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पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार नहीं हैं। आपस में बाँटकर शांतिपूर्वक खाओ-पीओ और आनंद करो, मौज करो।' इस प्रकार हमें सोच-समझकर सब करना चाहिए। घरवालों के साथ क्लेश कभी भी नहीं करना चाहिए। उसी घर में पड़े रहना है फिर क्लेश किस काम का? किसी को परेशान करके खुद सुखी हों ऐसा कभी नहीं होता। हमें तो सुख देकर सुख लेना है। हम घर में सुख दें तभी सुख मिले और वह चाय-पानी भी ठीक से बनाकर दे, वर्ना चाय भी ठीक से नहीं बनायेगी।
यह तो कितनी चिंता-संताप! मतभेद ज़रा भी कम नहीं होता फिर भी मन में समझते हैं कि मैंने कितना धर्म किया! अरे, घर में मतभेद टला? कम भी हुआ है? चिंता कम हुई? कुछ शांति आई? तब कहता है कि नहीं, पर मैंने धर्म तो किया न? अरे, तु किसे धर्म कहता है? धर्म से तो भीतर शांति होती है। आधि-व्याधि-परेशानी नहीं हो, उसका नाम धर्म ! स्वभाव (आत्मा) की ओर जाना धर्म कहलाता है। यह तो क्लेश परिणाम बढ़ते ही रहते हैं!
वाइफ के हाथ से अगर पंद्रह-बीस इतनी बड़ी काँच की डिश और ग्लास-वेयर (काँच के बर्तन) गिरकर फूट जाएँ तो? उस वक्त तुम्हें कोई असर होता है क्या?
पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार वह सोफा तो दस-बीस हज़ार का होगा, उसके लिए झगड़ा कैसा? जिसने फाड़ा हो उसके प्रति द्वेष होता है। अरे मुए, फेंक आ। जो चीज़ घर में झगड़ा खड़ा करे, उस चीज़ को बाहर फेंक आ।
जितना समझ में आता है उतनी श्रद्धा बैठती है। उतना ही वह फल देती है, मदद करती है। श्रद्धा नहीं बैठे तो वह मदद नहीं करती। इसलिए समझकर चलो तो अपना जीवन सुखी हो और उनका भी सुखी हो। अरे! आपकी पत्नी आपको पकौड़े और जलेबियाँ बनाकर नहीं देती?
प्रश्नकर्ता : बनाकर देती हैं न!
दादाश्री : हाँ तो फिर? उसका उपकार नहीं मानना चाहिए? वह हमारी पार्टनर (अर्धांगिनी) है, उसमें उसका क्या उपकार ऐसा कहते हैं। हम पैसे लाते हैं और वह यह सब कर देती है, उसमें दोनों की पार्टनरशिप (साझेदारी) है। बच्चे भी पार्टनरशिप में हैं, उस अकेली के थोड़े हैं? उसने जन्म दिया तो क्या उस अकेली के हैं? बच्चे दोनों के होते हैं। दोनों के हैं या उस अकेली के?
प्रश्नकर्ता : दोनों के।
दादाश्री : हाँ। क्या पुरुष बच्चे को जन्म देनेवाले थे? अर्थात् यह जगत समझने जैसा है! कुछ मामलों में बिलकुल समझने जैसा है। और ज्ञानीपुरुष वह बात समझाते हैं। उन्हें कुछ लेना-देना नहीं होता। इसलिए वे समझाते हैं कि भाई, यह अपने हित में है। फिर घर में क्लेश कम होता है, तोड़फोड़ भी कम होती है।
कृष्ण भगवान ने कहा है, बुद्धि दो प्रकार की है, अव्यभिचारिणी और व्यभिचारिणी। व्यभिचारिणी अर्थात दख ही देती है और अव्यभिचारिणी बुद्धि, सुख ही देती है। दु:ख में से सुख खोज निकालती है। और यह तो बासमती चावल में कंकर मिलाकर खाते हैं। यहाँ अमरीका में खाने का कितना अच्छा ! और शुद्ध घी मिलता है, दही मिलता है, कितना अच्छा भोजन ! ज़िन्दगी सरल है फिर भी जीवन जीना नहीं आता, इसलिए मार खाते हैं न लोग!
खुद को दु:ख होता है इसलिए कुछ बड़बड़ाये बगैर रहता नहीं न! यह रेडियो बजे बगैर रहता ही नहीं ! दुःख हुआ कि रेडियो शुरू, इसलिए उसे (वाइफ को) दुःख होता है। तब फिर वह क्या कहेगी? हाँ, जैसे तुम्हारे हाथों तो कभी कुछ टूटता ही नहीं! यह समझने की बात है कि हमसे भी डिशें गिर जाती हैं न! उसे हम कहें कि तू फोड़ डाल तो नहीं फोड़ेगी। फोड़ेगी कभी? वह कौन फोड़ता होगा? इस वर्ल्ड में कोई मनुष्य एक डिश भी फोड़ने की शक्ति नहीं रखता। यह तो सब हिसाब बराबर हो रहा है। डिशे टूटने पर हमें पूछना चाहिए कि तुम्हें लगा तो नहीं है न?
अगर सोफे के लिए झगड़ा होता हो तो सोफे को बाहर फेंक दो।