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________________ ५२ जैनाचायों का अलंकारशास्त्र मे योगदान पूर्व दोषो मे अन्तर्भाव किया है तथा कुछ का नवीनो के मत को प्रस्तुत करते हुए खण्डन किया है । अर्थदोषों का अन्तर्भाव पूर्वोक्त पदादि दोषों में किया गया है । अन्त मे रसदोषो का उल्लेख किया है। इस प्रसग मे भी खण्डन-शैली पूर्वोक्त प्रकार है । अष्टम उल्लास मे सर्वप्रथम गुण और बलकारो का भेद प्रदर्शन किया गया है। गुण-स्वरूप प्रसंग मे नवीनो के अनुसार रस के उत्कर्षाधायक हेतु रसधर्म को स्वीकार किया है । पुन माधुर्यादि तीन गुणो का विवेचन कर वामन सम्मत दस गुणो का उल्लेख किया है तथा रसोत्कर्षक होने से दस शब्द - गुणो को स्वीकार किया है । इसी प्रकार दस अर्थगुणों का भी समर्थन किया है मोर नवीनो के मत को उद्धृत करते हुए आस्वाद के हेतु भूत गुणो का अपलाप करने वाले काव्यप्रकाशकार का खण्डन किया है । नवम उल्लास मे शब्दालकारो का विवेचन किया गया है । दशम उल्लास मे अर्यालकारो का विवेचन किया गया है। जिसमे कतिपथ अकारो का विभिन्न अलकारो के अन्तर्गत समावेश किया गया है । यथाव्याघात का विरोध मे अन्तर्भाव आदि । प्रकाशित (मुद्रित), अनुपलब्ध एवं टीका ग्रन्थ कविशिक्षा - यह आचार्य वप्पभट्टसूरि (वि० सं० ८००-८१५ ) की कृति है । जो अद्यावधि अनुपलब्ध है' । कल्पलता - यह वि० सं० १२०५ से पूर्व रचित अम्बाप्रसाद की कृति है । कल्पलता - पल्लब - ( सकेत ) पर रचित कल्पपल्लव नामक टीका है। यह अम्बाप्रसाद की अपनी कृति कल्पलता कल्पपल्लवशेष - विवेक - यह भी अम्बाप्रसाद की अपनी कृति कल्पलतर पर पर स्वोपज्ञ टीका है। १ जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग ५, पृ० १०० । २ वही, पृ० १०३ । ३ वही, पृ० १०५ । ४ वही, पृ० १०५ ।
SR No.010127
Book TitleJainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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