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१५२ . वाचायों का कारणास्त्र में योगदान बिहार्य और अषितसेन-सम्मत गूढार्प दोष में कोई भेद प्रतीत नहीं होता है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि पद दोषों के प्रसन में जैनाचायों द्वारा किये गये विविध प्रयासों के बाद भी प्राय मौलिकता का अभाव है। पदाशगत-दोष.
मम्मट मे पदाशगत दोषो का उल्लेख किया है तथा अतिक्टु, निहतार्य, निरर्थक, अबाचक, अश्लील, सदिग्ध और नेयार्थ इन पदाशगत दोषों के उदाहरणे भी प्रस्तुत किये हैं।' जैनाचार्य हेमचन्द्र और नरेन्द्रप्रभसूरि ने पदक देश (पदांशगत) दोषो को पद-दोष ही स्वीकार किया है। नरेन्द्रप्रमसूरि ने पदाशगत दोषो को पदगत दोष मानते हुए भी मम्मटोल्लिखित उक्त ७ पदांशगत दोषों मे से अश्लील को छोडकर छ दोषों के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। ये उदाहरण वही हैं, जिन्हें मम्मट ने प्रस्तुत किया है। विजयवर्णी ने अतिकटु, निरर्थक, अश्लील सदिग्ध और अवावक इन ५ पदाशगत दोषों का पृषासोदाहरण उल्लेख किया है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि विजयवर्णी ने यद्यपि पदाणगत दोषों का उल्लेख किया है तथापि अगले प्रकरण को प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि 'पददोष निरूप्याह वाक्यदोष वेधुना' इससे स्पष्ट है कि उन्हे भी पाश दोषो को पृथक् मानना अभीष्ट नहीं है।
मम्मट ने पदाशगत दोषो को स्वतन्त्र रूप से स्वीकार किया है, किन्तु उनके परवर्ती वाग्भट-द्वितीय आदि जैनाचार्यों ने उनका उल्लेख भी नही किया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि उक्त जैनाचार्यों को पृथक् पाशगत दोषों को मानना अभीष्ट नहीं है । आचार्य हेमचन्द्र और नरेन्द्रप्रभसूरि आदि बैनाचार्यों ने पदाश दोषो को स्पष्ट रूप से पद-दोष ही स्वीकार किया है। विजयवर्गी ने यद्यपि मम्मट आदि आचार्यों की तरह पदांश दोषो का सोदाहरण उल्लेख किया है तथापि उनके 'पददोष... ' इस बाद वाले कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हे भी पदांश दोष पृथक् मान्य नहीं हैं। इसी प्रकार अनाचार्य प्राय. पदाश दोषो को पृथक् मानने के पक्ष में नही है।
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१ काव्यप्रकाश, पृ. २९५-३००। २ 'पदेकवेश पदमेव'-काव्यानुशासन, पृ. २०० एवं
'पदैकदेशोऽपि पदमेव'-अलकारमहोदषि, पृ. १५३ । ३ अलंकारमहोदधि, पृ. १५३-१५४ । ४ भारावधान्तिका, १.१३४-३६ ।