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पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार
पति-पत्नी का दिव्य व्यवहार
दादाश्री : अपने लोग तो हर रोज़ झगड़े करते हैं, फिर भी कहते हैं कि ऐसा तो जीवन में चलता रहता है।' अरे, मगर उससे डिवेलपमेन्ट (प्रगति) नहीं होता। झगड़ा क्यों होता है? किस लिए होता है? ऐसा क्यों बोलते हैं? क्या हो रहा है? उसका पता लगाना पड़ेगा।
घर में कभी मतभेद होता है तब क्या दवाई लगाते हो? दवाई की बोतल रखते हो?
प्रश्नकर्ता : मतभेद की कोई दवाई नहीं है।
दादाश्री : हे! क्या कहते हो? तब फिर आप इस कमरे में चुप, पत्नी उस कमरे में चुप, ऐसे रूठ कर सोये रहना? बगैर दवाई लगाये? फिर वह किस तरह मिट जाता होगा? घाव भर जाता होगा न? मुझे यह बताओ कि दवाई लगाये बगैर घाव कैसे भर जाएगा? यह तो सुबह तक भी घाव नहीं भरता। सवेरे चाय का कप देते समय ऐसे पटकती है। आप भी समझ जाते हो कि अभी रात का घाव भरा नहीं है। ऐसा होता है कि नहीं होता? यह बात कुछ अनुभव से बाहर की थोडी है? हम सभी समान ही हैं। अर्थात् ऐसा क्यों हुआ कि अभी (सुबह तक) भी मतभेद का घाव भरा नहीं?
पर रोज रोज वह घाव वैसा ही रहता है, भरता ही नहीं। इसलिए घाव नहीं होने देने चाहिए। क्योंकि अभी उसे दबाया हो, तो जब हमें बुढ़ापा आयेगा तब पत्नी हमें दबायेगी। अभी तो सोचती है कि इसमें शक्ति है, इसलिए थोड़े समय चला लेगी। फिर उसकी बारी आई तब हमें समझा देगी। इसके बजाय व्यवहार ऐसा रखना कि हमें प्रेम करे, हम उसे प्रेम करें। भूलचूक तो सभी की होती ही है न। भूलचूक नहीं होती? भूलचूक होने पर मतभेद क्यों करें? मतभेद करना हो तो किसी बलवान से जाकर झगड़ना ताकि हमें तुरन्त जवाब मिल जाए। यहाँ पर तुरन्त जवाब नहीं मिलेगा कभी। इसलिए दोनों समझ लेना और मतभेद मत होने देना। यदि मतभेद खड़ा हो तो कहना कि दादाजी क्या कहते थे? ऐसा क्यों बिगाड़ते हो?
मत ही नहीं रखना चाहिए। अरे! दोनों ने शादी की फिर मत अलग कैसा? दोनों ने शादी की, फिर भी मत अलग रखते होंगे?
प्रश्नकर्ता : नहीं रखना चाहिए पर रहता है।
दादाश्री: तब हमें (अपना मत) छोड देना है। अलग मत रखा जाता है कहीं? वर्ना शादी नहीं करनी थी। शादी की है तो एक हो जाओ।
यह जीवन जीना भी नहीं आया! व्याकुलता से जीते हो! अकेले हो? पूछे तो कहता है, 'नहीं, शादी-शुदा हूँ'। वाइफ है फिर भी तेरी व्याकुलता नहीं मिटी! क्या व्याकुलता नहीं जानी चाहिए? यह सब मैंने सोच लिया था। यह सब लोगों को नहीं सोचना चाहिए? बहुत बड़ा विशाल जगत् है पर यह जगत् अपने रूम के अन्दर है ऐसा ही मान लिया है, और वहाँ पर भी अगर जगत् मानता हो तो अच्छा, पर वहाँ भी वाइफ के साथ लट्ठबाजी करता है!
प्रश्नकर्ता : दो बर्तन हों तो आवाज़ होती ही है और फिर शांत हो जाती है।
दादाश्री : आवाज़ हो तो मज़ा आता है? 'ज़रा भी अक्ल नहीं' ऐसा भी कहती है।
प्रश्नकर्ता : वह तो फिर यह भी कहती है न कि मुझे आपके सिवा दूसरा कुछ अच्छा नहीं लगता।
दादाश्री : हाँ, ऐसा भी बोलती है! प्रश्नकर्ता : पर बर्तन घर में खड़बड़ेंगे (टकरायेंगे) ही न?
दादाश्री : रोज़ रोज़ बर्तन खड़बड़े तो कैसे अच्छा लगेगा? वह तो समझता नहीं है इसलिए चलता है। जाग्रत हो उसे तो एक ही मतभेद हो तो रातभर नींद नहीं आये! इन बर्तनों (मनुष्यों) को तो स्पंदन हैं, इसलिए रात को सोते-सोते भी स्पंदन होते रहते हैं कि 'ये तो ऐसे हैं. टेढ़े हैं, उलटे हैं, नालायक हैं, निकाल बाहर करने जैसे हैं।' और उन