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________________ जैनाचा का अतकारशास्त्र में योगदान नस्तर सिद्धराज ने प्रसन्न होकर सबके सामने 'कविकटारमल्ल उपाचि प्रदान की थी । महाकवि रामera समस्यापूर्ति करने में भी चतुर थे । एक बार वाराणसो से विश्वेश्वर कवि पसन नामक नगर आये तथा वे आचार्य हेमचन्द्र की सभा मै गए । वहा राजा कुमारपाल भी विद्यमान थे । विश्वेश्वर ने कुमारपाल को आशीर्वाद देते हुए कहा- 'पातु वो हेमगोपाल कम्बलं दण्डमुद्वहन' चूंकि राजा जैन थे, अत उन्हे कृष्ण द्वारा अपनी रक्षा की बात अच्छी नहीं लगी । अतः उन्होंने क्रोध भरी दृष्टि से देखा । तभी रामचन्द्र ने उक्त श्लोकार्थ की पूर्ति के रूप में " षड्दर्शनपशुग्राम चारयत् जैन गोचरे" यह कहकर राजा को प्रसन्न कर दिया । आचार्य रामचन्द्र की विद्वता का परिचय उनकी स्वलिखित कृतियो मे भी मिलता है । रघुविलास मे उन्होने अपने को "विद्यात्रयीचणम्" कहा है | इसी प्रकार नाट्यदर्पण -विवृति की प्रारम्भिक प्रशस्ति में " त्रैविद्यवेदिन " तथा अतिम प्रशस्ति में व्याकरण- न्याय और साहित्य का ज्ञाता कहा है । प्रारम्भ मे कहे गये प्रभावकचरित और उपदेशतर गिणी से यह ज्ञात होता है कि आचार्य हेमचन्द्र और सिद्धराज जयसिंह समकालीन थे तथा उस समय तक रामचन्द्र अपनी असाधारण प्रतिभा के कारण प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे । सिद्धराज जयसिंह ने स० ११५० से स० १९९६ ( ई० सन् १०६३११४२) पर्यन्त राज्य किया था। मालवा पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष मे सिद्धराज का स्वागत समारोह ई० सन् ११६६ (वि० स० ११९३ ) मे हुआ १ प्रबन्ध-चिन्तामणि कुमारपालादि प्रबन्ध पृ० ८ २ पचप्रबन्धमिषप चमुखानकेन विद्वन्मन सदसि नृत्यति यस्य कीर्ति । विद्यात्रयोषण मचुम्बितकाव्यतन्द्र कस्त न वेद सुकृती किल रामचन्द्रम् ॥ - नलविलासनाटक - प्रस्तावना, पृ० ३३ ॥ ३ प्राणा कवित्व विद्यानां लावण्यमिव योषिताम् । विद्यवेदितोऽप्यस्मै ततो नित्य कृतस्पृहा ॥ - प्रारम्भिक प्रशस्ति, अंतिम प्रशस्ति, ४ शब्दलक्ष्म- प्रभालक्ष्म-काव्यलक्ष्म-कृतश्रम | वाग्विलासमा तो प्रवाह इव जाह्न ज ॥ ४ प्रवन्धचिन्तामणि कुमारपालादि प्रबन्ध, पृ० ७६ ।
SR No.010127
Book TitleJainacharyo ka Alankar Shastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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