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पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार
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पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार
बेचारे को नंबर आए हैं। इसलिए उसका कसूर नहीं। इसलिए हम उसे डाँट नहीं सकते। उससे कहें कि भाई, सही है आपकी बात। फिर दूसरे से पछे कि क्या दिखाई देता है? तब कहे. घोडा दिखता है। तब हम समझें कि इन्हें नंबर नहीं है। और तीसरे से पूछे कि क्या दिखता है? वह कहे, 'बड़ा बैल हो ऐसा लगता है।' तब हम उसके चश्मे का नंबर जान जाएँ। नहीं दिखे अर्थात् नंबर है ऐसा समझ लेना। तुम्हें क्या लगता है?
आंतरिक मतभेद जो होते हैं, वे बीहेवीअर (वर्तन) में परिणमित होते हैं, वह तो बहुत भयंकर कहलाता है न?
दादाश्री : आंतरिक मतभेद न? वे तो बहुत भयंकर!
पर मैंने पता लगाया कि इस आंतरिक मतभेद का कोई उपाय हैं? पर किसी शास्त्र में नहीं मिला। फिर मैंने खुद संशोधन किया कि इसका उपाय इतना ही है कि मैं अपना मत छोड़ दूँ, तब कोई मतभेद नहीं रहेगा। मेरा अभिप्राय ही नहीं, आपका अभिप्राय ही मेरा अभिप्राय।
अब एकबार मेरा हीराबा (दादाजी की धर्मपत्नी) से मतभेद हो गया। मैं भी फँस गया। मेरी वाइफ को मैं 'हीराबा' कहता हूँ। हम तो ज्ञानीपुरुष हमें तो सभी (उम्र में बड़ी स्त्रीयों) को 'बा' कहना पड़े और बाकी सब लड़कियाँ कहलायें! यानी बात सुनना चाहो तो कहूँ। यह बहुत लम्बी कहानी नहीं है, छोटी बात है।
प्रश्नकर्ता : हाँ, कहिए न!
दादाश्री : एक दिन मतभेद हो गया था। उसमें उनका कसूर नहीं था, मेरी ही भूल थी।
प्रश्नकर्ता : वह तो उनकी हुई होगी पर आप कहते हो कि मेरी भूल हुई थी।
दादाश्री : हाँ, पर उनकी भूल नहीं थी, मेरी भूल । मुझे ही मतभेद नहीं चाहिए, उनको तो हो तो भी हर्ज नहीं और नहीं हो तो भी हर्ज
नहीं। मुझे मतभेद नहीं करना, इसलिए मेरी ही भूल कहलाएगी न! यह ऐसे किया (कुर्सी पर हाथ मारा) तो कुर्सी को लगा कि मुझे?
प्रश्नकर्ता : आपको।
दादाश्री : इसलिए मुझे समझना चाहिए न! तब फिर एक दिन मतभेद हुआ। मैं फँस गया। मुझसे वह कहती है, 'मेरे भैया की चार लड़कियाँ ब्याहनी हैं, उनमें यह पहली की शादी है। हम शादी में क्या देंगे?' वैसे ऐसा नहीं पूछती तो चलता। जो भी दे उसकी मैं 'ना' नहीं करता। मुझे पूछा इसलिए मेरी अक्ल के अनुसार चला। उनके जैसी अक्ल मुझ में कहाँ से होती? उन्होंने पूछा इसलिए मैंने कहा कि इस अलमारी में चाँदी के छोटे-छोटे बर्तन पड़े हैं वे दे देना। नये बनवाने के बजाय उनमें से एकाध-दो दे देना।' इस पर उन्होंने मुझे क्या कहा जानते हो? हमारे घर में 'त-त मैं-मैं' जैसा शब्द नहीं निकलता था।'हम-हमारा' ऐसा ही बोलते हैं। अब वे ऐसा बोली कि 'तुम्हारे मामा की लड़कियों की शादी में तो इतने बड़े-बड़े चाँदी के थाल देते हो न!' उस दिन 'मेरातुम्हारा' बोली। वैसे हमेशा 'हमारा' ही कहतीं। मेरे-तुम्हारे के भेद से नहीं कहतीं। मैंने (मन ही मन) कहा, 'आज हम फँस गए।' मैं तुरन्त समझ गया। इसलिए इसमें से निकलने का रास्ता ढूँढने लगा। अब किस प्रकार इसे सुधार लूँ। खून निकलने लगा, अब किस प्रकार पट्टी लगाएँ कि खून बन्द हो जाए!
अर्थात् उस दिन तू-तू, मैं-मैं हुई! आपके मामा के लड़के' कहा! यह दशा हई, मेरी नासमझी के कारण ! मैंने सोचा. यह तो ठोकर लगने जैसा हुआ आज तो! इसलिए मैं तुरन्त ही पलट गया! पलटने में हर्ज नहीं। मतभेद हो इससे पलटना अच्छा। तुरन्त ही बदल गया सारा का सारा। मैंने कहा, 'मैं ऐसा नहीं कहना चाहता।' मैं झूठ बोला, मैंने कहा, 'मेरी बात अलग है, आप उल्टा समझी हो। मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। तब कहे, 'तो क्या कहते हो?' तब मैंने कहा, 'यह चाँदी का छोटा बर्तन देना और दूसरे पाँच सौ रुपये नक़द देना। वे उन्हें काम में आएँगे।'