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पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार साँवले हैं। फिर उसने भी तय किया कि यह मेरी पत्नी आई। तब से 'मेरी-मेरा' की जो लपेटें लगीं, वे लपेटें लगती ही रही हैं। वह पंद्रह साल की फिल्म है, उसे तुम 'नहीं है मेरा. नहीं हैं मेरा' करेगी. तब वे लपेटें खुलेंगी और ममता छूटेगी। यह तो शादी हुई तबसे अभिप्राय हुए हैं। प्रिज्युडिस (पूर्वाग्रह) हो गया कि 'ये ऐसे हैं, वैसे हैं।' पहले कुछ था? अब तो हमें मन में निश्चय करना है कि 'जो है सो यह हैं' और हम खुद पसंद करके लाये हैं। अब क्या पति बदल सकते हैं?
परमात्म प्रेम की पहचान
इस संसार में अगर कोई पूछे कि, 'यह स्त्री का प्रेम प्रेम नहीं है क्या?' तब मैं समझाऊँ कि जो प्रेम बढ़ता है, घटता है वह प्रेम सच्चा प्रेम ही नहीं है। तुम हीरे के टॉप्स लाकर दो उस दिन प्रेम बहुत बढ़ जाता है और नहीं लाए तो प्रेम घट जाता है, यह प्रेम नहीं है।।
पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार गाढ़ ऋणानुबंध होने पर दो साल, तीन साल या पाँच साल भी लग सकते हैं। वाइफ के साथ ऋणानुबंध बहुत चिकने होते हैं, संतानों से चिकने होते हैं, माता-पिता से चिकने होते हैं। वहाँ पर थोड़ा ज्यादा समय लगेगा। ये सभी हमारे साथ ही साथ होने से निकाल धीरे-धीरे होगा। लेकिन हमारा निश्चय है कि हमें समभाव से निकाल करना है, इसलिए एक दिन वह होकर रहेगा, उसका अंत आएगा।
'मेरी-मेरी' की लपेटें उकलेंगी ऐसे विवाह के समय मंडप में बैठते हैं न! मंडप में बैठने पर ऐसे देखते हैं। हाँ, यह मेरी वाइफ यानी पहली लपेट लगाई। मेरी वाइफ, मेरी वाइफ, मेरी वाइफ, मेरी वाइफ... ब्याहने बैठा तभी से ही लपेट लगाता रहता है लगातार। अभी तक लपेट लगाता ही रहा है तो कितनी लपेटें लग गई होंगी अब तक? अब किस प्रकार वे लपेटें उकलेंगी? ममता की लपेटें लगी हैं!
अब 'नहीं है मेरी,''नहीं है मेरी' ऐसे बोलते रहो। 'यह स्त्री मेरी नहीं हैं, नहीं हैं मेरी' इससे लपेटें खुल जाएँगी। पचास हजार बार 'मेरीमेरी' कहकर लपेटें लगाईं हों, वे 'नहीं मेरी' की पचास हज़ार लपेटें लगाने पर छूटेगी! एक आदमी की पत्नी के मृत्यु को दस साल हो गये थे, फिर भी वह उसे भूल नहीं पाया था और रोता रहता था। मैं ने उसे 'नहीं है मेरी,''नहीं है मेरी' बोलने को कहा। बाद में उस व्यक्ति ने क्या किया? तीन दिन तक 'नहीं है मेरी, नहीं है मेरी' बोलता ही रहा और रटता रहा। बाद में उसका रोना बंद हो गया! ये सभी लपेटें ही हैं और उसकी ही यह फजीहत हुई है। यह सब कल्पित है। मेरी बात तुम्हारी समझ में आई? अब ऐसा सरल रास्ता कौन दिखायेगा?
सारा दिन काम करते-करते पति का प्रतिक्रमण करते रहना। एक दिन में छ: महीने का बैर कट जाएगा। और आधा दिन हो तो समझो न तीन महीने का खत्म हो जाता है। शादी से पहले पति के साथ ममता थी? नहीं। तब ममता कब से बंधी? शादी के समय मंडप में आमने सामने बैठे, इसलिए तूने तय किया कि यह मेरे पति आए। थोड़े मोटे हैं और
प्रश्नकर्ता : सच्चा प्रेम घटता-बढ़ता नहीं, तो उसका स्वरूप कैसा होता है?
दादाश्री : वह घटता-बढ़ता नहीं। जब देखो तब प्रेम वैसा का वैसा ही दिखता है। यह तो उसका काम कर दो, तब तक उसका तुम्हारे प्रति प्रेम रहता है और काम नहीं करो तो प्रेम टूट जाता है, उसे प्रेम कैसे कह सकते हैं? अर्थात् जहाँ स्वार्थ नहीं होता वहाँ पर शुद्ध प्रेम होगा। स्वार्थ कब नहीं होता है? मेरा-तेरा नहीं होता तब स्वार्थ नहीं होता। 'ज्ञान' हो तो मेरा-तेरा नहीं होता। 'ज्ञान' बगैर तो मेरा-तेरा होता ही है न?
ये तो सभी 'रोंग बिलीफ' (गलत मान्यताएँ) हैं। मैं चन्दुभाई हूँ' यह रोंग बिलीफ है। फिर घर जाने पर हम पूछे कि 'यह कौन है?' तब वह कहता है 'मुझे नहीं पहचाना? इस औरत का मैं स्वामी (पति) हूँ।'
ओहोहो! बड़े स्वामी आए! मानो स्वामी का स्वामी ही नहीं हो ऐसी बातें करता है! स्वामी का स्वामी होगा कि नहीं? तब फिर आपके ऊपरवाले स्वामी की स्वामिनी आप हुए और आपकी स्वामीनी यह हुई। इस धाँधल