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पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार
पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार जाएगी किसे मालूम? हम सीधी करें और अगले जन्म में जाए दूसरे के हिस्से में!
खुद सीधा हुआ हो वही दूसरे को सुधार सकता है। प्रकृति डाँटडपट से नहीं सुधरती, न ही वश में आती है। डाँट से तो संसार खड़ा हुआ है। डाँट-डपट से तो उसकी प्रकृति और बिगड़ेगी।
सुधारना या सुधरना? यह संबंध रिलेटिव है। बहुत लोग क्या करते हैं कि जोरू को सुधारने के लिए इतनी ज़िद पर आते हैं कि प्रेम की डोर टूट जाती है वहाँ तक जिद पकड़ते हैं। वे समझते हैं कि इसे मुझे सुधारना ही होगा। अरे ! तू सुधर न! तू पहले सुधर जा। और यह तो रियल नहीं, रिलेटिव है! अलग हो जाएगी। इसलिए हमें झूठ-मूठ नाटक करके भी गाड़ी पटरी पर चढ़ा देनी है। यहाँ से पटरी पर चढ़ गई तो स्टेशन पहुँच जाएगी, सटासट । अर्थात् यह रिलेटिव है, समझा-बुझाकर निराकरण कर देना।
प्रश्नकर्ता : प्रकृति नहीं सुधरती, पर व्यवहार तो सुधारना चाहिए न?
दादाश्री : व्यवहार तो लोगों को आता ही नहीं। अगर कभी व्यवहार आता, अरे! आधा घण्टा भी व्यवहार करना आता तब भी बहुत होता! व्यवहार तो समझे ही नहीं है। व्यवहार यानी क्या? ऊपर-ऊपर से। व्यवहार मतलब सत्य नहीं। यह तो व्यवहार को ही सत्य मान लिया है। व्यवहार-सत्य यानी रिलेटिव सत्य। इसलिए यहाँ के नोट असली हों या जाली हों, दोनों 'वहाँ' मोक्ष के स्टेशन पर काम नहीं आएँगे। इसलिए हम अपना काम निकाल लें! व्यवहार यानी दिया था वह वापस लेना। अभी कोई कहे कि 'तुझ में अक्ल नहीं।' तो हम समझें कि यह तो दिया था वह वापस आया। यह जो समझ लो तो वह व्यवहार कहलाएगा। आजकल व्यवहार किसी को है ही नहीं। जिसका व्यवहार व्यवहार है, उसका निश्चय निश्चय है।
कोई कहेगा कि, 'भाई, उसे सीधी करो।' अरे! उसे सीधी करने (सुधारने) जाएगा तो तू टेढ़ा हो जाएगा। इसलिए वाइफ को सीधी करने मत जाना, जैसी है वैसी उसे 'करेक्ट' (सही) समझो। हमें उसके साथ कायमी लेन-देन हो तो अलग बात है, यह तो एक जन्म के बाद फिर कहाँ के कहाँ बिखर जाएंगे। दोनों का मरणकाल भिन्न, दोनों के कर्म भिन्न। कुछ लेना भी नहीं और देना भी नहीं! यहाँ से वह किसके वहाँ
सामनेवाले को सुधारने के लिए तुम्हें दया हो तो डाँटना मत। उसे सुधारने के लिए तो उसकी बराबरी का उसे मिल ही जाएगा।
जो हमारे रक्षण में हो, उसका भक्षण कैसे कर सकते हैं? जो अपने आश्रय में आया उसका रक्षण करना तो मुख्य ध्येय होना चाहिए। उसने गुनाह किया हो तब भी उसकी रक्षा करनी चाहिए। ये विदेशी सैनिक यहाँ (अपने देश में) अभी सभी कैदी हैं फिर भी अपने सैनिक उनकी कैसी रक्षा करते हैं! तब ये तो अपने घरवाले ही हैं न? बाहरवालों के पास (भीगी बिल्ली की तरह) म्याऊँ हो जाते हो, वहाँ झगडा नहीं करते और घर पर ही सब-कुछ करते हैं।
कोमनसेन्स से 'एडजस्ट एवरीव्हेर'
(सामान्य बुद्धि से हर जगह अनुकूलन) किसी के साथ मतभेद होना और दीवार से टकराना दोनों समान हैं। उन दोनों में फर्क नहीं। जो दीवार से टकराता है वह नहीं दिखता इसलिए टकराता है। और जो मतभेद होता है वह भी नहीं दिखने से मतभेद होता है। आगे का उसे नज़र नहीं आता, आगे का उसे सोल्युशन (हल) नहीं मिलता, इसलिए मतभेद होता है। यह क्रोध होता है, वह भी नहीं दिखने से क्रोध होता है। ये क्रोध-मान-माया-लोभ सभी करते हैं वह नहीं दिखने पर करते हैं। तो बात को ऐसे समझनी चाहिए न ! जिसको लगे उसका दोष है न, क्या दीवार का कोई दोष है? अब इस जगत में सभी दीवारें ही हैं। दीवार से टकराने पर हम उसके साथ खरी-खोटी करने नहीं जाते कि यह मेरा सही है। ऐसे लड़ने की झंझट नहीं करते न?