा तब वह स्त्री भी भगवान भूल जाएगी। इसलिए प्रमाण से सब अच्छा। हमारे बुढ्ढे तो ऐसा कहते थे कि 'खेत रखना समतल और औरत मत रखना अति सुन्दर।' ये लोग तो कैसे हैं कि 'जहाँ होटल नजर आए वहाँ खाना खाते हैं।' (विजातीय व्यक्ति को देखते ही उस पर दृष्टि बिगाड़ते हैं।) इसलिए शंका करने जैसा जगत नहीं है। शंका ही दुःखदायिनी है। और ये लोग तो, वाइफ जरा देर से आए तब भी शंका करने लगते हैं। शंका करने जैसा नहीं है। ऋणानुबंध के बाहर कुछ भी होनेवाला नहीं है। वह घर आए तब समझाना लेकिन शंका मत करना। शंका तो अधिक बढ़ावा देती है। हाँ सावधान ज़रूर करना, पर किसी प्रकार की शंका मत करना। शंका करनेवाला मोक्ष खो देता है। इसलिए हमें अगर छुटकारा पाना हो, मोक्ष में जाना हो तो हमें शंका नहीं करनी चाहिए। कोई दूसरा आदमी तुम्हारी 'वाइफ' के गले में हाथ डाल कर घूमता हो और तुम्हारे देखने में आया, तब क्या हम जहर खा लें? किसी भी बात में शंका हो, तब हमें जागृत रहना है मगर दूसरों पर शंका नहीं रखनी है। शंका हमें मार डालती है। उसका तो जो होना होगा वह होगा पर हमें तो वह शंका ही मार डालेगी। क्योंकि शंका तो मनुष्य की मृत्यु हो तब तक उसे छोड़ती नहीं। शंका हो तो मनुष्य का प्रभाव बढ़ता है क्या? मनुष्य मुर्दे की तरह जी रहा हो ऐसा लगेगा। पतिपने के गुनाह प्रश्नकर्ता : कुछ लोग स्त्री से ऊबकर घर से भाग जाते हैं, वह क्या है? Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : नहीं, भगोड़े क्यों बनें? हम परमात्मा है। हमें भागने की क्या आवश्यकता है? हमें उसका 'समभाव से निकाल (निपटारा)' कर देना है! प्रश्नकर्ता : निकाल करना हो तो किस प्रकार करें? मन में भाव करना कि यह पूर्व जन्म का है? दादाश्री : उतने से निकाल नहीं होगा। निकाल अर्थात् सामनेवाले के साथ फोन जोड़ना पड़ेगा, उसकी आत्मा को खबर देनी पड़ेगी। उस आत्मा के पास हमारी भूल हुई है ऐसा क़बूल (एक्सेप्ट) करना होगा। अर्थात् प्रतिक्रमण बड़ा करना होगा। प्रश्नकर्ता : दूसरा हमारा अपमान करे फिर भी हमें उसका प्रतिक्रमण करना है? दादाश्री : अपमान करे तभी प्रतिक्रमण करना है, हमें सम्मान दे तब नहीं करना है। प्रतिक्रमण करने से उस पर द्वेषभाव तो होगा ही नहीं, ऊपर से उस पर अच्छा असर होगा। हमारे प्रति द्वेषभाव नहीं होगा यह समझो पहला स्टेप, पर बाद में उसे खबर भी पहुँचती है। प्रश्नकर्ता : खबर उसकी आत्मा को पहुँचती है क्या? दादाश्री : हाँ, ज़रूर पहुँचेगी। फिर वह आत्मा उसके पुद्गल को भी धकेलती है कि 'भाई फोन आया तेरा।' अपना यह प्रतिक्रमण है वो अतिक्रमण के ऊपर है, क्रमण के ऊपर नहीं। प्रश्नकर्ता : बहुत प्रतिक्रमण करने होंगे? दादाश्री : जितना स्पीड में हमें मकान बनाना है, उतने मज़दूर हमें बढ़ाने होंगे। ऐसा है, कि बाहर के लोगों के प्रति प्रतिक्रमण नहीं होंगे तो चलेगा, पर अपने इर्द-गिर्द के और पासवाले-घरवाले हैं, उनके प्रतिक्रमण ज्यादा करने होंगे। घरवालों के लिए मन में भाव रखना कि एक ही परिवार में जन्मे हैं, साथ रहते हैं, इसलिए किसी दिन इस मोक्षमार्ग में आएँ। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार एक भाई मेरे पास आए थे। वे मुझसे बोले, 'दादा, मैंने शादी तो की पर मुझे मेरी बीवी पसंद नहीं।' मैंने कहा, 'क्यों, पसंद नहीं आने का क्या कारण है?' तब कहता है, 'वह थोडी लंगडी हैं, लंगडाती है।' 'तब तेरी बीवी को तू अच्छा लगता है कि नहीं?' तो बोला, 'दादा, मैं तो अच्छा लगूं ऐसा हूँ न! खूबसूरत हूँ, पढ़ा लिखा हूँ, कमाता हूँ और अपाहिज नहीं हूँ।' तब उसमें भूल तेरी ही है। तेरी ऐसी कैसी भूल हुई कि तुझे लंगड़ी मिली और उसने कितने अच्छे पुण्य किये थे कि तू इतना अच्छा उसे मिला? अरे, यह तो अपना किया ही अपने सामने आता है, उसमें सामनेवाले का दोष देखता है? देख तेरी भूल भुगत ले और फिर से नयी भूल मत करना। तब वह भाई समझ गया और उसकी 'लाइफ' फ्रेक्चर होते-होते रह गई, सुधर गई। दादाई दृष्टि से चलो, पतियों... प्रश्नकर्ता : वाइफ ऐसा कहे कि तुम्हारे पेरेन्ट्स (माँ-बाप) को अपने साथ नहीं रखना है कि नहीं बुलाना है, तब क्या करना? दादाश्री : तब समझाकर काम लेना। डेमोक्रेटिक (लोकतांत्रिक) पद्धति से काम लेना। उसके माँ-बाप को बुलाकर उनकी बहुत सेवा कर के दिखाना... प्रश्नकर्ता : माता-पिता वृद्ध हों, बड़ी उम्र के बुजुर्ग हों, एक ओर माता-पिता हैं और दूसरी ओर वाइफ है, तब उन दो में से पहले किसकी बात सुनें? दादाश्री : वाइफ के साथ ऐसा अच्छा संबंध कर देना कि वाइफ हमें ऐसा कहे कि तुम्हारे माता-पिता का ख्याल रखो न ! ऐसा क्यों करते हो? वाइफ के सन्मुख माता-पिता के बारे में थोड़ा उल्टा बोलना। हमारे लोग तो क्या कहते हैं? मेरी माँ जैसी कोई माँ नहीं है। तुम ऐसा मत करना। फिर जब वह उल्टी चले तब हमें कहना चाहिए कि माँ का स्वभाव कुछ ऐसा ही हो गया है। इन्डियन माइन्ड (भारतीय दिमाग़) उल्टा चलने की आदत होती है। इन्डियन माइन्ड है न! Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार तू जानता है कि लोग वाइफ (पत्नी) को गुरु बनाए ऐसे हैं? प्रश्नकर्ता : हाँ जी, जानता हूँ। दादाश्री : उसे गुरु करने जैसा नहीं. वर्ना माता-पिता और सारा कुटुम्ब मुसीबत में आ जाएगा। और गुरु करने पर खुद भी मुसीबत में आ जाएगा। उसे भी खिलौने की तरह नाचना पड़ता है! पर मेरे पास आनेवाले को ऐसा नहीं होता। मेरे पास सब-कुछ ओलराईट (बराबर)! हिंसक भाव ही उड़ जाता है। हिंसा करने का विचार ही नहीं आता है। कैसे सुख पहुँचाऊँ यही विचार आता है। प्रश्नकर्ता : ये लेडीज (औरतें) काम करके थक बहुत जाती हैं। काम बतायें तो बहाने बनाती हैं कि मैं थक गई हूँ, सिर दर्द रहा है, कमर दुःखती है। दादाश्री : ऐसा है न, तो उसे सुबह से कह देना चाहिए कि 'देख तुझ से काम नहीं होगा, तू थक गई है।' तब वह जोश में आ जाएगी और कहेगी कि नहीं तुम बैठे रहो चुपचाप, मैं कर लूँगी। अर्थात् हमें चतराई से काम लेना आना चाहिए। अरे! सब्जी काटने में भी चतुराई नहीं हो तो यहाँ खून निकलेगा। प्रश्नकर्ता : हम जब गाड़ी में जाते हैं तब वह मुझे कहती रहती है, गाड़ी कहाँ मोड़ना, कब ब्रेक लगाना ऐसा गाड़ी में मुझे कहती रहती है अर्थात् गाड़ी में टोकती है, ऐसे चलाओ, ऐसे चलाओ ! दादाश्री : तब उसे सौंप देना, गाड़ी उसे सौंप देना। झंझट ही नहीं। समझदार आदमी ! किट-किट करती हो तब उसे कहना, 'ले, तू चला!' प्रश्नकर्ता : तब वह कहेगी, 'मेरी हिम्मत नहीं है।' दादाश्री : क्यों? तब कहना, 'उसमें तुम्हें क्या हर्ज है? तब क्या तुम्हें ऊपर लटका रखा है कि टोकती रहती हो?' गाड़ी उसे सौंप देना। ड्राईवर हो तो पता चले टोकने पर, यह तो घर का आदमी है इसलिए टोकती रहती है। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता : पत्नी की तरफदारी न करें तो घर में झगड़े होते हैं। दादाश्री : पत्नी की ही तरफदारी करना। पत्नी का पक्ष लेना, उसमें कछ हर्ज नहीं। क्योंकि पत्नी की तरफदारी करो तो ही रात को चैन से सो सकोगे वर्ना कैसे सोओगे? वहाँ काजी मत बनना। प्रश्नकर्ता : पड़ौसी की तरफ़दारी तो करनी ही नहीं न? दादाश्री : नहीं, हमें हमेशा वादी का ही वकील होना है, प्रतिवादी का नहीं होना। हम जिस घर का खाते है उसका ही... ये तो खायें इस घर का और वकालत सामनेवाले के घर की करें। इसलिए उस वक्त सामनेवाले का न्याय नहीं करना चाहिए! अपनी वाइफ अन्याय के पक्ष में हो तो भी हमें उसके कहे मुताबिक ही चलना है। वहाँ न्याय करने मत जाना कि 'तेरे में अक्ल नहीं है इसलिए ऐसा हुआ...' क्योंकि कल भोजन उसके साथ ही खाना है। प्रश्नकर्ता : सामनेवाले का समाधान हुआ कैसे कहलाएगा? सामनेवाला का समाधान हो, पर उसमें उसका अहित हो तो? दादाश्री : यह तुम्हें नहीं देखना है। सामनेवाले का अहित हो वह तो उसे ही देखना है। तुम्हें सामनेवाले का हिताहित देखना हो पर तुम्हारे पास शक्ति कहाँ है? तुम अपना हित ही नहीं देख सकते हो, तो दूसरों का हित कैसे देख सकोगे? सब अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार हित देखते हैं, उतना हित देखना चाहिए। पर दूसरे के हित के लिए टकराव खड़ा नहीं करना चाहिए। प्रश्नकर्ता : सामनेवाले का समाधान करने का हम प्रयत्न करें पर परिणाम विपरीत आनेवाला है यह जानते हों, तब क्या करें? दादाश्री : परिणाम कुछ भी हो मगर हमें तो 'सामनेवाले का समाधान करना है' इतना तय करना है। 'समभाव से निकाल' करने का निश्चित करने के बाद निकाल (निपटारा) होता है या नहीं, यह पहले से नहीं देखना है। और निकाल होगा! आज नहीं तो कल होगा, परसों होगा। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार साँवले हैं। फिर उसने भी तय किया कि यह मेरी पत्नी आई। तब से 'मेरी-मेरा' की जो लपेटें लगीं, वे लपेटें लगती ही रही हैं। वह पंद्रह साल की फिल्म है, उसे तुम 'नहीं है मेरा. नहीं हैं मेरा' करेगी. तब वे लपेटें खुलेंगी और ममता छूटेगी। यह तो शादी हुई तबसे अभिप्राय हुए हैं। प्रिज्युडिस (पूर्वाग्रह) हो गया कि 'ये ऐसे हैं, वैसे हैं।' पहले कुछ था? अब तो हमें मन में निश्चय करना है कि 'जो है सो यह हैं' और हम खुद पसंद करके लाये हैं। अब क्या पति बदल सकते हैं? परमात्म प्रेम की पहचान इस संसार में अगर कोई पूछे कि, 'यह स्त्री का प्रेम प्रेम नहीं है क्या?' तब मैं समझाऊँ कि जो प्रेम बढ़ता है, घटता है वह प्रेम सच्चा प्रेम ही नहीं है। तुम हीरे के टॉप्स लाकर दो उस दिन प्रेम बहुत बढ़ जाता है और नहीं लाए तो प्रेम घट जाता है, यह प्रेम नहीं है।। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार गाढ़ ऋणानुबंध होने पर दो साल, तीन साल या पाँच साल भी लग सकते हैं। वाइफ के साथ ऋणानुबंध बहुत चिकने होते हैं, संतानों से चिकने होते हैं, माता-पिता से चिकने होते हैं। वहाँ पर थोड़ा ज्यादा समय लगेगा। ये सभी हमारे साथ ही साथ होने से निकाल धीरे-धीरे होगा। लेकिन हमारा निश्चय है कि हमें समभाव से निकाल करना है, इसलिए एक दिन वह होकर रहेगा, उसका अंत आएगा। 'मेरी-मेरी' की लपेटें उकलेंगी ऐसे विवाह के समय मंडप में बैठते हैं न! मंडप में बैठने पर ऐसे देखते हैं। हाँ, यह मेरी वाइफ यानी पहली लपेट लगाई। मेरी वाइफ, मेरी वाइफ, मेरी वाइफ, मेरी वाइफ... ब्याहने बैठा तभी से ही लपेट लगाता रहता है लगातार। अभी तक लपेट लगाता ही रहा है तो कितनी लपेटें लग गई होंगी अब तक? अब किस प्रकार वे लपेटें उकलेंगी? ममता की लपेटें लगी हैं! अब 'नहीं है मेरी,''नहीं है मेरी' ऐसे बोलते रहो। 'यह स्त्री मेरी नहीं हैं, नहीं हैं मेरी' इससे लपेटें खुल जाएँगी। पचास हजार बार 'मेरीमेरी' कहकर लपेटें लगाईं हों, वे 'नहीं मेरी' की पचास हज़ार लपेटें लगाने पर छूटेगी! एक आदमी की पत्नी के मृत्यु को दस साल हो गये थे, फिर भी वह उसे भूल नहीं पाया था और रोता रहता था। मैं ने उसे 'नहीं है मेरी,''नहीं है मेरी' बोलने को कहा। बाद में उस व्यक्ति ने क्या किया? तीन दिन तक 'नहीं है मेरी, नहीं है मेरी' बोलता ही रहा और रटता रहा। बाद में उसका रोना बंद हो गया! ये सभी लपेटें ही हैं और उसकी ही यह फजीहत हुई है। यह सब कल्पित है। मेरी बात तुम्हारी समझ में आई? अब ऐसा सरल रास्ता कौन दिखायेगा? सारा दिन काम करते-करते पति का प्रतिक्रमण करते रहना। एक दिन में छ: महीने का बैर कट जाएगा। और आधा दिन हो तो समझो न तीन महीने का खत्म हो जाता है। शादी से पहले पति के साथ ममता थी? नहीं। तब ममता कब से बंधी? शादी के समय मंडप में आमने सामने बैठे, इसलिए तूने तय किया कि यह मेरे पति आए। थोड़े मोटे हैं और प्रश्नकर्ता : सच्चा प्रेम घटता-बढ़ता नहीं, तो उसका स्वरूप कैसा होता है? दादाश्री : वह घटता-बढ़ता नहीं। जब देखो तब प्रेम वैसा का वैसा ही दिखता है। यह तो उसका काम कर दो, तब तक उसका तुम्हारे प्रति प्रेम रहता है और काम नहीं करो तो प्रेम टूट जाता है, उसे प्रेम कैसे कह सकते हैं? अर्थात् जहाँ स्वार्थ नहीं होता वहाँ पर शुद्ध प्रेम होगा। स्वार्थ कब नहीं होता है? मेरा-तेरा नहीं होता तब स्वार्थ नहीं होता। 'ज्ञान' हो तो मेरा-तेरा नहीं होता। 'ज्ञान' बगैर तो मेरा-तेरा होता ही है न? ये तो सभी 'रोंग बिलीफ' (गलत मान्यताएँ) हैं। मैं चन्दुभाई हूँ' यह रोंग बिलीफ है। फिर घर जाने पर हम पूछे कि 'यह कौन है?' तब वह कहता है 'मुझे नहीं पहचाना? इस औरत का मैं स्वामी (पति) हूँ।' ओहोहो! बड़े स्वामी आए! मानो स्वामी का स्वामी ही नहीं हो ऐसी बातें करता है! स्वामी का स्वामी होगा कि नहीं? तब फिर आपके ऊपरवाले स्वामी की स्वामिनी आप हुए और आपकी स्वामीनी यह हुई। इस धाँधल Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ५२ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार और जहाँ आसक्ति है वहाँ आक्षेप आये बिना नहीं रहते। वह आसक्ति का स्वभाव है। आसक्ति हो तो आक्षेप होते ही रहते हैं कि 'तुम ऐसे हो और तुम वैसे हो! तू ऐसी और त वैसी!' क्या ऐसा नहीं बोलते? तुम्हारे गाँव में बोलते हैं कि नहीं बोलते? ऐसा बोलते हैं वह आसक्ति के कारण। ये लड़कियाँ पति पसंद करती हैं, ऐसे देख-दाख कर पसंद करने के बाद क्या नहीं झगड़ती होंगी? झगड़ती हैं क्या? तब उसे प्रेम ही नहीं कह सकते! प्रेम तो स्थाई होता है। जब देखो तब वही प्रेम। वैसा ही नज़र आये वह प्रेम कहलाता है और ऐसा प्रेम हो वहाँ आश्वासन ले सकते हैं। यह तो हमें प्रेम आता हो और उस दिन वह रूठकर बैठी हो, तब यह कैसा तुम्हारा प्रेम! डाल गटर में! मुँह फुलाकर घूमती हो ऐसे प्रेम को क्या करना है? आपको क्या लगता है? जहाँ बहुत प्रेम आता है वहीं अरूचि होती है, यह मनुष्य स्वभाव में क्यो पड़े? स्वामी ही क्यों हों? हमारे 'कम्पेनियन' (साथी) है कहे तो क्या हर्ज है? प्रश्नकर्ता : दादा ने बहुत 'मॉडर्न' (आधुनिक) भाषा का प्रयोग किया। दादाश्री: तब क्या? टसल (टकराव) कम हो जाए न! हाँ, एक रूम में दो 'कम्पेनियन' (साथी) रहते हों, तब एक व्यक्ति चाय बनाये और दूसरा व्यक्ति पीये और दूसरा उसके लिए काम कर दे। ऐसा करके 'कम्पेनियन' बने रहें। प्रश्नकर्ता : 'कम्पेनियन' में आसक्ति होती है या नहीं? दादाश्री : उसमें आसक्ति होती है पर वह आसक्ति अग्नि समान नहीं होती। ये तो शब्द ही ऐसी गाढ़ आसक्तिवाले हैं। 'स्वामित्व और स्वामिनी' इन शब्दों में ही इतनी गाढ़ आसक्ति भरी है ! और 'कम्पेनियन' कहने पर आसक्ति कम हो जाती है। एक आदमी की वाइफ २० साल पहले मर गई थी। तब एक भाई ने मुझसे कहा कि, 'इस चाचा को रुलाऊँ?' मैंने पूछा, 'कैसे रुलाओगे?' तब वह कहता है, 'देखो, वे कितने सेन्सिटिव (भावक) हैं!' फिर वे बोले, 'क्यों चाचा. चाची की तो बात ही मत पूछो, क्या उनका स्वभाव था!' वह ऐसे कह रहा था कि चाचा सचमुच रो पड़े ! कैसे हैं ये घनचक्कर, साठ साल के हुए तो भी अभी पत्नी का रोना आता है! लोग तो वहाँ सिनेमा में भी रोते हैं न? उसमें कोई मर जाए तब देखनेवाले भी रोने लगते हैं! प्रश्नकर्ता : वह आसक्ति क्यों नहीं छूटती? दादाश्री : वह नहीं छूटती, क्योंकि अब तक 'मेरी-मेरी' कहते रहे और अब 'नहीं हैं मेरी, नहीं हैं मेरी' कहोगे तो बंद हो जाए। वह तो जो जो लपेटें लगी हों, उसे छोड़नी ही पडेगी! अर्थात यह तो केवल आसक्ति है। चेतन जैसी चीज़ ही नहीं है। ये तो सभी चाबी भरे हए पतले हैं। यह तो सिनेमा जाते समय आसक्ति की धुन में जाता हैं और लौटते समय बीवी को 'बिना अक्ल की है' कहता है। तब वह कहती है कि 'तुम्हारे में कहाँ ढंग है?!' ऐसे बातें करते करते घर आते हैं। यह अक्ल ढूंढता है, तब वह ढंग देखती है! यह सब सुधारना हो, तो प्रेम से सुधरता है। इन सभी को मैं सुधारता हूँ, वह प्रेम से ही सुधारता हूँ। हम प्रेम से ही कहते हैं इसलिए बात नहीं बिगड़ती। और ज़रा भी द्वेष से कहें तो बात बिगड़ जाएगी। दूध में दही डाला न हो और ज़रा-सी वैसे हवा लग गई हो, फिर भी दूध का दही हो जाता है। प्रश्नकर्ता : इसमें प्रेम और आसक्ति का भेद ज़रा समझाइये। दादाश्री : जो विकृत प्रेम है उसका नाम ही आसक्ति। इस संसार में हम जिसे प्रेम कहते हैं, वह विकृत प्रेम कहलाता है और उसे ही आसक्ति कहते हैं। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार यह तो सूई और चुंबक में होती है वैसी आसक्ति है। उसमें प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है। प्रेम होता ही नहीं किसी जगह। यह तो सूई और चुंबक के खिंचाव को लेकर तुम्हें ऐसा लगता है कि मुझे प्रेम है, इसलिए मैं खिंचता हूँ। पर वह प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है। ज्ञानीपुरुष का 'प्रेम' ही प्रेम कहलाता है। _ इस दुनिया में शुद्ध प्रेम ही परमात्मा है। उसके सिवा दूसरा परमात्मा दुनिया में कोई हुआ नहीं है और होगा भी नहीं। और वहाँ दिल ठहरता है और तब दिलावरी के काम होते हैं। वर्ना दिलावरी के काम नहीं होते। दो प्रकार से दिल लगता है। अधो गति में जाना हो तब किसी स्त्री में दिल लगता है और उर्ध्व गति में जाना हो तब ज्ञानीपुरुष में दिल लगता है। और वे तो तुम्हें मोक्ष में ले जाएंगे। दोनों जगह दिल की जरूरत पड़ेगी, तब दिलावरी प्राप्त होती है। अर्थात् जिस प्रेम में क्रोध-मान-माया-लोभ कुछ भी नहीं, जो प्रेम समान, एकरूप रहता है, ऐसा शुद्ध प्रेम देखें तब मनुष्य के दिल में ठंडक होती है। मैं प्रेम स्वरूप हो गया हूँ। उस प्रेम में ही तुम मस्त हो जाओगे तो जगत भूल ही जाओगे, फिर तुम्हारा संसार अच्छा चलेगा, आदर्शरूप से चलेगा। शादी अर्थात् 'प्रोमिस टु पे' १९४३ में हीराबा की एक आँख चली गई। उन्हें झामर का दर्द था। डॉक्टर झामर का इलाज करने गए तब आँख पर असर हुआ और उसे नुकसान हुआ। इसलिए लोगों के मन में हुआ कि 'नया दूल्हा' तैयार हुआ। फिर से शादी करवाओ, ब्याहो। कन्याएँ बहुत थी और कन्या के माता-पिता की इच्छा ऐसी कि कैसे भी करके, उसे कुएँ में डालकर भी ठिकाने लगायें। उस समय भादरण के एक पाटीदार आए। उनके साले की लड़की पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार होगी, इसलिए आए थे। मैंने कहा, 'क्या है आपको?' तब वे कहने लगे, 'यह आपके साथ ऐसा हुआ?' अब उन दिनों १९४४ में मेरी उम्र ३६ साल की। तब मैंने कहा, 'क्यों आप ऐसा पछने आए हो?' तब उसने कहा, 'एक तो हीराबा की आँख गई, दूसरे बच्चे भी नहीं।' मैंने कहा, 'प्रजा नहीं है पर मेरे पास कोई बरोडा 'स्टेट' (राज्य) भी नहीं है कि मुझे उसको देना है। स्टेट होता तो लड़के को देते। यह कोई एकाध झोंपड़ा है और थोड़ी जमीन है, जो हमें किसान ही बनाये न! अगर स्टेट (राज्य) होता तो मानो ठीक था।' फिर मैंने उनसे कहा कि 'अब आप किस लिए यह कहते हो? और हीराबा को तो हमने प्रोमिस किया है, शादी की तब। इसलिए एक आँख गई तो क्या, दूसरी जाए तब भी हाथ पकड़कर रास्ता दिखाऊँगा।' प्रश्नकर्ता : मेरी शादी होने के बाद हम दोनों एक-दूसरे को पहचान गये हैं और लगता है कि पसंद में भूल हो गई है। दोनों का स्वभाव आपस में मेल नहीं खाता। अब दोनों में मेल कैसे हो और किस प्रकार हो? क्या करने से सुखी हो सकते हैं? दादाश्री : यह आप जो कहते हो, उसमें एक वाक्य भी सत्य नहीं है। पहला वाक्य, शादी होने के बाद दोनों व्यक्ति एक-दूसरे को जानते हैं, पर नाम की भी पहचान नहीं है। अगर पहचान होती तो यह झंझट ही नहीं होती। ज़रा भी जानते नहीं हो। मैंने तो केवल बुद्धि के डिवीज़न (विभाजन) से सारे मतभेद समाप्त कर दिये थे। पर हीराबा की पहचान मझे कब हई? मुझे साठ साल हुए तब हीराबा की पहचान हुई! १५ साल का था तब शादी की, ४५ साल तक उसका निरीक्षण करता रहा तब जाकर मुझे पहचान हुई कि वे ऐसी हैं। प्रश्नकर्ता : अर्थात् ज्ञान होने के बाद पहचाना? दादाश्री : हाँ, ज्ञान होने के बाद पहचाना। वर्ना पहचान ही नहीं Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार होती। मनुष्य पहचान ही नहीं सकता। मनुष्य खुद को नहीं पहचान सकता कि मैं कैसा हूँ! अर्थात् यह वाक्य 'एक दूसरों को जानते हैं ये सब बातों में कुछ रखा नहीं और पसंद करने में भूल हुई नहीं है। प्रश्नकर्ता : यह समझाइये कि किस प्रकार पहचानना? पति अपनी पत्नी को धीरे-धीरे सूक्ष्मता से प्रेम द्वारा किस तरह पहचाने, यह समझाइये। दादाश्री : पहचान कब होती है? पहले तो समानता का स्थान दें तब। उन्हें स्पेस (जगह) देनी चाहिए। जैसे हम बाजी खेलने बैठते हैं आमने-सामने, उस वक्त समानता का दाँव होता है, तब खेलने में मजा आता है। पर ये तो समानता का दाँव क्या देंगे? हम समानता का दाँव देते हैं। प्रश्नकर्ता : प्रेक्टिकली (व्यावहारिक दृष्टि) से किस प्रकार देते पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : हाँ, हीराबा से मैं आज भी कहता हूँ न! मैं भी, इस उम्र में भी हीराबा से कहता हूँ, कि तुम्हारे बगैर मैं बाहर जाता हूँ पर मुझे अच्छा नहीं लगता। अब वह मन में क्या समझती है, मुझे अच्छा लगता है और उन्हें क्यों अच्छा नहीं लगता होगा? ऐसा कहने पर संसार बिगड़ नहीं जायेगा। अब त् घी डालना, नहीं डालेगा तो खाने में रूखापन आएगा! डालो सुन्दर भाव! हीराबा मुझे कहती हैं, 'मैं भी आपको याद आती हूँ?' मैंने कहा, 'लोग याद आते हैं तब आप क्या नहीं याद आओगी?!' और वास्तव में याद आते हैं भी, नहीं याद आते ऐसा नहीं! आदर्श है हमारी लाइफ (जीवन)! हीराबा भी कहती हैं, 'आप जल्दी घर आना।' स्त्री का पति होना आया ऐसा कब कहलाएगा? कि स्त्री निरंतर पूज्यता का अनुभव करती हो! स्वामी तो कैसा हो? कभी भी स्त्री और संतानों को मुसीबत न आने दे ऐसा हो। और स्त्री कैसी हो? कभी भी पति को मुसीबत नहीं आने दे, उसके ही विचार में जीती हो। पत्नी के साथ तक़रार (पति-पत्नी) दो जने मस्ती-ऊधम मचाते हों, लड़े-झगड़े पर एकदूसरे पर मुकदमा दायर नहीं करते। और हम बीच में पड़ें तो वे अपना काम निकाल लेते हैं और वे लोग तो फिर आपस में मिल जाते हैं। दूसरे के घर रहने नहीं जाते, इसे 'तोता मस्ती' कहते हैं। हम तुरन्त समझ जाते हैं कि दोनों ने तोता मस्ती शुरू की है। ___ एक घण्टे तक नौकर को, बच्चों को या पत्नी को बार बार धमकाया हो तो फिर वह (अगले जनम में) पति होकर अथवा सास होकर तुम्हें सारा जीवन परेशान करेगा! न्याय तो होगा कि नहीं होगा? यही भुगतना है। तुम किसी को दुःख दोगे तब तुम्हें सारा जीवन दु:ख भुगतना होगा। केवल एक घण्टा दुःख दोगे तो फल स्वरूप सारा जीवन दादाश्री : मन से उन्हें अलग समझने नहीं देते। वे उल्टा-सीधा कहें फिर भी समान हों उस प्रकार। अर्थात् प्रेशर (दबाव) नहीं लाते। अर्थात् सामनेवाले की प्रकृति को पहचान लेना कि इसकी प्रकृति ऐसी है। फिर और तरीके ढूँढ निकालना। मैं अलग तरह से काम नहीं लेता, लोगों के साथ? सब मेरा कहा मानते हैं कि नहीं मानते? मानते हैं कारण यह नहीं कि कुशलता है, पर मैं अलग तरह से काम लेता घर में बैठना पसंद नहीं हो पर फिर भी कहना कि तेरे बिना मुझे अच्छा नहीं लगता। तब वह भी कहेगी कि तुम्हारे बिना मुझे अच्छा नहीं लगता। तब मोक्ष में जा सकोगे। दादा मिले हैं न, इसलिए मोक्ष में जा सकोगे। प्रश्नकर्ता : आप हीराबा से कहते हैं? Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ५८ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दु:ख मिलेगा। फिर चिल्लाओगे कि 'पत्नी मुझे ऐसा क्यों करती है?' पत्नी को ऐसा हो कि, 'इस पति के साथ मुझसे ऐसा क्यों हो रहा है?' उसे भी दु:ख होता है, पर क्या कर सकते हैं? फिर मैंने उनसे पूछा कि, 'पत्नी तुम्हें खोज लाई थी कि तुम पत्नी को खोज लाये थे?' तब वे बोले, 'मैं ढूंढ लाया था।' तब उस बेचारी का क्या दोष? ले आने के बाद टेढ़ी निकले, उसमें वह क्या करे, कहाँ जाए फिर? प्रश्नकर्ता : चुप रहकर बात टालने से उसका निपटारा हो सकता प्रश्नकर्ता : तब फिर उसे कुछ कहना ही नहीं? दादाश्री : कहना ज़रूर, लेकिन सम्यक् कहना अगर कहना आता हो तो। वर्ना कुत्ते की भाँति भौं भौं करने का क्या अर्थ? इसलिए सम्यक् कहना। प्रश्नकर्ता : सम्यक् किस तरह से? दादाश्री: ओहोहो! तुमने इस बच्चे को क्यों गिराया? क्या कारण उसका? तब वह कहेगी कि, 'जान-बूझकर मैं थोड़े गिराऊँगी? वह तो मेरे हाथ से सरक गया और गिर पड़ा ' प्रश्नकर्ता : वह झूठ बोलती है न? दादाश्री : नहीं हो सकता। हमें तो सामने मिले तो 'कैसे हो? कैसे नहीं?' ऐसा कहना चाहिए। सामनेवाला ज़रा चीखे-चिल्लाये तब हमें धीरे से 'समभाव से निकाल (निपटारा)' करना है। उसका कभी न कभी निकाल तो करना पड़ेगा न? न बोले तो समाधान थोड़े ही हो जाता है? वह निकाल नहीं होता इसलिए तो अबोला (किसी मामले में मतभेद होने के कारण आपस में बातचीत न करना) खड़ा होता है। अबोला होने से जिस बात का निकाल नहीं हुआ उसका बोझ लगता है। हमें तो तुरन्त उसे रोककर कहना है, 'रूकिए, हमारी कुछ गलती हो तो बताइए। मेरी बहुत गलतियाँ होती हैं आप तो बहुत होशियार, पढ़े लिखे हैं। आपसे गलती नहीं होती, पर मैं कम पढ़ा-लिखा हूँ, इसलिए मेरी कई गलतियाँ होती हैं।' ऐसा कहें तो वह खुश हो जाएगा। प्रश्नकर्ता : ऐसा करें तो भी वह नरम नहीं पड़े तो क्या करें? दादाश्री : नरम नहीं पड़े तो हमें क्या करना? हमें कहकर छूट जाना है, फिर क्या उपाय? कभी न कभी किसी दिन नरम पडेगी। धमकाकर नरम करोगे तो बिलकुल नरम नहीं होगी। आज नरम दिखेगी पर वह मन में लिखकर रखेगी और जब हम नरम होंगे. उस दिन फिर सब निकालेगी। अर्थात् जगत बैरवाला है। कुदरत का कानून ऐसा है कि प्रत्येक जीव भीतर बैर रखता ही है। भीतर ऐसे परमाणुओं का संग्रह करता है। इसलिए हमें पूर्ण रूप से केस को पूरा कर देना है। दादाश्री : वह झूठ बोले यह हमें नहीं देखना है, झूठ बोले कि सच बोले वह उसकी जिम्मेदारी है, वह हमारी जिम्मेदारी नहीं है। प्रश्नकर्ता : कहना नहीं आए तो फिर क्या करें? चुप बैठे? दादाश्री : मौन रहो और देखते रहो कि 'क्या होता है?' सिनेमा में बच्चे को गिराते हैं तब हम क्या करते हैं? सभी को कहने का अधिकार है पर क्लेश बढ़े नहीं इस प्रकार कहने का अधिकार है। बाकी जो बात कहने से क्लेश बढ़ता हो, तो वह मूखों का काम है। प्रश्नकर्ता : हमें झगड़ा नहीं करना हो, हम कभी झगड़ा करते ही नहीं हों फिर भी घर के सभी सामने से झगड़ा करते हो तब क्या करें? दादाश्री : हमें 'झगड़ाप्रूफ' (किसी से भी झगड़ा नहीं हो ऐसा) हो जाना है। 'झगड़ाप्रूफ' होंगे तभी इस संसार में रह पाएँगे। हम तुम्हें 'झगडाप्रफ' बना देंगे। झगड़ा करनेवाला भी ऊब जाए ऐसा हमारा स्वरूप होना चाहिए। पूरे 'वर्ल्ड' में कोई हमें 'डिप्रेस' (उदास) नहीं कर सके ऐसा होना चाहिए। हम 'झगड़ाप्रूफ' हो जाएँ, फिर झंझट ही नहीं। लोगों को झगड़े करने हों, गालियाँ देनी हों तब भी हर्ज नहीं और फिर भी बेशर्म नहीं कहलाएगा, उलटे जागृति बहुत बढ़ेगी। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पूर्व में जो झगड़े किये थे उनके बैर बँधे होते हैं और वे आज झगड़े के रूप में चुकता होते हैं। झगड़ा करते हैं उसी क्षण बैर का बीज पड़ जाता है, वह अगले जन्म में उगेगा। प्रश्नकर्ता : वह बीज किस तरह दूर हो? । दादाश्री : धीरे-धीरे समभाव से निकाल' करते रहो तब फिर दूर हो जाएगा। बहुत भारी बीज पड़ा हो तो देर लगेगी, शान्ति रखनी पड़ेगी। प्रतिक्रमण बहुत करने होंगे। अपना कोई कुछ नहीं लेता। दो वक्त का खाना मिले, कपड़े मिले फिर क्या चाहिए? कमरे को ताला लगाकर जाते हैं मगर हमें दो वक्त खाना मिलता है या नहीं, इतना ही देखना है। हमें घर में बंद करके जाएँ तब भी हर्ज नहीं है। हम सो जाएंगे। पूर्व जन्म के बैर ऐसे बंधे हैं कि हमें ताला लगाकर बंद करके जाएँ! बैर और वह भी नामसझी में बंधा हुआ! समझपूर्वक हो तो हम मान लें कि यह समझपूर्वक है, तब भी हल निकल आता। अब नासमझी हो वहाँ हल कैसे निकले? इसलिए वहाँ बात को छोड़ देना। अब सभी बैर छोड़ देने हैं। हो सके तो कभी हमारे पास आकर 'स्वरूप ज्ञान प्राप्त कर लेना ताकि सभी बैर छूट जाएँ। इस जन्म में ही सभी बैर छोड़ देना। हम तुम्हें रास्ता दिखाएँगे। खटमल काटते हैं, वे तो बेचारे बहुत अच्छे हैं पर यह पति बीवी को काटता है और बीवी पति को काटती है वह बहत असह्य है। क्यों? काटते हैं या नहीं? प्रश्नकर्ता : काटते है। दादाश्री : तब वह काटने का बंद करना है। खटमल काटते हैं, वे तो काट के चले जाएंगे। वे बेचारे तो भीतर तृप्त हों तो चले जाते हैं पर बीवी तो हमेशा काटती ही रहती है। एक आदमी तो मुझे कहता है, 'मेरी वाइफ मुझे साँपिन की तरह काटती है!' तब मुए तुमने शादी क्यों की सपिन के साथ? तब क्या वह साँप नहीं हुआ? ऐसे ही साँपिन मिलती होगी? साँप हो तो ही साँपिन आती है। हम तो इतना समझते हैं कि झगड़ने के बाद 'वाइफ' के साथ व्यवहार ही नहीं रखना हो तो अलग बात है पर फिर से बोलना है इसलिए बीच में जो व्यवहार (बिगाड़ते) है वह सारा गलत हैं। हमें यह लक्ष्य में ही रहना चाहिए कि दो घण्टे के बाद फिर से बोलना है, इसलिए उसकी किच-किच नहीं करते। अगर तुम्हें अभिप्राय फिर से बदलना नहीं हो तो अलग बात है। हमारा अभिप्राय बदले नहीं तब हमारा किया हुआ सही है। फिर से 'वाइफ' के साथ बैठनेवाले नहीं हो, तो फिर जो झगड़ा किया वह सही है! पर यह तो कल फिर से साथ में बैठकर भोजन करनेवाले हो। तब फिर आज नाटक किया उसका क्या? यह सोचना चाहिए न? सबसे पहले पति को पत्नी की माफ़ी माँगनी चाहिए। पति उदार मन होता है। बीवी पहली माफ़ी नहीं माँगती। समझ में आया न, क्या कहा? प्रश्नकर्ता : पति को उदार मन का कहा, इसलिए वे खुश हो गए। दादाश्री : नहीं, वह उदार मनवाला ही होता है। उसका विशाल मन होता है और स्त्रियाँ साहजिक होती हैं। साहजिक होने से भीतर उदय आने पर माफी माँग लें, नहीं भी माँगें। पर यदि तुम माँगोगे, तब वह तुरन्त माँग लेगी। और तुम उदय कर्म के अधीन नहीं रहोगे, तुम जागृति के अधीन रहोगे। और वह उदय कर्म के अधीन रहती है, वह सहज कहलाती है न! स्त्री सहज कहलाती है। तुम्हारे में सहजता नहीं आएगी। यदि आप सहज हो जाए तो बहुत सुखी हो जाएँ। प्रश्नकर्ता : यह अहम् झूठा है, ऐसा हमें कहा जाता है और सब जगह सुनते हैं, कई संत पुरुष भी ऐसा कहते हैं, फिर भी अहम् क्यों नहीं जाता? दादाश्री : अहम् कब जाएगा? अहम् झूठा है, ऐसा हम एक्सेप्ट (स्वीकार) करें तब जाएगा। वाइफ के साथ तकरार होती हो तब हमें समझ लेना चाहिए कि यह मेरा अहम् गलत है। इसलिए हम प्रतिदिन उस अहम् (अहंकार) से ही फिर भीतर माफ़ी मंगवाते रहें, तो वह अहम् चला जाएगा। कुछ उपाय तो करना चाहिए न? Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार हम यह सरल और सीधा रास्ता दिखा देते हैं और यह टकराव थोड़े रोज-रोज होता है? वह तो जब हमारे कर्म का उदय होगा तब होता है, उतना समय हमें एडजस्ट (अनुकूल) होना है। घर में वाइफ के साथ झगड़ा हुआ हो तब झगड़ा होने के बाद वाइफ को होटल में ले जाकर भोजन करवाकर खुश करो। अब पकड़ नहीं रहनी चाहिए। इसलिए 'यह' ज्ञान हो तो फिर वह झंझट नहीं रहती। ज्ञान हो तब तो हम सवेरे ही वाइफ के भीतर भी भगवान (शुद्धात्मा) के दर्शन करते ही हैं न? वाइफ में भी दादा दिखाई दे तो कल्याण हो गया! वाइफ को देखें तो ये 'दादा' दिखाई देते हैं न! उसके भीतर शद्धात्मा दिखते हैं न! उससे कल्याण हो गया! इसलिए जैसे भी हो 'एडजस्ट' (अनुकूल) होकर वक्त गुजार देना ताकि कर्ज चुकता हो जाए। किसी का पच्चीस साल का, किसी का पंद्रह साल का, किसी का तीस साल का, चाहो या न चाहो हमें कर्ज तो चुकाना पड़ेगा। पसंद नहीं हो फिर भी उसी कमरे में उसके साथ रहना पड़ेगा। यहाँ बिछौना बाई साहब का और यहाँ बिछौना भाई साहब का! मुँह उलटा करके सो जाएँ तो भी बाई साहब (पत्नी) को विचार तो भाई साहब (पति) के ही आते हैं न! इससे छुटकारा नहीं, यह संसार ही ऐसा है। उसमें भी हमें ही वह पसंद नहीं ऐसा नहीं है, उसको भी हम पसंद नहीं होते। अर्थात् इसमें आनंद उठाने जैसा नहीं है। 'डॉन्ट सी लॉ, प्लीज सेटल' (कानून मत देखो समाधान करो) सामनेवाले को 'सेटलमेन्ट (समाधान)' करने को कहना। 'तुम ऐसा करो, वैसा करो' ऐसा कहने के लिए वक्त ही कहाँ है? सामनेवाले की सौ गलतियाँ हों तो भी हमें तो हमारी ही गलती कहकर आगे निकल जाना है। इस काल में 'लॉ (कानून)' कही देख सकते हैं? यह जगत तो अंतिम चरण में आ गया है! पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : समझदार आदमी हो न, तो लाख रुपये देंगे फिर भी तकरार नहीं करता है। और यह तो बिना पैसे तकरार करता है तब वह अनाड़ी नहीं तो क्या? भगवान महावीर को कर्म खपाने (पुरा करने) के लिए साठ मील पैदल अनाड़ी क्षेत्र में जाना पड़ा था, और आज के लोग पुण्यवान हैं इसलिए घर बैठे अनाड़ी क्षेत्र है! कैसा अहो भाग्य! कर्म खपाने के लिए यह तो आत्यंतिक लाभदायी है, अगर सीधा चले तो। घर में कोई पूछे, सलाह माँगे तभी जवाब देना। बिना पूछे, सलाह देने बैठ जाए, उसको भगवान ने 'अहंकार' कहा है। पति पूछे कि ये गिलास कहाँ रखने हैं? तब पत्नी जवाब दे कि 'फलाँ जगह रखो।' तब हमें वहाँ रख देने हैं। इसके बजाय वह कहे कि 'तुझे अक्ल नहीं, यहाँ रखने को फिर तू क्यों कहती है?' इस पर पत्नी कहेगी कि मेरे में 'अक्ल नहीं है इसलिए मैंने ऐसा कहा, अब तुम्हारी अक्ल से रखो।' अब इसका निबेड़ा कैसे हो? यह तो संयोगों का टकराव ही है केवल! ये लट्ट खाते समय टकराते ही रहते हैं। लट्ट फिर टकराते हैं, छिलते हैं और खन निकलता है! यह तो मानसिक खून निकलता है न! वह रक्त निकला हो तो अच्छा, पट्टी बांधने पर ठीक हो जाए। यह मानसिक घाव पर पट्टी भी नहीं लगती कोई! घर में किसी को भी, पत्नी को, बच्ची को, किसी भी प्राणी को दुःख देकर मोक्ष नहीं पा सकते। जरा-सी भी दुतकार होगी, वहाँ मोक्ष का मार्ग नहीं होगा। प्रश्नकर्ता : तिरस्कार और दुतकार, इन दोनों में क्या फर्क है? दादाश्री : दुतकार और तिरस्कार में तिरस्कार तो कभी मालूम नहीं भी पड़े। दुतकार के आगे तिरस्कार बिलकुल माइल्ड (फीकी) वस्तु है, जब कि दुतकार तो बड़ा ही उग्र स्वरूप है। दुतकार से तो तुरन्त ही रक्त निकले ऐसा है। उससे इस शरीर से रक्त नहीं निकलता, पर मन का रक्त निकलता है। दुतकार ऐसी भारी वस्तु है। एक बहन हैं, वह मुझसे कहती हैं, 'आप मेरे फादर हैं ऐसा लगता प्रश्नकर्ता: कई बार घर में भारी तकरार हो जाती है, तब क्या करें? Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार है, पिछले अवतार के।' बहन बहुत अच्छी, बहुत संस्कारी थी। फिर बहन से पूछा कि, 'इस पति के साथ तुम्हारा कैसे मेल बैठता है?' तब कहती है, 'वे कभी कुछ नहीं बोलते, कुछ नहीं कहते।' तब मैंने कहा, 'किसी दिन कुछ तो होता होगा न?' तब कहे, 'नहीं कभी-कभार ताना देते हैं।' 'हाँ', इस बात पर से मैं समझ गया। तब मैंने पूछा कि, 'वह ताना दें तब तुम क्या करती हो? तुम उस वक्त डंडा उठा लाती हो या नहीं?' तब वह कहती है, 'नहीं, मैं उन्हें ऐसा कहती हैं कि कर्म के उदय से मैं और आप इकट्ठा हुए हैं। मैं अलग, आप अलग। अब ऐसा क्यों करते हो? किस लिए ताने देते हो और यह सब क्या है? इसमें किसी का भी दोष नहीं है। यह सब कर्म के उदय का दोष हैं। इसलिए ताने देने के बजाय हमारे कर्म चुकता कर डालो न!' वह तकरार अच्छी कहलाएगी न! आज तक तो बहुत सारी स्त्रियाँ देखी, पर ऐसी ऊँची समझवाली यह स्त्री पहली ही देखी। मेरी प्रकृति मूलतः क्षत्रिय प्रकृति। हमारा क्षत्रिय ब्लड (खून), इसलिए ऊपरी (अपने से उपर वालों) को धमकाने की आदत और अन्डरहेन्ड (नीचे वालों) की रक्षा करने की आदत । यह क्षत्रियधर्म का मूल गुण हमारे में था। इसलिए वाइफ, बच्चे, अपने सभी अन्डरहेन्डवालों का रक्षण करने की आदत। वे उलटा-सुलटा करें फिर भी रक्षण करने की आदत। नौकर हो उन सबका रक्षण करना, उनकी भूल हो गई हो फिर भी उन बेचारों से कुछ नहीं कहता और ऊपरी हो तो उसकी खबर ले लूँ। और सारा जगत अन्डरहेन्ड के साथ किच-किच करता है। हम ब्याहकर घर में लायें और बीवी को डाँटते रहें, यह कैसा व्यवहार है कि गाय को खूटी से बाँधकर फिर उसे मारते रहो। खूटी से बाँधकर उसे मारते रहें तब? यहाँ से मारो तो उस ओर जाएगी बेचारी ! यह एक खुंटी से बंधी कहाँ जानेवाली है? यह समाज की खटी ऐसी है कि वह बेचारी पत्नी भाग भी नहीं सकती। खूटी से बंधी को मारें तो बहुत पाप लगेगा। खूटी से न बंधी हो तो हाथ ही न आए न! यह तो समाज की वजह से दबी रहती है वर्ना कब की भाग जाती। डिवोर्स (तलाक) लेने के बाद मारकर देखो, तब क्या होगा? 'मिनट' के लिए भी पत्नी के साथ झंझट नहीं हो, उसका नाम पति । मित्र के साथ जैसे बिगड़ने नहीं देते हो, उस प्रकार सम्हालना। मित्र के साथ यदि नहीं सम्हालते तो मित्रता ट जाती है। मैत्री यानी मैत्री। उनको शर्त बता देना कि तूने मैत्री में हमारा साथ छोड़ दिया तो गुनाह लगेगा। एक होकर मैत्री निभाना।' फ्रेन्ड के प्रति सिन्सियर (मित्र के प्रति वफादार) रहता है, जैसे फ्रेन्ड (मित्र) दूर रहकर भी कहता है कि 'मेरा फ्रेन्ड ऐसा है। मेरे बारे में कभी बुरा नहीं सोचेगा।' इस प्रकार पत्नी के लिए भी बुरा नहीं सोच सकते। वह फ्रेन्ड से बढ़कर नहीं है? पत्नी लौटाये तौल के साथ अब रात को पत्नी के साथ आपकी झंझट हुई हो तब उसका ताँता (तंत) सुबह तक रहेगा, इसलिए सवेरे चाय ऐसे पटककर रखे। आप समझ जाते हो कि ताँता है अभी भी, ठंडक नहीं हुई है। ऐसे झटका देती है पटककर, उसका नाम ताँता। _ 'वह किसलिए ऐसा करती है? तुम्हें दबाना चाहती है। और तू क्रोधित हो गया तब वह समझेगी कि हाँ, चलो, नरम पड़ गया। और गुस्सा नहीं करें तो फिर वह ज्यादा शोरगुल करेगी।' ऐसे शोरगुल के बाद भी अगर वह गुस्सा नहीं करता, तब फिर अन्दर जाकर दो-चार बर्तन जोर से गिरायेगी। उसकी खननन.... आवाज हो तो वह चिढ़ेगा। फिर भी अगर नहीं चिढ़ा तो बेटे को चिमटा लेकर रुलायेगी ताकि पापा चिढ़ जाए। 'तू बेटे के पीछे क्यों पड़ी है, बच्चे को बीच में क्यों लाती है? ऐसा वैसा...' इसलिए वह जान जाएगी कि यह ठंडा पड़ गया। पुरुष घटनाएँ भूल जाते हैं और स्त्रियों को उसकी नोंध (किसी घटना को राग-द्वेष से लंबे समय तक याद रखना) सारी जिन्दगी रहती हैं। पुरुष भोले होते हैं, बड़े दिलवाले होते हैं, भद्रिक होते हैं, इसलिए Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार वे भूल जाते हैं बेचारे। स्त्रियाँ तो कहती भी हैं कि उस दिन तुम ऐसा बोले थे, जो मेरे कलेजे में लगा है। अरे! बीस साल हुए तो भी नोंध ताजी! लड़का बीस साल का ब्याहने योग्य हो गया तो भी आज तक वह बात याद रखती है! सभी चीजें सड़ जाएँ पर इनकी चीजें (नोंध) नहीं सड़ती! हमसे कुछ उलटा-सीधा व्यवहार हो गया हो तो स्त्री उसे अपनी असली जगह पर रख देती है, कलेजे के भीतर। इसलिए हमें उसके साथ ऐसा कुछ भी व्यवहार नहीं करने जैसा है और सावधान रहने जैसा है। स्त्री से जितना तुम कहोगे उसकी जिम्मेवारी हमेशा आएगी, क्योंकि वह जब तक हमारा शरीर तंदुरुस्त (स्वस्थ) होगा न, तब तक बर्दाश्त करती रहेगी और मन में क्या कहेगी? जोड़ ढीले पड़ने दो तब इन्हें ठिकाने ला दूँगी। इन सभी को जिनके जोड़ ढीले पड गये उन्हें, ठिकाने ला दिया। मैंने ऐसे देखे भी हैं। इसलिए मैं लोगों को सलाह देता हूँ, बीवी के साथ तकरार मत करना। बीवी के साथ बैर मत रखना, नहीं तो परेशान हो जाएगा। हमारी स्त्री जाति मूलतः संस्कार में आए न, तो वह तो देवी है। पर यह तो बाहरी संस्कार छूने के परिणाम स्वरूप बिफर गई है अभी। इसलिए शास्त्रकारों ने कहा, 'स्त्री को ऐसे समझा देना सरल हैं किन्तु बिफर गई तो फिर सम्हालना महामुश्किल है।' और हमारे लोग वह बिफर जाए ऐसा करते हैं। उसे उलटा-सीधा कहकर उकसाते हैं और फिर वह बिफरे तो बाघिन जैसी हो जाती है। हमें इस हद तक नहीं जाना चाहिए, मर्यादा रखनी चाहिए। और हम स्त्री को परेशान करते रहें तो कहाँ जाएगी वह बेचारी? इसीलिए वह पहले वक्र (टेढ़ा) चलती है और फिर बिफर जाती है ! वह बिफरी तो सारा बिगड़ गया ! इसलिए उसे छेड़ना मत, लेट गो करना (छोड़ देना)। और स्त्री जब बिफरेगी तब तुम्हारी बुद्धि काम नहीं देगी, तुम्हारी बुद्धि उसे नहीं बाँध सकेगी। इसलिए बिफरे नहीं ऐसे बातें करना। आँखो में प्रेम भरपूर रखना। अगर वह ऐसा-वैसा कहे तब वह तो स्त्री जाति है, समझकर पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार लेट गो करना। अर्थात् एक आँख में संपूर्ण प्रेम रखना, दूसरी आँख में थोड़ी सख्ती रखना, उस प्रकार रहना चाहिए। वह तो एक आँख में सख्ती की तरह और एक आँख में देवी की तरह मानना, जिस समय जिसकी जरूरत लगे वैसा करना। हर रोज़ ज्यादा सख्ती मत करना। समझ में आया? प्रश्नकर्ता : एक आँख में सख्ती और एक आँख में प्रेम, वे दोनों एट-ए-टाइम (एक समय) कैसे रहेगा? दादाश्री : ऐसा तो पुरुष को सब आता है ! मैं तीस-पैतीस साल का था, तब घर आता न, उस वक्त हीराबा अकेली नहीं, आसपास की सभी स्त्रियाँ मुझे देखतीं। तब एक आँख में सख्ती देखें और एक आँख में पूजनीयता देखें। सभी स्त्रियाँ सिर पर ओढ़कर बैठतीं और सभी चौकन्नी हो जातीं। और हीराबा तो हमारे भीतर आने से पहले ही भड़कतीं, जूते की आहट हुई कि भड़क जातीं। एक आँख में सख्ती, एक में नर्मी। उसके बगैर स्त्री नहीं सँभलती। इसलिए हीराबा कहती थीं न, दादा कैसे हैं? प्रश्नकर्ता : तीखे भँवरे जैसे। दादाश्री : तीखे भँवरे जैसे हैं ऐसा कायम रखते। वैसे उन्हें जरा भी धमकाते नहीं। घर में प्रवेश करते कि चुप्पी। सब बर्फ जैसा ठंडा हो जाता, जूते की आहट होते ही तुरन्त ! सख्ती किस लिए कि वह ठोकर नहीं खा बैठें, इसलिए सख्ती रखो। इसलिए एक आँख में सख्ती और एक आँख में प्रेम रखना। प्रश्नकर्ता : इसलिए संस्कृत में कहा है, 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता!' दादाश्री : हाँ! इसलिए मैं जब ऐसा कहता हूँ न, तब सभी मुझे कहते हैं, 'दादा! आप स्त्रियों के तरफ़दार हैं, पक्षपाती हैं।' अब मैं जब कहता हूँ कि, स्त्रियों की पूजा करो, इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि सवेरे जाकर आरती उतारना। ऐसा करने पर तो वह तेरा कचूमर कर देगी। इसका अर्थ क्या है? एक आँख में प्रेम और एक आँख में सख्ती Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार रखना। अर्थात् पूजा मत करना। (आजकल) ऐसी योग्यता नहीं है। इसलिए मन से पूजा करना। ६८ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार और यह पति ! पति का तुझे डर नहीं लगता। उस पति को ऊपर से तू धमकाती रहती है! बाघ जैसे पति का कचूमर कर देती है! इसलिए पत्नी से कहना कि 'तुझे मुझसे जितना लड़ना हो उतना लड़ना। मुझे तो दादा ने लड़ने को मना किया है, दादा ने मुझे आज्ञा दी है। मैं यहाँ बैठा हूँ, तुझे जो कुछ कहना हो कह डाल।' ऐसा उसे कह देना। प्रश्नकर्ता : लेकिन बोलेगी ही नहीं न फिर। दादाश्री : दादा का नाम आते ही चुप हो जाए। दूसरा कोई हथियार इस्तेमाल मत करना। यही हथियार इस्तेमाल करना। एक बहन ने तो मुझे बताया था कि, 'शादी हुई तब वे बड़े अकड़ते थे।' मैंने पूछा 'अब?' तब कहे, 'दादाजी, आप सारा स्त्री चरित्र जानते हो, मुझसे क्यों कहलवाते हो?' उन्हें मुझसे कोई सुख लेना हो तब मैं उनसे कहती हूँ, 'भाईसाब कहिए।' अर्थात् वह उससे भाईसाब कहलवाती तब (विषय के लिए लाचारी करवाती)! 'उसमें मेरा क्या दोष? पहले वे मुझसे भाईसाब कहलवाते थे और अब मैं उससे भाईसाब कहलवाती हूँ।' ये अमलदार भी ऑफिस से थककर घर आएँ न, तब बाईसाहब क्या कहती हैं? कि 'डेढ़ घण्टा लेट हए, कहाँ गए थे?' देखो! उसकी बीवी एक बार उसको धमकाती थी। तब ऐसा शेर जैसा आदमी, जिससे सारा गुजरात डरता, उसे भी डराती थी देखो न ! सारे गजरात में जिसका कोई नाम नहीं ले सकता, उसका उसकी बीवी ही नहीं सुनती और उसे धमकाती रहती थी! फिर मैंने उसे एक दिन पूछा, 'बहन, तुम्हारा पति है वह तुझे अकेली छोड़कर दस-पंद्रह दिन बाहर जाए तब?' तब बोले, 'मुझे तो डर लगता है।' 'किसका डर लगता है?' तब कहती है, 'भीतर दूसरे रूम में गिलास खड़के न, तब भी मेरे मन में ऐसा लगता है कि भूत आया होगा!' एक चुहिया गिलास खड़काये तब भी डर लगता है एक व्यक्ति तीन हजार की घोड़ी लाया था। रोजाना तो वैसे घोड़ी की सवारी बाप करता था। उसका चौबीस साल का बेटा था। एक दिन बेटा घोड़ी पर सवारी करके तालाब पर ले गया। उस घोड़ी के साथ ज़रा छेड़खानी की! अब तीन हजार की घोड़ी, उसके साथ छेड़खानी करना कितना योग्य है! उसके साथ छेड़खानी नहीं कर सकते। उसको उसकी चाल से ही चलने देना पड़े। उसने घोड़ी की छेड़खानी की तब घोड़ी तेजी से अगले दोनो पैरों पर खड़ी हो गई और वह लड़का गिर पड़ा। अब वह घर आकर क्या कहने लगा कि 'इस घोड़ी को बेच दो, घोड़ी खराब है।' उसे बैठना नहीं आता और घोड़ी की गलती निकालता है! देखो, यह उसका मालिक! फिर मैंने कहा, 'हाँ, वह घोड़ी खराब थी, यह तीन हजार की घोड़ी!' अरे, तुझे सवार होना नहीं आता, इसमें घोड़ी को क्यों बदनाम करता है? घोड़ी पर सवारी करना नहीं आनी चाहिए? घोड़ी को बदनाम करते हो? एक बार पति यदि पत्नी का प्रतिकार करेगा तो उसका प्रभाव ही नहीं रहेगा। हमारा घर ठीक से चल रहा हो, बच्चे अच्छी तरह से पढ़ रहे हों, किसी बात की झंझट नहीं हो और हमें पत्नी का उल्टा देखने में आया और बिना वजह प्रतिकार करें, तब हमारी अक्ल का नाप स्त्री निकाल लेती है कि इसमें कुछ बरकत नहीं है। तुम्हें स्त्रियों के साथ 'डीलिंग (वर्तन)' करना नहीं आता। तुम व्यापारियों को यदि ग्राहकों के साथ डीलिंग करना नहीं आए तो वे तुम्हारे पास नहीं आयेंगे। इसलिए हमारे लोग कहते है न कि 'सेल्समेन अच्छा रखो।' अच्छा, होशियार सेल्समेन हो तो लोग थोड़ी ज्यादा क़ीमत भी दे देंगे। इस प्रकार हमें स्त्री के साथ 'डीलिंग' करना आना चाहिए। यह तो स्त्री जाति की वजह से जगत का यह सब नूर है वर्ना घर में साधु से भी बुरा हाल आपका होता। सवेरे झाड़ ही नहीं निकला होता! Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ६९ चाय का भी ठिकाना नहीं होता !! यह तो वाइफ है इसलिए उसके कहने पर सवेरे जल्दी-जल्दी नहा लेते हो, उसकी वजह से सारी शोभा है! और उनकी शोभा आपकी वजह से है। स्त्री अर्थात् सहज प्रकृति। पाँच करोड़ का नुकसान हुआ हो, तो पति सारा दिन चिंता करता हो, दुकान में नुकसान होता हो तो घर आकर खाता-पीता भी नहीं पर पत्नी तो पति के घर आने पर उससे कहेगी, 'लो, उठो, अब इतनी हाय-हाय मत करो, चाय पीओ और आराम से भोजन करो।' अब आधी पार्टनरशिप उसकी होने पर भी उसे चिंता क्यों नहीं होती, क्योंकि वह साहजिक है। इसलिए इस सहज (प्रकृति) के साथ रहें तब जी पाएँ, वर्ना नहीं जी पाते। और दोनों पुरुष होते तो मर जाते आमने-सामने टकरा टकराकर ) । अतः स्त्री तो साहजिक है, इसलिए यह घर में आनंद रहता है थोड़ा-बहुत । स्त्री तो दैवी शक्ति है पर अगर पुरुष को समझ आए तो काम बन जाए। स्त्री का दोष नहीं, हमारी उल्टी समझ का दोष है। स्त्रियाँ तो देवियाँ हैं, उन्हें देवी पद से नीचे नहीं उतारना। 'देवी है,' कहते हैं न । और उत्तर प्रदेश में तो कहीं कहीं 'आइए देवी' कहते हैं, आज भी कहते हैं, 'शारदा देवी आई, सीता देवी आईं।' कुछ प्रदेशों में नहीं कहते ? और चार पुरुष साथ-साथ रहते हों, एक आदमी खाना पकाये, एक आदमी सफाई करे, उस घर में बरकत नहीं होती। एक पुरुष और एक स्त्री रहें (पति-पत्नी) तब घर सुन्दर दिखता है। स्त्री सजावट बहुत सुन्दर करती है। प्रश्नकर्ता: आप अकेली स्त्रियों का ही पक्ष मत लिया कीजिए । दादाश्री : मैं स्त्रियों का पक्ष नहीं लेता, इन पुरुषों का पक्ष लेता हूँ। वैसे स्त्रियों को लगेगा ही हमारा पक्ष लेते हैं, पर तरफदारी पुरुषों की करता हूँ। क्योंकि फेमिली के मालिक आप हैं। She is not owner of family, you are owner ( वह कुटुंब की मालिक नहीं, आप मालिक हैं)। लोग बम्बई में मुझे कहते हैं न, 'आप पुरुषों का पक्ष नहीं पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार लेते और स्त्रियों का पक्ष क्यों लेते हैं?' मैंने कहा, 'उनकी कोख से महावीर पैदा हुए हैं, तुम्हारी कोख से कौन पैदा हुआ है? बिना वजह तुम उसकी बात ले बैठे हो ?' ७० मैं पुरुषों को ऐसी समझ देता हूँ कि बाद में स्त्रियाँ उनका सम्मान करती हैं। इसलिए दोनों के साथ कैसे व्यवहार करना उसके तरीके हमें आने चाहिए। दोनों को संतोष होना चाहिए। मुझे तो (व्यवहार में तो) स्त्रियों के साथ भी बहुत अनुकूल होता है और पुरुषों के साथ भी उतना ही अनुकूल होता है। पर वास्तव में हम न तो स्त्रियों के पक्ष में होते हैं और न ही पुरुषों के पक्ष में होते है । दोनों ठीक से संसार चलाओ। पत्नी नहीं हो तो तेरा घर कैसे चलेगा? पत्नी की शिकायतें तू शिकायत करेगा तो तू फ़रियादी हो जाएगा। मैं तो जो फ़रियाद लेकर आए उसे ही गुनहगार समझता हूँ । तुझे फ़रियाद करने का वक्त ही क्यों आया? फ़रियादी ज़्यादातर गुनहगार ही होते हैं। खुद गुनहगार है, इसलिए शिकायत लेकर आता है। तू फ़रियाद करेगा तो तू फ़रियादी हो जाएगा और सामनेवाला आरोपी हो जाएगा। इसलिए उनकी दृष्टि में तू आरोपी ठहरेगा। इसलिए किसी के विरुद्ध फ़रियाद मत करना। वह भाग करता हो तो हम गुणा करेंगे ताकि रक़म (शून्य हो जाए। सामनेवाले के लिए ऐसा सोचना कि उसने मुझे ऐसा कहा, वैसा कहा वही गुनाह है। रास्ते पर चलते समय पेड़ से टकराओ तो उससे झगड़ा क्यों नहीं करते? पेड़ को जड़ कैसे कह सकते हैं? जिनसे चोट लगती है वे सभी हरे पेड़ ही हैं न? गाय का पैर हम पर पड़े तो हम उसे कुछ कहते हैं? ऐसा इन सभी लोगों का है। 'ज्ञानीपुरुष' सभी को माफ़ी कैसे देते हैं? वे जानते हैं कि ये सभी (लोग) पेड़ की तरह है। समझदार को तो कहना ही नहीं पड़ता, वह तो भीतर तुरन्त प्रतिक्रमण कर लेता है। पति अपमान करे, तब क्या करती हो फिर? दावा दायर करोगी? Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता : ऐसा थोड़े ही करेंगे? ऐसा कभी होता होगा? दादाश्री : तब क्या करती हो? मेरे आशीर्वाद हैं. कहकर सो जाना! बहन, तू सो जाएगी या मन में गालियाँ देती रहेगी? मन में ही गालियाँ देती रहती है। और फिर पत्नी तीन हजार की साड़ी देखे तो घर आकर मुँह फूल जाता है। ऐसा देखकर हम पूछे, 'मुँह क्यों ऐसा हो गया?' वह साड़ी में खो गई होती है। जब साड़ी लाकर दें तब छोड़ती है, वर्ना तब तक क्लेश करना नहीं छोड़ती। ऐसा नहीं होना चाहिए। पत्नी कहेगी कि, 'यह हमारे सोफे की डिजाईन ठीक नहीं है। आपके मित्र के वहाँ गए थे, उसकी डिजाईन कितनी सुन्दर थी!' अरे, इस सोफे में तुझे सुख नहीं मिलता? तब कहें कि, 'नहीं, मैंने वहाँ जो देखा वह अच्छा लगा है।' बाद में पति को उसके जैसा सोफा लाना पड़ता है! नया सोफा आये और किसी दिन लड़का ब्लेड से कहीं काट दे तो भीतर मानो आत्मा कट जाए! बच्चे ऐसे सोफा काट देते हैं या नहीं? और उस पर कूदते हैं या नहीं? और कूदते हैं तब मानो उसकी छाती पर कूद रहा हो ऐसा लगता है। यह उसका मोह है। वह मोह ही काट-काटकर तुम्हारा कचूमर कर देगा। ७२ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : त्रागा तो स्त्रियाँ नहीं, पुरुष भी करते हैं। (अज्ञान दशा में) मैंने भी किये थे। अब तो लोग ज्यादा त्रागे नहीं करते। त्रागा माने क्या? खुद को कुछ चाहिए तो सामनेवाले को धमकाकर ले लेना, अपनी मनमानी करना ! प्रश्नकर्ता : सब जगह औरतों का ही दोष क्यों देखा जाता है और पुरुषों का क्यों नहीं देखा जाता? दादाश्री : स्त्रियों का तो ऐसा है न, पुरुषों के हाथ में कानून था, इसलिए स्त्रियों को नुकसान हुआ है। यह तो पुस्तकें पुरुषों ने लिखी। इसलिए पुरुषों को आगे किया है, स्त्रियों को उड़ा दिया है। उन लोगों ने उसमें उसकी वेल्यु (मूल्य) उड़ा दी है। परिणाम स्वरूप मार भी उतनी ही खाई है। नर्क में भी वे ही जाते हैं। यहाँ से नर्क में जाते हैं। स्त्रियों को ऐसा नहीं होता। भले ही स्त्री की प्रकृति अलग हो, उसकी प्रकृति के अनुसार उसे फल मिलता है और पुरुष को उसकी प्रकृति के अनुसार फल मिलता है। स्त्री की अजागृत प्रकृति है। अजागृत अर्थात् सहज प्रकृति। प्रश्नकर्ता : कब तक हमें ऐसे सहन करना चाहिए? दादाश्री : सहन करने से तो शक्ति और बढ़ती है। प्रश्नकर्ता : तो ऐसा सहन ही करते रहें? दादाश्री : सहन करने के बजाय उस पर सोचना अच्छा है। विचार से उसका सोल्युशन (हल) निकालो। बाक़ी सहन करना गुनाह है। बहुत सहने से फिर स्प्रिंग की तरह उछलकर सारा घर तहस-नहस कर डालती है। सहनशीलता तो स्प्रिंग है। स्प्रिंग पर लोड (बोझा) मत रखना कभी भी। वह तो थोड़े समय के लिए ठीक है। रास्ते में आते-जाते किसी के साथ कुछ हुआ हो तब, वहाँ यह स्प्रिंग इस्तेमाल करनी है। यहाँ घर के लोगों पर 'लोड' (वजन) नहीं रख सकते। घर के लोगों का सहन करोगे तब क्या होगा? स्प्रिंग उछलेगी वह तो। इस मोह में तो जन्म बिगड़ जाते हैं और दूसरा, बहनों से कहता हूँ कि (जरूरत से ज्यादा) शोपिंग मत करना। शोपिंग बंद कर दो। यह तो डॉलर आए कि.... अरे, जरूरत नहीं है तो क्यों लेते हो, यजलेस (बिना वजह)? किसी भी सही रास्ते पर पैसा जाना चाहिए कि नहीं जाना चाहिए? किसी फ़ैमिलि को पैसों की मुश्किल हो. उन बेचारों के पास नहीं हो और पचास-सौ डॉलर दें तो कितना अच्छा लगे! और शोपिंग में फ़िजूल खर्ची करते हो और घर में सब भरा पड़ा रहता है। प्रश्नकर्ता : फिर स्त्रियाँ त्रागा (अपनी मनमानी/बात मनवाने के लिए किए जानेवाला नाटक) करती हैं! Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता : कैसा डिजाईन करना चाहिए, दादा? हाथ में आने के बाद क्या? पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता : सहनशीलता की मर्यादा कितनी रखें? दादाश्री : वह तो एक हद तक सहन करना। फिर सोचकर पता लगाओ कि इसमें वास्तविकता क्या है। सोचने पर पता चलेगा कि इसके पीछे क्या है! केवल सहते ही रहोगे तो स्प्रिंग उछलेगी। सोचने की ज़रूरत है। विचारहीनता के कारण सहना पड़ता है। सोचोगे तब पता चलेगा कि इसमें भूल कहाँ हो रही है! उससे इसका सब समाधान निकल आएगा। भीतर अनंत शक्ति है, अनंत शक्ति ! तुम माँगो वह शक्ति मिले ऐसी है। यह तो भीतर शक्ति खोजते नहीं और बाहर शक्ति खोजते हैं। बाहर कौनसी शक्ति है? घर-घर सहन करने से ही विस्फोट होते हैं। मैं कितना सहन करूँ, मन में ऐसा ही समझते हैं। लेकिन उसका सोचकर रास्ता निकालना चाहिए। जो संजोग मिले हैं, वे देख। संजोग कुदरत का निर्माण हैं और तू अब किस प्रकार उसमें से छूट पायेगा? नये बैर बँधे नहीं और पुराने बैर छोड़ देने हों तो उसका रास्ता निकालना चाहिए। यह जन्म बैर छोड़ने के लिए है, और बैर छोड़ने का रास्ता है, 'प्रत्येक के साथ समभाव से निकाल!' फिर देखो तुम्हारे बच्चे कितने संस्कारी होंगे! प्रश्नकर्ता : मेरी सहेली का प्रश्न है कि, उसके पति उस पर गुस्सा करते हैं, इसका क्या कारण होगा? दादाश्री : वह तो अच्छा है। लोग गुस्सा करें, इसके बजाय पति करे वह अच्छा। घर के आदमी हैं न! ऐसा है, लोहार भारी लोहा हो और उसे मोड़ना हो तब उसे गरम करते हैं। क्यों करते हैं? ऐसे ठण्डा नहीं मुड़ेगा, इसलिए गरम करके फिर मोड़ता है। तब फिर दो हथौड़ियाँ मारें, उतने में मुड़ जाता है। प्रत्येक वस्तु गरम होने पर मुड़ती है हमेशा। जितना गरम उतना कमज़ोर होता है और कमजोर इसलिए एक-दो हथौड़ी मारते ही हमें जैसा डिजाईन चाहिए वैसा बना सकते हैं। इसी प्रकार पत्नी भी ऐसी कमजोरीवाले (गुस्सैल) पति को अपनी डिज़ाईन के मुताबिक बना सकती है। दादाश्री : हम जैसा बनाना चाहें वैसा डिज़ाईन बने। पति को तोते जैसा बना दे। 'आया राम' पत्नी बोलेगी तब वह भी कहेगा, 'आया राम'। 'गया राम' बोले तो वह भी कहेगा, 'गया राम।' वैसा तोते जैसा बन जाएगा। पर लोगों को हथौड़ी मारना भी नहीं आता न ! वे सभी कमजोरियाँ हैं। गुस्सा करना कमजोरी है। आप आते हों और मकान पर से सिर पर एक पत्थर गिरे, और खून निकला, तो उस वक्त क्या बहुत गुस्सा करोगे? प्रश्नकर्ता : नहीं, वह तो 'हो गया' है। दादाश्री : नहीं, मगर वहाँ पर गस्सा क्यों नहीं करते? कोई मारनेवाला दिखता नहीं, इसलिए गुस्सा कैसे आए? प्रश्नकर्ता : किसी ने जान-बूझकर मारा नहीं। दादाश्री : अर्थात् हमारे पास क्रोध का कंट्रोल (नियंत्रण) है। अत: यदि हम समझें कि जान-बूझकर कोई मारता नहीं, तो वहाँ कंट्रोल (नियंत्रण) कर सकते हैं। कंट्रोल तो है ही। और फिर कहते हैं, 'मुझे गुस्सा आ जाता है।' अरे, वहाँ क्यों नहीं आता, पुलिसवाले के साथ? जब पुलिसवाला धमकाता है, उस वक्त क्यों गस्सा नहीं आता? उसे बह पर गुस्सा आता है, बच्चों पर गुस्सा आता है, पडोसी पर गस्सा आता है, 'अन्डर हेण्ड' (हाथ के नीचेवाले) पर गुस्सा आता है पर 'बॉस' (मालिक) पर क्यों नहीं आता? गुस्सा मनुष्य को आ नहीं सकता। यह तो उसे अपनी मनमानी करनी है। प्रश्नकर्ता : घर में या बाहर फ्रेन्ड्स में, सब जगह, प्रत्येक के मत अलग-अलग होते हैं और वहाँ हमारी मनमानी नहीं हो तो फिर हमें गुस्सा आता है, तब क्या करें? Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : सभी लोग अपनी मनमानी करने लगे, तब क्या होगा? ऐसा विचार ही कैसे आए? तुरन्त ही ऐसा विचार आना चाहिए कि सभी यदि अपनी मनमानी करने जाएंगे, तो यहाँ पर आमने-सामने बर्तन तोड़ देंगे और खाने को भी नहीं रहेगा। इसलिए मनमानी कभी मत करना। ऐसी धारणा ही नहीं करनी, तो गलत होगा ही नहीं। जिसे गरज़ होगी वह धारणा करेगा, ऐसा रखो। प्रश्नकर्ता : हम कितने भी शान्त रहे लेकिन पुरुष गुस्सा हो जाते हैं तो हमें क्या करना? दादाश्री : वे गुस्सा करें और झगड़ा करना हो तो हम भी गुस्सा करें, वर्ना बंद कर दो। बात खत्म करनी हो तो ठंडी हो जाना और बात खत्म नहीं करनी हो तो सारी रात चलने देना। कौन मना करता है? अच्छी लगती है यह बात? प्रश्नकर्ता : नहीं, अच्छी नहीं लगती। दादाश्री : गुस्सा करके क्या करना है? मनुष्य खुद गुस्सा नहीं करता। यह तो मिकेनिकल एडजस्टमेन्ट (यांत्रिक अनुकूलन) गुस्सा करता है। खुद गुस्सा नहीं होते। खुद को फिर मन में पछतावा होता है कि गुस्सा नहीं किया होता तो अच्छा होता। प्रश्नकर्ता : उसे ठण्डा करने का उपाय क्या? दादाश्री : वह तो मशीन गरम हो गई हो. उसे ठण्डी करनी हो तो थोड़ी देर रहने दो, तो अपने आप ठण्डी हो जाती है। हाथ लगायें और उसे छेड़खानी करें तो हम जल जाएँगे। प्रश्नकर्ता : मेरे और मेरे पति के बीच गस्सा और बहस हो जाती है। कहा-सुनी वगैरह हो जाती है तो क्या करें हम? दादाश्री : गुस्सा तू करती है या वह? गुस्सा कौन करता है? प्रश्नकर्ता : वे करते हैं, फिर मुझ से भी हो जाता है। दादाश्री : तब हमें भीतर खुद को डाँटना है, 'क्यों तू ऐसा करती है?' जो किया वह भुगतना तो पड़ेगा न! लेकिन प्रतिक्रमण (पछतावा) करने से सभी दोष खतम हो जाते हैं। वर्ना दूसरों को हमारे दिये हुए दुःख फिर हमें ही भुगतने पड़ते हैं। लेकिन प्रतिक्रमण करने से जरा ठण्डा पड़ जाता है। प्रश्नकर्ता : किन्तु पति-पत्नी के बीच थोड़ा गुस्सा तो होना ही चाहिए न? दादाश्री : नहीं, ऐसा कोई कानून नहीं है। पति-पत्नी के बीच तो बहुत ज्यादा शांति रहनी चाहिए। (एक दूसरे को) दु:ख हो, वे पति-पत्नी ही नहीं होते। सच्ची फ्रेन्डशिप में ऐसा नहीं होता। फिर यह तो सबसे बड़ी फ्रेन्डशिप है ! यहाँ झगड़ा नहीं होना चाहिए। यह तो लोगों ने मान लिया है, खुद को ऐसा होता है इसलिए नियम ऐसा ही है, कहते हैं ! पतिपत्नी के बीच तो झगड़ा बिलकुल नहीं होना चाहिए, चाहे और सब जगह भले ही हो। प्रश्नकर्ता : हमारे शास्त्रों में लिखा है कि स्त्री है, उसे पति को ही परमेश्वर मानना और उसकी आज्ञा के अनुसार चलना चाहिए, तो इस समय में इसका पालन कैसे करना चाहिए? दादाश्री : वह तो पति यदि राम जैसे हों, तब हमें सीता बनना चाहिए। पति टेढ़ा हुआ हो, तब हम टेढ़े नहीं हों तो कैसे चलेगा? सीधे रहें तो उत्तम पर सीधा रहा नहीं जाता। मनुष्य को बार-बार परेशान करते रहे तो फिर किस प्रकार सीधा रह सकता है? फिर पत्नी क्या करे बेचारी? पति को पति धर्म निभाना चाहिए और पत्नी को पत्नी धर्म निभाना चाहिए। यदि पति की थोड़ी गलतियाँ हों और निभा ले वह 'स्त्री' कहलाती है। पर वह इतनी गालियाँ देने लगे, तब पत्नी क्या करे बेचारी? प्रश्नकर्ता : पति ही परमात्मा है, यह क्या झूठ है? दादाश्री : आज के पतियों को परमात्मा मानें, तो पागल होकर फिरे ऐसे हैं! Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ ७८ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : हाँ, पहले के पति 'राम' थे और अभी के 'मरा' हैं। प्रश्नकर्ता : यह कहती है जमरा (यमराज)। प्रश्नकर्ता : पति के प्रति पत्नी का कर्तव्य क्या है, यह समझाइए। दादाश्री : स्त्री को हमेशा पति के प्रति सिन्सियर (वफादार) रहना चाहिए। पति को पत्नी से कहना चाहिए कि 'तुम सिन्सियर नहीं रहोगी तो मेरा दिमाग बिगड़ जाएगा।' उसे चेतावनी देनी चाहिए। 'बीवेर' (सावधान) करना, लेकिन आग्रह नहीं कर सकते कि सिन्सियर रहो। किन्तु उसे 'बीवेर' रहने को कह सकते हैं। सारी जिन्दगी सिन्सियर रहना चाहिए। रात-दिन सिन्सियर, उनकी ही चिंता होनी चाहिए। तुम्हें उनकी चिंता रखनी चाहिए तभी संसार ठीक से चलेगा। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता : पति को परमेश्वर कहना चाहिए? उनके प्रतिदिन दर्शन करने चाहिए? उनका चरणामृत पीना चाहिए? दादाश्री : उसे परमेश्वर कहें, मगर वो मरनेवाले न हों तब तो परमेश्वर । मर जानेवाले हैं, वे काहे के परमेश्वर ! पति परमेश्वर काहे का? इस समय के पति परमेश्वर होते होगें? प्रश्नकर्ता : मैं तो प्रतिदिन पति के चरण स्पर्श करती हूँ। दादाश्री : ऐसा करके पति को बनाती होगी। पति यानी पति और परमेश्वर यानी परमेश्वर । वह पति भी कहाँ कहता है कि 'मैं परमेश्वर हूँ? 'मैं तो पति हूँ' ऐसा ही कहता है न? प्रश्नकर्ता : हाँ, 'पति हूँ' ऐसा ही कहते हैं। दादाश्री : हं..., ऐसे तो गाय का भी पति (मालिक) होता है. सबके पति (मालिक) होते हैं। आत्मा अकेला ही परमेश्वर है, शुद्धात्मा! प्रश्नकर्ता : चरणामृत पी सकते है? दादाश्री : आज के दुर्गन्धवाले लोगों का चरणामृत कैसे पी सकते हैं! यह मनुष्य गंध मारते हैं, ऐसे बैठे हों तब भी गंध मारते हैं। वह तो पहले सुगंधवाले लोग थे तब की बात अलग थी। आज तो सभी मनुष्य गंध मारते हैं। हमारा सिर फटने लगे। जैसे-तैसे करके दिखावा करना है कि हम पति-पत्नी हैं। प्रश्नकर्ता : अब सब औरतें पढ़ी-लिखी हैं न, इसलिए सभी ने वह परमेश्वर पद हटा दिया है। दादाश्री : पति परमेश्वर बन बैठे हैं, देखो न ! उनके हाथ में किताब लिखने की सत्ता। इसलिए कौन पूछनेवाला था! एक तरफ कर डाला न? ऐसा नहीं होना चाहिए। प्रश्नकर्ता : आजकल की औरतें अपने पति को पहले की औरतों के जैसा सम्मान नहीं देती। प्रश्नकर्ता : पतिदेव सिन्सियर नहीं रहे, तब फिर पत्नी का दिमाग खराब हो जाए तो पाप नहीं लगता न? दादाश्री : आपका दिमाग खराब हो तो वह स्वाद चखता है न! पति भी स्वाद चखता है न बाद में! ऐसा नहीं करना चाहिए। एज फार एज पोसिबल (जहाँ तक हो सके)। पति की इच्छा नहीं हो और भूलचूक हो जाती हो तब पति को उसकी क्षमा माँग लेनी चाहिए, कि 'मैं क्षमा चाहता हूँ, फिर से ऐसा नहीं होगा।' सिन्सियर तो रहना चाहिए न मनुष्य को? सिन्सियर नहीं रहे तो कैसे चलेगा? प्रश्नकर्ता : माफी माँग ले पति, बात-बात में माफी माँग ले पर फिर वैसा ही करते हों तब? दादाश्री : पति माफी मांगे तो आप समझें न कि बेचारा कितनी लाचारी का अनुभव करता है! इसलिए लेट गो करना। उसे उसकी 'हेबिट' (आदत) नहीं पड़ी है। 'हेबिच्यटेड' (आदी) नहीं हुआ है। उसको भी पसंद नहीं होता मगर क्या करे? बरबस ऐसा हो जाता है। भूलचूक तभी होती है न! Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार मनभेद से क्या होता है? मनभेद होने पर 'डिवोर्स' (तलाक़) ले लेते हैं और तनभेद हो तब अर्थी निकलती है ! प्रश्नकर्ता : व्यवहारिक मामलों में मतभेद हो वह विचारभेद कहलाता है या मतभेद कहलाता है? पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता : पति को हेबिट (आदत) हो गई हो, तब क्या करें? दादाश्री : करना क्या? क्या उसे निकाल देंगे? निकालें तो फजीहत होगी बाहर! इसलिए ढककर रखना, और क्या कर सकते हैं तब! गटर को ढकते हैं या खोलते हैं? ये गटरों का ढक्कन बंद रखना होता है या खुला रखना होता है? प्रश्नकर्ता : बंद रखने पड़ते हैं। दादाश्री : वर्ना खोलने पर बू आएगी, हमारा सिर घूम जाए। प्रश्नकर्ता : अमरीका की बहुत-सी औरतें हमें पूछती हैं कि तुम लोग यहाँ टीका क्यों लगाती हो? दादाश्री : हाँ, टीका इसलिए कि हम आर्य स्त्रियाँ हैं न इसलिए। हम अनार्य नहीं हैं। आर्य स्त्रियाँ टीकेवाली होती हैं। अर्थात् पति से चाहे कितना भी झगड़ा हो, फिर भी वह घर छोड़कर जाती नहीं और बिना टीकेवाली तो दूसरे दिन ही चली जाए। और यह तो स्टेडी (स्थिर) रहती है, टीकेवाली। यहाँ (कपाल में दो भकटी के बीच भीतर) सक्ष्म मन का स्थान होता है, वह एक पति में मन एकाग्र रहे इसलिए। प्रश्नकर्ता : स्त्रियों को क्या करना चाहिए? पुरुष का तो आपने बताया, मगर स्त्रियाँ दोनों आँखो में क्या रखें? दादाश्री : स्त्रियों को तो, उन्हें चाहे जैसा पति मिला हो, वह अपने हिसाब का है। पति मिलना वह कोई गप नहीं। इसलिए जो पति मिला उसके प्रति एक पतिव्रता बनने का प्रयत्न करना। और अगर ऐसा नहीं हो सके तब उसकी फिर क्षमापना करो। पर तेरी दृष्टि ऐसी होनी चाहिए। और पति के साथ पार्टनरशिप (साझेदारी) में कैसे आगे बढ़ सकते हैं, अपनी उर्ध्वगति हो, किस प्रकार मोक्ष प्राप्त हो, ऐसे विचार करो! परिणाम, तलाक़ के मतभेद पसंद हैं? मतभेद हों तो झगड़े होते हैं, चिंता होती है, तब दादाश्री : वह मतभेद कहलाता है। यह ज्ञान लिया हो तो उसे विचारभेद हुआ कहलाए। वर्ना फिर मतभेद कहलाए। मतभेद से तो झटका लगता है! प्रश्नकर्ता : मतभेद कम रहें तो वह अच्छा है न? दादाश्री : मनुष्य को मतभेद होना ही नहीं चाहिए। यदि मतभेद है तब वह मानवता ही नहीं कहलाती। क्योंकि मतभेद में से कभी कभी मनभेद हो जाता है। मतभेद से मनभेद हो जाए तो 'तू ऐसी है और तू अपने घर चली जा' ऐसा कहने लगता है। इसमें फिर मजा नहीं रहता। जैसे-तैसे निभा लेना। प्रश्नकर्ता : अभी तो अंतिम मतभेद तक पहुँच गया है। दादाश्री : यही कहता हूँ न, यह सब अच्छा नहीं लगता। बाहर अच्छा नहीं दिखता। इसका कोई अर्थ नहीं है। अभी भी सुधार सकते हैं। हम मनुष्य हैं, इसलिए सुधार सकते हैं। किस लिए ऐसा होना चाहिए। मुए फ़जीहत किया करते हैं? कुछ समझना तो पड़ेगा न? समझे आप? इन सभी में सुपरफ्लुअस (ऊपर-ऊपर का) रहने का है, तब यहाँ तो स्त्री के पति (स्वामी) बन बैठे हैं, कुछ लोग तो! अरे! स्वामित्व क्यों जताता है? यह तो यहाँ जीया तब तक स्वामी और कल डिवोर्स (तलाक़) न ले, तब तक स्वामी। कल बीवी डिवॉर्स ले, तब तू किसका स्वामी? प्रश्नकर्ता : आजकल सभी डिवॉर्स लेते हैं, तलाक़ लेते हैं, तब छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर तलाक़ लेते हैं तो उनकी हाय नहीं लगती? दादाश्री : लगती है न मगर वह करे क्या? वास्तव में तलाक़ नहीं Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार लेने चाहिए। सच पूछो तो सब निबाह लेना चाहिए। बच्चे होने से पहले लिया होता तो हर्ज नहीं था, लेकिन यदि बच्चे होने के तलाक़ बाद लें तो बच्चों की हाय लगती है। प्रश्नकर्ता : लड़के के बाप का जरा भी दिमाग चलता नहीं हो, कुछ कामकाज करते नहीं हो, मोटेल चलाना नहीं आता हो और चार दीवारी के बीच घर में बैठा रहता हो तब क्या करें? दादाश्री : क्या करेंगे लेकिन? दूसरा सीधा मिलेगा कि नहीं इसका क्या भरोसा? प्रश्नकर्ता : वह तो चाहिए ही नहीं। दादाश्री : दूसरा उससे भी बढ़कर (खराब) मिले तब क्या करेंगे? कईं स्त्रियों को मिला है ऐसा। पहला पति था वह अच्छा था। अरे, चक्कर! फिर जहाँ थी वही पर रहना था न! मन में यह समझना चाहिए या नहीं? प्रश्नकर्ता : दादा के हवाले कर दें फिर दूसरा सीधा मिलेगा न? दादाश्री : अच्छा मिला और तीन साल बाद उसे एटेक आया तब क्या करोगी? निरे भयवाले संसार में यह सब किस लिए? जो हुआ वही करेक्ट (सही) कहकर चला लो यही अच्छा है। पहला पति सदैव अच्छा निकलता है, लेकिन दूसरा तो आवारा ही होगा। क्योंकि वह भी ऐसा ही ढूँढता होगा। आवारा खोजता हो और वह खुद भी आवारा हो, तभी दोनों इकट्ठा होंगे न! तभी दोनों भटके हुए मिल जाते हैं। इससे तो पहलावाला अच्छा। अपना जाना-पहचाना तो है न! अरे! ऐसा तो नहीं होगा न! वह रात को गला तो नहीं दबा देगा न! ऐसा तुम्हें भरोसा रहेगा न! जबकि वह दूसरावाला तो गला भी दबा दे! बच्चों की खातिर भी खुद को समझना चाहिए। एक या दो बच्चे हों मगर वे बेचारे बेसहारा ही हो जाएँगे न! बेसहारा नहीं कहलाएँगे? प्रश्नकर्ता : बेसहारा ही कहलाएँगे न! दादाश्री : माँ कहाँ गई? पापा कहाँ गए? एक बार खुद का एक पाँव कट गया हो, तब एक जन्म गुजारा नहीं करते या आत्महत्या करते हैं? पति बुरा नहीं लगता ऐसा लगेगा तब क्या करोगी? फिर पति का दिमाग जरा आड़ा-टेढ़ा हो, लेकिन शादी की यानी हमारा पति, अर्थात् हमारा सबसे अच्छा-बेस्ट, ऐसा कहना। अत: बुरे जैसा कुछ दुनिया में होता ही नहीं। प्रश्नकर्ता : बेस्ट (उत्तम) कहें तब तो पति सिर पर चढ़ जाएँगे। दादाश्री : नहीं, सिर पर नहीं चढ़ेंगे। वे सारा दिन बेचारे बाहर काम करते रहते हैं वे क्या सिर पर चढ़ेंगे? पति तो जो आपको प्राप्त हुआ हो वही निबाह लेना होगा, दूसरा थोड़े ही लेने जाएँगे? बिकाऊ मिलते हैं? कुछ उलटा-सीधा करो और डिवोर्स (तलाक़) लेना पड़े, वह तो उलटा गलत दिखे। वह भी पूछेगा, डिवोर्सवाली (तलाक़शुदा) है, तब और कहाँ जाएँ? एक पत्नी जो मिली है उसके साथ रहकर निभा लो। अर्थात् सब जगह ऐसा होता है। और उसकी हमसे बनती नहीं हो, पर वह क्या करे? अब जाएँ कहाँ? इसलिए यहीं निकाल कर देना। हम इन्डियन (भारतीय), कितने पति बदलें? यह एक किया वही... जो मिला वह सही। इस तरह निबाह लेना। और पुरुषों को स्त्री जैसी मिली हो, क्लेश करती हो फिर भी उसके साथ निबाह लेना अच्छा। वह क्या पेट में काटनेवाली है? वह तो बाहर शोर मचाती है अथवा मुँह पर गालियाँ दे, पेट में काटे तब हम क्या करें? उसके जैसा है यह सब। यह जो बोलती है वह रेडियो ही है। पर यह आपको पता नहीं चलता कि यह वास्तव में कौन कर रहा है? आपको तो ऐसा ही लगे कि यह सब सचमुच वही कर रही है। फिर उसको भी पछतावा होता है, कि अरे, मुझे नहीं कहना चाहिए था और मुँह से निकल गया। तो फिर वह करती है कि रेडियो करता है? एक स्त्री का संसार मुंबई में फ्रेक्चर होने (टूटने) जा रहा था। पति Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ने दूसरा गुप्त नाता रखा होगा और स्त्री को पता चल गया। इसलिए जबरदस्त झगड़े होने लगे। फिर उस औरत ने मुझे बताया कि 'ऐसा है, मैं क्या करूँ? मुझे भाग जाना है।' मैंने कहा, एक पत्नीव्रत का कानून पालता हो ऐसा मिले तो भाग जाना। वर्ना दुसरा कौन अच्छा मिलेगा? वैसे तो एक ही रखी है न? तब कहे, 'हाँ, एक ही है।' तब मैंने कहा, अच्छा। लेट गो कर (चला ले), बड़ा दिल कर दे। तुझे इससे अच्छा दूसरा नहीं मिलेगा। कलियुग में तो पति भी अच्छा नहीं मिलता और पत्नी भी अच्छी नहीं मिलती। यह सभी माल ही कूड़ा-करकट जैसा है न! माल पसंद करने योग्य है ही नहीं। इसलिए यह तुझे पसंद नहीं करना है, यह तो तुझे हल निकालना है। यह कर्मों का हिसाब चुकता करना है इसलिए निबटाओ। तब लोग आराम से मानों सचमुच पति-पत्नी होने जाते हैं ! मुए, निबटारा ला इसका। किसी भी तरह से क्लेश कम हो, उस प्रकार हल निकालना है। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : कलियुग में जो बेमेल जोड़ा हुआ हो तो वह बेमेल जोड़ा ही ऊपर जाएगा अथवा एकदम अधोगति में जाएगा। दो में से एक कार्यकारी होता है और सजोड़ा (अच्छी जोड़ी) कार्यकारी नहीं होता। बेमेल जोड़ा है, इसलिए उच्च गति में ले जाएगा और सजोड़ा तो भटकाता है। बेमेल जोड़े में वह बिगड़े तब हमें शांत रहना चाहिए, यदि हम समझदार हों तो। लेकिन वह बिगड़े और हम भी बिगड़े उसमें रहा क्या? प्रश्नकर्ता : कैसे संयोग होने पर डिवोर्स लेना चाहिए? दादाश्री : यह डिवोर्स तो अभी निकले हैं। पहले डिवोर्स थे ही कहाँ? प्रश्नकर्ता : अभी तो हो रहे हैं न? अर्थात् किन संयोगों में वह सब करना? दादाश्री : कहीं भी मेल नहीं खाता हो तब अलग हो जाना अच्छा। एडजस्टेबल (अनुकूल) हो ही नहीं तो अलग हो जाना बेहतर । वर्ना हम तो एक ही बात कहते हैं कि 'एडजस्ट एवरीव्हेर' (सब जगह अनुकूल बनो)। दूसरे दो को कहकर गुणा मत करना कि, 'ऐसा है और वैसा है।' प्रश्नकर्ता : इस अमरीका में जो डिवोर्स लेते हैं वह खराब है या आपस में बनता न हो और डिवोर्स लेते हैं वह? दादाश्री : डिवोर्स लेने का अर्थ ही क्या है! ये क्या कप-प्लेट हैं? कप-प्लेट अलग-अलग बाँट नहीं देते। उनका डिवोर्स नहीं कर सकते, तब इन मनुष्यों का तो डिवोर्स होता होगा? उन लोगों को. विदेशियों के लिए ठीक है, किन्तु तुम तो इन्डियन (भारतीय) हो। जहाँ एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत के नियम होते है। एक पत्नी के अलावा दूसरी स्त्री की ओर देखू भी नहीं ऐसे विचार थे। वहाँ डिवॉर्स के विचार शोभा देते हैं? डिवॉर्स माने झूठे बर्तन बदलना। भोजन के बाद झूठे बर्तन दूसरे को देना फिर, बाद में तीसरे को देना। निरे झूठे बर्तन बदलते रहना उसका नाम डिवोर्स। तुझे डिवोर्स पसंद है? प्रश्नकर्ता : दादा, उन्हें ऐसा संयोग हुआ वह भी हिसाब से ही हुआ होगा न? दादाश्री : बिना हिसाब तो ऐसा मिलता ही नहीं न! संसार है इसलिए घाव तो होंगे ही न! और बाई साहब भी कहेंगी कि अब घाव भरेगा नहीं। लेकिन संसार में मग्न हुए कि फिर घाव भर जाता है। मूर्छितअवस्था है न! मोह के कारण मर्छितअवस्था है। मोह के कारण घाव भर जाते हैं। यदि घाव नहीं भरता तब तो वैराग्य ही आ जाता न! मोह किसे कहते हैं? सभी अनुभव हुए हों पर भूल जाते हैं। डिवोर्स' (तलाक़) लेते समय तय करते हैं कि अब शादी नहीं करनी, लेकिन फिर भी वापिस कूद पड़ते हैं! प्रश्नकर्ता : मैं उनसे कह रहा था कि हमारे विवाहित जीवन में निन्यानवे प्रतिशत बेमेल जोड़े हैं। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार और मन फरियाद करे कि 'कितना सारा बोल गए!' तब मन से कहो, 'सो जा, वे घाव अभी भर जाएँगे' ठीक हो जाएँगे तुरन्त... कंधा थपथपायें तो सो जाए। तेरे घाव भर गये न सब, नहीं? जो घाव पड़े थे वे? प्रश्नकर्ता : झगड़ा हो तब भी (भीतर) भरा हुआ माल निकलता पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार कुत्ते, जानवर सभी डिवोर्सवाले हैं और ये फिर मनुष्य भी उसमें आये तो फिर फर्क क्या रहा? फिर तो मनुष्य बीस्ट (जानवर) जैसा ही हो गया। हमारे हिन्दुस्तान में तो एक शादी के बाद दूसरी शादी नहीं करते थे। यदि पत्नी की मृत्यु हो तो फिर दूसरी शादी भी नहीं करें, ऐसे मनुष्य थे! कैसे पवित्र मनुष्य जन्मे थे! अरे, तलाक़ लेनेवाले का मैं घण्टेभर में मेल करा दूं फिर से! तलाक़ लेना हो, उसे मेरे पास लाओ तो मैं एक घण्टे में ठीक कर दूं। फिर वे दोनों साथ रहेंगे। डर मात्र नासमझी का है। कई अलग हुओं का ठीक हो गया। ये तो हमारे संस्कार हैं। लड़ते-झगड़ते दोनों को अस्सी साल हो जाएँ, फिर भी मरने के बाद तेरहवें दिन शैय्यादान करते हैं। शैय्यादान में चाचा को यह भाता था और यह पसंद था, चाची सब बम्बई से मँगाकर रखती हैं। एक लड़का अस्सी साल की चाची से कहता है, 'चाचीजी, चाचा ने तो आपको छह महीने पहले गिरा दिया था। उस वक्त तो आप चाचा के बारे में उलटा बोलती थीं।' 'फिर भी, ऐसे पति नहीं मिलेंगे' कहती है। ऐसा कहा उस बुढिया ने। सारी ज़िन्दगी के अनभव में से हँढ निकालती है कि 'पर वे दिल के बहुत अच्छे थे। यह प्रकृति टेढ़ी थी पर भीतर दिल के अच्छे थे...' लोग देखें ऐसा हमारा जीवन होना चाहिए। हम इन्डियन हैं, हम विदेशी नहीं हैं। हम स्त्री को निबाह लें और स्त्री हमें निबाहे. ऐसा करते करते अस्सी साल तक चले। जबकि वह (परदेशन) तो एक घण्टा भी नहीं निभाये और वह (परदेशी) भी एक घण्टा नहीं निभाये। सब सबकी प्रकृति के पटाखे फूट रहे हैं। ये पटाखे कहाँ से आए? प्रश्नकर्ता : सबकी अपनी प्रकृति के हैं। दादाश्री : हम समझें कि 'यह फूटेगा' तब फुस हो गया हो! फुस्स.... फुस हो जाता है। दादाश्री : (अज्ञानता में) झगड़ा हो तब भीतर नया माल घुस जाता है लेकिन यह हमारा ज्ञान मिलने के बाद भरा हुआ माल निकलता है। प्रश्नकर्ता : पति झगड़ा करता हो उस समय मैं प्रतिक्रमण करूँ तो? दादाश्री : तो हर्ज नहीं। प्रश्नकर्ता : तब भरा हुआ माल निकल जाएगा न सब? दादाश्री : तब तो सब माल निकल जाए। प्रतिक्रमण जहाँ हो वहाँ माल निकल जाता है। इस जगत में प्रतिक्रमण ही एक उपाय है। अब पति डाँटे तब क्या करोगी? प्रश्नकर्ता : समभाव से निकाल (निपटारा) कर देने का। दादाश्री : ऐसा! चली नहीं जाओगी अब? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : अब वे चले जाएँ तब क्या करेगी तू? मुझे तुम्हारे साथ नहीं जमेगा तब? प्रश्नकर्ता : माफ़ी माँगकर पाँव पड़कर वापस बुला लाऊँगी। दादाश्री : हाँ, बुला लाना। समझा-बुझाकर सिर पर हाथ रखें, सिर पर हाथ फेरकर ... ऐसा भी करना कि वे चुप हो जाएँ फिर। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ८७ अक्ल से काम होता हो तो अक्ल इस्तेमाल करना। फिर दूसरे दिन हम से कहे, 'तूने मेरे पैर छुए थे न?' तब कहना वह बात अलग थी। तुम क्यों भाग रहे थे, नासमझी का कार्य कर रहे थे, इसलिए छुए ! वह समझे कि इसने सदा के लिए छुए, वह तो उस समय के लिए, ओन द मोमेन्ट (तत्क्षण) था ! सप्तपदी का सार जीवन जीने की कला इस काल में नहीं होती। मोक्ष का मार्ग तो जाने दो, मगर जीवन जीना तो आना चाहिए न? बात ही समझनी है कि इस रास्ते पर ऐसा है और इस रास्ते पर ऐसा है। फिर तय करना कि किस राह जाना? समझ में नहीं आये तो चौराहे पर 'दादा' से पूछ लेना, तब 'दादा' तुम्हें दिखाएँगे कि ये तीन रास्ते जोख़िमवाले हैं और यह रास्ता बिना जोखिमवाला है, उस राह हमारे आशीर्वाद लेकर चलना है। शादी-शुदा को लगे कि हम तो फँस गये उलटे ! कुंवारों को लगता है कि ये लोग मज़े कर रहे हैं! इन दोनों के बीच का अंतर कौन दूर करेगा? और इस दुनिया में ब्याहे बगैर चले ऐसा भी नहीं है ! तब तो फिर शादी कर के दुःखी किस लिए होना? ये लोग दुःखी नहीं होते, वे तो एक्सपीरियन्स (अनुभव) ले रहे हैं। संसार सही है कि गलत, सुख है या नहीं? यह सार निकालने के लिए संसार है। आपने निकाला कुछ हिसाब अपने बहीखाते का ? सारा संसार कोल्हू के समान है। पुरुष बैल की जगह पर है और स्त्रियाँ तेली की जगह पर वहाँ तेली गाये और यहाँ स्त्री गाये ! और बैल आँख पर ढक्कन लगाये तान में ही चलता रहता है! गोल-गोल घूमता रहता है। ऐसे ही सारा दिन यह बाहर काम करे और समझे कि काशी पहुँच गए होंगे! और पट्टी खोलकर देखे तो भाईसाहब वहीं केवहीं ! फिर उस बैल को क्या करता है तेली? फिर थोड़ी खली बैल को खिलाये तो बैल खुश होकर फिर से शुरू हो जाता है। वैसे इसमें औरत भेलपुरी खिलाये कि भाई आराम से खाकर वापिस दौड़ने लगता है! पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार बाकी यहाँ तो दिन कैसे गुज़ारें यह भी मुश्किल हो गया है। पति आकर कहेगा कि, 'मेरे हार्ट में दर्द है।' लड़का आकर कहेगा कि 'मैं फेल हुआ।' पति के हार्ट में दर्द हो तब पत्नी को विचार आता है कि 'हार्ट फेल' हो गया तो क्या होगा, सभी तरह के विचार घेर लेते हैं और चैन नहीं लेने देते। ८८ ब्याहने की क़ीमत कब होती? लाखों लोगों में से एकाध आदमी को ब्याहने को मिलता हो तब यह तो सभी ब्याहते हैं उसमें नया क्या? स्त्री-पुरुष का ( शादी के बाद) व्यवहार कैसे करना, इसका तो बहुत बड़ा कॉलेज करने जैसा है। यह तो इस कॉलेज में पढ़े बिना ब्याह लेते हैं । एक बार अपमान हो, तो अपमान सहन करने में हर्ज नहीं, पर साथ ही अपमान को लक्ष्य में रखने की ज़रूरत है कि क्या अपमान के लिए जीवन है? अपमान का हर्ज नहीं, पर मान की भी ज़रूरत नहीं और अपमान की भी ज़रूरत नहीं है। लेकिन क्या हमारा जीवन अपमान के लिए है? इतना तो लक्ष्य में होना चाहिए न ? बीवी रूठी हुई हो तब तक भगवान को याद करता है और बीवी बात करने आई तब भाई वापिस लड़ने के लिए तैयार! फिर भगवान और दूसरा सब कुछ एक ओर ! कैसी उलझन ! क्या ऐसे दुःख मिट जानेवाले हैं? संसार यानी क्या? जंजाल। यह शरीर मिला है, वह भी जंजाल है! जंजाल का भी कहीं शौक़ होता होगा? इसके प्रति रूचि रहती है यह भी एक आश्चर्य है न ! मछली का जाल अलग और यह जाल अलग! मछली का जाल काट कर निकल सकते हैं पर इस संसार रुपी जाल में से निकल ही नहीं सकते। अंत में अर्थी उठे तभी निकल सकते हैं! 'ज्ञानीपुरुष' इस संसार जाल से निकलने का रास्ता दिखाते हैं, मोक्षमार्ग दिखाते हैं और सही राह पर ला देते हैं और हमें लगता है कि हम इस जंजालो से मुक्त हुए! Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार इसे जीवन कैसे कहें? जीवन कितना सुशोभित होता है ! एक-एक मनुष्य की सुगन्ध आनी चाहिए। सब तरफ उसकी कीर्ति फैली हई हो कि कहना होगा, यह सेठजी हैं न, वे कितने अच्छे हैं, उनकी बातें कितनी सुन्दर, उनका वर्तन कितना सुन्दर ! ऐसी कीत सभी जगह दिखाई देती है? लोगों की ऐसी सुगन्ध आती है? प्रश्नकर्ता : कभी-कभी, किसी-किसी की सुगन्ध आती है। दादाश्री: किसी-किसी मनुष्य की, पर वह भी कितनी? और अगर उनके घर जाकर पूछो तो दुर्गंध होती है। बाहर सुगन्ध आती हो पर घर जाकर पूछो तो कहेंगे कि, 'उनका नाम ही मत लो, उनकी तो बात ही मत करना।' अतः यह सुगन्ध नहीं कहलाती। जीवन तो दूसरों की मदद के लिए ही होना चाहिए। यह अगरबत्ती सुलगती है, उसमें खुद की सुगन्ध लेती है वह? यह संसार जो है वह म्युजियम (संग्रहालय) है । म्युजियम (संग्रहालय) में शर्त क्या है? प्रवेश करते ही लिखा है कि तुम्हें जो खाना-पीना हो, जो देखना हो देखो. उसका जो मजा लेना हो लो, मगर कुछ भी बाहर लेकर निकलना नहीं और लड़ना नहीं। किसी के प्रति राग-द्वेष मत करना। खाना-पीना सब-कुछ मगर राग-द्वेष नहीं। पर यह तो अन्दर जाकर शादी रचाता है। अरे, शादी कहाँ रचाई?! बाहर जाते समय फजीहत होगी! तब कहेगा कि मैं बंध गया। कानून के अनुसार भीतर जाएँ और खाएँ-पीयें, शादी करें तो हर्ज नहीं। स्त्री (पत्नी) से कह देना, देखो यह संसार एक संग्रहस्थान है, उसमें राग-द्वेष मत करना। जब तक ठीक लगे तब तक घूमना-फिरना, लेकिन आखिर में हमें बिना राग-द्वेष निकल जाना है। उस पर द्वेष भी नहीं। कल सवेरे दूसरे के साथ घूम रही हो तब भी उस पर द्वेष नहीं, यह संग्रहस्थान ऐसा है। फिर हमें सुधरने के लिए जितनी-जितनी युक्ति करनी हो उतनी करें। अब संग्रहस्थान दूर नहीं कर सकता, जो हुआ वही सही अब तो। हम संस्कारी देश में जन्मे हैं न, इसलिए मेरेज-बेरेज (शादी-ब्याह) सबकुछ रीति से होना चाहिए! पति-पत्नी के प्राकृतिक पर्याय प्रश्नकर्ता : औरतों को आत्मज्ञान हो सकता है या नहीं? समकित हो सकता है? दादाश्री : वास्तव में नहीं हो सकता, पर हम यहाँ करवाते हैं। क्योंकि प्रकृति की कक्षा ही ऐसी है कि आत्मज्ञान पहुँचता ही नहीं। क्योंकि स्त्रियों में कपट की ग्रंथि इतनी बड़ी होती है, मोह और कपट की दो ग्रंथियाँ आत्मज्ञान को छूने नहीं देती। प्रश्नकर्ता : अर्थात् वह तो व्यवस्थित का अन्याय हुआ न? दादाश्री : नहीं, वह तो दूसरे अवतार में पुरुष होकर बाद में मोक्ष में जाएगी। ये सभी शास्त्रकार कहते हैं कि स्त्रियाँ मोक्ष में नहीं जाती वह बात एकांतिक नहीं है। बाद में पुरुष होकर फिर जाती हैं। ऐसा कोई कानुन नहीं हैं कि स्त्रियाँ स्त्री ही रहेंगी। वे परुष के समान कब होंगी. जब वे पुरुष के साथ स्पर्धा में रही हों और अहंकार बढ़ता जाए, क्रोध बढ़ता ही जाए तब वह स्त्रीपन उड़ जाता है। अहंकार और क्रोध की प्रकृति पुरुष की और माया और लोभ की प्रकृति स्त्री की. ऐसा करके चली है गाड़ी। पर हमारा यह अक्रम विज्ञान ऐसा कहता है कि स्त्रियों का भी मोक्ष हो सकता है। क्योंकि यह विज्ञान आत्मा जगाता है। आत्मज्ञान की अनुभव दशा नहीं हो तब भी हर्ज नहीं पर आत्मा प्रतीति के रुप में जगाता है। कितनी स्त्रियाँ ऐसी हैं कि दादा निरंतर चौबीसों घण्टे याद रहते हैं! हिन्दुस्तान में कितनी और अमरीका में कितनी होंगी कि दादा चौबीसों घण्टे याद रहते हैं! प्रश्नकर्ता : अतः आत्मा की कोई जाति ही नहीं है न? दादाश्री : आत्मा की जाति होती ही नहीं न! प्रकृति की जाति होती है। उजला माल भरा हो तो उजला निकले। काला भरा हो तब काला निकले। प्रकृति भी भरा हुआ माल है। जो माल भरा है वह प्रकृति और वैसे पुद्गल कहलाता है। अर्थात् पूरण किया उसका गलन होता रहता है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ९२ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार भोजन का पूरण किया उसका संडास में गलन होगा। पानी पीया इसलिए पेशाब में, श्वाच्छोश्वास सब पुद्गल परमाणु। पुरुष होना हो तो ये दो गुण छूटें तब हो, मोह और कपट। मोह और कपट दो तरह के परमाणु इकटे हों तो स्त्री होती है और क्रोध और मान इकट्ठा हों तो पुरुष होता है। परमाण के आधार पर यह सब हो रहा है। एक बार बहनों ने मुझे पूछा कि हमारे कुछ विशिष्ट दोष होते हैं, उनमें ज्यादा नुकसानदायक दोष कौन-सा है? तब मैंने कहा, 'वह अपनी मनमानी कराना चाहती है।' सभी बहनों की इच्छा ऐसी होती है कि अपनी मरजी के मुताबिक करवायें। पति को भी उलटी राह पर ले जाकर उसके पास अपना मनचाहा करवायें। अर्थात् यह गलत, उल्टा रास्ता है। मैंने उनसे लिखवाया है कि यह रास्ता नहीं होना चाहिए। मरजी के मुताबिक करवाने का अर्थ क्या है? बहुत ही नुकसानदायक! प्रश्नकर्ता : परिवार का भला होता हो, ऐसा हम करवायें तो उसमें गलत क्या? दादाश्री : नहीं, वह भला कर ही नहीं सकती न! जो मरजी के मुताबिक करते हों, वे कभी परिवार का भला नहीं करते। परिवार का भला कौन करे कि सभी की मरजी के मुताबिक हो इस तरह से हो तो अच्छा, ऐसा रखें वह परिवार का भला कर सकता है। किसी का भी मन नाराज नहीं हो इस प्रकार हो तब। अपनी मरजी के मुताबिक करवाना चाहें वह तो परिवार का भारी नुकसान करता है। वह तकरार और झगड़ा करने का साधन है। मरजी के मुताबिक न हो तो फिर खाये भी नहीं, दु:खी हो कर बैठी रहे। किसे मारने जाए, मन मारकर बैठी रहे। लेकिन दूसरे दिन फिर कपट करेगी। वह कुछ जाएगा थोड़े? मरज़ी के मुताबिक करना चाहे पर नहीं हो तब क्या हो? ऐसा सब नहीं करना चाहिए। बहनों, अब आप उदार दिल के हो जाओ। प्रश्नकर्ता : स्त्रियाँ अपने आँसुओं के सहारे पुरुषों को पिघला देती हैं और अपना गलत है उसे भी सत्य ठहराती हैं। इस बारे में आपका क्या कहना है? दादाश्री : बात सच्ची है। उसका गुनाह उसे लाग होता है और ऐसा आग्रह रखती है न, इसलिए विश्वास उठ जाता है। कई स्त्रियाँ अकेले में मुझे कह देती हैं, 'हमारे पति भोले हैं।' यह इटसेल्फ (स्वयं) सूचित करता है कि यह तो स्त्रियाँ पति को नचाती हैं। माल कपट का भरा हुआ है इसलिए परन्तु ऐसा नहीं बोल सकते, क्योंकि बुरा दिखे। उसके दूसरे गुण बहुत सुन्दर हैं। प्रश्नकर्ता : स्त्री को एक और तो लक्ष्मी कहते हैं और दूसरी ओर कपटवाली, मोहवाली कहा, ऐसा क्यों? दादाश्री : लक्ष्मी कहते हैं तो क्या वह कुछ ऐसी-वैसी है? जब पति नारायण कहलाए तो वह क्या कहलाए? अर्थात् उस जोड़े को लक्ष्मीनारायण कहते हैं ! तो क्या वे कुछ निम्न कक्षा की हैं? स्त्री तो तीर्थंकर की माता हैं। जितने तीर्थकर हुए न, चौबीस, उनकी माता कौन थी? प्रश्नकर्ता : स्त्रियाँ। दादाश्री : तब वे निम्न कक्षा की कैसे कहलायें? स्त्री होने की वजह से मोह तो होता ही है हमेशा। पर जन्म किसे दिया? बड़े बड़े तीर्थंकरों को, सभी को... बड़े लोगों को जन्म वे ही देती हैं। उन्हें हम कैसे बदनाम कर सकते हैं? लेकिन फिर भी हमारे लोग स्त्रियों को बदनाम करते हैं। प्रश्नकर्ता : हम सदैव स्त्री से ही कहते हैं कि तुम्हें मर्यादा रखनी चाहिए, हम पुरुष से नहीं कहते। दादाश्री : वह तो अपने मनुष्यपन का गलत उपयोग किया है। सत्ता का दुरुपयोग किया है। सत्ता के दो उपयोग हो सकते हैं; एक सदुपयोग और दुरुपयोग। सदुपयोग करें तो सुख मिले लेकिन अभी दुरुपयोग करते हो, इसलिए दु:खी होते हो। जिस सत्ता का दुरुपयोग करें वह सत्ता हाथ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार से चली जाती है और यदि वह सत्ता कायम रखनी हो, तुम्हें हमेशा के लिए पुरुष ही रहना हो, तब सत्ता का दुरुपयोग मत करना, वर्ना सत्ताधीशों को अगले जन्म में स्त्री होना पड़ेगा! सत्ता का दुरुपयोग करें तो सत्ता चली जाती है। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पुरुष कहते हैं उसमें गलत क्या है। अपने आप नहीं मान लेती। तुमने कहा हो कि तू बहुत अच्छी है, तेरे जैसी और कोई नहीं, तू रूपमती है। तब वह रूपमती मान लेती है अपने आपको। इन पुरुषों ने स्त्री को स्त्री के रूप में ही रखा है। और स्त्री मन में समझती है कि मैं पुरुषों को मूर्ख बनाती हूँ। पुरुष ऐसा करके भोगकर अलग हो जाते हैं। कुछ भी हो, पति नहीं हो, पति चला गया हो, फिर भी दूसरे के पास नहीं जाए। वह कैसा भी हो, यदि खुद भगवान पुरुष बनकर आए, तो भी नहीं। 'मुझे मेरा पति है मैं पतिव्रता हूँ' वह सती कहलाए। इस समय सती कह सकें ऐसा है इन लोगों का? है ही नहीं ऐसा नहीं लेकिन ज़माना ही अलग तरह का है! सत्युग में ऐसा टाइम कभी ही आता है, सतियों के लिए ही। इसलिए सतियों को याद करते हैं न हमारे लोग! प्रश्नकर्ता : हाँ। प्रश्नकर्ता: ऐसा नहीं कि स्त्री तो लम्बे अरसे तक स्त्री के अवतार में रहेगी, ऐसा निश्चित नहीं। लेकिन उनको उसका पता नहीं चलता, इसलिए उसका इलाज नहीं होता। दादाश्री : उपाय हो तो स्त्री, पुरुष ही है। उस ग्रंथि को जानती ही नहीं है बेचारी और वहाँ पर इन्टरेस्ट (रुचि) आता है, वहाँ मज़ा आता है। इसलिए वहीं पड़ी रहती है और कोई ऐसा रास्ता जानता नहीं इसलिए उसे दिखाता नहीं। केवल सती स्त्रियाँ ही समझती हैं, सतियाँ पति के सिवा दूसरे किसी का विचार किसी हाल में भी नहीं करतीं । उसका पति तुरन्त ऑफ हो जाए (मर जाए), चला जाए फिर भी नहीं। उसी पति को पति समझती है। इससे उन स्त्रियों का सारा कपट खत्म हो जाता है। दादाश्री : वह तो सती होने की कामना से। उसका नाम लिया हो तो एक दिन सती होगी और विषय तो आजकल चूड़ियों के भाव बिक रहा है। यह आप जानते हैं? मेरा कहना आपकी समझ में आया? प्रश्नकर्ता : हाँ, चूड़ियों के भाव बिकता है। दादाश्री : किस बाज़ार में? कॉलिजों में! किस मोल बिकता है? सोने के मोल चूड़ियाँ बिकती हैं। वहाँ हीरों के मोल चूड़ियाँ बिकती है ! सब जगह ऐसा होता है, नहीं होता? सर्वत्र ऐसा नहीं है। कितनी तो सोना दो तो भी न ले। चाहे कुछ भी दो तो भी नहीं लेती। लेकिन कछ तो बिक जाती हैं, आज की औरतें। सोने के मोल नहीं तो दूसरे भाव पर बिक जाती हैं! सतीत्व रखे तो अपने आप ही कपट जाने लगेगा। तुम्हें कुछ कहना नहीं होगा। मूल सती जन्म से ही सती होती है। उसे पहले के कोई दाग़ नहीं होते। जबकि तुम्हें पहले के दाग़ है, वे खत्म होने के बाद पुरुष होंगी। लेकिन पुरुषों में भी सभी एक समान नहीं होते। कुछ पुरुष स्त्रियों जैसे भी होते हैं। थोड़े स्त्री के लक्षण रह जाते हैं और बाद में संयोग से सतीत्व प्राप्त हो तो कपट खतम हो जाता है। परुष हो तो सती की तरह उसके सारे दोष खतम होते जाएँ। सतीत्व के कारण सारे दोष खतम हो जाते हैं। जितनी सतियाँ हुई उनके सारे दोष खतम हो जाते हैं और वे मोक्ष में जाती हैं। कुछ समझ में आता है? मोक्ष में जाने के लिए सती होना पड़ेगा। हाँ, जितनी सतियाँ हुईं वे मोक्ष में गईं, वर्ना पुरुष होना पड़ता है। पुरुष भोले होते हैं बेचारे, जैसे नचाये वैसे नाचते हैं बेचारे। पुरुषों को स्त्रियों ने ही नचाया है। स्त्रियों में केवल सती स्त्री अकेली ही पुरुषों को अतः इस विषय को लेकर पुरुष स्त्री हुआ है, केवल एक विषय के कारण ही और पुरुष ने भोगने के लिए स्त्री को एनकरेज (प्रोत्साहित) किया और बेचारी को बिगाड़ा। बरकत नहीं होती हो फिर भी खुद में बरकत है ऐसा मन से मान लेती है। तब पूछे कि कैसे मान लिया? पुरुषों के बार बार कहने पर समझने लगती है। इसलिए वह जाने कि ये जो Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार हैं। समझते नहीं है न! कोई चारा नहीं हो तभी ऐसी हिंसा हो ऐसा होना चाहिए। लेकिन ऐसी समझ नहीं तब क्या करें? पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार नहीं नचाती। सती तो पति को परमेश्वर (भगवान) समझती है! प्रश्नकर्ता : ऐसा जीवन बहुत कम लोगों का देखने को मिलता है। दादाश्री : इस कलियुग में कहाँ से हो? सतयुग में भी बहुत कम सतियाँ होती थीं, तो इस कलियुग में कहाँ से हो? अतः स्त्रियों का दोष नहीं है, स्त्रियाँ तो देवियाँ जैसी हैं। स्त्रियों में और पुरुषों में आत्मा तो आत्मा ही है, केवल पैकिंग का फर्क है। 'डिफरन्स ऑफ पैकिंग!' स्त्री एक प्रकार का 'इफेक्ट' (परिणाम) है। इसलिए आत्मा पर स्त्री का इफेक्ट रहता है। इसका 'इफेक्ट' हम पर नहीं हो तो अच्छा। स्त्री तो शक्ति है। इस देश में कैसी-कैसी स्त्रियाँ राजनीति में हो गई! और धर्मक्षेत्र में जो स्त्री जुड़ी हो वह कैसी हो? इस क्षेत्र से जगत का कल्याण ही कर दे! स्त्री में तो जगत कल्याण की शक्ति भरी पड़ी है! उसमें खुद का कल्याण करके दूसरों का कल्याण करने की शक्ति है। विषय बंद वहाँ प्रेम सम्बन्ध विवाहित जीवन की शोभा कब बढ़े? जब (विषय सम्बन्ध में) दोनों को बुखार चढ़े तभी दवाई पीएँ। बिना बुखार दवाई पीते हैं या नहीं? बिना बुखार दवाई पीने पर विवाहित जीवन की शोभा नहीं रहती। दोनों को बुखार चढ़े तभी दवाई पीओ। दिस इज ऑन्ली मेडिसिन (यह केवल दवाई है)। मेडिसिन (दवाई) मीठी हो तो भी हर रोज पीने जैसी नहीं होती। विवाहित जीवन की शोभा बढ़ानी हो तो संयमी पुरुष की आवश्यकता है। ये सभी जानवर असंयमी कहलाते हैं। हमारा तो संयमी जीवन चाहिए। आगे जो राम-कृष्ण आदि हो गए, वे सभी पुरुष संयमवाले थे। स्त्री के साथ संयमी! यह असंयम क्या दैवी गण है? नहीं, वह पाशवी गुण है। मनुष्यों में ऐसा नहीं होता। मनुष्य असंयमी नहीं होना चाहिए। जगत समझता ही नहीं कि विषय क्या है? एक बार के विषय में पाँचपाँच लाख जीव मर जाते हैं, उसकी समझ नहीं होने से यहाँ मौज उड़ाते सभी धर्मों ने उलझन पैदा की कि स्त्रियों का त्याग करो। अरे, स्त्री का त्याग कर के मैं कहाँ जाऊँ? मझे खाना कौन पका कर देगा? मैं अपना व्यापार सम्हालूँ कि घर में चूल्हा फूंकू? शास्त्रकारों ने विवाहित जीवन की सराहना की है। उन लोगों ने विवाहित जीवन की निंदा नहीं की है। विवाह के सिवाय दूसरा व्यभिचार है उसकी निंदा की है। प्रश्नकर्ता : विषय पुत्र प्राप्ति के लिए ही होना चाहिए या फिर बर्थ कंट्रोल करके विषय भोग सकते हैं? दादाश्री : नहीं, नहीं। वह तो ऋषि-मुनियों के समय में, पहले तो पति-पत्नी का व्यवहार ऐसा नहीं था। ऋषिमुनि विवाह करते थे, तब पहले तो शादी करने की ही ना कहते थे। तब ऋषि पत्नी ने कहा, कि आप अकेले! आपका संसार ठीक से चलेगा नहीं, प्रवृति ठीक से होगी नहीं, इसलिए हमारी पार्टनरशिप (साझेदारी) कीजिए, स्त्रियों की, तब आपकी भक्ति भी होगी और संसार भी चलेगा। तब उन ऋषि-मुनियों ने एक्सेप्ट (स्वीकार) किया, लेकिन कहा कि 'हम तुम्हारे साथ संसार नहीं बसायेंगे।' तब इन स्त्रियों ने कहा कि 'नहीं, हमें एक पत्र दान और एक पत्री दान, दो दान देना केवल। तब उस दान जितना ही संग, दूसरा कोई सरोकार नहीं। बाद में हमारी आपसे संसार में फ्रेन्डशिप (मित्राचारी) रहेगी।' इसलिए उन लोगों ने एक्सेप्ट किया। और फिर वे मित्र की भाँति ही रहती थीं, पत्नी के रूप में नहीं। वह घर का सब काम देखती और यह बाहर का काम देखते। बाद में दोनों साथ-साथ भक्ति करने बैठते। लेकिन अब तो बस यही काम रह गया है सारा! इससे सब बिगड़ गया है। ऋषिमुनि तो नियमवाले थे। अभी अगर एक पुत्र या एक पुत्री के लिए शादी हो तब हर्ज नहीं। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार ९७ बाद में मित्राचारी से रहें। फिर दुःखदायी नहीं होगा। यह तो सुख खोजते हैं इसलिए ऐसा ही है न! दावा दायर करते हैं न ! ऋषिमुनि बहुत अलग तरह के थे। एक पत्नीव्रत का पालन करोगे न? यदि कहो, 'पालन करूँगा' तब तुम्हारा मोक्ष है और अगर दूसरी स्त्री का जरा भी विचार आया तो मोक्ष गया, क्योंकि वह बिना हक़ का है। हक़ का होगा वहाँ मोक्ष और बिना हक़ का वहाँ पशुता । विषय की लिमिट (मर्यादा) होनी चाहिए। स्त्री-पुरुष का विषय कहाँ तक होना चाहिए? परस्त्री नहीं होनी चाहिए और परपुरुष नहीं होना चाहिए। और यदि उसका विचार भी आए तब उसे प्रतिक्रमण से धो देना चाहिए। बड़े से बड़ा जोखिम है तो इतना ही, परस्त्री और परपुरुष ! खुद की स्त्री जोखिम नहीं है। अब हमारी इसमें कहीं कोई गलती है? क्या हम डाँटते हैं किसी प्रकार ? इसमें कोई गुनाह है? यह हमारी सायन्टिफिक (वैज्ञानिक) खोज है! वर्ना साधुओं को यहाँ तक कहा गया है कि स्त्री की काष्ठ की प्रतिमा हो उसकी ओर भी मत देखना । स्त्री बैठी हो उस जगह बैठना नहीं। पर मैंने ऐसा-वैसा बखेड़ा नहीं किया है न? इस काल में एक पत्नीव्रत को हम ब्रह्मचर्य कहते हैं। और तीर्थंकर भगवान के समय में जो ब्रह्मचर्य का फल मिलता था, वही फल प्राप्त होगा, उसकी हम गारन्टी देते हैं। प्रश्नकर्ता: एक पत्नीव्रत कहा वह सूक्ष्म से भी या केवल स्थूल ? मन तो जाए ऐसा है न? दादाश्री : सूक्ष्म से भी होना चाहिए और यदि मन जाए तब मन से अलग रहना चाहिए। और उनके प्रतिक्रमण करते रहना पड़ेगा। मोक्ष में जाने की लिमिट क्या? एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत । अगर तू संसारी है तब तेरे हक़ का विषय भोगना । लेकिन बिना हक़ का विषय तो भोगना ही मत। क्योंकि उसका फल भयंकर है। पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार पत्नी को छोड़कर दूसरी जगह विषय भोग होगा तब वह स्त्री जहाँ जाएगी वहाँ उसे जन्म लेना पड़ेगा। वह अधोगति में जाए तो उसे भी वहाँ जाना होगा। आजकल बाहर तो सभी जगह ऐसा ही हो रहा है। कहाँ जन्म होगा इसका ठिकाना ही नहीं! बिना हक़ के विषय जिन्होंने भोगे उन्हें तो भयंकर यातनाएँ भोगनी पड़ेंगी। एकाध जन्म में उनकी बेटी भी चरित्रहीन होती है। नियम ऐसा है कि जिसके साथ बिना हक़ के विषय भोगे हों वही फिर माँ या बेटी बनकर आती है। बिना हक़ का लिया तब से मनुष्यपन चला जाता है। बिना हक़ का विषय तो भयंकर दोष कहलाता है। खुद दूसरों को भोगें तब खुद की बेटियों को लोग भोगते हैं। लेकिन उसकी चिंता ही नहीं है न! ९८ बिना हक़ के विषय में सदैव कषाय होते हैं और ऐसे कषाय हों तो नर्क में जाना पड़ता है। पर यह लोगों को मालूम नहीं है। इसलिए फिर डरते नहीं, किसी प्रकार का भय भी नहीं होता। इस जन्म में मनुष्य जीवन तो पिछले जन्म में अच्छा किया उसका परिणाम है। विषय की उत्पति आसक्ति से होती है और फिर उसमें से विकर्षण होता है। विकर्षण होता है इसलिए बैर बंधता है और बैर के फाउन्डेशन ( बुनियाद) पर यह जगत खड़ा हुआ है। लक्ष्मी की वजह से बैर बंधता है, अहंकार के कारण बैर बंधता है, लेकिन विषय का बैर बहुत ज़हरीला होता है। विषय में से पैदा हुआ चरित्रमोह, ज्ञान आदि सभी को उड़ा देता है। अर्थात् आज तक विषय के कारण ही सब रुका हुआ है। मूल विषय है और उसमें से लक्ष्मी पर राग हुआ और उसका अहंकार है। अर्थात् यदि मूल विषय चला जाए, तब सब चला जाए। प्रश्नकर्ता: तब बीज को सेकना आना चाहिए, मगर उसे किस प्रकार सेकें? दादाश्री : वह तो अपने इस प्रतिक्रमण से, आलोचना, प्रतिक्रमण - प्रत्याख्यान से। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता : वही! दूसरा उपाय नहीं है? दादाश्री : दूसरा कोई उपाय नहीं है। तप करने से पुण्य बंधता है और बीज सेकने से निराकरण होता है। यह समभाव से निकाल करने का कानून क्या कहता है, तू किसी भी रास्ते ऐसा कर दे कि उनसे बैर बंधे नहीं। बैर से मुक्त हो जा। प्रश्नकर्ता : उसमें बैर कैसे बंधता है? अनंत काल का बैर बीज पड़ता है वह किस प्रकार? दादाश्री : ऐसा है न कि यह मरे हुए पुरुष या मरी हुई स्त्री हो, मान लिजिए उसमें दवाइयाँ भरें और पुरुष पुरुष जैसा ही और स्त्री स्त्री जैसी ही रहती हो तो हर्ज नहीं, उनके साथ बैर नहीं बंधेगा। क्योंकि वे जीवित नहीं। और ये तो जीवित हैं। अतः यहाँ बैर बंधता है। प्रश्नकर्ता : वह किस कारण बंधता है? पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार इस समय तो मुझे बहुत से लोग कह जाते हैं कि, 'मुझसे विषय के लिए आजिजी करवाती है।' तब मैंने कहा, 'तेरा प्रभाव कहाँ गया, लाचारी करे फिर क्या करवाएगी? समझ ले अभी भी, अब भी योगी हो जा (विषय की भीख छोड़ दो)!' अब इन्हें कैसे पहुँच पाएँ? इस दुनिया को कैसे पहुँच पाएँ?! एक औरत उसके मर्द को विषय के लिए चार बार साष्टांग करवाती है, तब एक बार छूने देती है। ऐसा करने के बजाय समाधि ले लेता तो क्या बुरा होता? दरिया में समाधि ले तो दरिया सीधा तो है ! झंझट तो नहीं! विषय के खातिर चार बार साष्टांग! प्रश्नकर्ता : पिछले जन्म में हम उससे टकराये होंगे, तभी इस जन्म में वह हमसे टकराती है। मगर उसका रास्ता तो निकालना होगा न? सोल्युशन (हल) तो निकालना होगा न? दादाश्री : उसका सोल्युशन तो होता है, लेकिन लोगों का मनोबल कच्चा होता है न! विकारी भाग बंद कर देना तो अपने आप सब बंद हो जाएगा। उसको लेकर सदा के लिए किटकिट चलती रहती है। प्रश्नकर्ता : अब यह कैसे किया जाए? दादाश्री : विषय जीतना होगा। प्रश्नकर्ता : विषय नहीं जीता जाता, इसलिए तो हम आपकी शरण में आए हैं। दादाश्री : कितने सालों से विषय... बड़े होने को आए फिर भी विषय? जब देखो तब विषय, विषय और विषय!!! प्रश्नकर्ता : यह विषय बंद करने पर भी टकराव नहीं टलते इसलिए तो हम आपके चरणों में आए। दादाश्री : टकराव होता ही नहीं। जहाँ विषय बंद हैं वहाँ मैंने देखा, दादाश्री : अभिप्राय अलग हैं इसलिए। तुम कहोगे कि, 'मुझे अभी सिनेमा देखने जाना है।' तब वह कहेगी कि. 'नहीं, आज तो मझे नाटक देखने जाना है।' अर्थात् टाइमिंग (समय) समान नहीं होता। यदि एक्जेक्ट टाइमिंग के साथ टाइमिंग मिल रहा हो तभी शादी करना। ऐसा है न, इस अवलंबन का जितना भी सुख हमने लिया वह सब उधार लिया हुआ सुख है, लोन पर। और लोन (ऋण) 'री पे'(चुकता) करना पड़ता है। आत्मा से सुख नहीं लेते और पुद्गल से सुख माँगा आपने। आत्मा का सुख हो वहाँ हर्ज ही नहीं है, लेकिन पदगल के पास भीख माँगी वह लौटानी होगी। वह लोन (उधार) है। जितनी मिठास आती है, उतनी ही कड़वाहट भुगतनी होगी। क्योंकि पुद्गल से लोन लिया है। इसलिए उसे 'री पे' (लौटाते) करते समय उतनी ही कड़वाहट आयेगी। पुद्गल से लिया है, इसलिए पुद्गल को ही 'री पे' करना होगा। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार १०१ जितने जितने पुरुष मजबूत मन के हैं, उनकी स्त्री तो बिलकुल उनके कहे अनुसार रहती है। उसके (पति या पत्नी) साथ विषय बंद करने के सिवा और कोई उपाय ही नहीं। क्योंकि इस संसार में राग-द्वेष का मूल कारण ही विषय है। मौलिक कारण यही है। यहाँ से ही सभी राग-द्वेष जन्मे हैं। संसार सारा यहाँ से ही खड़ा हुआ है। इसलिए संसार बंद करना हो तो यहाँ से ही विषय बंद कर देना पड़े। जिसे क्लेश नहीं करना, जो क्लेश का पक्ष नहीं लेता, उसे क्लेश होता है, पर धीरे-धीरे बहुत कम होता जाता है। ये तो जो क्लेश करना ही चाहिए ऐसा मानते हैं, तब तक क्लेश ज्यादा होगा। क्लेश के पक्ष में हमें नहीं होना चाहिए। क्लेश करना ही नहीं है ऐसा जिसका निश्चय है, उसे क्लेश कम से कम होता है। और जहाँ क्लेश है वहाँ भगवान नहीं रहते! १०२ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार 'उसने मुझे भोग लिया।' और यहाँ पर (इस ज्ञान मिलने के बाद) वे निकाल करते हैं, फिर भी वह डिस्चार्ज (निकाली) किच-किच तो रहती ही है। हमें तो वह किच-किच भी नहीं थी, ऐसा किसी प्रकार का मतभेद नहीं था। विज्ञान तो देखो! संसार के साथ झगड़े बंद हो जाएँ। पत्नी के साथ तो नहीं झगड़े, लेकिन सारे संसार के साथ भी झगड़े बंद हो जाएँ। यह विज्ञान ही ऐसा है और झगड़े बंद हुए अर्थात् मुक्त हुआ। रहस्य, ऋणानुबंध के... शादी तो वाकई बंधन है। भैंस को बाडे में बंद करें ऐसी दशा होती है। इस फंदे में नहीं फँसे वह उत्तम। फंसने के बाद भी निकल जाएँ तो बहुत उत्तम। वर्ना आखिर फल चखने के बाद निकल जाना चाहिए। आत्मा किसी का पति, स्त्री या पुरुष या किसी का लड़का हो नहीं सकता, केवल सभी कर्म पूरे हो रहे हैं! आत्मा में तो कुछ भी परिवर्तन नहीं होता। आत्मा तो आत्मा ही है, परमात्मा ही है। ये तो हमने मान लिया कि यह हमारी स्त्री (पत्नी)। डबल बेड का सिस्टम बंद करो और सिंगल बेड का सिस्टम रखो। अब तो सभी कहते हैं, 'डबल बेड बनाइए, डबल बेड....' पहले तो हिन्दुस्तान में कोई मनुष्य ऐसे सोता नहीं था, कोई भी क्षत्रिय नहीं। क्षत्रिय तो बहुत सख्त नियमवाले होते हैं लेकिन वैश्य भी नहीं। ब्राह्मण भी इस प्रकार नहीं सोते, एक भी मनुष्य नहीं! देखिए काल कैसा विचित्र आया है! यह चिड़िया सुंदर घोंसला बनाती है, उसे कौन सिखाने गया था? यह संसार चलाना तो अपने आप आए ऐसा है। हाँ, स्वरूप ज्ञान प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। संसार चलाने के लिए कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। ये मनुष्य अकेले ही ज़रूरत से ज्यादा अक्लमंद हैं। इन पशु-पक्षियों को क्या बीवी-बच्चे नहीं हैं? उनकी शादी रचानी पड़ती है? यह तो मनुष्यों को ही बीवी-बच्चे हुए हैं, मनुष्य ही शादी रचाने में लगे हैं। जब से हीराबा के साथ मेरा विषय बंद हुआ, तब से मैं उनको 'हीराबा' कहता हूँ। तत्पश्चात् हमें कोई खास मुश्किल नहीं आई। पहले जो थोड़ी-बहुत नोकझोंक होती थी वह विषय के संग के कारण। वह तोतामस्ती होती थी। लोग समझें कि तोते ने तोती को मारना शुरू किया! मगर हो तोतामस्ती। लेकिन जब तक विषय का डंक है, तब तक यह सब नहीं जाता। वह डंक निकले तभी जाएगा। हमारा निजी अनुभव बताते हैं। यह ज्ञान है उसको लेकर ठीक है वर्ना ज्ञान नहीं हो तो डंक मारते ही रहते हैं। उस समय तो अहंकार था न। उसमें एक हिस्सा भोग अहंकार का होता है कि उसने मुझे भोग लिया। और पत्नी कहेगी, ये गाय-भैंस भी ब्याहते हैं। उन्हें भी बच्चे होते हैं। लेकिन है वहाँ पति का रिश्ता? वे भी ससुर हुए होते हैं, सास हुई होती है, लेकिन वे बुद्धिमानों की तरह कुछ व्यवस्था खड़ी करते हैं? कोई ऐसा कहता है कि मैं इसका ससुर हूँ? फिर भी हमारी तरह ही सारा व्यवहार है न? Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार १०३ वह भी दूध पिलाती है, बछड़े को चाटती है न! हम अक्लमंद नहीं चाटते । आप खुद शुद्धात्मा हैं और ये सभी व्यवहार ऊपर-ऊपर से अर्थात् 'सुपरफ्लुअस' करने का है। खुद 'होम डिपार्टमेन्ट' (आत्म स्वरूप ) में रहना और 'फोरिन' (व्यवहार) में 'सुपरफ्लुअस' रहना। 'सुपरफ्लुअस' यानी तन्मयाकार वृत्ति नहीं, केवल 'ड्रामेटिक' (नाटकीय)। केवल 'ड्रामा' (नाटक) ही खेलना है। ड्रामे (नाटक) में घाटा आए इस पर भी हँसना है और मुनाफा हो तब भी हँसना है। 'ड्रामा' में अभिनय करना है, घाटा आये तो वैसा दिखावा करना। मुँह से कहें ज़रूर कि भारी नुकसान हुआ है, लेकिन उसमें तन्मयाकार नहीं होते। हमें 'लटकती सलाम' (निम्न ज़रूरी व्यवहार) रखनी है। कई लोग नहीं कहते कि भाई इनसे मेरा सम्बन्ध 'लटकती सलाम' जितना है? इस प्रकार सारे संसार के साथ रहना है। जिसे इस तरह सारे संसार के साथ रहना आ गया वह ज्ञानी हो गया। इस शरीर के साथ भी 'लटकती सलाम'! हम निरंतर सभी के साथ 'लटकती सलाम' रखते हैं, फिर भी सब कहते हैं कि 'आप हमारे पर बहुत अच्छा भाव रखते हैं।' मैं व्यवहार सभी निभाता हूँ, मगर आत्मा में रहकर । प्रश्नकर्ता: ऐसा होता कि पत्नी के पुण्य से पुरुष का काम बनता हो ? कहते हैं न कि औरत के पुण्य से यह लक्ष्मी है या सब अच्छा है, ऐसा होता है? दादाश्री : वह तो हमारे लोगों ने कोई अपनी पत्नी को पीटता होगा, उसे समझाने के लिए कहा कि अरे तेरी औरत का नसीब तो देख। क्यों चिल्ला रहा है? उसका पुण्य है तो तू खाना खा रहा है! ऐसे शुरू हो गया। सभी जीव अपने पुण्य का ही खा रहे हैं। आपकी समझ में आ गया न? सब अपने पुण्य का ही भोगते हैं और अपना पाप भी खुद ही भुगतते हैं। दूसरे किसी का कुछ लेना-देना ही नहीं। उसमें एक बाल जितनी भी किसी की झंझट नहीं है। प्रश्नकर्ता: कोई शुभ कार्य करें, जैसे कि पुरुष दान करे, लेकिन पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार १०४ स्त्री का भी उसमें सहयोग हो, तब दोनों को फल मिलता है? दादाश्री : हाँ, मिलेगा न! करनेवाले करवानेवाले और अनुमोदन करनेवाले तीनों को पुण्य मिलेगा। आपको जिसने कहा हो कि यह करना, करने योग्य है, वह करवानेवाला है, आप करनेवाले है और विरोध नहीं करे वह अनुमोदना करनेवाला, सभी को पुण्य मिलेगा। लेकिन करनेवाले के हिस्से में पचास प्रतिशत और दूसरे पचास प्रतिशत उन दोनों में बँट जाएँगे । प्रश्नकर्ता: पूर्व जन्म के ऋणानुबंध से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए? दादाश्री : हमारा जिनके साथ पूर्व जन्म का ऋणानुबंध हो और हमें वह पसंद ही नहीं हो, उसका सहवास पसंद ही नहीं हो, फिर भी उसके सहवास में रहना ही पड़ता हो, तब क्या करना चाहिए कि, उसके साथ बाहर का व्यवहार ज़रूर रखना चाहिए मगर भीतर उसके नाम के प्रतिक्रमण करने चाहिए। क्योंकि हमने पिछले जन्म में अतिक्रमण किया था उसका यह परिणाम है। क्या कोज़िज किये थे? तब कहते हैं कि उसके साथ पूर्व जन्म में अतिक्रमण किया था उसका इस जन्म में परिणाम आया। इसलिए उसका प्रतिक्रमण करने पर वह खत्म हो जाएगा। अर्थात् भीतर उससे माफी माँग लो। क्षमा माँगते रहो कि मैंने जो दोष किये हो, उनकी क्षमा चाहता हूँ। किसी भी भगवान को साक्षी रखकर माफी माँग लो, तो सब समाप्त हो जाएगा। वर्ना फिर क्या होता है? उसके प्रति ज्यादा दोष दृष्टि रखने से, जैसे कि किसी पुरुष को स्त्री बहुत दोषित देखे तो तिरस्कार बढ़ेगा और तिरस्कार हो तो भय लगेगा। आपको जिसका तिरस्कार होगा, उसका भय रहेगा। उसे देखने से आपको घबराहट होगी, इससे समझ लो कि यह तिरस्कार हैं। इसलिए तिरस्कार हटाने के लिए हमें भीतर माफ़ी माँगते रहना चाहिए। दो ही दिन में वह तिरस्कार बंद हो जाएगा। उसे मालूम नहीं हो कि आप भीतर उसके नाम की माफ़ी माँगा करते हो ! 'उसके प्रति जो जो दोष किये हों, 'हे भगवान, मैं क्षमा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार १०५ चाहता हूँ। यह मेरे दोष का परिणाम है।' किसी भी मनुष्य के प्रति जो जो दोष किये हों और भीतर आप माफ़ी माँगते रहो भगवान के पास, तो सब धुल जाएगा। प्रश्नकर्ता : हमें धर्म की राह पर चलना हो, तो घर संसार छोड़ना पड़े। यह धर्मकार्य के लिए अच्छा है परन्तु घर के लोगों को दु:ख हो, किन्तु अपने लिए घर संसार छोड़ें वह अच्छा है? पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार आपके साथ मेरा जन्म होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। यह तो सब बावलापन है। (रिअल में) पति-पत्नी ऐसा कुछ है नहीं। यह तो बुद्धिमान लोगों ने व्यवस्था की है। प्रश्नकर्ता : भाई कहते हैं, यदि किसी प्रकार की तकरार नहीं हो, तो अगले जन्म में फिर साथ में रह सकेंगे? दादाश्री : नहीं। घरवालों का हिसाब चुकता करना ही होगा। उनका हिसाब चकता हो जाए तो वे सभी खश होकर कहेंगे कि 'आप जाइए' तब कोई हर्ज नहीं। लेकिन उन्हें दुःख हो ऐसा मत करना। क्योंकि एग्रीमेन्ट (करार) का भंग नहीं कर सकते। दादाश्री : इस जन्म में ही रहा नहीं जाता, इस जन्म में ही डिवॉर्स हो जाते हैं, तब फिर अगले जन्म की कहाँ बात करते हो? ऐसा प्रेम ही नहीं होता न! अगले जन्म के प्रेमवालों में तो क्लेश ही नहीं होता। वह तो ईजी लाइफ (सरल ज़िन्दगी) होती है। बड़े प्यार की जिन्दगी होती है। किसीकी भूल ही नहीं दिखती। भल करे तो भी नज़र नहीं आती. ऐसा प्रेम होता है। प्रश्नकर्ता : भौतिक संसार छोड़ने को जी करता है, तो क्या करें? दादाश्री : भौतिक संसार में घुसने को जी करता था न, एक दिन? प्रश्नकर्ता : तब तो ज्ञान नहीं था। अब तो ज्ञान है इसलिए उसमें फर्क पड़ता है। प्रश्नकर्ता : तब ऐसी प्रेमभरी ज़िन्दगी हो तो फिर अगले जन्म में फिर वे ही इकट्ठे होंगे या नहीं होंगे? दादाश्री : हाँ, होते हैं न, किसी की ऐसी ज़िन्दगी हो तो होते हैं। सारी ज़िन्दगी क्लेश नहीं हुआ हो तो होते हैं। आदर्श व्यवहार, जीवन में... दादाश्री : ज़िन्दगी को किस प्रकार सुधारें? प्रश्नकर्ता : सच्चे मार्ग पर जाकर। दादाश्री : हाँ, उसमें फर्क पड़ेगा लेकिन उसमें घुसे हैं, इसलिए निकलने का रास्ता खोजना पड़ेगा। यों ही भाग नहीं सकते। प्रश्नकर्ता : प्रत्येक दिन कम होता जा रहा है। दादाश्री: 'मेरा' कहकर मरना है। असल में मेरा है नहीं। वह जल्दी चल बसे तो हमें अकेले बैठे रहना पडे। सत्य हो तो दोनों को साथ ही जाना चाहिए न? और अगर पति के पीछे सती हो तो भी वह किस राह गई हो और यह पति किस राह गया होगा! क्योंकि सबकी अपने कर्मों के हिसाब से गति होती है। कोई जानवर में जाए, कोई मनुष्य में जाए, कोई देवगति में जाए। उसमें सती कहे कि मैं आपके साथ मर जाऊँ तो दादाश्री : कितने साल तक सुधारना? सारी जिन्दगी? कितने साल, कितने दिन, कितने घण्टे, किस प्रकार सुधरेगा वह सब? प्रश्नकर्ता : मुझे मालूम नहीं। दादाश्री : हं.... इसीलिए सुधरता नहीं न! और वास्तव में दो ही दिन सुधारने के हैं, एक वर्किंग डे (काम पर जाने का दिन) और एक Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार १०७ १०८ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : उसमें बीवी का क्या दोष? वहाँ लड़कर आया हो तब बीवी समझ जाती है कि आज मूड में नहीं है। मड में नहीं होता न? है तो होली डे (छुट्टी का दिन)। दो ही दिन सुधारने के, सवेरे से लेकर शाम तक। दो में परिवर्तन लाये तो सभी परिवर्तन हो जाएंगे। दो की व्यवस्था कर दी कि हर दिन उस प्रकार चलता रहे फिर। और उस प्रकार चलें तो यह सब सुलझ जाए। लम्बा परिवर्तन करना ही नहीं है। इन दो की व्यवस्था की कि सभी दिन उनमें समा गए। प्रश्नकर्ता : वह व्यवस्था कैसे करने की? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : अतः ऐसी व्यवस्था एक दिन की कर दो, वर्किंग डे की और एक होली डे की। दो ही तरह के दिन आते हैं। तीसरा दिन कोई आता नहीं न? इसलिए दो दिनों की व्यवस्था की, उसके अनुसार चलता रहे फिर। प्रश्नकर्ता : अब छुट्टी के दिन क्या करें? दादाश्री : छुट्टी के दिन तय करना कि आज छुट्टी का दिन है, बाल-बच्चे, वाइफ, सभी को कहीं घूमने को नहीं मिलता है, इसलिए आज भोजन के बाद घुमाने ले जाएँगे। अच्छे-अच्छे भोजन बनाने चाहिएँ। भोजन के बाद घुमाने ले जाना चाहिए। फिर घूमने में खर्च की मर्यादा रखने की कि होली डे के दिन इतना ही खर्च! किसी वक्त एकस्ट्रा (ज्यादा) करना पड़े तब हम बजट बनायेंगे, वर्ना इतना ही खर्च। हमें यह सब तय करना चाहिए। वाइफ के पास ही तय करवाना चाहिए। दादाश्री : क्यों? पहले तो सवेरे जल्दी उठने का रिवाज़ रखना चाहिए। क्योंकि मनुष्य को क़रीब पाँच बजे उठना चाहिए। आधा घण्टा अपनी एकाग्रता का सेवन करना चाहिए। सवेरे उठने पर पहले तो भगवान का स्मरण जो करना हो वह कर लेना। किसी इष्टदेव या जो भी हो, उनकी भक्ति आधे घण्टे जितनी करनी चाहिए। फिर ऐसा रोज चलता रहे। बाद में ब्रश आदि सब कर लेना। ब्रश में भी सिस्टम (प्रणाली) कर देने की। हम खुद ही ब्रश लें, सब-कुछ खुद ही करें, अन्य किसी को (मदद के लिए) नहीं कहना चाहिए। अगर बीमार-वीमार हों तो बात अलग है। फिर चाय-पानी आए तब तकरार नहीं करनी चाहिए और जो आया वह पी लेना चाहिए, और बाद में चाय पीने के बाद उनसे कहना कि थोडी शक्कर कम पड़ती है तो कल से जरा ज्यादा डाला करो। उनको चेतावनी देनी है हमें। तकरार मत करना। चाय के साथ नाश्ता-वाश्ता जो करना हो वह कर लिया और फिर खाना खाकर जॉब (काम) जाना। जॉब पर हमें फ़र्ज अदा करना होता है। घर से तकरार किए बगैर निकलने का। फिर जॉब करके वापस आएँ तब जॉब पर बॉस (मालिक) के साथ झंझट हो गई हो, उसे रास्ते में शांत कर देना। इस ब्रेईन (दिमाग़) की नट दबा देना, अगर वह रेज़ (गरम) हो गई हो तो। शांत होकर घर जाना ताकि घर में कुछ तकरार नहीं हो। बॉस के साथ लड़ता है, उसमें बीवी का क्या दोष बेचारी का? तेरा बॉस के साथ झगड़ा होता है या नहीं होता? प्रश्नकर्ता : होता है। प्रश्नकर्ता : वे कहते हैं कि घर में पूरनपूरी (मीठी रोटी) खानी चाहिए। पीज्जा खाने बाहर नहीं जाना चाहिए। दादाश्री : खुशी खुशी से पूरनपूरी खाओं, पकोड़े खाओ, जलेबी खाओ, सब खाओं। जो चाहे सो खाओ। प्रश्नकर्ता : लेकिन होटल में पीज्जा खाने मत जाना। दादाश्री : पीज्जा खाने? वह हमसे कैसे खाया जाए? हम तो आर्य प्रजा। फिर भी शौक़ हो तो दो-चार बार खिलाकर फिर धीरे-धीरे छुड़वा देना। धीरे-धीरे छुड़वा देना, एकदम से हम बंद कर दें वह गलत है। प्रश्नकर्ता : वाइफ को कुछ अच्छा बनाने का शौक़ नहीं हो तो हमें क्या करना चाहिए? Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार १०९ दादाश्री : हमें दूसरा शौक़ करना। हमारे यहाँ दूसरी बहुत-सी चीजें हैं। शौक़ बदल देना। राई मेथी के तड़केवाला नहीं भाता हो तो दालचीनी और काली मीर्च का तड़का दिलवाना ताकि अच्छा लगे। पीज्जा में तो क्या खाने जैसा है? व्यवस्था करें तो सारा जीवन अच्छी तरह व्यतीत हो और वे कुछ आधा घण्टा भगवान की भक्ति करें तो काम ढंग से चले। तुझे तो ज्ञान प्राप्त हो गया इसलिए अब तू तो समझदार हो गया। लेकिन दूसरों को ज्ञान नहीं मिला हो, उनको कुछ भक्ति करनी चाहिए न ! तेरा तो सब ठीक से चलने लगा न? यह अक्रम विज्ञान व्यवहार को छेड़ता नहीं है। प्रत्येक ज्ञान, व्यवहार को दुतकारता है। यह विज्ञान व्यवहार को किचित् मात्र दुतकारता नहीं है और अपनी 'रियालीटी' में संपूर्ण रहकर व्यवहार को दुतकारता नहीं है । व्यवहार को दुतकारे नहीं वही सैद्धांतिक वस्तु होती है। सैद्धांतिक वस्तु किसे कहते हैं कि जिसका कभी भी असैद्धांतिकता में परिणामन न हो वह सिद्धांत। कोई ऐसा कोना नहीं है जहाँ असिद्धांत हो। अर्थात् यह 'रियल साईंस' (वास्तविक विज्ञान) है, 'कम्पलीट साईंस' (पूर्णतया विज्ञान) है। व्यवहार को किचिंत्मात्र नहीं दुतकारता ! किसी को ज़रा-सा भी दुःख नहीं हो, वह आखरी 'लाइट' (प्रकाश) है। विरोधी को भी शांति हो। हमारा विरोधी हो पर ऐसा कहे कि 'भाई, इनका और मेरा मतभेद है पर उनके प्रति मुझे भाव है, आदर है' ऐसा कहे आखिर ! हमेशा विरोध तो रहनेवाला ही है। ३६० डिग्री का और ३५६ डिग्री का भी विरोध होता ही है। इस प्रकार विरोध तो होता ही है। एक ही डिग्री पर सभी मनुष्य नहीं आ सकते। एक ही विचार श्रेणी पर सभी मनुष्य नहीं आ सकते। क्योंकि मनुष्य की विचार श्रेणी की चौदह लाख योनियाँ हैं । बोलिए, अपने को कितने 'एडजस्ट' हो सकते हैं? कुछ ही 'एडजस्ट' हो सकते हैं, सभी नहीं हो सकतें। घर में तो सुन्दर व्यवहार कर देना चाहिए। 'वाइफ' के मन में ऐसा ११० पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार लगे कि ऐसा (अच्छा) पति कभी नहीं मिलेगा और पति के मन में ऐसा लगे कि ऐसी (अच्छी) 'वाइफ' भी कभी भी नहीं मिलेगी ! ऐसा हिसाब ला दें तब हम सच्चे ! प्रश्नकर्ता: अध्यात्म में तो आपकी बात का कहना ही क्या पर व्यवहार में भी आपकी बातें 'टॉप' (श्रेष्ठ) हैं ! दादाश्री : ऐसा है न, कि व्यवहार में 'टॉप' का समझे बिना कोई मोक्ष में नहीं गया है। चाहे बहुत ही ऊँचा आत्मज्ञान क्यूं न हो लेकिन व्यवहार को समझे बगैर कोई मोक्ष में नहीं गया है। क्योंकि व्यवहार छोड़नेवाला है न? व्यवहार आपको नहीं छोड़ेगा तो आप क्या करेंगे? आप 'शुद्धात्मा' ही हैं लेकिन व्यवहार आपको छोड़ें तब न? आप व्यवहार को उलझाते रहते हो । उसका झटपट हल ला दो न ! - जय सच्चिदानंद पति-पत्नी को एक दूसरे के दोष नज़र आए तब दादाश्री द्वारा सूचित प्रतिक्रमण विधि प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, फाइल नं. दो के मन-वचनकाया के योग, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म से भिन्न ऐसे हे शुद्धात्मा भगवान, | आपकी साक्षी में, आज दिन तक मुझसे जो जो ★ ★ दोष हुए हैं, उसके लिए क्षमा माँगता हूँ । हृदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ । आलोचना| प्रतिक्रमण - प्रत्याख्यान करता हूँ। मुझे क्षमा करो, क्षमा करो, क्षमा करो। और फिर से ऐसे दोष कभी भी नहीं करूँ, ऐसा दृढ़ निश्चय करता हूँ। हे दादा भगवान ! मुझे ऐसा कोई भी दोष न करने की परम शक्ति दो शक्ति दो, शक्ति दो। ★★ विषय कषाय आदि से किसी भी प्रकार का दुःख पहुँचाया हो, उन दोषों को मन में याद करें। ܀܀܀ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वीतराग शासन देवी-देवताओं को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। * निष्पक्षपाती शासन देवी-देवताओं को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। • चौबीस तीर्थंकर भगवंतों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता • श्री कृष्ण भगवान को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। प्रातः विधि * श्री सीमंधर स्वामी को नमस्कार करता हूँ। * वात्सल्यमूर्ति 'दादा भगवान' को नमस्कार करता हूँ। (५) * प्राप्त मन-वचन-काया से इस संसार के किसी भी जीव को किंचित्मात्र भी दुःख न हो, न हो, न हो। * केवल शुद्धात्मानुभव के अलावा इस संसार की कोई भी विनाशी चीज मुझे नहीं चाहिए। * प्रकट ज्ञानी पुरुष दादा भगवान की आज्ञा में ही निरंतर रहने की परम शक्ति प्राप्त हो, प्राप्त हो, प्राप्त हो। ज्ञानी पुरुष 'दादा भगवान' के वीतराग विज्ञान का यथार्थ रूप से, संपूर्ण-सर्वांग रूप से केवल ज्ञान, केवल दर्शन और केवल चारित्र में परिणमन हो, परिणमन हो, परिणमन हो। नमस्कार विधि प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में विचरते तीर्थंकर भगवान श्री सीमंधर स्वामी को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। (४०) प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में विचरते ॐ परमेष्टी भगवंतों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में विचरते पंच परमेष्टी भगवंतों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में, वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में विहरमान तीर्थंकर साहिबों को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। * भरत क्षेत्र में हाल विचरते सर्वज्ञ श्री दादा भगवान को निश्चय से अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। दादा भगवान के सर्व समकितधारी महात्माओं को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। * सारे ब्रह्मांड के समस्त जीवों के रियल स्वरूप को अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। * रीयल स्वरूप ही भगवत् स्वरूप है, इसलिए सारे विश्व को भगवत् स्वरूप से दर्शन करता हूँ। * रीयल स्वरूप ही शुद्धात्म स्वरूप है, इसलिए सारे विश्व को शुद्धात्म स्वरूप से दर्शन करता हूँ। • रीयल स्वरूप ही तत्त्व स्वरूप है, इसलिए सारे विश्व को तत्त्वज्ञान रूप से दर्शन करता हूँ। नौ कलमें १. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे (दु:खे), न दुभाया (दु:खाया) जाये या दुभाने (दुःखाने) के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे किसी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम् न दुभे, ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की परम शक्ति दो । २. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभे, न दुभाया जाये या दुभाने के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे किसी भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभाया जाये ऐसी स्याद्वाद वाणी, स्याद्वाद वर्तन और स्याद्वाद मनन करने की परम शक्ति दो । ३. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी उपदेशक साधु, साध्वी या आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दो । ४. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति किंचित्मात्र भी अभाव, तिरस्कार कभी भी न किया जाये, न करवाया जाये या कर्ता के प्रति न अनुमोदित किया जाये, ऐसी परम शक्ति दो । ५. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के साथ कभी भी कठोर भाषा, तंतीली भाषा न बोली जाये, न बुलवाई जाये या बोलने के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो । कोई कठोर भाषा, तंतीली भाषा बोलें तो मुझे मृदु-ऋजु भाषा बोलने की शक्ति दो । ६. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा के प्रति स्त्री, पुरुष या नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किचिंत्मात्र भी विषय-विकार संबंधी दोष, इच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किये जायें, न करवाये जायें या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाये, ऐसी परम शक्ति दो। मुझे निरंतर निर्विकार रहने की परम शक्ति दो । ७. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी रस में लुब्धता न हो ऐसी शक्ति दो । समरसी आहार लेने की परम शक्ति दो । ८. हे दादा भगवान ! मुझे किसी भी देहधारी जीवात्मा का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष, जीवित अथवा मृत, किसी का किंचित्मात्र भी अवर्णवाद, अपराध, अविनय न किया जाये, न करवाया जाये या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जायें, ऐसी परम शक्ति दो । ९. हे दादा भगवान ! मुझे जगत कल्याण करने में निमित्त बनने की परम शक्ति दो, शक्ति दो, शक्ति दो । (इतना आप दादा भगवान से माँगा करें। यह प्रतिदिन यंत्रवत् पढ़ने की चीज नहीं है, हृदय में रखने की चीज़ है। यह प्रतिदिन उपयोगपूर्वक भावना करने की चीज़ है। इतने पाठ में समस्त शास्त्रों का सार आ जाता है।) शुद्धात्मा के प्रति प्रार्थना हे अंतर्यामी परमात्मा ! आप प्रत्येक जीवमात्र में बिराजमान हो, वैसे ही मुझ में भी बिराजमान हो। आपका स्वरूप ही मेरा स्वरूप है। मेरा स्वरूप शुद्धात्मा है। हे शुद्धात्मा भगवान ! मैं आपको अभेद भाव से अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। अज्ञानतावश मैंने जो जो ★ ★ दोष किये हैं, उन सभी दोषों को आपके समक्ष ज़ाहिर करता हूँ। उनका हृदयपूर्वक बहुत पश्चाताप करता हूँ और आपसे क्षमा याचना करता हूँ। हे प्रभु! मुझे क्षमा करो, क्षमा करो, क्षमा करो और फिर से ऐसे दोष नहीं करूँ, ऐसी आप मुझे शक्ति दो, शक्ति दो, शक्ति दो । हे शुद्धात्मा भगवान ! आप ऐसी कृपा करो कि हमें भेदभाव छूट जाये और अभेद स्वरूप प्राप्त हो। हम आप में अभेद स्वरूप से तन्मयाकार रहें । ★ ★ जो जो दोष हुए हों, वे मन में ज़ाहिर करें। ܀ ܀ दादा भगवान के असीम जय जयकार हो (प्रतिदिन कम से कम १० मिनट से लेकर ५० मिनट तक जोर से बोलें) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें हिन्दी 11. चिंता 1. ज्ञानी पुरूष की पहचान 2. सर्व दुःखों से मुक्ति 12. क्रोध 3. कर्म का विज्ञान 13. प्रतिक्रमण 4. आत्मबोध 14. दादा भगवान कौन? 5. मैं कौन हूँ? 15. पैसों का व्यवहार 6. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी 16. अंत:करण का स्वरुप 7. भूगते उसी की भूल 17. जगत कर्ता कौन? 8. एडजस्ट एवरीव्हेयर 18. त्रिमंत्र 9. टकराव टालिए 19. भावना से सुधरे जन्मोजन्म 10. हुआ सो न्याय 20. पति-पत्नी का दीव्य व्यवहार English Adjust Everywhere 17. Money Ahimsa (Non-violence) 18. Noble Use of Money Anger 19. Pratikraman Apatvani-1 20. Pure Love Apatvani-2 21. Right Understanding to Help Apatvani-6 Others Apatvani-9 22. Shree Simandhar Swami 8. Avoid Clashes 23. Spirituality in Speech 9. Celibacy: Brahmcharya 24. The Essence of All Religion 10. Death: Before, During & After... 25. The Fault of the Sufferer 11. Flawless Vision 26. The Science of Karma 12. Generation Gap 27. Trimantra 13. Gnani Purush Shri A.M.Patel 28. Whatever has happened is Justice 14. Guru and Disciple 15. Harmony in Marriage 29. Who Aml? 16. Life Without Conflict 30. Worries दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी 60 से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में "दादावाणी" मैगेजीन प्रकाशित होता है। प्राप्तिस्थान दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सीमंधर सीटी, अहमदाबाद- कलोल हाई वे, पोस्ट : अडालज, जि. गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 39830100, email : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाई वे, तरघडीया चोकडी, पोस्ट : मालियासण, जि. राजकोट. फोन : 99243 43478 वडोदरा : दादा भगवान परिवार, (0265)2414142 मुंबई : दादा भगवान परिवार, 9323528901 पूणे : महेश ठक्कर, 9822037740 बेंगलूर : अशोक जैन, 9341948509 कोलकता : शशीकांत कामदार, 033-32933885 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 100, SW Redbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel: 785-271-0869, E-mail : bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel. : 951-734-4715, E-mail : shirishpatel@sbcglobal.net U.K. : Dada Centre, 236, Kingsbury Road, (Above Kingsbury Printers), Kingsbury, London, NW9 OBH Tel. : 07956476253, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4. Halesia Drive, Etobicock Toronto, M9W6B7. Tel.:4166753543 E-mail: ashadinsha@yahoo.ca Canada :+1416-675-3543 Australia : +61 421127947 Dubai :+971506754832 Singapore: +6581129229 Malaysia :+60 126420710 Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org