Book Title: Jainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विधामन अपमाला १२ सम्पादक डॉ. सागरमल बैन जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान लेखक डॉ. कमलेशकुमार जैन जैनदर्शन व्याख्याता, बन-बौददशन विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी भाभ वारा सच्चं लोगम्मि सारभूयं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अहमदाबाद), प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला (काशी विद्यापीठ), सम्पूर्णानन्द सस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के भूतपूर्व जैनदर्शन विभागाध्यक्ष ५० अमृतलाल शास्त्री (जैनदशन-प्राध्यापक, जैन विश्व भारती, लाडनूं), ५० उदयचन्द्र जैन पूर्वरीडर एवं दर्शन विभागाध्यक्ष, सस्कृतविद्याधर्मविज्ञानसकाय, का० हि० वि० वि०), डॉ० राजाराम जैन (रीडर एव अध्यक्ष, सस्कृत-प्राकृत विभाग, एच. डो० जैन कालेज, मारा) एव स्व० अगरचन्द नाहटा (बीकानेर) प्रभूति विद्वानों का भी हृदय से प्रभारी हूँ, जिनके स्नेह एवं शुभाशीर्वाद से यह कार्य पूर्ण हो सका । इस कार्य को पूर्ण करने में जिन मित्रो का सहयोग मिला है, उनमें डॉ. जयकुमार जैन (सस्कृत-प्रवक्ता, एस० डी० पोस्ट ग्रेजुएट कालेज, मुजफ्फरनगर) डॉ० कु. मजुला मेहता (पूना) एष श्री अनुभवदास के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। __ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी द्वारा शोधवृत्ति, आधुनिक सुविधा सम्पन्न छात्रावास एवं पुस्तकालय सम्बन्धी सुविधाएँ प्राप्त हुई हैं, इसके लिये विद्याश्रम के संचालको का हृदय से कृतम है। केन्द्रीय एव विभागीय पुस्तकालय का० हि० वि०वि०, श्री गणेश वर्णी दि० जैन शोध संस्थान पुस्तकालय एव श्री विश्वनाथ पुस्तकालय (गोयनका सस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी) के अधिकारियों का भी आभारी हैं, जिनकी कृपा से अनेक ग्रन्थो के अवलोकन तथा उपयोग करने की सुविधा मिली है। प्रस्तुत ग्रन्य के प्रकाशन का पूर्ण श्रेय पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोष सस्थान वाराणसी के वतमान निदेशक आदरणीय डॉ. सागरमल जैन को है, अत उनका हृदय से आभारी हूँ । प्रारम्भिक १६० पृष्ठो का प्रफ सशोषन डॉ० रविशंकर मिश्र ने किया है और शब्दानुक्रमणिका तैयार करन मे श्री अरुणकुमार जन (शोध छात्र, सस्कृत विभाग, का. हि० वि० वि०) का सहयोग मिला है, अत उक्त बन्धुद्वय धन्यवाद के पात्र है । ग्रन्थ-मुद्रण का कार्य बद्ध मान मुद्रणालय ने सम्पन्न किया है, अत उनके प्रति भी मै अपना धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। बी २/२४९ निर्वाण भवन कमलेशकुमार जैन लेन न० १४, रवीन्द्रपुरी व्याख्याता, जैन-बौददशन विभाग वाराणसी-२२१००५ सस्कृतविद्याधमविज्ञानसकाय श्रुतपञ्चमी वि० स० २०४१ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्यो का जलकारशास्त्र में मोगदान क्योंकि इसमे अलंकार सम्बन्धी विचार संस्कृत की ही परम्परा के अनुसार किया गया है और ये विषुव सत्री संस्कृत जैन-बालंकारिकों के पूर्वभाषी हैं। प्रथम शती के आरक्षित और एकादश शती के अलकारवाणकार के मनन्तर हम वाग्भट-प्रथम से शुरू होने वाले जैन बालंकारिकों की परम्परा प्रवेश करते हैं। यह परम्परा द्वादश शताब्दी से अविच्छिन्न चलती है। परिचयात्मक विवरण प्रारम्भ करने के पूर्व यह उल्लेखनीय है कि धर्म की दृष्टि में सम्प्रदाय-भेद के होते हुए भी ये सभी आचार्य अलंकार सम्प्रदाय के अधिकारी प्रवक्ता हैं और सबने अलंकार-शास्त्र के सभी प्रतिपाद्य तत्वों पर गम्भीर तथा सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत करते हुये संस्कृत अलंकार-साहित्य को परिपुष्ट किया है। आर्यरक्षित आर्यरक्षित की गणना एक विशिष्ट युग प्रधान आचार्य के रूप में की जाती है। इनका जन्म वीर-निर्वाण सम्वत् ५२२ मे, दीक्षा ( २२ वर्ष की आयु में) वीर-निर्वाण सम्वत् ५४४ (ई० सम् १७ ) में, युगप्रधान पद (६२ वर्ष की आयु में ) वीर-निर्वाण सम्वत् ५८४ (ई० सन् ५७ ) मे तथा स्वर्गवास ( ७५ वर्ष की भायु में ) वीर निर्वाण सम्वत् १६७ ( ई० सन् ७० ) में माना जाता है। कुछ आचार्यों के मतानुसार आर्यरक्षित का स्वर्गवास वीर-निर्वाण सम्बत् ५८४ (ई० सन् ५७ ) मे हुमा था।' इनके पिता का नाम सोमदेव था, जो मासवान्तर्गत् दशपुर (मन्दसौर) के राजा उदयन के पुरोहित थे तथा माता का नाम रासोमा था। आर्यरक्षित अल्पायु मे ही वेद-वेदानो का अध्ययन करने के लिये पाटलिपुत्र चले गये थे। अध्ययन करने के पश्चात् जब वे घर लौटे तब दशपुर के राजा बीर नगरवासियो ने प्रसन्न होकर बडी धूमधाम से उन्हे नगर प्रवेश कराया। तत्पश्चात् दिन के अन्तिम प्रहर में घर पहुँचकर उन्होंने अपनी माता को प्रथाम किया। माता रुद्रसोमा जैन धर्म की उपासिका पी, अत' वेद-वेदागी के अध्ययन से वह अधिक प्रसन्न नहीं हुई। कारण ज्ञात कर आर्यरक्षित दूसरे दिन प्रात काल ही अनाचार्य तोसलीपुत्र के पास अध्ययन करने के लिए गये। बहाँ यह जानकर कि दृष्टिबाद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जैन-दीक्षा अनिवार्य है, अत: १. जैनधर्म का मौनिक इतिहास, भाग २, पृ. ५६० । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय : जैन-बावकारिताराकार सहनि दीक्षा महकी और जान पास किया। तत्पश्चात् माग व्ययन के लिए उम्बपिनी नगरी में वचस्वामी के पास गये। यहाँ पर उन्होने की पूर्वी का बच्चयन कर क्सम पूर्व का अध्ययन प्रारम्भ किया, तभी उनके माता-पिता ने पुत्र-वियोग से चिन्तित होकर अपने कनिष्ठ पुत्र फल्गुरक्षित को उन्हे बुला लाने के लिए भेजा। फल्गुरक्षित ने वहाँ पहुँचकर आर्यरक्षित से क्यपुर लौटने का जाग्रह किया। वहां उन्होंने अपने लघु प्राता फल्गुरक्षित को जैनधर्म में दीक्षित किया और बसस्वामी से आशा लेकर दशपुर की ओर प्रस्थान किया। 'दशपुर पहुंचकर उन्होंने अपने माता-पिता तथा परिजनो को प्रबुद्ध कर बमणधर्म की दीक्षा दी। पुन वे नव-दीक्षित मुनियों को लेकर अपने गुरू तोससीपुत्र के पास गये / गुरू तोसली पुत्र ने सन्तुष्ट होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी आचार्य नियुक्त किया। अनुयोगद्वार-सूत्र जैन-परम्परा मे आगम साहित्य का विशेष महत्व है। यह मागम साहित्य अग-प्रविष्ट और अग-बाह्य के रूप मे दो प्रकार का है। अग-बारा आगमों मे एक है अनुयोगद्वार सूत्र, जो प्राकृत-भाषा मे निबद्ध है / इसे एलिका-सूत्र भी कहते हैं। ____अनुयोगद्वार-सूत्र में अनुयोग के चार द्वार-उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय पर विचार किया गया है। उपक्रम के द्वितीय भेद नाम निरूपण के प्रसंग में एक-नाम, द्विनाम, त्रिनाम आदि क्रमश दस नामो तक उतनी-उतनी सत्या वाले विषयों का प्रतिपादन है। नौ नामो के अन्तर्गत रसों का विवेचन किया गया है। रसो के नाम हैं-धीर, शृङ्गार, अद्भुत, रौद्र, ब्रीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त / इसी प्रकार अनुगम के अन्तर्गत अलीक, उपधातजनक, निरर्थक, छल आदि बत्तीस दोषो का उल्लेख किया गया है। अलंकार-दप्पणकार अलंकार-चप्पण के लेखक का नाम अज्ञात है। तथापि इसके प्रारम्भिक 1 प्रभावकचरित-आर्यरक्षितरित, पृ. 6-18 // बार्यरक्षित का जीवन चरित प्रभावकचरित के पूर्व रचित प्रन्यों आवश्यक पूणि बोर बावश्यकमलयगिरि-वृत्ति प्रावि में भी पाया जाता है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्यों का अलकारशास्त्र में योगदान मगलाचरण' में लेखक ने श्रत देवता को नमस्कार किया है, अत इतना ही कहा जा सकता है कि इसकी रचना किसी जैनाचार्य ने की होगी। श्री अगरचन्द जी नाहटा के एक लेख से ज्ञात होता है कि जैसलमेर के बृहर मान भण्डार की ताडपत्रीय प्रति मे 'अलंकार दप्पण' के अतिरिक्त काव्यादर्श और उद्भटालकार लघु-वृत्ति भी लिखी है, काव्यादर्श के अन्त मे प्रति का लेखनकाल सम्बत् ११६१ भाद्रपदे' लिखा है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत रचना सम्बत् ११६१ के पूर्व की होगी। उक्त श्रीयुत नाहटा जी ने भंवरलाल नाहटा के अलकारदप्पण के अनुवाद के प्रारम्भ में (भूमिका स्वरूप) प्रस्तुत ग्रन्थ के अलकार सम्बन्धी विवरण को ध्यान में रखते हुए इसका निर्माण काल ८वी से ११वी शताब्दी माना है। जैनाचार्य प्रणीत संस्कृत भाषा म निबद्ध प्राय सभी अलकारशास्त्र सम्वत् ११६१ के पश्चात् रचे गये है। अत. पूर्ववर्ती होने से 'अलकारदप्पण' की महत्ता स्वयसिद्व है। अलकार-दप्पण: प्रस्तुत कृति प्राकृत भाषा मे निबद्ध एक मात्र कृति है । इसमे केवल १३४ गाथाएं है। जिनका सीधा सम्बन्ध अलकागे से है। इसमें कुछ ऐसे नवीन अलकारो का समावेश किया गया है, जो इसके पूर्व रचित ग्रन्थों में उपलब्ध नही हैं । इसीलिए इसकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए श्री अगरचन्द नाहटा ने लिखा है कि इस प्रथ मे निरूपित रसिक, प्रेमातिशय, द्रव्योत्तर, क्रियोत्तर, गुणोत्तर, उपमारूपक, उत्प्रेक्षायमक अलकार अन्य लक्षण ग्रन्थो में प्राप्त नहीं है । ये अलकार नवीन निर्मित हैं, या किसी प्राचीन अलकारशास्त्र का अनुसरण १ सुदरपअ विण्णाण विमलालकाररेहिअसरीर । सुहदेविअ च कव्व च पणविअ पवरवण्णड्ढ ॥१॥ २ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० ६६ । ३ 'प्राकृत भाषा का एक मात्र आलकारिक ग्रन्थ अलंकार दर्पण' ___-गुरूदेव श्रीरत्नमुनि स्मृति मन्थ, पृ० ३९४-३६८ । ४. 'प्राकृत भाषा का एक मात्र अलंकारशास्त्र अलंकारदप्पण' -मरुधरकेशरी मुनिश्री मिश्रीमलजी महाराज अभिनन्दन पन्थ में प्रकाशित, चतुर्थ खण्ड, पृ० ४२६ । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সব অভ্যাস : ঈশ-লক্ষােিদ্ধ অং সলঙ্গায় हैं, निश्चित नहीं कहा जा सकता। फिर भी उपमा आदि के महत्वपूर्ण विवेचन से प्रस्तुत अन्य को मौलिकता अक्षुण्ण है। प्रस्तुत ग्रन्थ मे मंगलाचरण करने के पश्चात् सर्वप्रथम अलंकारों की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है । पुन उपमा, रूपक, दीपक, रोष, अनुमास, भतिशय, विशेष, आक्षेप, जातिव्यतिरेक, रसिक, पर्याय, यषासंख्य, समाहित, विरोध, संशय, विभावना, भाव, अर्थान्तरन्यास, परिकर सहोक्ति, कर्जा, अपहति, प्रेमासिशय (उर्स, परिवृत्त, द्रव्योतर, क्रियोत्तर, गुणोत्तर), बहुश्लेष, व्यपदेश, स्तुति, समज्योति, अप्रस्तुतप्रशसा, अनुमान, आदर्श, उत्प्रेक्षा, ससिखि, आशीष, उपमारूपक, निदर्शना, उपेक्षावयव, उद्भिद्, वलित, अमेदवलित, और यमक इन ४० अलंकारो का नामोल्लेख किया है । तत्पश्चात् इन्ही अलंकारों के सभेद लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत कर विषय-विवेचन किया गया है। अन्यकार ने उपमा के १७ भेद किए हैं, जो निम्न प्रकार हैं-प्रतिवस्तूपमा, गुणकलिता, उपमा, असमा-उपमा, मालोपमा, विगुणस्पा-उपमा, सम्पूर्णा-उपमा, गूढा-अपमा, निन्दाप्रशसोपमा, लल्लिप्सा-उपमा, निन्दोपमा, मसिशयिता-उपमा, अतिमिलितोपमा, विकल्पिकोपमा (एकत्र विकल्पिकोपमा और बहुधा विकल्पिकोपमा)। इसमे किसी-किसी अलकार का मात्र उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। वाग्भट-प्रथम वाग्भटाल कार के यशस्वी प्रणेता वाग्भट-प्रथम और आचार्य हेमचन्द्र ये दोनो समकालीन आचार्य होते हुए भी काल की दृष्टि से वाग्भट-प्रथम हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती हैं, किन्तु वाग्भट-प्रथम की अपेक्षा भाचार्य हेमचन्द्र को अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई है, इसलिए कुछ विद्वानो ने आचार्य हेमचन्द्र को पूर्व में स्थान दिया है और वाग्भट-प्रथम को पश्चात् मे२ । काव्यानुशासन के रचयिता १ अलंकारदप्पण-भूमिका । ___-मरूधर केशरी मुनिश्री मिश्रीमल जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थ ___ खण्ड, पृ. ४२६ २ द्रष्टव्य-सस्कृत साहित्य का इतिहास-अनु. मगलदेव शास्त्री, पृ०४६ । , अलंकार धारणा विकास और विश्लेषणः पृ. २२४ एवं पृ. २२९ । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनाचायों का बलकारशास्त्र में योगदान मटको अभिनव वाग्भट अथवा वाग्भट द्वितीय के नाम से अभिहित किवक्र जाता है । डॉ० वेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने नेमिनिर्वाण-काव्य के कर्ता को वाग्भट प्रथम कहा है । किन्तु आधुनिक विद्वान सामान्यतः वारमटालंकार के कर्त्ता को वाग्भट - प्रथम ओर काव्यानुशासन के कर्ता को वाग्भट द्वितीय मानते हैं । आचार्य वाग्भट का प्राकृत नाम बाहड तथा पिता का नाम सोम था यह एक कुशल कवि और किसी (जयसिंह राजा के) राज्य के महामात्य वे प्रभावक - चरित में वाहड के स्थान पर थाहड का प्रयोग किया गया है" । इनको प्रभावक चरित के अन्य कई स्थलों पर भी थाहड नाम से अभिहित किया गया है । वाग्भट प्रथम धनवान् और उच्चकोटि के श्रावक थे, एक बार इन्होने गुरुचरणो मे निवेदन किया कि मुझे किसी प्रशमनीय कार्य मे धन व्यय करने की आज्ञा दीजिए। उसके उत्तर में गुरुदेव ने जिनमदिर बनवाने व्यय किए गए धन को सफलीभूत बतलाया था, तदनन्तर गुरु के आदेशानुसार वाग्भट ने एक भव्य जिनालय का निर्माण कराया था, जो हिमालय के सदृश श्वेत, उत्तुग और बहुमूल्य मणिओ वाले कलश से सुशोभित था । उसमे विराजमान वर्धमान १ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड चतुर्थ, पृ० २२ । २ वाग्भट - विवेचन - आचार्य प्रियव्रत शर्मा, पृ० २८२ । ३ यभण्डसुत्तिसपुड - मुक्तिअ मणिगोपहासमूह ब्ब । सिरि बाहडति तणओ आसि बुहो तस्य सोमस्य ॥ - वाग्भटालकार, ४१४५ ४ बभण्डसुत्तिसपुड - इत्यादि पद्य की उत्थानिका मे लिखा है - इदानों ग्रन्थकार इदमलकारकर्तृ स्वख्यापनाय वाग्भटामिषस्य महाकवेर्महामात्यस्य तन्नाम गाथेकया निदर्शयति । सिंहदेवगण टीका --- वाग्भटाल कार ४१४८, आचार्य हेमचन्द्र ने वाग्भट को जयसिंह का अमात्य कहा है । -इयाश्रय महाकाव्य, २०१६१-६२ । धार्मिकाग्रणी । विज्ञापनामसी ॥ · ५ अथासित थाहडो नाम धनवान् गुरुपादान् प्रणम्याय चक्र वत्सरे तत्र चैकत्र पूर्णे श्रीदेवसूरिभि । श्री वीरस्य प्रतिष्ठां सा बाहडोऽकारयन्मुदा ॥ - प्रभावकचरित-वादिदेवसूरिचरित ६७, ७३ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम जम्मा : (महावीर स्वामी की प्रतिमा मोना से युक्त थी, जिसके तेज से कान्त और सूर्यकान्त सि को मना फीकी पड़ गई थी। वाचार्यबाट समुच्चनाकार के उदाहरण में निम्न चीन रत्नों का उल्लेख किया है- (१) अर्थहिल्लपाटनपुर नामक नगर, (२) राजा कर्णदेव के सुपुत्र - राजा जयसिंह और (३) श्रीकलश नामक हाथी । मह निश्चित हो जाता है कि आचार्य वाग्मट-प्रथम चालुक्यवशीय कर्णदेव के पुत्र राजा जयसिंह के समकालीन थे । राजा जयसिंह का राज्य काल वि० सं० ११५० से १९९९ (१०९३ ई० से ११४३ ई०) तक माना जाता है । बत" वाग्म-प्रथम का भी यही काम प्रतीत होता है । इसकी पुष्टि प्रभावक परित के इस कथन से भी होती है कि वि० सं० १९७८ मे मुनिवर के समाfuमरण होने के एक वर्ष पश्चात् देवसूरि के द्वारा बाहर (वाट) ने मूर्ति प्रतिष्ठा कराई । तात्पर्य यह कि उस समय वाग्भट विद्यमान थे। अस वाग्भट का समय उक्त राजा जयसिंह का ही काल युक्तियुक्त मालूम होता है । अब तक उपलब्ध प्रमाणो के अनुसार उनका एक मात्र आलंकारिक ग्रन्व वाग्भटासकार ही प्राप्त है । वाग्भटालंकार मटाकार एक बहुचर्चित कृति है। इसकी संस्कृत टीकाएँ जैन विद्वानो १ प्रभावक चरित-वादिदेवसूरि परित ६७-७० । २ अणहिल्लपाटल पुरमवनिपति कर्मदेवनृपसूतु । श्री शनामधेय करी व जगतीह रत्नानि ।। वाग्भटालंकार, ४।१३२१ ऐ जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३२० । गणेश त्र्यबक देशपांडे ने वाग्भट का लेखन काल हिर० ११२२ से ११५६ माना है। -भारतीय साहित्य-शास्त्र, पृ० १३५ । ४ शतेकादशके साष्टसप्ततो विक्रमार्फत 1 वत्सराणां व्यतिक्रान्ते श्रीमुदिचन्द्रसूरय ॥ - आराधनाविभिधष्ठ कृत्वा प्रायोपवेशनम् । रामपोलोम्वास्ते त्रिदिन वपुः ॥ यत्सरे तत्र बैंक पूर्णे श्रीदेवसूरिभिः । श्रीवीरस्य प्रतिडांस बायो कारयन्मुदा ॥ 1 ७१-०७३ । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैनाचार्यों का अलकारशास्त्र में योगदान के अतिरिक्त जैनेतर विद्वानो द्वारा भी लिखी गई हैं । वाग्भटालंकार पर लिखी गई उपलब्ध एव भनुपलब्ध कुल टीकाओ की संख्या लगभग १७ है। इतनी अधिक टीकाओ से ही इस ग्रन्थ की महत्ता सिद्ध हो जाती है कि यह कितना लोकप्रिय अन्य रहा है। वाग्भटाल कार को ५ परिच्छेदो मे विभाजित किया गया है। इसके प्रथम परिच्छेद मे मगलाचरण के पश्चात् काव्य-स्वरूप, काव्य प्रयोजन, काध्यहेतु, काव्य मे अर्थ-स्फूर्ति के पाच हेतु-मानसिक आह्लाद, नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि, प्रमातवेला, काव्य-रचना मे अभिनिवेश और समस्त शास्त्रों का अनुशीलन आदि का निरूपण किया गया है । तत्पश्चात् कवि-समय का वर्णन किया गया है, इसके अन्तर्गत् लोको और दिशाओ की संख्या निर्धारण, यमक, श्लेष और चित्रालंकार में ब और व, ड और ल आदि में अभेद, चित्रबन्ध के अनुस्वार और विसर्ग की छूट आदि का सोदाहरण वर्णन किया गया है। द्वितीय परिच्छेद में सर्वप्रथम काव्य-शरीर का निरूपण करते हुए बतलाया गया है कि संस्कृत, प्राकृत, उस (सस्कृत) का अपभ्रश और पैशाची ये चारो भाषाएं काव्य का अग होती हैं। काव्य के भेद, काव्य-दोष और उसके भेदो का अन्त मे विवेचन किया गया है। तृतीय परिच्छेद मे बौदार्य, समता आदि दस गुणो का सोदाहरण लक्षण प्रस्तुत किया गया है। कुछ गुणो का लक्षण और उदाहरण एक ही पद्य मे दिया गया है। यद्यपि वाग्भटाल कार में सर्वत्र पयो का प्रयोग किया गया है, किन्तु ओजगुण का उदाहरण गद्य मे प्रस्तुत किया है। चतुर्थ परिच्छेद मे सर्वप्रथम अल कारों की उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है । पुन चिनादि चार शब्दालंकारी और जाति आदि पैतीस अर्यालकारो का सोदाहरण लक्षण निरूपण किया गया है । इसके साथ ही यत्र-तत्र अलकारो के भेदोपभेदो का भी सोदाहरण वर्णन किया है । तत्पश्चात् गौडीया और वैदर्भी इन दो रीतियो का सोदाहरण लक्षण प्रस्तुत किया गया है। पचम एव अन्तिम परिच्छेद मे रस-स्वरूप, सभेद शृङ्गारादि नौ रस और उनके स्थायी भाव, मनुभाव तथा भेदो का निरूपण किया गया है। प्रसंगवशात् बीच में नायक के चार भेद और उनका स्वरूप, नायिका के चार भेद और उनका स्वरूप आदि का वर्णन किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र आचार्य हेमचन्द्र बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे। उनकी साहित्य Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय : जैन-आलंकारिक और अलंकार साधना अत्यन्त विशाल और व्यापक है । जीवन को संस्कृत संबद्धित और संचालित करने वाले जितने पहलू हैं, उन सब पर उन्होंने अपनी अधिकारपूर्ण लेखनी चलाई है । उनकी साहित्य सेवा को देखकर विद्वानों ने उन्हें 'कलिकासर्वज्ञ' जैसी उपाधि से विभूषित किया है' । आचार्य हेमचन्द्र का जन्म विक्रम सं० १९४५ में कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को घुघुका नामक नगर (गुजरात) के मोढ वश में हुआ था । उनका बामावस्था का नाम चागदेव था तथा उनके पिता का नाम चाचिन और माता का नाम पाहिणी देवी था' । 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' के अनुसार बालक चांगदेव का धीरे-धीरे विकास होने लगा । उसे बचपन से ही धर्म गुरुओ के संपर्क में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । अत उन्होंने आठ वर्ष की अल्पायु मे ही अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य देवचन्द्र से ली थी । दीक्षा के पश्चात् उनका नाम सोमचन्द्र रखा गया दीक्षा ग्रहण कर • 1 सोमचन्द्र ने थोड़े ही समय में तर्कसाहित्य आदि सभी विद्याओं मे अनन्य प्रवीणता प्राप्त कर ली। तत्पश्चात् उन्होने अपने गुरु के साथ विभिन्न स्थानो मे भ्रमण किया और अपने शास्त्रीय एव व्यावहारिक ज्ञान मे काफी वृद्धि की" । विक्रम सवत् ११६६ मे २१ वर्ष की अल्पायु में ही मुनि सोमचन्द्र को उनके गुरु ने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करके हेमचन्द्र नाम दिया। जिसके कारण उन्होंने १ हिस्ट्री आफ इडियन लिटरेचर ( एम० विन्टरनित्स ) वाल्यूम सेकेण्ड, पृ० २८२ । २ (क) संस्कृत शास्त्रों का इतिहास - बलदेव उपाध्याय, पृ० २३४ । (ख) अर्दाष्टमनामनि देशे धुन्धुकाभिधाने नगरे श्रीमन्मोढवंशे चाचिगनामा व्यवहारी सतीजनमतल्लिका जिनशासनशासनदेवीव तत्सधर्मचारिणी शरीरिणीय श्री पाहिणीनाम्नी चामुण्डागोत्रजाया आद्याक्षरेणांकित - नामा तयो पुत्रश्चागदेवोऽभूत् । - प्रबधचिन्तामणिहेमसूरिचरित्र, पृ० ८३ । ३ प्रबन्धचिन्तामणि - हेमसूरिचरित्र, पृ० ८३ । ४ प्रभावकचरित- हेमचन्द्रसूरिचरित, श्लोक ३४ । ५ काव्यानुशासन - हेमचन्द्र, प्रो० पारीख की अंग्रजी प्रस्तावना, पृ० २६६ ६ कुमारपाल प्रतिबोष - हेमचन्द्रजन्मादिवर्णन, पृ० २१ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावापो का बलकारमान वे योगदान आचार्य हेमचन्द्र के नाम से प्रतिष्ठा प्राप्त की । उनकी मृत्यु वि० सं० १२९९ में आचार्य हेमचन्द्र ने व्याकरण, कोश, छन्द, मलकार, दर्शन, पुरा, इतिहास आदि विविध विषयो पर सफलतापूर्वक साहित्य सृजन किया है। शब्दानुशासन, काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन, दयाश्रय महाकाव्य, योगशाल, द्वात्रिशिकाएं, अभिधान-चिन्तामणि तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ये उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र एक साथ कवि, कथाकार, इतिहासकार, एवं मालोचक थे। वे सफल और समर्थ साहित्यकार के रूप मे प्रख्यात हुए हैं। पाश्चात्य विद्वान् डा. पिटर्स ने उनके विद्वतापूर्ण ग्रन्थों को देखकर उन्हे 'ज्ञानमहोदधि' जैसी उपाधि से अलकृत किया है । काव्यानुशासन काव्यानुगासन आचार्य हेमचन्द्र का अलकार विषयक एकमात्र ग्रन्थ है। इसकी रचना वि० स० ११६६ के लगभग हुई है। इसमे सूत्रात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। काव्य प्रकाश के पश्चात् रचे गये प्रस्तुत ग्रन्थ में ध्वन्यालोक, लोचन, अभिनव भारती, काव्य-मीमासा और काव्य-प्रकाश से लम्बे-लम्बे उद्धरण प्रस्तुत किए गए है। जिससे कुछ विद्वान इसे सग्रह अन्य की कोटि मे मानते हैं, किन्तु उनकी कुछ नवीन मान्यताओ का प्रस्तुत ग्रन्थ मे विवेचन मिलता है । आचार्य मम्मट ने कुल ६७ अलंकारो का उल्लेख किया है, किन्तु हेमचन्द्र ने मात्र २६ अलंकारो का उल्लेख कर शेष का इन्ही में अन्तर्भाव किया है। मम्मट ने जिस अल कार को अप्रस्तुतप्रशसा नाम दिया है, उसे हेमचन्द्र ने "अन्योक्ति" नाम से अभिहित किया है। मम्मट काव्य प्रकाश को १० उल्लासो में विभक्त करके भी उतना विषय नही दे पाये हैं, जितना हेमचन्द्र ने काम्यानुशासन के केवल बघ्यायो मे प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही हेमचन्द्र ने अलकार-शास्त्र में सर्वप्रथम नाट्य विषयक तत्वों का समावेश कर एक नवीन परम्परा का प्रनयन किया है, जिसका अनुसरण परवर्ती आचार्य विश्वनाथ आदि ने भी किया है। १ जैन साहित्य का बृहए इतिहास, भाग ६, पृ. ७६ । २ हेमचन्द्राचार्य का शिष्य मण्डल, पृ०४। ३ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५, पृ.१००। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामाखात माय गाये बाते ) १२) बर्मकारचूडामणि मामक वृत्ति और (३) बिक गायक टीका। इन सीनों के पिता भाचार्य हेमचन्द्र ही है। यह ग्रन्थ माउ भयानों में सिमक्त है। प्रथम अध्याय में काम्प-प्रयोजन, काव्य-हेतु, कवि-समय, काव्य-शक्षण, गुण-दोष का सामान्य लक्षण, अलंकार का सामान्य लक्षण, बलकारी के ग्रहण और त्याग का नियम, शब्दार्थ-स्वरूप, लक्ष्य और व्यग्य वर्ष का स्वरूप, शब्दशक्तिमूलक-व्यंग्य मे नानार्थ निबन्धन, मर्यशक्तिमूलव्यंग्य के वस्तु और बलकार इन दो भेदो तथा इसके पद वाग्य और प्रबन्ध के अनेक भेदो का विवेचन किया गया है। साथ ही अर्थशक्त्युभव-ध्वनि के स्वतः सभवी, कविप्रोटोक्तिमात्रनिष्पन्न शरीर, इन अथवा कविनियववस्तृप्रोटोक्तिमाननिष्पन्न -शरीर इन भेदो के कथन को अनुचित बताया गया है। द्वितीय अध्याय मे रस-स्वरूप, रस के भेद-प्रभेद तथा उनका सोदाहरण लक्षण-निरूपण, स्थायिभाव और व्यभिचारिभावो की गणना एवं उनका सोदाहरण लक्षण, आठ साविक-भावो की गणना तथा काव्यभेदो का विवेचन किया गया है। तृतीय अध्याय मे दोष का विशेष लक्षण, आठ रसदोषो, १३ वाक्यदोषों और उभय, (पद-बाक्य) दोषो तथा अर्थदोषो का सोदाहरण विवेचन किया गया है। चतुर्थ अध्याय मे माधुर्य, प्रसाद और ओज इन तीन गुणो के सभेद मक्षण और उदाहरण तथा तत्-सत् गुणो मे आवश्यक बों का मुम्फन किया है । पचम अध्याय में अनुप्रास, यमक, चित्र, श्लेष, वक्रोक्ति और पुनरुक्तवदाभास शब्दालंकारो के सभेद लक्षण और उदाहरणो का विवेचन किया गया है। षष्ठ अध्याय मे उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, निदर्शना, दीपक, मन्योक्ति, पर्यायोक्त, प्रतियोक्ति, माक्षेप, विरोष, सहोक्ति, समासोक्ति, जाति (स्वभावोक्सि) व्याजस्तुति, श्लेष, व्यतिरेक, अर्थान्तरन्यास, ससन्देह, अपहनुति, परिवृत्ति, अनुमान, स्मृति, भ्रान्ति, विषम, सम, समुच्चय, परिसंख्या, कारणमाला और शंकर, इन २६ बर्थालंकारीका विवेचन किया गया है। बतब बन्याय में नायक का स्वरूप, उसके माठ सात्विकगुणों का सोबाहरण बाण, मायक के पार भेव, उनका सोदाहरण स्वरूप, नायक के अवस्था मेव और उनका सोहरकण, प्रतिनायक, नायिका भव, उसकी स्वाधीन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान पतिका आदि आठ अबस्थाओ का सोदाहरण वर्णन तथा स्त्रियों के बीस सत्वन अनकारों का सलक्षण-सोदाहरण विवेचन किया गया है । ___ अष्टम अध्याय मे प्रबधकाव्य के दो भेद-दृश्य और श्रव्य, पुन दृश्य के दो भेद-पाठ्य और गेय, तत्पश्चात् पाठ्य के नाटक, प्रकरण, नाटिका, समवकार, ईहामृग, डिम, व्यायोग, उत्सृष्टिकाक, प्रहसन, भाण, वीथी और सट्टक आदि भेदो का लक्षण दिया गया है। इसी शृखला मे गेय के डोम्बिका, भाण, प्रस्थान, शिंगक, भाणिका, प्रेरण, रामाक्रीड, हल्लीसक, रासक, गोष्ठी, श्रीगदित, राग और काव्य का लक्षण दिया गया है। तदनन्तर महाकाव्य, आख्यायिका, कथाआख्यान, निदर्शन प्रबलिका, मतल्लिका, मणिकुल्या, परिकथा, खण्डकथा, सकलकथा, उपकथा, बृहत्कथा तथा धम्पू इन श्रब्य काथ्यो का सलक्षण विवेचन किया गया है । अन्त मे मुक्तक, सन्दानितक, विशेषक, कलापक, कुलक और कोश का सलक्षण विवेचन है । रामचन्द्र-गुणचन्द्र रामचन्द्र और गुणचन्द्र का नाम प्राय साथ-साथ लिया जाता है। इन विद्वानो के माता-पिता और वश इत्यादि के विषय मे कोई उल्लेख नही मिलता है । अत इतना ही कहा जा सकता है कि ये दोनो विद्वान् सतीथर्य के थे । आचार्य रामचन्द्र ने अपने अनेक ग्रन्थो में अपने को आचार्य हेमचन्द्र का शिष्य बतलाया है । ये उनके पट्टधर शिष्य थे । एक बार तत्कालीन गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह ने आचार्य हेमचन्द्र से पूछा कि आपके पट्ट के योग्य १ शब्द-प्रमाण-साहित्य छन्दोलक्ष्मविधायिनाम् । श्री हेमचन्द्रपादाना प्रसादाय नमो नम ॥ ___-हिन्दी नाट्य-दर्पण विवृत्ति, अन्तिम प्रशस्ति. पद्य १ । सूत्रधार-दत्त श्रीमदाचार्यहमचन्द्रस्य शिष्येण रामचन्द्रण विरचित नलविलासाभिधानमाद्य रुपकमभिनेतुमादेश । नलविलास, पृ०१। श्रीमदाचार्यश्रीहेमचन्द्रशिष्यस्य प्रबन्धशतक महाकवे. रामचन्द्रस्य भूयास प्रबन्धा । -निर्भयभीम ज्यायोग पृ० १। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय : मैन-बालकारिक और मकार १३ गुणवान शिष्य कौन है ? इसके उत्तर में हेमचन्द्र ने रामचन्द्र का नाम लिया था। रामचन्द्र अपनी असाधारण प्रतिभा एवं कवि-कर्म कुशलता के कारण 'कविकटारमल्ल' की सम्मानित उपाधि से अलंकृत थे। यह उपाधि उन्हे सिवराज जयसिह ने प्रसन्न होकर प्रदान की थी। इसका उल्लेख रत्नमदिरगणि-गुम्फित उपदेशतरगिणी में इस प्रकार मिलता है कि एक बार जयसिंहदेव ग्रीष्म ऋतु मे क्रीडोद्यान जा रहे थे, उसी समय मार्ग मे रामचन्द्र मिल गये। उन्होने रामचन्द्र से पूछा कि, ग्रीष्म ऋतु मे दिन बड़े क्यो होते हैं ? इसके उत्तर में उन्होने (तत्काल पद्य-रचना करके) निम्न पद्य काहा--- देव श्रीगिरिदुर्गमल्ल भवतो दिग्त्रयात्रोत्सवे, धावद्धीरतुरगनिष्ठुरखुरक्षुण्णक्षमामण्डलात् । वासोद्ध तरजो मिलत्सुरसरित्स जातपकस्थली दूर्वाचुम्बनचञ्चुरा रविहयास्तेनाति वृद्ध दिनम् ॥ यह सुनकर सिद्धराज द्वारा पुन 'तत्काल पत्तन-नगर का वर्णन करो' यह कहे जाने पर उन्होने निम्न पद्य की रचना की एतस्यास्य पुरस्य पौरवनिताचातुर्यता निजिता, मन्ये नाथ । सरस्वती जडतया नीर वहन्ती स्थिता । कीर्तिस्तम्भमिषोच्चदण्डरुचिरामुत्सूश्य वाहावलीतन्त्रीका गुरुसिद्धभूपतिसरस्सुम्बी निजा कच्छपीम् ।। १ राज्ञा श्रीसिद्धराजेनान्यदा नुयुयुजे प्रभु । भवता कोऽस्ति पट्टस्य योग्य शिष्यो गुणाधिक ॥ -प्रभावकचरित-हेमसूरिप्रबन्ध, पद्य १२६ । २ माह श्री हेमचन्द्रस्य न कोऽप्येव हि चिन्तक । आद्योप्यभूदिलापाल सत्पात्राम्भोधिचन्द्रमा । सज्ज्ञानमहिमस्थैर्य मुनीना किं न जायते । कल्पद मसमे राशि त्वयीहशि कृतस्थिती ॥ मस्त्यामुष्यायको रामचन्द्राख्य कृतिशेखर । मातरेख प्रातरूप संधे विश्वकलानिधि ॥ वही, १३१-१३३ ३. ब्रष्टव्य-उपदेशतरंगिणी, पृ० ६३ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचा का अतकारशास्त्र में योगदान नस्तर सिद्धराज ने प्रसन्न होकर सबके सामने 'कविकटारमल्ल उपाचि प्रदान की थी । महाकवि रामera समस्यापूर्ति करने में भी चतुर थे । एक बार वाराणसो से विश्वेश्वर कवि पसन नामक नगर आये तथा वे आचार्य हेमचन्द्र की सभा मै गए । वहा राजा कुमारपाल भी विद्यमान थे । विश्वेश्वर ने कुमारपाल को आशीर्वाद देते हुए कहा- 'पातु वो हेमगोपाल कम्बलं दण्डमुद्वहन' चूंकि राजा जैन थे, अत उन्हे कृष्ण द्वारा अपनी रक्षा की बात अच्छी नहीं लगी । अतः उन्होंने क्रोध भरी दृष्टि से देखा । तभी रामचन्द्र ने उक्त श्लोकार्थ की पूर्ति के रूप में " षड्दर्शनपशुग्राम चारयत् जैन गोचरे" यह कहकर राजा को प्रसन्न कर दिया । आचार्य रामचन्द्र की विद्वता का परिचय उनकी स्वलिखित कृतियो मे भी मिलता है । रघुविलास मे उन्होने अपने को "विद्यात्रयीचणम्" कहा है | इसी प्रकार नाट्यदर्पण -विवृति की प्रारम्भिक प्रशस्ति में " त्रैविद्यवेदिन " तथा अतिम प्रशस्ति में व्याकरण- न्याय और साहित्य का ज्ञाता कहा है । प्रारम्भ मे कहे गये प्रभावकचरित और उपदेशतर गिणी से यह ज्ञात होता है कि आचार्य हेमचन्द्र और सिद्धराज जयसिंह समकालीन थे तथा उस समय तक रामचन्द्र अपनी असाधारण प्रतिभा के कारण प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे । सिद्धराज जयसिंह ने स० ११५० से स० १९९६ ( ई० सन् १०६३११४२) पर्यन्त राज्य किया था। मालवा पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष मे सिद्धराज का स्वागत समारोह ई० सन् ११६६ (वि० स० ११९३ ) मे हुआ १ प्रबन्ध-चिन्तामणि कुमारपालादि प्रबन्ध पृ० ८ २ पचप्रबन्धमिषप चमुखानकेन विद्वन्मन सदसि नृत्यति यस्य कीर्ति । विद्यात्रयोषण मचुम्बितकाव्यतन्द्र कस्त न वेद सुकृती किल रामचन्द्रम् ॥ - नलविलासनाटक - प्रस्तावना, पृ० ३३ ॥ ३ प्राणा कवित्व विद्यानां लावण्यमिव योषिताम् । विद्यवेदितोऽप्यस्मै ततो नित्य कृतस्पृहा ॥ - प्रारम्भिक प्रशस्ति, अंतिम प्रशस्ति, ४ शब्दलक्ष्म- प्रभालक्ष्म-काव्यलक्ष्म-कृतश्रम | वाग्विलासमा तो प्रवाह इव जाह्न ज ॥ ४ प्रवन्धचिन्तामणि कुमारपालादि प्रबन्ध, पृ० ७६ । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु - १९६ में हमी की । इस बीच रामचन्द्र का परिचय सिवराण से हो चुका था तथा प्रसिद्धि भी प्राप्त कर चुके थे। सिवराज जयसिंह के जरा-- पिकारी कुमारपाल ने सं० १९९८ से १२३०' या उसके भी बलराविकारी अजयदेव ने स. १२३० से १२३३५ तक गुर्जर भूमि पर राज्य किया था। इसी अजयदेव के शासन काल में रामचन्द्र को राजाज्ञा द्वारा तत तान-पष्टिका पर बैठाकर मारा गया था। उपर्युक्त विवेचन से अनुमान लगाया जा सकता है कि भाचार्य रामचन्द्र का साहित्यिक-काल वि.सं. १९९३ से १२३३ के मध्य रहा होमा ।। महाकवि रामचन्द्र प्रबन्ध-शतकर्ता के नाम से विख्यात हैं। इसके संबध मै विद्वानो ने दो प्रकार से विचार अभिव्यक्त किए हैं। कुछ विद्वान् प्रबन्धशतकर्ता का अर्थ "प्रबन्धशत" नामक ग्रन्थ के प्रणेता ऐसा करते है। दूसरे विद्वात् इसका अर्थ "सौ अन्थो के प्रणेता" के रूप में स्वीकार करते हैं। डा. के. एच० त्रिवेदी ने अनेक तर्कों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि रामचन्द्र सौ प्रवन्धों के प्रणेता थे । यह मत अधिक मान्य है, क्योकि ऐसे विलक्षण एव प्रतिमा सम्पन्न विद्वान् के लिए यह असम्भव भी प्रतीत नही होता है। उन्होंने अपने नाट्य दर्पण मे स्वरचित ११ रूपको का उल्लेख किया है। इसकी सूचना प्राय "अस्मदुपज्ञे---" इत्यादि पदों से दी गई है । जिनके नाम निम्न प्रकार हैं-(१) सत्य हरिषचन्द्र नाटक, (२) नलविलास-नाटक, (३) रघुविलास-नाटक, (6) यादवाम्युदय, (५) राषवाभ्युदय, (६) रोहिणी मृगाकप्रकरण, (७) निर्भयभीम-व्यायोग, (८) कौमुदीमित्रानन्द-प्रकरण, (९) सुना १ हिन्दी नाट्य-दर्पण, भूमिका, पृ० ३ । २ द्वादशस्वध वर्षाणां शतेषु विरतेषु च । एकोनेषु महीना सिखाधीशे दिव गते ॥ -प्रभावकचरित-हेमसूरिचरित, पृ० १६७ । ३ प्रबन्धचिन्तामणि-कुमारपालावि प्रबन्ध, पृ० १५ । ४ वही, पृ. १७॥ ५ प्रबन्धचिन्तामणि कुमारपालादि प्रबन्ध, पृ०६७। ६ वी नाट्य वर्षण आफ रामचन्द्र एण्ड गुणचन्द्र . एक क्रिटीकल स्टडो, पृ० २१६-२०॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 豐客 जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र मे योगदान फल, (१०) मल्लिकामकरन्द-प्रकरण और (११) वनमाला - नाटिका । कुमार बिहार शतक, द्रव्यालकार और यदुविलास ये उनके अन्य प्रमुख ग्रन्थ है । एतदतरिक्त कुछ छोटे-छोटे स्तव भी पाये जाते हैं। इस प्रकार उनके उपलब्ध ग्रन्थों की कुल संख्या डा० के० एच० त्रिवेदी ने ४७ स्वीकार की है ।" नाट्य-दर्पण यह नाट्य विषयक प्रामाणिक एव मौलिक ग्रन्थ है । इसमें महाकवि रामचन्द्र गुणचन्द्र ने अनेक नवीन तथ्यों का समावेश किया है । आचार्य भरत से लेकर धनजय तक चली आ रही नाट्यशास्त्र की अक्षुण्ण परम्परा का युक्तिपूर्ण विवेचन करते हुए आचार्य ने प्रस्तुत ग्रन्थ मे पूर्वाचार्य स्वीकृत नाटिका के माथ प्रकरणिका नाम की एक नवीन विधा का सयोजन कर द्वादश-रूपको की स्थापना की ह । इसी प्रकार रस की सुख-दुखात्मकता स्वीकार करना इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता है । नाट्य दर्पण मे नौ रसो के अतिरिक्त तृष्णा, आद्रता, आसक्ति, अरति और सतोष को स्थायीभाव मानकर क्रमश लौल्य, स्नेह, व्यसन, दुख और मुग्व-रस की भी सम्भावना की गई है । इसमे शान्त रम वा स्थायिभाव शम स्वीकार किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ मे ऐसे अनेक ग्रन्थो का उल्लेख मिलता है जो अद्यावधि अनुपलब्ध हैं । कारिका रूप में निबद्ध किसी भो गूढ विषय को अपनी स्वोपज्ञ विवृति मे इतने स्पष्ट और विस्तार के साथ प्रस्तुत किया है कि साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति को भी विषय समझने में कठिनाई का अनुभव नही करना पडता है । इसीलिए इस ग्रन्थ की कतिपय विशेषताओ को ध्यान में रखते हुए आचार्य बलदेव उपाध्याय ने लिखा है कि नाट्य विषयक शास्त्रीय ग्रन्थो मे नाट्यदर्पण का स्थान महत्वपूर्ण है । यह वह शृङ्खला है जो धनजय के साथ विश्वनाथ कविराज को जोडती है । इसमे अनेक विषय बडे महत्वपूर्ण हैं तथा परम्परागत सिद्धान्तो से १ वही, पृ० २२१-२२२ । नलविलास के सपा० जी० के० गोन्डेकर एव नाट्यदर्पण के हिन्दी व्याख्याकार आचार्य विश्वेश्वर ने उक्त ग्रथो की भूमिका मे रामचन्द्र के ज्ञात ग्रन्थो की कुल संख्या ३६ मानी है । २ स्थायीभाव श्रितोत्कर्षो विभावव्यभिचारिभि । स्पष्टानुभावनिश्चय सुखदुखात्मको ३ वही, पृ० ३०६ । रस. ॥ - हिन्दी नादर्पण, ३१७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान ५ कामराज की प्रार्थना पर शृङ्गारार्णव चन्द्रिका नामक ग्रन्थ की रचना की थी इसमे इन्होंने कर्नाटक के सुप्रसिद्ध कवि गुणवर्मा का नामोल्लेख किया है ।" गुणवर्मा का समय ई० सन् १२२५ (वि० स० १२८२ ) के लगभग माना जाता है । अत विजयवर्णो का समय कर्नाटक- कवि गुणवर्मा के पश्चात् मानना होगा । 'शृङ्गारार्णव- चन्द्रिका' के प्रारम्भिक भाग से स्पष्ट होता है कि श्री वीरनरसिंह नामक राजा वगभूमि का प्रशासक था । उनकी राजधानी वगवाटी थी। ई० सन् १२०८ (वि० स० १२६५ ) मे वीरनरसिंह के पुत्र चन्द्रशेखर arभूमि के शासक हुए थे, पुन ई० सन् १२२४ मे इनके छोटे भाई पाण्ड्यप्प सिहासनारूढ हुए । तत्पश्चात् इनकी बहिन विट्ठलादेवी राज्य की सचालिका नियुक्त की गईं। इसी क्रम मे ई० सन् १२४४ (वि० स० १३०१ ) मे विट्ठला देवी के पुत्र कामिराज राजसिंहासन पर आरूढ हुए थे । इन्ही कामिराज की प्रार्थना पर विजयवर्णी ने 'श्रृङ्गारार्णव चन्द्रिका' की रचना की थी, अत विजयवर्णी कामिराज के समकालीन ठहरते हैं तथा उक्त ग्रन्थ की रचना भी इसी के आस-पास होने से ईसा की तेरहवी शती के मध्य मे हुई होगी । विजयबण ने कामिराज को 'गुणार्णव' और 'राजेन्द्रपूजित' ये दो विशेषण दिए है, साथ ही पाण्ड्वग का भागिनेय और महादेवी विट्ठलाम्बा का पुत्र लिखा है। इससे भी दोनो की समकालीनता सिद्ध होती है । अत कामिराज 6 मालकारसग्रह | नृप्रार्थितेन नियते सूरिणा नाम्ना शृङ्गारार्णवचन्द्रिका || १ इन्ध २ गुणवर्मादिकर्नाटककवीना - शृङ्गारार्णवचन्द्रिका १।२२ सुक्तिसचय । वाणीविलास देयाते रसिकानन्द दायिनम् || वहीं, १॥७ ॥ ३ तीथकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड ४, पृ० ३०६ । ४ शृङ्गारार्णव- चन्द्रिका, १1११-१२ । ५ प्रशस्ति संग्रह के० भुजबली शास्त्री, पृ० ७७-७८ । ६ तस्य श्री पाण्ड्यवगस्य भागिनेयो गुणार्णव । विट्ठलाम्बा महादेवी पुत्री राजेन्द्रपूजित || - शृङ्गारार्णवचन्द्रिका, १३१६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनाचार्यों का बलकारशास्त्र में योगदान नामक चार प्रभेद, नायक के गुण, नायक के अनुचर, नायिकाभेद, स्त्री की आठ अवस्थाएँ, दस कामावस्थाएं, और कालादि-औचित्यों का विवेचन किया गया है । मण्डन-मन्त्री मण्डन का नाम प्राय मण्डन मंत्री के रूप मे जाना जाता है । ये श्रीमाल ' वश मे पैदा हुए थे । इनके पिता का नाम बाहर और पितामह का नाम कांझड़ था । ये बड़े प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् और राजनीतिज्ञ थे । श्रीमन्त कुल मे उत्पन्न होने के कारण उनमे लक्ष्मी एव सरस्वती का अभूतपूर्व मेल था । ये उदार और दयालु प्रकृति के थे । अल्पवय मे ही मण्डन मालवा मे मांडवगढ़ के बादशाह होशग के कृपापात्र बन गये थे और कालान्तर में उनके प्रमुख मन्त्री बने । सम्राट होग इनकी विद्वता पर मुग्ध थे । राजकार्य के अतिरिक्त बचे समय को मण्डन विद्वत् सभाओ मे ही व्यतीत करते थे । ये प्रत्येक विद्वान् और कवि का बहुत सम्मान करते थे तथा उनको भोजन-वस्त्र एव योग्य पारितोषिक आदि देकर उनका उत्साहवर्धन करते थे । मण्डन संगीत के विशेष प्रेमी थे । इसके अतिरिक्त वे ज्योतिष, छन्द, अलंकार, न्याय, व्याकरण आदि अन्य विद्यामो मे भी निपुण थे । मण्डन की विद्वत्सभा मे कई विद्वान एवं कुशल कवि स्थायी रूप से रहते थे, जिनका समस्त व्यय वह स्वयं वहन करते थे । मण्डन के द्वारा लिखे एव लिखवाये गये ग्रन्थो की प्रतियो मे प्रदत प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि मण्डन विक्रम की पन्द्रहवी शताब्दी तक जीवित थे । २ मण्डन ने अनेक ग्रन्थो की रचना की है जिनमे से निम्न ग्रन्थ प्रकाश में आए हैं - (१) कादम्बरी दर्पण, (२) चम्पूमण्डन, (३) चन्द्रविजयप्रबन्ध, श्रीमालवं शोन्नते १ श्रीमद्वन्यजिनेन्द्रनिर्भरतते श्रीमदानन्दनस्य दधत श्रीमण्डrrear कवे । काव्ये कौरवपाण्डवोदयकथारम्ये कृतौ सद्गुणे माधुर्यं पृष्ठ काव्यमण्डन इते सर्गोऽयमाद्योऽभवत् ।। - काव्यमण्डन, प्रथम सर्ग --अन्तिम प्रशस्ति । २ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनन्दन ग्रन्थ, 'मत्रीमंडन और उनका गौरवशाली वंश' -पृ० १२८, १३४ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सम्मान न-भावकारिक और बारसास्न ४ (V) सलकारमान, (५) कायमण्डन, (१) शृङ्गारमण्डन, (७) संगीतमण्डन, (८) उपसर्ग-मण्डन, (९) सारस्वतमण्डन, (१०) कविकल्पन म'। ঈলক্ষামন্তল प्रस्तुत कृति मण्डन मन्त्री की अलकार विषयक रचना है। इसमें उन्होंने अलंकार-शास्त्रीय विषयो का समावेश किया है, जो नाम से ही स्पष्ट है। असंकार-मण्डन पांच परिच्छेदों में विभाजित है। इसके प्रथम परिच्छेद में काव्य का लक्षण, उसके प्रकार और रीतियों का निरूपण है। द्वितीय परिच्छेद मे दोषो का वर्णन है। तृतीय परिच्छेद में गुणों का स्वरूप-दर्शन है। चतुर्थ परिच्छेद मे रसो का निदर्शन है । पचम परिच्छेद मे अलकारो का विवरण है। भावदेवसूरि आचार्य भावदेवसूरि प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे। उनका समय ईसा की चौदहवी शताब्दी का उत्तरार्ध और पन्द्रहवी शताब्दी का पूर्वाध प्रतीत होता है, क्योंकि इन्होंने पाश्र्वनाथ-चरित की रचना वि०सं० १४१२ मे श्रीपत्तन नामक नगर में की थी, जिसका उल्लेख पार्श्वनाथ-चरित की प्रशस्ति में किया गया है। भावदेवसूरि के गुरु का नाम जिनदेवसूरि था। ये कालिकाचार्य सन्तानीय खडिल्लगच्छ की परम्परा के आचार्य थे। आचार्य भावदेवसूरि ने अलंकार विषयक काव्यालकारसारस ग्रह के अतिरिक्त और कितने तथा कौन-कौन से अन्थो की रचना की है, यह स्पष्ट नही कहा जा सकता है। क्योकि इन प्रन्थो मे परस्पर एक दूसरे का कही भी १ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनन्दन पन्थ, 'मंत्रीमण्डन और उनका गौरवशाली वश', पृ. १३३ । २ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग १, पृ० ११८ । ३ तेषा विनयविनयी बहु भावदेव सूरि प्रसन्न जिनदेवगुरुप्रसादात् । श्रीपत्तनास्यनगरे रवि विश्ववर्षे पावप्रमोश्चरितरत्नमिव ततान ।। __ -पार्श्वनाथ-चरित, प्रशस्ति, १४ ।। ५. मासीत् स्वामिसुधर्मसन्ततिमयो देवेन्द्रवन्धक्रम., श्रीमान् कानिकसूरिद्रतयुग मामाभिराम पुरा। जीयादेष समन्वये जिनपति-प्रासाद तुगाल, भाजिष्ण, निरागारनिधि' खण्डिल्लगच्छाम्बुषि ।। वही, प्रशस्ति, ४. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचायों का अलंकारशास्त्र में योगदान १ उल्लेख नही है, किन्तु 'पार्श्वनाथ चरित' ' 'जइदिचरिया ( यति-दिन वर्मा) और 'कालिकाचार्यकथा' नामक ग्रन्थो मे कालिकाचार्य-सन्तानीय भावदेवसूरि का स्पष्ट उल्लेख किया गया है, अत यह कहा जा सकता है कि उपर्युक्त ग्रन्थों के रचयिता प्रस्तुत भावदेवसूरि ही होगे । उपर्युक्त समय निर्धारण उनके ' पार्श्वनाथ चरित' के आधार पर किया गया है । na अगरचन्द नाहटा के एक लेख से ज्ञात होता है कि भावदेवसूरि पर एक रास की रचना की गई है, जिसमे उनके शीलदेव आदि १८ स्थविर शिष्यों का उल्लेख है । रास मे यह भी कहा गया है कि स० १६०४ मे भावदेवसूरि को प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी। इसके अतिरिक्त उक्त लेख से यह भी ज्ञात हुआ है कि अनूप संस्कृत लाइब्र ेरी मे सूरि जी के शिष्य मालदेव रचित 'कल्पान्तर्वाच्य' नामक ग्रन्थ की प्रति उपलब्ध है जिसकी रचना स० १६१२ या १४ मे की गई है, उसकी प्रशस्ति के एक पद्य मे कालकाचरित का उल्लेख है इत्यादि । उक्त रास के नायक भावदेवसूरि को स० १६०४ मे प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी तथा पार्श्व नाथ-चरित' के रचयिता भावदेवसूरि ने 'पार्श्वनाथचरित' की रचना स० १४१२ मे की है । इन दोनो तिथियों में पर्याप्त अन्तराल है । अत उक्त दोनो आचार्यों को एक ही मानना युक्ति सगत प्रतीत नही होता है । सम्भव है प्रशस्ति बाद में जोड़ी गई हो और लिपिकार ने भावदेवसरि की प्रसिद्धि के कारण प्रमादवशात् कालवाचरित का उल्लेख करने वाले उक्त पद्य का समावेश कर दिया हो । १ पार्श्वनाथचरित, प्रशस्ति, ५, १४ । २ सिरीकालिकसूरीजं वसुव्यव भावदेवसूरीहि । सकलिया दिनचरिया एसा योवमइज ग (ई) जोगा || - यति दिनचर्या - प्रान्ते, गा० १५४ ( अलकार-महोदधि, प्रस्तावना, पृ० १७) । ३ तत्पादपद्ममधुपा विज्ञा श्रीभावदेवसूरीणा । श्री कालकाचरित पुन कृत यै स्वगी पुस्यें ॥ -- जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १४, किरण २, पृ० ३८ ॥ ४ 'भावदेवसूरि एवं लाहौर के सुलतान सम्बन्धी विशेष ज्ञातव्य' -- यह लेख जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १४, किरण २ के ३७ पृष्ठ पर प्रकाशित है । ५ तत्पादपदम् मधुपा स्वर्गा पूयें । - जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १४० किरण २, पृ० ३० । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय : जैन-मालंकारिक और अलंकारशास्त्र काव्यालकारसार-संग्रह ' आचार्य भावदेवसूरि विरचित 'काव्यालकारसार-संग्रह' नामक ग्रन्थ संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण है । इसमे आचार्य भावदेवसूरि ने प्राचीन ग्रन्थो से सारभूत तस्वो को ग्रहण कर संग्रहीत किया है ।" यह ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है, frent fवषयवस्तु निम्न प्रकार है प्रथम अध्याय में काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु और काव्य-स्वरूप का निरूपण किया गया है । द्वितीय अध्याय में मुख्य, लाक्षणिक और व्यंजक नामक तीन शब्द-भेद, उनके अभिषा, लक्षणा और व्यजना नामक तीन अर्थमेव तथा बाच्य, लक्ष्य और व्यग्य नामक तीन व्यापारो का सक्षेप मे विवेचन किया गया है। तृतीय अध्याय मे श्रुतिकटु, च्युतसस्कृति आदि ३२ पद दोषो का निरूपण किया गया है । ये ३२ दोष वाक्य के भी होते हैं। तत्पश्चात् अपुष्टार्थ-कष्ट आदि आठ अर्थदोषो का नामोल्लेख कर किंचित् विवेचन किया गया है । चतुर्थ अध्याय मे सर्वप्रथम वामन सम्मत दस गुणों का विवेचन कर मामह और आनन्दवर्धन सम्मत तीन गुणो का विवेचन किया गया है । पुन शोभा, अभिषा, हेतु, प्रतिषेध, निरुक्ति, युक्ति, कार्य और सिद्धि नामक आठ काव्यचिन्हो का विवेचन किया है । पचम अध्याय में वक्रोक्ति, अनुप्रास, यमक, श्लेष, चित्र और पुनरुक्तवदाभास नामक छ शब्दालंकारो का सोदाहरण निरूपण किया है । षष्ठ अध्याय मे उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक यदि ५० अर्यालंकारो का विवेचन किया गया है । सप्तम अध्याय में पांचाली, लाटी, गोडी और वैदर्भी नामक चार रीतियो का निरूपण किया है । अष्टम अध्याय मे भाव, विभाव, अनुभाव आदि का मात्र नामोल्लेख है । पद्मसुन्दरगणि श्वेताम्बर जैन विद्वान पं० पद्मसुन्दरगणि नागौरी तपागच्छ के प्रसिद्ध ३ आचार्य भावदेवेन प्राध्यशास्त्र महोदधे । आदाय साररत्नानि तो अलंकार - सग्रह || -काव्यालंकारसार-संग्रह, ८/ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनाचार्यो का अलकारशास्त्र मे योगदान भट्टारक यति थे । इनके गुरु का नाम पद्ममेद और प्रगुरु का नाम आनन्दमेरु था । पचसुन्दरमणि को मुगल बादशाह अकबर की सभा में बहु-सम्मान प्राप्त था । उनकी परम्परा के परवर्ती भट्टारक यति 'हर्षकीर्तिसूरि' की 'धातुतरंगिणी" के पाठ से ज्ञात होता है कि उन्होने बादशाह अकबर की सभा मे किसी महा'पण्डित को पराजित किया था, जिसके सम्मान स्वरूप उन्हे बादशाह अकबर की ओर से रेशमी वस्त्र, पालकी और ग्राम आदि भेंट में प्राप्त हुए थे, वे जोधपुर के हिन्दू नरेश मालवदेव द्वारा सम्मानित थे ।' इतना ही नही इनके गुरु पिता हुमायूँ और पितामह मेरु और प्रगुरु आनन्दमेरु को क्रमश अकबर के बाबर की राजसभा मे प्रतिष्ठा प्राप्त थी । " पद्मसुन्दरगणि ने ( अकबर साहि) - शृङ्गार दर्पण की रचना वि० स०१६२६ के आसपास की है तथा श्वेताम्बराचार्य हीरविजय की बादशाह अकबर से भेंट वि० स० १६३६ में हुई थी, उस समय पद्मसुन्दरमणि का स्वर्गवास हो चुका था । अत पद्मसुन्दरगणि का समय विक्रम की १७वी (ईसा की १६वीं का उत्तरार्ध) शताब्दी मानना उपयुक्त होगा । पद्मसुन्दरमणि ने साहित्य, नाटक, कोष, अलकार, ज्योतिष और स्तोत्र विषयक अनेक ग्रन्थो का प्रणयन किया है । दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान् रायमल्ल से उनकी प्रगाढ़ मैत्री थी। इसलिए उन्होंने कुछ ग्रन्थो की रचना रायमहल के अनुरोध पर भी की है। उनके प्रमुख ग्रन्थ निम्न प्रकार हैं- राममल्लाभ्युदयकाव्य, यदुसुन्दर महाकाव्य, पार्श्वनाथचरित, जम्बूचरित, राज १ साहे ससदि पद्मसुन्दरगणिजित्वा महापण्डित, क्षौम्या सुखासनाअकबर श्रीसाहितो लब्धवान् । हिन्दूका धिमालदेवनृपतेर्माभ्यो वदाम्योषिक, श्रीमद्योषपुरे सुरेप्सितबच पद्याह्वय पाठक म् ॥ - जैन साहित्य और इतिहास नाथूराम प्रेमी, पृ० ३६५ का सन्दर्भ | २ मान्यो बाप (ब) र मृभुजोऽत्र जयराट् तद्वत् हमाऊँ नृपोत्यर्थे प्रीतिमना सुमान्यमकरोदानंदराया भिव । तद्वत्सा हि शिरोमणे रकबरक्ष्मापाल - चूडामणेमन्य पडितपद्मसुन्दर इहाभूत पडितवातजित् ॥ - अकबरसाहि शृङ्गारदर्पण - भूमिका, पृ० ३ जैन साहित्य बोर इतिहास, पृ० ३९६ । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय - जैन-आलेकारिक और अनारशास्त्र ४७ प्रश्नीय माध्यपदनिका, परमतव्यवच्छेवस्थाहावाप्रिंशिका, प्रमाणसुन्दर, सारस्वतरूपमाला, सुन्दरप्रकाशशब्दार्णच, हायन-सुन्दर, षड्भाषामितनेमिस्तव, परमंगलिकास्तोत्र, भारतीस्तोत्र, भविष्यदत्तचरित और शान-चन्द्रोदय माटक मादि । डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने इनको केवल दो ही रचनावों का उल्लेख किया है। भविष्यदत्त चरित और रायमल्लाभ्युदय महाकाव्य ।' जबकि पं. नाथूराम प्रेमी और डॉ गुलाबचन्द्र चौधरी ने इनकी अन्य कृतियो का भी सप्रमाण उल्लेख किया है । अकबरसाहि शृगार दर्पण प्रस्तुत अलकारशास्त्र विषयक ग्रन्थ मुगल बादशाह अकबर की प्रशंसा में रचा गया है । इसके प्रत्येक उल्लास के अन्त में अकबर प्रशस्ति-पद्यों की रचना की गई है । अकबरसाहिशृङ्गार-दर्पण की तुलना दशस्यक और नाम्य-दर्पण से की जा सकती है, क्योकि इसमे नाटयशास्त्रीय तत्वो का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है । चार उल्लासो में विभाजित इस ग्रन्थ में कुल ३४५ पब हैं। प्रथम उल्लास मे कवि ने सर्वप्रथम आठ पदों मे अकबर के पूर्वजों तथा अकबर का विरुदगान किया है। पुन मवरस, स्थायीभाव गणना, रस-सक्षण तथा व्यभिचारी भावो और सात्विक भावों की संख्या का निर्देश किया है। शृगाररस स्वरूप, उसके भेद-प्रभेदो का सोदाहरण निरूपण, नायक-स्वरूप, सलक्षणोदाहरण नायक-भेद, नर्मसचिव-स्वरूप, उसके पीठमर्द, विट और विदूषक इन तीन भेदो का निरूपण, नायिका स्वरूप, उसके भेद-प्रभेद आदि का सोदाहरण वर्णन किया गया है। द्वितीय उल्लास मे परकीया के दो भेद बतलाये गये हैं-कन्या और उढा। पुन परवधू द्वारा नायक के अनेक प्रकार से दर्शनों का अनुभव करने का उल्लेख है। तत्पश्चात् अम्यवीयकन्या स्वरूप, मुग्धा ( नामिकर) चेष्टा, उद्धतमन्मथा, दुखसंस्था, पांगना तथा स्वाधीनपतिका, उल्का, वासकसज्जिका अभिसन्धिता, विप्रसम्बा, बाण्डिता, अभिसारिका एवं प्रोषितपतिका इन बाठ नायिका मेदों के सोबाहरण समग दिए है। इसी क्रम में उत्तम, मध्यम और बषम नायिकाओं का सलक्षणोदाहरम निरूपम किया गया है। १. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड ४, पृ. । २. ब्रटम्य-जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ३६५ ३ प्रधब्य-जैन साहित्य का या एतिहास, भाग ६, पृ.६७ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्यो का बलकारशास्त्र में योगदान तृतीय उल्लास मे विप्रलम्भ शृङ्गार के चार भेद--- पूर्वानुराग, मानात्मा, प्रवास और करुण, काम की दस अवस्था - अभिलाष, चिन्ता, स्मृति, युजकीर्तन, उद्योग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जडत्व और मरण, व गाराभास, परस्त्रीसंगमोपाय मान के तीन भेद-गुरू, मध्य और लघु, मानिनी नायिका को मनाने के छ उपाय - साम, दान, भेद, उपेक्षा, प्रणति और प्रथम विभ्रम आदि का विवेचन किया गया है । पुन पति के लिए अनुराग पूर्वक तथा अनपूर्वक प्रयुक्त नामो का उ लेव किया गया है । अन्त मे प्रवास विषयक वर्णन है । ४८ चतुर्थ उल्लास मे सर्वप्रथम विप्रलम्भ के चतुर्थ भेद करुण का सलक्षणोदाहरण विवेचन किया गया है । पुन प्रतिवेश्मा, नटी, चेटो, कार, घात्री, शिल्पिनी, बाला और तपस्विनी आदि नायिका की सखियो ( सहायिकाओ) के नाम, उनके गुण तथा कौतुक, मण्डन, रक्षा, उपालम्भ, प्रसादन, सहयोग और विरह मे आश्वासन आदि सखियों के कार्यों का उल्लेख, हास्य, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्तरस का सभेद स्वरूप, उदाहरण तथा नके अनुभाव आदि का वर्णन विरोधी रस समावेश और शृगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक तथा अदभुत रस मे पाये जाने वाले भावो का पृथकपृथक् निर्देश किया गया है । तत्पश्चात् कौशिकी, आरभटी, सास्वती और भारती इन चार रीतियो का निरूपण किया गया है । इसी क्रम में काव्य दूषण, प्रत्यनीक- रस, विरस, दु सन्धानरस, नीरसकाव्य, दुष्टपात्र आदि का वर्णन किया गया है । सिद्धिचन्द्रगणि सिद्धिचन्द्रगण अपने समय के महान टीकाकार और साहित्यकार थे। ये तापगच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्रगणि के शिष्य थे । भानुचन्द्रमणि और सिद्धिचन्द्रगणि को मुगल बादशाह अकबर के दरबार में समान रूप से सम्मान प्राप्त था | सिद्धिचन्द्रगणि शतावधानी थे । उनके प्रयोग देखकर बादशाह अकबर ने 'खुशफहम' ( तीक्ष्ण बुद्धि ) की मानप्रद उपाधि प्रदान की थी, ' जिसकी पुष्टि उनके द्वारा रचित प्रत्येक ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति से होती १ जैन साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास, पृ० ५५४ । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय : जैन-वार्तकारिक वीर अर्तकारशास्त्र સર 1 इन प्रशस्तियों से यह भी ज्ञात होता है कि इन्होंने अपने प्रभाव के द्वारा शत्रुजंय तीर्थ पर लगे हुए कर को माफ कराया था तथा सिद्धाचल पर्वत पर मंदिर निर्माण कार्य में बाधक राजकीय निशेधाज्ञा को भी हटवाया था 1 सिद्धिचन्द्रगणि अपने गुरु भानुचन्द्रगणि के अनेक साहित्यिक अनुहानों के सहयोगी थे। बाणभट्ट रचित कादम्बरी पर अपने गुरु के साथ लिखी गई sant टीका सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इस टीका के अध्ययन से इनके कोश विषयक ज्ञान का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, ये छ. शास्त्रों के ज्ञाता तथा फारसी के अध्येता थे । सिद्धचन्द्रगणि ने धातुमंजरी नामक ग्रन्थ की रचना वि० सं० १६५० ( ई० सन् १५९३ ) * और काव्यप्रकाश खण्डन की रचना बि० स० १७०३ ( ई० सन् १६४६) ६ मे की थी तथा बासवदत्ता की टीका सवत् १७२२ ( ई० सन् १६६५) में की थी । अत इनका साहित्यिक-काल उक्त तिथियो के मध्य मानना होगा । इतना लम्बा साहित्यिक काल इनके दीर्घजीवी होने का पुष्ट प्रमाण है । १ कादम्बरी-टीका उत्तरार्द्ध की अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है-इति श्रीपादशाह श्री अकबर जलालदीन सूर्यसहस्रनामाध्यापक श्री शत्रुंजयतीर्थंकर मोचtreateकृत विधायक महोपाध्यायश्रीभानुचन्द्रगणिस्तच्छिष्याष्टोत्तरशताबमानसाधकप्रमुदितपादशाह श्री अकबर प्रदत्तखुष्कह मापराभिधानमहोपाध्याश्रीसिद्धिचन्द्रगणिविरचितायां कादम्बरीटीकामुत्तरखण्डटीका समाप्ता । - भानुचन्द्रगणिचरित - सिद्धिचन्द्रकृतग्रन्थ प्रशस्त्यादि, पृ० ५८ । २ जैन साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास, पृ० ५५४ । ३ जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग ६, पृ० २१६ | ४. कर्ता शतावधानानां विजेतोम्मत्तवादिनाम् । dar ale शास्त्राणामध्येता फारसीमपि ॥ - - ( भक्तामर स्तोत्रवृत्ति) भानुचन्द्रयभिचरित, पृ० ५९ ५. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० ४५ ६ संवत् १७०३ वर्षे आश्विन शुदि ५ गुरो लिखितम्- -काव्यप्रक श - खण्डन, पृ० १०१ । भानुचन्द्रमणि चरित संग्रहीत काव्यप्रकाश खण्डन की प्रशस्ति में लेखन काल संवत् १७२२ मिला है। - भानुचन्द्रगणि चरित, पृ० १२ । पृ० ६१ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्यों का बलकारशास्त्र में योगदान जैसा कि प्रारम्भ में कहा गया है कि सिद्धिचन्द्रगणि एक महान् टीकाकार और साहित्यकार थे। इन्हे व्याकरण-न्याय और साहित्य-शास्त्र का ठोस ज्ञान था। जिसकी पुष्टि उनके द्वारा रचे गये साहित्य से होती है। सूक्ति-रलाकर इनके गहन अध्ययन और पाण्डित्य का द्योतक है । उनके द्वारा विरचित अद्यावधि ज्ञात ग्रन्धो की सख्या १६ है, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं-कादम्बरी उत्तरा टीका, शोभनस्तुति टीका, वृक्षप्रस्तावोक्ति-रत्नाकर, भानुचन्द्र-चरित, भक्तामरस्तोत्र-वृत्ति, तर्कभाषा-टोका, जिनशतक-टीका, वासवदत्ता-टीका, काव्यप्रकाश-खण्डन, अनेकार्थोपसर्ग-वृत्ति, धातुमजरी, आख्यातवाद-टीका, प्राकृतसुभाषित संग्रह, सूक्तिरत्नाकर, मगलवाद, सप्तस्मरणवृत्ति, लेखलिखनपद्धति और सक्षिप्त कादम्बरी कथानक' । इसके अतिरिक्त काव्यप्रकाश खण्डन में काव्य-प्रकाश पर लिखी गई गुरु नामक बृहद् टीका का भी उल्लेख मिलता है। काव्यप्रकाशखण्डन ___ आचार्य मम्मट विरचित काव्यप्रकाश का सीधा सीधा अर्थ लगाना ही दुष्कर है, पुन उसका खण्डन करना तो और भी अतिदुष्कर है। किन्तु प्राचार्य सिद्धिचन्द्रगणि ने काव्यप्रकाश का खण्डन कर अपनी प्रखर बुद्धि का मेरुदण्ड स्थापित किया है। इन्होने काव्यप्रकाश के उन्ही स्थलों का खण्डन किया है, जिनमे उनकी असहमति थी। प्रस्तुत रचना के कारणो पर प्रकाश डालते हुए मुनि जिनविजय ने लिखा है कि-'महाकवि मम्मट ने काव्य-रचना विषयक जो विस्तृत विवेचन अपने विशद् ग्रन्थ मे किया है, उसमे से किसी लक्षण, किसी उदाहरण, किसी प्रतिपादन एव किसी निरसन सम्बन्धी उल्लेख को सिद्धिचन्द्रगणि ने ठीक नही माना है और इसलिये उन्होने अपने मन्तब्य को व्यक्त करने के लिए प्रस्तुत रचना का निर्माण किया । अत इस ग्रन्थ के अध्ययन से उनकी नवीन मान्यताओ पर प्रकाश पडता है, जिनमे वैराग्य की झलक दृष्टिगोचर होती है। काव्यप्रकाश-खण्डन काव्यप्रकाश की तरह दस उल्लासो म विभक्त है। इसमे प्रत्येक उल्लास के विषय का उसी क्रम मे खण्डन किया गया है, जिस १ भानुचन्द्रगणिचरित-इन्ट्रोडक्शन, पृ० ७१-७४ । २ अस्मत्कृतबृहट्टीकातोमवसेय (पृ. ३) गुरुनाम्ना बृहट्टीकात , पृ० ६४ । ३ काव्यप्रकाश-खण्डन-किंचित् प्रास्ताविक, पृ० ३। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय जैन-आलंकारिक और अलंकारशास्त्र ५१ क्रम से बाचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश में विषय-वस्तु का गुम्फन किया है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सिद्धिचन्द्रगणि ने उन्ही विषयों का खण्डन किया जिनमें उनकी असहमति है । प्रथम उल्लास मे सर्वप्रथम 'नियतिकृत नियमरहिता - ' । इत्यादि मंगलाचरण का खण्डन किया है, जिसमे यह कहा गया है कि कवि की सृष्टि में भी छन्द, रस, रीति, भाषा और उपमान का बन्धन होता है तथा काव्य सुख-दुःख और मोहात्मक स्वरूप वाला ही सम्भव है । इसी प्रकार काव्य की चतुर्वर्ग का साधन स्वीकार करते हुए यश-प्राप्ति आदि काव्य प्रयोजनों का खण्डन किया है । पुन काव्य स्वरूप का खण्डन कर विश्वनाथ के 'वाक्य रसात्मक काव्यम्' इस काव्य स्वरूप का समर्थन किया है । अन्त मे रसवादियो द्वारा मान्य काव्य के चित्र भेद नामक तृतीय भेद का खण्डन किया है । द्वितीय उत्लास मे व्यजना का खण्डन करके महिमभट्ट आदि की तरह द्वितीयार्थ की प्रतीति अनुमान के द्वारा स्वीकार की है । तृतीय उल्लास मे आर्थी व्यजना के कुछ भेदो का उल्लेख कर खण्डन किया है । चतुर्थ उल्लास मे शृगार, वीर, हास्य और अद्भुत इन चार रसो को स्वीकार करते हुए, शेष करुणादि रसो का खण्डन किया गया है । जिसमे बतलाया है कि करुण के मूल मे शोक होने से रस नही है । बीभत्स में मांसपूय आदि की उपस्थिति से वमन आदि नही होता है यही आश्चर्य है, पुन परमानन्द रूप रस कहाँ सम्भव है । इसी प्रकार भय मे रसास्वादन कहाँ ? शान्त के मूल में सर्व विषयों का अभाव होने से रस नहीं है तथा वीर और रौद्र मे विभावादि साम्य के कारण अभेद होने से रौद्र को पृथक् रस नही माना है । पंचम उल्हास में गुणीभूत व्यंग्य-काव्य के भेदों का उल्लेख प्रस्तुत कर समीक्षा की है । षष्ठ उल्लास में चित्रकाव्य के शब्द-चित्र और अर्थ चित्र इन दो भेदो का समर्थन किया है । सप्तम उल्लास मे दोष स्वरूप का खण्डन करते हुए दो दोषों को स्वीकार किया है- (१) कथनीय का अकथन, और (२) अकथनीय का कथन । पुन विषय के स्पष्टीकरण हेतु दोषो का पृथक्-पृथक् नामोल्लेख कर कुछ दोषो का Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैनाचायों का अलंकारशास्त्र मे योगदान पूर्व दोषो मे अन्तर्भाव किया है तथा कुछ का नवीनो के मत को प्रस्तुत करते हुए खण्डन किया है । अर्थदोषों का अन्तर्भाव पूर्वोक्त पदादि दोषों में किया गया है । अन्त मे रसदोषो का उल्लेख किया है। इस प्रसग मे भी खण्डन-शैली पूर्वोक्त प्रकार है । अष्टम उल्लास मे सर्वप्रथम गुण और बलकारो का भेद प्रदर्शन किया गया है। गुण-स्वरूप प्रसंग मे नवीनो के अनुसार रस के उत्कर्षाधायक हेतु रसधर्म को स्वीकार किया है । पुन माधुर्यादि तीन गुणो का विवेचन कर वामन सम्मत दस गुणो का उल्लेख किया है तथा रसोत्कर्षक होने से दस शब्द - गुणो को स्वीकार किया है । इसी प्रकार दस अर्थगुणों का भी समर्थन किया है मोर नवीनो के मत को उद्धृत करते हुए आस्वाद के हेतु भूत गुणो का अपलाप करने वाले काव्यप्रकाशकार का खण्डन किया है । नवम उल्लास मे शब्दालकारो का विवेचन किया गया है । दशम उल्लास मे अर्यालकारो का विवेचन किया गया है। जिसमे कतिपथ अकारो का विभिन्न अलकारो के अन्तर्गत समावेश किया गया है । यथाव्याघात का विरोध मे अन्तर्भाव आदि । प्रकाशित (मुद्रित), अनुपलब्ध एवं टीका ग्रन्थ कविशिक्षा - यह आचार्य वप्पभट्टसूरि (वि० सं० ८००-८१५ ) की कृति है । जो अद्यावधि अनुपलब्ध है' । कल्पलता - यह वि० सं० १२०५ से पूर्व रचित अम्बाप्रसाद की कृति है । कल्पलता - पल्लब - ( सकेत ) पर रचित कल्पपल्लव नामक टीका है। यह अम्बाप्रसाद की अपनी कृति कल्पलता कल्पपल्लवशेष - विवेक - यह भी अम्बाप्रसाद की अपनी कृति कल्पलतर पर पर स्वोपज्ञ टीका है। १ जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग ५, पृ० १०० । २ वही, पृ० १०३ । ३ वही, पृ० १०५ । ४ वही, पृ० १०५ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कवि और काव्य कवि जिस काव्य के रसास्वादन से सहृदय को अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है, उस काव्य के रचयिता अर्थात् कवि का स्वरूप क्या है ? इसकी जिज्ञासा का होना स्वाभाविक है। इस विषय मे अलकार-शास्त्रियो ने दो प्रकार से विचार व्यक्त किए हैं । प्रथम कोटि मे वे लोग आते हैं जिन्होने कवि का स्वरूप स्पष्ट रूप से लिख दिया है -जैसे आवार्य राजशेखर विनयचन्द्रसूरि, विजयवर्णी एव अजितसेन आदि । द्वितीय कोटि मे वे लोग आते है जि होने काव्य-कारण के “याज से कवि-स्वरूप का निरूपण किया है-जमे आचार्य भामह, दण्डी, मम्मट, वाग्भट-प्रथम, हेम वन्द्र, नरेन्द्रप्रभसूरि, वाग्भट द्वितीय एव भावदेवसूरि आदि। अलकार सम्प्रदाय के प्रतिनिधि आचार्य भामह ने कवि का स्वरूप स्पष्ट रूप से न कहकर काव्य-कारण के व्याज से कहा है। उन्होने लिखा है किव्याकरण, छन्द, अभिधान (कोश) अर्थ, इतिहास के आश्रित कथाएँ, लोक ध्यवहार, तर्कशास्त्र और कलाओ का काव्य-रचना के लिये कवि को मनन करना चाहिए ' । यह सम्पूर्ण विवेचन व्युत्पत्ति के अन्तर्गत आता है, अत जिस व्यक्ति को उपयुक्त विषयो का ज्ञान हो वह अभ्यास के माध्यम से कविता कर सकता है अर्थात् वह कवि है । राजशेखर ने 'कव वर्णने' धातु से कवि की उत्पत्ति मानी है, जिसका अर्थ होता है वर्णन-कर्ता अर्थात् जो वर्णन करे वह कवि कहलाता है । इसके अतिरिक्त उन्होंने अन्यत्र लिखा है कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति से युक्त कवि, कवि कहलाता है । आचार्य दण्डी ने काव्य-सम्पदा के कारणो के ध्याज से कवि की योग्यता का परिचय देते हुए लिखा है कि १ काव्यालकार, भामह, १६ । २ काव्यमीमासा, पृ० १७ । ३. प्रतिभाव्युत्पत्तिमाश्च कवि कविरित्युच्यते। -काव्यमीमांसा, पृ. ४३ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय कवि और काव्य ६३ स्वभावोत्पन्न प्रतिमा, अत्यन्त निर्मल श्रुताध्ययन और उसकी बहु-योजना ही काव्य-सम्पदा है' अर्थात् दण्डो के अनुसार प्रतिभा और श्रं ताभ्यास ये दोनों ata मे होना अनिवार्य है । आचार्य मम्मट ने यद्यपि कवि के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं लिखा है तथापि काव्य-कारण के व्याज से उन्होंने कवि की योग्यता अवश्य कह दी है । तदनुसार हम कह सकते हैं कि स्वाभाविक प्रतिभा (शक्ति), लौकिकशास्त्र तथा काव्यशास्त्र के पर्यालोचन से उत्पन्न निर्गुणसा एवं काव्य-रचना को जानने वाले गुरू की देख-रेख में काव्य निर्माण का अभ्यास इन तीन गुणो से युक्त व्यक्ति कविता करने की योग्यता रखता है‍ अर्थात् वह कवि कहलाने का अधिकारी है । इस प्रसग मे जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने यद्यपि कवि का स्वरूप स्पष्ट नहीं कहा है तथापि वे काव्य-कारण के व्याज से प्रतिभा को ही कवि की योग्यता मानते हैं ३ । इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने भी काव्य-कारण के व्याज से प्रतिभा को ही कवि की योग्यता स्वीकार किया है अर्थात् कवि वह है जो प्रतिभावान् हो । इसके समर्थन मे उन्होंने भट्टतोस के काव्यकौतुक से उद्धरण देते हुए लिखा है कि-- नवीन नवीन अर्थों के उन्मेषक प्रज्ञा विशेष का नाम प्रतिभा है तथा उससे अनुप्राणित वर्णन करने मे निपुण कवि कहलाता हैं । आचार्य नरेन्द्रप्रभसूरि ने भी काव्य-कारण के व्याज से कवि-स्वरूप का निरूपण करते हुए कवि में प्रतिभा का होना आवश्यक माना है। इसके समर्थन मे उन्होने भी भट्टतोत के काव्य कौतुक से उक्त उद्धरण प्रस्तुत किया है । विनयचन्द्रसूरि ने कवि की परिभाषा करते हुए लिखा है कि-शब्द और अर्थ को मानने वाला तस्बो का ज्ञाता, माधुर्य, भोज आदि गुणो का साधक, दक्ष, १ काव्यादर्श, १1१०३ । २ शक्तिनिपुणतालोक -शास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् । काव्यश शिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुदमने || वाग्भटालकार, १३ | ३ ४ काव्यानुशासन, ११४ | ५ बही, ११३ | वृत्ति । ६ अलकार - महोदधि, ११७ | 19 प्रज्ञा नवनवोल्लेलशालिनी प्रतिभा मता । तदनुप्राणनाजीवदवर्णना निपुण कवि ॥ - काव्यप्रकाश, ११३ । वही, ११७ वृति । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्यो का कारखाव मे योगदान वाम्मी, नवीन बयों का उद्योतक, शब्द, अर्थ और वाक्य के दोषों का जावा, भिवकार, कवि-मार्ग का अनुसरण करने वाला, अलंकार और रस का शाखा, बन्दसौहब एवं षडभाषाओं के नियमो में निष्णात, षडदर्शनों का माता, पित्याभ्यासी, बौकिक वस्तुओं का माता और छन्द शास्त्रज्ञ कवि कहलाता है । कवि की उपयुक्त परिभाषा में विनयचन्द्रसूरि की मान्यता है कि कवि को सम्पूर्ण विषयों का ज्ञाता होना आवश्यक है, चाहे वे लौकिकहो या अलोकिक, गुण हो या दोष, रस हों या अलकार, व्याकरण हो या दर्शन । नाना विषयों का समावेश ही उसकी पूर्णता है। कवि का इतना सष्ट मोर वृहद स्वरूप बन्यत्र देखने में नहीं आया है। भावार्य विजयवर्णी ने कवि-स्वरूप का निरूपण करते हुए लिखा है किप्रतिमा-शक्ति सम्पन्न तथा व्युत्पत्ति और अभ्यास से युक्त अठारह स्थलो का वर्षन करने में निपुण व्यक्ति कवि है अथवा शक्ति, निपुणता और कवि-शिक्षा इन तीनो से युक्त तथा रस-भाव के परिज्ञान रूप गुणो से युक्त कवि है। इस तरह विजयवर्णी ने कवि-स्वरूप का निरूपण दो प्रकार से किया है। लेकिन इनमे पहला प्रकार महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसमे प्रतिमा, व्युत्पत्ति, अभ्यास गौर अठारह स्थलों का वर्णन करने की बात कही गई है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाये तो अठारह स्थलो का वर्णन करने की निपुणता रूप कथन का प्रतिभा में ही अन्तर्भाव हो जाता है। परन्तु विजयवर्णी द्वारा निरूपित कवि-स्वरूप में अठारह स्थलो के वर्णन की चर्चा का अपना महत्व है। वे बठारह स्थल कौन से हैं ? इसका विवेचन करते हुए आचार्य अजितमेन ने विखा है कि-चन्द्रोदय, सूर्योदय, मंत्र, दूत-सम्प्रेषण, जलक्रीडा, कुमारोदय, उचान, समुद्र, नगर, ऋतु, पर्वत, सुरत, युद्ध, प्रयाण, मधुपान, नायक १ शब्दार्थवादी तत्वको माधुयोज प्रसाधक । वक्षो बाग्मी नवानामुत्पत्तिप्रियकारक ॥ सन्दार्थ वाक्यदोषज्ञश्चित्रकृत् कविमागवित् । पातालकारपर्वम्वो रसविद् बन्वसौष्ठवी ॥ पडभाषाविधिनिष्णात षड्दर्शनविचारवित् । नित्याभ्यासी व लोकशश्छन्द शास्त्रपटिष्ठवी ॥ -काव्यशिक्षा, ४४१५३-१५५ । २ भूगारार्णव-चन्द्रिका, २।१२। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S derer का कारन में योगदान ae austree शैली में ऐसा तर्क प्रस्तुत नहीं किया है, जो कार शास्त्रियों को ब्राह्म हो और न ही अपने पक्ष के समर्थन में कोई प्रबंध तर्क प्रस्तुत किया है। इस प्रकार समस्त काव्य-प्रयोजनों का सम्यक् प्रकार से आलोडन- विमोहन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि जैनाचार्यों ने पूर्व स्वीकृत काव्याप्रयोजनों को आधार मानकर अपना मत प्रस्तुत किया है तथापि वाग्भट - प्रथम द्वारा मान्य एक मात्र यश रूप प्रयोजन अपनी मौलिकता की छाप छोड़ता है । इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने जो मम्मट सम्मत छ काव्य प्रयोजनों में से तीन का सयुक्ति खण्डन कर नवीन विचार प्रस्तुत किया है, वह दलाच्य और तथ्य परक भी है । अत इसका अपलाप नहीं किया जा सकता है । काव्य-हेतु . काव्य-रचना में जो हेतु अर्थात् कारण हो वह काव्य हेतु है । सामान्यतया कारण दो प्रकार के होते हैं-निमित्तकारण और उपादानकारण । प्रस्तुत में fafeterरण को ही काव्य-हेतु की सज्ञा दी गई है। इसके अभाव मे काव्य की सर्जना सम्भव नही है । सर्वप्रथम आचार्य भामह ने काव्य-हेतुओं पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि गुरु के उपदेश से मूर्ख लोग भी शास्त्रो का अध्ययन करने में समर्थ हैं, किन्तु काव्य किसी प्रतिभावान व्यक्ति के ही द्वारा कभी-कभी निर्मित होता है | व्याकरण, छन्द, कोश, अर्थ, इतिहासाश्रित कथाएँ, लोकज्ञान, तर्कशास्त्र और कलाओ का काव्य-सर्जना हेतु मनन करना चाहिए। शब्द और अर्थ का विशेष रूप से ज्ञान करके काव्य-प्रणेताबो की उपासना और अन्य कवियो की रचनाओ को देखकर काव्य-सर्जना में प्रवृत्त होना चाहिए । यहाँ क्रमश प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास का विवेचन किया गया है। भामह ने व्युत्पत्ति १ गुरूपदेशावध्येतुं शास्त्रं जडधियोऽप्यलम् | काव्य तु जायते जातु कस्यचित्प्रतिमावत ॥ शब्द छन्दोऽभिधानार्था इतिहासाश्रया कथा. । काव्या मी ॥ लोको युक्ति कलावचेति मन्तव्या शब्दाभिधेये विशाय कृत्वा freोक्याम्यनिवन्यांश्च कार्य सहिदुपासनाम् । काव्यferrer || -काव्याकार, १२५, ६-१० । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार बान्यास की अपेक्षा प्रतिमा पर अधिक बल दिया है। हालाकि ये प्रतिभा को काव्य का अनिवार्य एवं प्रमुख हेतु मानते। दी, सामायिक प्रतिमा अत्यन्त निर्मल विद्याध्ययन एवं उसको बहुम्योजना की ही कामा केतु मानते है। उन्होंने भामह की तय प्रतिमा पर कि कर वानों का समान रूप से महत्व स्वीकार किया है। किन्तु इसमें कमाने उन्होंने लिखा है कि यदि वह मदभुत प्रतिमा नमी हो तो भी मालामाल (युत्पत्ति) और अभ्यास से वापी अपना दुसस अनुबह प्रधान करती है। कवित्व-शक्ति के कृश होने पर भी परिश्रमी व्यक्ति विद्वानों की मोष्ठी में विश्व प्राप्त करता है । इससे जात होता है कि दण्डी प्रतिमा के समान में भी मात्र व्युत्पत्ति और अभ्यास के द्वारा काव्य-नयना स्वीकार करते है। आमाबावर्षद नै प्रतिभा का महत्व स्वीकार करते हुए लिखा है कि-उस मास्वाद पूर्व अर्थतत्व को प्रकाशित करने वाली महाकवियो की वाणी माविक स्फुरणशील प्रतिभा के वैशिष्ट्य को प्रकट करती है। इतना ही नही उन्होंने अव्युत्पत्तिजन्य दोष को प्रतिमा के द्वारा आच्छादित होना भी स्वीकार किया है' अर्थात् आनन्दवर्धन ने प्रतिभा को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया है। लोचमकार ने प्रतिभा की व्याख्या करते हुए लिखा है कि पूर्व बस्तु के निर्माण में समर्थ प्रज्ञा को प्रतिभा कहते हैं। मम्मट ने काव्य-कारण प्रसंग में लिखा है कि शक्ति, लोक (व्यबहार) शास्त्र तथा काव्य मादि के पर्या लोचन से उत्पन्न निपुणता और काव्य (की रचना शैली तथा बानोचना पति) को १ नैसर्गिको च प्रतिभा अतं च बहुनिर्मलम् । अमन्दश्चाभियोगोस्या' कारण काव्यसम्पद ।। -काव्यावर्ष, ११.३। २ म विद्यते यद्यपि पूर्ववासनागुणानुबन्धि प्रतिभानमतम् । बतेन मलेन च वागुपाखिता न करोत्येव कमप्यनुग्रहम् ॥ कथे कवित्वेऽपि जना. कृतधमा विदग्भगोष्ठीषु विहाँ मीपाते। ३. सरस्वती स्वादु तदर्थवस्तुनिष्यन्दमाना महा कवीनाम् । अलोकसामान्यमिन्यनक्ति प्रतिस्फुरन्त प्रतिमाविशेषम् ।। ४. बध्युत्पत्तिको दोषः सत्या संवियते कवे । बस्त्वशक्तिकृतस्तस्स मटित्यवभासते ।। -वन्यालोक, शान्ति। ५. अपूर्ववस्तुनिर्माणमा मा (प्रतिमा)। वही, बोपन, ११ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arrerator reaारशास्त्र में योगदान रेख जानने वाले गुरू की शिक्षा के अनुसार (काव्य-निर्माण बास ( freer समष्टि रूप से) उस ( काव्य ) के विकास (म) के हेतु है सम्म एकवचन का प्रयोग किया है." और अभ्यास ये तीनों मिल ने अपने इन काव्य-हेतुओं मे 'हेतु.' इस जिसका तात्पर्य यह है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति काव्य के उद्भव में हेतु हैं, पृथक पृथक नहीं U ' इति श्रय' समुदिताः, न तु व्यस्ता', तस्य काव्यस्योद्मवे निर्माण समुल्ला 'हेतुर्न तु हेत'" ।" जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने प्रतिभा को ही काव्य का हेतु स्वीकार किया है तथा शेष व्युत्पत्ति और बन्यास को क्रमश विशेष शोभाजनक और शीघ्र काव्य निर्माण में सहायक कहा है । पुन तीनों का स्वरूप निरूपण करते हुए लिखा है कि-प्रसादादि गुणो वाले रमणीय पदों से नवीन अर्थ की उद्भावना करने मैं समर्थ कवि की सर्वतोमुखी बुद्धि का नाम प्रतिभा है । गुरु-परम्परा से प्राप्त व्याकरणादि शास्त्रों के असाधारण ज्ञान का नाम व्युत्पत्ति है तथा गुरु के समीप में बैठकर निरन्तर अबाध गति से काव्य-रचना करने का नाम अभ्यास है । इसमें अभ्यास के प्रकारो मे बतलाया गया है कि काव्य-रचना हेतु सर्व प्रथम रमणीय सन्दर्भ का निर्माण करते हुए अर्थशून्य पदावली के द्वारा समस्त छन्दो को वश मे कर लेना चाहिये ।" आचार्य हेमचन्द्र ने केवल प्रतिभा को हो काव्य १ शक्तिनिपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् । का यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुभये ।। २ वही, ११३ । वृत्ति । ३ प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्तिस्तु विभूषणम् । शोत्पत्तिकृदम्यास sarsafaiser | ४ प्रसन्नपदन व्यार्थ युक्त्युद्बोष विधायिनी । स्फुरन्ती सत्कवेर्बुद्धि प्रतिभा सर्वतोमुखी ॥ शब्द मर्च का मादिशास्त्रेष्वाम्नायपूर्विका । प्रतिपतिरसामान्या व्युत्पत्तिरभिधीयते ॥ अनारतं गुरुपान्ते य काव्ये रचनादर | वमभ्यास विदुस्तस्य क्रम कोऽप्युपदिश्यते ॥ ५. fereer anaeroत्व पदावल्यार्थ शून्यमा । कुर्वीत काव्याम बन्दांसि निखिलान्यपि ॥ # - काव्यप्रकाश, ११३ · -वाग्भटालंकार, १३ ११४-६ -वही, ११७ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HREE प्रतिभा से प्रकार की होती है साहना और बाकिलो । साए लापमान मान के होने वाली सहजा और मन्त्रादि से उत्पन होने वाली बापाविकी कहलाती है। राबशेखर ने सर्वप्रथम प्रतिभा के दो भेद किए हैकापणी और भावविधी। पुन कारयित्री के दीन भेद माने है-महणाबाहायर मार औपाधिको । कि हेमचन्द्र ने व्युलत्ति बौर सम्मान को प्रतिमा का कारक माना है, मत व्युत्पत्ति और अभ्यास काव्य के सामान हेतु नहीं कि प्रतिभारहित मुत्पत्ति और अभ्यास विमान के मए है। यहाँ यह है कि हेमचन्द्र ने यद्यपि दणी का साक्षात् उल्लेख नहीं किया है क्यापि उस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने खण्डीके विद्यते यद्यपि पूर्ववासना ।' इत्यादि कथन का खण्डन अवश्य किया है। मरेन्द्रसमसूरि, अक्तिन' और बाग्मट-द्वितीय हेमचन्द्र की तरह व्युत्पत्ति और अम्मास ये संस्कृत प्रतिभा को ही काव्य का हेतु मानते हैं। मावदेवसरि प्रतिभा, व्युत्पत्ति बीर अम्मास के सम्मिलित रूप को काव्य का हेतु मानते हैं। सिद्धिचन्द्रगेणि ने मम्मट-सम्मत-काव्य-हेतुओं का खण्डन करते हुए लिखा है कि-'हिम्मादावपि काव्योमवदर्शनात, शक्तेरेव हेतुत्वात् ५० वर्षात हिम्म (बालक) मादि में भी १ प्रतिभाष्य हेतु । -काव्यानुशासन, ११४ ॥ २ व्युत्पत्यभ्यासाभ्यां सस्कार्या। - बहो, १७ ३. सम्बरणक्षयोपशमात्रात् सहना । मन्त्रावरोपाधिकी। वही १५-६ । ४. काव्यमीमांसा, पृ. ३२ । *बत एव तो काव्यस्य सम्बात्कार प्रतिमोपकारिणी तु भवतः। वृष्येते हि प्रतिमाहीनस्य विफलो व्युत्पत्यम्यासी । ६. कारण प्रतिकात भुत्तत्यासामिला। पीचं नांकुरस्येव काश्यपी-जमसंगतम् ॥ संकारमहोदधि, १६ । ७. व्युत्पाबम्बासा सदायघटनापटा। वीवशालिनी प्रतिभास्य श्री अकारचिन्तामणि, १६ ! ., व्यत्ययासकवा प्रतिमास्क हेतु । --काम्यानुवासना .२ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचायों का अर्थकारशास्त्र में योगदान -सर्जना शक्ति दिखलाई देने से शक्ति ( प्रतिभा ) ही काव्य का हेतु है । इस खण्डन के मूल मे सिद्धिचन्द्रगणि पण्डितराज जगन्नाथ से प्रभावित प्रतीव होते हैं।' पण्डितराज जगन्नाथ केवल प्रतिमा को ही काव्य में हेतु मानते हैं, यह कही देवता अथवा महापुरुष के प्रसाद से उत्पन्न अदृष्ट रूप होती है मौर कही विलक्षण व्युत्पत्ति और अभ्यास से जन्य । 2 1 , उपर्युक्त काय हेतु विवेचन को ध्यान मे रखते हुए कहा जा सकता है कि आचार्य भामह ने काव्य हेतु प्रसग मे प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास इन तोनों का समान रूप से उल्लेख किया है, किन्तु प्रतिभा पर अधिक बल दिया है, अत. ऐसा प्रतीत होता है कि वे काव्य-हेतुओं में प्रतिभा को विशिष्ट मानते थे दण्डी ने यद्यपि प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास इन तीनो को समान रूप से स्वीकार किया है, किन्तु वे कही कहीं प्रतिभा के अभाव मे भी मात्र व्युत्पत्ति और अभ्यास के द्वारा काव्य-रचना स्वीकार करते है । अत इनका मत अन्य समस्त आचार्यों से पृथक् है । आनन्दवर्धन प्रतिभा को ही प्रमुख हेतु मानते हैं। मम्मट प्रतिमा, व्युत्पत्ति और अभ्यास के सम्मिलित रूप को काय हेतु स्वीकार करते हैं, जिसका समर्थन जैनाचार्य भावदेवसूरि ने भी किया है। भावदेवसूरि को छोडकर शेष समस्त जैनाचार्यों ने व्युत्पत्ति और अभ्यास से संस्कृत प्रतिभा को ही काय हेतु स्वीकार किया है, जिसका समर्थन परवर्ती प्रमुख विद्वान् पंडितराज जगन्नाथ ने किया है, जो इन मतों की विलक्षणता का परिचायक है । काव्य स्वरूप * किसी भी वस्तु का स्वरूप निरूपण करना असम्भव नही तो श्रमसाध्य अवश्य है । सामान्यत वस्तु का स्वरूप तब तक पूर्णत शुद्ध नही माना जाता है, जब तक कि वह बत्र्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव इन तीनों दोषो से रहित न हो । अत जिस स्वरूप में उपर्य क्त दोषो का अभाव होगा, वही शुद्ध स्वरूप माना जायेगा । प्राचीनकाल से अद्यावधि काव्य के स्वरूप पर विभिन्न आचार्यों ने विचार किया है। उपलब्ध काव्य-स्वरूपों में मामह-कृत काव्य-स्वरूप सबसे प्राचीन है । १ द्रष्टव्य न तु त्रयमेव बालादेस्तो बिनाऽपि केवलान महापुरुषप्रसादादपि प्रतिभोत्पत्ते । -- रसगंगाधर, पु० २९ । २ तस्प काव्यस्य ) कारणं कविगता केवला प्रतिभा । तस्याश्च हेतु क्वचिद महापुण्यप्रसादादिजन्यमदृष्टम् क्वचिच्च विलक्षणव्युत्पत्तिकाव्यकरणाभ्यासी । -वही, पृ० २७-२६ । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में काम को लेकर विभिन्न धारणाएं पति कोई मामा केवल शब्द और कोई कमाल अ को काम की बात करते । विसका संकेत व गादि परवती अपायोस्प होता है। मामह ने इसी बन्द को समास करने की पिटासे एक हे काव्य साका विधान किया, जिसमें पाद और अर्थ दोनों को समान रूप से चित साल मिल सके। भामह के इसी सुवीर्ष चिन्तन का परिणाम याची माहिती काग्यम् ' लेकिन यह काव्य-स्वरूप दुखणीवियों को अधिक माही सका। क्योकि यह बतिब्वाप्ति पोष से प्रस्त या खवा इसमें सामान्य गच-पाच रचना का भी समावेश सम्भव था। मत पण्डी ने इसी का परिष्कार करते हुए काव्य-स्वरूप निरूपण किया और लिखा कि-अभिलषित मर्यको अभिव्यक्त करने वाली पदावली का नाम काव्य है किन्तु भामह और बडी के उक्त काव्य-स्वरूपों में कोई मौलिक भेद नहीं है। अभिलवित मार्य और पदावली (शब्दावली) भामह के सब्द और अर्थ हैं। अत. बण्डीकृत काव्य. स्वरूप भी उक्त अतिव्याप्ति दोष से मुक्त न हो सका । समवत शब्द और अर्थ को काव्य मानने वाले इन्हीं आचार्यों की भोर वानन्दवर्धन ने शादाबरीरं तावत्काध्यम्' इस पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत पक्ति द्वारा सकेत किया है। इस समय तक विद्वानों का ध्यान केवल काव्य के शरीर तक ही सीमित था। चूंकि शरीर है, इसलिए उसकी मारमा भी होनी चाहिए । यही सोचकर उत्तरवर्ती विद्वानों ने काव्य की बात्मा पर भी विचार करना प्रारम्भ किया। वामन का 'रीतिरात्मा काव्यस्य'५ और मानन्दवर्षन का काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति" इसी दिशा में स्तुत्य प्रयास हैं। मानन्दवर्षन का व्यनि-स्वरूप १. कषांचिन्मतं कविकोशलकल्पितकमनीयतातिशयः सब्द एक केवळ काव्यमिति । केषाविद् वायमेव रचनावविश्यचमत्कारकारि काव्यमिति । -वक्रोक्तिजीवित, १७ वृति। २ काव्यालंकार, १।१६।। ३ पारीर तावविधार्थव्यवछिन्ना पदावली। -भावावर्ग १ । ४ वन्यालोक, ११ वृत्ति। . १. काभ्यालंकारपून रारा । ७ मार्य:शब्दोवा मर्षमुपसर्वनीकृतवायी। व्यंका काविशेषः स ध्वनिरिति सूचित काही १३ ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैव का अकास्में निदान एक उपाय काव्य की और संकेत करता है। स्वरूप पर व्यापक दृष्टि से विचार करने वाले संभवतः माचार्य क है। उन्होंने काव्य-स्वरूप निरूपण करते हुए लिखा है कि-दोषरहित, गुण-संहित और कहीं-कहीं स्पष्ट ) चर्मकार रहित (साधारणत अलंकार सहित ) और वर्ष के समूह का नाम काव्य है । इस स्वरूप में मम्मट मे शब्द और वर्थषी' नादिविशेषण प्रस्तुत कर निश्चय ही प्रशंसनीय कार्य किया है । पिपरवर्ती जाचार्य विश्वनाथ और पण्डितराज जगन्नाथ ने उनके की कड़ी वालोचना की है तथापि यह उतना त्रुटिपूर्ण नहीं है, जितना उसे अनाया गया है । विश्वनाथ और पण्डितराव जगन्नाथ आदि स्वतंत्र शिकायों को छोड़कर शेष आकायों के काव्य स्वरूपों पर प्राथ मम्मट का प्रभाव लक्षित होता है। समस्त नाचार्य प्राथ सम्मट के अनुगामी हैं । जैनाचार्य वाग्भट-प्रथम ने काव्य स्वरूप पर विचार करते हुए लिखा है कि-सुन्दर शब्द मीर अर्थों से युक्त, गुण और अलंकारों से सूषित, स्पष्ट रीति और रसों से युक्त काव्य कहलाता है । इस स्वरूप में मम्मट की अपेक्षा सामान्यत निम्न तीन विशेष बातें दिखलाई देती हैं al १ वाग्भट - प्रथम द्वारा स्पष्ट रीति और रस का समावेश । २ काव्य मे अलंकार की स्थिति अनिवार्य मानना । ३ अदोषी विशेषण का प्रभाव । - हेमचन्द्राचार्य ने काव्य-स्वरूप निरूपण करते हुए लिखा है कि--दोषरहित, गुण और अलंकार सहित ( कही-कहीं अलंकार रहित भी) शब्द और अर्थ काव्य है । मम्मटोस्थिति और हेमचन्द्रसम्मत काव्य स्वरूप मे पूर्णत साम्य है । नरेन्द्रप्रसूरि मे मम्मट सम्मत काव्य-स्वरूप में कुछ अपनी बात का समावेश करते हुए लिखा है कि--दोष-रहित, गुण, अलंकार और व्यंजनासहित काव्य कहलाता है। इस स्वरूप मे 'सभ्यंजनस्तथा' यह विशेषण दिया २. तददोषी शब्दाची सगुणावनलकती पुन क्वापि । २ साधुशब्दार्थसन्दर्भ गुणालंकार भूषितम् । स्फुटरीतिरसमेतं काव्यं .. #1 प्रकरण ११४ । मटाकार ११२५ ३. मदोषी सगुणी सालकारी च शब्दायी काव्यम् । काव्यानुशासन, ११११ # ४. निर्दोषः सगुण साकृत सम्म जनस्तथा । चारच विपाचया हि विगाहते ॥ अकारमहोदधि, १११३ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..KRI RS.. RELATEST के बार-काय नायक प्रदीय मेव के स्वरूप में व्यंजना को मिलायका मलेश नहीं किया है, जिससे उनका यह काम AR मे मावत' है। मन त जिवषय सदोष है। विनयचनमूरि ने सुबाहित सम्बर मार्च को कान्य स्वीकार किया है । इसके ऐसा माहीत होना है की गुणों को अत्यधिक महत्व देने में प्रति विमति के बार में गुणों की कदापि उप्रेक्षा नहीं की माली हैजीवास्तविकता के सिमट है। विजयवर्णी ने काव्य-स्वरूप.प्रस्तुत करते हुए विवाह कि-ब-रशिक, प्रासहित, रीति, वृत्ति, शम्या और रस से युक्त प्रपा मसंकार और पाक सहित अवार्य-रचना जिसमें उत्तम हो वह काव्य है। प्रस्तुत स्वरूप में विजयबारी ने बुति, सम्या और पाक का प्रथम बार समाल किया है। इसके पश्चात् आचार्य अजितसेन का समय माता है, उनके समन अनेक वाचायों के साथस्वरूप विद्यमान थे। बत उनके मस्तिष्क में एक ऐसा स्वरूप बनाने का संकल्प था, जिसमें सभी प्रमुख बाचार्यों के प्रमुख सिमान्तो का समावेश हो, कोई भी तत्व उससे अछूता न रह जाए । इसी आकांक्षा को साकार रूप देते हुए उन्होंने काव्य-स्वरूप निरुपण करते हुए लिखा है कि-सुख चाहने वाला अनेक शाली का शाता और प्रतिभाशाली कवि शब्दालंकारों और अर्यालंकारों से युक्त भृङ्गारादि नौ रसों के सहित, वैदर्भी इत्यादि रीतियों के सम्बक प्रयोग से सुन्दर, व्यंग्यादि अर्थों से समन्वित, अतिक्टु इत्यादि दोषो से शून्य, प्रसाद बोर माधुर्यादि गुणों से युक्त, नायक के चरित वर्णन से सम्पुक्त, उमय-लोक हितकारी एवं सुस्पष्ट काम ही उत्तम काव्य होता है। यदि प्रस्तुत काय | १ अन्वायो सगुणी कामम् ।-काव्यशिक्षा, ११ २ भदोष समुणो रीतितिशबारसाग्वितः । सालंकार' सपाकाच शबापरचमोत्तम ।।-अमारार्णवचन्द्रिका ३. शब्दार्थालंकृतीब, नवरसकलित रीतिभावानियमन । व्यमावर्ष विदोष गुमागमकलित नेतृसमर्थनासम्.. लोको बन्दोपकारि सटमिह सतुतात् कायमस्य सुखानी मालामाजीयाः कविरतुनमति: पुण्यवानुम् ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचायों का बलकारशास्त्र में मोमवान स्वल का सूक्म दृष्टि से अबलोकन किया जाब तो भास होता है कि इनके पूर्व बावकारिकों में प्रचलित जो रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति और ध्वनिरूपाच सम्भवाय थे, उनका सम्यकरूपेण समावेश किया गया है। इतना सष्ट और विस्तृत काम्प-स्वरूप अन्यत्र देखने में नहीं पाया है, लेकिन इसका कलेवर इतवा बृहत् हो गया है कि सामान्य काव्य-रचना इसके अन्तर्गत मा सकेमी । वाग्मट-द्वितीय ने दोष-रहित, गुण-सहित तथा प्राय अलंकार जिसमें हों ऐसे शब्दार्थ-समूह को काव्य कहा है । यह मम्मट के काव्य-स्वरूप को पुनरावृत्ति मात्र है। इसी प्रकार भावदेवसूरि सहृदयों के लिए इष्ट, दोष-रहित सदगुणों और अलंकारो से युक्त शब्दार्थ-समूह को काव्य मानते है। इस स्वरूप लेखन के मूल में भी मम्मट के काव्य-स्वरूप की ही भावना प्रधान है। सिरिचन्द्रगणि ने मम्मट के काव्य-स्वरूप का खण्डन करके साहित्यदर्पणकार के 'वाक्य रसात्मक काव्यम्' इस स्वरूप का समर्थन किया है। मम्मट सम्मत काव्य-रूप के खण्डन में उन्होने साहित्य-दर्पणकार के तर्कों का ही सहारा लिया है, उसके सम्बन्ध में कोई नवीन बात नहीं कही है। उपयुक्त काव्य-स्वरूपो को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि मम्मट के समय तक काव्य के समस्त अगो पर समान रूप से विचार किया जाने लगा था। चूंकि वाग्भटादि जैनाचार्य उनके परवर्ती है, अत उन्होने भामहादि प्रारम्भिक आचायों की तरह मात्र काव्य के शरीर पर हा विचार न कर उसके सम्पूर्ण अगों पर विचार किया है और यही कारण है कि जैनाचार्यसम्मत काव्य-स्वरूपों पर प्राय मम्मट का प्रभाव दिखाई देता है। आचार्य वाग्भट-प्रथम ने मम्मट के काव्य-स्वरूप मे एक-दो नवीन तत्वो का समावेश किया है, जिसमे रीत प्रमुख है। किन्तु सामान्यतया विद्वान् रीति को काव्य मे आवश्यक नहीं मानते हैं। हेमचन्द्राचार्य पूर्णत मम्मट के अनुपायी है। नरेन्द्रप्रभसूरि ने मम्मट के काव्य-स्वरूप मे 'सव्यवनस्तपा' यह १ शब्दाची निर्दोषी सगुणी प्राय सालंकारी काव्यम् । -काव्यानुशासन-वाग्भट, पृ. १४ । २ शब्दायों भवेत्काव्यं तौ च निर्दोष सद्गुणौ । सालंकारी सतामिष्टावत एतम्निरूप्यते । काव्यालकारसारसंग्रह १५. ३. काव्यप्रकाश-सण्डन, पृ. ३ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी के काम में मानायक सनी लोका समाधार मनmarks का परिहार स्वीकार करते हुए प्रतीत होते है। विमान के सपने का स्वरूप में वृत्ति सम्बा और पाक का प्रथम बार समाश किया है। जिसका में पूर्व प्रचलित रस, अलंकार, रीति, बकोक्ति और निपपांच सम्मान को अपने काव्य-स्वरूप में समान रूप से स्थान दिया है। बाम-दितीय और भावदेवसूरि मम्मट के ही अनुयायी है। सिविषयमणि मायके स्वरूप से असहमत हैं, इस प्रसंग में उन्होंने साहित्यदर्पणकार को ही बाप इस प्रकार जैनाचार्यों ने अपनी नवीन सूझ-बूझ के साप काव्य-स्वरूप में कुछ नवीन तथ्यों का समावेश अथवा अनावश्यक का त्याग करते हुए अपना मत प्रस्तुत किया है। जिसमे उन्होंने प्रारम्भ से चली बाई परम्परा को, अक्षुण्ण बनाए रखने का सफल प्रयास किया है तथा काव्य-स्वरूप पर विभिन्न पष्टिकोणों से विचार कर एक नवीन चेतना का संचार किया है। काव्य-भेद अलंकार शास्त्र मे करण्य-मेवो का विभाजन विभिन्न भाषारों को लेकर" किया गया है। सर्वप्रथम आचार्य नामह ने चार बाधार प्रस्तुत किये है१-छन्द के माधार पर-पाच और पद्य । २-भाषा के माधार पर सत, प्रातबार मात्र ३--विषयवस्तु के मापार परवसा आदि का प्रतिवर्ष कपिकाला । प्रस्त, कलाबित नीर शालाभित ', . स्वरूप विधान के मार कर-सवय (महाकाव्यो अभिनय (मा बाल्यायिका, कथा और अनिवड (मुक्तक)। दणी ने छन्द के आसार पर भामह-सम्मत मध और Hat एक मिष नामक तृतीय भेद भी स्वीकार किया है। जिसके निशान नाटक. धादि है। इसके अतिरिक्त उन्होंने पम्पू को भी मिल के अन्तर्गत एक नवीन 514 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाचाबी का बलकारमा योगदान "भामह के समर्थक है। कथा कथा में सामान्यत कविकल्पना प्रसूत वर्णन किया जाता है। भामह के अनुसार इसकी रचना सस्कत, प्राकृत और अपभ्रश में होती है, इसमें बल और अपरवध नामक छन्दों तथा उच्छवासो का अभाव होता है। इसके पतिरिक्त उसमे नायक अपना चरित स्वय नहीं कहता है, अपितु किसी अन्य पति से कहलाता है, क्योकि कूलीन व्यक्ति अपने गुण स्वय कैसे कहेगा। वण्डी कला और मास्यायिका में कोई मौलिक भेव न मानकर एक ही जाति के दो नाम मानते हैं। नमके अनुसार कथा की रचना समो भाषामो तथा सस्कृत में भी होती है। अद्भुत अर्थों वाली बृहत्कथा भूनभाषा मे है। मानन्दवर्षन ने काव्य के भेदो मे प रकथा, खण्डकथा और सकलकवा का उल्लेख किया है। अग्निपुराणकार ने कथा के स्वरूप में कुछ नवीन बातों का समावेश किया है। यथा-कवि संक्षेप मे कुछ पद्यों द्वारा अपने वश की प्रशंसा करता है, मुख्य कथा के अवतरण हेतु भवान्तर कपा का संयोजन करता है तथा विमान परिच्छेदों मे न होकर लम्बको मे होता है। ___ जैनाचार्य हेमचन्द्र ने कया का स्वरूप निरूपम करते हुए लिखा है कि जिसमें धीर प्रशान्त नायक हो तथा जो सर्व-भाषाओ में निवड हो ऐसी गब अथवा पद्यमयी रचना कथा कहलाती है। इस स्वरूप मे हेमचन्द ने दण्डी की - १ तत्र नायिकात्यातस्ववृत्तान्तामाव्यर्षसिनी सोच्छवासा कम्पकापहारसमा गमाभ्युदयभाषिता मित्राविमुखाल्यातवृत्तान्ता अन्तरातराप्रविरलपवन्या पास्यायिका। --काव्यानुशासन-बाग्भट, पृ० १५॥ २ काव्यालकार, ०२८-२९।। ३ तत् कयास्यायिकत्येका जाति संझाइयांकिता। -काबाद, ११२। ४ वही, ११३८ ५ बन्यालोक, ३७ वृत्ति। १. अग्नि पुराण का काव्यशास्त्रीय भाग, १११५-१६ । ७. धीरवातनामा बेन पना सर्वमापा कया। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का बन नहीं रखा है। अनुसार संस्कृत, पैशाची और अपन में भी कथा का वि किया जा सकता है ।" हेमचन्द्र ने कथा के दस भेद किए हैं-आख्यान नि का मसिकुल्या, परिका, कना, सकलकवा, उपप्रत्येक का स्वरूप निम्न प्रकार है- या वृतका आस्थान- प्रबन्ध के मध्य मे दूसरे को समझाने के लिए नलादि उपाख्यानकी तरह उपाख्यान का अभिनय, पाठ अथवा गान करते हुए जो एक ग्रन्थिक (ज्योतिषी) कहता है, वह योविन्द्र की तरह आख्यान कहलाता है।" निदर्शन - पशु-पक्षियों अथवा तद्भिन्न प्राणियों की चेष्टाओं के द्वारा जहाँ कार्य अथवा अवार्य का निश्चय किया जाता है, वहां पंचतन्त्र बादि की तरह तथा धूर्त, विट, कुट्टनीमत, मयूर, मार्जारिका आदि को तरह निदर्शन कहलाता है ।" R प्रवह्निका. -प्रधान नायक को लक्ष्य करके जहाँ दो व्यक्तियों में विवाद हो, वह आधी प्राकृत मे निबद्ध बेटकादि की तरह प्रवह्निका है । * मतल्लिका- प्रेस (भूत) - भाषा अथवा महाराष्ट्री भाषा में रचित लघुकथा, गोरोचना अथवा अनगवती आदि की तरह मतल्लिका कहलाती है, जिसमें पुरोहित, अमात्य अथवा तापस आदि का प्रारम्भ किये गये कार्य को समाप्त न कर पाने के कारण उपहास होता है, वह भी मतल्लिका कहलाती है । * १. काव्यानुवासन, कावृति । २, ये परप्रबोधनार्थं नलाद्युपाख्यानमिवोपाख्यानमभिनयत् पठन् गायन पर्वको मम्पिकः कथयति तद् गोविन्दवदाख्यानम् । - वहीं, वृत्ति । तिरपचामतिरश्चां वा पेष्टामित्र कार्यमकार्य वा निश्चीयते तत्पंचतन्त्रा:-- दिवत् कुट्टनीमतमयूरमारिकादिवच्च निदर्धनम् । -agt, sic que IV ४. १ अपिल बगइयोविवाद सोऽर्थप्राकृतरचिता पेटकादिवत् प्रवह्निका । 74 $ ५ तमहाराष्ट्राचा नवा गोरोचना भगवत्यादिना । यस्यां पुरोहितामात् V * Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र जैनाचार्यों का बसंकारशास्त्र में योगदान , इसका स्वामिभाव हास है। भरतमुनि ने इसकी उत्पत्ति विकृत वैष, अकारादि विभावों से मानी है।' उनके अनुसार हास्य छ' प्रकार का होता है-स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपदसत और अतिहसित । प्रथम दो प्रकार का हास्य उत्तम पुरुषो में, मध्यम दो प्रकार का हास्य मध्यम पुरुषों में तथा अन्तिम दो प्रकार का हास्य अधम पुरुषो में पाया जाता है। यह आत्मस्थ और परस्थ के भेद से भी दो प्रकार का होता है। जब किसी भी वस्तु के दर्शनादि से स्वय हंसता है, तब आरमस्थ कहलाता है और जब दूसरे को हंसाता है, तब वह परस्थ व हलाता है। जैनाचार्य आयरक्षित के अनुसार रूप, वय (अवस्था), वेश और भाषा की विडम्बना से उत्पन्न रस हास्य है । मन के हर्षित होने से प्र, नेत्र आदि का विकसित होना इस रस के चिन्ह (अनुभाव) हैं। यथा-कज्जल की रेखा से युक्त सोये हुए देवर को जागा हुआ देखकर स्तन के भार से कम्पित और जिसकी कमर झुकी हुई है, ऐसी श्यामा खिलखिला कर हंस रही है। वाग्भटप्रथम ने वेश आदि की विकृति से हास्य की उत्पत्ति मानी है। उनके अनुसार यह उत्तम, मध्यम और अषम प्रकृति के भेद से तीन प्रकार का है। महापुरुषो के हास्य में केवल कपोलो और नेत्रों में हास्य रहता है तथा ओष्ठ बन्द रहते हैं। मध्यम पुरुषो के हास्य मे मुख खुल जाता है और अधमो का हाम्य शब्दपूवक होता है । हेमचन्द्र ने लिखा है कि स्मित, विहसित और अपहसित के भेद से आत्मस्थ हास्य तीन प्रकार का होता है, तथा क्रमश उत्तम, मध्यम और अधम प्रकृ त में पाया जाता है। इसी प्रकार हसित, उपहसत, और अतिहसित के भेद से परस्थ भी तीन प्रकार का होता है, जो क्रमश उत्तमादि प्रकृतियो मे पाया जाता है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने टिकृत आचरण और आश्चयकारी चेष्टाओ से हास्य-रस की उत्पत्ति मानी है तथा उन्हें हास्य के भरत-सम्मत भेद ही मान्य हैं। नरेन्द्रप्रभसूरि ने आत्मस्य और परस्थ के १ नाट्यशास्त्र, ६४८, पृ०७४। २ वही, ६१५२-५३। वही, ६४, पृ०७४। ४ अनुयोगद्वार सूत्र (वित्तीय भाग), पृ०३ । ५. धाग्भटालकार, ५२२६-२४ । ५ काव्यानुशासन, रा१०-११। . हिन्दी नाट्यवर्षण, ३।१२-१३॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बयान : रस-विचार १४३ मंद से हास्य दो प्रकार का जाता है ।" विजय के सर्वप्रथम हास्य के तीन भेद किए हैं-उत्तम, मध्यम और बधम । पुन स्थित बौर हसित की उम विहसित और उपहति को मध्यम तथा यपहसित कौर विहसित को अ माना है । अजितसेन ने हास्य के केवल तीन भेद किये है-उत्तम, और अधम ।" वाग्भट द्वितीय ने हास्य के तीन भेद माने हैं-स्मित, विहसित और अपहसित । पद्मसुन्दरमणि ने अजितसेन की तरह हास्य के उत्तमादि तीन भेद किए हैं । * सिद्धिचन्द्रमणि ने स्मित, हसित और अतिहासित को उत्तम - मध्यम पुरुषों मे अनुभाव स्वीकार किया है।" उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि जैमाचायों ने हास्य रस की उत्पत्ति विकृत देश आदि से ही स्वीकार की है तथा उन्हें हास्य के वे ही भेद स्वीकार हैं, जिन्हें अन्य आलंकारिकों ने स्वीकार किया है । करुण रस इष्ट के विनाश और अनिष्ट के संयोग से उत्पन्न होने वाला करुण रस कहलाता है । इसका स्थायिभाव शौक है। भरतमुनि ने शाप, क्लेश, विनिपाल, इष्टजन-वियोग, विभाव-नाश, वध, बन्ध, विद्रव, उपचात गोर व्यसन आदि विभावों से करुण रस की उत्पत्ति मानी है । ७, - जैनाचार्य आरक्षित ने लिखा है कि प्रिय के वियोग, बन्धन, वाहन, रोग, मरण और संभ्रम आदि से करुण रस की उत्पत्ति होती है । शोक, विलाप, मुख की म्लानता और रुदन आदि इसके चिह्न (अनुभाव ) हैं । यथा - प्रिय विषयक चिन्ता से मलिन चित्त और आंसुओं से भरी आंखों वाली है पुत्री ! उसके वियोग मे तेरा मुख कृश हो गया है ।" वाग्भट-प्रथम ने चौक से उत्पन्न रस को करुण कहा है। * हेमचन्द्र के अनुसार इष्ट-विनाथ आदि विभाव, देवोपालम्भ आदि अनुभाव, निर्वेद-ग्लानि बादि दुःखमय व्यभिचारिभाव और शौक रूप स्थायिभाव वाला करुण रस है । रामचन्द्र गुणचन्द्र, ११ नरेन्द्रप्रभ १ अलंकार-महोदधि, २११७ वृत्त । ३. वर्तकार - चिन्तामणि, ५।२६-१०० ५. अकबरसाहित्य गारवर्षण, ४१२३, २५ । ६ काव्यप्रकाशन, पृ० १६ । ८. अनुयोगद्वारसूत्र, द्वितीय भाग, पृ० ६ २. पाटाचंकार, १२२ । १०. काव्यानुवाच २११२ । ११. हिन्दी ३१४ 1 २. गारार्णव चन्द्रिका ३१६६-०० ॥ ४ काव्यानुशासन, नाम् ० ५५३ ७. नाट्यशास्त्र, ६६६, ०७५३ xd J Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जनाचार्यों का बलकारखाव में योगदान भरि, विषयवी, २ अणितसेन,' वाग्भट-द्वितीय और पद्मसुन्दरमणि ने समान रूप से करुण रस का विवेचन किया है, जिसमें करुण रस के विभाव, बानुभाव और व्यभिचारिभावो का उल्लेख करते हुए उसके स्थायिभाव पर प्रकाश डाला है । यह विवेचन भरत-परम्परा का पोषक है। रौद्र-रस . इसका स्थायिभाव क्रोष है। इसकी उत्पत्ति शत्रु द्वारा किये गये अपकार बादि के द्वारा होती है । भरत ने इसे राक्षस, दानव और उक्त पुरुषो के माश्रित माना है। यह रौद्ररस क्रोध, घर्षण, अधिक्षेप, अपमान, झूठ वचन, कठोर वाणी, द्रोह और माल्लय आदि विभावो से उत्पन्न होता है। __ जैनाचार्य आर्यरक्षित ने रौद्र रस का विवेचन करते हुए लिखा है किभयोत्पादक रूप, शब्द और अन्धकार के स्वरूप-चिन्तन से तथा तविषयक कथाओ के स्मरण से उत्पन्न समोह, सभ्रम विषाद और मरण रूप चिह्नो (अनुभावो) वाला रौद्ररस है। यथा-पशुहिसा मे प्रवृत्त किसी हिंसक से कोई धर्मात्मा कह रहा है-भृकुटि से भयावह मुख वाले, अधरोष्ठ को चबाने वाले, खून से लथपथ, भयकर शब्दो वाले राक्षसो के सहश तुम पशु की हिंसा कर रहे हो। अत तुम अति रौद्र-परिणामी रौद्र हो । वाग्भट-प्रथम के अनुसार रौद्र रस क्रोधात्मक होता है और क्रोध शत्रु द्वारा क्येि गये पराभव से होता है। इसका नायक भीषण स्वभाव वाला, उग्र और विरोधी होता है। अपने कन्धो को पीटना, आत्म-प्रशंसा, अस्त्र फेंकना, भृकुटि चढ़ाना, शत्रुओ की मिन्दा तथा मर्यादा का उल्लघन ये उसके अनुभात्र हैं। हेमचन्द्र ने स्त्रियो का अपमान आदि विभाव, नेत्रो की लालिमा आदि अनुभाव और उग्रता आदि व्यभिचारिभावो से युक्त क्रोध रूप स्थायिभाव वाला रौद्र रस कहा है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र का रौद्र रस विवेचन भरत का अनुगामी है। इसी प्रकार - - १ अलंकारमहोदधि, २।१८। २ शृगारार्णव-चन्द्रिका, ६७४-७७ । ३ अलंकारचिन्तामणि, ५२१०१। ४ काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ० ५५ । ५ बकबरसाहिश गार दर्पण, ४।२६-३१ । ६ नाट्यशास्त्र, ६६३, पृ० ७५ । ७ अनुपोगद्वारसूत्र, प्रथम भाग, पृ. ८४१। ८. वाग्भटालंकार, ५२२६-३० । २ काव्यानुशासन, २०१३ । १० हिन्दी नाट्यदर्पण, ३३१५ । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृवीय समायरस-विचार बरेन्द्रप्रसूरि का विवेचन हेमवत से प्रभावित है।' विषयों के अनुसार रोद्र पी प्रकार का होता है-मात्सर्य बोरसे उत्पन्न । इसके अतिरिक्त उन्होने बरस के विभावादि का भी उल्लेख किया है। जिन विभाषादि से परिपुष्ट ऋोष को बरस मानते हैं। बाग्मट-द्वितीय ने रौद्र के विभाव मावि का उल्लेख हेमचन्द्र की तरह किया है। पपसुन्दरमणि का रोदरस विवेचन वाग्भट-प्रथम से प्रभाक्ति है। इस प्रकार रोबरस का सभी बाचायों का विवेचन एक ही सरणी पर आधारित है। वीर-रस इसका स्थायिभाव उत्साह है। भरत ने उत्साह नामक स्थायिभाव को उत्तम प्रकृतिस्थ माना है। उनके अनुसार वीररस की उत्पत्ति असमोह, अध्यवसाय, नीति, विनय, अत्यधिक पराक्रम, शक्ति, प्रताप और प्रभाव मावि विभावो से होती है। जैनाचार्य आर्यरक्षित का बीररस विवेचन धार्मिक दृष्टिकोण को लिए हुए है, उनके अनुसार परित्याग और तपाचरण करने पर सपा यात्रु का विनाश होने पर बननुशय (अहकार-रहित) धृति और पराक्रम पूर्ण चिह्नो (बनुभागों) से युक्त वीररस कहलाता है। यथा-को राज्य का त्याग करके दीक्षित होता है तथा काम, क्रोध-रूप महाशत्रु पक्ष का विनाश करता है, वह महावीर कहलाता है। वाग्भट-प्रथम ने उत्साह नामक स्थायिभाव वाले वीररस के नायक को समस्त श्लाघनीय गुणों से युक्त माना है तथा इसके तीन भेद किए हैंधमवीर, युद्धवीर और दानवीर । हेमचन्द्र के अनुसार नीति आदि विभाव, स्थिरता मादि अनुभाव बोर ति मादि व्याभिचारिभावों से युक्त उत्साह नामक स्थायिभाब बाला वीररस है। इसके धर्मवीर, दानवीर और युद्धधीर ये तीन भेद है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र पराक्रम, बल, न्याय, मन और तत्वविनिश्चय से वीररस की उत्पत्ति मानते हैं, इसका अभिनय धैर्य, रोमाच और दान से १. मलकारमहोदषि, ३।१६ । २. भूमारार्णवधिका ८३ । ३. मलकान्ताभि, ५॥१०५। ४. कानुशासन PHET: ५५ । ५ बरसाहिशुभारपण, ॥३२॥ ६.नाट्यशास्त्र । A. अनुमोबाएन, प्रथम भाग, पृ. ८३३॥ ८. वाग्भटासकार, २ ६ काव्यानुशासन Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्यों का मसंकारयान में योगदान विला जाता है।' उन्होंने वीररस के निश्चित भेद नहीं मावे है, अपितु पुख, बर्म, दान बादि गुणों तथा प्रतापाकषम बाद उपाधि-भेदो से इसके अनेक भेद स्वीकार किए हैं। मरेन्द्रप्रमसूरि का वीररस दिवेचन हेमचन्द्र के समान है। विजयवर्णी ने वीररस के विभावादि का उल्लेख करते हुए वानवीर, दयावीर बोर युद्धवीर ये तीन भेद माने हैं। अजितसन के अनुसार विभावादि से परिपुष्ट उत्साह नामक स्थायिभाव वीररस है, वह दानवीर, दयावीर और युद्धार के भेद से तीन प्रकार का होता है । वाग्भट-द्वतीय का वीररस विवेचन हेमचन्द्र सम्मत है।' पपसु दरगणि ने वीररस के तीन भेव किये है-यावीर दानवीर और युद्धवीर। इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा किया गया विवेचन अपने आप मे पूर्ण है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सामान्यतया वीररस के चार भेद माने जाते हैंदानवीर, दयावीर, युद्धवीर और धमवीर । किन्तु जैनाचार्यों ने केवल तीन भेदो का ही उल्लेख किया है, चार का नही। कुछ आचार्यों ने दयावीर का उल्लेख न कर शेष तीन भेदो का उल्लेख किया है, जिनमे वाग्भट-प्रथम, हेमचन्द्र, नरेन्द्रप्रभसूरि और वाग्भट-द्वितीय आते हैं। ये आचार्य भरत-परम्परा के पोषक हैं। कुछ आचार्यों ने धर्मवीर का उल्लेख न कर शेष तीन भेदों का उल्लेख किया है, जिनमे विजयवर्णी, अजितसेन और पपसुन्दरगणि आते हैं। रामचन्द्र-गुणचन्द्र को वीररस के कोई निश्चित भेद मान्य नहीं हैं। भयानक रस इसका स्थायिभाव भय है। इसकी उत्पत्ति भयानक दृश्यों को देखने से होती है। आचार्य भरत ने विकृत ध्वनि, भयानक प्राणियों के दर्शन, सियार और उल्लू के द्वारा बास, उद्वेग, शून्य-गृह, बरण्य-प्रवेषा, मरण, स्वजनों के वध भयवा बन्धन के देखने-सुनने या कयन करने आदि विभावों से उसकी उत्पत्ति भानी है। १ हिन्दी नाट्यदर्पण, ३।१६। २ वही, ३११६ विवृति । ३ न्यायादिबोध्यः स्थैर्याविहेनुष त्याचपस्कृत । उत्साहो दान-पुष-धर्मभेवो भैररसः स्मृत। -अलकारमहोपषि, ३।२। ४ भूगारावचा निद्रका, ३२८६-६०। ५. अलंकारचिन्तामणि, १०९। ६ काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ० ५६. ७. अकबरसाहित गारवन, ४५ ८ मापवास्थ, ३७९. १ नही, ६६३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ . वाचायों का कारणास्त्र में योगदान बिहार्य और अषितसेन-सम्मत गूढार्प दोष में कोई भेद प्रतीत नहीं होता है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि पद दोषों के प्रसन में जैनाचायों द्वारा किये गये विविध प्रयासों के बाद भी प्राय मौलिकता का अभाव है। पदाशगत-दोष. मम्मट मे पदाशगत दोषो का उल्लेख किया है तथा अतिक्टु, निहतार्य, निरर्थक, अबाचक, अश्लील, सदिग्ध और नेयार्थ इन पदाशगत दोषों के उदाहरणे भी प्रस्तुत किये हैं।' जैनाचार्य हेमचन्द्र और नरेन्द्रप्रभसूरि ने पदक देश (पदांशगत) दोषो को पद-दोष ही स्वीकार किया है। नरेन्द्रप्रमसूरि ने पदाशगत दोषो को पदगत दोष मानते हुए भी मम्मटोल्लिखित उक्त ७ पदांशगत दोषों मे से अश्लील को छोडकर छ दोषों के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। ये उदाहरण वही हैं, जिन्हें मम्मट ने प्रस्तुत किया है। विजयवर्णी ने अतिकटु, निरर्थक, अश्लील सदिग्ध और अवावक इन ५ पदाशगत दोषों का पृषासोदाहरण उल्लेख किया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि विजयवर्णी ने यद्यपि पदाणगत दोषों का उल्लेख किया है तथापि अगले प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि 'पददोष निरूप्याह वाक्यदोष वेधुना' इससे स्पष्ट है कि उन्हे भी पाश दोषो को पृथक् मानना अभीष्ट नहीं है। मम्मट ने पदाशगत दोषो को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार किया है, किन्तु उनके परवर्ती वाग्भट-द्वितीय आदि जैनाचार्यों ने उनका उल्लेख भी नही किया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि उक्त जैनाचार्यों को पृथक् पाशगत दोषों को मानना अभीष्ट नहीं है । आचार्य हेमचन्द्र और नरेन्द्रप्रभसूरि आदि बैनाचार्यों ने पदाश दोषो को स्पष्ट रूप से पद-दोष ही स्वीकार किया है। विजयवर्गी ने यद्यपि मम्मट आदि आचार्यों की तरह पदांश दोषो का सोदाहरण उल्लेख किया है तथापि उनके 'पददोष... ' इस बाद वाले कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हे भी पदांश दोष पृथक् मान्य नहीं हैं। इसी प्रकार अनाचार्य प्राय. पदाश दोषो को पृथक् मानने के पक्ष में नही है। - १ काव्यप्रकाश, पृ. २९५-३००। २ 'पदेकवेश पदमेव'-काव्यानुशासन, पृ. २०० एवं 'पदैकदेशोऽपि पदमेव'-अलकारमहोदषि, पृ. १५३ । ३ अलंकारमहोदधि, पृ. १५३-१५४ । ४ भारावधान्तिका, १.१३४-३६ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाचायों का कारोवा पुनरुक्तत्व - एक ही अर्थ का दो बार कम कर प्रास्यिय सद्विपदलक्ष्मीरिति युक्तमेव । पुष्यलोककान्ता सामन्यकाम्या सुरसोतरा तु ॥ इस प्रकार कहकर एक ही अर्थ को पुन कहते है तस्य कपाटविस्तीर्ण मनोरमोर स्पस्थितीतस्य arefreer seenrage सर्वाङ्गिन्यपरेव लक्ष्मीः ॥२ यहाँ एक ही अर्थ का दो बार कथन होने से दोष है । कहीं पुनरुक्तता गुष्म हो जाती है। हेमचन्द्र ने गुण का उदाहरण निम्न प्रकार दिया है- प्राप्ता श्रिय anaकामदुधास्त' कि दर्श पद शिरसि विद्विषतां तत किम् । सप्रीणिता प्रणयिनो विभक्त कि कल्प स्थितं तनुभूत धनुभिस्तत किम् || " यह निर्वेद के वशीa (उदासीन) व्यक्ति का कपन होने से शान्त रस की पुष्टि करता है, मत यहाँ पुनरुक्तता गुण है, यह हेमचन्द्र का मत है । किन्तु मम्मट ने अनवीकृत्य नामक एक अन्य अर्थदोष माना है तथा उसीके उदाहरण में यह पक्ष प्रस्तुत किया है ।" यत यहाँ एक ही अर्थ का पुन पुन कथन किया गया है, अत कोई नवीनता न होने से मम्मट के अनुसार अनवीकृतत्व दोष है । भिन्नसहरत्व --- उचित सहचर की भिन्नता । यथा- श्रुतेन मुद्धिर्व्यसनेन मूर्खता मदेन जारी सलिकेन निम्मगा । निशा शशाङ्केन धृति समाधिना नयेन वालेक्रियते नरेन्द्रता ॥ यहां श्रुति-बुद्धि आदि उत्कृष्ट सहचरों से व्यसन-मूर्खता रूप निकृष्ट सहचर की मिन्नता भिन्नसहचरत्व दोष है । विरुद्धव्यंग्यत्वविरुद्ध व्यंग्य का भाव । यथा- १. काव्यानुशासन, पु० २६४ । ३. वही, १०२६७ । ५ देखिये काव्यप्रकाश, पृ० २३३ । २. बही, पृ० २६४ ॥ ४ वहीं, पु० २६७ । ६ काव्यानुशासन पु० २६७ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 奇 जैनाचायों का मस्त्रि हैं। इसके साथ ही उन्होंने व्यभिचारिभाव, रखें और स्वादको नाम ग्रहण करने को दोष मामने वाले मम्मटादि के मत की करते हुए यह व्यवस्था दी है कि विभावादि की पुष्टि होने पर व्यभिचारिभावादि को नात ग्रहण करने पर भी दोष नही होता है ।" यहाँ यह उल्लेखनीय है कि परिहरति रति मति लुमीते स्खलतितरां परिवर्तते च भूयः । इति वत विषमा दशास्य देह परिभवति प्रसभ किमत्र कुर्म ॥ इस पथ में बेचैनी आदि अनुभाव शृङ्गार की तरह करुणादि में भी सम्भव हैं, अत कामिनी रूप विभाव की प्रतीति यत्नपूर्वक होने से मम्मट ने विभाग की कष्टकल्पना रूप रसदोष माना है। किन्तु रामचन्द्र-गुणचन्द्र उक्त पद्म में वाक्य दोष मानते हैं। उनका कहना है कि दो रसों में समान रूप से होने are विभावादि arms पदों की किसी एक नियत रस में विभावादि की कष्ट रामचन्द्र - गुणचन्द्र का यह कथन ४ पूर्वक प्रतीति सदिग्धता रूप वाक्यदोष है । एक सीमा तक स्वीकार किया जा सकता है । नरेन्द्रप्रभसूरि" और विजयवर्णी' ने मम्मट-सम्मत ही १० रसदोषी का उल्लेख किया है । यद्यपि अजितसेन ने रसदोषो का विशेष उल्लेख नही किया है तथापि उनकी ओर संकेत अवश्य किया है। उन्होंने रस और भाव का स्वशब्द से ग्रहण दोष माना है। इसी प्रकार अनुभाव की कष्टकल्पना अथवा प्रतिकूल अनुभाव आदि का ग्रहण करना भी दोष माना है।" पद्मसुन्दरमणि ने निम्न ५ ३ अङ्गीश्रावयश्च दोषा परमार्थतो अनौचित्यान्त पातिनीऽपि सहृदयानामनौचित्ययुत्पादनार्थमुदाहरणत्वेनोपाता । - हिन्दी नाट्यदर्पण, पृ० ३२८ । २ केचित् व्यभिचारि-रस-स्थायिनां स्वशब्दवाच्यस्व रसदोषमाडु तदयुक्तम् । व्यभिचार्यादीनां स्ववाचकपदप्रयोगेऽपि विभावपुष्टी -- 'दूरादुत्सुकमागते " ।' इत्यादी रसोत्पतेरदीष एवायम् । -वही, पृ० ३२८-३२९ । ३ काव्यप्रकाश, पृ० ३६० । ४. उभयरससाधारण विभावपदानां कष्टेन नियतविभावाभिधायित्वविकोप eferrerit वाक्यदोष एव । - हिन्दी नाट्यदर्पण, पू० ३२९ ५ अलकारमहोदधि, ५११८-२० । ६ शृंगारार्णवचन्द्रिका, १०११७७-१८० १ ७ लङ्कारचिन्तामणि, ५२५७ । ८. वही, ५।२६०-२६१ / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ किया है- (१), (२) निरंत, (३) (५) पत्रपुष्ट (४) र चपल्लसित रोषों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि वाचाय द्वारा निरूपित यह प्रकरण भी आचार्य मम्मट से पूर्ण प्रभावित है। हेमचन्द्र में career for foया है। शेष रसादि की स्वशब्दवाच्यता और प्रतिकूक farmers के arrer मम्मटसम्म यो अन्य दोषी को मानने में कोई faशेष हेतु प्रस्तुत नहीं किया है। साथ ही उन्होंने अन्य प्रकार से उन दो दोषों को स्वीकार भी किया है, जिनका यथास्थान विवेचन किया जा चुका है । रामere-goer ने केवल ५ रसदोषों का उल्लेख किया है, किन्तु उनकी मुल मान्यता यही है कि रसदोषो के प्रथम भेद अनौचित्य में हो अन्य सभी रसदोषों का अन्तर्भाव हो जाता है। रामचन्द्र गुणचन्द्र का यह मत निश्चय हो आनन्दवर्धन का प्रबल समर्थक है क्योंकि आनन्दवर्धन भी अनौचित्यादृते नान्यद रसभगस्य कारणम्' इत्यादि के द्वारा रसदोषो के मूल में अनौचित्य को ही स्वीकार करते हैं। नरेन्द्रप्रभसूरि और विजयवर्णी मम्मट के उपजीव्य है । पद्मसुन्दरमणि का रखदोष विवेचन कोई विशेष नहीं है । अजितसेन ने रसादि की स्वशब्दबाध्यता और अनुभावादि की प्रतिकूलता रूप मात्र दो रसदोषों का उल्लेख किया है। चैष वाग्भट प्रथम, वाग्भट द्वितीय और भावदेवसूरि आदि जैनाचायों ने रसदोषों का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु इससे यह अनुमान लगाना कि उन्हें रसदोष मान्य नहीं थे, उनके साथ अन्याय ही होगा । । इस प्रकार अब तक पदगत, पदांशगत, वाममंगत, अर्थगत और रसगतदोषों का उल्लेख किया गया है। तदनुसार मैनाचार्यों ने सामान्यत पूर्वाचार्यों को आधार मानकर अपना विवेचन प्रस्तुत किया है, किन्तु आवश्यकतानुसार कहींnai gawran ause करते हुए अपनी प्रबल युक्तियों द्वारा स्वमत का मण्डन भी किया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि जैनाचायों द्वारा किया गया दोष विषय यह प्रयास स्तुत्य है । अत इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। भावरूप दोष परिहार : उपयुक्तों में से दोष आदि के औचित्य से या गुम बन जाते हैं। मंत्री नो दोष परिहार कहा गया है। यदि विस्तृत विवेचन किया जाएं तो इसका कैले दोष विवेचन के कम ही होगा। क्योंकि १. साहित्यचारण ४११२-१० + Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैनाचार्यों का बलकारशास्त्र में योगदान (६) शृङ्खलावेचिश्यहेतुक-दीपक, सार, कारणमाला, एकावली और माला। (७) अपलवमूलक-मीलन, बक्रोक्ति और व्याबोक्ति । (८) विशेषणवैचित्र्यहेतुक-परिकर भौर समासोक्ति । उपयुक्त मलकार-वर्गीकरण के प्रसग में रुद्रट, रुय्यक, नरेन्द्रप्रभसूरि मौर मतिजसेन-इन पार आचार्यों के मतो को उद्धृत किया गया है, जिनमें अन्तिम दो जैनाचार्य है। आचाय नरेन्द्रप्रभसूरि का अलकार-वर्गीकरण सम्यक से प्रभावित है । अन्तर केवल इतना है कि रुग्यक ने जिन अलकारो के मूल में सादृश्य को स्वीकार किया है, वही नरेन्द्रप्रभसूरि ने उनके मूल में अतिशयोक्ति माना है। रुग्यक ने रसबदादि अलकारो को अवर्गीकृत रखा है, किन्तु नरेन्द्रप्रभसूरि ने उन्हें रसवदादि को सज्ञा से अभिहित किया है । शेष विवेचन में प्राय समानता है। ___ अजितसेन ने दो प्रकार से अलकार वर्गीकरण प्रस्तुत किया है, जो विद्यानाथ से पूणत प्रभावित है। जहाँ विद्यानाथ ने मालादीपक मलकार का उल्लेख किया है, वहाँ अजितसेन ने माला और दीपक-दन दो अलंकारों का पृषकपृथक् उल्लेख किया है, जो उचित प्रतीत नही होता है, क्योंकि अजितसेन ने 'माला' अलकार की गणना नहीं की है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ अनाचार्यों का अलंकारशास्त्र मे योगदान पडपमूलशववैचित्र्य २१ व्याकीर्ण । २४७ व्याघात ५२, २१८, २२०, २२९, ४५, २४१ २२४, २२६, २२७, २२९, सम्बकता २४५, २४६, २४७ २३०, २३१ यजना २६, ४५, ५१, ७८, ७९, ब्याज २२७ २४०, २४१, २७८ व्याजस्तुति ११, २१५, २१८, २२०, सजनावृत्ति (ध्वनि) २३५ २२१, २२४, २२५, २२९, व्यवनाव्यापार २४४ २३०, २३१ व्यञ्जनास्वरूप ३३ व्याजोषित २१७, २१८, २२०, २२१ व्यतिरेक ११, २०६, २१३, २१४, २२४, २२५, २२९, २३०, २१५, २१८, २२०, २२१, २३१, २३२, २९२ २२४, २२५, २२७, २२९, व्याधि ४८, १३०, २७५ २३०, २३१ व्यायोग १२, १७, ८३, २८७ व्यपदेश ५, २१२ व्याहत १४३, १४, १६८, १६९, व्यभिचारिभाव ११, १७, २१, ३१, १७७, १७८ ३३, ३९, ४७, १००, १०१, व्याहतार्थ १०२, १०३, १०४, १२२ व्याहवाचस्व १७० १२९, १३०, १३१, १३२, व्युत्पत्ति ६२, १४, ७२, ७४, ७५, १३३, १३४, १३६, १३८, ___ १७८, १८२, २४७ पीडनक ३, १०५, १०९, १२१, १२२, २८८ व्यवहार का बोध ६८ प्रोडनकरस १२१, १३९ व्यवहारज्ञान प्रोग १३०, १४९, १६३ व्यवहित बीडाजनक १६८ व्यसन १६, २८६ वोडाजनक-अश्लील व्यसनरस वोडामियमक व्यसनी २६२ ही० कृष्णमाचार्य ध्यस्त २१० व्यस्तसमस्त २१. शकार ध्यस्तसम्बन्ध व्याकरण १३, १४, ६५,७६ व्याकरणविस्व १५०, १५१ शहर १८. व्यर्थ १४३, १४५ १०७ २७२ २१४ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ : जेमामाया का बलंकारशास्त्र में योगदान संज्ञ समज्योति ५, २१२, २१३, २९१ समता ८, १८९, १९०, १९१, १९६, सट्टक सत्य १९७ सत्वज सत्वज अलकार सत्यभामा २४३, २४५ १२, १८, ८३, ८४, २८७ २६८ २६८ १२, २६७, २९४ २७१ सत्यहरिश्चन्द्रनाटक १५ सनियम परिवृत्त १६८, १६९ सन्तानीय खण्डिल्ल गच्छ ४३ सन्तोष १६, १३१ सदानितक १२, ८२, ८४, ९६ सन्दिग्ध १४७, १४९, १५२, १६२, १६५, १६७, १६८, १६९, १७६, १७७, १७८, १८५ सन्दिग्धता १६५, १७१, १८२, १८४, २८९ सन्दिग्धप्राधान्य ९७, २८७ सन्देह २१७, २२१, २२६, २२९, २३१, २५२ २२७ १७, २०४, २५५ १५८ १५८, १८४ १६१ सन्देहसकर सन्धि सन्धि-अश्लीलता सन्धिकष्टता सन्निच्युत सन्धिदोष सन्धिविश्लेषता १४३, १४५ १५८ २०४ ५० २११ सभङ्गश्लेषवक्रोक्ति २०७ सम ११, २१५, २१८, २२०, २२४, २२५, २२६, २२९, २३०, २३१ सन्ध्यङ्ग सप्तस्मरणवृत्ति सभ समताहीन समयमाणिक्य (समर) समयविरुद्ध समय सुन्दरगणि समरादित्य १७६, १७७ ६१ १४३, १४५ ५३, ५७ ९४ १८५ १२, १७, ८३, २८७ २१० समर्थ समय कार समस्त समाधि १८९, १९१, १९७, २१८, २२०, २२१, २२४, २२५, २२९, २३०, २३१ १५६, १६१, १६२ १५३, १५५ १५८ १८४ ६७ ६७ समाप्तपुनरात समाप्तपुनरात्तता समाप्तपुनरारम्भता समाप्तिपुनरारब्ध समासयुक्त समासरहित समासोक्ति ११, २१३, २१५, २१८, २२०, २२१, २२४, २२६, २२७, २२९, २३०, २३१, २३२ समाहित ५ २१२, २१३, २१४, २१५, २१८, २१९, २२०, २२४, २२९, २३०, २३१ समुरुवय १९, २१३, २१४, २१५, २१८, २२०, २२१, २२४, २२६, २२७, २२८, २२९, २३० समुच्चयालंकार Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाब्वानुमणिका 351 स्नेह 16, 108, 109, 286 107 हवृत्त 12 138 इतक्तता 153, 155, 157, 111 हम्मीरकाव्य 288 हयग्रीववष स्फुटप्रतीयमानवस्तुरूप 230, 231, हरनाथ द्विवेदी 292 231 193 हरिप्रसाद शास्त्री स्फोटसिवान्त 233 130, 138 स्मरण 218, 227, 228, 230, हषकीतिसरि हल्लीखक 12, 18, 83, 287 स्मित 112, 113, 138 हसित 112, 113 स्मृति 11, 48, 130, 215, 220 हाला पटेल की पोल 55 221, 224, 226, 275 हाथी 7,2689 स्यादिशब्दसमुच्चय 24 हायनसुन्दर 47 स्रग्धरा हारबन्ध 210 स्वकीया 34, 263, 264, 266 हाव 18, 268, 269 स्वत सम्भवी 11, 246, 251, 293 हास 136, 137, 180 स्वत सिद्ध 246, 250 हास्य 3, 48, 51, 102, 104, स्वभावज 268, 271 105, 106, 108, 122, स्वभावहीन 143, 145 123, 124, 125, 187, 281, 288 स्वभावोक्ति 11, 95, 213, 211, हास्यरस 112, 113 218, 220, 221, 229, 68 230, 231 हीनता स्वयवर 26, 90 हीयमानाक्षर 21. 134, 241 हीरविजय स्वरभेद 17, 128, 129 हुमायू स्वशब्दवाच्यता हृदयकवि स्वान्दोक्ति 1 र 17,45, 193, 200, 213, स्वसंकेतप्रदार्थ 147, 148 214, 215, 219, 220, स्वाधीनपतिका 11, 12, 47, 266 221, 224, 221, 227, स्वाभाविक 14, 218 228 46