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जैनाचार्यों का मसंकारयान में योगदान
विला जाता है।' उन्होंने वीररस के निश्चित भेद नहीं मावे है, अपितु पुख, बर्म, दान बादि गुणों तथा प्रतापाकषम बाद उपाधि-भेदो से इसके अनेक भेद स्वीकार किए हैं। मरेन्द्रप्रमसूरि का वीररस दिवेचन हेमचन्द्र के समान है। विजयवर्णी ने वीररस के विभावादि का उल्लेख करते हुए वानवीर, दयावीर बोर युद्धवीर ये तीन भेद माने हैं। अजितसन के अनुसार विभावादि से परिपुष्ट उत्साह नामक स्थायिभाव वीररस है, वह दानवीर, दयावीर और युद्धार के भेद से तीन प्रकार का होता है । वाग्भट-द्वतीय का वीररस विवेचन हेमचन्द्र सम्मत है।' पपसु दरगणि ने वीररस के तीन भेव किये है-यावीर दानवीर और युद्धवीर। इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा किया गया विवेचन अपने आप मे पूर्ण है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सामान्यतया वीररस के चार भेद माने जाते हैंदानवीर, दयावीर, युद्धवीर और धमवीर । किन्तु जैनाचार्यों ने केवल तीन भेदो का ही उल्लेख किया है, चार का नही। कुछ आचार्यों ने दयावीर का उल्लेख न कर शेष तीन भेदो का उल्लेख किया है, जिनमे वाग्भट-प्रथम, हेमचन्द्र, नरेन्द्रप्रभसूरि और वाग्भट-द्वितीय आते हैं। ये आचार्य भरत-परम्परा के पोषक हैं। कुछ आचार्यों ने धर्मवीर का उल्लेख न कर शेष तीन भेदों का उल्लेख किया है, जिनमे विजयवर्णी, अजितसेन और पपसुन्दरगणि आते हैं। रामचन्द्र-गुणचन्द्र को वीररस के कोई निश्चित भेद मान्य नहीं हैं। भयानक रस
इसका स्थायिभाव भय है। इसकी उत्पत्ति भयानक दृश्यों को देखने से होती है। आचार्य भरत ने विकृत ध्वनि, भयानक प्राणियों के दर्शन, सियार और उल्लू के द्वारा बास, उद्वेग, शून्य-गृह, बरण्य-प्रवेषा, मरण, स्वजनों के वध भयवा बन्धन के देखने-सुनने या कयन करने आदि विभावों से उसकी उत्पत्ति भानी है।
१ हिन्दी नाट्यदर्पण, ३।१६। २ वही, ३११६ विवृति । ३ न्यायादिबोध्यः स्थैर्याविहेनुष त्याचपस्कृत ।
उत्साहो दान-पुष-धर्मभेवो भैररसः स्मृत। -अलकारमहोपषि, ३।२। ४ भूगारावचा निद्रका, ३२८६-६०। ५. अलंकारचिन्तामणि, १०९। ६ काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ० ५६. ७. अकबरसाहित गारवन, ४५ ८ मापवास्थ, ३७९.
१ नही, ६६३