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पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार
तू जानता है कि लोग वाइफ (पत्नी) को गुरु बनाए ऐसे हैं? प्रश्नकर्ता : हाँ जी, जानता हूँ।
दादाश्री : उसे गुरु करने जैसा नहीं. वर्ना माता-पिता और सारा कुटुम्ब मुसीबत में आ जाएगा। और गुरु करने पर खुद भी मुसीबत में आ जाएगा। उसे भी खिलौने की तरह नाचना पड़ता है! पर मेरे पास आनेवाले को ऐसा नहीं होता। मेरे पास सब-कुछ ओलराईट (बराबर)! हिंसक भाव ही उड़ जाता है। हिंसा करने का विचार ही नहीं आता है। कैसे सुख पहुँचाऊँ यही विचार आता है।
प्रश्नकर्ता : ये लेडीज (औरतें) काम करके थक बहुत जाती हैं। काम बतायें तो बहाने बनाती हैं कि मैं थक गई हूँ, सिर दर्द रहा है, कमर दुःखती है।
दादाश्री : ऐसा है न, तो उसे सुबह से कह देना चाहिए कि 'देख तुझ से काम नहीं होगा, तू थक गई है।' तब वह जोश में आ जाएगी
और कहेगी कि नहीं तुम बैठे रहो चुपचाप, मैं कर लूँगी। अर्थात् हमें चतराई से काम लेना आना चाहिए। अरे! सब्जी काटने में भी चतुराई नहीं हो तो यहाँ खून निकलेगा।
प्रश्नकर्ता : हम जब गाड़ी में जाते हैं तब वह मुझे कहती रहती है, गाड़ी कहाँ मोड़ना, कब ब्रेक लगाना ऐसा गाड़ी में मुझे कहती रहती है अर्थात् गाड़ी में टोकती है, ऐसे चलाओ, ऐसे चलाओ !
दादाश्री : तब उसे सौंप देना, गाड़ी उसे सौंप देना। झंझट ही नहीं। समझदार आदमी ! किट-किट करती हो तब उसे कहना, 'ले, तू चला!'
प्रश्नकर्ता : तब वह कहेगी, 'मेरी हिम्मत नहीं है।'
दादाश्री : क्यों? तब कहना, 'उसमें तुम्हें क्या हर्ज है? तब क्या तुम्हें ऊपर लटका रखा है कि टोकती रहती हो?' गाड़ी उसे सौंप देना। ड्राईवर हो तो पता चले टोकने पर, यह तो घर का आदमी है इसलिए टोकती रहती है।
पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार प्रश्नकर्ता : पत्नी की तरफदारी न करें तो घर में झगड़े होते हैं।
दादाश्री : पत्नी की ही तरफदारी करना। पत्नी का पक्ष लेना, उसमें कछ हर्ज नहीं। क्योंकि पत्नी की तरफदारी करो तो ही रात को चैन से सो सकोगे वर्ना कैसे सोओगे? वहाँ काजी मत बनना।
प्रश्नकर्ता : पड़ौसी की तरफ़दारी तो करनी ही नहीं न?
दादाश्री : नहीं, हमें हमेशा वादी का ही वकील होना है, प्रतिवादी का नहीं होना। हम जिस घर का खाते है उसका ही... ये तो खायें इस घर का और वकालत सामनेवाले के घर की करें। इसलिए उस वक्त सामनेवाले का न्याय नहीं करना चाहिए! अपनी वाइफ अन्याय के पक्ष में हो तो भी हमें उसके कहे मुताबिक ही चलना है। वहाँ न्याय करने मत जाना कि 'तेरे में अक्ल नहीं है इसलिए ऐसा हुआ...' क्योंकि कल भोजन उसके साथ ही खाना है।
प्रश्नकर्ता : सामनेवाले का समाधान हुआ कैसे कहलाएगा? सामनेवाला का समाधान हो, पर उसमें उसका अहित हो तो?
दादाश्री : यह तुम्हें नहीं देखना है। सामनेवाले का अहित हो वह तो उसे ही देखना है। तुम्हें सामनेवाले का हिताहित देखना हो पर तुम्हारे पास शक्ति कहाँ है? तुम अपना हित ही नहीं देख सकते हो, तो दूसरों का हित कैसे देख सकोगे? सब अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार हित देखते हैं, उतना हित देखना चाहिए। पर दूसरे के हित के लिए टकराव खड़ा नहीं करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : सामनेवाले का समाधान करने का हम प्रयत्न करें पर परिणाम विपरीत आनेवाला है यह जानते हों, तब क्या करें?
दादाश्री : परिणाम कुछ भी हो मगर हमें तो 'सामनेवाले का समाधान करना है' इतना तय करना है। 'समभाव से निकाल' करने का निश्चित करने के बाद निकाल (निपटारा) होता है या नहीं, यह पहले से नहीं देखना है। और निकाल होगा! आज नहीं तो कल होगा, परसों होगा।