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________________ प्रथम अध्याय : जैन-बावकारिताराकार सहनि दीक्षा महकी और जान पास किया। तत्पश्चात् माग व्ययन के लिए उम्बपिनी नगरी में वचस्वामी के पास गये। यहाँ पर उन्होने की पूर्वी का बच्चयन कर क्सम पूर्व का अध्ययन प्रारम्भ किया, तभी उनके माता-पिता ने पुत्र-वियोग से चिन्तित होकर अपने कनिष्ठ पुत्र फल्गुरक्षित को उन्हे बुला लाने के लिए भेजा। फल्गुरक्षित ने वहाँ पहुँचकर आर्यरक्षित से क्यपुर लौटने का जाग्रह किया। वहां उन्होंने अपने लघु प्राता फल्गुरक्षित को जैनधर्म में दीक्षित किया और बसस्वामी से आशा लेकर दशपुर की ओर प्रस्थान किया। 'दशपुर पहुंचकर उन्होंने अपने माता-पिता तथा परिजनो को प्रबुद्ध कर बमणधर्म की दीक्षा दी। पुन वे नव-दीक्षित मुनियों को लेकर अपने गुरू तोससीपुत्र के पास गये / गुरू तोसली पुत्र ने सन्तुष्ट होकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी आचार्य नियुक्त किया। अनुयोगद्वार-सूत्र जैन-परम्परा मे आगम साहित्य का विशेष महत्व है। यह मागम साहित्य अग-प्रविष्ट और अग-बाह्य के रूप मे दो प्रकार का है। अग-बारा आगमों मे एक है अनुयोगद्वार सूत्र, जो प्राकृत-भाषा मे निबद्ध है / इसे एलिका-सूत्र भी कहते हैं। ____अनुयोगद्वार-सूत्र में अनुयोग के चार द्वार-उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय पर विचार किया गया है। उपक्रम के द्वितीय भेद नाम निरूपण के प्रसंग में एक-नाम, द्विनाम, त्रिनाम आदि क्रमश दस नामो तक उतनी-उतनी सत्या वाले विषयों का प्रतिपादन है। नौ नामो के अन्तर्गत रसों का विवेचन किया गया है। रसो के नाम हैं-धीर, शृङ्गार, अद्भुत, रौद्र, ब्रीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त / इसी प्रकार अनुगम के अन्तर्गत अलीक, उपधातजनक, निरर्थक, छल आदि बत्तीस दोषो का उल्लेख किया गया है। अलंकार-दप्पणकार अलंकार-चप्पण के लेखक का नाम अज्ञात है। तथापि इसके प्रारम्भिक 1 प्रभावकचरित-आर्यरक्षितरित, पृ. 6-18 // बार्यरक्षित का जीवन चरित प्रभावकचरित के पूर्व रचित प्रन्यों आवश्यक पूणि बोर बावश्यकमलयगिरि-वृत्ति प्रावि में भी पाया जाता है।
SR No.010127
Book TitleJainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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