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पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार
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पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार और जहाँ आसक्ति है वहाँ आक्षेप आये बिना नहीं रहते। वह आसक्ति का स्वभाव है। आसक्ति हो तो आक्षेप होते ही रहते हैं कि 'तुम ऐसे हो और तुम वैसे हो! तू ऐसी और त वैसी!' क्या ऐसा नहीं बोलते? तुम्हारे गाँव में बोलते हैं कि नहीं बोलते? ऐसा बोलते हैं वह आसक्ति के कारण।
ये लड़कियाँ पति पसंद करती हैं, ऐसे देख-दाख कर पसंद करने के बाद क्या नहीं झगड़ती होंगी? झगड़ती हैं क्या? तब उसे प्रेम ही नहीं कह सकते! प्रेम तो स्थाई होता है। जब देखो तब वही प्रेम। वैसा ही नज़र आये वह प्रेम कहलाता है और ऐसा प्रेम हो वहाँ आश्वासन ले सकते हैं। यह तो हमें प्रेम आता हो और उस दिन वह रूठकर बैठी हो, तब यह कैसा तुम्हारा प्रेम! डाल गटर में! मुँह फुलाकर घूमती हो ऐसे प्रेम को क्या करना है? आपको क्या लगता है?
जहाँ बहुत प्रेम आता है वहीं अरूचि होती है, यह मनुष्य स्वभाव
में क्यो पड़े? स्वामी ही क्यों हों? हमारे 'कम्पेनियन' (साथी) है कहे तो क्या हर्ज है?
प्रश्नकर्ता : दादा ने बहुत 'मॉडर्न' (आधुनिक) भाषा का प्रयोग किया।
दादाश्री: तब क्या? टसल (टकराव) कम हो जाए न! हाँ, एक रूम में दो 'कम्पेनियन' (साथी) रहते हों, तब एक व्यक्ति चाय बनाये
और दूसरा व्यक्ति पीये और दूसरा उसके लिए काम कर दे। ऐसा करके 'कम्पेनियन' बने रहें।
प्रश्नकर्ता : 'कम्पेनियन' में आसक्ति होती है या नहीं?
दादाश्री : उसमें आसक्ति होती है पर वह आसक्ति अग्नि समान नहीं होती। ये तो शब्द ही ऐसी गाढ़ आसक्तिवाले हैं। 'स्वामित्व और स्वामिनी' इन शब्दों में ही इतनी गाढ़ आसक्ति भरी है ! और 'कम्पेनियन' कहने पर आसक्ति कम हो जाती है।
एक आदमी की वाइफ २० साल पहले मर गई थी। तब एक भाई ने मुझसे कहा कि, 'इस चाचा को रुलाऊँ?' मैंने पूछा, 'कैसे रुलाओगे?' तब वह कहता है, 'देखो, वे कितने सेन्सिटिव (भावक) हैं!' फिर वे बोले, 'क्यों चाचा. चाची की तो बात ही मत पूछो, क्या उनका स्वभाव था!' वह ऐसे कह रहा था कि चाचा सचमुच रो पड़े ! कैसे हैं ये घनचक्कर, साठ साल के हुए तो भी अभी पत्नी का रोना आता है! लोग तो वहाँ सिनेमा में भी रोते हैं न? उसमें कोई मर जाए तब देखनेवाले भी रोने लगते हैं!
प्रश्नकर्ता : वह आसक्ति क्यों नहीं छूटती?
दादाश्री : वह नहीं छूटती, क्योंकि अब तक 'मेरी-मेरी' कहते रहे और अब 'नहीं हैं मेरी, नहीं हैं मेरी' कहोगे तो बंद हो जाए। वह तो जो जो लपेटें लगी हों, उसे छोड़नी ही पडेगी! अर्थात यह तो केवल आसक्ति है। चेतन जैसी चीज़ ही नहीं है। ये तो सभी चाबी भरे हए पतले हैं।
यह तो सिनेमा जाते समय आसक्ति की धुन में जाता हैं और लौटते समय बीवी को 'बिना अक्ल की है' कहता है। तब वह कहती है कि 'तुम्हारे में कहाँ ढंग है?!' ऐसे बातें करते करते घर आते हैं। यह अक्ल ढूंढता है, तब वह ढंग देखती है!
यह सब सुधारना हो, तो प्रेम से सुधरता है। इन सभी को मैं सुधारता हूँ, वह प्रेम से ही सुधारता हूँ। हम प्रेम से ही कहते हैं इसलिए बात नहीं बिगड़ती। और ज़रा भी द्वेष से कहें तो बात बिगड़ जाएगी। दूध में दही डाला न हो और ज़रा-सी वैसे हवा लग गई हो, फिर भी दूध का दही हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : इसमें प्रेम और आसक्ति का भेद ज़रा समझाइये।
दादाश्री : जो विकृत प्रेम है उसका नाम ही आसक्ति। इस संसार में हम जिसे प्रेम कहते हैं, वह विकृत प्रेम कहलाता है और उसे ही आसक्ति कहते हैं।