________________
पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार
हम यह सरल और सीधा रास्ता दिखा देते हैं और यह टकराव थोड़े रोज-रोज होता है? वह तो जब हमारे कर्म का उदय होगा तब होता है, उतना समय हमें एडजस्ट (अनुकूल) होना है। घर में वाइफ के साथ झगड़ा हुआ हो तब झगड़ा होने के बाद वाइफ को होटल में ले जाकर भोजन करवाकर खुश करो। अब पकड़ नहीं रहनी चाहिए।
इसलिए 'यह' ज्ञान हो तो फिर वह झंझट नहीं रहती। ज्ञान हो तब तो हम सवेरे ही वाइफ के भीतर भी भगवान (शुद्धात्मा) के दर्शन करते ही हैं न? वाइफ में भी दादा दिखाई दे तो कल्याण हो गया! वाइफ को देखें तो ये 'दादा' दिखाई देते हैं न! उसके भीतर शद्धात्मा दिखते हैं न! उससे कल्याण हो गया!
इसलिए जैसे भी हो 'एडजस्ट' (अनुकूल) होकर वक्त गुजार देना ताकि कर्ज चुकता हो जाए। किसी का पच्चीस साल का, किसी का पंद्रह साल का, किसी का तीस साल का, चाहो या न चाहो हमें कर्ज तो चुकाना पड़ेगा। पसंद नहीं हो फिर भी उसी कमरे में उसके साथ रहना पड़ेगा। यहाँ बिछौना बाई साहब का और यहाँ बिछौना भाई साहब का! मुँह उलटा करके सो जाएँ तो भी बाई साहब (पत्नी) को विचार तो भाई साहब (पति) के ही आते हैं न! इससे छुटकारा नहीं, यह संसार ही ऐसा है। उसमें भी हमें ही वह पसंद नहीं ऐसा नहीं है, उसको भी हम पसंद नहीं होते। अर्थात् इसमें आनंद उठाने जैसा नहीं है।
'डॉन्ट सी लॉ, प्लीज सेटल' (कानून मत देखो समाधान करो) सामनेवाले को 'सेटलमेन्ट (समाधान)' करने को कहना। 'तुम ऐसा करो, वैसा करो' ऐसा कहने के लिए वक्त ही कहाँ है? सामनेवाले की सौ गलतियाँ हों तो भी हमें तो हमारी ही गलती कहकर आगे निकल जाना है। इस काल में 'लॉ (कानून)' कही देख सकते हैं? यह जगत तो अंतिम चरण में आ गया है!
पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार दादाश्री : समझदार आदमी हो न, तो लाख रुपये देंगे फिर भी तकरार नहीं करता है। और यह तो बिना पैसे तकरार करता है तब वह अनाड़ी नहीं तो क्या? भगवान महावीर को कर्म खपाने (पुरा करने) के लिए साठ मील पैदल अनाड़ी क्षेत्र में जाना पड़ा था, और आज के लोग पुण्यवान हैं इसलिए घर बैठे अनाड़ी क्षेत्र है! कैसा अहो भाग्य! कर्म खपाने के लिए यह तो आत्यंतिक लाभदायी है, अगर सीधा चले तो।
घर में कोई पूछे, सलाह माँगे तभी जवाब देना। बिना पूछे, सलाह देने बैठ जाए, उसको भगवान ने 'अहंकार' कहा है। पति पूछे कि ये गिलास कहाँ रखने हैं? तब पत्नी जवाब दे कि 'फलाँ जगह रखो।' तब हमें वहाँ रख देने हैं। इसके बजाय वह कहे कि 'तुझे अक्ल नहीं, यहाँ रखने को फिर तू क्यों कहती है?' इस पर पत्नी कहेगी कि मेरे में 'अक्ल नहीं है इसलिए मैंने ऐसा कहा, अब तुम्हारी अक्ल से रखो।' अब इसका निबेड़ा कैसे हो? यह तो संयोगों का टकराव ही है केवल! ये लट्ट खाते समय टकराते ही रहते हैं। लट्ट फिर टकराते हैं, छिलते हैं और खन निकलता है! यह तो मानसिक खून निकलता है न! वह रक्त निकला हो तो अच्छा, पट्टी बांधने पर ठीक हो जाए। यह मानसिक घाव पर पट्टी भी नहीं लगती कोई!
घर में किसी को भी, पत्नी को, बच्ची को, किसी भी प्राणी को दुःख देकर मोक्ष नहीं पा सकते। जरा-सी भी दुतकार होगी, वहाँ मोक्ष का मार्ग नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता : तिरस्कार और दुतकार, इन दोनों में क्या फर्क है?
दादाश्री : दुतकार और तिरस्कार में तिरस्कार तो कभी मालूम नहीं भी पड़े। दुतकार के आगे तिरस्कार बिलकुल माइल्ड (फीकी) वस्तु है, जब कि दुतकार तो बड़ा ही उग्र स्वरूप है। दुतकार से तो तुरन्त ही रक्त निकले ऐसा है। उससे इस शरीर से रक्त नहीं निकलता, पर मन का रक्त निकलता है। दुतकार ऐसी भारी वस्तु है।
एक बहन हैं, वह मुझसे कहती हैं, 'आप मेरे फादर हैं ऐसा लगता
प्रश्नकर्ता: कई बार घर में भारी तकरार हो जाती है, तब क्या
करें?