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जैनाचार्यो का अलकारशास्त्र मे योगदान
भट्टारक यति थे । इनके गुरु का नाम पद्ममेद और प्रगुरु का नाम आनन्दमेरु था । पचसुन्दरमणि को मुगल बादशाह अकबर की सभा में बहु-सम्मान प्राप्त था । उनकी परम्परा के परवर्ती भट्टारक यति 'हर्षकीर्तिसूरि' की 'धातुतरंगिणी" के पाठ से ज्ञात होता है कि उन्होने बादशाह अकबर की सभा मे किसी महा'पण्डित को पराजित किया था, जिसके सम्मान स्वरूप उन्हे बादशाह अकबर की ओर से रेशमी वस्त्र, पालकी और ग्राम आदि भेंट में प्राप्त हुए थे, वे जोधपुर के हिन्दू नरेश मालवदेव द्वारा सम्मानित थे ।' इतना ही नही इनके गुरु पिता हुमायूँ और पितामह
मेरु और प्रगुरु आनन्दमेरु को क्रमश अकबर के बाबर की राजसभा मे प्रतिष्ठा प्राप्त थी । "
पद्मसुन्दरगणि ने ( अकबर साहि) - शृङ्गार दर्पण की रचना वि० स०१६२६ के आसपास की है तथा श्वेताम्बराचार्य हीरविजय की बादशाह अकबर से भेंट वि० स० १६३६ में हुई थी, उस समय पद्मसुन्दरमणि का स्वर्गवास हो चुका था । अत पद्मसुन्दरगणि का समय विक्रम की १७वी (ईसा की १६वीं का उत्तरार्ध) शताब्दी मानना उपयुक्त होगा ।
पद्मसुन्दरमणि ने साहित्य, नाटक, कोष, अलकार, ज्योतिष और स्तोत्र विषयक अनेक ग्रन्थो का प्रणयन किया है । दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान् रायमल्ल से उनकी प्रगाढ़ मैत्री थी। इसलिए उन्होंने कुछ ग्रन्थो की रचना रायमहल के अनुरोध पर भी की है। उनके प्रमुख ग्रन्थ निम्न प्रकार हैं- राममल्लाभ्युदयकाव्य, यदुसुन्दर महाकाव्य, पार्श्वनाथचरित, जम्बूचरित, राज
१ साहे ससदि पद्मसुन्दरगणिजित्वा महापण्डित,
क्षौम्या सुखासनाअकबर श्रीसाहितो लब्धवान् । हिन्दूका धिमालदेवनृपतेर्माभ्यो वदाम्योषिक, श्रीमद्योषपुरे सुरेप्सितबच पद्याह्वय पाठक म् ॥
- जैन साहित्य और इतिहास नाथूराम प्रेमी, पृ० ३६५ का सन्दर्भ |
२ मान्यो बाप (ब) र मृभुजोऽत्र जयराट् तद्वत् हमाऊँ नृपोत्यर्थे प्रीतिमना सुमान्यमकरोदानंदराया भिव । तद्वत्सा हि शिरोमणे रकबरक्ष्मापाल - चूडामणेमन्य पडितपद्मसुन्दर इहाभूत पडितवातजित् ॥
- अकबरसाहि शृङ्गारदर्पण - भूमिका, पृ०
३ जैन साहित्य बोर इतिहास, पृ० ३९६ ।