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________________ प्रथम अध्याय जैन-आलंकारिक और अलंकारशास्त्र ५१ क्रम से बाचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश में विषय-वस्तु का गुम्फन किया है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सिद्धिचन्द्रगणि ने उन्ही विषयों का खण्डन किया जिनमें उनकी असहमति है । प्रथम उल्लास मे सर्वप्रथम 'नियतिकृत नियमरहिता - ' । इत्यादि मंगलाचरण का खण्डन किया है, जिसमे यह कहा गया है कि कवि की सृष्टि में भी छन्द, रस, रीति, भाषा और उपमान का बन्धन होता है तथा काव्य सुख-दुःख और मोहात्मक स्वरूप वाला ही सम्भव है । इसी प्रकार काव्य की चतुर्वर्ग का साधन स्वीकार करते हुए यश-प्राप्ति आदि काव्य प्रयोजनों का खण्डन किया है । पुन काव्य स्वरूप का खण्डन कर विश्वनाथ के 'वाक्य रसात्मक काव्यम्' इस काव्य स्वरूप का समर्थन किया है । अन्त मे रसवादियो द्वारा मान्य काव्य के चित्र भेद नामक तृतीय भेद का खण्डन किया है । द्वितीय उत्लास मे व्यजना का खण्डन करके महिमभट्ट आदि की तरह द्वितीयार्थ की प्रतीति अनुमान के द्वारा स्वीकार की है । तृतीय उल्लास मे आर्थी व्यजना के कुछ भेदो का उल्लेख कर खण्डन किया है । चतुर्थ उल्लास मे शृगार, वीर, हास्य और अद्भुत इन चार रसो को स्वीकार करते हुए, शेष करुणादि रसो का खण्डन किया गया है । जिसमे बतलाया है कि करुण के मूल मे शोक होने से रस नही है । बीभत्स में मांसपूय आदि की उपस्थिति से वमन आदि नही होता है यही आश्चर्य है, पुन परमानन्द रूप रस कहाँ सम्भव है । इसी प्रकार भय मे रसास्वादन कहाँ ? शान्त के मूल में सर्व विषयों का अभाव होने से रस नहीं है तथा वीर और रौद्र मे विभावादि साम्य के कारण अभेद होने से रौद्र को पृथक् रस नही माना है । पंचम उल्हास में गुणीभूत व्यंग्य-काव्य के भेदों का उल्लेख प्रस्तुत कर समीक्षा की है । षष्ठ उल्लास में चित्रकाव्य के शब्द-चित्र और अर्थ चित्र इन दो भेदो का समर्थन किया है । सप्तम उल्लास मे दोष स्वरूप का खण्डन करते हुए दो दोषों को स्वीकार किया है- (१) कथनीय का अकथन, और (२) अकथनीय का कथन । पुन विषय के स्पष्टीकरण हेतु दोषो का पृथक्-पृथक् नामोल्लेख कर कुछ दोषो का
SR No.010127
Book TitleJainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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