Book Title: Dwadash Parvkatha Sangraha
Author(s): Labdhimuni, Buddhisagar Gani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir VIATND AUTI Vill SUNI Indu श्री मन्मोहन यशः स्मारक ग्रन्थमाला प्रन्थाङ्क ९ परम सुविहित श्री खरतरगच्छ विभूषण शासनप्रभावक क्रियोद्धारक श्री मन्मोहनमुनीश्वर शिष्य रत्न श्रीमद्रामुनीश्वरान्तिषदुपाध्याय श्रीमल्लब्धिमुनिवर सन्हब्धो। ON द्वादशपर्वकथा-संग्रहः (श्लोकबद्धः) T प्रकाशक : मन्त्री श्री जिनदत्तमूरि ज्ञान भंडार, बम्बई : संशोधक: स्वर्गीय अनुयोगाचार्य पं. श्रीमत्केशरमुनिजी गणिवर विनेय __स्वर्गीय श्रीमत् बुद्धिसागर गणि. द्वितीय आवृत्तिः ५०० प्रतिया विक्रम संवत् वीर संवत २४८८ Um MIL २०१८ ne For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ २ ॥ ReceneDooooooo ग्रन्थना प्रकाशनमां उदारभावे द्रव्य सहाय करनार दाताओनी शुभ नामावली. ५००) श्री खरतरगच्छ ज्ञान भंडार कच्छ-मांडवी ५००) सुरतवाला झवेरी प्रेमचंद कल्याणचंदजी धर्मशाला कल्याणभुवनना ___ ज्ञान खातामाथी हाः प्रवेरी फतेचंद प्रेमचंद पालीताणा १००) लुणिया ईश्वरलाल चुनीलाल कच्छ-मांडवी १००) मुंबई पालागली कच्छी वि. ओ. दे. सामायिक मंडळ तरफथी. हाः पुनशीभाई मोनजी कच्छ-छायजा Deezraemezoekeeocome मुद्रक : अमरचंद बहेचरदास, श्री बहादुरसिंहजी प्रि. प्रेस-पालीताणा (सौराष्ट्र) For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir LA वादी गज केशरी स्वर्गीय अनुयोगाचार्य श्रीमत् केशरमुनिजी गणिवर्यना शिष्य रत्न अने प्रस्तुत ग्रंथना संशोधक स्वर्गीय श्रीमत् बुद्धिसागरजी गणि. खरतरगच्छ विभूषण श्रीमन्मोहनलालजी महाराजना प्रशिष्य अने प्रस्तुत ग्रंथना कर्ता कवित्व लब्धि संपादक पाठकप्रवर श्रीमल्लब्धिमुनिजी महाराज. जेमना अत्यंत आग्रहथी आ ग्रंथy सर्जन थयु, ते आचार्य श्री जिनरत्नसूरिश्वरजीना विद्वान शिष्य रत्न गणि वर्य श्री प्रेममुनिजी महाराज. For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ ३ ॥ www.kobatirth.org प्रस्ता व ना. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 000 आजथी लगभग आठ महिना पहेला अमारा पू० उपाध्यायजी श्रीमान लब्धिमुनिजी महाराज साहेबे तेमने पोतानी रचेली लोकबद्ध द्वादशपर्व कथानी बीजी आवृत्ति बहार पडे ते माटे पोतानी ईच्छा प्रदर्शित करी. कारणके जे पहेली आवृत्ति बहार पडी हती तेनी लगभग नकलो खलास थइ गइ हती अने साधु-साध्वीओनी मांग बघती जती हती. आ कारणने लइने अमारा गुरुवर्यं अने आ कथाओना संशोधनकार श्रीमान गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी महाराजे पोतानी नादुरस्त तबियत होवा छतां पण उपाध्यायजी महाराजनी आज्ञाने मान आपीने आ कथा फरीथी छापवा माटे प्रेसमां मोकली अने तेनुं संशोधन कार्य पोते चालु कर्यु. शरुआतमां तो कार्य बराबर चाल्युं पण ६-७ कथाओनुं संशोधन कार्य थया पछी तेमनी तबियत विशेष बगडी तेथी तेओश्रीए कपुरचंदजी मास्तरने आ कार्य सुप्रत कयुं छतां पण प्रेसमांथी ज्यारे त्रीजी वखत फारम आवतुं त्यारे तेओ पोते जाते जोई जता अने त्यारपछी ज छापवानुं ओर्डर आपता. आवी रीते कार्य चालतु हतुं त्यां ओचींती श्रावण सुद ४ थी तबियत विशेष बगडी अने अशक्ति खुब बघती गई छतां पण आवेली वेदनाने ते ओश्री समभावे सहन करता हता. आम सहन करता करता गत श्रावण सुद ८ ना श्री पार्श्वनाथ भगवानना निर्वाण कल्याणकने दिवसे सिद्धक्षेत्र पालीताणा कल्याणभुवनमां सवारना ३ ||| वागे सावधानपणे नवकार महामंत्रनुं स्मरण करता करता अने अनित्य भावना भावतां भावतां तेओश्रीनो आत्मा आ नश्वर देहनो त्याग करीने स्वर्ग भुवनमां गयो । For Private and Personal Use Only ॥ ३ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir conomocrpercenacance तेओश्रीए अंतिम समय सुधी साहित्यनी खूब खूब सेवा करी हती. मृत्युथी महिना पहेला पण तेओश्री पोतानाथी बनती साहित्यनी सेवा करता हता. आटली नादुरस्त तबियत, खांसीनो सख्त उपद्रव तथा ताव आदि अनेक जातना शरीरमा रोग होवा छतां पण क्यारे पण मनमां कंटाळो लावता ज नहिं अने आ कारणने लइने तेमने आरंभेल सुयगडांग सूत्र द्वितीय भाग कल्पसूत्र (गुजराती टीका) तथा श्री जिनचन्द्रसूरीजी महाराजन चरित्र आदि कार्य तेमना स्वर्गवासथी थोडा दिवस पहेला ज पोतानी हाजरीमा पर्ण करी गया छे. तेमना देह विलयथी जैन समाजे एक महान आगमप्रभावक क्रियापात्र अने अध्यात्मिक पुरुष गुमावेल छे. तेमनी खोट क्यारे पण पूराय तेम नथी. आजना आ नामना महत्ता अने भौतिक सुखोनी पाछळ भान भूलेला आत्माओथी तेओ तदन निरालाज हता. संघे तेमने घणी वखत आचार्यपदवी आपवानी ईच्छा दर्शावी हती पण तेओश्रीनो एक ज उत्तर हतो के आचार्य थईने हुं जे सेवा शासननी करवानो छ तेटली ज सेवा पंचम पदमां स्थित साधुपणे रहीने करी शकीश अने मारामां आचार्य जेटली योग्यता पण नथी. मार्क साधुपणं पण बराबर सचवाई रहे तो घणुं छे। अस्तु । प्रस्तुत ग्रंथमा जे अंतिम सुव्रतशेठनी प्राकृत कथा आपेली छे ते पूर्वाचार्य रचित छ । अंतमां तेओश्रीना स्वर्गगमनथी आ प्रस्तावना आदि लखवानुं कार्य मारा उपर आवी पडेल छे तो तेमां कांइपण क्षति होय तो ते सुधारीने वांचवा सुज्ञ वांचकोने मारी नम्र प्रार्थना छे. इतिशम् ।। संवत २०१८ संशोधनकार, श्रा. वद २ शुक्रवार गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजीना शिष्यकल्याण भुवन, पालीताणा जयानंद मुनि. creezczaCapezCORPORATESe For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ णमोत्थुर्ण समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ श्रीमत्खरतरगच्छविभूषण-सुविहितशिरोमणि-कियोद्धारक-श्रीमन्मोहनलालजीमुनीश्वर विनेयविनेयोपाध्याय-श्रीमल्लब्धिमुनिवरसकलितो । द्वादशपर्वकथा-संग्रहः Ceremodernetelepepepeezone (१) अथ ज्ञानपञ्चमी-कथा । permometereocccepokeme श्रीमत्पार्श्वजिनाधीश, सुराऽसुरनमस्कृतम् । प्रणम्य परया भक्त्या, सर्वाऽभीष्टार्थसाधकम् ॥१॥ कार्तिकशुक्ल| पञ्चम्या, माहात्म्यं वर्ण्यते मया। भव्यानामुपकाराय, यथोक्तं पूर्वमूरिभिः ॥२॥ युग्मम् ॥ भुवने हि परं ज्ञानं, ज्ञानं | सर्वार्थसाधकम् । अनिष्टवस्तुविस्तार-चारकं ज्ञानमोरितम् ॥३॥ ज्ञानादासाद्यते मुक्ति-र्ज्ञानात् स्वर्णोद्भवं सुखम् । लभन्ते पाणिनो यस्मात् , तज्झानं स्वर्द्वमोपमम् ॥ ४ ॥ भव्यैरासाद्यते ज्ञान, पञ्चम्याराधनाद् ध्रुवम् । अतः प्रमादमुत्सृज्याऽऽराध्या सा विधिना तथा ॥५॥ मञ्जरीवरदत्ताभ्यां, यथैवाराधिता किल । पञ्चमी भावतोऽथाऽत्र, दृष्टान्तः प्रोच्यते तयोः ॥६॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य, दक्षिणा च भारते । पद्मपुराऽभिधे दंगे-ऽजितसेनो नृपोऽभवत् ॥७॥ तस्य यशो. For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsur Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह ज्ञानपञ्चम कथा DDCDOreo मती राझी, रूपलावण्यशोभिता। वरदत्तस्तयोः पुत्रो-ऽभूत्क्रमादष्टवार्षिकः ॥ ८॥ पित्रा स पाठशालायां, मुक्तस्तस्य 6 मुखे परं। एकमप्यक्षरं नैव, चटत्यशुभकर्मणा ॥९॥ क्रमात्स यौवनं प्राप्तो-भृत्कुष्ठरोगपीडितः। न कुत्राऽपि रति पाप, प्राग्भवकृतकर्मणा ॥१०॥ इतश्चास्मिन्पुरे सप्त-कोटिद्रव्येश्वरोऽभवत् । जिनधर्मरतः श्रेष्टी, सिंहदासो वणिग्वरः | ॥११॥ करतिकका तस्य, प्रिया तयोः सुताऽभवत् । आजन्मरोगिणी मूका, दुःखिनी गुणमञ्जरी ॥१२॥ विविधैरौषधैस्तस्या, रोगशान्तिन जायते । न नरो यौवने कोऽपि, तां परिणेतुमिच्छति ॥१॥ तस्याः षोडशवपिण्या, दुःखेन समजायत । सकळः स्वजनो माता-पित्रादिरतिदुःखितः॥१४॥ तत्राऽन्यदा पुरे पूज्या, विजयसेनसूरयः। चतुर्सानघरा धर्मो-पदेशकाः समागताः ॥१५॥ तदा पौरजनो भूपः, सपुत्रः सकुटुम्बकः । श्रेष्ठी च सिंहदासाख्यो, वन्दनार्थमुपागतः ॥१६॥ गुरुणाऽपि सभामध्ये, चारब्धा धर्मदेशना । मो जना! ज्ञानमस्त्यत्र, सर्ववस्तुनिरूपकम् ।।१७॥ ज्ञानस्याराधने | यत्नो-ऽध्ययन-श्रवणादिभिः। भव्यविधेयः सततं, निर्वाणपदमिच्छुभिः ॥१८॥ विराधयन्ति ये ज्ञानं, मनसा ते भवान्तरे। नराः स्युः शून्यमनसो, विवेकपरिवर्जिताः ॥१९॥ विराधयन्ति ये ज्ञान, वचसाऽपि हि दुर्षियः। मृकखमुखरोगित्व-दोषास्तेषामसंशयम् ॥२०॥ विराधयन्ति ये ज्ञान, कायेनायत्नवर्तिना । दुष्टकुष्ठादिरोगाः स्यु-स्तेषां देहे विगर्हिते ॥२१॥ युग्मम् ॥ मनोवाकाययोगैर्ये, ज्ञानस्याऽऽशातनां सदा । कुर्वन्ते मूढमतयः, कारयन्ति परानपि ॥२२॥ | तेषां परभवे पुत्र-कलत्रसुहृदां क्षयः। धनधान्यविनाशश्च, तथाऽऽधिव्याधिसम्भवः ॥२३॥ युग्मम् ॥ इत्यादिदेशनां श्रुखा, सिंहदासोऽवदद्गुरो!। मम सुतातनौ रोगाः, संजाताः केन कर्मणा ? ॥२४॥ गुरुणोचे महाभाग !, कर्मणा किं न सम्भवेत् । अत्राऽस्या गुणमार्याः, पूर्वभवो निशम्यताम् ॥२५॥ धातकीखण्डमध्यस्थे, भरते खेटके पुरे । जिनदेवाऽभिधः DomperoeCRocome Dece NI ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानपञ्चमी कथा श्रेष्ठी, भार्याऽभूत्तस्य सुन्दरी ॥२६॥ पञ्चपुत्रास्तयोरास-पालाख्यस्तेजपाळकः । गुणपालो धर्मपालो, धनसाराभिधः द्वादशपर्व-16 पुनः ॥२७॥ तयोलीलावती शील-वती रंगावती पुनः। मंगावती चतस्रश्च, सुता रूपादिशोभिताः ॥२८॥ एकदा कथा-संग्रह जिनदेवेन, पश्चाऽपि तनया निजाः। कळाचार्यान्तिके मुक्ताः, कलाग्रहणहेतवे ॥२९॥ चापल्यं ते प्रकुर्वन्ति, परं बध्य॥३॥ IN यनं न हि । प्रकुर्वन्ति यदा विद्वां-स्तास्ताडयति कम्बया ॥३०॥ रुदन्तस्ते तदाऽऽगत्य, मातुनिवेदयन्ति हि । दुःखं माताऽप्यवादीकि, पठनेन प्रयोजनम् ? ॥३१॥ उक्तश्च- "पठितेनाऽपि मर्त्तव्यं, शठेनाऽपि तथैव च । उभयोमरणं दृष्ट्वा, कण्ठशोषं करोति ? कः ॥३२॥" पण्डितस्याऽप्युपालम्भ, दत्ते पुस्तकमीर्षया । साऽज्वाळयत्सुतान् वक्ति, न गन्तव्यमतः परम् ॥३३॥ एतद् व्यतिकरं ज्ञात्वा, श्रेष्ठी पोवाच हे पिये। को जडेभ्यः सुतेभ्यो नो, निजकन्याः प्रदास्यति ? ॥३४॥ व्यवसायं कथं चैते, करिष्यन्ति ? निजोदरम् । भरिष्यन्ति ! कथं मान-मवाप्स्यन्ति ? कथं जने ॥१५॥ उक्तञ्च-"माता वैरी पिता शत्रु को येन न पाठितः। न शोभते सभामध्ये, हंसमध्ये बको यथा ॥३६॥ | विद्वत्वश्च नृपत्वश्च, नेव तुल्यं कदाचन । स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥३७॥” इति श्रेष्ठिवचः श्रुत्वा, सा प्रोवाच न कि सुतान् । यूयं पाठयथाऽत्रास्ति, को दोषो मे निरागसः ॥३८॥ इत्युक्त्वा हकितः श्रेष्ठी, | तया मौनं चकार सः। अथ पश्चाऽपि ते पुत्राः, तयोः प्राप्ताश्च यौवनम् ॥ ३९ ॥ परन्तु कोऽपि तेभ्यो न, दत्ते | मूर्खतया सुताम् । ततः श्रेष्ठी जगाद स्त्री, पापेऽन्तरायकारिणि ! ॥४०॥ मूर्खा एव त्वया पुत्रा, रक्षिताः कोऽप्यतः सुताम् । न ददात्यथ सा पाह, पापिष्ठो जनकस्तव ॥४९॥ येनैवं शिक्षितोऽसि वं, विमूढमतिनेति हि । दम्पत्योः कलहो बाद, जातस्तयोः परस्परम् ॥ ४२ ॥ यथा चोक्तं-"आः किं सुन्दरि ! सुन्दरं न कुरुषे ? किं न करोषि ? Coemocroecocococc0 Domeroecoccccceepe For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsur Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह कथा ॥ ४ ॥ Denomenocopeocom स्वयं । आः पापे ! प्रतिजल्पसि प्रतिपदं, पापस्त्वदीयः पिता । धिक् त्वां क्रोधमुखीमलीकमुखरां त्वत्तोऽपि कः ? IN 10 ज्ञानपश्चमी कोपनो, दम्पत्योरिति नित्यदन्तकलह-क्लेशातयोः किं सुखम् ? ॥४३॥" रुष्टेन जिनदेवेनो-पलान्मर्मणि सा हता। ततो मृत्वा तव श्रेष्ठिन् ?. पुत्रीयं समजायत ॥४४॥ पूर्वे भवेऽनया ज्ञाना-शातना महती कृता । रोगोऽजनि तनौ चास्या, मूकता तेन कर्मणा ॥ ४५॥ उक्तश्च-"कृतकर्मक्षयो नास्ति, कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाऽशुभम्" ॥४६॥ इति गुरोर्वचः श्रुत्वा, ददर्श गुणमञ्जरी । निजं पूर्वभवं जात-जातिस्मृत्यवबोधतः ॥४७॥ ततो गुरुं प्रति प्राह, सत्यं सेति ततो गुरुम् । श्रेष्ठी प्राह गुरो! रोगा, यास्यन्त्यस्यास्तनोः कथम् ? ॥४८॥ गुरुणाऽभाणि भो श्रेष्ठिन !, ज्ञानाराधनतोऽखिलम् । सुखं सम्पद्यते दुःखं, विलयं याति निश्चितम् ॥४९॥ ज्ञानस्याराधना चैव-मुपवासो विधीयते । विधिना शुक्पश्चभ्यां, पट्टे संस्थाप्य पुस्तकम् ॥५०॥ तत्पुरः स्वस्तिका कार्यों, दीपश्च पञ्चवत्तिकः । ढौक्यं च पञ्चवर्णीय, धान्यं वरफलानि च ॥५१॥ यावद्वि पञ्चवर्षाणि, पश्चमासांस्त्रिशुद्धितः । समा- IN राध्याऽनया रीत्यै- कत्तु यदि न क्षमः ॥५२॥ यावज्जीवं तदाऽऽराध्या, कार्तिक शुक्लपञ्चमी। सम्यगाराधिता दत्ते, सा सर्व सुखमीप्सितम् ॥५३॥ एवं गुरोर्वचः श्रुत्वा, सिंहदासोऽवदद्गुरो !। न विद्यते तपःशक्ति-में पुच्या ईदृशी ततः | ॥५४|| गुरुरुवाच कार्तिक्या, धवलपञ्चमीदिने । संस्थाप्य पुस्तकं पट्टे, वासादिभिः समय॑ च ॥५५॥ दौक्यन्ते पञ्चवर्णानि, धान्यानि फलपश्चकम् । स्वस्तिकपश्चकं कार्य, धूपदीपादिपूर्वकम् ॥५६॥ ततो गत्वा गुरोरग्रे, भक्त्या नत्वा यथाविधि । कर्तव्यमुपवासस्य, प्रत्याख्यानं च निर्मकम् ॥५७॥ ॐ ह्रीं श्रीं नमो नाणस्स, पदस्य द्विसहस्रिकः । उत्तराभिमुखं तस्मिन् , वासरे गुण्यते जपः ॥५८॥ पौषधः क्रियते चेत्त-दिने नाऽयं तदा विधिः । भवेकिंतूपवासस्य, कार्य: Decemencememडा For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह ज्ञानपञ्चमी कथा CORRCz.eomopeD000 पारणके हिसः ॥५८॥ तपःपूर्णे यथाशक्ति, कार्यमुद्यापनाद्यपि । स्वीकृतं गुणमञ्जर्या, ततस्तत्पश्चमीतपः ॥६०॥ तस्मिन्न8 वसरे राजा, पृच्छति हे मुनीश्वर !। मत्स्नोर्वरदत्तस्य, कुष्ठरोगोऽभवत्कथम् ॥६१॥ आयाति पठनं नैव, तस्य किं कारणं? | ततः । गुरुणाऽभाणि भो राजन् ! तस्याऽपि प्राग्भवं शृणु ॥६२॥ अस्मिंश्च भरतक्षेत्रे, श्रीपुरेऽभूणिग्वसुः । वसुसारवसुदेवौ, तस्याऽभूतां सुतौ वरौ ॥६३॥ एकदा कानने ताभ्यां, मुनिसुन्दरसूरयः। दृष्टाश्च वन्दिताः पूज्यैः, प्रारब्धा धर्मदेशना ॥६४॥ यत्प्रातः संस्कृतं धान्यं, मध्यान्हे तविनश्यति । तदीयरसनिष्पने, काये का नाम सारता ? ॥६५॥ इत्यादिदेशनां श्रुत्वा, वैराग्यभावनांचितौ । दीक्षां जगृहतुस्तातं, समापृच्छय च तावुभौ ॥६६॥ गुरुणा वसुदेवोऽथ, सर्वसिद्धान्तपारगः। चारित्री स्थापितः सूरि-पदे मरिगुणान्वितः॥६७॥ स पञ्चशतसाधुभ्यो, ददाति सूत्रवाचनाम् । एकदा स रुजाक्रान्तः, सुप्तः संस्तारके निजे ॥६८॥ तं साधुः कोऽपि सूत्रार्थ, पृच्छति च प्रगच्छते ॥७०॥ किश्चिन्त्रिद्रायमाणोऽथ, पृष्टः केनाऽपि साधुना । अग्रेतनं पदं वाच्य-मर्थों वाच्यः पदस्य च ॥७१ ॥ कुविकल्पांस्तदा सरिरकरोनिजमानसे । कृतपुण्यो बृहद्माता, मेऽस्मै कोऽपि न पृच्छति ॥७२॥ स भुंक्त भाषते शेते, चरति स्वेच्छया पुनः । अत एव गुणा मूर्ख, बहवः सन्ति सौख्यदाः ॥७३॥ यथा चोक्तं-"मूर्खत्वं हि सखे ! ममाऽपि रुचितं तस्मिन् यदष्टौ N| गुणा, निश्चिन्तो बहुभोजनो त्रपमना नक्तंदिवाशायकः । कार्याऽकार्यविचारणान्धवधिरो मानाऽपमाने समः, प्रायेणा ऽऽमयवर्जितो दृढवपुर्मूर्खः सुखं जीवति ॥७॥" अतः परं तु कस्मैचि-कथयिष्याम्यहं न हि । पदमात्रमपीत्येवं, ध्यात्वा मौनं चकार सः ॥७५॥ ततो द्वादशघस्रान् स, यावत्संजीव्य पातकम् । तदनालोच्य रोगार्त-वार्तध्यानपरो मृतः ॥७६॥ राजस्तव सुतो जातः, पूर्वोपार्जितकर्मणा। अतिमूर्खश्व कुष्ठादि-रोगप्रपीडितोऽजनि ॥७७|| इति गुरोर्वचः श्रुत्वा, जाति pomeoneOBCODoncomcoreone ॥ ६ For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानपञ्चमी कथा द्वादशपर्व स्मृत्या ददर्श सः। वरदत्तः सुतः स्वानु-भूतं पूर्वभवं निजं ॥७८॥ नृपोऽय पाह सूरीशं, गमिष्यन्ति भदन्त हे ! कथा-संग्रह || कथं कदाऽस्य कुष्ठादि-रोगास्तदाऽवदद्गुरुः ॥७९॥ पूर्वोक्तविधिनाऽऽराध्या, कार्तिकशुक्लपश्चमी । प्रतिपन्नं कुमारेण, भावेन पश्चमीतपः ॥८०॥ गुरुं नत्वाऽथ सर्वेऽपि, स्वस्वस्थानं ययुस्ततः । तत्तपः कुर्वतस्तस्य, सर्व रोगाः क्षयङ्गताः ।।८१॥ स्वयंवरागताश्चैक-सहस्र राजकन्यकाः। वरदत्तकुमाराय, पितृभ्यां परिणायिताः ॥८२॥ नृपोऽपि वरदत्ताया-ऽधीताऽशेषकळाय च। दत्वा राज्य स्वयं दीक्षा, जग्राह गुरुसन्निधौ ॥८६॥ अखण्डाज्ञो निजं राज्यं, वरदत्तोऽथ पालयन् । प्रतिवर्ष महाशस्था, विदधे पश्चमीविधिम् ||८४॥ राज्यं दत्वा स्वपुत्राय, वरदत्तनृपो ललौ। भुक्तभोगी व्रतं त्यक्त-बाह्यान्तरपरिग्रहः ॥४५॥ ततोऽय गुणमअर्या-स्तनोस्तपः प्रभावतः । रोगाः क्षयं गताः सर्वे, साजनि सुन्दराकृतिः ॥८६॥ सा चाऽय जिनचन्द्रेण, परिणीता महोत्सवात् । करमोचनवेलायां, पित्रा दत्तं धनं बहु ॥८७॥ चिरं भुक्ता सुखं यावज्जोवे सा पञ्चमीतपः । कृत्वा प्रान्ते पुनर्दीक्षां, जग्राह गुणमअरी ॥ ८८॥ तौ गुणमञ्जरीसाधो-वरदत्तमुनीश्वरौ । जिनोदितच चारित्रं, पाळयामासतुर्वरम् ।।८९॥ प्रान्ते चाऽनशनं कृत्वा, तौ द्वौ मृत्वा समाधिना । वैजयन्तविमाने च, समुत्पन्नौ सुरोत्तमौ ॥९०॥ इतो महाविदेहेऽभू-दमरसेनभूपतिः । नगर्यां पुण्डरी किण्यां, तस्य गुणवती प्रिया ॥९१॥ स वरदत्तजीवोऽथ, ततश्च्युत्वा तयोः सुतः । शूरसेनाऽभिधो जातः, प्राप्तश्च यौवनं क्रमात् ॥९२॥ कन्यकानां शतम् तेन, परिणीतं महोत्सवात् । स्वराज्ये स्थापितः पित्रा, न्यायी राज्यं करोति सः ॥९॥ विहरनेकदा तत्र, सीमन्धरजिनोऽगमत् । अहंदागमनं श्रुत्वा, वन्दितुं भूपतिर्ययौ ॥९॥ भगवता समारब्धा, प्रवरा धर्मदेशना । तत्र सौभाग्यपञ्चम्या-स्तपःफलं प्रकाशितम् ॥१५॥ पृष्टं राज्ञा ततः स्वामिन् !, केनाऽपि तपसः फलं। माप्त ? तदाऽवदद्भप-वरदत्त cococialoceODee CococcoCO20200ca For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कथां प्रभुः ॥९६॥ जातजातिस्मृतिः श्रुत्वा निजं पूर्वभवं पुनः । शूरसेनन रेशोऽलात्, सौभाग्यपञ्चमीत्रतम् ॥ ९७ ॥ शूरसेननृपो यावद्दशसहस्रवत्सरान् । राज्यं कृत्वा जिनाधीश-पार्श्वे संयममग्रहीत् ||१८|| सहस्रवत्सरं याव - दीक्षां पाल्य कर्मणाम् । क्षयं कृत्वा स उत्पाद्या-ऽन्तिमज्ञानं शिवं ययौ ॥ ९९ ॥ स गुणमञ्जरीजीवः, सुखं भुक्त्वा ततश्च्युतः । विजये रमणीयाख्ये, शुभङ्करा महापुरी ||१०० || अमरसेनभूपस्या-मरावतीमियोदरे । सुतत्वेन समुत्पन्नः, पूर्णे च समयेजनि ॥ १०१ ॥ युग्मम् ॥ पित्रा सुग्रीव इत्याख्या, दत्ता तस्य स यौवनं । प्राप्तस्तस्मै पुनर्भूरि, कन्याश्च परिणायिताः ॥१०२॥ तं विंशतितमे वर्षे, राज्यं दत्वा स्वयं नृपः । दीक्षां कलौ गुरोः पार्श्वे, वैराग्याश्चितमानसः ॥ १०३ ॥ अथ सुग्रीवभूपोऽपि यावत्मभूतवत्सरान्। राज्यं प्रपाल्य जग्राह प्रव्रज्यां गुरुसविधौ ॥ १०४ ॥ पूर्वलक्षं च चारित्रं, पाल्य वरकेवलं । ज्ञानमुत्वाय निर्वाणा -क्षयसुखञ्च सोऽन्वभूत् ॥ १०५ ॥ जायन्तेऽधिकसौख्यानि पञ्चम्याराधनान्नृणाम् । इत्यस्या अभिधा जज्ञे, लोके सौभाग्यपञ्चमी ॥ १०६ ॥ एवं विभाव्य भो भव्याः !, पञ्चम्याराधनोद्यमः । भवभीतिविभेदाय, कार्यों युष्माभिरतः ॥ १०७॥ इति कार्त्तिकसौभाग्य-पञ्चमीतपसोऽकथि । महात्म्ये वरदत्ता - ऽन्वितगुणमञ्जरीकथा || १०८ || क्षमाकल्याणकोषाध्या - यकृतगद्यसंस्कृतात् । श्लोकाः सन्दर्भिताः प्रेम - मुनिगणेः समाग्रहात् ॥ १०९ ॥ श्री जिनरत्नसूरीणा - माज्ञानुवर्त्तिना मया । पाठकलब्धिना संवद् - बाणखखाक्षि (२००५) वत्सरे ॥ ११० ॥ युग्मम् ॥ ॥ इति ज्ञानपञ्चमीकथा समाप्ता ॥ For Private and Personal Use Only ज्ञानपञ्चमी कथा || 6 || Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व 10 कार्तिक पूर्णिमा कथा कथा-संग्रह (२) अथ कार्तिकपूर्णिमा-कथा । economopenzoperce श्रीसिद्धाचलतीर्थेशं, प्रणम्य ऋषभप्रभुम् । कार्तिकशुक्लराकाया, माहात्म्यं तन्यते मया ॥१॥ अस्यां कार्तिक| सकायां, सिद्धाचले शिवं गता। द्राविडवारिखिल्लाया, मुनिवरा अनेकशः ॥२॥ तद् दृष्टान्तो यथा द्वीपे, जम्बूद्वीपामिधे वरे । दक्षिणभरते मध्य-खण्डे चेक्ष्वाकुभूमिषु ॥३॥ एतस्यामवसर्पिण्यां, नाभिकुलकरः पुरा । बभूव सप्तमस्तस्य, मरुदेव्यभिधा प्रिया ॥४॥ युग्मम् ॥ तस्याः कुक्षौ समुत्पन्नः, प्रथम ऋषभः । स च षड्लक्षपूर्वाणि, कुमारपदसंस्थितः ॥५॥ तदनन्तरमिन्द्रेण, द्वे सुनंदा-सुमंगले । संपरिणायिते भार्ये, स्वामिने विश्वबंधवे ॥६॥ मरतबाहुबल्याद्या, बभूवुः शतसनव द्वे ब्राह्मीसुन्दरी पुत्र्यो, भगवतो जगद्गुरोः ॥७॥ संसारव्यवहारोऽत्र, सर्वो येन प्रवर्तितः । असि-कृषिमषिनीति-लेखनककलादिकः ॥८॥ विंशतिलक्षपूर्वाणि, व्यतीतानि ततोऽनु च । त्रिषष्टिलक्षपूर्वाणि, राज्यपदे स्थितः प्रभुः ॥९॥ प्रव्रज्याऽवसरं ज्ञात्वा, प्रभुर्ददौ विभज्य च। भरतादिस्वपुत्रेभ्यः, निजं राज्यं जिनेश्वरः ॥१०॥ विनीता | नगरी मूल-राजधानी समागता । भरतस्य पुनर्बाहु-बलेस्तक्षशिलापुरी ॥११॥ दीक्षां कलौ स्वयं स्वामी, केवळज्ञानदर्शनम् । समुत्पाद्य च देशेषु, धर्मवृद्धिं चकार हि ॥१२॥ स्वनाम्ना द्रविडं देशं, तत्र च काश्चनं पुरं । वासयित्वा DecememoeopeeDecemeze ॥८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभोः पुत्रो, द्रविडोऽपि शशास तम् ॥१३॥ अथ द्रविडभृपस्य, राज्यं पालयतः क्रमात । द्राविडवारिखिल्लाख्यौ, द्वादशपर्व-100 पुत्रौ शुरौ बभूवतुः ॥१४॥ क्रमाद्भोगसमयौं द्वौ, सुतौ प्रतिविवाहिताः। कन्याः पित्राऽथ संजाता, भूरिपुत्रास्तयोरपि IN कार्तिककथा-संग्रह पूर्णिमा कथा ॥१५॥ अमोच्यर्थकदा स्वाज्ञा-पालनार्थ पृथक्पृथक् । दूतोऽष्टनवतिभ्रात-पार्श्व भरतचक्रिणा ॥१६॥ तदा सहोदराः सर्वे, दूतमुखाच शुश्रुवुः । भरतचक्रवनिव-महापदस्वरूपकम् ॥१७॥ ततो द्रविडभूपोऽपि, द्राविडाय स्वराज्यकम् । वारिखिल्लाय लक्षक-प्रामान् पृथग वितीर्य च ॥१८॥ अन्येऽपि स्वस्वपुत्रेभ्यः, स्वस्वराज्यं वितीयं च । सर्व त्यक्सा प्रभोः पार्श्व, दीक्षां भागवतीं कलुः ॥१९॥ युग्मम् ।। ऋषभस्वामिना सार्द्र, विहरन्तोऽय तेऽखिलाः। तपः संतप्य संपापुः, केवलज्ञानदर्शनम् ॥२०॥ द्राविडवारिखिल्लौ द्वौ, भ्रातरौ जनकार्पितम् । स्वस्वराज्यं प्रकुर्वाणी, कालं सुखेन निन्यतुः ॥२१॥ एकदा द्राविडो भूपः, स्वचेतसि व्यचिंतयत् । लक्षग्रामाः वरा दत्ताः, पित्रा मे लघुबन्धवे ॥२२॥ तद्भव्यं न कृतं पित्रा, मद्राज्ये न्यूनता कृता । परं तृद्दाल्य तद्राज्य-मई लास्यामि हेलया ॥२३॥ विचार्येति स सम्मोल्य, स्वसैन्यं प्रबलं स्वयम् । युद्धाय वारिखिल्लं स्व-बन्धुं प्रति चचाल हि ॥२४॥ तदागमनवृत्तान्तं, श्रुत्वा | सोऽपि निजं बलम् । लात्वा च निजसीमान्ते, युद्धकामी रुरोध तम् ॥२५॥ संग्रामोऽभूवयोत्रो-र्यावद् द्वादश| वत्सरम् । तत्र क्षयं गता अश्वा, गजा नरा स्था घनाः ॥२६॥ ईदृशो जायते युद्ध-स्तस्मिन्नवसरे वने । कीडार्थ द्राविडो भूपो-ऽगात्सरोवृक्षशोभिते ॥ २७॥ तन्मध्ये तापसा कोकाः, कुर्वाणा विविधं तपः। दृष्टा द्राविडम्पेन, चाश्चादुत्तीर्य वंदिताः ॥२८॥ तापसपतिना तस्मै, प्रदत्ता धर्मदेशना । संसारासारतादृष्टा-ऽदृष्टपदार्थसूचिका ॥२९॥ तदुक्तम्- "गयकण्णचंचलाई, अपरिचत्ताई रायलच्छीए । जीवा सफम्मकलमल-भरियभरातो पडंति अहे ॥३०॥" ॥९ ॥ Dewrezzremeen conorporaemovecommende For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपथेकथा-संग्रह ॥ १० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इत्यादि देशनां श्रुत्वा प्रतिबुद्धोऽय द्राविडः । ज्ञात्वा सर्वमनित्यं हि क्रोधं त्यक्त्वा व्यचारयत् ॥ ३१ ॥ अहो मे जीवितं far is एव विद्यते । यावद् द्वादशवर्षाण्य-हं तेन युयुधे समम् ||३२|| तदनिष्टं कृतं कार्य, मयैततोकजीवने । एतत्किं क्रियते ? वैरं, राज्यलोभवशेन च ||३३|| विचार्यैवं स उत्थाय द्राविडस्तापसाश्रमात् । क्षाम कोर्भ्रातुः पार्श्वगात्सैन्यमध्यतः ||३४|| वृद्धं भ्रातरमायान्तं वारिखिल्लोऽपि सम्मुखम् । आगत्य ज्ञातवृत्तान्तः, पपात तस्य पादयोः ||३५|| द्राविडो बाष्पपूर्णाक्षिः, स्नेहार्द्रहृदयश्च तम् । उत्थाप्योवाच हे भ्रात !, मद्राज्यं त्वं गृहाण तत् ||३६|| लास्यामि तापसीं दीक्षां वारिखिल्लोऽवदत्तदा । अहमपि न लास्यामि, राज्यमनर्थदायकम् ॥३७॥ एवं परस्परं तौ द्वौ । समालोच्य विभज्य च । अर्घाऽधं स्वस्वपुत्राभ्यां राज्यं वितीर्य हर्षितौ ॥ ३८ ॥ नृपञ्चपञ्चकोटीयपरिवारेण तापसीम् । दीक्षां जगृहतुस्त्यक्त्वा, कुटुम्बादिपरिग्रहम् ॥ ३९ ॥ कुर्वन्तौ कन्दमूलाया- हारं वल्कळचीवरम् । धारयन्तौ तपस्यन्तौ जातौं कृशतन च तौ ॥४०॥ एवं बहुतरे काले, गते तत्र समागताः । गच्छन्तस्तीर्थयात्रार्थ मुनयो मुनिसत्तमाः || ४१ || द्राविडवारिखिल्लाभ्या - मत्यादरेण साधवः । सत्कृतास्तत्र वृक्षाध-स्ते प्रमायनिं स्थिताः || ४२|| उपविष्टौ मुखाग्रे तौ, तस्मिन् क्षणेऽथ पादपात् । पतितथटकश्चैको, मूच्छितो मुनिसम्मुखम् ॥४३॥ ज्ञात्वा तं चटकं स्तोका -युषमेकेन साधुना । सुश्रावितो नमस्कारः, सिद्धाद्रिमहिमा पुनः ॥ ४४॥ चटकस्तत्प्रभावेण सुरो जातो महर्द्धिकः । आयस्वर्गे स आगत्य ततो मुनीन्ननाम च ॥ ४५ ॥ तदानीं तापसौ साधुं पप्रच्छतुर्मुनीश्वरौ । कोऽयं सुरोऽस्ति ? चात्यन्त-रूपकान्तिमधारकः || ४६ || तदा प्राह मुनिर्मृत्वा ऽयं चटकः सुरोऽजनि । श्रीनमस्कारमाहात्म्या-रिसद्धाद्रिभावधारणात् ||४७॥ अधुना तीर्थराजं स प्रणम्याऽत्राऽऽगतोऽस्ति च । श्रुत्वा गुरुमु For Private and Personal Use Only |" कार्त्तिकपूर्णिमा- कथा ॥ १० ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह A ॥ ११॥ cenezeceODeceDece खादेत-तौ च पच्छतुः पुनः ॥४८ । गुरोऽस्ति ? कीदृशः सिद-गिरिर्माहात्म्यमस्य च । संश्रावय कृषां कृत्वा, तदा वाचंयमोऽवदत् ॥४९॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्या-स्ति दक्षिणार्द्धभारते । सौराष्ट्र श्रीमहातीर्थ-शत्रुञ्जयो महागिरिः ॥५०॥ कार्तिक IN पूर्णिमा कथा अलंकृतो महातीर्थः, सोऽष्टोत्तरशताभिधैः । १ शत्रुञ्जयः, २ पुण्डरीकः, ३ सिद्धाद्रिविमलाऽचलः ४ ॥५१॥ ५ सुरगिरिमहाशैलः ६, ७ पुण्यराशिगिरिस्तथा। ८ श्रीपदः ९ श्रीपदस्थान-१० मिन्द्रप्रकाशपर्वतः ॥५२॥ ११ महातीर्थगिरिर्मुक्ति-१२ निलयः १३ शाश्वतो नगः । १४ दृढशक्तिगिरिः १५ पुष्प-दन्तो १६ महादिपकः ॥५॥ १७ पृथ्वीपीठः १८ सुभद्राद्रिः, १९ कैलाशपर्वतस्तथा । २० पाताळमूलशैलेशः, २१ सर्वकामगिरिस्तथा ॥५४॥ एकविंशतिसं ज्ञामिः, ख्यातोऽस्त्ययं गिरिजने । शाश्वतो नामनिक्षेपा-महातीर्थो नगोत्तमः ॥५५॥ अनन्ता मुनयः पूर्व, सिद्धाचले | शिवं गताः । यास्यन्त्यागामिकाले च, निर्वाणं भव्यजन्तवः ॥५६॥ नवनवतिपूर्वाणि, वाराणि ऋषभप्रभुः। समव| मृतास्तत्र, राजादनीतरोरधः ।। ५७ ॥ संप्रत्याख्यचतुर्विश-तमाहतो गतः शिवम् । कदम्बगणभृदाद्य-स्तत्र तन्नामतो गिरिः ॥५८॥ ऋषभस्वामिनः शिष्यः, पुण्डरीकाभिधोऽधुना । आयो गणधरः साद्ध, साधूनां पश्चकोटिभिः ॥५९॥ चैत्रधवलराकायां, ययुः शत्रुञ्जयोपरि । मोक्षं कर्मेन्धनं दग्ध्वा, शुक्लध्यानामिनाऽखिळम् ॥६०॥ श्रीनमिविनमी तत्र, | विद्याधरौ शिवं गतौ । द्विद्विकोटिपरिवारः, दशम्यां फाल्गुनाऽर्जुने ॥६१॥ चैत्रशुक्लचतुर्दश्यां, नमिविनमिभूपयोः । चतुष्षष्टिसुतास्तत्र, सिद्धाचले शिवं गताः॥६२॥ तेन शिवगृहारोहे, सोपानसदृशो मतः। सिद्धाद्रि लवत्पाप-मळपक्षाकने पुनः ॥६॥ येन नरभवं प्राप्य, गत्वा शत्रुअये गिरौ । आदिजिनस्य नाऽकारि, द्रव्यभावेन पूजनम् ॥६४॥ नरत्वं हारितं तेन, पुनश्च तस्य जीवितम् । सफलं तीर्थबुद्धया य-स्तत्रार्चति जिनेश्वरम् ॥६५॥ युग्मम् ।। एवं गुरुमुखासिद्धा IN ॥ ११ ॥ omeremewo@COODecoroen For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्य कथा-संग्रह ॥ १२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माहात्म्यं बृहत्तरम् । श्रुत्वा तौ तापसौ जातौ स्वचित्तेऽतीव हर्षित ||६६ ॥ ततो निजगुरोराज्ञां, लात्वा शत्रुंजयं प्रति । चेलतुस्तौ समं पञ्च पञ्चकोटिस्वतापसैः ॥६७॥ द्राविडवारिखिल्लौ स्व-परिवारान्वितौ क्रमात् । गत्वा शत्रुञ्जयं चेत्थं, जगृहतुरभिग्रहम् ||६८ || कर्मक्षयो यदाऽस्माकं भविष्यति तदाऽशनम् । ग्रहिष्याम इति ध्यात्वा, गृहित्वाऽवग्रहं पुनः ॥ ९९ ॥ स्त्रीकृत्य भावतः साधु- धर्मं श्री विमलाचले । तौ चक्रतुचतुर्मासीं तपस्यन्तौ वरं तपः ॥७०॥ युग्मम् ॥ तौ शुभभावनायुक्त, शुभध्यानपरायणौ । त्रयोदशगुणस्थाना रूढौ क्रमेण तापसौ ॥ ७१ ॥ कार्तिकशुक्रराकायां चतुर्मास्यान्तवासरे । शुक्लध्यानेन निर्दग्ध्वा धातिकर्मचतुष्टयम् ॥७२॥ द्राविडवारिखिल्लाभ्यां केवलज्ञानदर्शनम् । उपार्जितञ्च पद्रव्यathistoriesम् ॥५३॥ युग्मम् || बहुकालं विहृत्याज्य, प्राणिनः प्रतिबोध्य च । प्रान्ते चाऽयातिकर्माणि, क्षपfear सुयोगतः ॥७४॥ द्राविडवारिखिल्लर्षी, दशकोटिकसाधुभिः । सार्द्धं शत्रुञ्जये कर्म-प्रहीणौ जग्मतुः शिवम् ॥७५॥ युग्मम् || कार्त्तिकशुक्ल काऽस्ति, तेनाऽतबोत्तमा तिथिः । चैत्रीयशुक्लराकाऽपि तद्वदत्युत्तमा मता ॥ ७६ ॥ कार्त्तिकचैत्रकायां ततः शत्रुञ्जये गिरौ । अवश्यमेव कर्त्तव्या, यात्रा विशुद्धभावतः ॥ ७७ ॥ कुर्यात्तस्मिन् दिने सामायिकं देशावकाशिकम् । पौषधादियथाशक्ति — चोपवासादिकं तपः ॥ ७८ ॥ पुनः स्नात्रबृहत्पूजा, रथयात्रा महोत्सवम् । वर्द्धमानसुभावेन कुर्याज्जिनेन्द्रपूजनम् ।। ७९ ।। पुनर्ग्रामाद्बहिर्गत्वा, श्रीशत्रुञ्जयसम्मुखम् । तत्पटाग्रे क्रिया कार्या, श्रीचैत्यवन्दनादिका ||८०|| इत्यादिधर्मसत्कृत्यैः समाराध्या तिथिश्व सा । यतो रयान्निर्जरा बही - कर्मक्षयः शिवस्तथा ॥ ८१ ॥ पुनस्ततः परं जग्मुः, श्री ऋषभादिशासने । अनेके मुनयो मोक्षं, संस्पश्यं विमलाचलम् ||८२|| तिर्यञ्चो मनुजा भद्रा, विलोक्य भाषा | सिद्धाद्रिं सद्गतिं जग्मु-र्गमिष्यन्ति क्रमाच्छित्रम् ॥८३॥ शत्रुञ्जय महातीर्थं पश्यम्ति भव्यजन्तवः । For Private and Personal Use Only कार्त्तिकपूर्णिमा- कथा ॥ १२ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व कार्तिकपूर्णिमा कथा कथा-संग्रह connecranecoomenon02 आन्तरचक्षुषा नैवा-ऽभव्यदुर्भव्यपापिनः ॥८४॥ नवनवतिवारांस्त-यात्रार्चादिविधानतः । षष्ठाष्टमतपःपूर्व, महती निर्जरा भवेत् ॥८५॥ पुनस्तत्र चतुर्मासी, कुर्वतो दानमर्पतः। सप्तक्षेत्रे निज द्रव्यं, वपतः स्यान्महाफलम् ॥८६॥ अनादिभवचक्रेषु, प्राणिनां भ्रमतामयम् । तीर्थराजोऽस्ति विश्राम-भूतो निर्भयकारकः ॥८७॥ प्राप्य नरभवं सिद्धा-ऽचळयात्रा:चनादिकम् । न कृतं येन भावेन, स ज्ञेयो दुःखिशेखरः ॥ ८८॥ शत्रुञ्जयप्रभावेणा-ऽतिनिन्धकर्मकारिणः । भवन्ति निर्मलाः शुद्ध-प्रवृत्तिकारिणः पुनः ॥८९॥ द्विकोटिमुनिभिः साई, श्रीसागरमुनिः पुनः । सिद्धाचले ययौ मोक्ष-मक्षयमुखशाश्वतम् ॥१०॥ कोटिभिर्मुनिभिः सार्द्ध, श्रीसारोगाच्छिवं पुनः। सोममुनित्रयोदश-कोटिभिर्मुनिभिगिरौ ॥११॥ पुनरादित्यकान्त्याख्य-मुनिलक्षकसाधुभिः । चतुर्दशसहस्राय-दभितारी शिवं गतः ॥९२॥ स सप्तदशकोव्याऽऽर्यो-ऽजितसेनमुनीश्वरः। आनन्दरक्षितौ साधू, सिद्धाचले शिवं गतौ ॥९॥ शिवंगतश्च कालाशी, चैकसहस्रसाधुभिः, समं सप्तशतायश्चा-त्र समुद्रमुनिः पुनः ॥९॥ रामचन्द्र मुनिः कोटि-मुनिभिर्भरतः पुनः। नारदमुनियावच्चा-पुत्रस्तत्र शिवं ययौ ॥१५॥ पाण्डवपञ्चकं सार्द्ध-विंशतिकोटिसाधुभिः। शैलकः पन्थकश्चापि, शुकमुनिः शिवं ययौ ॥९६॥ प्रद्युम्नशाम्बसाधुश्च, सार्द्धत्रिकोटिसाधुभिः। तत्र शिवं गतावेव-मनेके मुनयः पुनः॥९७॥ पुनरनेकशः साध्व्यो, दाद्याः शिवं ययुः । समूळाखिलकारी-नुत्खात्य विमलाचले ॥९८॥ समाराध्य च संस्पश्य, सुतीर्थ विमलाचलम् । अनेके भूचरा विद्या-धराः शिवालयं गताः ॥९९॥ यन्नामस्मरणात्क्रूराः, श्वापदाः प्रभवन्ति न । अनिष्टकारिणश्चौरा, उपद्रोतुं सुराधमाः ॥१०॥ यत्रामस्मरणादत्र, परत्र सर्वसम्पदम् । क्रमाच्छिवसुखं चानु-भवन्ति भव्यजंतवः ॥१०१॥ श्रीखर Dome20Bepependena For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ १४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरगच्छीय, श्रीजिनरत्नसूरयः । तेषां शिष्यगणिप्रेम-मुनेः समाग्रहेण च ॥ १०२ ॥ कार्त्तिकशुकराकायाः, कथा पाठककन्धिना । जयपुरे शराभ्राम्र - नयन (२००५) वत्सरे कृता ॥ १०३ ॥ युग्म् ॥ ॥ इति कार्त्तिकपूर्णिमाकथा समाप्ता ॥ met ( ३ ) अथ मौनएकादशी पर्व- कथा । नत्वा प्रभुं महावीरं वर्द्धमानं जिनेश्वरम् | मार्गशीर्षशुक्लैका-दशी माहात्म्यमुच्यते || १ || अरस्याऽस्मिन् दिने दीक्षा, नमिप्रभोव केवलम् । ज्ञानं जन्मव्रतज्ञान-त्रयं मल्ल्यर्हतोऽभवत् ||२|| यथाऽस्मिन् भरते पञ्च-कल्याणकानि साम्प्रतम् । चतुर्भरतपञ्चरवतक्षेत्रे तथाऽभवन् ||३|| मिलित्वा दशाक्षेत्रेषु, साम्प्रतसमयेऽभवत् । त्रिंशज्जिनेन्द्रपञ्चाश- स्कल्याणककदम्बकम् ||४|| एवं भूतभविष्यदुद्वि-काल संकलनात्त्रिषु । कालेषु चाऽभवन् सार्द्ध-शतकल्याणकानि च ॥५॥ कृत एकोपवासोऽपि, वासरेऽस्मिन् भवेत्फलम् । सार्द्धशतोपवासानां, निर्वाणसुखदायकम् ।। ६ ।। अस्मिन् दिने विधायोप- वासं मौनं प्रधार्य च । नान्यत्किमपि वक्तव्यं, भणनं गुणनं विना ॥ ७॥ यावद्यामाष्टकं स्थेयं, पौषधे सुसमाधिना । कार्य For Private and Personal Use Only CO मौनएकादशी पर्व- कथा ॥ १४ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ १५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेकाशनं तस्य, पूर्वोत्तरीयपारणे ॥ ८ ॥ पारणकदिने कृत्वा जिनाऽर्ची झानपूजनम् । प्रणम्य सुगुरून् शुद्धा हारेण प्रतिलाम्य च ||९|| कर्त्तव्यं पारणं चैवं, सदैकादशवत्सरम् । मासैकादशपर्यन्तं कार्यमेकादशी व्रतम् ॥१०॥ युग्मम् ॥ द्वादशे वत्सरे पूर्णे, व्रते प्रपाल्य पौषधम् । अभिवंद्य गुरून् देवान् ज्ञानं संपूज्य भावतः ॥ ११॥ धान्यसत्फळ पक्वान्नाद्यानि जिनेशितुः पुरः । सारैकादशवस्तूनि, ढौक्यानि च पृथक् पृथक् ॥ १२ ॥ पुनर्जघन्यतश्चैका - दशसाधर्मिवत्सलम् । मनैकादशाङ्गानां कार्य पुस्तक लेखनम् ॥ १३॥ इत्याद्युद्यापनं कार्य, यथाशक्तिविशेषतः । ज्ञानदर्शनचारित्रो-पकरणविधानतः || १४ || अन्यदा द्वारिकापूर्याः, परिसरे समाययौ । नेमिनाथो जिनाधीशो, भव्यांश्च प्रतिबोधयन् ।। १५ ।। श्रीकृष्णोऽपि प्रभुं नतुं समागत्य प्रणम्य च । प्रोवाचास्ति प्रभो ! घस्र-षष्ट्यधिकशतत्रयम् ॥ १६ ॥ तन्मध्याद्वासरं चैकं, प्रवरं कृपया वद । व्रतहीनो यमाराध्य, निस्तीर्णो हि भवाम्यहम् ॥ १७ ॥ स्वामी जगाद यद्येवं समाराधय तर्हि भोः । प्रवरां मार्गशीर्षस्य, घवलैकादशी तिथिम् ||१८|| अपि मिथ्यादृशां मान्या, सा मौनैकादशी तिथिः । मार्गशीर्षाख्यमासस्य, शुक्लपक्षे प्रकीर्त्तिता ॥ १९ ॥ तत्र पुण्यं कृतं स्वल्प-मपि प्रौढफलं भवेत् । तस्मादाराधनीया सा, विशेषेण विशारदैः ॥ २० ॥ सर्वेभ्योऽपि च पर्वभ्यः, पर्वपर्युषणाह्वयं । दिनेम्योऽप्यखिलेभ्योऽयं, तथा मुख्योऽस्ति वासरः ||२१|| श्रमणैः श्रमणीमिश्र, श्रावकैः श्राविकादिभिः । धर्मकर्म विधातव्य-मऽस्मिन् दिने विशेषतः ॥ २२ ॥ कृष्णः श्रुत्वेत्यव स्वामिन्!, पूर्वमेकादशीव्रतम् । आचीर्णे ? केन तस्याऽभूत्, फळमातिश्व कीदृशी १ ||२३|| भगवान्याह भो कृष्ण !, तस्या माहात्म्यसूचिका । सूरश्रेष्ठिकथाsत्र त्वं, सावधानतया शृणु ॥ २४ ॥ बभूव धातकाखण्डे, इषुकाराख्यभूधरात् । पश्चिमे दिग्विभागे च विजयपुरपत्तनम् ।। २५ ।। पृथ्वीपालनृपस्तत्रा - ऽभवत्सज्जनपालकः । राज्ञी For Private and Personal Use Only मौनएकादशी पर्व- कथा ॥ १५ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा संग्रह मौनएकादशी पर्व-कथा Dooremovemenezoes चन्द्रावती तस्य, शीलादिगुणशालिनी ॥२६॥ तत्र मुराभिधः श्रेष्ठी, व्यवहारिशिरोमणिः । न्यायार्जितबहुद्रव्यः, ख्यातो बहुसुतोऽवसत् ॥२७॥ पद्विधावश्यके रक्तो, जिनेन्द्रभक्तिकारकः । वृद्धावस्थो गुरोः पाश्र्वे, स आगत्यैकदाऽवदत् ॥२८॥ स्वामिनिदृग्विधं धर्म, कथय येन मे भवेत् । स्तोकेनापि महाकर्म-क्षयस्तदाऽवदद्गुरुः ॥२९॥ एकादशाब्दमासैकादशान्तैकादशीव्रतम् । कुरु सोऽप्यथ चक्रे तद्-व्रतं गुर्वाज्ञया मुदा ॥३०॥ समाप्ते च व्रते तेन, तस्य चोद्यापनं कृतम् । उद्यापनदिनात्पश्च-दश घसा यदा ययुः ॥११॥ स तदोदरशूलेन, मृखाऽऽरणे सुरोत्तमः। एकविंशतिसिन्ध्वायुः, स्वर्ग चैकादशेऽजनि ॥१२॥ इतः समृद्धिदत्ताख्यः, शौर्यपुरे वणिग्वरः। प्रीतिमती प्रिया तस्य, वभूव गुणशालिनी ॥३३॥ देवलोकसुखं भुक्त्वा, ततश्युत्वा स निर्जरः । तस्याः कुक्षौ समुत्पन्नः पुत्रत्वेन शुभे क्षणे ॥३४॥ तन्नाळस्थापनायाथ, गर्ता च खनितुं यदा। समारब्धं तदाऽकस्मा-त्तत्स्थाने निर्गतो निधिः ॥३५॥ तद्वर्धापनिका जाता, सर्वत्र हर्षितः पिता । महज्जन्मोत्सवं चक्रे, यावद्दशदिनावधि ॥३६॥ प्राप्ते च द्वादशे घस्र, निवृत्तेऽशुचिकर्मणि । भोजयित्वा स्वजातीय-बान्धवस्वजनादिकम् ॥३७॥ गर्भस्थेऽस्मिन् व्रतेच्छाऽभू-त्तन्मातुरिति सुव्रतः। तमाम गुणनिष्पन्नं कृतं पित्रा | न निर्गुणम् ॥३८॥ युग्मम् ॥ यथा चोक्तं-" भौमं मंगल विष्टिनामकरणे भद्रा कणानां क्षये, वृद्धिः शीतलिका च दुष्ट पिटके राजा रजःपर्वणि । मिष्टत्वं लवणे विषे मधुरता दग्धे गृहे शीतलम् , पात्रत्वं च पणाङ्गनासु गदित नाम्ना परं नार्थतः | ॥३९॥" पञ्चभिरय धात्रीभि-लाल्यमानं च सुव्रतम् । तमष्टवार्षिकं दृष्ट्वा, तज्जनकेन चिन्तितम् ॥४०॥ रूपलावण्यसंयुक्ता, नरा जात्यादिसंभवाः। विद्याहीना न राजन्ते, ततोऽमुं पाठ्याम्यहम् ॥४१॥ विचिन्त्यैवमुपाध्याया-म्यणे महोत्सवापिता । द्वासप्ततिकलाभ्यास, कतै मुमोच सुव्रतम् ॥४२॥ सोऽपि सर्वाः कलाः स्वल्प-कालेनैवाऽपठत्सुधीः । षड्विधा Domeeroeioeoeez@eDeepersex For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ १७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वश्यकादीनि, सूत्राणि कार्मिकाणि च ॥ ४३ ॥ श्रीकान्ताख्या पुनः पद्मा, लक्ष्मीर्गङ्गाभिघा पुनः । पद्मलताभिधा तारा, रंभा गोरी च पद्मनि ॥ ४४ ॥ गांगेया रतिनाम्नीति, महेम्यव्यवहारिणाम् । एकादश सुतास्तस्मै, पित्रा च परिणायिताः ॥ ४५ ॥ रूपलावण्ययुक्ताभिः ताभिः सार्द्धं स सुव्रतः । भुञ्जानो विविधान् भोगान, दोगुंदसुवद्बभौ ||४६ ॥ समारोप्यान्यदा श्रेष्ठी, गृहभारं सुते स्वयम् । ललौ दीक्षां गुरोः पार्श्वे, स्वपरक्षेमकारिणीम् ॥ ४७ ॥ सम्यक्प्रपाल्य चारित्रं कृत्वान्तेऽनशनं पुनः । मृत्वा समाधिना स्वर्ग, प्राप्तो वाचंयमः स च ॥ ४८ ॥ अथाऽभूत्सुव्रतः श्रेष्ठी, तेन च पूर्वजन्मनि । सम्यगाराधिता मार्ग-धवलैकादशीतिथिः ॥ ४९ ॥ तेन चैकादशस्वर्ण- कोटिस्वामी स चाऽजनि । कालं निनाय सौख्येन धर्मकर्मपरायणः ॥ ५० ॥ तथैकैक प्रिये केक - पुत्रत्वेन गुणाकराः । सर्वत्र विश्रुताः जाता|स्तस्यैकादश सूनवः ॥ ५१ ॥ तेषाञ्च परिवारोऽपि विपुलोऽजन्यथैकदा । पुरोधाने समायाता, धर्मघोषमुनीश्वराः ॥ ५२ ॥ गता राजादयस्तत्र, सुव्रत वंदितुं ययौ । तदानीं गुरुणाऽप्येषां तपसो महिमा कथि ॥५२॥ यद् दूरं यद् दुराराध्यं, यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥५४॥ पञ्चमीतपसा तत्रा-ज्वाप्यते ज्ञानपञ्चकम् । अमीता कर्मा निषूदनं भवेत् ||५५|| एकादशी तपस्यैका - दशाङ्गावगमः सुखात् । चतुर्दशीतपस्यातः, सर्वपूर्वागमो भवेत् ॥ ५६ ॥ पूर्णिमातपसा सर्व सिद्धान्तावगमो भवेत् । चतुर्दश्यष्टमीराका - ऽमावास्या चरणात्मिका ॥५७॥ ज्ञानात्मिका द्वितीया च पञ्चम्यैकादशीतिथिः । सर्वा परा तिथिज्ञेया, दर्शनशुद्धिकारिका ॥ ५८ ॥ ज्ञान-दर्शनचारित्र-शुद्धिखाप्यते जनैः । तपस्याराधिताभिश्रो -क्तसर्वतिथिभिः पुनः ॥ ५९ ॥ श्रुत्वैव सुव्रतश्रेष्ठी, जातिस्मृतिमवाप सः। प्राग्भवे तेन विज्ञातं स्वकृतैकादशी व्रतम् ||६०|| पुनरपि गुरोः पार्श्वे, सोऽकादाजन्म तद्व्रतम् । गुरुः प्राह For Private and Personal Use Only मौनएकादशी पर्व- कथा ॥ १७ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व-INI कथा संग्रह somopeD0000000 महाभाग !, त्वया प्राक तद्वतं कृतम् ॥६१॥ तेन त्वं निर्मलं ज्ञानं, संपाप्तमधुना पुनः । उद्यापनवशादेका-दशको- INौनएकादशी टीश्वरोऽजनि ॥६२॥ सुनिर्मलं यशो कोके, प्रभुत्वमधिकारिताम् । नगरप्रेष्ठितां राज-मान्यत्वं त्वं गतोऽधुना ॥६॥16 पर्व-कथा तत एकादशाङ्गाना-माराधनातपोऽमलम् । त्वया विधीयतां शुद्ध-धर्मकार्ये परिश्रमः ॥ ६४ ॥ सोऽथ समं कुटुम्बेन, करोत्येकादशीदिने, मौनेन पौषधं यामा-कं चतुर्विधं सदा ॥६५॥ तेन लोकेऽपि मोनैका-दशीसंबंधिपर्वणः । प्रसिद्धिर्मान्यता जाता-ऽऽराधयति जनोऽपि ताम् ॥६६॥ अन्यदा सकुटुम्बोऽथ, श्रेष्ठी विधाय पौषधम् । विधिवत्तत्र सर्वे च, कायोत्सर्गे स्थिता निशि ॥६८॥ चौरा ज्ञात्वा तदा श्रेष्ठि-मौनं चौर्यार्थमागताः। गृह्णन्ति तद्धनं याव-त्तावत्ते स्तम्भिताः दृढम् ॥६८॥ प्रातस्तान् स्तंमितान् दृष्ट्वा, कोट्टपाको नृपाग्रतः। निनाय तद्वधायाय, तमादिदेश भूपतिः ॥६९॥ पाल्य पौषधं प्रातः, श्रेष्ठी लात्वा च माभृतम् । राज्ञः पार्श्वे समागत्य, सर्वांश्चौरानमोचयत् ॥७०॥ पुनरप्येकदा | वहि-लग्नः प्रज्वलितं पुरम् । मुक्त्वात्तपौषधश्रेष्ठि-सर्वगृहापणादिकम् ॥७१॥ प्रातः पौरजना वीक्ष्या-खण्डगृहापणादिकम् ।। तं च प्रशंसयामासुः, सुव्रतश्रेष्ठिनं यथा ॥७२॥ सत्त्वेन धार्यते पृथ्वी, सत्त्वेन तपते रविः । सन्वेन वायवो वान्ति, सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥७३॥ अहो !! धर्मस्य माहात्म्य-मस्याहो दृढता व्रते । पालयेद् व्रतमेवं यो, द्विधाऽप्यस्य शिवं भवेत् ॥७४॥ यतः-"धर्माजन्मकुले शरीरपटुता सौभाग्यमायुर्बलम् , धर्मेणैव भवन्ति निर्मलयशो विद्यार्थसम्पत्तयः । कान्ताराच्च महाभयाच्च सततं धर्मः परित्रायते, धर्मः सम्यगुपासितो हि भवति स्वर्गापवर्गप्रदः ॥७५॥" एकादशीव्रते पूर्णे, श्रेष्ठिनोद्यापनं कृतम् । महता विस्तरेण श्री-सडा भक्तिपूर्वकम् ॥७६॥ वृद्धत्वे श्रेष्ठिनाऽचिन्त्य| थाऽकार्यकादशीतपः। पुनरुद्यापनं तस्य, पालितं श्रावकवतम् ॥ ७७॥ विहायासारसंसारं, सद्गुरुयोगतो मया। Zerocineeeeeeeee For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsur Gyanmandir द्वादशपर्व-10 ALM सर्व विरतिरादातुं, ममोचिताऽस्ति साम्प्रतम् ॥७८॥ तस्मिन् क्षणे चतुर्ज्ञान-घरास्तत्र समागताः। गुणसुन्दरसूरीशा-|| NI स्तरणतारणक्षमाः ॥ ७९ ॥ आगत्य सुव्रतश्रेष्ठी, पुर्जनस्श्च प्रणम्य तान् । यथास्थाने स्थितः पूज्य-रारब्धा वरदेशना || मौनएकादशो कथा-संग्रह पर्व-कथा ॥ ८०॥ चारित्ररत्नान परं हि रत्नं, चारित्रवित्तान परं हि वित्तम् । चारित्रलाभान परो हि लाभ-चारित्रयोगान 10 परो हि योगः ॥८१॥ दीक्षा गृहीता दिनमेकमेव, येनोग्रचित्तेन शिवं स याति । न तत्कदाचित्तदवश्यमेव, । वैमानिकः स्यात् त्रिदशप्रधानः ॥ ८२॥ श्रुत्वैवं देशनां पुत्रे, गृहमारं समयं च । जग्राह मुगुरोः पावें, दीक्षा सस्त्रीकसुव्रतः ॥८३॥ तस्यैकादश भार्यास्ताः, कृत्वा कर्मक्षयं लघु। शिवं ययुः समुपाज्य, केवलज्ञानदर्शनम् ॥ ८४॥ सुव्रतोऽय मुनिः शुद्ध-चारित्रं पाळयन् सदा। तपो विशेतश्चक्रे, षष्ठाष्टमादिकं यथा ॥८५।। जनिते द्वे शते षष्ठे, अष्टमानां शतं तथा । चतुष्टयं चतुर्मास्या, एकं पाण्मासिकं तपः ॥८६॥ स मौनैकादशीविथ्या-स्तपस्तपनतत्परः । पाठको द्वादशाङ्गीनां, शुद्धां दीक्षामपालयत् ॥८७॥ अथैकदा तपः कृत्वा, मौनमाधाय सुव्रतः। एकादशीतियौ तस्थौ, कायोत्सर्गे समाधिना ॥८८॥ मिथ्यादृष्टिसुरः कश्चि-चक्रे चालयितुं च तम् । महतीं वेदनां साधोः, कस्यचित्कर्णयोर्द्वयोः | ॥८९॥ उपचारे कृतेऽप्यस्य, महती वेदना न सा। शाम्यतो तेन देवेन, तदा प्रोक्तं मुनीम्पति ॥९०॥ सुव्रतमुनिरा| गत्य, बहिर्यदि करिष्यति । भैषज्यं च तदा पीडा, तस्य यास्यति नाज्यथा ॥९१॥ श्रुत्वेति साधवस्तत्र, समेत्याऽ| भ्यर्थयश्च तम् । तदर्थ स बहिर्याति, न स्थानानिशि वक्ति न ॥१२॥ ततो देवानुभावेन वेदनात्तों मुनिर्मुनिम् । सुव्रतं | मस्तके मार-यामास लकुटादिना ॥९३॥ अतीव वेदना तस्य, संजाता क्षमया स च । सहते कर्मणाऽऽयातां, पीडां चिन्तयते पुनः ॥९॥ अर्हन्तो भगवन्तो ये, साधवो गणधारिणः । इन्द्राश्चन्द्रा दिनेन्द्राश्च, नागेन्द्रा व्यन्तरेन्द्रकाः ॥१५॥ IN ॥ १९ ॥ comope CoopeaceDeccanaeroe For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ २० ॥ सचक्रीवासुदेवाश्च, प्रतिनारायणाः पुनः । बलदेवा नराधीशा, मानवा अपरेऽपि च ॥९६ ॥ कर्मणा पापिनाऽनेन, ते INौनएकादशी सर्वेऽपि विडम्बिताः । कियन्मात्रो वराकोऽयं, पुरस्तात् तस्य कर्मणः ॥९७॥ अरे जीव ! क्षमस्व ख-मुदितं कर्म तेऽस्ति पर्व-कथा यत् । तद् भोगेन विना नैव, पक्षीयते कदाचन ॥९८॥ “लद्धं अलद्धपुवं, जिणवयणसुभासि अमयभूयं । गहिओ सुग्गइमग्गो, नाई मरणाओ बीहेमि ॥९९॥" तपस्तीवघरट्टोऽयं, क्षमामर्कटिकान्वितः । धृतिहस्तो मनःकीलः, कर्मधान्यादि चूर्णयेत् ॥१००॥ सोऽय देवो विभङ्गाख्य-ज्ञानेनाक्षुभितं मुनिम् । ज्ञाखाऽकरोद्विशेषेणो-पसर्गानतिदुस्सहान् ॥१०१॥ क्षपकश्रेणिमारूढः, केवलझानदर्शनम् । संपाप्य सुव्रतो भव्यान् , प्रतिबोध्य शिवं ययौ ॥१०२॥ नेमिनाथमुखा देव, श्रुखा ह्येकादशीव्रते । श्रीकृष्णवासुदेवाद्या, बभूवुः सादरा जनाः ॥१०॥ भो ! भो ! मन्यजना ! एवं, श्रुखा | कल्याणमिच्छुभिः । युस्माभिस्तु समाराध्या, सा मौनैकादशी सदा ॥१०४॥ खरतरगणाधीश-श्रीजिनरत्नसूरयः ! तेषां | | शिष्यगणिप्रेम-मुनेः समाग्रहेण च ॥१०५॥ पाठकलब्धिनाऽकारी-यं मौनैकादशीदिने । जयपुरे च बाणाभ्रा-भ्रनेत्र(२००५)वत्सरे कथा ॥ १०६॥ युग्मम् ॥ ।। इति मौनएकादशीपर्व-कथा समाप्ता ॥ porncomcomecamera ॥२० ॥ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ २१ ॥ DDCDDC www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४ ) अथ पौषदशमीपर्व -कथा । प्रणम्य जितमोहारिं, पार्श्वनाथं जिनेश्वरम् । अर्हन्तं कथ्यते पौष - मेचकदशमीकथा ॥ १ ॥ इहैव भरतक्षेत्रे, मगधविषयेऽस्ति च । धन-धान्यादिसंपूर्णा, चम्पानाम्नी महापुरी ॥ २ ॥ तस्या ईशानकोणेऽस्ति, चैत्याळयं मनोहरम् । पूर्णभद्राख्ययक्षस्यो -पवनेन विशोभितम् ॥ ३ ॥ अथ चरमतीर्थेशः, ज्ञानदर्शनधारकः । गौतमादिगणाधीशवाचंयमसमन्वितः ॥ ४ ॥ पादाब्जैः पावयन् भूमि, भव्यांश्च प्रतिबोधयन् । तत्राऽन्यदा महावीर स्वामी च समवासरत् ||५|| युग्मम् || श्रोतुं जिनोपदेशं च, बन्दनाथं जिनेशितुः । मगधाधिपतिस्तत्र, समागतो महोत्सवात् ॥६॥ तिस्रः प्रदक्षिणी कृत्य, समवसरणे प्रभुं । स्तुत्वा स्तोत्रैर्यथास्थानमुपविष्टो नृपः स च ||७|| प्रारेभे देशनां स्वामी, योजनगामिभाषया । संसारसागरनूड - द्रव्यात्मोद्धारकारिणीम् । ॥ ८ ॥ यथा – “ जीवदयाह रमिज्जह, इंदियवग्गो दमिज्जइ सयावि । सचं चैव वदिज्जर, धम्मस्स रहस्समिणमेव ॥ ९ ॥" इत्यादिदेशनां श्रुत्वा, केचिद्रिकतां गताः । केचित्श्राद्धव्रतं केचित्साधुधर्म ललुः पुनः ||१०|| तदानीं गौतमस्वामी, नत्वा बीरजिनेश्वरम् । पप्रच्छ भव्यजीवानामनुग्रहाय पर्षद ||११|| पौषकृष्णदशम्याश्च महात्म्यं कथ्यतां प्रभो ! श्रुत्वा चैवं महावीर स्वामी प्रोवाच गौतमम् ||१२|| पौषकृष्ण दशम्यां च पार्श्वनाथ जिने शितुः । जन्मकल्याणकं चास्ति, जीवकल्याणकारकम् ॥१३॥ द्विसंध्यावकं कार्य, aftने देववन्दनम् । भूशयनं त्रिशुद्धया च ब्रह्मचर्यमपालनम् ॥ १४ ॥ चैत्ये स्नात्राष्टषा सप्त-दशधा aise नोत्सवम् । प्रभावनं विधातव्यं, रथयात्रादिकं पुनः || १५ || गुरोः पार्श्वे समागत्य श्रोतव्या धर्मदेशना । कार्य For Private and Personal Use Only पौषवशमी पर्व-कथा ॥ २१ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir II द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ २२ ॥ Deepencoecene मेकाशनप्रत्या-ख्यानमात्महितार्थिभिः ॥१६॥ पूर्वोत्तरदशम्यां च, कार्यमेकाशनत्रयम् । एकस्थाने दशम्यां चा-हारं जलं पौषदशमी विधीयते ॥ १७ ॥ अस्या आराधको जीवो, धन-धान्यादिकं सुखम् । इह परत्र देवादि-संप्राप्नोति क्रमाच्छिवम् ॥१८॥ एवं भगवता प्रोक्ते, प्राह श्रीगौतमप्रभुः। हे भगवन् ! पुरा केन, सा समाराधिताऽत्र च ॥ १९ ॥ तदु-10 च्यतां प्रभुः पाह, गौतम ! पार्श्वशासने । सम्यगाराधिता सूर-दत्ताख्यश्रेष्ठिना च सा ॥२०॥ तद्यया भरतक्षेत्रेऽस्मिन् सुरेन्द्रपुरेऽभवत् । नरसिंहनृपस्तस्य, प्रिया च गुणसुन्दरी ॥२१॥ तस्मिन्पुरेऽवसत् सूर-दत्तश्रेष्ठी महाधनः । यशस्वी च पुरख्यात-स्तस्य शीलवती प्रिया ॥२२॥ मिथ्याखवासितः सांख्य-मतभक्तः स चाऽभवत् । शौचधर्मरतो जैन-धर्म न वेत्ति शर्मदम् ॥२॥ यतः-"न देवं नाऽदेवं न शुमगुरुमेवं न कुगुरुं, न धर्म नाऽधर्म न गुणपरिणद्धं न विगुणम् । न कृत्यं नाकृत्यं न हितमहितं नापि निपुणं, विलोकन्ते लोका जिनवचनचक्षुविरहिताः ॥२४॥" मिथ्यात्वग्रसितः श्रेष्ठी, स कदापि शृणोति न । जिनेन्द्रवचनं जीव-देहमेकं हि मन्यते ॥२५॥ परं स राज्यमान्योऽभूत् , पुरश्रेष्टिपदे स्थितः। कियान्कालो गतस्तस्य, व्यवसाय प्रकुर्वतः ॥ २६ ॥ प्राहिणोदन्यदा यान-पात्रसार्द्धशतद्वयम् । स श्रेष्ठी व्यवसायाथै, रत्नद्वीपं प्रति मुदा ॥ २७ ॥ तभृत्यास्तत्र गत्वा च, वस्तूनां क्रयविक्रयम् । विधाय बलिता मध्य-सागरे यावदागताः ॥ २८ ॥ तावत्प्रवहणाः सर्वेऽ-निष्टकर्मोदयाद्गताः । प्रचण्डवायुना कालकूटद्वीपे न समनि ॥२९॥ पुनः श्रेष्टिगृहे भूस्थै-कादशद्रव्यकोटयः। पन्नगधिकांगार-कादिरूपेण चाऽभवन् |॥३०॥ पुनः पतिता धाटि-भिल्लानां सहसा पथि । पञ्चशतशकटेषु, गृहाऽगच्छत्सु तस्य च ॥ ३१॥ श्रेष्ठी ततश्च 10॥ २२ ॥ निद्रव्यो-ऽजनि दारिद्यूपीडितः । तस्य श्रेष्ठीपदं लोके, सम्मानमपि चागमत् ॥१२॥ यतः-"धनमर्जय काकुत्स्थ !, For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व पौषदशमी पर्व-कथा INI धनमूलमिदं जगत् । अन्तरं नैव पश्यामि, निर्धनस्य शवस्य च ॥३॥" दुहा-"बाप कहे मेरे पूत सपूता, बेन IN कहे मेरा भइया। घर की जोरू भी लेत बलैया, सोइ बडो जाकी गांठ रुपैया ॥३४॥" दुःखितो निर्धनत्वेन, कालं कथा-संग्रह सोऽगमयत्पुरे। तत्राऽन्यदा च देवेन्द्र-सूरीश्वराः समाययुः ॥३५॥ तान्वंदितुं नृपः सूर-दत्तश्रेष्ठी च नागराः। जना ययुर्यथा स्थान, निषण्णास्ते प्रणम्य तान् ॥३६॥ सुरिणा देशनाऽऽरब्धा, भोऽत्र जीवहितंकरः । सर्वश्रेयस्करः धर्मः, समाराध्यश्च जन्तुभिः ॥३७॥ "धर्मत: सकळमंगळावलि-धर्मतः सकलसौख्यसंपदः । धर्मतः स्फुरति निर्मलं यशो, धर्म एव तदहो। विधीयताम् ॥३८॥ विवेकः परमो धर्मों, विवेकः परमं तपः । विवेकः परमं ज्ञानं, विवेको मुक्तिसाधनम् ॥३९॥ भक्ष्याऽभक्ष्यविचारः स्याद्, गम्याऽगम्यविभेदकृत् । मार्गाऽमार्गपरिज्ञानं, गुणाऽगुणविचारणा ॥ ४०॥ निद्राऽऽहारो रतिभीतिः, पशूनां च नृणां समम् । विवेकोऽन्तरमत्राऽस्ति, तं विना पशवः स्मृताः॥४१॥ एक उत्पद्यते जन्तुत्येिकश्च भवान्तरम् । एको दुःखी सुखी चैक-स्तथैकः सिदिसौख्यभाक् ॥४२॥" इत्यादिदेशनां श्रुत्वा, स्वस्वस्थानं गता जनाः । सुरश्रेष्ठी तदाऽवादीन् , स्वामिन् ! किं जीवलक्षणम् ? ॥४३॥ सरिणोक्तं तदा श्रेष्ठीन् !, जीवो ज्ञेयः | स एव यः । ज्ञानदर्शनचारित्र-तपोवीर्योपयोगवान् ॥४४॥ यतः-"नाणं च दसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उवभोगो य, एयं जीवस्स लक्खणं ॥४५॥" चेतनालक्षणश्चात्मा, सामान्येन बुधैः स्मृतः। संसारात्मा तथा जीवः, परमात्मा द्विधा मतः॥४६॥ संसारात्मा सदा दुःखी, जन्ममरणशोकभाक् । चतुरशीतिलक्षासु, जीवो भ्राम्यति योनिषु ॥४७॥ न सा जातिन सा योनि-र्न तत्क्षेत्रं न तत्कुलम् । यत्र कर्मवशादात्मा, नोत्पन्नोऽयमनेकधा ॥४८॥ " एगया देवलोएसु, नरएमु वि एगया। एगया आसुरं काय, अहाकम्मेहिं गच्छइ ॥४९॥ एगया खत्तिो होइ, तो चंडाल Docome200creeDompe economnew SI॥ २३॥ न For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ २४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कसो । तभ कीeपयंगो य, तओ कुंथुपिवीलिया ॥ ५० ॥ " सुभगो दुर्भगः श्रीमान्, रूपवान् रूपवर्जितः । स एव सेवकः स्वामी, नरो नारी नपुंसकः ॥ ५१ ॥ संसारी कर्मसंबंधा - नटवत् परिभ्राम्यति । अनन्तकालपर्यन्तं, जोवः संसारवर्त्मनि ॥५२॥ मन्यजीवे दयादानं, धर्मकल्पतरूपमम् । दानशीलतपोभावं, शाखा मुक्तिसुखं फलम् ॥५३॥ धर्मादेव कुले जन्म, धर्माद्धि विपुलं यशः । धर्माद् धनं सुखं रूपं, धर्मः स्वर्गापवर्गदः ||५४ || दोहा - " धर्मं करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण । धर्मपन्थ साधन विना, नर तिथेच समान ॥ ५५ ॥ सुपुरुष तीन पदार्थ साधे है, धर्म विशेष जानी आराधे है । धर्म प्रधान कहे सब कोई, अर्थ काम धर्महित होइ ॥ ४६ ॥” इति धर्मकथां श्रुत्वा, सम्यक्त्वसंगतः स च । जीवाजीवादिषद्रव्य - नवतश्वादिवेदकः || ५७|| पुनः पप्रच्छ हे स्वामिन् !, किमपि तपसः फलम् ? | पदिश्यतां येना-यति पुनर्गतं धनम् ॥ ५८ ॥ तदोक्तं सूरिणा पौष- मेचकदशमीव्रतम् । गृहाणाऽस्मिन्दिने जन्माsa श्री पार्श्वजितुः ॥५९॥ पूर्वोत्तरदशम्यहि, कार्यमेकाशनत्रयम् । पूर्वोक्तविधिना भूमि-शयनं शीळपाळनम् ||६०|| द्विकाssarri कार्य, त्रिवेलादेववन्दनम् । चैत्ये महोत्सवस्नात्र पूजादिकरणं पुनः ॥ ६१ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं पार्श्वनाथायाते नमः पदस्य च । द्विसहस्रजपः कार्यः, पारणे स्वामिवत्सलः ||६२ || यावच्च द्विमासोनै-कादशवत्सरं तपः । कार्यमेवं समाराध्या, विधिना दशमीतिथिः ॥६३॥ लोकेऽस्मिन् धान्यसौभाग्य- धनादिसर्वसंम्पदम् । परत्र स्वर्गसौख्यं च, मोक्षसुखं क्रमाद्भवेत् ॥६४॥ श्रेष्ठिनाथ गुरुं नत्वा, स्वीकृत्य धर्ममाईतम् । उच्चरितं गुरोः पार्श्वा-भावेन दशमीव्रतम् || ६५|| तत्तपः कुर्वतस्तस्य, दशम्येका गता यदा । तदाऽकस्माच्च ! मोतास्ते, कालकूटात्समागताः ॥ ६६ ॥ अनुचरमुखात् श्रेष्ठी, श्रुत्वैवं श्रद्दधौ न हि । तदा प्राह मिया स्वामिन्!, जानातु सत्यमेव तत् ||६७ || माऽसत्यं मन्यता For Private and Personal Use Only पौषदशमी पर्व- कथा ॥ ૨૪ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह पौषदशमी पर्व-कथा accorpoemon | मद्य, यदि गृहे भविष्यति । निधानं प्रकटं नूनं, सत्यं ज्ञेयं तदा च तत् ॥६८॥ ततस्तौ द्वौ निधि दृष्टुं, गतौ विलोक्य | तं निधिम् । श्रेष्ठी ग्राह प्रिये ! पादु-भूतोऽखिलः पुनर्निधिः ॥६९॥ जैनधर्मप्रभावेण, पोतवर्धापनागता। देवगुरुप्रसादेन, जातोडं धनागपुनः ॥७०॥ पुनः श्रेष्ठिपदं प्राप्त, राज्ञा सम्मानितः स च । जाता दशसुतास्तस्य, काल: मुखेन गच्छति ॥७१॥ तत्राज्यदाऽथ देवेन्द्र-सूरीश्वरः समागतः। श्रुत्वैवं गतवान् श्रेष्ठी, नखा निजं गुरुं स्थितः ॥७२॥ सूरिणा देशना दत्ता, देशनान्तेऽवदत्स च । दशम्युद्यापने कार्य, किं स्वामिस्तनिगद्यताम् ॥ ७३ ॥ गुरुरुवाच भो श्रेष्ठिन् ! कार्याण्युद्यापने वरे । ज्ञान-दर्शन-चारित्रो-पकरणदशात्र च ॥७४॥ अष्टाह्निकोत्सवस्वामि-वात्सल्यार्चा| प्रभावना । रथयात्रा पुनस्तत्र, कर्त्तव्या विधिना बुधैः ॥७५॥ श्रेष्ठी श्रुत्वेति कृत्वोया-पनकं विस्तराद्वरम् । दशदशनवीनाई-चैत्यचैत्यान्यचीकरत् ॥७६॥ वैराग्यवासितः श्रेष्ठी. सोऽन्यदा सुन्दराभिधे । ज्येष्ठे पुत्रे समारोप्य, गृहमारं सुतान् जगौ ॥७७॥ पूर्वोक्तविधिना पुत्रा !, युष्माभिर्दशमीव्रतम् । समाराध्यं सदाऽस्माभि-राराधितं च तद्वतम् ॥७८।। तेनाऽत्र धनकुटुम्बेन, संजाता सुखिनो चयम् । यूयमपि भविष्यथ, मद्धि सुखिनः सदा ॥७९॥ एवं शिक्षा वितीर्यानु-मति लाखा कलौ स च । प्रव्रज्यां सुगुरोः पार्वे, प्रबर्द्धमानभावतः ।।८०॥ विविधान्यथ षष्टाष्ट-मादि तपांसि कुर्वता । तेन द्वादश वर्षाणि, यावद्दीक्षा च पालिता ॥४१॥ प्रान्ते पञ्चदशाहानि, विधायानशनं स च । साधुः पञ्चनमस्कार, ध्यायन्मृत्वा समाधिना ॥ ८२॥ विंशतिसागरायुष्को, दशमे च सुरालये। देवो महर्द्धिको जात-स्तपोव्रतप्रमावतः ॥८३॥ युग्मम् ॥ अस्यैव जम्बूद्वीपस्य, महाविदेहनामके । क्षेत्रे श्रीपुष्कलावत्यां, विजये च मनोहरे ॥ ८४ ॥ नगर्या मंगलावत्यां, सिंहसेनाख्यभूपतिः। सद्गुणसुन्दरी तस्य, पियाऽभूद् गुणसुन्दरी॥ ८५॥ स सूरदत्तजीवोऽय, IS papermomcootapa ॥ २५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ।। २६ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भुंक्ा सुरसुखानि तु । च्युत्वा च जयसेनाख्यः, पुत्रस्तयोर्भविष्यति ॥ ८६ ॥ वैषयिकं सुखं भुंक्त्वा, चारित्रं च गृहि व्यति । पुनरेकादशाङ्गानि, सोपाङ्गानि पठिष्यति ||८७|| एकाकी विहरन्कायो- सर्गे स्थास्यति सोऽन्यदा । तत्राऽधिठायको देवो, दुष्टो मिध्यात्ववासितः ||८८|| एकविंशेोपसर्गश्चै कस्यां रात्रौ करिष्यति । तस्य मुनेः पिशाचाद्दिसिंहव्याघ्रगजादिकान् ॥ ८९ ॥ युग्मम् ॥ शमसंवेग निर्वेद - दयाऽऽस्तिक्यगुणान्वितः । स साघुरुपसर्गास्तान्, क्षमया च क्षमिष्यति ॥९०॥ घातिकर्मचतुष्कं तु, क्षपयित्वा महामुनिः । प्राप्स्यति शुभध्यानेन, केवलज्ञानदर्शनम् ॥९१॥ विहस्य भृतले भव्य - जीवांथ प्रतिबोधयन् । भवोपग्राहिकर्माणि, क्षिप्त्वा शिवं गमिष्यति ।। ९२ ।। निरतिचारचारित्रं; पपाल्य शीळवत्यपि । सा प्रान्तेऽनशनं कृत्वा, मृत्वा गता सुरालयम् ॥९३॥ स च शीलवती जीव-स्ततश्च्युत्वा भविष्यति । क्षेत्रे महाविदेहाख्ये, मानुष्ये ह्युत्तमे कुले ॥ ९४ ॥ तत्र सुगुरुसंयोगा-स्वज्यां स गृहिष्यति । क्षपयित्वाऽष्टकर्माणि, मोक्षपुरीं गमिष्यति ॥ ९५ ॥ महावीर जिनेनैवं, गौतमस्वामिनः पुरः । पौषकृष्णदशम्याच माहात्म्यं हि निरूपितम् ॥ ९६ ॥ भो भन्या ! अस्य वृत्तान्तं निशम्य दशमीव्रतम् । अवश्यमेव कर्त्तव्यं, सर्वसम्पत्तिकारकम् ||१७|| अस्यास्तपःप्रभावेण धन्यधान्यादिकं जनः । इद्द पर भवे स्वर्ग-मोक्षौ प्राप्नोति निश्चयात् ।। ९८ ।। खरतरगणाधीशाः, श्रीजिनः रत्नसूरयः । तेषां शिष्यगणिप्रेम-मुनिसमाग्रहेण च ।। ९९ ।। पाठकलब्धिनाऽकारी-यं पौषदशमीतिथौ । जयपुरे च वाणान- शून्यनयन (२००५) वत्सरे ॥ १०० ॥ युग्मम् ॥ ॥ इति पौषदशमीपर्व- कथा समाप्ता ॥ For Private and Personal Use Only पौषदशमी पर्व- कथा ॥ २६ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह मेस्त्रयोदशी NI पर्व-कथा. (५) अथ मेस्त्रयोदशी पर्व-कथा । ॥ २७॥ elemercreeroeezooreeace ऋषभस्वामिन नत्वा, भगवन्तं प्रकीय॑ते । माहात्म्यं माघकृष्णस्य, मेरुत्रयोदशीतिथेः ॥१॥ अथेहाअष्टमहापातिहार्यादिगुणधारिणा । केवलिना महावीर-स्वामिभगवताऽन्यदा ॥२॥ स्वशिष्यगौतस्वामि-प्रमुखयमिनां पुरः। माघकृष्णत्रयोदश्या, माहात्म्य कथितं यथा ॥३॥ तथैवोच्यतेऽस्मामि-स्तन्माहात्म्यं समुद्भवम् । तीर्थशऋषभस्वाम्य-ऽजितनाथ जिनान्तरे ॥ ४ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। अयोध्यायां महापुर्या-मिक्ष्वाकुवंशजोऽभवत् । महान् काश्यपगोत्रीयो-ऽनंतवीर्याख्यभूपतिः ॥५॥ तस्य प्रियमती राज्ञी, पञ्चशतपियासु च । मुख्या धनञ्जयो मन्त्री, चतुर्बुद्धिधरोऽजवि ॥६॥ राज्यं पालयतस्तस्या-ऽजनि चिन्ता स्वचेतसि । अद्यावधि सुतो नास्ति, मम राज्यधुरन्धरः ॥७॥ एतद्राज्यस्य को भोक्ता, भविष्यति ? सुतं विना । गृहं शून्यं ततो राज्ञा, सदुपायाः कृता धनाः ॥८॥ परं नाऽभूत्सुतोत्पत्ति-स्त| स्मिन्नवसरेऽ-यदा । राज्ञो गृहं समायातः, भिक्षार्थ कोणको मुनिः ॥९॥ भूपराज्यौ तदोत्याय, वन्दित्वा विधिना. च तम् । वितीर्य प्रासुकाऽऽहार, कृत्वाञ्जलिं पप्रच्छतुः ॥१०॥ गुरो! नास्ति सुतोऽस्माकं, कदापि स भविष्यति ? || न वा मुनिरथाऽवादी-नेदं वदन्ति साधवः ॥११॥ तदा भूपतिराज्ञीभ्यां, प्रार्थ्यमानः पुनः पुनः । मुनिर्जगाद भो! croecocipedioBCDCPCRecem CTRICT For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ २८ ॥ 2conceaeDeorancope राजन् !, भावी पंगुः सुतस्तव ॥१२॥ उक्त्वेत्यगान्मुनिर्भूप-राशीभ्यां चिन्तितं तदा । पङ्गुरपि सुतो नोऽस्तु, सा IN त्रयोदशी सगर्भाऽभवत्क्रमात् ॥१३॥ पूर्णे काले सुतः पङ्गु-र्जातो नृपो निशम्य तत् । पिङ्गलराय इत्यस्य, नाम चकार हर्षितः | पर्व-कथा ॥१४॥ तं ततोऽन्तःपुरे भूप-राइयो रहो ररक्षतुः। प्रकटीचक्रतुनँव, बहिः कदापि लज्जया ॥१५॥ ऊचतुस्तौ जने N| पृष्टे-ऽस्य कुमारस्य वर्त्तते । रूपं मनोहरं तेन, प्रकटीक्रियते न सः ॥१६॥ मा कदाचिद्भवेद् दृष्टि-दोषो स्येति | सर्वतः । वार्तेयं प्रसूता नास्ति, तत्तुल्यो रूपवान् जने ॥ १७ ॥ क्रमात्पिङ्गलरायोऽथ, वृद्धि पाप्त इतोऽस्ति च । मलयविषये रम्यं, पद्मपुरामिधं पुरम् ॥१८॥ तत्र चैक्ष्वाकुवंशीय-काश्यपगोत्रिकोऽभवत् । शतरथनृपस्तस्य, मुख्या चेन्दुमती प्रिया ॥१९॥ तत्कुक्षिसम्भवा पुत्री, राज्ञोऽभूद् गुणसुन्दरी । रूपलावण्यसौभाग्य-सद्गुणगणशालिनी ॥२०॥ तस्य राज्ञः सुतो नास्ति, सेवैकाऽतीववल्लभा। पुत्रों तां यौवनप्राप्तां, दृष्ट्वा राज्ञाऽथ चिन्तितम् ॥२१॥ इयं कस्मै NI सुता देये-त्यऽस्मिन्नवसरे जनाः। अत्रत्या व्यवसायार्थ, चलिता विषयान्तरे ॥२२॥ तदा तेभ्यो नृपेणोक्तं, भ्रमद्भि विषयान्तरे । युष्माभिर्गुणसुन्दर्या, योग्यं वरं विलोक्य च ॥ २३॥ तस्या विवाहसम्बन्धः, कार्यस्तथेति भूपतेः। वचोऽङ्गीकृत्य ते चेलु-रयोध्यायां गताः क्रमात् ॥२४॥ युग्मम् ॥ तत्र तैर्बहुलाभश्च, मेलितः क्रयविक्रयम् । कृत्वा | पुनः श्रुतं लोका-कुमाररूपमद्भुतम् ॥२५।। कुमारेण समं तस्याः , सम्बन्ध विदधुश्च ते । सन्तोषिता नृपेणाऽपि, शुल्कस्य मोचनादिना ॥२६॥ हर्षितास्तेऽपि संचेलुः, स्वविषय प्रति क्रमात् । तैः प्राप्य स्वपुरं राजे, तद्वृत्तान्तो निवेदितः ॥२७॥ अद्भुतरूपलावण्य-सौभाग्यादिगुणान् बहून् । श्रुत्वा पिंगलरायस्य, संतोष भूपतिर्गतः ॥२८॥ ॥ २८ ॥ अथ सुताविवाहार्थ, नृपेण प्रेषिता नराः। तेऽप्यऽयोध्यापुरों गत्वा, प्रणम्य जगदुर्नुपम् ॥ २९ ॥ कुमारः प्रेष्यतां 2momcccrococcCROD For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ २९ ॥ ez.vioe www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजन्!, विवाहार्थं च सत्वरम् । श्रुत्वैवं तत उत्थाय, नृपो ययौ स्वमन्दिरम् ॥ ३० ॥ एकान्ते नृप आहूयो बाच राशीं च मन्त्रिणम् । किं कर्त्तव्यं ? सुतस्त्वस्ति, पंगुर्दास्यति ? कः सुताम् ? ॥ ३१ ॥ चित्ते किञ्चिद्विचार्याऽथाssहूय तान् सचिवोऽवदत् । नाधुनाऽत्र कुमारोऽस्ति, किन्तु मातुलसद्मनि ||३२|| इतो मातुलसनाऽस्ति, दूरं द्विशतयोजनम् | मोहनीपत्तने तेना -ऽधुना लग्नं भवेन्नहि ॥ ३३ ॥ पञ्चाच्च ज्ञास्यतेऽथोक्तं, तैर्दूरेऽध्वा तु वर्त्तते । अतो लग्नं च निर्धार्य, प्रदेयं भवता वरम् ॥ ३४ ॥ स्वयमपि समागम्य, लग्ने श्रुत्वेति भूपतिः । लग्नं षोडशमासान्ते, भावीति निरधारयत् ॥ ३५ ॥ ततो लग्नं गृहीत्वाऽगुः स्वदेशं तेऽप्यऽथावदत् । चिन्तातुरो नृपः कार्य ?, उपायः शीघ्रमत्र कः ||३६|| सत्वरमेव यास्यन्ति, षोडशमासकास्तदा । नृपराशीप्रधानैश्वो - पायाः संशोधिता घनाः ॥ ३७॥ परं न चटितो हस्ते, कोऽप्युपायोऽथ तेऽखिलाः । निराशीभूय दुःखेन, समयं गमयन्ति च ॥ ३८ ॥ तस्मिन्नवसरे तत्र, साधुपञ्चशतीयुतः । चतुर्ज्ञानधराचार्यो, गांगिलसूरिराययौ ॥ ३८ ॥ सार्द्धं स्वपरिवारेण, राजा पौरा मुनीश्वरम् । नखा, स्थिता यथास्थानं, सूरिणाऽऽरंभि देशना ॥ ४० ॥ " जीवदयाइ रमिज्जर, इंदियवग्गो दभिज्जइ सयावि । सचं चैव दिज्जs, धम्मस्स रस्समिणमेव ॥ ४१ ॥ जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पाळिणी चैव । तह वुढिकरी जयणा, एतावा जयणा ।। ४२ ।। आरंभे नत्थि दया, महिलासंगेण नासए बंभं । संकाए सम्मत्तं पव्वज्जा अत्थगणं ||४३|| जे बंभचेरभट्टा, पाए पार्डति बंभयारीणं । ते हुंति टुंटमुंटा, बोहि वि पुण दुलहा तेसिं ॥ ४४॥ | " मूलं दयाsस्ति धर्मस्य, हिंसा मूलमघस्य च । हिंसां करोति यो जीवः कारयत्यनुमोदते ॥ ४५ ॥ एते त्रयोऽपि विज्ञेयाः सदृशाश्च भवान्तरे । रोगी पङ्गुर्महादुःख- स्थानं भवति हिंसकः ॥ ४६ ॥ देशनान्ते नृपोऽपृच्छ-द्भगवन् ! केन For Private and Personal Use Only मेरुत्रयोदशी पर्व-कथा ॥ २९ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह 11 30 11 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मणा । मम सुतोऽभवत्पगु- स्तत्प्राग्भत्रमव मुनिः ॥ ४७ ॥ बभूव जम्बूद्वीपस्य, क्षेत्रे चैवताभिधे । श्री अचलपुरे दंगे, महेन्द्रध्वजभूपतिः ॥४८॥ तस्याऽभूदुमया राज्ञी, सामन्तसिंहसंज्ञकः । तत्पुत्रो द्यूतकृत्संगा-तेन द्यूतं च शिक्षितम् ॥ ४९ ॥ स सप्तव्यसनी जातः क्रमान्निषेधितोऽपि सः । नृपेण व्यसनान्नैव विरमति कदाचन ॥ ५० ॥ तमयोग्यं नृपो ज्ञात्वा स्वदेशान्निरवासयत् । ततो देशाटनं कुर्वन् सुरपुरं समाययौ ॥ ५१ ॥ चम्पकश्रेष्ठिना तत्रा - ईचैत्यरक्षणाय सः | स्थापितो मंदिरे चौर्य, कृत्वा द्यूतं च खेलते ॥ ५२|| तज्ज्ञात्वा श्रेष्ठिना प्रोक्तं, भद्र ! यो मक्षयेत्पुमान् । देवद्रव्यं स चाऽनंत कालं यावद्भवेति ॥ ५३ ॥ तस्मादतः परं कार्य, न कर्त्तव्यमिदं त्वया । इत्थं स उपदिष्टोऽपि, शिक्षां न मनुते हिताम् ॥ ५४ ॥ तेनैकदा जिनच्छत्रा - दिकं लात्वा च सेवितः । अनाचारस्ततो ज्ञात्वा श्रेष्ठिना कर्षितः सच ॥५५॥ सोऽथाखेटकसंगेन, बने भ्रमन् मृगादिकान् । मारयित्वा बहून् जीवान् चकारोदरपूर्तिकम् ॥५६॥ तस्मिन् वने तपस्यति, तापसास्तापसाश्रमे । तत्र मृगाः समागत्यो पविशंति च निर्भयाः ॥ ५७ ॥ तेन सामंतसिंहेन, तत्रायान्ती मृगी हता । सगर्भा तीक्ष्णशस्त्रेण, छिन्नास्तस्याश्चतुष्पदाः ॥ ५८ ॥ भूमौ सा पतिता दृष्टा, तापसैर्निकषाश्रमम् | तैस्तस्याः श्रावितो धर्मः, सा तदा सद्गतिं ययौ ॥ ५९ ॥ दुष्ट ! यथा त्वया मृग्याः पादाछिन्ना भवान्तरे । भूयात्पंगुस्तथा त्वं ही- ति तस्मै सशपुच ते ॥ ६० ॥ ततः सामंतसिंहोऽपि दृष्ट्वा क्रुद्रांश्व तापसान् । वने नश्यंश्च सिंहेन, मारितो नरकं ययौ ॥ ६१ ॥ सामन्तसिंह जीवोऽथो दूधृत्य ततश्चकार सः । बहूनरकतिर्यक्षु. महादुःखमयान् भवान् ॥६२॥ ततो महाविदेहे स, कुसुमपुरपुर्वरे । विशालकीर्त्तिभूपस्य, शिवादस्याः सुतोऽजनि ॥ ६३ ॥ वज्रनामा क्रमात्सोऽभूद्-गलत्कुष्ठी च यौवने । गळितौ च करौ पादौ, दुःखी स पंगुतां गतः ॥ ६४ ॥ मात्रा For Private and Personal Use Only मेरुत्रयोदशी पर्व- कथा ॥ ३० ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व मेस्त्रयोदशी पर्व-कथा कथा-संग्रह Ni. DeeDEODOKRCrepeperence पञ्चनमस्कारो-ऽन्ते तस्मै श्राविस्ततः । मृत्वा समाधिना बनो, बभूव व्यन्तरः सुरः ॥६५॥ भरते जम्बूद्वीपस्य, | सौहार्दपुरकेजनि । सुरदासाभिधः श्रेष्ठो, वसन्ततिलका प्रिया ॥६६॥ वज्रजीवस्तयश्च्युत्वा, तयोः पुत्रः स्वयंप्रभः । अभूत्स गुणवान् श्रेष्ठ-विवेकवांश्च शिष्टधीः ॥६७। परन्तु स समुत्पन-चरणव्रणरोगयुक् । चलितुं न शशाकाऽसौ, तस्माद्रोगात्स्वयंप्रमः ॥६८॥ क्रमेण सोऽष्टवर्षीयो, जात एकसुतखतः । तदुःखदुःखितौ जातो, पितरौ सुतवत्सली | ॥६९॥ संघोऽगमत्क्षणे तस्मिन् , सिद्धाद्रिदर्शनाय च । तेन सहाऽचलच्छेष्ठी, यात्रायै समुतप्रियः ॥७०॥ सिद्धाद्रौ विधिना गखा, संघः श्रेष्ठी स समियः । पुत्रं लात्वार्चनं चक्रे, ऋषभस्वामिनः प्रभोः ॥७१॥ सूर्यकुण्डजलेनाऽथ, देवाधिष्ठेन रोगिणम् । स्वसुतं स्नपयामास, श्रेष्ठी भावेन सपियः ॥७२।। परन्तु तज्जलं तस्य, स्पृशति चरणौ नहि । दृष्ट्वा तद्गुरवे पृष्ट. तद्धेतुर्विस्मितैर्जनः ॥७॥ गुरुः प्राह जिनद्रव्यं, पाग्भवेऽनेन भक्षितम् । छिन्ना मृगीचतुष्पादाः, प्राग्भवास्तस्य जल्पिताः ॥ ७४ ॥ तत्कर्मास्य बहु क्षोणं, किश्चिदद्यापि विद्यते । तेन तीर्थजलं पादौ, न स्पृशति कदाचन ॥७५॥ तीव्रकर्मक्षयो नास्ति, भुक्तिं विनेति तद्वचः। श्रुखा माता पिता पुत्रो, वैराग्य प्रगतात्रयः ॥७६॥ ततः श्रीऋभस्वामी, चरणानभिवन्द्य च । गृहमागत्य संजाताः, सद्धर्मकरणोद्यताः ॥७७|| षोडशसहस्त्राब्दानि, कुष्ठवणा| दिवेदनाम् । अनुभूय च तत्कर्मा-लोच्य मृखा सुरोजनि ॥७८॥ आद्यस्वर्गात्स च च्युत्वा, राजंस्तव सुतोऽजनि । पिंगळरायनामाऽयं, पंगुः प्राक्कृतकर्मणा ॥७९॥ एतन्मुनिवचः श्रुत्वा, राजा प्राहाज्य सद्गुरो!। नश्यति ? केन पुण्येन, कमैतत् मुनिनाऽकथि ॥८९॥ तृतीयकारकमान्ते, श्रीऋषभजिनेश्वरः। माघकृष्णत्रयोदश्यां, निर्वाणपदमाप्तवाम् ॥८॥ तस्मिन् दिने विधातव्य-मुपवासं च निर्जलम् । रानं वा राजतं हैम-सापिर्ष मेरुपञ्चकम् ॥८२॥ मध्यमेरुमहान्तं च, compormeroenomeReDDC For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ३२ ॥ ZeeRCIRCRACT दौकयेदर्हतः पुरः। नन्दावश्चितुर्दिक्षु, कुर्याद्दीपादिपूर्वकम् ॥ ८३ ॥ पुनजिनार्चनं कार्य-मेवं मासत्रयोदशम् । यावत् मेस्त्रयोदशी त्रयोदशाब्दानि, वा कर्त्तव्यमिदं तपः ॥ ८४॥ ॐ हों श्री ऋषभस्वामि-पारंगताय युगनमः । एतत्पदस्य कर्त्तव्यः, | पर्व-कथा द्विसहस्रजपः पुनः ॥८५॥ एतत्तपःपभावेण, सर्वरोगक्षयो भवेत् । संपद्यते सुखं सर्व-मिह परत्र चाऽतुलम् ॥८६॥ यदि कुर्यात्त्रयोदश्यां, पौषधं पारणादिने । तदा सर्वविधि कृत्वा, कर्त्तव्यं पारणं ततः ॥७७॥ एतद्गुरुवचः श्रुत्वा, चके पिंगलरायकः । माघकृष्णत्रयोदश्यां, गुरूक्तविधिना व्रतम् ॥८८॥ प्रादुर्भूतौ कुमारस्य, तावता चरणाकुरौ, वै त्रयोदशमासान्त-तिौ पादौ च सुन्दरौ ॥८९॥ परिणीता कुमारेण, ततः सा गुणसुन्दरी। अपरा अपि बहव्यश्च, परिणीता नृपात्मजा ॥९०॥ ततो राजा कुमाराय, राज्यं दत्वा स्वयं पुनः । दीक्षां गांगिळसूरीश-पार्वे भागवती कलौ ॥९१॥ स च प्रपाल्य चारित्रं, गृहीत्वा विमलाऽचले । अनशन स्वकर्माणि, क्षपयित्वा शिवं ययौ ॥१२॥ पिंगल- IN रायभूपेन, यावद्वषत्रयोदश । पुनराराधिता माध-कृष्णमेस्त्रयोदशी ॥९३॥ ज्ञानदर्शनचारित्रो-पकरणविधानतः। उद्यापन | चकाराऽसौ, महदाडम्बरेण च ॥९॥ ततः कियन्ति वर्षाणि, राज्यं प्रपाल्य भूपतिः, महसेनकुमाराय, माज्यं राज्य निजं ददौ ॥१५॥ ततः स सुव्रताचार्य-पावें दीक्षा ललौ नृपः। बहुभिः पुरुषः साई, वैराग्याञ्चितमानसः ॥९॥ | द्वादशाङ्गीमधीत्याभू-त्स चतुर्दशपूर्वभृत् । क्रमात्सरिपदं प्राप्त-स्तीव्रतपः क्रियाधरः ॥१७॥ ततः स क्षपकश्रेणि-समा| रूढो मुनीश्वरः । विनाश्य घातिकर्माणि, केवलज्ञानमाप्तवान् ॥९८॥ प्रतिबोध्याऽय भव्यांश्च, पिंगलरायकेवली । पान्ते चाध्यातिकर्माणि, क्षपयित्वा शिवं ययौ ॥ ९९ ॥ इत्थं मेरुत्रयोदश्या, जातं पिंगलरायतः। माहात्म्यं तद्वतं चाऽत्र, परत्र सुखकारकम् ॥१००॥ मायकृष्णत्रयोदश्या, व्रताराधनतत्पराः। भवन्तु भो जना ! येन, निर्वाणादिसुखं Docceroeeeeeeee | ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyarmandir || भवेत् ॥१०१॥ खरतरगणाधीशाः, श्रीजिनरत्नशूरयः । तेषां शिष्यगणिप्रेम-मुनिसमाग्रहेण च ॥१०२।। पाठकलब्धिना द्वादशपर्व NI चेयं, जयपुरे कथा कृता । बाणाभ्राभ्रकराब्दे (२००५) च, मेरुत्रयोदशीतिथौ ॥१०३॥ कथा संग्रह ॥ इति मेस्त्रयोदशी-कथा समाप्ता ॥ होलिका पर्व-कथा (६) अथ होलिका-पर्व-कथा॥ पार्श्वनाथ जिनाधीशं, पायक्षेन सेवितम् । प्रणम्य जनविख्यातं, प्रोच्यते होलिकाकथा ॥२॥ होलिका फाल्गुने मासे, द्विविधा द्रव्यभावतः । तत्राद्या धर्महीनानां, द्वितीया धर्मिणां मता ॥२॥ होलिकेति वदन्त्यत्र, पर्वेदं प्राकृता जनाः। ये सारासारवस्त्वज्ञा. महामोहेन धूर्णिताः ॥३॥ विवेकविकला हीन-लोकप्रवाहसंगताः। गतानुगतिका लोका, जैनधर्मपराङ्मुखाः॥४॥ ते द्रव्यहोलिकां वह्नि-मयीं च छगणादिभिः । कुर्वन्ति धर्मपर्वाणि, विराधयन्ति लीलया । ॥५॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। प्रतिपदादिने धूलि-क्रीडनावाच्यल्पनम् । मलमूत्रजलाच्छोट-रामादिवस्त्रकर्षणम् ॥६॥ भस्मायुद्दालनं लेष्ट्वा-दिभिश्च जनपीडनम् । रासभारोपणाऽसभ्य-प्रवृत्तिं विदधन्ति ते ॥७॥ युग्मम् ॥ संसारवर्द्धनं सर्वमिदमनर्थदण्डकम् । धार्मिकैः परिहर्तव्यं, भवस्वभाववेदिभिः ॥ ८॥ ये पुनर्धर्मिणस्ते च, प्रकृर्वन्ति तपोऽग्निना । कर्मछगणकाष्ठादि-भस्मीभावहोलिकाम् ।।९।। आर्तध्यानपरित्यागा-द्धर्मध्यानजलेन ते । श्राद्धाः कुर्वन्ति कर्माऽग्नि-महातापोपशामनम् ॥१०॥ प्रवृत्तं लौकिकं चेदं, रजःपर्व कुतोऽस्य च । पर्वणः सम्प्रदायेनो-च्यते कथानकं यथा ॥११॥ Decoccerococca ॥ ३३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ३४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जयपुरेऽभवत्पूर्व - देशस्थे नरवर्मकः । भूवो मदसेनाख्या, पिया तस्य पतिव्रता ||१२|| तस्याऽभून्मतिचन्द्राख्यो, मन्त्री तत्रैव चावसत् । मनोरथाऽभिधः श्रेष्ठी, तस्य पुत्रचतुष्टयम् ||१३|| तेषामुपर्यभूत्तस्य, रूपिणी होलिका सुता । पित्रा विवाहिता सास्या, दुष्कर्मणा पतिर्मृतः ||१४|| सा च सदा पितुर्गेहे तिष्ठति सुखपूर्वकम् । इतोऽभूद्धंगदेशेश-भुवनपाल भूपतिः || १५ || कामपाळाभिधः पुत्रोऽभूत्तस्याऽतीव रूपवान् । तां सोऽन्यदा गावक्षस्थां दृष्ट्वाऽभूत्कामपीडितः ||१६|| दृष्ट्वा तं होलिकाऽपि सा, कामार्त्ताऽभूत्तदा सुताम् । विलोक्य विषसादासौ, श्रेष्ठी गुप्तस्मरार्त्तिनीम् ॥ १७ ॥ satar पुरे चैका, हि परिव्राजिकाऽवसत् । द्विजकुलोद्भवा चण्ड-रुद्रभाण्डस्य पुत्रिका || १८ || भरडाचलभूतेथ, पत्नी दुण्ठेति नामतः । विख्याता साऽभवद्गुहा, भृतिकर्मादिकारिणी ||१९|| तथा क्षुधातुरा सा च, मिक्षार्थमभ्रमत्सदा । परं काभान्तरायेण, भिक्षां न लभते क्वचित् ॥ २०॥ ततचकार लोकेभ्यः, कोपं साथ मनोरथः । तां सत्कृत्यावदन्मान्तः !, पटूवों कुरु सुतां मम ||२१|| ततो रहसि सा पृष्टा, तयावदच्च होलिका । स्वाभिप्रायं ततः श्रुत्वा, परिव्राजिकयाsकथि || २२ || रविवारे त्वमागच्छेः सूर्यसद्मनि संगमम् । तस्याऽहं कारयिष्यामीत्युक्त्वा सा कुट्टिनी गता ||२३|| कामपालकुमारोऽपि तत्र सा होलिका पुनः । संकेतिते तपस्विन्या, स्थाने रविदिने ययौ ॥ २४ ॥ ततः सा विधिना सूर्य मूर्ति प्रपूज्य यावता । प्रतिचचाल तावत्ता-मालिलिङ्ग कुमारकः ||२५|| तदा तथा कुमारस्य, पृष्ठे दवा चपेटिकाम् । पूञ्चक्रेऽन्यनरस्पर्श, इह सत्या ममाऽजनि ||२६|| तच्छुद्ध्यर्थं करोम्यग्निप्रवेशं तत्पिता तदा । मरणाभिमुख स्त्री-पुत्री मानीतवान् गृहम् ||२७|| ततः फाल्गुनराकाया, रात्रौ पुनस्तपस्विनी । संगमं कारयामासो-चैर्दुराचारिणोस्तयोः ||२८|| स्वयं सा तद्गृहासनो-टजे प्रगाढ निद्रया । सुप्ताऽथ होलिकाकाम- पालाम्यां च विचारितम् ||२९|| For Private and Personal Use Only होलिका पर्व- कथा ॥ ३४ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह होलिका पर्व-कथा CZDPC CRECaveDCPECIDCORDCRa षट्कर्णो भिद्यते मन्त्र-श्चतुष्कों न भिद्यते । द्विकर्णस्य च मंत्रस्य, ब्रह्माऽप्यन्तं न गच्छति ॥३०॥ विचार्येति गृहे सुप्तां, प्रज्वाल्य तापसीगृहम् । कुमारसहिता होली-नष्ट्वाऽन्यत्र स्थिता ततः ॥३१॥ श्रेष्ठी प्रातः सुतां दग्धां, विज्ञाय व्यलपबहु । तदा लोकाः सती ज्ञात्वा, ता. नेमुस्तकभस्म च ॥ ३२॥ अत्र स्खजीविका कर्त, दुर्लभमित्यवेत्य च । | अन्यदा कामपालोऽथ, जगाद होलिकां प्रति ॥३३॥ प्रियेऽधुना धनं नास्ति, तेन धनार्जनाय च । परदेशं प्रगच्छामीति श्रत्वा होलिकाऽवदत् ॥३४॥ हे प्रिय ! कुरु मद्वाक्यं, धनप्राप्तिर्यतो भवेत् । सं हि मत्पितुईट्टा-मूल्येनाऽऽनय शाटिकाम् ॥३५॥ ततस्तेन समानीता, सा ततो होलिकाऽवदत् । इयं न मम योग्याऽस्त्य-परमानय हे पिय । ॥३६॥ तेन तत्र पुनर्गत्वा-ऽऽनीताऽपरा च शाटिका। साऽप्ययोग्या तया प्रोक्ता, पश्चात्ताऽथ शाटिका ॥३७॥ श्रेष्ठी प्राह तदा लातु, स्वयमागत्य ते प्रिया । शाटिकां संपरीक्ष्याऽथ, साऽपि तत्र समागता ॥३८॥ हट्टे समागतां तां च, दृष्ट्वा श्रेष्ठी प्रतिक्षणम् ! । पश्यति स्वसुताभ्रान्त्या, किमियं मे सुतेति हि ॥३९॥ कामपालस्तदावादी-अपश्यन्तं निजां प्रियाम् । श्रेष्ठिनं भो! मम स्त्री ख, पश्यसि ? किं मुहुर्मुहुः ॥ ४०॥ मत्पुत्रीसदृशी चेय-मित्युक्तं श्रेष्ठिना तदा। कामपालोऽवदत् श्रेष्ठिन् !, वह्नौ दग्धा सुता तव ॥४१॥ तचं न वेत्सि ? कि यद्वा, त्वत्पुत्र्यां मे प्रियाभ्रमः । पूर्व सूर्यगृहेऽद्याभू-| न्मत्पत्न्यां ते सुताभ्रमः ॥४२॥ द्वयोरूपसमत्वेना-ऽत्राऽपरं नास्ति कारणम् । श्रुत्वेति हर्षितः श्रेष्ठो, कामपालं जजल्प तम् ॥४३॥ अद्यमभृति ते भार्या, मत्पुत्रीति निगद्य सः। पूरयामास सत्मोत्या, तस्यै वस्त्रादिकं सदा ॥४४॥ सा परिवाजिका दुण्डा, मृखा दुष्टा पिशाचिनी । जाता पूर्वभवं स्मृत्वा, ध्यातमिदं तया क्रुधा ॥ ४५ ॥ नगरवासिनो लोका, दुष्टा मह्यं ददुर्न ये। भिक्षामपि ततो लोक-चूरणाय शिला कृता ॥ ४६ ॥ प्रबलभाग्यसंयुक्तां, प्रतिहन्तुं न Ccccvememes@CADEMORREKera For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ३६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होलिकाम् | समर्थाऽजनि लोकास्तां, शिलां दृष्ट्वा पुरोपरि ॥ ४७ ॥ जाता भयद्रुताञ्चक्रु-बेकिं तदा पिशाचिनी । सा कस्यचिच्छरीरे चावतीर्योवाच भो जनाः ! ॥ ४८ ॥ युग्मम् || पूर्वं कुलद्वयस्याहं, वत्सला भांड-भारडान् । विहाय मारयिष्यामि पुरस्थानपरान् जनान् ॥ ४९ ॥ ततो मृत्योर्जना भीताः सर्वे स्वजीवितस्य च । अन्योपायमनालोक्य, भांडभावं समाश्रिताः ॥ ५० ॥ मुक्तसज्जनमर्यादा, असत्यवाक्यभाषिणः । एवं भांडा जना जाता, दुष्टवाजित्रवादिनः ॥ ५१ ॥ तत्प्रभृति च सर्वत्र प्रवृत्तं प्रतिवत्सरम् । तद्दिने होलिकापर्व, कर्मबन्धन कारणम् ॥ ५२ ॥ बहिष्कृतं जनैः शिष्टे-रशिष्टैश्व समादृतम् । तदधुनाऽपि कुर्वन्ति, नेष्टवासनया जनाः ॥ ५३ ॥ पुनर्भस्मरज : पंक- मूत्राद्यमेध्यवस्तुभिः । मलिनदेहिनो जाता, ग्रथिला भरडा जनाः ॥ ५४ ॥ प्रतिवर्ष ततो होली - दिनात् द्वितीयवासरे । धूलिसंहरिकापर्व. प्रवृत्तं सा ततो गता ।। ५५ ।। कथ्यते होलिकापूर्व-भवोऽथ पाटलीपुरे । ऋषभदत्तनामाऽभूत् श्रेष्ठी चन्द्रानना प्रिया ॥५६॥ तयोर्द्वी तनुज चैका, देवी नाम्नी सुताऽभवत् । सा च लावरूपादि-गुणैरतीव शोभिता ॥५७॥ पितृभ्यां पाठिताऽथ स्व-मात्रा समं चकार सा । सामायिकादिसत्कृत्यं, व्रतनियमपालनम् ॥५८ वसन्ति तद्गृहासने, मिथ्याविनो जनाः सदा । तत्पुत्रीभिः समं देवी, सा चोत्तिष्ठति तिष्ठति ॥५९॥ वाचयन्ति द्विजा यत्र, कथां तत्र कदापि सा । कथामपि शृणोति स्म, तत्संसर्गवशात्पुनः ॥ ६० ॥ यद्यपि श्राविकाधर्म, पालयति तथापि सा । मिथ्यात्खस्यादरं चक्रे मिथ्यात्विजनसंगतः ॥ ६१ ॥ ज्येष्ठे च श्रावणे मासे, गणगोराचनाद्यथा । सुन्दरवरसंप्राप्ति - धनधान्यादिकं भवेत् ॥ ६२ ॥ एतादृश्यः कथास्तस्यै, रोचते पुनरेकदा । तयाseed धर्मे, देवोऽस्ति वीतरागकः ॥ ६३ ॥ कमपि न करोत्यर्हन्स सुन्दरमसुन्दरम् । सांख्यादिदर्शने ब्रह्मा, For Private and Personal Use Only होलिका पर्व- कथा ॥ ३६ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह होलिका पर्व-कथा CORPORACK जगत्कर्ताऽस्ति तत्पिता ॥६४॥ जगद्रक्षाकरो विश्णु-स्तत्संहारकरः शिवः । ततो यदीशपावत्योः, पूजादिकं विधीयते | ॥६५॥ तौ च तुष्टौ तदा स्यातां, पार्वतीशंकरौ मम । मनोवाञ्छितसांसारि-सुखलामोऽतुलो भवेत् ॥६६॥ ध्यात्वेति | गणगौरादि-मिथ्यात्विसत्कपर्वसु । जाताऽऽदरवती साऽथ, पितृभ्यामूचतुः सुताम् ॥६७॥ यत्त्वं हे पुत्रि ! मिथ्यात्वि0 पर्वादरं च मा कुरु । चिन्तामणिसमाहत्य, धर्मे मा कुर्वनादरम् ॥६८॥ इत्यादिबोधिताऽपीयं, प्रतिबुद्धा कदापि न । प्रशंसंति च तां लोका, मिथ्यात्विनी यथा यथा ॥ ६८ ॥ तथा तथा मुमोदेयं, तत्र गाढतराऽभवत् । क्रमान्मातपितृभ्यां, सा यौवने परिणायिता ॥७०॥ अल्पकालेन सा मृत्वा, श्रेष्ठिमनोरथात्मजा । जाता पुनः कथाव्यास-पुत्री दुण्डाऽत्र तच्छरखी ॥७१॥ कथावाचकजीवोऽत्र, कामपालोऽभवत्पुनः । मिलिताः पूर्वसंबंधा-त्रयोऽप्येते भवेऽत्र च ॥७२॥ इत्थं वृथैव संजातं, होलिकापर्व धीधनैः । विज्ञाय दूरतस्त्याज्यं, भव्यः स्वशुभार्थिभिः ॥ ७॥ किन्तु | तस्मिन् दिने कार्य, व्रतजिनार्चनादिकम् । किमपि होलिकासत्कं, कृत्यं कार्य न कर्हि चित् ॥७॥ अज्ञो यो होकिकाज्वाला-मध्ये चैको क्षिपेजनः। गुळालमुष्टिका तस्यो-पचासदशदण्डकम् ॥ ७५ ॥ एकघटप्रमाणस्य, जलस्य क्षेपणे पुनः । उपवासशतपाय-श्चित्तं ज्ञेयं विशारदः ॥७६॥ मूत्रप्रक्षेपणे पश्चा-शदुपवासदण्डकम् । छगणक्षेपणे चोप-वासानां पञ्चविंशतिः ॥७७॥ एका गालिप्रदानेन, पञ्चदशोपवासकाः । असभ्यगीतगानेन, सार्द्धशतोपवासकाः ॥७८ ॥ सप्ततिरुपवासानां तत्सत्कतूर्यताडने । विंशतिरुपवासाना-मेककरीपक्षेपणे ॥७९॥ छगणहारकक्षेपात् , होलिकावलने पुनः । जन्मान्तरे शतं वारं, स्वभस्मीभवनं भवेत् ॥ ८०॥ श्रीफलक्षेपणे वार-सहस्रशः भवान्तरे । पूगीफलप्रक्षेपेण, पञ्चाश द्वारकाः पुनः ।।८१॥ पुनधूलिप्रक्षेपेण, वारकपञ्चविंशतिः । तद्गतखनने वार-शतं भवान्तरे पुनः ॥८२।। स्याद्भस्मी Deepeacococonomemade CPCRA ॥ ३७॥ For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir होलिका पर्व-कथा ॥ ३८ ॥ आप II भवनं काष्ठ-क्षेपे वारसहस्रशः। तद्वतकरणे म्लेच्छो-त्पत्तिर्वारसहस्रशः ॥ ८३ ॥ चाण्डालीयकुलोत्पत्ति-स्तद्दाहरणे कथा-संग्रह पुनः । वारसहस्रशः पर्वा-स्तीदं कर्मनिबन्धनम् ॥ ८४ ॥ विज्ञाय केवलं पापं, श्रेयोऽथिभिश्च जन्तुभिः । द्रव्यतो होलिकापर्व, संत्याज्य दूरत इदम् ॥४५॥ एवमाराध्यते भाव-होलिकापर्व धर्मिभिः । तेनाऽत्र जगतीष्टार्थ, पाप्यतेऽत्र न संशयः ॥८६॥ अन्याऽपि होलिका जाता, वसंतपुरपत्तने । विप्रकुलोद्भवा रूप-लावण्यगुणशालिनी ॥ ८७॥ देवशर्मा पिता यस्या, देवानन्दा प्रसः पुनः । पञ्च सहोदरा आसन् , सौम्याकाराश्च पण्डिताः ॥८८॥ साऽजनि होलिका बाल-भावतो व्यभिचारिणी। परदेशीयविप्राय, पितृभ्यां सा विवाहिता ॥ ८९ ॥ तत्रापि पुंश्चलित्वेन, पत्या निष्कासिता च सा। पितृगृहे समागत्य, स्वप्रवृत्ति न मुञ्चति ॥९०॥ तदा सा भ्रातृभिः सार्दै, पुराब्दहिः कृता द्विजैः । पुराब्दहि गृहं कृत्वा, स्थिता सा भ्रातृभिः समम् ॥९१॥ युवानः सर्ववर्णीयाः, सेवन्ते तत्र तां ततः । लौकै राजाज्ञया दग्धा, सगृहभ्रातृहोलिका ॥१२॥ ततो मृत्वा च ते सर्वे, बभूवुर्ब्रह्मराक्षसाः । तैरिणादिना पौर-जना उपद्रुता भृशम् ॥९३॥ स्वजीवनार्थिनो लोका, जातास्तेषां प्रजल्पनात् । पूर्ववद्भरहा भाण्डा, प्रथिलाऽसभ्यवादिनः ॥९४॥ ततः. समग्रदेशेषु. होलिपर्व ससर्प तत् । प्रतिपुरं प्रतिग्राम, प्रतिस्थानं प्रतिस्थलम् ॥ ९५॥ कौकिकहोलिका द्रव्य-पर्व विहाय भो ! जनाः। लोकोत्तरचतुर्मासि, सत्पाराधयन्तु हि ॥१६॥ खरतरगणाधीशः, श्रीमोहनमुनीश्वरः । तच्छिष्योऽमळचारित्री, श्रीमद्राजमुनीश्वरः ॥९७॥ तच्छिष्याऽऽद्या महापाज्ञाः, श्रीजिनरत्नसूरयः। तेषां शिष्यगणिप्रेममुनेः समाग्रहेण च ॥९८॥ संवब्दाणाभ्रशून्याक्षि-वर्षे पौषार्जुने कृता । पाठकलब्धिनाऽष्टम्यां, तिथौ जयपुरे वरे ॥१९॥ ॥ इति होलिका-पर्व-कथा समाप्ता॥ CRPorocc00CDecemecope orpormcomcommama For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व --- चित्रीपूर्णिमामहात्म्यम् ॥ ३९ ॥ (७) अथ चैत्रीपूर्णिमा-माहात्म्यम् । कथा-संग्रह ऋषभस्वामिनं नत्वा, श्रीसिद्धाचलभूषणम् । चैत्रस्य शुक्लराकाया, माहात्म्यं लिख्यते मया ॥१॥ सिद्धौ विद्याधराधीशौ, श्रीनमिविनमी मुनी। पुण्डरीकमुनीन्द्रश्च, वालिप्रद्युम्नसांवकाः ॥२॥ भरतशुकसाधू च, सिद्धौ शैलकपन्थको । द्राविडो नारदो रामः, पाण्डोः पञ्चमुताः पुनः ॥३॥ एवमनेकशो जग्मुः, सिद्धाचले शिवालयम् । सिद्धाचलमहातीर्थ-मिदं भावान्नमाम्यहम् ॥४॥ अयोध्यायां महापुर्यो, भगवान्नृषभप्रभुः । राज्यं स्वज्येष्ठपुत्राय, प्रददौ भरताय | च ॥५॥ अन्येभ्योऽपि स्वपुत्रेभ्यो, वितीर्य विषयान्स्वयम् । दीक्षां गृहीतवान्स्वामी, निस्संगो निष्परिग्रही ॥६॥ श्रीनमिविनमी स्वामी-पुत्रकृतौ तदा गतौ। परदेशे च कस्मैचि-कार्याय तौ समागतौ ॥७॥ भरतदत्तराज्यं ता-वगृहीत्वा प्रभोः पुरः । समागत्य स्वराज्याय, याचयामासतुः सदा ॥ ८॥ एकदा धरणेन्द्रेणा-गतेन वंदितुं प्रभुम् । दृष्ट्वा भक्तिं च कुर्वन्तौ, प्रसन्नेन प्रजल्पितौ ॥ ९॥ भगवानस्ति निःसङ्ग-स्तद्भक्त्याऽहं ददामि वः। राज्यमिति भणित्वा तु, रम्ये वैताढ्यपर्वते ॥१०॥ दक्षिणश्रेणिपञ्चाश-नगराण्यर्पितानि च । वासयित्वोत्तरश्रेणि-पष्टीवरपुराणि च ॥११॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। ताभ्यामिन्द्रो महाविद्याः, पोडश पददेऽपराः। सामान्या अष्टचचारि-शत्सहस्रकसंख्यकाः॥१२॥ तौ च विद्याबलात्तत्र, वासयित्वा जनान् बहून् । प्रपालयामासतू राज्यं, चिरकालं प्रहर्षितौ ॥१३॥ तौ नमिविनमी पान्ते, ॥ ३९॥IN स्यक्त्वा सर्वपरिग्रहम् । दीक्षामादाय सिद्धाद्रौ, समागत्य शिवं गतौ ॥१४॥ ऋषभस्वामिनः पौत्रो, भरतचक्रिणः सुतः। PerpeamPoecomenexpecipeope For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥४०॥ Comcancereoccccccccc पुण्डरीकः प्रभोः शिष्य, आदिगणाधिपोऽजनि ॥१५॥ सोऽथ गणधरः सार्द्र, पञ्चकोटिस्वसाधुभिः पावयन्नगरपामान् , INोपर्णिमा| सौराष्ट्रविषयं ययौ ॥१६॥ तनिशम्य नृपा लोकाः, सामंता श्रेष्ठिनः पुनः । नरा नार्यः गुरुं नन्तु-मनेकशः समाययुः IN| महात्म्यम् ॥१७॥ तेनाऽपि देशनामध्ये, द्विधा धर्मः प्ररूपितः । साधुश्राद्धात्मकः सर्व-मुखसंपत्तिकारकः ॥१८॥ तस्मिन्नवसरे चैका, शोकाद्वाष्पजलार्दिका । चिन्तासागरनिमना, दीना नारी समाययौ ॥१९॥ तया सा च दौर्भाग्य-का बालविधवाऽऽययौ । गुरुम्प्रणम्य सा नारी, पप्रच्छ कन्यया समम् ॥२०॥ अनया कन्यया स्वामिन् !, पाप किं प्राग भवे कृतम् ? । येन पतिर्मृतश्वास्या, विवाहकरमोचने ॥२१॥ गुरुरुवाच भो भद्रे !, जीवरशुभकर्मणाम् । फलमशुभमेवात्र, परत्र भुज्यते भवे ॥२२॥ तथाहि जम्बूद्वीपस्य, पूर्वमहाविदेहके । आसीजनाकुलं रम्य, चन्द्रकान्तामिधं पुरम् ॥२३॥ तत्र समरसिंहाख्यो, भूपोऽभृत्तस्य धारिणी । मिया धनावहश्रेष्ठी, वरश्राद्धोऽवसत्पुनः ॥२४॥ तस्यैका कनकश्रीश्च, मित्रश्रीरपरा प्रिया। अभूत्ताभ्यां समं श्रेष्ठी, स तस्थौ सुखपूर्वकम् ॥२५॥ एकदा कनकश्रीश्च, मित्रश्रीसत्कवारकम् । समुल्लंघ्य ययौ भर्तुः, पार्श्व पतिस्तदाऽवदत् ॥ २६ ॥ वारकमद्य ते नास्ति, मर्यादा लंधिता कथम् । त्वया सा प्राह मर्यादा, केयं माह तदा पतिः ॥२७॥ कुलीनानां सतां मर्या-दोल्लंघनं वरं न हि । संतोषरहिता साऽथ, निराशा स्वगृहं ययौ ॥२८॥ सा सपल्या समं द्वेष-मुहंती स्मरार्दिता । पत्या समं वियोगं च, तस्याश्चिन्तयति स्म च ॥२९॥ ततः सा मन्त्रतन्त्रादि-सामग्री प्रविधाय च । तत्तनौ शाकिनी भूता-दिप्रवेशमकारयत् ॥३०॥ साऽपि दुष्कर्मयोगेन, पारवश्याऽभवत्तराम् । कनकश्रीविलोक्याऽस्याः, कुचेष्टितं जहर्ष सा ॥३१॥ पुनः सा स्ववशीचक्रे, भर्तारं ग्रथिळा प्रिया । त्यक्ता तेनापि पूर्वान, कर्मफलं विचिन्त्य च ॥३२॥ कनकश्रीस्तदाऽतीव, हर्षिताऽभूत्तया समम् । सुखं श्रेष्ठी च भुंजानः, perpezzreeroeceDeceo For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह चत्रीपूर्णिमा. महात्म्यम् ROIDAODODCORDCADE कालमगमयत्सुखात् ॥३०॥ कियत्यथ गते काले, कनकश्रीमताऽजनि । तव सुता सपत्नीय-पतिवियोगकारिणी ॥३॥ सपत्नीदुःखदानेन, पतिविरहपीडया। पीडित विषकन्याख, भोगसुखविवर्जितम् ॥३५॥ उपार्जितं तया कर्म, तेनाsतिदुःखदुःखिता पतिसुखप्रहीणा ते, सुता स्वकृतकर्मणा ॥३६॥ युग्मम् ।। तज्जननी तदा पाह, गुरो ! पतिवियोगतः। दु:खिता वृक्षशाखाया-मियं मतुं समुद्यता ॥ ३७॥ तावत्तत्र मया गत्वा, छिन्नः पाशश्च कण्ठगः। रुदन्तीयं सुता पूज्य ! समानीता भवत्पुरः ॥३८॥ दीक्षा प्रदीयतामस्यै, तदा गणधरोऽवदत् । एषा तव सुता दीक्षा-योग्या नास्ति हि साम्प्रतम् ॥३९॥ वर्तते नितरां बाला-ऽतीव चञ्चलमानसा। सुगुरुवचनं श्रुत्वा, जगाद तत्प्रसगुरो! ॥४०॥ अस्या योग्यं च धार्मीय-कृत्यं निरूप्यतां यतः । दुष्टकर्मविपाकोऽयं, दूरीभवेत्पुराकृतः ॥४१॥ गुरुनिबलेनाऽस्या, | योग्य व्रतं जगाद च । हे भद्रे! चैत्रशुक्लस्य, पूर्णिमाऽऽराधनं कुरु ॥ ४२ ॥ तस्या आराधनेऽस्याः प्राक्-कर्मनाशो भविष्यति । निशम्येति समुत्पन्ना, रुचिस्तस्या अपि व्रते ॥४॥ तदा सा सावधाना च, शुश्राव मुगुरोर्वचः । गुरुस्तदाऽवदत्सिद्धा-ऽचलतीथं च शाश्वतम् ॥४४॥ अनंतानंतकालेन, तत्र चानन्तजंतवः। क्षपयित्वाऽष्टकर्माणि, कृतकृत्याः शिवं ययुः ॥४५॥ पुनरागामिकालेऽपि, स्पर्शयित्वा शुभाशयात् । अनन्तजन्तवस्तत्र, गमिष्यन्ति शिवालयम् ॥ ४६॥ मुख्य सकलतीर्थेषु, सिद्धाद्रितीर्थमस्ति हि । यद्दर्शननमस्कारो-ऽस्ति सर्वाधविनाशकः ॥४७॥ ये भावचक्षुषा जीवाः, पश्यन्ति विमलाचलम् । तियचो मनुजा वाऽपि, प्रयान्ति सद्गतिं खलु ॥४८॥ एकविंशतिनामानि, सन्ति सिद्धगिरेजनैः। विधेयं हृदि तद्ध्यान, सकलापविनाशकम् ॥४९॥ चैत्रस्य शुक्लराकायां, सर्वपर्वोत्तमे दिने। निरीहशुद्धभावेन, विधेयमुपवासकम् ॥५०॥ तत्र जिनालये स्नात्र-पूजा महोत्सवादिकम् । कार्य सर्वजिनेन्द्राणां, यथाशक्ति प्रपूजनम् Coedeo20200 ॥४१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ४२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ||५१ || चैत्र शुक्कराकाया, माहात्म्यं सुगुरोर्मुखात् । श्रोतव्यं सावधानेन, प्रत्याख्यानादिपूर्वकम् ||५२|| तद्दिनं सफलीकार्य, धार्मी शुभकर्मणा । दीनहीनजनादिभ्यो, दानं देयं विशेषतः || ५३ || शीलं प्रपालनीयं च, विधेयं जीवरक्षणम् । धर्त्तव्या शभ-संवेग-निर्वेदादिगुणाः पुनः ॥ ५४ ॥ सिद्धाचलं पटं श्रेष्ठं, संस्थाप्य विधिपूर्वकम् । उच्चैः स्थानेऽर्चनं कार्य-मक्षताद्यष्टवस्तुभिः ॥५५॥ पञ्चशक्रस्तवैर्देवान्, वंदित्वा गुरुसाक्षिकम् । दिवसरात्रिकृत्यानि, विधेयानि स्थिराशयात् ॥५६॥ पुनः पारणवेलायां, दानं वितीर्य साधवे । विधेयं पारणं भव्यैः, परमपदकांक्षिभिः ||५७॥ यावत्पञ्चदशाब्दानि, विधेया प्रतिवत्सरम् । व्रतस्याराधना प्रोक्त-विधिना सुपयोगतः ॥ ५८ ॥ पश्चादुद्यापनं कार्य, तेन स्यान्निर्धनो धनी । पुत्र कळत्र सौभाग्य - की र्त्तिर्देव सुखं शिवम् ॥५९॥ स्त्रीणां पतिवियोगो न रोगः शोकश्च नश्यति । पुनर्वैधव्यदौर्भाग्यमृतवत्सादिकाशुभम् ||६०|| अस्या आराधनेन स्यात्स्त्री पतिवल्लभा पुनः । नश्यति विषकन्यात्वं भूतः प्रेतश्व शाकिनी ॥ ६१ ॥ ग्रहादिकं महाकष्टं, नश्यति तत्प्रभावतः । पारवश्यादिकं नेष्ट-कर्मफळादिकं पुनः ॥ ६२ ॥ किंबहुना ? सुभावेन, सम्यगाराधिता भवेत् । चैत्री पूर्णिमाऽऽत्मीया - ऽक्षयसुखप्रदायिनी ॥ ६३ ॥ गणधर मुखादेवं श्रुत्वा वाला जहर्ष सा । गुरून्प्रणम्य साप्रा, करिष्येऽहमिदं व्रतम् ॥ ६४ ॥ पुण्डरीकगणेशोऽथ, विहृत्य मुनिभिः समम् । प्रतिबोध्य बहून् जीवान् क्रमासिद्धाचलं ययौ ॥ ६५॥ स्वात्मध्यानरतैस्तत्र, पञ्चकोटिमुमुक्षुभिः । चैत्रस्य शुक्रराकायां, विधायाऽनशनं पुनः ||६६ ॥ एकाग्रस्वात्मिकाभेद-ध्यानाज्ज्ञानं च केवळम् । समुपार्ज्याष्टकर्माणि, क्षपयित्वा शिवं ययौ ॥६७॥ युग्मम् ॥ ततो मात्रा समं बाला, सा चैत्री पूर्णिमात्रतम् । चकार विधिना जाता, सुखिनी तत्प्रभावतः ||६८|| वैषयिकविकारस्य, शान्तिस्तस्यास्तदाऽभवत् । कृत्वा धर्मे मनः सा त चकार प्रतिवत्सरम् ||६९ ॥ व्रते पूर्णे तयाऽकारि, व्रतस्योद्यापनं पुनः । यात्रा For Private and Personal Use Only चैत्र पूर्णिमामहात्म्यम् ॥ ४२ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा - संग्रह ॥ ४३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिद्धगिरेर्ध्यानं, पुण्डरीकगणे शितुः ॥ ७० ॥ ऋषभप्रभुजापेन, परमेष्ठिनमस्कृतेः । प्रान्ते मृत्वा च सा स्वर्गे, प्रथमे - भूत्सुरोत्तमः ॥ ७१ ॥ तत्र देवसुखं भुङ्क्त्वा सोऽथ च्युखा विदेहके । सुकच्छविजये रम्ये, वसन्तपुरपत्तने ॥७२॥ ताराचन्द्रामि श्रेष्ठी, भार्या तारा सुतोऽजनि । पूर्णचन्द्राभिधानेन, द्वासप्ततिकलायुतः ॥ ७३ ॥ युग्मम् ॥ स पञ्चदशकोटीयद्रव्यं पञ्चदश प्रियाः । पञ्चदश सुता इत्यादिसुखालिङ्गितोऽभवत् ॥७४॥ तद्भवे स पुनश्चैत्र पूर्णिमाऽऽराधनं व्यधात् । प्रान्ते दीक्षां कलौ पार्श्वे, जयसमुद्रसद्गुरोः ॥७५॥ तत्र च स तपः शुक्ल-ध्यानाग्निबलान्मुनिः । निर्देश कर्मकाष्ठानि, क्रमान्मोक्षपदं ययौ ॥ ७६ ॥ एवं घना जनाइचैत्र - राकाव्रतविधानतः । संप्राप्ता परमानन्दं, स्वात्मरूपं हि शाश्वतम् ॥७७|| पुनरपि शिवं प्राप्तो, वालिनामा महामुनिः । श्रीबिमळाचले शांव- प्रद्युम्नौ च शिवं गतौ ॥ ७८ ॥ दशरथसुतस्तत्र, raise शिवं । पंथकः शैळकाचार्यः, शुकनामा मुनिः पुनः ॥ ७९ ॥ चक्रभृद्भरतो रामो द्राविडो नारदादयः । अनेके मुनयोऽत्रैव, सिद्धाचले शिवं ययुः ||८०|| पाण्डवप्रमुखास्तत्र, सत्पुरुषाः शिवं ययुः । तद्भावभाविता जीवाः, स्वर्गादिसद्गतिं पुनः ॥ ८१ ॥ चैत्रराकादिने कृत्वो - पवासं विमलाचले । गत्वा कुर्वन्ति ये यात्रा - पूजाध्यानजपादिकम् ॥८२॥ ते विच्छेदं प्रकुर्वन्ति, तिर्यनरकदुर्गतेः । सुमानुष्यसुदेवल-गतेरुद्घाटनं पुनः || ८३ ॥ इत्यादिपर्वणचारा-धनस्वरूपमागमे । प्रवरपुरुषैः प्रोक्तं, भव्यजीवहिताय च ॥ ८४ ॥ तद्दिने श्रीगुरोः पार्श्व-मंत्राक्षरपवित्रितम् । स्नात्रजलं गृहीत्वा च, सिंचनीयं स्वसद्मनि ॥ ८५ ॥ तेन मार्यादिभीतिश्च, यात्यानन्दो भवेद्गृहे । ऋद्धिवृद्धिः सुखं सर्व-सम्पत्तिव शिवं पुनः ॥ ८६ ॥ अस्मिन् पर्वणि चायाते, दानादिकं चतुर्विधम् । धर्मकृत्यं सदा कार्य, नरैर्धर्मपरायणैः ॥ ८७ ॥ खरतरगणाधीशः, श्रीमोहनमुनीश्वरः । श्रीमज्जिनयशः सूरि-स्तच्छिष्यः प्रथमोऽजनि ॥ ८८ ॥ द्वितीय शिष्यशुद्धात्म For Private and Personal Use Only चैत्रीपूर्णिमामहात्म्यम् ॥ ४३ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह अक्षयतृतीया पर्व-कथा राजमुनिमुनिः पुनः । तत्सुशिष्या महाप्राज्ञाः, श्रीजिनरत्नमृरयः ॥ ८९॥ तेषां शिष्यगणिप्रेम-मुनेः समाग्रहात्कृता । पाठकलब्धिना चैत्र-शुक्लस्य पूर्णिमा कथा ॥ ९॥ अजयमेरुदुर्गे च, पञ्चम्यां फाल्गुनार्जुने । संवद्वाणखशून्याक्षि (२००५)-वत्सरे रचिता कथा ॥ ९१॥ ॥ इति चैत्रीपूर्णिमा-माहात्म्य-कथा समाप्ता ॥ ॥ ४४ ॥ eepercedeo20eemenexpeeze (८) अथ अक्षयतृतीया-पर्व-कथा॥ ऋषभस्वामिनं देवा-धिदेवं प्रणिपत्य च । मयाऽक्षयतृतीयाया, माहात्म्यं कथ्यते खलु ॥१॥ " उसमस्स य पारणए, इक्खुरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमन्न, अमियरससरिसोवमं आसी ॥२॥” ऋषभेशोऽथ सर्वार्थ-सिद्धनामविमानतः । व्युत्वा चापाढकृष्णस्य, चतुर्यो प्रवरक्षणे ॥३॥ कुक्षौ श्रीमरुदेवाया, अवातरत्ततः प्रभुः । चैत्रकृष्णाष्टमीरात्रौ, जातो भव्यहितावहः॥४॥ विंशतिलक्षपूर्वान्द, कुमारभावसं स्थितः । त्रिषष्ठिलक्षपूर्वाब्द, राज्यमध्येऽवसत्पभुः॥५॥ चैत्रकृष्णामी घरे, दीक्षां ललौ प्रभुस्तदा । गजपुरे सुतो बाहु-बलेः सोमयशा नृपः ॥६॥ श्रेयांसाख्यसुतस्तस्या-ऽथ | यावदेकवत्सरम् । पूर्वकर्मोदयात्स्वामी, निराहारतया स्थितः ॥७॥ भूतले विहरन्स्वाम्ये-कदा गजपुरे ययौ । श्रेयांसश्रेष्ठिभूमीशाः, स्वप्नांश्च ददृशुस्तदा ॥८॥ श्यामीभूतो नगो मेरुः, प्रक्षालितोऽमृत रसैः। मयाऽतीवोज्ज्वल: सोऽभूत् , CococcoerceDecemeere ॥४४॥ For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ४५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेयांसः स्वप्नमैक्षत ॥९॥ श्रेयसेन खेर्बिम्बा-त्पतन्तः किरणाः पुनः । स्थापिता नगरश्रेष्ठी, सुबुद्धिः स्वममैक्षत ||१०|| एकः श्रेयांससाहाय्यात्, शूरो हि शत्रुरोधितः । जितकाश्यभवच्चेति दृष्टः स्वप्नो नृपेण तु ॥ ११॥ प्रभाते ते त्रयो जग्मुः सभायां जगदुर्मुदा । स्वस्वस्वप्नस्तदा सर्वे, विचार्य जगदुर्जनाः || १२ || श्रेयांसस्य महालाभो, भविष्यत्यधुनेत्यथ । भिक्षार्थ भगवांस्तत्र, भ्रमति च गृहे गृहे ||१२|| क्रमात् श्रेयांसगेहेऽगात्प्रभुस्तत्सुकृतोदयात् । श्रेयांसो हर्षितो जातो, विलोक्य स्वामिनं तदा ||१४|| तस्मिन्काले जनाः साधु-मुद्रानालोकनान्न हि । अन्नपानीयदानादि विधिं जानन्ति कुत्रचित् ॥ १५ ॥ तेन जना मणीन् रत्नान् सुवर्णरजतं गजान् अश्वान् कन्यादिवस्तूनि, निमंत्रयंति नित्यशः ॥ १६ ॥ तन्मध्याद्वस्त्वगृह्णन्तं भगवन्तं विलोक्य च । प्रोचुर्मिथो जनाः स्वामी, नः किञ्चिदपि लाति न ॥ १७ ॥ इत्यूचानाः प्रभोः पृष्ठे, भ्रमन्ति परितो जनाः । पश्चात्तापं प्रकुर्वन्ति, परस्परं वदन्ति च ॥ १८ ॥ जनकोलाहलं श्रुत्वा, भ्रमन्तं स्वामिनं पुनः । श्रेयांसस्य विलोक्याभूत्पूर्वभवाखिला स्मृतिः ||१९|| ज्ञाताऽष्टभववृत्तान्तः, प्रभुणा हि समं ततः । विवेद प्राग्भवे साधु-स्वपालनादिकां क्रियाम् ||२०|| ततः स विधिना नत्वा प्रासुकेक्षुरसेन च । गृहागतेन तीर्थेशं तं प्रत्यलाभयन्मुदा ॥ २१ ॥ भगवताऽपि विज्ञाय, निर्दोषप्रासुकेन च । इक्षुरसेन वार्षीय-तपसः पारणं कृतम् ||२२|| राधशुक्लतृतीयायां, स्वामिना पारणं कृतम् । तेन दानेन संप्राप्तं, श्रेयांसेनाक्षयं सुखम् ||२३|| एतस्यां ह्यत्रसर्पिण्या - माद्यदानप्रवर्त्तितः । धार्म्याक्षियतृतीयाख्य-पर्वेदं प्रथितं जने ||२४|| तत्पारणक्षणे कृत्वा, पञ्चदिव्यानि निर्जरैः । श्रेयांसस्य गृहं रत्न- सुवर्णादिधनैर्ऋतम् ||२५|| उक्तञ्च - "घुटुं च अहोदाणं, दिव्याणि य आध्याणि तूराणि । देवावि सन्निवाइया, वसुहारा चैव बुट्टी य ||२६|| भवणं धणेण भुवणं, जसेण भयवं रसेण पडिहत्थो । अप्पा निरुवमसुहं, For Private and Personal Use Only अक्षयतृतीया पर्व- कथा ॥ ४५ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह रोहिणी पर्व कथा ॥ ४६॥ emperoecogeeaponerce सुपत्तदाणं महग्धवियं ॥२७॥ रिसहेससम पत्तं, निरवज इक्खुरससम दाणं । सेयंससमो भावो. हविज्ज जइ मग्गिअं हुजा ॥२८॥” ततः श्रेयांसतो जातं, प्रभोः पारणकं शुभम् । लोकैतिश्च सर्वत्रा-हारदानादिको विधिः ॥२९॥ वर्ष यावत्प्रभोः पूर्व-बद्धकर्मोदयागतात् । आहारो मिलितो नैव, तत्कारणं निगद्यते ॥३०॥ कस्मिंश्चित्पाग्भवे स्वामि| जीवो मनुष्यतां गतः । तत्रैकदा च कार्याय, ग्रामान्तरं ययौ स च ॥३१॥ अध्वनि गच्छता तेन, वृषभान् भ्रमतः खले । भक्षयतश्च धान्यानि, कुट्टयन्कर्षकोऽकथि ॥३२॥ भो ! वृषभमुखे छिक्की, बध्नासि ? त्वं कथं नहि । उक्तं तेनाऽथ जानामि, डिक्की कर्त्तमहं नहि ॥३३॥ ततश्छिकी विधायको, तदुपदेशोऽपितस्तदा । श्रुत्वाऽमोचि निःस्वास चतुःशतं वृषस्तदा ॥३४॥ कर्मणि ह्युदिते तस्मिन् , भवेत्रादिजिनेश्वरः । वर्ष यावनिराहार-त्वेनादीनमनाः स्थितः | ॥३५॥ तस्मिंश्च कर्मणि क्षीणे, चेक्षुरसेन पारणम् । स्वामिना शुद्धमानेन, चक्रे श्रेयांससद्मनि ॥३६॥ एकसहस्रवर्षाणि, छद्मस्थत्वे विहृत्य च । तपसा हतवान्स्वामी, घातिकर्मचतुष्टयम् ॥३७॥ जातं फाल्गुनकृष्णका-दश्यां श्रीऋषभप्रभोः। वराऽनुत्तरसंपूर्ण, केवलज्ञानदर्शनम् ॥ ३८॥ श्रीचतुर्विधसङ्घस्य, स्थापना प्रभुणा कृता । विहृत्य भूतले भव्य-जीवा धर्मे नियोजिताः ॥३९॥ माघकृष्णत्रयोदश्यां, निर्वाणं गतवान्प्रभुः । तृतीयकारकमान्ते-अष्टापदाभिधपर्वते ॥४०॥ प्रारभ्यते च वर्षीय-तप इदं शिवप्रदम् । चैत्रकृष्णाऽष्टमीस्वामि-दीक्षाकल्याणकदिनात् ॥४१॥ समाप्यते च वैशाखशुक्लाऽक्षयतृतीयके । वासरे तत्तपश्चक्षु-रसपारणपूर्वकम् ॥४२॥ एकान्तरोपवासानि, चास्मिस्तपस्यखण्डितम् । निरन्तरं विधीयन्ते, मोक्षाभिलाषिजन्तुभिः ॥४३॥ इदं वर्षितपः पूर्ण, द्विवारकरणाद्भवेत् । वर्षितपोद्वये चोप-वासचतुःशतं भवेत् ॥४४॥ दीक्षादिनात्समारभ्य, यावत्पारणवासरे। अभवदुपवासानां, चतुःशतं जिनेशितुः ॥ ४५ ॥ अत्रैतदुपवासानां, Peacocccccccmance ॥४६॥ For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व कथा INI पतिविधानतो भवेत् । एकं वर्षितपो भव्य, सर्वसंपत्तिकारकम् ॥ ४६॥ खरतरगणोत्स-श्रीमोहनमुनीश्वरः । तत्प्र16/ शिष्या महाप्राज्ञाः, श्रीजिनरत्नसूरयः ॥ ४७॥ तच्छिष्यगणिप्रेम-मुनेः समाग्रहान्मया। कृताऽक्षयतृतीयायाः, कथा IN रोहिणी-पर्व कथा-संग्रह पाठकलब्धिना ॥ ४८ ॥ संबद्वाणखशून्याक्षि (२००५)-वत्सरे फाल्गुनार्जुने । प्रतिपदि समाप्ति सा, नीता चाजय॥४७॥ N मेरुके ॥४९॥ ॥ इति अक्षयतृतीया--कथा समाप्ता ॥ emeroecomecamera (९) अथ रोहिणी-पर्व-कथा। वासुपूज्यं जिनाधीश, नमस्कृत्य प्रकीर्यते । रोहिणीव्रतमाहात्म्य, सरोहिणीकथानकम् ॥१॥ इहैव भरतक्षेत्रे, चम्पा नाम महापुरी। अस्ति द्वादशस्याहतो, जन्मादिभिः पवित्रिता ॥२॥ तस्यां श्रीवासुपूज्याई-तनुजो मघवाभिधः। भूपतिमघवेवाऽभू-द्राजतेजोविराजितः ॥३॥ तस्य लक्ष्मवती राज्ञी, शीलादिगुणशालिनी। सदाचारवती शिष्टा, सती पतिव्रताऽभवत् ॥४॥ तस्याः कुक्षिसमुद्भूता, अष्टौ सुताश्च भूपतेः । बभूवुस्तदुपर्यंका, रोहिण्याख्या सुता पुनः॥५॥ चतुःषष्ठिकळापूर्णा, रूपलावण्यसंयुता । सौभाग्यादिगुणयुक्ता, सा क्रमाद्यौवनं गता ॥६॥ नृपोऽय वरयोग्यां तां, विज्ञाय रोहिणीसुताम् । प्रवरं कारयामास, तत्स्वयंवरमण्डपम् ॥ ७॥ देशे देशे नरान् प्रेष्य, प्रधानान् बहुमानतः। नृपेणाकारिता भूपा, राजपुत्राश्च भूरिशः ॥८॥ तेऽपि स्वस्वविभूत्याऽथ, समागता नृपादयः। तन्मण्डपस्थिते सिंहा-सने पृथक् पृथक् | peroeaeeroecemerocreen ॥ a For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ४८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थिताः ॥ ९ ॥ अथ सा रोहिणी कृत्वा, स्नान विलेपनादिकम् । श्वेतवस्त्राणि रत्नानि भूषणादि विधृत्य च ॥ १० ॥ स्थित्वा सुखासने स्वीय-परिवारान्विता ययौ । राजराजसुताकीर्णे, स्वयंवरस्य मण्डपे || ११ || रोहिणी पुरतश्चैका, चलन्ती प्रतिहारिणी । वर्णयामास राजादि- वंशावलि विशेषतः ॥ १२ ॥ नागपुरप्रभोर्वीतशोकनृपसुतस्य सा । अशोकाख्यकुमारस्य, कण्ठे चिक्षेप मालिकाम् || १३ || तदा सर्वे जना हृष्टा - स्तस्मै नृपेण रोहिणीम् । स्वपुत्र परिणाय्योच्चैः, सर्वे नृपा विसर्जिताः ॥ १४ ॥ अशोकाख्यकुमारोऽपि, राजदत्तधनादिकम् । लावा स्वभियया सार्द्धं, रोहिण्या स्वपुरं ययौ ॥ १५ ॥ पुरे प्रवेशितः पित्रा, सवधूको महोत्सवात्। पुत्रोऽथ स तया सार्द्ध, तत्र सुखेन तिष्ठति ॥ १६ ॥ अथान्यदा नृपो दत्वा स्वराज्यं निजसूनवे । अशोकाय स्वयं दीक्षां सद्गुरुसन्निधौ लौ ||१७|| अथाशोकनृपस्यासन्, राज्यं पालयतः सुताः । अष्टौ च रौहिणीकुक्षि - जाताश्चतुः सुताः पुनः ॥ १८॥ अथैकदा नृपः सार्द्धं, रोहिण्या सप्तमीfa | गवाक्षे लोकपालाष्ट-मसुतयुक् च दीव्यति ||१९|| तस्मिन् क्षणे पुरे कस्या - चित्त्रियास्तनुजो मृतः । सा रुदन्ती ययौ मार्गे, ताडयन्ती स्ववक्षसम् ॥ २० ॥ तां दृष्ट्वा रोहिणी माहा ऽयं स्वामिन्! कोऽस्ति ? नाटकः । मया पूर्व कदाऽप्येवं विधो दृष्टो न नाटकः ||२१|| राजा माहाऽजनि ? स्वं किं ग्रथिला गर्वतोऽथ सा । प्राह प्राणेश ! मानं न करोम्यहं कदाचन ॥२२॥ इदं दृष्ट्वा ममाश्चर्य, जायते निजचेतसि । राजोचेऽस्या मृतः पुत्रस्तेनेयं रुदति प्रिये ! ||२३|| रोहिणी प्राह भो स्वामिन् 1, कुत्रानया च शिक्षितम् ? । रोदनं भूपतिः प्राह तत्त्व शिक्षयाम्यहम् ||२४|| इत्युक्त्वा रोहिणीपा -लोकपालसुतं नृपः । गृहीत्वापातयद् भूमौ तदा हा हा !! खोऽभवत् ||२५|| नृपादयोऽखिला लोका क्रुर्दुःखं च रोदनम् । परन्तु रोहिणी नैव, चकार दुःखरोदनम् ॥ २६ ॥ प्रत्युत प्राह सा जातो ऽपरोऽयं For Private and Personal Use Only रोहिणी पर्व कथा ॥ ४८ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ।। ४९ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाटकस्ततः । शासनदेवता धृत्वा ऽस्थापयत्तं सुखासने || २७ ॥ तदा राजादयश्चकु महाश्लाघां चमत्कृताः । रोहिण्या: पुण्यशालिन्या, लोकपालसुतस्य च ||२८|| एकदाऽथ पुरोधाने, वासुपूज्यजिनेशितुः । शिष्यौ समागतौ रूप - कुम्भकस्वर्णकुम्भकौ ॥ २९ ॥ मुनियुग्मं समायात-मंत्र निशम्य भूपतिः । नंतुं तत्र ययौ नत्वा यथास्थानमुपाविशत् ||३०|| मुनिना देशना दत्ता, देशनान्ते नृपोऽवदत् । गुरो ! पूर्वभवेऽकारि ?, रोहिण्या किं तपः क्रिया ॥ ३१ ॥ येनषा दु:खवार्त्ती न जानात्यस्याः सुताष्टकम् । पुत्रीचतुष्टयं मेऽस्या - मतिस्नेहश्च वर्त्तते ॥ ३२ ॥ ततो गुरो ! कृपां कृत्वै तत्पाग्भवो निरूप्यताम् । गुरुः प्राहाऽथ हे राजन् ! पुण्यपापफलं शृणु ॥ ३३ ॥ अस्मिन्नेव पुरे श्रेष्ठी, धर्ममित्राऽभिधोऽवसत् । मित्रा प्रिया तस्याऽभवत् सती पतिव्रता ||३४|| दुर्गन्धाख्या सुतैकाडभू-त्कुरूपा दुर्भगा तयोः । तां च विलोक्य sister: पाणिग्रहं करोति न ||३५|| तस्याः पित्रा तदा कश्चि-चौरो वधाय भूपतेः । पुरुषैर्नीयमानथ, गृहीतो पार्श्वतः ||१६|| तस्मै विवाहिता पित्रा स्वसुता सोऽपि तां निशि । त्यक्त्वा पलायितः श्रेष्ठी, रुदन्तों तां तदाSवदत् ||३७|| हे पुत्र ! प्राणिनः सर्वे, पूर्वविहितकर्मणाम् । उदयेनाऽत्र भुञ्जन्ते, सुखदुःखपरम्पराम् ॥ ३८ ॥ ततस्त्वं देहि दानानि, सुकृतं कुरु भावतः । धर्मकृत्यानि दुःखानि येन ते यान्ति नष्टताम् ।। ३९ ।। दुर्गन्धाऽथ पितुर्वांचं, निशम्य धर्मकर्मसु । सावधानाऽभवद्भावि - शुभोदयाद्विशेषतः ॥ ४० ॥ अन्यदात्र गुरुर्ज्ञानी, समागतोऽथ वंदितुम् । धर्ममित्रो ययौ श्रेष्ठी, ननाम सुगुरुं मुदा ||४१ || देशनाऽन्तेऽवदत् श्रेष्ठी, धर्ममित्रो गुरो ! मम । पुत्र्या दुर्गन्धया पूर्व-भवे किं दुष्कृतं कृतम् १ ||४२ ॥ येन नेच्छति कोऽप्यत्र तां ततः प्राह सद्गुरुः । गिरनारपुरे राजा, पृथ्वीपालाभिघोऽभवत् ||४३|| सिद्धिमती प्रिया तस्य स च भूपतिरेकदा । सिद्धिमतीप्रियायुक्तः, क्रीडार्थ कानने गतः For Private and Personal Use Only रोहिणी पर्व कथा ॥ ४९ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह CopcornerPOROPERCamcorpora ॥४४|| एको मुनिः क्षणे तस्मिन् , गुणसागरसंज्ञकः । भिक्षार्थमाययौ तत्र, मासक्षपणपारणे ॥४५|| भूपतिः स्वपियां 10 रोहिणी-पर्व प्राहा-ऽस्मै दानं देहि साधवे । अयं जङ्गमसत्तीर्थ-पुण्यपात्रं च विद्यते ॥ ४६॥ उक्तं च-" साधूनां दर्शनं पुण्यं, कथा तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थ फलति कालेन, सद्यः साधुसमागमः ॥ ४७॥" सा नृपवचसा राज्ञी, क्रोडान्तरायमानिनी। जानाना द्वषतस्तस्मै, ददौ कटुकतुम्बकम् ॥४८॥ कटुतुम्बकशाकेन, तेन च पारणं कृतम् । तद्भक्षणान्मुनिर्मृत्वा, स्वर्ग ययौ समाधिना ॥ ४९ ॥ तन्निशम्य नृपेणैषा, राज्ञी निष्कासिता स्वकात् । देशात्सा सप्तमे घस्रने, कुष्ठरोगार्दिताऽभवत् ॥५०॥ निन्द्यमाना जनैर्मृत्वा, सा षष्ठं नरकं ययौ । तत उद्धृत्य तिर्यक्षु, भ्रान्त्वाऽधः सप्तमी ययौ ॥५१॥ ततः सा सर्पिणी चोष्टी, शृगाली सकरी पुनः । कुर्कुटी मूषिका ज्ञेया, जलौका गृहकोकिळा ॥५२॥ कन्वी सुनी च मार्जारी, रासभी गौः क्रमादभूत् । वह्निशस्त्रादिघातेन, भवेष्वेषु मृता पुनः ॥५३॥ गोभवे मरणासन्ने, काले तस्यै नमस्कृतिः । श्रावितो मुनिना साऽपि, श्रुत्वा तामनुमोदयत् ॥५४॥ ततो मृत्वाऽभवत् श्रेष्ठिन् !, दुर्गधा दुर्भगा तव । सुनेयं स्वभवा ज्ञाता, जातिस्मृत्या तयाऽपि हि ॥५५।। ततः सा सुगुरूनत्वा, पप्रच्छ हे गुरो ! मम । इदं दुःखं कथं याति ?, विलयं तत्पकाश्यताम् ॥ ५६ ॥ तदा भाइ मुनिर्भद्रे !, स्वं रोहिणीतपः कुरु । सा पाह विधिना केन, तत्तपो विदधाम्यहम् ।।५७।। मुनिर्जगाद रोहिण्यां, नक्षत्रे तत्तपः कुरु । सप्तवत्सरपर्यन्तो-पवासस्य कृतेन च ॥५८॥ तस्मिन् दिने पुनः पूजा, वासुपूज्यजिने शितुः। विधेया शुभभावेन, यथाशक्ति मुविस्तरात् ।।५९॥ | तपःपूर्ण पुनः कार्य-मुद्यापनं ततस्तव । यास्यति सर्वदुःखानि, सुगन्धभूपतेरिव ॥६०॥ तनिशम्याह दुर्गन्धा, स्वामिन् ॥ ५० ॥ सुगन्धभूपतिः। का? कथ्यतां कथा तस्य, तस्यै पाह मुनिस्तदा ॥६१॥ सिंहपुराभिधे देंगे, सिंहसेननृपोऽभवत् । कनकादिप्रभा | CoeponemperoeneDecement For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह रोहिणी-पर्व कथा CPCOcCoconneKDCORDCORRCommerce राज्ञी, दुर्गन्धाख्यः सुतस्तयोः ॥६२॥ स क्रमाद्यौवनं पाप्तः, सोऽनिष्टो दुर्भगः पुनः । तत्रैकदा समायातः, पद्मप्रभजिनेश्वरः ॥६३॥ कुमारोऽपि समागत्य, नत्वा स्तुत्वा जिनेश्वरम् । दुर्गन्धकारणं पृष्टं, तदा प्राह जिनेश्वरः ॥६४॥ नागपुरपुरादस्ति. द्वादशक्रोशदूरतः । नीलाभिधो नगस्तत्र, शिलाऽस्त्येका मनोहरा ॥६५॥ तपस्यति मुनिस्तत्र, मासक्षपणकारकः । तत्प्रभावान्मृगादोंश्च, घातयति न हिंसकः ॥६६॥ तत्रैको लुब्धकः साधा-वीर्षों करोत्यथैकदा। गौचर्यार्थ मुनौ याते, मासक्षपणपारणे ॥६७॥ पश्चात्तेन शिलाऽधोऽग्नि-ालितस्तत उष्णिका । साऽभूद्ग्रामे मुनिः कृखा, पारणं तत्र चागतः ॥६८॥ तस्यामेव शिलायां च, संस्थेयमित्यभिग्रही। अग्नितापेन संतप्तां, शिलां ज्ञात्वाऽपि संस्थितः ॥६९॥ स लुब्धको मुनेर्घातात् , कुष्ठरोगादिपीडितः। अनुभूय महादुःखं, सप्तमं नरकं ययौ ॥ ७० ॥ उक्तं च-"ऋषिहत्याकरा जीवा, दुःखं भुनन्ति भूतले । संसारसागरे घोरे, पीड्यन्ते च पुनः पुनः ॥७॥" तत उद्धृत्य संभूय, मत्स्यो गोपालकोऽभवत् । दारिपीडितस्तेन, नमस्कारश्च शिक्षितः ॥७२॥ ततो दावाग्निना दग्धो, नमस्कारप्रभावतः । मृत्वा त्वमभवद्रान-पुत्रो दुर्गन्धनामकः ॥७३॥ ततो जातिस्मृतिज्ञानाद्, दृष्ट्वा पूर्वभवं निजम् । स प्रभुं प्राह मुक्तोऽहं, भविष्याम्यघतः कथम् ? ॥७४॥ प्रभुः प्राह कुरुष्व त्वं, रोहिण्याख्यस्तपस्ततः । मुक्तः पापात्सुगंधीश्च, मुखयुक्तो भविष्यसि ॥७५ ॥ प्रभोर्मुखाग्निशम्यैत-त्तेनाथ तत्तपः कृतम् । तत्प्रभावात्सुगंधोऽभू-स कुमारो गतामयः ॥७६ ॥ तद्वृत्तान्तं निशम्यैषा, दुर्गन्धा रोहिणीतपः । गुरूक्तविधिना कृत्वा, सुगंधा सुभगाऽभवत् ।। ७७॥ ततो मृत्वा सुगंधा सा, देवी सुरालयेडभवत् । ततश्च्युत्वाऽथ राजस्ते, रोहिणीयं पियाऽभवत् ।। ७८॥ पूर्वतपःप्रभावेणा-जन्मादुःखादि वेत्ति न । इयमस्या तवाऽतीव, स्नेहस्य कारणं शृणु ॥७९॥ सिंहसेनाख्यभूमीशः, स्वराज्यं निजमूनवे । सुगंधाय वितीर्यालात् । प्रव्रज्यां DETECORDEReceneopen For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह कथा 088ccomona गुरुसन्निधौ ॥८०॥ अथ सुगन्धभूपोऽपि, धर्ममाराध्य निर्मलम् । मृखा समाधिना जातः, सुरोत्तमः सुराकये ॥ ८१॥ INI रोहिणी पर्व ततश्च्युत्वा जम्बूद्वीपे, पूर्वमहाविदेहके। विजये पुष्कलावत्यां, नगरी पुण्डरिकिणी ॥४२॥ विमलकीर्तिभूमीश-सुभद्रातनुजोऽभवत् । तत्रार्ककीर्तिचक्रीशो, नृपश्रेणिविराजितः ॥८३॥ युग्मम् ॥ राज्यं कृत्वा ललो पार्वे, जितशत्रुमुनेः स च। दीक्षां सद्बतमाराध्य, प्रान्ते मृत्वा समाधिना ॥८४॥ अच्युतेन्द्रोऽभवत् स्वर्ग, द्वादशे निर्जरोत्तमः । ततश्च्युत्वाऽभवद्राजं-स्त्वमशोकाख्यभूपतिः ॥४५॥ युग्मम् ।। पतिरस्याश्च रोहिण्या, जातस्त्वमतिबल्लभः । मिथः स्नेहोऽस्ति दम्पत्योः, समानतपसोः पुनः ॥८६॥ राजन् ! पुत्राधिकारोऽय, यथा राजपुरेऽभवत् । अग्निशर्मा दरिद्रार्त-स्तस्य च सप्त सूनवः ॥८७॥ एकदा पाटलीपुत्रे, भिक्षार्थ ते सहोदराः। यान्तो ददृशुरुद्याने, क्रीडन्तं भूपतेः सुतम् ॥८८॥ पुण्यपापफलं ज्ञात्वा. जाता धर्मपरायणाः । अन्ते दीक्षां गृहीत्वा ते, स्वर्गे सप्तमके ययुः ॥८९॥ ततश्च्युत्वा सुताः सप्त, गुणपाला- 10 दयोऽभवन् । तवाथाष्टमपुत्रस्य, वृत्तान्तं शृणु भूपते ! ॥१०॥ वैताढ्यपर्वते विद्या-धरोऽभूत् क्षुल्लकाभिधः। नित्यं नंदीश्वरे दीपे, यात्रां पूजां चकार सः ॥९१॥ धर्मपरायणो भूत्वा, स स्वर्ग प्रथमे ययौ। ततश्च्युत्वाऽभवल्लोक-पालोऽष्टमः सुतस्तव ॥९२॥ पुत्रीचतुष्टयस्यैवं, वृत्तान्तं शृणु भृपते !। यथा विद्याधरश्चैको-ऽभवद्वैताठ्यपर्वते ॥९३॥ पुत्रीचतुष्टयं तस्या-ऽभवंस्ताश्च बने ययौ। क्रीडार्थमेकदा तत्र, ता दृष्ट्वा मुनिनाऽकथि ॥९॥ यूयं धर्म प्रकुर्वन्तु, युष्मदायुश्च विद्यते। एकदिनस्य ताः पोचु-रेकाऽसि स कथं भवेत् ॥९५॥ गुरुस्ताः प्राह चाद्यास्ति. शुक्लं हि पञ्चमीदिनम् । ततो भावेन | युष्माभि-रुपवासो विधीयताम् ।।९६॥ ताभिरपि गुरुप्रोक्त-विधिरकारि ता निशि । विद्युत्पातेन मृत्वाऽगुः, प्रथमे च सुराळये ॥९७॥ ततश्च्युत्वा चतस्रस्ता, इमा तव सुताऽभवन् । श्रुत्वैवं भूपतेर्जाति-स्मृतिज्ञानमभूत्ततः ॥९८॥ पुनः प्राह poreDe0c0c0eoeroen ॥५२॥ For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपकथा-संग्रह ॥ ५३ ॥ www.kobatirth.org नृपो वाच्यो, रोहिणीतपसो विधिः । गुरुः प्राह यदायाति, सोमवारे च रोहिणी ॥९९॥ तस्मिन् दिने तपो ग्राह्यं, विधेयमुपवासकम् । सप्तमासाधिकं सप्त-वर्ष यात्रदखण्डितम् ॥१००॥ ॐ ह्रीं श्रीं वासुपूज्याय नमश्र द्विसहस्रिक: । जापः कार्यों जिनाधीशा -ऽचदेववन्दनादिकम् ॥ १०१ ॥ सप्तविंशति लोगस्स कायोत्सर्गः प्रदक्षिणा । स्वस्तिकः क्रियते तस्मिन् दिने प्रतिक्रमादिकम् ।। १०२ || उद्यापनं तपः पूर्णे, निजशक्त्या विधीयते । नृपोऽथ रोहिणीपुत्राः, पुत्रयश्च तत्तपो लुः ॥ १०३ ॥ तत्तपो विधिना चक्रु-स्ते सर्वे च नृपादयः । ततो दीक्षां ललुः पार्श्वे, वासुपूज्यजिशितुः ॥ १०४ ॥ ते सर्वे शुद्धचारित्रं, पालयित्वा विनाश्य च । सर्वकर्माणि संबोध्य, भव्यजीवान् शिवं ययुः ||१०५ || आसन्खरतरे गच्छे, जिनमहेन्द्रसूरयः । तत्करदीक्षिता जाताः श्रीमोहनमुनीश्वराः ॥ १०६ ॥ राजमुनीश्वरस्तस्य, शिष्यो गुणाकरोऽभवत् । तस्य शिष्या महाप्राज्ञाः, श्रीजिनरत्नसूरयः || १०७ || पाठकलब्धिना प्रेम-मुनिगणेः समाग्रहात् । रोहिणीतपसीयं च विहिता रोहिणीकथा ॥ १०८ ॥ संवद्वाणखशून्याक्षि (२००५), वर्षे फाल्गुनमेच | अजयमेरुदुर्गे च नीता कथा समाप्तिताम् ॥ १०९ ॥ ॥ इति श्री रोहिणी - तपःकथा समाप्ता ॥ ec Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only रोहिणी-पर्व कथा ॥ ५३ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चातुर्मासी द्वादशपर्वकथा-संग्रह (१०) अथ चतुर्मासी-पर्व-व्याख्यानम् । पर्व-कथा DecemeDEOBeeeeeeeeezareeze प्रणम्य श्रीमहावीर, सर्वशं परमेश्वरम् । पर्वोत्तम चतुर्मासी-व्याख्यानं लिख्यते मया ॥१॥ कार्तिक-फाल्गुनाषाढचतुर्मासीत्रयं खलु । जिनेन्द्रशासने प्रोक्तं, सदृशं च परस्परम् ॥२॥ आगतायां चतुर्मास्यां, कार्यों धर्मः शिवार्थिभिः । द्रव्यभावविशुद्धात्म-गुरुसेवनतत्परैः ॥३॥ प्रथमं श्राद्धकृत्यानि, कथ्यतेऽत्र च पर्वणि। बहुमावद्यव्यापारो, वय: श्रादैरहनिशम् ॥ ४॥ न बहुत्रससंसक्त-तिळादिधान्यसञ्चयः । श्राद्धैः फाल्गुनमासादौ, रक्षणीयो विशेषतः ॥५॥ आम्रफलादिसन्धानं, सादिजीवमिश्रितम् । यदि भवेत्तदा त्याज्यं, श्रावकैर्भवभीरुभिः ॥६॥ पुनर्मघूकविल्वादिफलं च जन्तुमिश्रितम् । अरणिशिगुशिम्बादि, परित्याज्यमुपासकैः ॥ ७॥ वर्षाकाले पुनस्तन्दु-लीयादिपत्रशाककम् ।। बहुक्ष्मत्रसप्राणि-मिश्रं त्याज्यं विशेषतः ॥ ८॥ फाल्गुनात्पुनरारभ्य, यावच्च कार्तिकं खलु। गुर्जरादिकदेशस्थजैनेषु तन भक्ष्यते ॥९॥ अतिपक्वमतिश्लथं, चलितरसकं पुनः। जीवाश्रितं परित्याज्यं, चिटिकादिकं फलम् ॥१०॥ अपरिपक्वसच्छिद्र-मन्त वाश्रित फलम् । सन्त्याज्यं फलमज्ञात-मभक्ष्यं सर्ववस्तु च ॥११॥ उक्तब-" अज्ञात फलमशोधितपत्रशाकं, पूगीफलानि सकलानि [अस्फोटिवानि] च चूर्णम् । मालिन्यसपिरपरीक्षकमानुषाणा-मेते भवन्ति नितरां किल मांसदोषाः ॥१२॥" पुनश्च ग्रीष्मकाले यद्, द्रव्यं शीघ्रविनाशि तत् । सोफ्योगेन संसेव्यं, निर्व Oncomcrpcomcrpcareeero For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह चातुर्मासी पर्व कथा 20CTOBEROSCReemae द्यमेव वस्तु च ॥१॥ पर्वण्यस्मिन्विधातव्यं, सामायिकं च पौषधम् । देशावकाशिकं तीर्थे-वरदर्शनपूजनम् ॥१४॥ उक्तश्च-"सामाषिकावश्यक-पौषधानि, देवार्चन-स्नात्र-विलेपनानि । ब्रह्मक्रिया-दान-तपोमुखानि, भव्याश्चतुर्मासकमण्डनानि ॥१५॥" चतुर्मासीत्रय राका, चतुर्दश्यष्टमीद्वयम् । चारित्रतिथयः प्रोक्ता, अमावास्यातिथिस्तथा ॥ १६ ॥ एकादशी द्वितीया च, पर्युषणा च पञ्चमी। कल्याणकतिथिः प्रोक्ता, श्रीज्ञानतिथयः पुनः ॥१७॥ दर्शनविषयधान्याः, प्रतिपदादयः पुनः । धर्मकृत्यैः समाराध्या, एतास्तत्तदपेक्षया ॥१८॥ मिथ्यात्वपरिहारेण, श्रादैः सम्यक्त्वधारिभिः । देवार्चया गुरोः सेवा-तीर्थयात्राजपादिना ॥ १९ ॥ जिनजन्मादिकल्याण-स्थानकस्पर्शनादिना । सम्यक्त्वं निर्मलं कार्य, सततं भववारकम् ॥२०॥ युग्मम् ।। उक्तञ्च-"जम्मं दिक्खा नाणं, तित्थयराणं महाणुभावाणं । जत्य य कयनिव्वाणं, आगाढं दसणं होई ॥ २१॥" यत्र ज्ञानादिलाभः स्या-दुर्जना सेवना पुनः। सावद्येतरयोगानां, तत्सामायिकमुच्यते ॥२२॥ उक्तश्चावश्यकसूत्रे-"सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं, निरवजजोगपडिसेवणं चे" ति +तथा "निंदपसंसासु समो, समो य माणावमाणकारीसु । समसयणपरियणमणो, सामाइयसंगओ जीवो ॥२३॥ _ + एतत्सावद्येतरयोगानां वर्जनासेवनं यथासङ्ख्यमेव, न त्वयथासङ्ख्यं, विधेयतयाऽभिहितं पञ्चाशकवृत्तौ श्रीमदभयदेवसूरिपूज्यैः, यथासङ्ख्यत्वं तु सामायिकदण्डकोच्चारानन्तरमेवेर्याप्रतिक्रमणे भवति । यच्च महानिशीथादिशास्त्रपाठान्पुरस्कृत्य सामायिकोचारात्प्रागीर्याप्रतिक्रमणप्रसाधनं तन्न कथमपि घटामियति, यतः प्रायस्तेषु सर्वेष्वपि पुरस्क्रियमाणेषु शास्त्रपाठेषु सामायिकविधिनाममात्रस्याप्यभावात् , क्वचिच्चैत्यवन्दन-स्वाध्यायादेः, क्वचिदहिभूम्यादिसमागतस्य साधोरीर्याप्रतिक्रमणस्य, क्वचिच पौषधादिविध्यन्तरसद्भावाच । तथा च कः सकों विद्यमानेऽपि नामप्राविधिनिर्देशेऽनिर्दिष्टविधि गृहीतुमिच्छेत् ? इत्यलम्प्रसङ्गेन । Coencoopememorizomezer For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ना द्वादशपर्यकथा-संग्रह चातुर्मासी पर्व-कथा N| जो समो सवभूएसु तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइय होइ, इमं केवलिभासियं ॥२४॥" सामायिकस्थितः श्राद्धो, | गृहस्थोऽपि भवेत्पुनः । साधुतुल्यश्च सावद्या-श्रवाणां परिवर्जनात् ॥२५॥ उक्तञ्च-" सामाइयमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुजा ॥२६॥" सामायिकात्मके भाव-स्तवे स्थितस्य नास्ति हि । द्रव्यस्तवाधिकारोऽत्र, दुर्लभताऽस्य किर्तिता ॥२७|| उक्तश्च-"सामाइयसामग्गि, देवावि चिंतंति हिययमझमि । जइ हुज्ज मुहुत्तमेगं, ता अम्ह देवतणं सहलं ॥२८॥ दिवसे दिवसे लक्खं, देइ सुवण्णस्स खंडियं एगो । एगो पुण | सामाइयं, करेइ न पहुपए तस्स ॥ २९॥" पुन: सामायिक प्रोक्त-मष्टविधं जिनेश्वरैः। स दृष्टान्तं महानिष्ट-कर्मणां निर्जराकरम् ॥३०॥ उक्तञ्च-" सामाइयं !, समइयं २, सम्मवाओ ३. समास ४, संखेवो ५। अणवजं च परिना | ७, पच्चक्खाणे ८ य ते अट्ठ ॥३१॥" यच्च येषां रिपौ मित्रे, समभावेन तिष्ठनम् । दवदन्तपिवत्तेषां, तत्सामायिकमुच्यते ॥३२॥ हस्तिशीर्षपुरे शूरो, दवदन्तनृपोजनि । कौरवपाण्डवैः साई, सीमायै तस्य विग्रहः ॥३॥ ततोऽन्यदा | जरासिन्धु-सेवार्थ गतवान् स च । कौरवपाण्डवैः पश्चा-द्भमस्तद्विषयोऽखिलः ॥३४॥ श्रुत्वेति दवदन्तेन, हस्तिनागपुरोपरि । लात्वा बहुबलं युद्धं, कृत्वा ते हि पराजिताः ॥३५॥ एकदाज्य स सन्ध्यायां, पञ्चवर्णीयवादळम् । दृष्टनष्ट क्षणा देव, दृष्ट्वा वैराग्यतां गतः ॥३६॥ तादृशमेव संसार-मसारं हि विभावयन् । भूखा प्रत्येकबुद्धः स, प्रवजितो नरेश्वरः | ॥३७॥ ततश्च विहग्न् हस्ति-नागपुरं गतोऽन्यदा । प्रतोल्याश्च बहिर्देशे, कायोत्सर्गेण संस्थितः ॥३८॥ तदोद्यानं च गच्छद्भिः, पाण्डवैः पथि तं मुनिम् । दृष्ट्वा लोकमुखाज्झातो, दवदन्तो महामुनिः ॥३९॥ ततोऽश्वेभ्यः समुत्तीर्याऽभिवन्ध विधिना मुदा । द्विविधं हि बलं तस्य, प्रशंस्याग्रे ययुश्च ते ॥४०॥ समेताः कौरवाः पश्चा-त्तेषु वृद्धन लोकतः । दुर्यो ecuremedeoopeace | ॥ ५६ ।। For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्यकथा-संग्रह Ce Po चातुर्मासी पर्व कथा ॥ ७॥ Cocopeeperpetro धनेन विज्ञातो, दवदन्तमुनीश्वरः॥४१॥ स तिरस्कृत्य दुर्वाक्य-बहुभिः सम्मुखं मुनेः। बीजपूरफलं क्षिप्त्वा, चचालाग्रे स्वयं ततः ॥४२॥ यथा राजा तथा लोका, इति न्यायालैरपि । इष्टकानावकाष्ठाद्याः, प्रक्षिप्तास्तस्य चोपरि ॥४३॥ जातमुच्चस्तरं तेन, चवरमथ पाण्डवाः । पश्चानिवर्तमानाच, मुनिस्थाने व्यलोकयन् ॥४४॥ कौरवचेष्टितं ज्ञात्वा तदपनीय चत्वरम् । क्षमयिखा मुनि नवा, स्वस्थानं पाण्डवा ययुः ॥४५॥ पाण्डवैः सत्कृतः साधुः, कौरवरपमानितः।। उभयत्र बभारासौ, समभावं महामुनिः ॥४६॥ (१) यच्च येषां दयापूर्व, वर्तनं सर्वजन्तुषु । मेतार्यमुनिवत्तेषां, तत्सामायिकमुच्यते ॥ ४७ ॥ प्राग्भवाचरितपाप-वशादाजगृहे पुरे। चाण्डालकुल उत्पन्नो, मेतार्याख्यो महामुनिः ॥ ४८॥ चाण्डाल्या मृतवत्साय, जन्मसमय एव मः। पल्यै तु धनदत्तस्य, पच्छमत्वेन चार्पितः ॥ ४९॥ सोऽथाष्टौ श्रेष्ठिकन्याश्च, श्रेणिकभूपतेः सुताम् । माग्भवमित्रदेवस्य, साहाय्यात्परिणीतवान् ॥५०॥ ततो द्वादशवर्षान्ते, जग्राह देववाचया। दीक्षां वीरपभोः पार्थ, स मेतार्यों महामुनिः ॥५१॥ सोऽथ प्रभूतदेशेषु, विहरन्मुनिरेकदा । राजगृहे च भिक्षार्थ, स्वर्णकारगृहे गतः ॥ ५२ ॥ स्वर्णकारः समायातं, विलोक्य तं मुनि मुदा । प्रणम्य लातुमादि, गृहान्तः प्रविवेश च ॥ ५३ ॥ पश्चाच्च देवपूजाय, श्रेणिकभूपतेः कृतम् । अष्टोत्तरशतं जग्धं, यवानां क्रौञ्चपक्षिणा ॥५४॥ ततश्वोडीय भित्तौ स, स्थितोऽथ स्वर्णकारकः । शुद्धाहारं समानीय, गृहाबहिः समागतः ॥ ५५ ॥ स्वर्णयवाननालोक्य, | तच्चौरं साधुमेव तम् । स चिन्तयन् जगौ साधो !, मयाऽत्र रक्षिता यवाः ॥ ५६ ॥ अपहृताश्च ? ते केन, चिन्तितं साधुना तदा । यदि ते भक्षिताः कौञ्च-पक्षिणेति वदाम्यहम् ॥ ५७॥ तदा मदचसाऽयं हि, क्रौश्चमेनं हनिष्यति । एवं विचिन्त्य मेतार्य-सुनिना मौनमाश्रितम् ॥ ५८ ॥ युग्मम् ॥ ततो रुष्टेन तेनार्द्र-वार्धेण मुनिमस्तकम् । बद्धं तदा acceDeccccccc For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir P चातुर्मासी पर्व-कथा मुनेनैत्रे, निस्सृत्य पतिते बहिः ॥ ५९॥ उत्पन्नां वेदनां तीवां, सहमानो महामुनिः। सोऽन्तकृत्केवलीभूय, कर्मद्वादशपर्व INT कथा-संग्रहा | हीनः शिवं ययौ ॥ ६० ॥ स्वपाणान्तोपसर्गेऽपि, तेन चित्ते दया धृता । नान्यत्किमपि तद्वच्चा-चरणीयं परैरपि ॥६१ ॥ (२)। कालिकाचार्यवत्रिीः , सत्यवादं करोति यः। सम्यग्वादाभिधं तस्य, तत्सामायिकमुच्यते ॥६२॥ ॥ ८॥ | यथा तुरुमिणीपुर्यों, कालिकाचार्यसद्गुरोः। भगिनीतनुजो दत्त-नामा पुरोहितोऽभवत् ॥६३ ॥ स च छलाभिजस्वामि-नृपं चिक्षेप पारे । स्वयं करोति तद्राज्यं, तत्राचार्याः समागताः ॥६४॥ मातुः प्रेरणयाऽऽचार्य-पाच गत्वाऽभिमानिना। तेन धर्मेषया पृष्टा-स्ते यज्ञफलमस्ति ? किम् ॥६५॥ तदा सूरीश्वरो धैर्य-मवलम्ब्य तदग्रतः। हिंसारूपोऽस्ति यज्ञस्त-त्फलं नरक इत्यवक् ॥ ६६ ॥ कः प्रत्ययोऽत्र ? पूज्योऽवक्, त्वमितः सप्तमे दिने । मक्षितः कुक्कुरैः कुम्भ्यां, अपचश्च मरिष्यसि ॥ ६७ ॥ अत्रापि प्रत्ययः कोऽस्ती-ति पृष्ठे तेन सूरिणा । प्रोक्तं तस्मिन् दिनेऽकस्मान्मुखे विष्ठा पतिष्यति ॥ ६८॥ ततः क्रुद्धेन दत्तेनो-तं वं कथं मरिष्यसि ?। गुरुणोक्तं तदा तस्मै, मर्ताऽस्म्यह समाधिना ॥ ६९ ॥ स्वर्ग मृतोऽपि गन्ताऽस्मि, तदा दत्तोऽभिमानतः । उत्थाय स्वभटैः सरिं, निरुद्धय स्वगृहं ययौ ॥ ७० ॥ प्रच्छन्नं हि स्थितस्तत्र, दत्तोऽथ मतिमोहतः । सप्तममपि मन्वानो-अष्टमं दिनं महर्षितः ॥ ७१ ॥ कुर्वेऽद्य शान्तिकं सरि-प्राणैरिति विचार्य च । प्रातःकालेऽश्वमारुह्य, स्वगेहानिर्गतो द्रुतम् ॥ ७२ ॥ तदैको मालिका पुर्या, पविशभिर्जने पथि । कार्याकुलो मलोत्सर्ग, कृत्वाऽऽच्छाद्य सुमैर्गतः ॥ ७३ ॥ दत्तस्य गच्छतो मार्गे, तत्रैवाश्वखुरस्य च । घातेनोच्छलिता विष्ठा, पतिताश्च तदानने ॥ ७४ ॥ विष्ठास्वादात्तदा ज्ञात्वा, सप्तमा चमत्कृतः । पश्चाभिवृत्य गेहान्त-रुदासीनतया स्थितः ॥ ७५ ॥ अर्थतस्य दुराचारात् , खिनैश्च मूलमन्त्रिभिः । निष्काम्य पाराद्राज्ये, स्था ncerDEORDExpreer.de peroecoomcrpermerococcerooze 20co ॥५८॥ For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ५९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पितो भूपतिर्मुदा ॥ ७६ ॥ जितशत्रुनृपोऽथेनं दत्तं बद्ध्वा छलेन च । कुम्भ्यां प्रक्षिप्य सञ्ज्वाल्या -धोऽग्नि मुमोच कुकुरान् ||७७ || एवं कदर्थनां दत्तः, सहित्वा नरकं गतः । सूरीश्वरास्तु भूपेन, बहुधा सत्कृता भृशम् ॥७८॥ (३) । चिलातीपुत्रवद्येषां वस्तुतच्यावबोधनम् । स्तोकाक्षरैर्भवेत्तेषां तत्समासाख्यमुच्यते ॥ ७९ ॥ यथा राजगृहीपुर्यो, धनदतवम्विरः । तनुजास्तस्य चत्वारो बभ्रुवुः सुसुमा सुता ॥ ८० ॥ चिलावीपुत्रनामैको, दासोऽन्यदाऽवगम्य च । तं दुराचारिणं श्रेष्ठी, स निष्कासितवान् गृहात् ॥ ८१ ॥ ततो निस्सृत्य गला च, चौरपल्यां स संस्थितः । अथान्यदा समं चौरे, राजगृहपुरीं गतः ॥ ८२ ॥ तत्र स्वयं गृहे तस्य प्रविश्य श्रेष्ठिनः सुताम् । सुसुमाख्यां समादाय, सद्यो गृहाद्विनिर्गतः ॥८३॥ श्रेष्ठ्यपि स्वसुतां कातुं तत्पृष्ठे धावितः समम् । स्वपुत्रैरतिचक्राम मार्गे दीर्घतरं लघु ॥ ८४|| अत्यासन्नं तमालोक्य, स छिवा सुसुमाशिरः । तद् गृहीला करेऽन्येऽसिं, रक्त किप् पलायितः ॥८५॥ श्रेष्ठी तु तत्समालोक्य, वलितः स्वगृहं प्रति । सोऽथ पर्वतमारुह्य चचालाग्रे भयंकरः || ८६ ॥ कायोत्सर्गस्थितं साधुं मार्गे दृष्ट्वा जगाद सः । भो मुण्ड ! वद धर्म त्वं नो चेच्छेत्स्यामि ते शिरः ॥ ८७ ॥ तत्स्वरूपं मुनिर्दृष्ट्वा, समुच्चार्य नमस्कृतिम् । झटित्याकाशं उड्डीय, प्रोक्त्वा पदत्रयं ययौ ॥८८॥ उपशमो विवेकश्व, संवर इति लक्षणम् । धर्म श्रुत्वा दद -मपि गुणं स नात्मनि ॥ ८९ ॥ तत्प्राप्त्यर्थं दधानः स, समभावं निजात्मनि । करस्थित शिरः खङ्गौ, मुमोच तत्र या ॥ ९० ॥ तन्मुनिस्थान एवासौ, कायोत्सर्गेण संस्थितः । तदानीं रक्तगन्धेनो-पागतः कीटिकागणः ॥ ९१ ॥ शरीरं तस्य सच्छिद्रं, तामिः कृतं परन्तु न । मनागपि चचाळासौ, सहमान: परीषहम् ॥ ९२ ॥ तृतीयदिवसे कालं, कृत्वा तत्रैव सोऽगमत् । स्वर्गमिति समासाख्य - सामायिके निदर्शनम् ॥ ९३ ॥ ( ४ ) । स्तोकाक्षरैर्महार्थस्य, कथने For Private and Personal Use Only चातुर्मासी पर्व- कथा ।। ५९ ।। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ६० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लौकिकः पुनः । चतुः पण्डितदृष्टान्तः, प्रसङ्गात्कथ्यतेऽत्र च ॥ ९४ ॥ जितशत्रुनृपश्चासी - इसन्तपुरपत्तने । अन्यदा भूपतेः शास्त्रं श्रोतुमिच्छाऽभवत्तराम् ॥ ९५ ॥ चतुर्भिः पण्डितैश्वापि श्लोकानां लक्षलक्षकम् । शास्त्रचतुष्कं सन्दर्भ्य, नृपस्य पुरतोऽकथि ।। ९६ ॥ नृपेणोक्तमिमे ग्रन्था, महाप्रमाणका मया । बहुकालेन विश्रोतुं न शक्यन्ते क्षणं विना ॥ ९७ ॥ तस्मात्स्वल्पाक्षरैरेवै तेषां सारो निगद्यताम् । तदा तत्सारभूतं ते, श्लोकं विरच्य चावदन् ॥ ९८|| तथाहि" जीर्णे भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दया । बृहस्पतिरविश्वासः पाञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् ॥ ९९ ॥ " एवं स्तोकाक्षरैरेव, बह्रर्थानां निरूपणम् । द्वादशाङ्गीति संक्षेपा - ख्यसामायिकमुच्यते ॥ १०० ॥ ( ५ ) । विज्ञेया निरवद्याख्ये, सामायिके दयान्विते । श्रीधर्मघोषसूरीश - शिष्यधर्मरुचेः कथा ॥ १०१ ॥ विशुद्धाऽऽहारपानीयं, लातुं पुरे भ्रमन् क्रमात् । रोहिणी ब्राह्मणीगेहे, प्रविवेश मुनिः स च ॥ १०२ ॥ मिष्टभ्रान्त्या कुटुम्बार्थ, निष्पादितं तया तदा । कटुक तुम्बिकाशाकं ज्ञातं पश्चान्महाकटु || १०३ || दुष्टबुद्धया तया सर्वं, शाकं तत्साधवेऽर्पितम् । ऋजुस्वभावतः सोऽपि, तल्लावोपायं गतः ॥ १०४॥ गुरुभ्यो दर्शितं शाकं तद् दृष्ट्वा गुरवोऽवदन् । भो ! मुनेऽस्ति विषप्राय-मिदं शाकं च मृत्युदम् ॥ १०५ ॥ निर्दोषस्थण्डिले तस्मात् परिष्ठापय तत्तदा । परिष्ठापयितुं शाकं मुनिः पुराद्वहिर्गतः ॥ १०६ ॥ संलग्नस्तत्र तच्छाकं, परिष्ठापयितुं मुनिः । तावत्तन्मध्यतो बिन्दु - रेकस्तु पतितो भुवि ॥ १०७ ॥ तद्गन्धात्कीटिका बहूव्य, आगत्य मिळिता मृताः । तद्गन्धग्रहणात्सयो, दृष्टास्तेनाघभीरुणा || १०८ || स च जीवदयां चित्ते, सन्धार्य स्वयमेव च । तच्छाकं भुक्तवान् मृत्या, स्वर्ग ययौ समाधिना ॥ १०९ ॥ ( ६ ) । वस्तुतश्वपरिज्ञाने, सर्वकर्म विनाश के सामायिके परिज्ञारूये, इलापुत्रकथोच्यते ||११०|| इलाख्यनगरे श्रेष्ठी, घनदत्ताभिधो घनी । इलापुत्रः सुतस्तस्ये For Private and Personal Use Only चातुर्मासी पर्व- कथा ॥ ६० ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह vecreceDeepeezeaeezeraanee लादेवीसेवनादभूत् ॥१११॥ तत्रैकदाऽऽगतानां स, नटानां परदेशिनाम् । नृत्यं पश्यन् ददर्शाति-मुन्दरां नर्तकात्म-8 जाम् ॥११२॥ प्राग्भवस्नेहतस्तस्या-मनुरक्तः स चाजनि। ततः सद्यः समागत्य, जगाद पितरं प्रति ॥११३॥ नर्त चातुर्मासी पर्व-कथा | कतनुजां रम्यां, मां वं परिणायय । नो चेन्मरणमेवाई, प्रपद्ये शरणं पितः ! ॥११४॥ परमपरकन्यां न, परिणे-16 ष्यामि सर्वथा । तदा तस्याग्रह ज्ञात्वा, पिताऽगानर्तकं प्रति ॥११५॥ पुत्राय श्रेष्ठिना पुत्री, मागिता तस्य सोऽवदत् । यद्ययं शिक्षयित्वाऽस्मत्-कला धनमुपार्जयेत् ॥११६॥ पुनः सम्पोषयेत्सर्वा-मस्मज्जाति प्रतिष्ठते । सहास्माभिस्तदा कन्या, प्रदीयतेऽन्यथा नहि ॥११७॥ श्रेष्ठिना तद्वचः श्रुत्वे-लापुत्राय निवेदितः। वृत्तान्तोऽथ तदप्यङ्गी-कृत्य स निर्गतो गृहात् ॥११८॥ युग्मम् ।। नटेषु मिलितः सोऽथ, सर्वनटकलासु च । निपुणोऽभूत्क्रमाबेना-तटाख्यनगरं गतः ॥११९॥ तत्र स्वयं धनार्थी स, वंशमारुह्य खेळते । नृपाग्रे नटपुत्री तु, मिष्टस्वरेण गायति ॥१२०॥ तदा नटसुता| रूप-गीताभ्यां मोहितो नृपः। स ध्यायत इलापुत्रो, निपत्य म्रियते यदि ॥१२१॥ तदा गृह्णाम्यहं कन्या-मिमां तत इलासुतः । प्रदर्य स्वकळां सर्वो, वंशात्समुत्ततार सः ॥१२२।। युग्मम् ॥ दानाऽऽदानेच्छया भूप-पुरः स च स्थितस्तदा। नृपोऽवदन्मया नृत्य, दृष्टं व्यग्रतया नहि ॥१२३॥ ततः कुरु पुनस्तेन, तदा धनेप्सया कृतम् । पुननृत्यं परं राज्ञा, तन्मृत्युमिच्छताऽकथि ॥१२४॥ मया दृष्टं समोचीन, नातो नृत्यं पुनः कुरु । सोऽथ तृतीयवारं हि, वंशमारुह्य खेलते ॥१२५।। तस्मिन् क्षणे मुनिश्चैको, भिक्षार्थ श्रेष्टिनो गृहे। गतस्तदाऽतिरूपाढ्या, सर्वभूपणभूपिता ॥१२६।। श्रेष्टिपत्नी समुत्थाय, सद्यो विधाय वन्दनाम् । सानन्दं मोदकैः स्थालं, भृत्वा गृहात्समेत्य च ॥१२७॥ प्रतिलाभयते साधु, सोऽप्यधोनयनो मुनिः । इत्थमित्थं वदैछुद्धा-हारं गृह्णाति शुद्धधीः ॥ १२८ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ IN PeerPORDCratercoccoopCare ॥ ६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ६२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तयोः स्वरूपमालोक्य, गतविकारलोभयोः । गुणस्थानक्रमारूढः केवलज्ञानमाप्तवान् ||१२९|| वंश एवाभवत्सिंहासनस्तत्र स्थितः स च । ददौ धर्मोपदेशं च प्रतिबुद्धा नृपादयः || १३० ॥ ( ७ ) । हेयवस्तुपरित्यागे, तेतलिपुत्रसत्कथा । तेत लिनगरेऽयासीत्, कनक केतुभूपतिः ॥ १३१ ॥ राज्यलोभात्सुताआत - मात्रान्मारयते स च । तेतलिपुत्रमन्डयासी-तस्य भार्या च पोट्टिला ॥ १३२ ॥ माङ्मन्त्रिवल्लभा साऽभूत् पश्चादवल्लभाऽजनि । तस्या गृहेऽन्यदा साध्वी - रायाता वन्दिता तथा ॥ १३३ ॥ सा वशीकरणोपायं भर्त्तः पपच्छ चार्यया । प्रोक्तं भद्रे ! सदा सेव्यो, धर्मः कामितदायकः ॥ १३४॥ संसारवास विनाथ, दीक्षां लातुमना च सा । पति पमच्छ सोऽवादी - दीक्षां लाहि सुखेन च ॥ १३५ ॥ परं त्वं यदि देवः स्या- तदा मां प्रतिबोधयेः । स्वीकृत्य तद्वचः साऽपि दीक्षां भागवतीं ललौ ॥ १३६ ॥ सा प्रान्तेऽनशनं कृत्वा, स्वर्ग गताऽथ मन्त्रिणा । प्रच्छन्नं वर्द्धितश्चैको, राज्ञः पुत्रः स्वसद्मनि || १३७|| नृपे मृते कुमारः स राज्ये चास्यापि मन्त्रिणा । भूपोऽथ धीसखाधीनं, सर्व राज्यं चकार हि || १३८|| ततो मन्त्री सदा राज- कार्ये मनः कदापि न । चकार धर्मकृत्यं हि परभत्रसुखावहम् ॥ १३९ ॥ तस्मिन् क्षणे च देवत्वं प्राप्ता सा पोट्टिलाऽखिलम् । मन्त्रिणस्तत्स्वरूपं हि ददर्श दुर्गतिप्रदम् ॥ १४० ॥ तया तत्प्रतिबोधाय, सर्वे नृपादयो जनाः । पराङ्मुखाः कृता राजसभायां मन्त्रिणं प्रति || १४१|| तेन स्वानादरं दृष्ट्वा, सब आगत्य सद्मनि । कृताः स्वमरणोपाया, देवेन निष्फलीकृताः || १४२ || देवोऽथ मन्त्रिणं प्राह विलक्षीभूय संस्थितम् । भो ! मन्त्रिन्नस्ति संसार - स्वरूपमीदृशं सदा ॥१४३॥ ततः कोऽपि कस्यापि नैवास्ति स्वजनोऽपरः । इत्येवं मन्त्रिणं देवः, प्रतिबोध्य तिरोदधे ॥ १४४ ॥ मन्त्र्यथ विभवं सर्व, त्यक्त्वा दीक्षां ललाविति । पाल्य शुद्धचारित्रं, प्रान्ते च सद्गतिं ययौ ॥ १४५॥ ( ८ ) । For Private and Personal Use Only bezoc चातुर्मासी पर्व- कथा ॥ ६२ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ६३ ॥ YAYA www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोभक्षणं कार्यं -मावश्यकमुपासकैः । आत्मवतातिचाराणां, शुद्धयर्थे तत्फलं यथा || १४६ || " आवस्सरण एएण, साओ जइ वि बहुरओ होइ । दुक्खाणमंतक्रिरियं, काही अचिरेण कालेन || १४७ || आवस्सयं उभयकालं, ओसदमिव जे करंति उज्जुत्ता । जिणविज्जकद्दियविहिणा, अकम्मरोगा य ते हुँति || १४८|| " साजणसिंहकद्भव्ये - विधातव्यः प्रतिक्रमः । स न भुङ्क्ते द्विसन्ध्यं हि प्रतिक्रमक्रियां विना ॥ १४९ ॥ पीरोजपातशाहेन, क्षिप्तः कारागृहेऽन्यदा । केनचिदपराधेन, स च श्रेष्ठी विशुद्धधीः || १५० ॥ तेन तत्र स्थितेनाथा - रक्षकेभ्यो वितीर्य च । हेमनिष्काश्च पञ्चाशपञ्चाशत्प्रमितान्सदा ॥ १५१ ॥ शृङ्खलया विमुक्तेन प्रतिक्रमो विधीयते । रत्नद्वयं समायात मन्यदा राजसंसदि ॥ १५२ ॥ श्रेष्ठिनं पातशाहेना - कार्य रत्ने प्रदर्शिते । ते परीक्ष्यावदच्छ्रेष्ठी, महार्घेऽस्त इमेऽत्र हि ॥ १५३ ॥ युग्मम् ॥ तृतीयं रत्नमत्रास्ति, भवानिति प्रकीर्त्तनात् । साहिना प्रेषितः श्रेष्ठो, गृहे सम्मानपूर्वकम् ॥ १५४ ॥ आरक्षकैस्तदा भीतैः, पश्चानिकाः समर्पिताः । ततस्ते श्रेष्ठिना निष्कास्तेभ्य एव समर्पिताः ॥ १५५ ॥ तेन चोक्तं कियन्मात्रमेतद्धनं यतो मया । आवश्यकं कृतं युष्मत् साहाय्यादतिदुर्लभम् || १५६ ॥ पुष्टिं करोति धर्मस्य, तत्पौषधं चतुर्विधम् । आहारतनुमत्कार - व्यापाराब्रह्मवर्जनम् || १५७|| धर्माभिलाषुभिः श्राद्धैः कार्यं पर्वणि पौषधम् । अवश्यं कामदेवादि श्राद्धतत्फलं यथा ।। १५८ ॥ " पौसहियसुहे भावे, असुहाई खवेइ नत्थि संदेहो । छिंदs निरयतिरियगई, पोसह विहिअप्पमत्तेणं ॥१५९॥” अन्यदा कामदेवाख्यः, श्रावकः पौषधे स्थितः । रात्रौ मिथ्यात्विदेवेन धर्माच्चालयितुं च तम् ॥१६०॥ गजनागपिशाचादि-रूपैः स उपसर्गितः । तथाऽपि क्षुभितो नैव, त्रिभियोगैर्मनागपि ॥ १६१ ॥ युग्मम् ॥ श्राद्धैर्जिनेन्द्रविम्बस्या-टद्रव्यैर्वरपूजनम् । अस्मिन्पर्वणि कर्त्तव्यं, स्वशक्त्या तत्फलं यथा ।। १६२ " सयं पमज्जणे पुन्नं, For Private and Personal Use Only चातुर्मासी पर्व कथा ॥ ६३ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ६४ ॥ | सहस्सं च विलेवणे । सयसाहस्सिया माला, अणतं गीयवाइए ॥१६३॥" सुदर्शन इव ब्रह्म-चर्य पाल्य हि पर्वणि । चातुर्मासी श्राद्धैः सुखयशःकीति-कारक तत्फलं यथा ॥१६४॥ "जो देइ कणयकोर्डि, अहवा कारेइ कणयजिणभवणं। तस्स पर्व-कथा न तत्तियपुन, जत्तियं बंभवए धरिए ॥१६५॥" श्राद्धरमयसत्पात्रा-नुकम्पोचितकीर्तयः । एतत्पञ्चविधं दानं, दातव्यं G | निजशक्तितः ॥१६६॥ तत्र द्वाभ्यां शिवप्राप्ति-भॊगाप्तिस्त्रिभिरन्तिमैः। अभयदानदृष्टान्तो, निरूप्यतेऽत्र तद्यथा ॥१६७॥ राजगृहे सभास्थेना-ज्यदा प्रोक्तं नृपेण च । श्रेणिकेन पुरे स्वादु-मुलभमस्ति ? वस्तु किम् ॥१६८॥ क्षत्रिया जगदुर्मासं, स्वादु समघमस्ति च । तदाऽभयकुमारेण, चिन्तितं निर्दया इमे ॥१६९।। यथते पुनरप्येवं, न जल्पेयुरहं तथा । कुर्यां ततोऽभयो रात्रौ, सर्वक्षत्रियसअसु ॥१७०।। पृथक्पृथक्समेत्यैव-मवादीत् क्षत्रियाश्च भोः !। उत्पन्नोऽस्ति महाव्याधी, राजपुत्रतनौ भृशम् ॥१७१॥ यदि मनुष्यकालेय-मांस विटङ्कमर्प्यते । जीवति स तदा नान्य-थेति वैद्योक्तमस्ति च ॥१७२॥ ततोऽत्र भूपतिग्रास-सीविभिर्विधीयताम् । इदं कार्य च युष्माभि-रेका पाहाभयं प्रति ॥१७३॥ एकसहस्रदीनारं, लाहि परं विमुञ्च माम् । गच्छान्यत्र गृहीतं त-त्तस्मादभयमन्त्रिणा ॥१७४॥ एवं रात्रौ परिभ्रम्य, प्रतिगृहं | च मन्त्रिणा । तैर्दत्तानि गृहीतानि, निष्कलक्षाणि भूरिशः ॥१७५॥ प्रातस्तं च समादाय, मन्त्रिणा नृपसंसदि । दर्शितं क्षत्रियेभ्यस्ते, इकिताः कथितं पुनः ॥१७६॥ अहो!! यूयमवादिष्ट, चैवं गताहि यत्पलम् । सुलभमिति नावाप्तं, मांस धनेन चेयता ॥१७७।। ततस्ते लजिता मांस-भक्षणनियमं सदा । पापिता अभयेनैव-मन्यैः कार्याऽसुमद्दया ॥१७८॥ उक्तं च-"स्वमांसं दुर्लभं लोके, लक्षेणापि न लभ्यते । अल्पमूल्येन लभ्येत, पलं परशरीरजम् ॥१७॥" अमारीघोषणा भव्यैः, श्रीजिनचन्द्रमूरिवत् । विधातव्योपदेशेन, पुण्यानुबन्धकांक्षिभिः ॥१८०॥ सूरिणा स्वोपदेशेना-ऽकबर II६४ ॥ Depepeperoecoedeoe For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ।। ६५ ।। Zakazo www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातिशाहतः । आषाढाऽष्टाद्विकामारी - घोषणा कारिता शुभा ॥ १८२॥ स्वराज्ये प्रतिवर्ष तत्, पाळनफुरमाणकम् । लिखित्वा प्रेषितं तेन पुनः श्रीगुरवेऽर्पितम् ॥ १८२ ॥ तस्मिन्नेव क्षणे भूपैः, साहिशिष्ट्यनुवर्त्तिभिः । श्रीगुरवे लिखित्वा च, दत्तं तत्फुरमाणकम् ॥ १८३ ॥ समुद्रजलजन्तूनां गुरुणा स्तम्भने पुरे । अभयं दापितं वर्ष, यावच्च सुलतानतः ॥ १८४ ॥ काश्मीर विजयेऽष्टाह्नि - सुमहोत्सवपूर्वकम् । अमारीघोषणाऽकारि, गुरुणा पातिशाहतः ॥ १८५ ॥ कार्य तपश्च दुष्टाष्टकर्मणां हि विनाशकम् । सर्वलब्धिनिधानं सद्भन्यैर्दृढप्रहारिवत् ॥ १८६॥ अनित्यत्वादिका भाव्या, द्वादश भावना सदा । संसारभीरुभिर्भव्यै- भवसन्ततिनाशिनी ॥ १८७॥ पुनः कार्या स्वनिन्दैव, स्वात्मनिर्मलकारिणी । स्वात्ममालिन्यकर्त्री हि परनिन्दा कदाऽपि न || १८८|| अन्यञ्चैतच्चतुर्मासी - पर्वाराधनतत्परैः । दिनेऽस्मिन् भव्यजीवैश्वा-वश्यं गुर्वादिसाक्षिकम् ॥१८९॥ स्वस्वव्रतातिचारौघा, आळोच्याः सोपयोगतः । प्रदेयं लग्नदोषाणां मिच्छामि दुक्कडं पुनः ॥ १९०॥ युग्मम् || साधूनां तत्र चारित्र - मप्ततेः करणस्य च । सप्ततेरतिचाराणां चत्वारिंशद्युतं शतम् ॥ १९१ । उक्तं च-" वय ५ समणधम्म १० संजम १७, वेयावचं १० च बंभगुत्तीओ ९ । नाणाइतिअ ३ तव १२ कोह ४ निग्गहा इइ चरणमेयं ॥१९२॥ पिंडविसोही ४ समिई ५, भावण १२ पडिमा य १२ इंद्रियनिरोहो ५ । पडिलेहण २५ गुत्तीओ ३, अभिग्गा ४ चैव करणं तु ॥ १९३॥ " श्राद्धवतातिचाराणां चतुर्विंशाधिकं शतम् । लग्नान् दोषान् समालोच्य, देयं मिच्छामि दुक्कडम् ॥ १९४॥ पञ्चपञ्चातिचाराश्च सम्यक्त्वे द्वादशवते । पञ्च संलेखनायां च कर्मादाने त्रिपञ्चकम् ॥ १९५॥ यो वीर्यस्य विज्ञेया, द्वादश तपसः पुनः । अष्टावष्टौ तथा ज्ञान-दर्शन- चरणेषु च ।। १९६ ॥ शङ्का - कांक्षा - विचिकित्साऽन्यदृष्टेर्गुणवर्णनम् । परिचयः पुनस्तस्य सम्यक्त्वे पञ्चदूषणम् ॥ १९७ ॥ प्रथमाणुत्रते बन्धो, छविच्छेदस्तथा वधः । For Private and Personal Use Only चातुर्मासी पर्व कथा ॥ ६५ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चातुर्मासी द्वादशपर्वकथा संग्रह अतिभारसमारोपो-मजलयोनिरोधनम् ॥१९८॥ रहोऽभ्याख्यानमिथ्योप-देशौ च कूटलेखनम् । न्यासापहारसाकारमन्त्रभेदौ द्वितीयके ॥१९९॥ स्तेनपयोगतदस्तु-ग्रहणे प्रतिरूपिणाम् । वस्तूनां व्यवहारोऽरि-राज्यातिक्रमणं तथा ॥२००॥ || | पर्व-कथा कूटतोलकमानं च, तृतीये तुर्यके पुनः । कामतोत्रानुरागान-ङ्गक्रीडाऽन्यविवाहनम् ॥२०१॥ इखरसक्गृहीताऽप-रिगृहीताऽपसर्पणम् । पञ्चमाणुव्रते क्षेत्र-वास्तुनोर्धनधान्ययोः ॥ २०२॥ द्विचतुष्पदयोश्चैव, कृप्यस्य रूप्यहेमयोः। प्रमाणातिक्रमो डोभा-दन्यस्य करणादिना ॥ २०३॥ ऊ पस्तिर्यगाशानां, प्रमाणातिक्रमत्रयम् । क्षेत्रन्यूनाधिकं स्मृत्यन्तर्धान पठदिग्वते ॥ २०४ ॥ सचित्तस्य सचित्तेन, प्रतिबदस्य भक्षणम् । सचित्तमिश्रदुष्पक्वा-हारयोः सप्तमे व्रते ॥२०५॥ अष्टमे कामकौत्कुच्य-मौखर्यकरणं व्रते । संयुक्ताधिकरणोप-मोगाधिकस्वरक्षणम् ॥२०६॥ मनोवचनकायानां, दुपणिधानतात्रयम् । अनादरविधानं त-द्विस्फूतिर्नवमे व्रते ॥२०७॥ स्ववस्त्वानयनप्रेष्य-प्रयोगौ दशमे व्रते । शब्दरूपानुपातौ च, पुद्गलक्षेपणं पुनः ॥२०८॥ अविलोकितापमार्जित-दुष्पतिलेखितदुष्पमार्जितयोश्च । शय्यासंस्तारकयोः, सेवनमप्रतिलेखितादौ ।।२०९॥ आयेयम् ॥ घुबानीतिपरि-ष्ठापनमपतिलेखितादेःभाण्डादेरादान, निक्षेपो विध्यादिनानादरः ॥ २१०॥ युग्मम् ॥ उपगीतिकेयम् ॥ विस्मृतिः पौषधे चान्त्ये, व्रते चादानबुद्धितः। साधुभ्यो देयवस्तूनां, सचित्ते स्थापनं पुनः॥२११॥ पिधानं तेन कागति-क्रमे निमन्त्रणं तथा । परस्य कथनं दान, मात्सर्याद् द्वादश व्रतम् ॥२१२॥ संलेखनाऽतिचाराः स्यु-रिहपरवडोकयोः। आशंसा कामभोगस्य, जीविते मरणे पुनः ॥२१३॥ अङ्गारं च वनं गन्त्री, माटकं स्फोटकं रसम् । दन्तं लाक्षा विष केशं, निर्वाञ्छनं दवार्पणम् ॥२१४॥ असतीपोषणं यन्त्रपीडनं जलशोषणम् । कर्यादानस्य ज्ञानस्य, निवनं गुरोः पुनः ॥२१५॥ अशुद्ध पठनं सूत्रा-र्ययोस्तदुभयस्य च । DeceOCTOCOCODC For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ६७ ॥ www.kobatirth.org विनयबहुमानोप- धानकालैश्च वर्जितम् ॥ २१६ ॥ शङ्का कांक्षा विचिकित्सा, मूढहगूनोपबृंहणा । अस्थिरीकरणं धर्मवात्सश्यममभावना ।। २१७ ॥ दर्शने चरणे चाट -प्रवचनसोः पुनः । अपाळने प्रमादेन, पुनरनुपयोगतः ॥ २१८ ॥ स्वशक्त्या तपसोचा- भ्यन्तरयोरनादरम् । अस्फोरणं च वीर्यस्य, त्रियोगेधर्मकर्मसु ॥ २१९ ॥ भो भो भव्याचतुर्मासी - माराधयन्तु भावतः । येनेह परलोके स्या- दक्षयं निर्मलं सुखम् ॥ २२० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रशस्ति : जिनमहेन्द्रसूरीशा वीरपरम्परागताः । तत्करदीक्षिताः शुद्धाः, श्रीमोहनमुनीश्वराः || २२१ ॥ खरतरगणोद्योतकारकाः सरलाशयाः । आसन् जिनयशस्सूरीश्वरास्तत्पादसेवकाः ||२२२|| राजमुनिमहाराजा - स्तेषामाज्ञानुवर्त्तिनः । तेषां शिष्या महाप्राज्ञाः, श्रीजिनरत्नसूरयः ॥ २२३|| पाठकलब्धिना प्रेम - मुनिगणेः समाग्रहात् । पूतस्याकारि माहात्म्यं, चतुर्मासिकपर्वणः ॥ २२४ ॥ संवद्वाणखशून्याक्षि (२००५) - वर्षे ज्येष्ठे च मेचके । अजयमेरुदुर्गे च कृतिरियं मया कृता ।। २२५ ॥ युग्मम् ॥ ॥ इति श्रीचतुर्मासी - पर्व - व्याख्यानम् समाप्तम् ॥ exte For Private and Personal Use Only चातुर्मासी पर्व-कथा ॥ ६७ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्व कथा-संग्रह ।। ६८ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११) अथ पर्युषणाष्टाह्निका - व्याख्यानम् । महावीरं प्रभुं नत्वा, विश्वविश्वप्रकाशकम् । मया पर्युषणाष्टाह्नि काया व्याख्यानमुच्यते ॥ १ ॥ इह सकलदुष्कर्मवारिणीह भवान्तरे । भूरिसुखाकरे शुद्ध-धर्मकर्मविधायिनि ॥ २ ॥ इन्द्राः सर्वे समायाते, पर्युषणादिपर्वणि । एकीभूयामे नन्दीश्वरद्वीपे मनोहरे || ३ || धर्मस्य महिमानं हि कर्त्तुं गच्छन्ति तस्य च । मध्यभागे चतुर्दिक्षु, चत्वारोsञ्जनपर्वताः ॥ ४ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् || दशसहस्र विष्कम्भा-यामा मूले तथोपरि । सहस्रमेकमुच्चैश्च पञ्चाशीतिसहस्रकाः (८५०००) ॥ ५ ॥ प्रत्येकं तच्चतुर्दिक्षु, चतस्रो वापिका वराः । कक्षायामाच विष्कम्भा -ऽर्द्धलक्षयोजनाः खलु ||६|| षोडश चापिका मध्ये केकत्वेन मनोहराः । दधिमुखाभिधाः श्वेताः, षोडश पर्वताः पुनः ॥७॥ रतिकराभिधा रक्ता, द्वात्रिंशत्पर्वतास्तथा । द्वौ द्वौ वाप्यन्तरत्वेन वनादिभिर्विभूषिताः ॥ ८ ॥ द्विपञ्चाशन्नगाः सर्वे सन्त्येकैकनगोपरि । एकैकं शाश्वतं चैत्यं, चतुर्द्वारिं सुसुन्दरम् ॥ ९ ॥ सञ्जातानि द्विपञ्चाश-चैत्यानि तत्र मन्दिरे । प्रत्येकं जिनबिम्बानां, चतुर्विंशाधिकं शतम् ॥ १० ॥ सर्वेषां जिनबिम्बानां षट्सहस्रं चतुःशतम् । अष्टचत्वारिंशत्सर्व-सङ्कलनाद्भवन्ति च ॥ ११ ॥ कुर्वन्ति देवदेवीभिः सार्द्धं तत्र च वासवाः । प्रवर्द्धमानभावेन श्रेष्ठमाहिकोत्सवम् ॥ १२ ॥ जलचन्दनसत्पुष्प-धूपदीपाक्षतैः फलैः । नैवेद्यैजिनबिम्बानि, शुभैः सम्पूजयन्ति ते ॥ ११ ॥ जिनगुणाश्च गायन्ति, ते विदधति 1 For Private and Personal Use Only पर्युषणाष्टाह्निका कथा ॥ ६८ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ६९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाटकम् । इत्थं महोत्सवं कृत्वा, निजस्थानं प्रयान्ति ते ॥ १४ ॥ एवं श्राद्धैरपि श्रीम-तीर्थङ्करप्रकाशिते । पर्वण्यस्मिन्समायाते, कार्यों यत्नो हि धर्मणि ।। १५ ।। पञ्चाश्रवकपायाणां रोधं कुर्यादुपासकः । अत्र सामायिकं पूजां, तपस्यां भावनादिकम् ॥ १६ ॥ द्वीन्द्रियादिकजीवानां, परित्याज्या विराधना । यतो हि सर्वदानेषु प्रधानमभयं जने ॥ १७ ॥ यथा चोक्तं सूत्रकृताने - " दाणाण से अभयप्पयाण " मिति । अन्यत्रापि प्रोक्तं – “ दीयते म्रियमाणस्य, कोटिं जीवितमेव च । धनकोटिं न गृह्णीयात्सर्वो जीवितुमिच्छति ॥ १८ ॥ " अपि च- “ यो दद्यात्काञ्चनं मेरुं, कृत्स्नां चैव वसुन्धराम्। एकस्य जीवितं देया- नहि तुल्यमहिंसया ॥ १९ ॥" अभयदानमाहात्म्य - ख्यापनार्थं कथोउच्यते । यथाऽरिदमनो राजा, बसन्तपुरपत्तने ॥ २० ॥ पञ्च राइयोऽभवंस्तस्य चतस्रोऽत्यन्तवल्लभाः । एकाऽस्त्यमा निता राजा, स्वमासादे स्थितोऽन्यदा ।। २१ ।। तस्मिन्नवसरेऽस्त्येको, राजमार्गेण तस्करः । नीयमानः सहमानो, विविधां च विडम्बनाम् ॥ २२ ॥ तं तस्करं चतुष्पत्नी-युतो भूपो व्यलोकयत् । किमकार्यमने नाका-रीत्यपृच्छनृपप्रियाः ॥ २३ ॥ एकेनोक्तं तदाऽनेनाऽन्यद्रव्यहरणं कृतम् । तेनायं नीयते बध्य-स्थाने वधाय तस्करः ||२४|| जातकृपाऽथ राइयेका, पूर्वदत्तं वरं नृपात् । मायिला गृहे चैकं दिनमुपचचार तम् ॥ २५ ॥ आद्येऽह्नि स्नानवस्त्रालङ्कारभोज्यादिभिस्तया । सम्मानितः स दीनार - सहस्रव्ययतो भृशम् ॥ २६ ॥ द्वितीयैवं तृतीया च चतुर्थी भूपतिप्रिया । दशसहस्रलक्षेक-कोटिनिष्कव्ययात् क्रमात् ॥ २७ ॥ दिनचतुष्टयं यावत्, सच्चकाराथ पञ्चमी । दुर्भगा पञ्चमे घत्रे, नृपपार्श्वे समेत्य च ॥ २८ ॥ नृपाद्विनयमात्रेण, याचयित्वा च तस्करम् । गृहमानीय सामान्य- भोजनेन भोज्यम् || २९ ॥ प्रदत्तं जीवितं तुभ्यं मा कार्षीस्त्वमतः परम् । चौर्यमिति निगद्यैनं स्वगृहे विससर्ज सा For Private and Personal Use Only पर्युषणाष्टाह्निका कथा ॥ ६९ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ७० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ ३० ॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ स्वस्थानं हर्षितः सोऽपि ययौ वादोऽभवत्ततः । न्यूनाधिकोपकारेषु राशीमध्ये परस्परम् ।। ३१ ।। भूपेनाकारितचौरः सोऽपि जगाद भूपते । यावच्चतुर्दिनं ज्ञातं किमपि न सुखं मया ॥ ३२ ॥ तु पञ्चमीराज्ञी - मुखाच्छ्रुत्वाऽभयं सुखम् । अनुभवाम्यतोऽस्त्यस्या, उपकारो महान्मयि ।। ३३ ।। सर्वैरपि निशदं तद्वचः सा प्रशंसिता । पट्टराज्ञी कृता राज्ञा-तोऽभयदानमुत्तमम् ||३४|| खण्डन पेषणस्नान-वस्त्रक्षालनलिम्पनम् । आरम्भं वर्जयेच्छ्राद्धस्तथा पूतेऽत्र पर्वणि ।। ३५ ।। तैलिक लोह कृद्भाष्ट्र - प्रमुख कर्मकारिणाम् । निवारणीय आरम्भो, शक्त्या वाचा धनव्ययात् || ३६ || स्वशक्त्या बन्दिमोक्षश्च, कार्यों ग्रामे पुरे पुनः । अमारीघोषणा श्राद्वै-विधातव्यापण || ३७ || पर्वण्यत्र मृषावादो, गालिदानं वचोऽप्रियम् । न वाच्यं किन्तु निष्पापं हितं मितं प्रियं वचः ॥ ३८ ॥ वर्जनीयं परद्रव्य-ग्रहणं धनमस्ति हि । बाह्यमाणतया जन्तु मरणकष्टकारणम् ॥ ३९ ॥ स्वस्त्रीसङ्गोऽत्र सन्त्याज्यः, पाल्यं शीलं च सर्वथा । परस्त्रीसेवनं त्याज्यं, निन्द्यं लोकद्वयेऽपि हि ॥ ४० ॥ परिमाणं पुनः कार्य, नवविधपरिग्रहे । नैवापरिमिता तृष्णा, धार्या सन्तोषधारिभिः ॥ ४१ ॥ रागद्वेषकषाया न सनिमित्तानिमित्तयोः । कर्त्तव्याः स्वान्ययोस्तुल्य- परिणतिविधायिभिः ॥४२॥ यतश्वोक्तं - " कोहो पिईं पणासेर, माणो विजयनासणो । माया मिचाणि नासेर, लोsो सव्वविणासणी ॥ ४३ ॥ " अभ्याख्यानं च पैशून्यं, कलहादिकमत्र हि । ते सर्वे दूरतस्त्याज्याः, ये कर्मबन्धहेतवः ॥ ४४ ॥ पुनः सामायिकं कार्य-मवश्यमत्र तद्भवेत् । रागद्वेषपरित्यागात्, प्राणिसमत्वधारणात् ॥ ४५ ॥ उक्तं च - " समता सर्वभूतेषु संयमः शुभभावना । आर्त्तरौद्रपरित्याग - स्तद्धि सामायिकं व्रतम् ॥ ४६ ॥ " " दिवसे दिवसे लक्खं, देइ सुवष्णस्स खंडियं एगो । एगो पुण सामाइयं, करेह न पहुप्पए तस्स For Private and Personal Use Only पर्युषणाष्टाह्निका कथा 11 90 11 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व कथा-संग्रह ॥ ७१ ॥ DeeeeeeRorwecipe ॥४७॥" देशावकाशिकं कार्य, श्राद्धस्तद्धि विधाय च । गृहीतव्रतसंक्षेप, सामायिक विधीयते ॥४८॥ सामायि 18|पर्युषणाष्टाकद्वयं ज्ञेयं, तच्च जघन्यतः पुनः। श्राद्धरुत्कृष्टतः पश्च-दश (१५) सामायिकं भवेत् ॥ ४९ ॥ तथा चोत्कृष्टदेशाव द्विका-कथा काशिके सकळक्रिया । ज्ञेया पौषधवत्तद्धि, मुक्तैरपि विधीयते ॥ ५० ॥ धर्मपुष्टिकरं श्राद्धै-विधेयं पौषधवतम् । आहार-तनुसत्कारा-व्यापारा-ब्रह्मवर्जनम् ॥ ५१ ॥ तत्फलं यथा-"पोसहिय सुहे भावे, असुहाई खपेइ नस्थि संदेहो । छिदइ निरयतिरियगई, पोसहविहिअप्पमत्तेणं ॥५२॥" श्रावकैः पौषधाशक्तैः, स्नात्रादिद्रव्यपूजनम् । पर्वण्यत्र विधातव्यं, यतनाविधिपूर्वकम् ॥ ५३॥ तत्फलं यथा-" सयं पमज्जणे पुग्नं, सहस्सं च विलेवणे । सयसाहस्सिया माला, अणंतं गीयवाइए ॥ ५४॥" द्रव्यपूजाक्षणे श्राद्ध-मनोवाकायशुद्धितः । जिनावस्थात्रयं चित्ते, चिन्तनीयं सदाशयः ॥ ५५ ॥ तथाहि-"हवणचणेहिं छउमत्य, वत्यपडिहारगेहिं केवलियं । पलियंकुस्सग्गेहि य, जिणस्स भाविज सिद्धत्तं ४॥५६॥" द्रव्यपूजनसामग्य-भावे भावार्चनं जनैः । जिनेन्द्रदर्शन कार्य, चैत्यवन्दनपूर्वकम् ॥ ५७ ॥ तत्फलमिदं "दर्शनाद् दुरितध्वंसी, वन्दनाद्वाञ्छितप्रदः । पूजनात्पूरकः श्रीणां, जिनः साक्षात्सुरद्रुमः ॥५८॥" श्रीजिनदर्शनादेव, बहूनां प्राणिनां पुनः। आर्द्रकुमारवबोधि-बीजावाप्तिर्भवेद्यथा ॥५९॥ अस्मिंश्च भरतक्षेत्रे, समुद्रतीरसंस्थितः। आईकम्लेच्छदेशोऽस्ति, तत्राकपुरं वरम् ॥ ६ ॥ तत्राकनृपस्तस्या-ऽऽम्रिकाराज्ञी तयोः सुतः। अभूदाईकुमारश्च, दाता भोगी मुखी स च ॥ ६१॥ श्रेणिकेन समं तस्य, राज्ञः परम्परागता । बभूव परमा प्रीति-रविच्छिन्ना परस्परम् ॥ १२ ॥ एकदा प्रगुणीकृत्य, प्राभृतं श्रेणिको नृपः। आकभूपतेः पार्श्व, सम्प्रेषीनिजमन्त्रिणम् ॥६॥ तेन गत्वा नृपं नवा-ऽऽनीतं प्राभृतमर्पितम् । क्षेमकुशलवार्ताऽभू-द्भुपतिमन्त्रिणोमिथः ॥ ६४॥ तस्मिन्नवसरेऽपृच्छदाई- ॥ ७१।। Cocococceremocroe For Private and Personal Use Only Page #77 --------------------------------------------------------------------------  Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ७३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पेटैषाऽऽर्द्रकुमारस्य, पुरस्त्वयोपढौक्यताम् । तथेदं तस्य मद्बन्धो वक्तव्यं स्नेहपूर्वकम् ॥ ८३ ॥ त्वयैकान्तप्रदेशे हि, संस्थायैकाकिना स्वयम् । पेटामुद्घाट्य द्रष्टव्यं तदन्तर्गतवस्तुकम् ||८४|| अन्यस्य कस्यचिन्नैव, दर्शनीयं ततः पुमान् । सोऽभयोक्तं वचश्चाङ्गी - कृत्य स्वनगरं ययौ ॥ ८५ ॥ अभयदत्तमार्द्राय, तेन प्राभृतमर्पितम् । प्रोक्तस्तदुक्तसन्देशो-थागृहीतां स पेटिकाम् ||८६ ॥ गत्वैकान्ते स उद्घाट्य, तां तद्गतां विलोक्य च । प्रतिमामादिदेवस्य तमस्युद्योतकारिणीम् ||८७|| स्वचित्ते चिन्तयामास, किमिदं ? किञ्चिदुत्तमम् । देहाभरणमस्त्येतन्मूनि कण्ठेऽथवा हृदि ॥८८॥ समारोप्यं ? किमन्यत्र - कुत्रचिद्वा प्रधार्यते । दृष्टपूर्वमित्र कापी-दं मां च प्रतिभासते ॥ ८९ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् | परं स्मृतिपथं नैतीत्थं विचिन्तयतो भृशम् । तस्य जातिस्मृतिज्ञान-मुत्पन्नं भवदर्शकम् ॥ ९० ॥ ततः स चिन्तयामास, पूर्वभवकथां निजाम्। इतो भवात्तृतीये च, मगधाविषये वरे ॥ ९१ ॥ वसन्तनगरेऽभूवं सामाजिक: कुटुम्बिकः । अहं बन्धुमती भार्या, सत्युत्तमा ममाभवत् ||१२|| एकदा सुस्थिताचार्य पार्श्वे धर्म निशम्य च । बन्धूमत्या समं दीक्षां वैराग्यादमाददे ॥ ९३ ॥ क्रमेण गुरुभिः सार्द्धं विहरन्नहमेकदा । एकस्मिन् पत्तनेऽगां सा, बन्धुमत्यपि चाययौ ॥९४॥ एकस्मिन्नह्नितां पश्यन् पूर्वभोगान्स्मरन्नहम् । तस्यामनुरतोऽभूव-माख्यां तच्चान्यसाधवे ॥ ९५ ॥ सोऽप्याचख्यौ भवर्त्तिन्ये, साऽपि तस्यै तदाऽवदत् । बन्धुमती विषण्णा च सती निजप्रवर्त्तिनीम् ॥ ९६ ॥ गीतार्थोऽप्येष मर्यादां, यदि लघेत का गतिः ? । तदाऽसौ मां गतां देशान्तरे श्रोष्यति यावता ॥ ९७ ॥ तावन्मोहप्रभावात्त - द्रागो मयि न यास्यति । करिष्येऽनशनं पूज्ये ऽत्र परत्र सुखावदम् ||१८|| येन मे नैव नाप्यस्य, जायते शीलखण्डनम् । इत्युक्त्वा नशनं कृला, मृखा च सा दिवं ययौ ॥९९॥ ततो मया मृतां श्रुत्वा तां चिन्तितं च निश्चितम् । व्रतभङ्गभियेयं For Private and Personal Use Only पर्युषणाष्टाहिका कथा ॥ ७३ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर्युषणाष्टा द्वादशपर्वकथा-संग्रह हिका-कथा ॥ ७४॥ repeecreampered हि, महानुभाविका मृता ॥१००।। अहन्तु व्रतभग्नोऽतो, जीवितेन ममाप्यलम् । तदाऽहमपि मृत्वा च, देवोऽभूवं समाधिना | & ॥१०१॥ ततश्च्युत्वाऽहमुत्पन्नो-ऽञानार्ये धर्महीनकः। यत्र सद्धर्मशब्दोऽपि, निशम्यते कदापि न ॥१०२॥ भाग्योदयेन केनापि, येनाहं प्रतिबोधितः । सैवाभयकुमारोऽस्ति, पूज्यो बन्धुर्गुरुश्च मे ॥१०३॥ अद्यापि मन्दभाग्योऽस्मि, यतस्तं द्रष्टुमक्षमः । तस्मात्तातमनुज्ञाप्य, यास्यामि यत्र मे गुरुः ॥१०४॥ इत्थं मनोरथं कुर्वन् , पूजयन्प्रतिमां प्रभोः। स दिनान् गमयामासै-कदा व्यजिज्ञपन्नृपम् ॥१०५॥ हे तात ! द्रष्टुमिच्छामि, स्वमित्रमभयं तदा । नृपोऽवदत्त्वया कार्या, गमनेच्छा हि तत्र न ॥१०६॥ अस्माकमपि हि स्थान-स्थितानां श्रेणिकेन च । सहास्ति मित्रताऽत्रैव, कार्या तेन समं त्वया ॥१०७॥ तदा पित्राज्ञया बद्ध, उत्कण्ठितोऽभयं प्रति । न जगाम न च तस्था-वासने शयने पुनः ॥१०८॥ पाने वा भोजनेऽन्यासु, सर्वक्रियासु नेत्रयोः । पुरस्ताच दिशा चक्रे, नित्यं मन्त्र्यभयाश्रिताम् ॥ १०९॥ युग्मम् ।। कीदृशा ? मगधा राज-गृही च कीदृशी पुनः । तत्रास्ति ? गमने कस्को !, मार्गः पप्रच्छ सो जनान् ॥११०॥ विज्ञाय तदभिमायं, दध्यौ भूपः कदाऽप्ययम् । कुमारी मामनापृच्छच, गमिष्यत्यभयं प्रति ॥१११॥ अतो यत्नो मया कार्य-स्तत इत्यादिशन्नृपः । पञ्चशतभटान् गच्छे-दयं देशान्तरं यदि ॥११२॥ युष्माभिः स तदा वार्य-स्तत्पावं न त्यजन्ति ते । देहधृतमिवामस्त, निजात्मानं कुमारकः ॥११॥ युग्मम् ॥ ततोऽभयसमीपे हि, गमनमवधार्य सः। आईः प्रत्यहमारेभे, विधातुमश्ववाहनम् ॥११४॥ ते सामन्ताः स्थिताः पार्श्व-ऽश्वारूढा अङ्गरक्षकाः । कुमारो वाहयन्नश्वं, किञ्चिदने च गच्छति ॥११५॥ ततो निवर्तते चैवं, नित्यमश्वं स वाहयन् । तेभ्यः समधिकं गत्वा, व्याघुट्य पुनरेति च ॥११६॥ | इत्थं तेषां हि विश्वास, समुत्पाद्यान्यदा स च । समुद्रे प्रगुणं पोतं, कारयित्वा निजैनरैः ॥११७॥ तच्च प्रपूर्य रत्नौधै ZARCORDPREDICIRacemercene ॥ ७४ ।। For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह DeceDeceCTODeeeeeerae रारोप्य प्रतिमां प्रभोः। स वाहयंस्तथैवाश्व-द्रयानात्तिरोदधे ॥११८॥ युग्मम् ।। ततः स पोतमारुह्य, गत्वाऽऽर्यविषयं | पुनः। पोतादुत्तीर्य सम्प्रेष्य, प्रतिमामभयं प्रति ॥११९॥ सप्तक्षेत्र्यां धनान्युप्त्वा, मुनिवेष प्रगृह्य च । उच्चारयितुमारेभे, पर्युषणाष्टा द्विका कथा यावत्सामायिक मुदा ॥१२०॥ आकाशस्थितया देव्या, तावदुच्चैःस्वरेण च । प्रोक्तं यद्यप्यसि त्वं हि, महासत्चशिरोमणिः ॥१२१॥ तथाऽपि साम्प्रतं दीक्षां, मा ग्रहीरधुनाऽपि ते । भोग्यकर्मास्ति तद् भुक्त्वा, गृह्णीयाः समये व्रतम् ॥१२२॥ भोग्यकर्म यतस्तीर्थ-कराणामपि निश्चितम् । भोक्तव्यं का कथाऽन्येषां, त्वलं तेन व्रतेन हि ॥१२३॥ यत्य- IN ज्यते समादत्त-मपि भुक्तेन तेन किम् ? । वम्यते यद्वतं चेत्थं, निषिद्धो बहुधा स च ॥१२४॥ तथाऽप्यादृत्य पौरुष्यमनादृत्य सुरीवचः। स च प्रत्येकबुद्धत्वा-स्वयं समाददे व्रतम् ॥१२५॥ सोऽय मुनिव्रतं तीक्ष्णं, पालयन् विहरन् भुवि । अन्यदा गतवान् रम्यं, वसन्तपुरपत्तनम् ॥ १२६ ॥ देवकुले स कस्मिंश्चित् , कायोत्सर्गेण संस्थितः । इतस्तस्मिन् पुरे श्रेष्ठी, देवदत्ताभिधोऽजनि ॥१२७॥ तस्य धनवती भार्या, च्युत्वा चाथ सुराळयात् । सोऽभूद्वन्घुमतीजीवः, श्रीमत्याख्या सुता तयोः ॥१२८॥ क्रमेण सा रज:क्रीडो-चितं प्राप वयोऽन्यदा। तत्र देवकुले सार्दै, कन्याभिः श्रीमती ययौ ॥१२९॥ तत्र च रन्तुमारेभे, पतिवरणक्रीडया । सर्वाः कन्यास्तदोचुहि, भर्तारं वृणुतेति च ॥१३०॥ ततः कयापि, कोऽपीत्ये-वं स्वरुच्या वराः वृताः। सर्वाभिः श्रीमती पाह, पूज्योऽयं च वृतो मया ॥१३१॥ तदा साधु वृतं साधु वृतमित्यवदत्सुरी । तत्र हि सैव गर्जन्ती, रत्नादिकान्यवर्षयत् ॥१३२॥ श्रीमती गजितागीता, सा मुनेश्वरणेऽलगत् । क्षणमात्रं मुनिस्तत्र, स्थिखा चित्ते व्यचिन्तयत् ॥१३॥ इह मे तस्थुपो जात, उपसर्गोऽनुकूलः । अतो न स्थयमत्रेति, IN विचिन्त्यान्यत्र सोऽगमत् ॥१३४॥ तदा चास्वामिक द्रव्यं, राज्ञ एवेत्यवेत्य च । आदातुं तद्धनं राज्ञा, पिताः पुरुषा | ॥७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व कथा-संग्रह Doncomencemenecemeree निजाः ॥१३५॥ ते गवा तद्धनस्थान, ददृशुर्नागसङ्कलम् । तन्निशम्य नृपस्तत्र, समाययौ कुतूहलात् ॥१३६।। देव्या 10 पर्युषणाष्टापोक्तमिदं चास्यै, श्रीमत्यै बरकेऽर्पितम् । इति श्रुत्वा विलक्षः सन्, स्वस्थानं भृपतिर्ययौ ॥१३७॥ श्रीमतीजनकोs काहिका-कथा प्येत-दन सर्व ललौ ततः। श्रीमती यौवनं प्राप्तां, परिणेतुमगुर्वराः ॥१३८॥ पित्रा पुत्र्य स्वरूपं तत्, प्रोक्तं सा माह हे पितः !। मया वृतो महर्षियों, ज्ञेयः स एव मे वरः ॥१३९॥ वरणे सुरीदत्तं स्वं, गृह्णता भवताऽपि सन् । अनुमतं ततोऽन्यस्मै, न मां त्वं दातुमर्हसि ॥१४०॥ यत उक्तं-"सकृजल्पन्ति राजानः, सकृजल्पन्ति साधवः । सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते, त्रीण्येतानि सकृत्सकृत् ॥ १४१ ॥” इति श्रुत्वाऽवदच्छेष्ठी, चैकत्र नावतिष्ठते । भ्रमर इव सम्भ्राम्यन् , स साधुः पाप्यते ? कथम् ॥ १४२ ॥ आयास्यति न वा सोत्रा-यातोऽपि ज्ञायते कथम् ?' किमपि तदभिज्ञानमस्ति ? साप्यवदत्पितः ! ॥१४३॥ गर्जितभोतया तस्मिन् , दिने पादविलग्नया । मुनेश्चिन्हं मया दृष्ट-मतः परं तथा कुरु ॥१४४॥ यथा प्रतिदिनं याता-नायाताश्चाखिलान्मुनीन् । पश्याम्यथावदच्छेष्ठी, ये केऽप्यायान्ति साधवः ॥१४५॥ त्वं स्वयं प्रत्यहं तेभ्यो, भिक्षां देहि दिदृक्षया । सर्वेषां दर्शनं स्यात्ते, ततस्तथैव साऽकरोत् ।।१४६॥ युग्मम् ।। पश्यन्ती लक्षणं तस्य, मुनिपादानवन्दत । स मुनिदिशे वर्षे, दिङ्मूढस्तत्र चागतः ॥ १४७॥ तचिह्नदर्शनेनासौ, तयोपल क्षितोऽय सा। तं प्राह नाथ! यस्तत्र, मया वृतस्त्वमेव सः ॥ १४८॥ भाग्यरधुनाऽऽयातोऽसि, मां मुक्त्वा हि क O] यास्यसि ? । यदा त्वं दृष्टनष्टोऽभू-रारभ्य तद्दिनात्खलु ॥१४९॥ दुःखेन मम कालोऽगा-त्तस्मात्कृपां विधाय माम् । N] अङ्गीकुर्वन्यथा बलौ, प्रवेक्ष्यामि सुनिश्चितम् ॥१५०॥ तदाऽन्यैरपि तत्पित्रा-दिभिर्महाजनैर्मुनिः । अभ्यर्थितोऽस्मरदेवी ॥७६ ॥ | वचो व्रतनिषेधकम् ॥१५१॥ भोग्यकर्मोदयात्सोऽपि, श्रीमती परिणीतवान् । तस्य तया सम भोगान् , भुञानस्य DoraemocreeEVEDOX For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व पयुषणाष्टाहिका-कथा CO सुतोऽजनि ॥१५२॥ क्रमेण बर्द्धमानोऽसौ, राजशुक इवाभवत् । वक्तुं समुल्लसज्जिह्व-स्तावान्स तनुजोऽजनि ॥१५३॥ तदा चाकुमारेण, कथितं श्रीमती प्रति । अतः परं सुतस्तेऽस्तु, साहाय्यः प्रव्रजाम्यहम् ॥१५४॥ तदा बुद्धिमती सा तु, कथा-संग्रह ज्ञापयितुं सुतं प्रति । कर्पाससहितं तर्क-मादाय समुपाविशत् ॥१५५॥ प्रसूं स बालको दृष्ट्वा, कुर्वाणां तुलकर्त्तनम् । ॥ ७७.IN पप्रच्छाऽम्ब ! बयाऽरब्धं ?, किं कर्म पामरोचितम् ॥१५६॥ सोचे सुत! पिता ते खां. मां च त्यक्ता मुनेः पथि। गन्तुमनोऽस्ति यातेऽस्मि-स्तर्कुशरणमेव मे ॥१५७॥ तदा बालोऽवदद्वाल्या-मन्मनाक्षरतः कथम् । यास्यति ? मे पिता बद्ध्वा, धारयिष्याम्यहं बलात् ॥१५८॥ इत्युक्खा तन्तुभिः पादौ, बबन्ध सोऽर्भकः पितुः। आद्रोऽपि मधुरं बाल| वाक्यं श्रुत्वा प्रहर्षितः ॥१५९॥ पुत्रस्नेहादुवाचैवं, स यावद्भिश्च तन्तुभिः। पादौ बद्धौ च तावन्त्य-ब्दानि स्थास्यामि सद्मनि ॥१६०॥ छोटय गणयिखा त्वं, बन्धनान्यधुना ततः। द्वादश बन्धनान्यासन् , गणितान्याकोऽवदत् ॥ १६१ ॥ स्थास्ये द्वादशवर्षाणि, यावद पुनर्गृहे । इत्युक्ला द्वादशान्दानि, यावत्स चात्यवाहयत् ॥ १६२ ।। पूर्णीभूतप्रतिज्ञोऽथ, वैराग्यपूर्णमानसः। पश्चिमे प्रहरे रात्रे-राक इत्यचिन्तयत् ॥१६॥ मनसैव मया पूर्वे, भवे भग्न व्रतं ततः । प्राप्तोऽस्म्यहमनायवं, मनमत्र तु सर्वथा ॥१६४॥ भाविन्यतो गतिः का? मे, गृहीखा साम्प्रतं व्रतम् । शोधयामि निजात्मानं, तपसा चरणेन च ॥१६५॥ विचार्येत्याकः प्रातः, श्रीमती स्वप्रियां सुतम् । निज सम्भाष्य चादाय, तयोस्नुमति पुनः ॥ १६६ ॥ साधुवेषं समादाय, निर्ममो निर्ययौ गृहात् । अथ राजगृहं गच्छ-भस्त्याकमहामुनिः |॥१६७॥ पञ्चशतस्वसामन्ताँ-चौयवृत्तिं प्रकुर्वतः। सोऽपश्यदन्तराले तै-रप्युपलक्ष्य वन्दितः ॥ १६८॥ युग्मम् ॥ स | ताजगाद युष्मामिः, किमेषा जीविकाऽऽदृता ?। अनर्थहेतुका चेह-परत्र दुर्गतिपदा ॥१६९॥ तैरुक्तं हे ! प्रभोऽस्मास्वं, PCccompendence 200CDCReceOCOCODemone For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह 11 02 11 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वञ्चयित्वा पलायितः । तत्प्रभृति वयं राज्ञो दर्शयामो मुखं नहि ॥ १७० ॥ स्वामिंस्तेऽन्वेषणे लग्ना, भ्रमन्तच रसातले । चौर्यवृत्यैव जीवामो ऽपश्यैस्त्वामद्य भाग्यतः || १७१ || मुनिर्जगाद युष्माभि-रयुक्ता वृत्तिराहता । केनापि पुण्ययोगेन प्राप्य मानुष्यकं वरम् || १७२ || स्वर्गमोक्षपदो धर्मः सेव्यः परिहृताश्रवः । यूयं स्वस्वामिभक्ताः स्थ, मार्गोऽङ्गीक्रियतां मम ॥ १७३॥ ततस्ते प्रोचुरस्माकं प्राक्स्वाम्यधुना गुरुः । दीक्षयाऽनुगृहाणास्मा स्वतस्ते तेन दीक्षिताः || १७४ ।। मार्गेऽथ गच्छतस्तस्य, गोशालोऽभिमुखोऽमीलत् । चर्चा कर्त्तुं विलग्नोऽसौ खेचराद्यास्तदाययुः ।। १७५ ।। गोशालोऽथावदद्युष्म- तपः कष्टं दृथा यतः । शुभाशुभफलानां हि नियतिरस्ति कारणम् ।। १७६ ।। ततो मुनिरवादीद्भो !, पौरुषमपि कारणम् । मन्यस्व यदि सर्वत्र, नियतिर्हेतु मन्यसे || १७७ ॥ तर्हि तेऽमीष्टसिद्धयर्थ, सर्वाः क्रिया वृथा भवेत् । नियतिमन् ! निजस्थाने, सर्वदा किं न तिष्ठसि १ || १७८ || भोजनादिक्षणे यत्न- माहारार्थं करोषि ? किम् । स्वस्वार्थसिद्धये तद्वमन्यस्वापरपौरुषम् ॥ १७९ ॥ अर्थसिद्धौ च पौरुष्य स्थाधिक्यं नियतेरपि । अस्ति जलमाकाशात् । प्रपतति स्वभावतः || १८०॥ परं भूखननादावि भवेज्जलं बलीयसी । नियतिः पौरुषं ज्ञेयं बलिष्टं नियतेरपि ॥ १८२ ॥ एवं मुनिः स गोशाळं, निरुत्तरीचकार हि । खेचराद्यैस्तदा तस्य प्रशंसा विहिता मुनेः || १८२ ॥ तत आर्द्रमुनिहंस्ति - तापसाश्रमपार्श्व | आययौ तत्र बद्धोऽस्ति, वधाय वापसैर्गजः ॥ १८३॥ ते मन्यन्ते गजं हत्वा भुञ्जानास्तत्पलं पुनः । व्यतीयन्ते बहून् घखाँ स्तस्माद्गजवघो वरः || १८४|| तेनैकजीवघातेन, भूयान्कालोऽतिगम्यते । मृगतिचिरमत्स्याये - धन्यैर्न बहुभिस्तथा ।। १८५ ।। तस्माद्भक्षणं युक्तं, न बहुपापसम्भवात् । यत्र हि शृङ्खलाबद्धो, गजराजः स तिष्ठति ॥ १८६॥ तत्र चाजग्मुरभ्यर्णे, स मुनिः करुणानिधिः । मुनिः पश्चशतीयुक्तो वन्द्यमानो घनैर्जनैः ॥ १८७॥ For Private and Personal Use Only पर्युषणाष्टाह्निका कथा ॥ ७८ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व युग्मम् ।। स गजो लघुकर्मत्वा मुनि वा व्यचिन्तयत् । महर्षिमहमप्येनं, बन्देयं पापनाशकम् ॥ १८८॥ यदि बद्धो भवेयं न, बद्धस्तु करवाणि ? किम् । एवं चिन्तयतस्तस्या-याभूबला व्यसीर्यत ॥१८९॥ निरर्गको गजः सोऽथा 8 पर्युषणाष्टाकथा-संग्रह N द्विका-कथा ऽभ्यागागन्तुं मुनीश्वरम् । दृष्ट्वाऽभिमुखमायान्त, लग्ना लोका: पळायितुम् ॥१९०॥ महर्षिस्तु तथैवास्था-अम्रोकृतचिर:॥ ७९ ॥ स्थतः । ववन्दे मुनिमास्पृश्य, शुण्डादण्डेन तत्पदौ ॥ १९१ ॥ परमानन्दिवो हस्ती, समुत्थाय व्यलोकयन् । मुनिम व्याकुलो हृष्टो-ऽरण्यानों प्रविवेश च ॥१९२।। तदाऽद्भुतपभावं तं, दृष्ट्वा ते वापसा गताः । प्रकोप प्रत्यबोध्यन्त, तेनाइँण महर्षिणा ॥१९॥ ततस्तत्मेषिता एते, गखा वीरजिनेशितुः । पावें दीक्षां लर्चाि , शुश्राव श्रेणिकोऽपि ताम् ॥१९४॥ साभयोऽगान्नृपस्तत्र, राज्ञा मुनि: स वन्दितः । पृष्टश्च भगवन्मेऽभू-दाश्चर्य गजमोक्षणात् ॥१९५।। मुनिरुवाच | राजन्न, दुष्करं हस्तिमोक्षणम् । किन्त्वामतन्तुमोक्षं मां, दुष्करं प्रतिभासते ॥१९६॥ राज्ञोक्तं तत्कथं ? स्वामिन् !, तदा स | सकलां मुनिः । स्वकयां कथयामासा-ऽथाऽभयं प्रत्यभाषत ॥१९७॥ निष्कारणोपकारी त्वं, ममाभूद्धर्मवान्धवः । मित्र ! स्वत्प्रेषितार्हत्या. प्रतिमां दृष्ट्वानहम् ॥१९८॥ तेन जातिस्मृतिज्ञानं, प्राप्य धर्मरतोऽभवम् । स्थाद्विनोपायमीक्षं, धर्मपाप्तिः कुतो मम ॥१९९॥ अनार्यत्वमहापङ्के, निमग्नोऽहं त्वयोद्धृतः । त्वत्प्रसादेन चारित्र-प्राप्तिरत्र ममाजनि ॥२००॥ भूपाभयकुमाराद्या, लोकाः सर्वेऽपि तं मुनिम् । नत्वाऽऽनन्दितचेतस्काः, स्वस्वस्थानं ययुस्ततः ॥२०१॥ राजगृहपुराभ्यर्णा-ऽऽयातं वीरजिनेश्वरम् । नत्वा संसेव्य तत्पादौ, सफलोकृत्य जन्म च ॥२०२॥ क्रमेणायुःक्षये प्राप्त, आर्दो | महामुनिः शिवम् । जिनदर्शनमाहात्म्ये, प्रोक्तमाईनिदर्शनम् ॥२०३।। एवं भव्यैः सदा कार्य, जिनपूजनदर्शनम् । यतो बोधिमहालाभः, शुभो भवे भवे भवेत् ।। २०४॥ पुनश्चतुर्थषष्ठाष्ट-मादितपोऽत्र पर्वणि । कार्य सूर्ययशाभूप, इवावश्य Depeoporoscopeecamerae Deadevneloeroevedeoe For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir द्वादशपर्व कथा-संग्रह ॥८ ॥ DomeDomeReporn मुपासकैः ॥२०५॥ तथाहि-अयोध्यायां महापुर्यों, सूर्ययशा नृपोऽअनि । स च त्रिखण्डभूस्वामी, नीतिज्ञोऽखण्ड INपर्युषणाष्टाशासनः ॥२०६॥ इन्द्रदत्तशिरोरत्न (मुकुट )-प्रभावेण नृपोऽजनि । सुरसेव्यो जयश्रीस्तत् , पट्टराणी पतिव्रता ॥२०७॥ द्विका-कथा चतुष्पवर्वी विशेषेणा-ऽष्टमों चतुर्दशी नृपः । तपःपौषधाद्यैश्चा-राधयामास शक्तितः ॥२०८॥ जीवितादरवत्पा-दरोडस्त्यस्य च चेतसि । जीवितादपि तेनासौ, चतुष्पर्वाणि रक्षति ॥२०९॥ सौधर्मेन्द्रः सुधर्माख्य-सभासंस्थित एकदा । ज्ञानात्तनिश्चयं ज्ञात्वा, पाप महाचमत्कृति ॥२१०॥ तदा दृट्वोर्वशीदेव्य-कस्माच्छिरःप्रकम्पनम् । प्रोवाच साम्पतं स्वामिन् !, शिरःकम्पः कथं कृतः॥२११ ॥ तत्कारणं तु नैवात्र दृश्यतेऽय जगाद सः। ज्ञानान्मयाऽधुना पौत्रो, भरते ऋषभपभोः ॥२१२॥ भरतचक्रिणः पुत्रः, शूरः सूर्ययशा नृपः । अयोध्याधिपतिदृष्टः, सात्त्विकानां शिरोमणिः ॥२१३॥ युग्मम् ।। स चाष्टमी-चतुर्दश्योः , पर्वणस्तपसो नहि । चलति चाल्यमानोऽपि, कृतयत्नैः सुरैरपि ॥२१॥ निशम्यायोर्वशी शक्र-वचो विचार्य चेतसि । माह स्वामिनसि त्वं तु, युक्तायुक्तविचारकः ॥२१५॥ निश्चयं कि मनुष्येसु, श्लाघसे योऽनजीवकः । सप्तधातुकनिष्पन्न-देहो दुर्गन्धवासितः ॥२१६॥ स देवैरप्यचाल्योऽस्ति. कः श्रद्धातीति मत्कृतम् । गानं निशम्य केषां हि, यान्ति ! न विळयं गुणाः ॥२१७॥ गत्वा तत्र व्रतात्सयो, भ्रंशयिष्ये तमप्यहम् । विधायेति प्रतिज्ञा सा, रम्भया सममुवंशी ॥२१८॥ धारयन्ती स्वहस्तेन, वीणां दिवोऽवतीर्य च। अयोध्यानिकटोद्याने, चैत्ये श्रीऋषमपभोः ॥२१९ ॥ मोहोत्पादकं रम्यं च, रूपं विधाय गायति। तद्गानमोहिता जाता, सर्पमृगादयोऽपि च ॥२२०॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ निश्चलनयनास्तस्थुः, पाषाणघटिता इव । ते सर्वे प्राणिनस्तत्रै-वालेख्यलिखिता इव ॥२२१ ॥ इतः सूर्ययशा वाह-यित्वाऽश्वं वलितस्ततः। तयोर्मधुरगानस्य, ध्वनीन् शुश्राव तत्पथि ॥२२२॥ Documencememorn |H८०॥ For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ८१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तदाश्वेभभटा गन्तुं पुरो बभूवुरक्षमाः । तदाश्वर्य समालोक्या-मात्यं प्रति नृपोऽवदत् ॥ २२३ ॥ मन्त्रिन्नादसमः सौख्य-दायकोsन्यो न दृश्यते । यद्वशात्पशवोऽप्येते, जाता ईदृग्विमोहिताः || २२४ || वशीभवन्ति नादेन, भूपतिदेव - दानवाः । कामिन्याद्याश्च सर्वेऽपि मनुजाः पशवोऽपि च || २२५ || वयमपि ततश्चैत्ये, वन्दितुमृषभप्रभोः । यामस्तत्र गता एतद्-गीतकं शृणुमो वरम् ||२२६ ॥ इत्थमामन्त्र्य तद्गान - मोहितो भूपतिः समम् । मन्त्रिणा जिनचैत्यान्तर्गला चकार दर्शनम् ॥ २२७ ॥ स तत्र हस्तयोर्वीणां विभ्रत्यौ मधुरस्वरम् । गायन्त्यौ कामभार्येव, विलोक्य द्वे कुमारिके ||२२८|| स्नेहचक्षुर्विमुक्तैश्थ, विद्धः कामशरैर्नृपः । चिन्तयामास कस्येदं भार्याद्वयं भविष्यति ॥ २२९ ॥ युग्मम् ॥ ततो मुहुर्मुहुर्भूप-क्षुषी प्रक्षिपस्तयोः । प्रभुं प्रणम्य निःसृत्य, चैत्याद्वहिः समागताः ॥ २३०॥ तयोः कुलादिकं ज्ञातु. राज्ञाऽऽदिष्टश्च घीसखा । गत्वा पप्रच्छ हे कन्ये ! युवां के ? कः ? पतिर्द्वयोः ॥२३१॥ इहागमः ? किमर्थं हि चेति ताभ्यां तदाकथि । विद्याभृन्मणिचूडस्या-वां पुत्र्यौ स्वः कलारते ||२३२॥ युग्मम् || स्वतुल्यं पतिमावां चा-लभमाने पुरे पुरे । चैत्यानि वन्दमाने स्वं सफलं जन्म कुर्महे || २३३ || पुनर्नरभवः क्वेय-मयोध्याऽपि महापुरी । विद्यते तीर्थभूताऽऽदि - जिनकल्याणकत्वतः ॥ २३४ ॥ अतोऽत्रादिजिनं नन्तुं, चैत्ये भरतकारिते । अस्मदागमनं जातं, श्रुत्वेति घीसखाऽवदत् ॥ २३५॥ ऋषभस्वामिनः पौत्रो, भरतचक्रिणः सुतः । सौम्यः सर्वकलापूर्णो, बळवानस्ति सद्गुणो ॥ २३६ ॥ सार्द्धं सूर्ययशोराज्ञा, युवयोः सङ्गमोऽमुना । अस्तु श्रुत्वेत्यमात्यं ते, द्वे प्रोचतुश्च मायया ॥ २३७ ॥ स्वाधीनं पतिमावां हि, पतिमन्यं न कुर्वहे । ततोऽमात्यो नृपादेशा - ते कन्ये इत्यवोचत ||२३८ ॥ कुर्वाणो युवयोर्वाचमन्यथा भूपतिर्मया । वायैः श्रुत्वेति तत्रैव, भूपस्ते परिणिन्यतुः ॥ २३९ ॥ तयोः प्रीतिरसाकृष्ट-स्ताभ्यां समं च For Private and Personal Use Only पर्युषणाष्टाद्विका-कथा ॥ ८१ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व-IN कथा-संग्रह ॥ ८२॥ Docomopeecei00 भूपतिः । भुनानो विविधान् भोगान् , कालं निनाय सौख्यतः ॥ २४०॥ अथैकदा समं ताभ्यां, सन्ध्याक्षणे INपर्युषणाष्टागवाक्षके। राजा तस्थौ तदा श्वोऽस्ति, पर्वभूताअष्टमी तिथिः ॥२४१॥ तत्समाराधने भाव्य, सादरैः श्रावकैरिति । 16हिका-कथा पटहोद्घोषणां श्रुखा, रम्भा जगाद मायया ॥ २४२॥ प्रवाद्यते ? कथं भम्भा, स्वामिस्तदा नृपोऽवदत् । रम्भेऽस्माकं हि तातोक्तं, पर्वाष्टमी चतुर्दशी ॥२४३ ॥ अष्टाहिकायं चातुर्मासीत्रयं च वार्षिकम् । पर्युषणाभिधं | सन्ति, पर्वाणीहापराणि च ॥ २४४ ॥ एतेषु पर्वघस्रेषु, स्वर्गमोक्षसुखपदम् । पुण्यं कृतं भवेत्तस्मात् , कार्य कर्म शुभं जनैः ॥२४५॥ चतुष्पर्यों न कर्त्तव्यं, रागद्वेषकषायकम् । मात्सर्यस्त्रीसङ्गस्नाना-न्यहास्यकलहादिकम् ॥२४६।। कर्तव्या ममता नैव, प्रियेष्वपि धनादिषु । स्मरणादिशुमध्याने, स्थातव्यं परमेष्ठिनः ॥२४७॥ कर्तव्यं पौषधं सामायिकं षष्ठादिकं तपः । जिनपूजादिभिः पर्वा-राघनं च विधीयते ॥२४८॥ एतदाराधको जीवो-ऽर्जयति पुण्यपुद्गकम् । तद्भुक्त्वाऽशेषकर्माणि, सञ्चूर्य याति निर्वृत्तिम् ॥२४९॥ अतः कान्ते ! च सप्तम्यां, प्रयोदश्यां विधीयते । पटहोद्घोषणा कोक-प्रबोधाय ममाझया ॥ २५०॥ अयोर्वशी निशम्यवं, तनिश्चयचमत्कृता । जगौ मायाप्रपञ्चेन, मनुष्यत्वमिदं नृप ! ॥२५१॥ सर्व राज्यमिदं रूपं, वपुर्विडम्ब्यते ? कथम् । तपसा भुक्ष्व भोगास्त्वं, क ? पुनर्मानवो भवः ॥२५२॥ युग्मम् ॥ श्रुत्वेति भूपतिः माह, रे दुष्टे! धर्मनिन्दिके ।। दृश्यते नैव वाणी ते, विद्याधरकुलोचिता ॥२५३॥ तेऽधमे ! सर्वचातुर्य, विग्धिापं कुलं वयः। येन त्वं जिनपूजादि-धर्मकृत्यानि निन्दसि ॥२५४॥ पुनर्नरत्वसपा-रोग्यराज्यरमादिकम् । तपसा प्राप्यते तत्को, नाराधयेद्विशारदः ॥२५५॥ धर्माराधनतो देह-विडम्बनं भवेनहि ! ॥ २ ॥ विषयैस्तु विना धर्म, विडम्बनं हि केवळम् ॥२५६॥ तस्माद्धर्मो विधातव्यः, पुनः क्व ? मानवो भवः । व्रतधियो Copcornerconocence For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ८३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मृगाद्या ना - हारं गृह्णन्ति पर्वसु ॥ २५७ ॥ तदाऽहं तत्कथं लामि ?, ये सर्वधर्मकारणम् । न पर्वाराधनं कुर्युस्तेषां ज्ञात्वमस्तु धिक् ॥ २५८ ॥ श्रीयुगादिजिनादिष्टं, पर्व चास्तीदमुत्तमम् । प्राणान्ते न कुर्वेऽहं पर्व वृथा तपो विना ॥ २५९ ॥ राज्यं प्रयातु मे प्राणाः, समग्रमपि वैभवम् । नाहं पर्वतपोभ्रष्टो भवामि कर्हिचित्प्रिये ! ॥ २६० ॥ इत्थं क्रोधाकुलं भ्रूपं ज्ञात्वोर्वशी प्रकुर्वती । मोहमायामवक् स्वामिन् !, कायक्लेशो भवेन्न वः ।। २६१ ॥ इति प्रेमरसादेव, प्रोक्तमेतद्वचो मया । तस्मात्क्रोषक्षणो नैवा - त्रास्ति कुरु क्षमां मयि ।। २६२ ।। आवाभ्यां पितृवाक्येन, विमुखीभ्यां नरेश्वरः । वृतः स्वच्छन्दचारी च पराधीनतया नहि ॥ २६३ ॥ प्राक्कर्मपरिपाकाचं, साम्प्रतं च वृतो वरः । तेनावयोर्गतं शीलं सर्व सांसारिकं सुखम् ॥ २६४॥ यदि स्वाधीनपुंस्त्रीणां योगो भवेत्तदा सुखम् | नो चेद्विडम्बन रात्रि - दिवसयोगवत्खलु ॥२६५॥ पुरा नामेयचैत्ये मद्वाक्यमङ्गीकृतं त्वया । अधुना त्वत्परीक्षायै त्वत्तो याचितवत्यइम् || २६६ || त्वन्तु स्वल्पेन कार्येण, महाक्रोधवशङ्गतः । शीलसुखोभयेनाई, प्रभ्रष्टा त्वत्प्रसङ्गतः ॥ २६७ ॥ प्रवेशनं चितायां हि, शरणमस्तु मेऽधुना । श्रुत्वेति तद्वचो भूपो ऽवदत्तद्वचनं स्मरन् ॥ २६८ ॥ यत्मोक्तं ताततातेन, तातेनाचरितं च यत् । कथं तत्तनुजो भूत्वा नाशं करोमि ? पर्वणः ॥ २६९ ॥ त्वं लाहि मे समग्रद्धि, पृथ्वीं कोशं गजादिकम् । परं येन सुखं नैव धर्मो नैव भवेत्पुनः ॥ २७० ॥ कारय तदकृत्यं मा त्वं मत्तोऽय विहस्य सा । जगौ सत्यवचः स्वामिन् !, भवादृशा वदन्ति हि || २७१ ॥ युग्मम् ॥ यतः पापेन येनाङ्गी - कृतवचो न पालितः । सोऽशुचिस्तस्य भारेण, भूमिरप्यतिसीदति ॥ २७२ ॥ स्वामिंस्त्वत्तो यदा कार्य - मिदमपि न सिद्ध्यति । तदा सेत्स्यति ? राज्यादि-दायकत्वं कथं खलु ॥ २७३ ॥ पितुर्विद्याधरैश्वर्यं त्यक्तं त्वद्धेतवे मया । किं कुर्वेऽहं भवद्राज्य-सत्क महाविभू For Private and Personal Use Only पर्युषणाष्टाहिका कथा ॥ ८३ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व ८४॥ INतिभिः ॥२७४॥ यदि सं पर्वभङ्ग न, कर्ताऽसि तर्हि मत्पुरः । श्रीयुगादीशपासाद, पातय चक्रिकारितम् ॥ २७५ ॥ पर्युषणाष्टाकथा-संग्रह तद्वाक्यश्रवणेनैव, वजाहत इवावनौ। पपात मूच्छितो भूत्वा, भूपतिर्गतचेतनः ॥२७६॥ सद्यः शीतलनीरादि-सेकाद् IN/द्विका-कथा भूपः सचेतनः। परिजनैः कृतोऽथोचे, रम्भा स्वसम्मुखस्थिताम् ।.२७७॥ रेऽधमेयं तवाचारो, वाण्याऽऽविष्कुरुतेऽनया । | स्वकुलाधमतां त्वं हि, विद्याधरसुताऽसि न ॥२७८॥ किन्तु चाण्डालपुत्री यो, देवस्खलोक्यवन्दितः। लोकेशः कोऽपि तश्चैत्य-भङ्गकारः कथं भवेत् ? ॥२७९ ॥ तस्मादे खि ! स्वयं वद्धं, स्ववचसाऽनृणं हि माम् । कर्तुमन्यच्च याचस्त्र, धर्मलोपं विनाखिलम् ॥ २८०॥ चैत्यस्य पर्वणो नाशं, सर्वथाऽहं करोमि न। श्रुत्वेति साऽप्युवाचान्य-दन्यदिति प्रभाषतः ॥ २८१ ॥ ते वचो दूरतो याति, नेदं स्वीकुरुषे यदि । तर्हि त्वं देहि मह्यं च, छिच्चा सुतशिरः स्वयम् ॥२८२॥ युग्मम् ॥ विमृश्याथ नृपोऽवादीत् , सुलोचने! सुतो मम। मत्तोऽभवत्ततो हस्त-तले तेऽस्तु शिरो मम ॥२८३॥ इत्युक्त्वा भूपतिईस्ते, खङ्गं लाखा निजं शिरः। छेत्तुं यावद्विलनस्त-दारां तावद्धबन्ध सा ॥२८४॥ न पुन| स्तस्य सचस्य, ततो धाराप्रवन्धनात् । विलक्षो भूपतिः खङ्गं, नवं नवं कलौ पुनः॥२८५॥ यदाऽसौ सवतो नेवाचाळीत्ततश्च ते स्त्रियौ । स्वरूपं प्रकटीकृत्य, सादरमिदमृचतुः ॥२८६॥ जय त्वं वृषभस्वामि-कुळसागरचन्द्रमाः। जय सत्त्ववतां धुर्य !, जय चक्रीशनन्दन ! ॥ २८७ ॥ अहो !! धैर्यमहो !! सत्त्वं, तेऽहो !! मानसनिश्चयः। स्वविनाशेऽपि यत्यक्तं, येन न स्वव्रतं मनाक् ॥२८८॥ देवेन्द्रः स्वसभायां हि, देवपुरस्तवातुलम् । राजन् ! विशेषतः सचं, प्रशशंस यथातथम् ॥ २८९ ॥ आवाभ्यामश्रद्धन्तीभ्या-मागत्यात्र स्वनिश्चयात् । खं क्षोभयितुमारब्धः, परन्तु कोऽपि न क्षमः | |८४ ॥ | ॥२९०॥ त्वयैव वसुधा चेयं, रत्नमूरिति सत्यकम् । नाम धारयतीत्थं तत् , स्तुति यावत्करोति सा ॥२९१॥ तावत्त CCCCCCCCORPOR Donormezoooooooo For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व पर्युषणाष्टाद्विका-कथा कथा-संग्रह ॥८५.IN DecRCORPORARomveerpcareerocccve त्रागमच्छक्रो, जयजय समुच्चरन् । पुष्पवृष्टि चकारोच्चैः सूर्ययशोनृपोपरि ॥२९२॥ प्रतिज्ञयोर्वशी भ्रष्टा, सोपहासं निरीक्षिता। इन्द्रेणाथ मुदा भूप-गुणान्यगादि तत्पुरः ॥२९३ ॥ मुकुटं कुण्डलं हार-मङ्गदादिविभूषणम् । तस्मै शक्रोऽपि दत्वाऽथ, ताभ्यां समं तिरोदधे ॥२९४॥ अथ सूर्ययशाः सत्य-प्रतिज्ञश्च पहर्षितः। पृथिवीं पालयामास, सन्नीत्या धर्ममर्मवित् ॥२९५॥ स भरतेशवत्पृथ्वीं, जिनमन्दिरमण्डिताम् । कुर्वन् पवित्रयञ्जन्म, श्रीतीर्थसङ्घयात्रया ॥ २९६ ॥ सम्पूजयन् युगादीशं, नित्यं पर्वचतुष्टयम् । आराधयश्च सुश्राद्धान् , भोजयामास समनि ॥२९७। युग्मम् ॥ काङ्किणीरत्नरेखाभिः, श्रावका अङ्किताः पुरा । ततो हेमोपवीतेन, तेऽश्चितास्तेन चक्रिरे ॥२९८॥ उदारचरितास्तस्य, कुमारा बहवोऽभवन् । ऋषमस्वामिनश्चेवा-कुवंशो ववृते यथा ॥२९९॥ सूर्यवंशस्तथा सूर्य-यशोभूपस्य चाजनि । अथैकदा नृपः पश्यन् , पितृवदर्पणे मुखम् ॥३००॥ संसारासारतां ध्यायन् , केवलज्ञानदर्शनम् । प्राप संस्थाप्य सन्मार्गे, भव्यजन्तून् शिवं ययौ ॥३०१॥ इत्थं भव्यात्मभिश्वास्मिन् , धर्मकर्माणि पर्वणि । विधाय तत्समाराध्यं, पर्वोत्तमं त्रिभुद्वितः ॥३०२॥ येन सर्वेष्टसिद्धिः स्या-दिह परत्र संमृतौ । गच्छन्ति शाश्वतस्थान, निष्कर्मीभूय जन्तवः ॥३०३ ॥ ग्रन्थकृत्प्रशस्ति :खरतरगणे चासन् , वीरपरम्परागताः। जिनमहेन्द्रसूरीशाः, सर्वसिद्धान्तपारगाः ॥३०४॥ तद्धस्तदीक्षिताः श्रेष्ठाः, श्रीमोहनमुनीश्वराः। तेषां जिनयशसूरी-श्वराः शिष्या निराश्रवाः ॥३०५॥ श्री राजमुनयः शिष्या, अन्या ज्ञानक्रियान्विताः। तेषां शिष्या महापाज्ञाः, श्रीजिनरत्नसूरयः ॥ ३०६॥ समाग्रहाद् गणिप्रेम-मुनेः पाठकलब्धिना। DeparedeocaceeDomesterone For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ८६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मया न्यगादि माहात्म्यं, श्रीपर्युषण पर्वणः ॥३०७॥ संवद्वाणखशून्याक्षि (२००५) - वत्सरे ज्येष्ठमेचके । एकादश्यां समाप्तं तचाजयमेरु दुर्गके ॥ ३०८ ॥ ॥ इति पर्युषणाष्टाह्निका - व्याख्यानं समाप्तम् ॥ ( १२ ) अथ दीपमालिका - पर्व - माहात्म्यम् । महावीरं जिनं नखा, तीर्थेश्वरं जगद्गुरुम् । श्री दीपमालिकापर्व - माहात्म्यं कथ्यते मया ॥१॥ अस्मिँश्च भरतक्षेत्रे, मध्यखण्डे हि माळवे । आसीदुज्जयिनीपुर्यो, सम्मति - नाम - भूपतिः ||२|| तत्रान्यदा श्रुताधाराः पूज्याः सुहस्तिसूरयः । जीवितस्वामिनं वीर - जिनं वन्दितुमागताः ॥ ३ ॥ तस्मिन्नवसरे राज-मार्गे यान्तं सुहस्तिनम् । सूरीश्वरं गवाक्षस्यो, दृष्ट्वा सम्प्रतिभूपतिः ॥ ४ ॥ जातिस्मरणभागू जात - स्तत उत्तीर्य भक्तितः । गत्वा प्रणम्य चावादीत्, कृत्वाऽअकिं गुरुं प्रति ॥ ५ ॥ युग्मम् ॥ स्वामिन् ! जानीथ ? मामेवं पृष्टेऽवदद्गुरुर्नृप । भवन्तं को न जानाति ?, जनख्यातं जनोत्तमम् ||६|| ततो राजाऽवदत्पूज्य !, विशेषेणोपलक्षितः ? । अहं न वेति पृच्छामि, भवन्तमुपकारिणम् ॥ ७ ॥ ततः श्रुतोपयोगेन, ज्ञात्वोचुः सूरयो नृप । त्वमभवश्च मच्छिष्यो, भवे पूर्व दिनावधि ||८|| दीक्षाप्रभावतो राजा, भवाञ्जात इहेदृशी । सम्पत्माप्ता त्वया सोऽथ, प्रहर्षितोऽवदद्गुरुम् ॥९॥ बुभुक्षितेन रहेन, मया 1 For Private and Personal Use Only दीपमालिका पर्व- कथा ॥ ८६ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ८७॥ Peoporoscopeecretroo भवत्मसादतः । प्राप्त राज्यमिदं प्राज्य-मन्यथैतत्कुतो ! मम ॥१०॥ तस्माद्राज्यमिदं ग्राह्यं, भवद्भिः स्यामहं पुनः । IN दीपमालिका अनृणीति समाकर्ण्य, गुरुजंगाद सादरम् ॥११॥ राजन् ! राज्यस्य नास्तीच्छा-ऽस्माकं वयं तु निःस्पृहाः। देहेऽपि किं पर्व-कथा पुना राज्ये, वक्तव्य ? निष्परिग्रहाः ॥१२॥ वस्मात्किमपि राज्येन, सहास्माकं प्रयोजनम् । नास्ति राजन् ! भवत्पुण्यात् , प्राप्तं राज्यमिदं तव ॥१२॥ ततो राजन् ! सदा पुण्ये, कर्त्तव्य उद्यमस्त्वया । पाळनीयं ससम्यक्त्वं, निर्मलं द्वादशव्रतम् ॥१४॥ राजन् ! जिनाचैना सेवां साधूनां यमिनां कुरु । अष्टमातृभृतां शुद्ध-निर्दोषाहारकारिणः ॥१५॥ दानशीलतपोभाव-धर्ममाराधयानिशम् । एष धर्मः कृतः पर्व-दिनेष्वपूर्वलाभदः ॥१६॥ निशम्येति गुरोर्वाक्यं, नृपः प्रोवाच सद्गुरो!। पर्युषणादिपर्वाणि, ख्यातानि सन्ति शासने ॥१७॥ श्रीदीपमालिकापर्व, कुतः प्रवृत्तमत्र च । जनाः कुर्वन्ति वर्षस्य, समाप्ति लक्ष्मीपूजनम् ॥१८॥ तथा शक्त्यनुसारेण, शुद्धवस्त्रविभूषणम् । धारयन्ति च कुर्वन्ति, सुन्दरभोजनादिकम् ॥१९॥ पुनः कुर्वन्ति धौरेय-शृङ्गादिरअनक्रियाम् । स्वगृहाङ्गणभित्त्यादि-लिम्पन-धोलनादिकम् ॥२०॥ तस्य किं कारणं? राज्ञे-ति पृष्टे प्राह सद्गुरुः । राजन्नेतस्य सम्बन्ध, सावधानतया शृणु ॥२१॥ दशमस्वर्गतश्च्युत्वा, श्रीमद्वीरजिनेश्वरः। आषाढ-शुक्लषष्ठयां च, देवानन्दोदरेऽजनि ।।२२।। शक्राऽऽज्ञयाऽय देवेन, हर्यादिनैगमेषिणा । स्वश्रेयोऽर्थ प्रयोदश्या-माश्विनमेचके निशि ॥२३॥ देवानन्दोदराल्लाखा, संहृतस्त्रिशलोदरे । चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां, जन्माभूत् त्रिजग * यथा पञ्चमहाव्रतोक्तौ षष्ठस्य रात्रिभोजनविरमणव्रतस्य जायमानेऽप्याद्ये व्रतेऽन्तर्भावेऽपेक्षया पृथगुपादानमदुष्ट, कल्याणकपञ्चकेऽपि च्यवन-गर्भ-गर्भाधाना-चतरणादि-विभिन्न नामवाच्ये प्रथमे कल्याणकेऽन्तर्भावत्वात्पश्चाशके सत्यपि पञ्चकल्याणकोक्तो आगमे सर्वत्र “पंचहत्युत्तरे होत्था, xx साइणा परिनिव्वुए भयवं" इत्यादि शास्त्रपाठोपलम्भाद्वयोरपि मातृ CaesareezPCSRepeecene सहतस्त्रिशलोदरेपन, हर्यादिनगवतश्च्युत्वा, For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व-IN कथा-संग्रह दीपमालिका | पर्व-कथा 200ccccinePECREEmercscared द्विभोः ॥२४॥ युग्मम् ।। मार्गशीर्षासिते पक्षे, दशम्यामनगारिताम् । प्रतिपन्नश्च निस्सङ्गो, भूवैकाक्येव तीर्थकृत् ॥२५॥ राधशुक्लदशम्यां च, केवलज्ञानदर्शनम् । वीरप्रभोः समुत्पन्न, लोकालोकपकाशकम् ॥२६॥ कार्तिकामावसीरात्रौ, पापापुर्यां शिवं ययौ। महावीरप्रभुः सर्व-दुःखौघान्तकरोजनि ॥ २७ ॥ अथान्तिमचतुर्मास्यां, स्वायुषोऽन्तमवेत्य च । पोडशप्रहरान् याव-देशनां दत्तवान् प्रभुः ॥२८॥ तस्मिन्नवसरे पुण्य-पाळराजा समागतः । वन्दिखा भगवन्तं तं, कृखाऽ अलिं स पृष्टवान् ॥२९॥ अद्य स्वामिन् ! मया दृष्टा, अष्टौ स्वप्ना इमे निशि । तथाहि जीणंशालायां, स्थितो दृष्टो | गजो मया ॥३०॥ कपिश्चपलतां कुर्वन् , दृष्टो हि क्षीरपादपः । व्याप्तश्च कण्टकैदष्टः, काकश्चतुर्थके मया ॥३१॥ मृतः सिंहो भयं कुर्वन् , दृष्टोऽशुचौ कर्ज भुवि । उत्पन्नं दृष्टवान् बीज-मुप्तं च क्षेत्र ऊपरे ॥३२॥ सुवर्णकलशो म्लानो, दृष्टो किं ? तत्फलं प्रभो ! । स्वामी प्राह फलं तेषां, राजन् शृणु यथाक्रमम् ॥३३॥ अतः परं भविष्यन्ति, दुःखदे पञ्चमारके । एते निरूप्यमानाच, भावाः कालप्रभावतः ॥३४॥ दुःखार्तिशोकदारिद्र-रोगभयादिसङ्कुले । जीर्णशाळाकुक्षावागमनक्षणे कल्याणश्रेयस्सूचकानां, न बश्रेयोऽकल्याणसूचकानां स्वप्नानां मातृद्वयेनापि दर्शनात् , द्वयोरपि मातृकुक्ष्यागमनयोर्गर्भाधानत्वेनैवाभ्युपगमार्हत्वाञ्च गर्भापहारस्यापि कल्याणकत्वाभ्युपगमनमदुष्टमेव । आश्चर्यत्वात्कथं कल्याणकत्वमेतस्येति चेद्यथाऽष्टाधिकशतसिद्धिगमनस्य, स्त्रीतीर्थङ्करस्य, देवानन्दोदरावतरणस्य वा विद्यमानेऽप्याश्चर्यत्वे कल्याणकत्वाभ्युपगमनमविरुद्धं तथैवात्र गर्भापहारेऽप्याश्चर्यत्वेनाबाधकत्वं कल्याणकत्वस्य । “पंच उत्तरासाढे, अभीइ छटे होत्था" इति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रोक्तस्यर्षभराज्याभिषेकस्याप्यस्तु कल्याणकत्वमिति चेन्न, राज्याभिषेके "कल्लाणफला य जीवाण" मित्येतत्पश्चाशकोक्तकल्याणकलक्षणस्याघटमानत्वादित्यलम्प्रसङ्गेन । omeoneCERCIRCTEReapes ॥८८॥ For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ८९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समे गृह्या श्रमे स्थितो गृही गजः ||३५|| दुःखितोऽपि सुखं मत्वा, रक्तः स्थास्यति सद्मनि । परं स सुखदं श्रेष्ठं, नाङ्गीकरिष्यति व्रतम् ॥३६॥ कपिवच्चपला जीवा, ज्ञानक्रियास्वनादराः । निर्बलाः शिथिलाचारा, भविष्यन्त्यपि साधवः ||३७|| दृढव्रतधरा ये च दास्यन्ति धर्मकर्मणि । शिक्षां येभ्यः करिष्यन्ति ते तेषां दास्यखिंसना ॥ ३८ ॥ यथा ग्राम्यजनाः पौर-जनानां हास्यहेळनाम् । कुर्वन्ति ते करिष्यन्ति तथा ज्ञानक्रियावताम् ||३९|| चारित्ररागिणो जैनशासनोद्योतकारिणः । सद्गुणशालिनः सप्त-क्षेत्रेषु व्ययकारिणः ||४०|| अणुव्रतादिधर्त्तारो, भद्रिकाः समभाविनः । भक्तिमन्तश्च ये क्षीर-वृक्षसमा उपासकाः ॥४१॥ ता वेषधराः साधु-द्वेषिणश्चाभिमानिनः । कण्टकसदृशा धर्मे, रोधयिष्यन्ति लिङ्गिनः || ४२ || त्रिभिर्विशेषकम् || पेयनिर्मळनीरेण भृतायां वायसो यथा । वाप्यां करोति रागं न, किन्तु दुर्गन्धिके जले ||४३|| एवं ज्ञानक्रियायुक्ता - नपि साधून्निजे गणे । दृष्ट्वाऽपि न करिष्यन्ति रागं शिथिळसाधवः ॥ ४४ ॥ मन्दाचारा गणे यस्मिँ - स्तत्र यास्यन्ति सुन्दरम् । विहाय स्वगणं शुद्ध-क्रियं पण्डितमानिनः ॥ ४५ ॥ हीनं ज्ञानेन लोकेऽस्मिन्नवध्याद्यतिशायिनः । मृतसिंहसमं जैन- दर्शनं परतीर्थिकात् ॥ ४६ ॥ प्राप्स्यति न तिरस्कारं परं तेषां करिष्यति । भयं स्वलिङ्गिनां कीट- समानां नेति पञ्चमम् ॥ ४७ ॥ युग्मम् । पद्महृदे भवेत्पद्मोत्पत्तिर्नाशुचि भूतले । एवं धर्मसमुत्पत्तिः, श्रेष्ठकुले न चापरे ॥ ४८ ॥ परं काळप्रभावेण धर्मोत्पत्तिर्भविष्यति । न क्षत्रियकुले किन्तु, केवलं विकुले ॥ ४९ ॥ मन्दबुद्धिर्यथा कश्चित्, कृषिकारक ऊपरे । क्षेत्रे वपति धान्यानां, बीजानि च निजेच्छया ॥ ५० ॥ तथा मूर्खाश्च धीमन्तः पुमांसः पात्रबुद्धितः । दानं दास्यन्ति सत्पात्रा - पात्राद्यनवलोक्य च ॥५१॥ स्वर्णकुम्भसमा ज्ञान- क्रियादिगुणसंयुताः । मूलोत्तरगुणाधारा, वैराग्याञ्चितमानसाः ॥ ५२ ॥ स्तोका एव भविष्यन्ति, For Private and Personal Use Only DOR दीपमालिका पर्व- कथा ॥ ८९ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह DCORDCORRECAPoraem साधवः समभाविनः। कोऽपि प्रभावनापूजा, तेषां च न करिष्यति ॥५३॥ युग्मम् ॥ बाह्याडम्बरवन्तो ये, ज्ञानक्रि-IN 10 दीपमालिका याद्यनादराः। साधाभासा गुणैर्हीनाः, पूजयिष्यन्ति ताञ्जनाः ॥५४॥ गीतार्थाः साधवो हीना-चारिभिर्मिलिताः | पर्व-कथा समम् । चलिष्यति यथा दृष्ट्वा, प्रभूतान् ग्रथिलाञ्जनान् ॥५५॥ सजना अपि जानन्त-स्तन्मध्ये मिलिताः स्वयम् । | आत्मजीवितरक्षार्थ, साता ग्रथिळास्तथा ॥५६॥ तत्कथा तु नृप पूर्ण-भद्राख्यः पृथिवीपुरे। सुबुद्धि(सखा तस्य, धीधनश्चतुरोऽभवत् ॥ ५७॥ एकदा लोकदेवाख्यो, नैमित्ती राजसंसदि । समागतस्तदा मन्त्री, नैमित्तिकं जगाद च ॥५८॥ काचिदागामिकालस्य, शुभाशुभकथोच्यताम् । स्वनिमित्तबलात्तेन, प्रोक्तं मन्त्रिन् ! वचः शृणु ॥५९॥ इतो दिनाद्गते मासे, मेघवृष्टिभविष्यति । ग्रथिळास्तज्जलपानेन, भविष्यन्त्यखिला जना ॥६०॥ कियत्यथ गते काले, शुभा दृष्टिभविष्यति । सावधाना भविष्यन्ति, तज्जळपानतो जना ॥६१॥ तस्येदृशं वचः श्रुत्वा, नृपेणाऽकारि घोषणा। पुरमध्येऽखिलौकः, कर्तव्यो जलसङ्ग्रहः ॥६२॥ तन्निशम्याखिलोंकः, पानीयसङ्ग्रहः कृतः । जाता वर्षा तदा पीतं, न जनैरपि तज्जलम् ॥६॥ कियत्यथ गते काले, सङ्गृहीतं जलं यदा। निष्ठितं तज्जलं पीतं, तदा जनैरनुक्रमात् ॥६४॥ नृपामात्यो विना सर्वे, यषिला अभवअनाः। नग्नीभूय प्रनृत्यन्ति, प्रगायन्ति हसन्ति च ॥६५॥ परस्परं कुचेष्टन्ते-ऽथालोक्य भूपमन्त्रिणौ। तच्चेष्टारहितौ लोका, विचारयन्ति तेऽखिलाः ॥६६॥ ग्रथिळौ च नृपामात्यौ, सातावत एव न । कुर्वन्ति कार्यमस्माकं, समुत्थाप्याविमावतः ॥६७॥ स्थापनीयौ नृपामात्यौ, नूतनावित्यवेत्य च । निजात्मराज्यरक्षार्थ, तौ जातौ ग्रथिलौ ततः ॥ ६८॥ कियत्यथ गते काले, सुवृष्टिरभवत्ततः। सावधाना 6 ॥ ९० ॥ जनाः सर्वे, जातास्तज्जलपानतः ॥ ६९॥ एवं दुषमकाले च, सम्यग्ज्ञान-क्रियाधराः। गीतार्या अपि वैराग्य-निर्वे For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व कथा-संग्रह PCORDC ECERCORRECAREERREDEEMORCom दगुणसंयुताः ॥७०॥ विचरिष्यन्ति सम्मिल्या-चारहीनः स्वलिङ्गिभिः। सममेतादृशं स्वप्न-फलं श्रुत्वा प्रभोर्मुखात् ॥७२॥ उद्विग्नो गृहवासेन, पुण्यपालो नृपस्ततः । दीक्षां लात्वा प्रभोः पार्श्व, नष्टकर्मा शिवं ययौ ॥७२॥ एवं हि दीपमालिका || पर्व-कथा | दृष्टवाँश्चन्द्र-गुप्तराजा च षोडश । स्वमस्तित्फलं पाह, भद्रबाहुश्च तद्यथा ॥ ७३ ॥ अन्यदा चन्द्रगुप्ताख्य-भूपो ददर्श | षोडश । स्वप्नांश्चतुर्दशीरात्रौ गृहीतपौषव्रतः ॥ ७४ ॥ तदानी पाटलीपुत्र-नगरमागतः क्रमात् । श्रीभद्रबाहुसूरीशः, पश्चम-श्रुतकेवळी ॥७५॥ गुर्वागमनमाकर्ण्य, चन्द्रगुप्तो नृपोऽपि च । तत्र गत्वा गुरुं नत्वा, शुश्राव धर्मदेशनाम् ॥७६॥ देशनान्ते नृपोऽपृच्छ-द्भगवन् ! पौषधस्थितः। ददर्श षोडशस्वप्ना-निशायामद्य तद्यथा ॥ ७७॥ | भग्ना कल्पद्रशाखाऽऽये, द्वितीयेऽस्तमितो रविः । अकालेऽय शतच्छिद्री-भूतो विधुस्तृतीयके ॥ ७८ ॥ नृत्यन्ति तुर्यके भूताः, पञ्चमे कृष्णसर्पकः । द्वादशफणभृत्षष्ठे, विमानं पतितं भुवि ॥७९॥ सप्तमेऽथाशुचिस्थाने, कमलं जातमष्टमे । खद्योतः पुनरुद्योतं, प्रकरोति मुहुमुहुः ॥८॥ नवमे च मया दृष्टं, शुष्कं महासरोवरम् । लभते दक्षिणाशायां, तत्र |D स्तोकतरं जलम् ।।८२॥ दशमे कुर्कुरः स्वर्ण-स्थाले पिबति पायप्तम् । एकादशे गजारूढो, दृष्टो हि वानरो मया ॥४२॥ द्वादशे सागरो मेरां, मुञ्चत्यथ त्रयोदशे । स्वप्ने संयोजिता वत्सा, दृष्टा महारथे मया ॥ ८३ ।। दृष्टं रत्नं महामूल्यं, तेजोहीनं चतुर्दशे । पञ्चदशे वृषारूढो, दृष्टो राजसुतः पुनः ॥८४॥ पोडशे च प्रयुद्धयन्ती, द्वौ हस्तिकलभी मया । दृष्टाविति च हे पूज्या !, एषां फलं निरूप्यताम् ॥८५॥ पाहुः श्रीगुरवो राजन् !, शाखा भना विलोकिता। कल्पद्रोः कोऽप्यतो भूपः, प्रव्रज्यां नैव लास्यति ॥८६॥ अकालेऽस्तङ्गतः सूर्यो, दृष्टस्त्वया च तत्फलम् । दुष्षमे केवलज्ञानं, कालेऽ- | स्मिन्न भविष्यति ॥८७॥ तृतीयेऽय शतच्छिद्र-श्चन्द्रो दृष्टस्खया नृप । वेन धर्म भविष्यन्ति, मार्गा अनेकशः पुनः emcaepdesocomoperpenepal ॥ ९ For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व कथा-संग्रह ॥ २२॥ जनधर्मों भविष्यति ॥८८॥ तुय भूताश्च नृत्यन्तो, दृष्टास्ततश्च भूतवत् । कुमतयो हि नय॑न्ति, सिद्धान्तवाक्यलोपिन: ॥८९॥ द्वादशफण- INमालिका भृत्कृष्ण-सर्पो दृष्टश्च पञ्चमे । तेन द्वादशवर्षाणि, दुर्भिक्षश्च भविष्यति ॥१०॥ सूत्राणि कानिचिन्नाशं, यास्यन्ति भिक्षवः | पर्व-कथा पुनः। भविष्यन्ति सदा चैत्य-मठगृहनिवासिनः॥९१ ॥ तत्र ये साधुधर्माभि-काक्षिणस्तेऽखिला दिशि । दक्षिणस्यां प्रयास्यन्ति, वल्लभीनगरादिषु ॥९२॥ विमानं पतितं दृष्ट, षष्ठे तेन च साधवः। नवाऽत्रागमिष्यन्ति, जङ्घाविद्यादिचारणाः ॥९३॥ सप्तमेऽशुचिभूमौ च, दृष्टं कमलमुद्गतम् । तेन वणिग्जने स्वल्पे. जैनधर्मों भविष्यति ॥९४॥ दृष्टः खद्योत उयोत-करस्तेन भविष्यति । नोदयमानसत्कारा-दरो धर्मे जिनोदिते ॥९५॥ शुष्कं सरोवरं दृष्टं, नवमे तेन धार्मिके । जिनकल्याणकस्थाने, धर्महानिर्भविष्यति ॥९६॥ दशमे भक्षयन् क्षीरं, स्वर्णपात्रे च कुर्कुरः। दृष्टस्तेनोत्तमा लक्ष्मी-र्यास्यति मध्यमालये ॥९७॥ एकादशे गजारूढः, कपिदृष्टस्ततः खलाः । भविष्यन्ति सुखारूढा, दुःखिता सुकुला: पुनः ॥९८॥ द्वादशे सागरो मेरां, त्यजन् दृष्टस्ततो नृपाः। अन्यायिनो भविष्यन्ति, पयोत्तीर्णाश्च क्षत्रियाः ॥१९॥ वत्सा महारथे युक्ता, दृष्टास्त्रयोदशे ततः । वत्ससमा भविष्यन्ति, लघुवया हि साधवः ॥१००॥ गृहीष्यन्ति न चारित्रं, वृद्धत्वेऽपि जनाः पुनः । ये दीक्षिता भविष्यन्ति, प्रौढवैराग्यभाविताः ॥१०॥ तन्मध्याच्छिथिलाचाराः, केऽपि महा| प्रमादिनः । केऽपि केऽपि भविष्यन्ति, गृहभाजो स्मरार्दिताः ॥१०२॥ दृष्ट महाय॑कं रत्नं, तेजोहीनं चतुर्दशे । तेना त्र श्रमणाः स्तोका, भविष्यन्त्यममादिनः ॥१०॥ बहवोऽत्र भविष्यन्ति, साधवः क्लेशकारिणः । असमाधिकराः क्षुद्रा, उपद्रवकरा मियः ॥ १०४॥ पञ्चदशे वृषारूढो, दृष्टो राजसुतस्ततः । क्षत्रियाद्या भविष्यन्ति, लोका मिथ्यावासिनः ॥ ९२॥ ॥१०५॥ दृष्टौ गजाभको युद्धं, कुर्वन्तौ पोडशे ततः। गुर्वभक्ता भविष्यन्ति स्तोकस्नेहाश्च साधवः ॥१०६॥ चन्द्रगुप्त । धर्महानिर्भविष्यतिरी धर्मे जिनोलि ZenPowereCT28CCCORRCae Deeperseenewedeoe For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir नृपस्तेषां, फलं श्रुखा गुरोर्मुखात् । विहितानशनः पान्ते, स्वर्ग ययौ समाधिना ॥१०७॥ महाभारतशास्त्रादौ संवादरूपद्वादशपर्वकीर्तितम् । कलियुगस्वरूपं ही-त्थं प्रवदन्ति लौकिकाः ॥१०८॥ युधिष्ठिरोज्यदाऽरण्यं, गतो वृद्धां च तत्र माम् । I दीपमालिका कथा-संग्रह पर्व-कथा लघुगोस्तनपानं च, प्रकुर्वाणां स दृष्टवान् ॥१०९॥ स्वपार्श्वस्थो द्विजः पाह. राजन्नेतत्फलं शृणु । कलियुगे भविष्यन्ति, ॥ ९३ .IN हीनसत्त्वा जना भृशम् ॥११०॥ भरिष्यन्ति विना लक्ष्मी, दुःखार्ताः सुखलालसाः। स्वसुतां धनिनो दत्वा, धनं कात्वा निजोदरम् ॥१११॥ श्रुत्येति चलितो भूपो-ऽग्रेद्राक्षीत्सजळानि हि। समश्रेणिनिबद्धानि, त्रीणि सरोवराणि |च ॥११२॥ तत्राद्यसरसो नीर-मुच्छलन्मध्यमं सरः। त्यक्ता पतति रेऽपि, तृतीये च सरोवरे ॥११॥ न पतति द्वितीये तु, बिन्दुमात्रं जलं ततः। द्विजोऽवदत्फलं तेषां, शृणु तत्कारणं नृप ! ॥११४॥ यथाऽऽद्यसरसो नीरं, त्यक्त्वा द्वितीयकं सरः। प्रपतत्येकधारेण, तृतीये च सरोवरे ॥११५॥ तथाऽऽगामिक्षणे त्यक्ता, स्वस्थ सम्बन्धिनो जनान् । अन्यजनैः समं प्रीति, करिष्यन्ति जना नृप! ॥११६॥ अग्रे गच्छन्नृपोद्राक्षीत् , क्लिन्नां जलेन वालुकाम् । बहवो मनुजास्तस्या, रज्जूः कुर्वन्ति यत्नतः ॥११७॥ परं त्रुटति सा रज्जू-न तिष्ठति तदाऽवदत् । द्विजः कलियुगे राजन् !, महाक्लेशैश्च कर्षकाः ॥११८॥ धनमुपार्जयिष्यन्ति, राजचौरादिभीतितः। अन्यत्र गमनेऽप्येषां, नाशं यास्यति तद्धनम् ॥११९॥ युग्मम् ॥ ततो गच्छन्नृपोद्राक्षीत् , कूपपणालिका-जलम् । कूपे पतति विनोऽथा-वदददेतत्फलं शृणु ॥१२०॥ धनमुपार्जयिष्यन्ति, वाणिज्यकृषिकादिभिः । क्लेशाजना गृहीष्यन्ति, तत्सर्व राजभृत्यकाः ॥१२१॥ राजानः सद्युगे स्वस्य, धनं वितीय पुत्रवत् । स्वप्रजां पालयामासु, रक्षयामासुरापदः ॥१२२॥ कलिकाले तु भूमीशा:, पीडयिष्यन्ति च प्रजाम् । बलात्काराद् ग्रहीष्यन्ति, दुःखार्जितं प्रजाधनम् ॥१२३॥ अग्रे गच्छन्नृपोऽद्राक्षी-देकः कण्ट COMODEReDeveo DemoOC0Crococcore For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह 0 दीपमालिका पर्व-कथा conomeroe200000 कपादपः। वनखण्डे महाश्रेष्ठ-चम्पकक्षमध्यगः ॥१२४॥ इह सुखाथिनो लोका, बहवः कण्टकमम् । पूजयन्तः सुगन्धैश्च, द्रव्यदृष्टा न चम्पकम् ॥१२५॥ विप्रोऽवदज्जनास्त्यक्खा, गुणिनमुत्तमं जनम् । दुष्टं कलियुगे नीचं, पूजयिष्यन्ति दुर्जनम् ॥१२६।। अग्रे गच्छन्नृपोऽद्राक्षी-द्वद्धा केशाग्रतः शिलाम् । आकाशे कम्बमानां च, तत्फलं ब्राह्मणोऽवदत ॥१२७॥ राजन् ! कलियुगे भूरि-पापरूपा बृहच्छिला। अत्यल्पधर्मरूपेण, वालाग्रेण तरिष्यति ॥१२८॥ त्रुटिष्यति यदा धर्म-रूपो वाळस्ततो जनाः। समकालं ब्रुडिष्यन्ति, मरिष्यन्त्यशरण्यकाः ॥ १२९ ॥ अग्रे गच्छन्नृपोद्राक्षीत् , फळाथ वृक्षयातनाम् । कुर्वतः पुरुषान् विप्र-स्तदा जगाद तत्फलम् ॥१३०॥ कलियुगे पिता वृक्ष-तुल्यः फळसमः सुतः। पुत्रफलाय कष्टं हि, पिताक्षः सहिष्यति ॥१३१॥ अग्रे गच्छन्नृपोऽद्राक्षीत् , स्वर्णस्थाल्यां पचत्पळम् । द्विजोऽबदत्कुटुम्बं हि, त्यक्त्वाऽऽत्महितकारिणम् ॥ १३२ ॥ अन्यलोकाय दास्यन्ति, जनाः स्वमस्तकं पुनः। बह्रीं प्रीति करिष्यन्ति, दुर्जनेषूत्तमेषु न ॥१३३॥ युग्मम् ॥ अग्रे गच्छन्नृपोऽद्राक्षीत् , पूजयन्ति जना अहिम् । न गरुडं द्विजोऽवादी-द्भपते ! तत्फलं शृणु ॥१३४॥ सर्पतुल्यो दयाहीनो-निर्गुण्यधर्मिको जनः । तस्य चादरसत्कार, करिष्यन्ति जना भृशम् ॥१३५॥ गरुडसदृशो धर्मी, दयालुः सद्गुणी जनः । तं निन्दिष्यन्ति लोकाश्च, परदूषणदर्शिनः ॥१३६॥ अग्रे गच्छन्नृपोद्राक्षी-देकस्मिन् शकटे गजौ । सुलक्षणौ द्वितीयस्मिन् , गर्दभौ योजितौ पुनः ॥ १३७॥ परन्तु हस्तिनौ मार्गे, चामिलितौ परस्परम् । गर्दभौ मिळितौ यान्तौ, द्विजो जगाद तत्फलम् ॥१३८॥ कलियुगे जना हस्ति-समाः श्रेष्ठकुलोद्भवाः । भेदं सङ्क्लेशमीर्षों च, करिष्यन्ति परस्परम् ॥१३९॥ गर्दभसदृशा नीच-कुलोत्पन्नाः परस्परम् । स्नेहवन्तो भविष्यन्ति, मर्यादानीतिधारिणः ॥१४०॥ मायेणान्त्यकुलोत्पन्ना, भविष्यन्ति नृपाः पुनः । श्रेष्ठ Democroecoe VI॥ ९४॥ For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ९५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुलसमुत्पन्नाः, करिष्यन्ति च दासताम् ॥ १४१ ॥ एवं निरूपितं तत्र दृष्टान्ताऽष्टोत्तरं शतम् । पुरा किलाभवन्पञ्च पाण्डवा वनवासिनः ॥१४२॥ तत्रान्यदा स्थिता भीमा-दयः स्वरक्षणाय च । निशायां यामिकत्वेन, स्ववारकानुसारतः ॥ १४३ ॥ तत्राद्यमहरे भीमो, जागयैन्ये सहोदराः । सुप्तास्तस्मिन् क्षणे भीमं, कलिपिशाचकोऽवदत् ॥ १४४॥ अरेऽहं मारयिष्यामि त्वां च तव सहोदरान् । इत्युक्त्वा सम्मुखं तस्याऽऽययौ कलिपिशाचकः ॥ १४५॥ दृष्ट्वा तं कुपितो भूत्वा स तद्वair धावितः । कलिना सह तस्याभू-युद्धं भीमस्तु हारितः ॥ १४६ ॥ द्वितीयप्रहरे युद्धं विधाय कलिनाऽर्जुनः । जितस्तृतीययामे च नकुलोऽपि जितः पुनः || १४७ || तुर्ययामे जितस्तेन, सहदेवोऽपि हेळया । युधिष्ठिरोऽथ पाश्चात्यरात्री जागृतवान्नृपः ॥ १४८॥ तदा कलिपिशाचश्चा- गत्यावदद्युधिष्ठिरम् । पश्यतो भवतो मार - यिष्यामि वः सहोदरान् ॥१४९॥ श्रुत्वा कविचो राजा युधिष्ठिरश्चकार न । किञ्चिन्मात्रमपि क्रोधं प्रतिवचोऽपि नो ददौ ॥ १५०॥ क्षमां कृत्वा स्थितो राजा, तत उपशमं गतः । कलिपिशाचको राझो, मुष्टिमध्ये समागतः ॥ १५१ ॥ उत्थिता भ्रातरः सर्वे, सम्बन्धिनी तदा । वार्त्ता सर्वाऽपि राज्ञा स्व-भ्रातृभ्यः कथिता मुदा ॥ १५२ ॥ राज्ञा क्षमाप्रभावेण, स्ववशवर्त्तकः कलिः । पिशाचो मुष्टिद्धाट्य, स्वभ्रातृभ्यः प्रदर्शितः ॥ १५३ ॥ करिष्यति क्षमां यो हि स कलिं खलु जेष्यति । करिष्यति क्षम योन, कळिस्तं खलु जेष्यति ॥ १५४ ॥ अत एव क्षमा जीवैः कर्त्तव्या सुखदायिनी । कळिकाले करालेऽस्मिन्, क्षमया जीवनं वरम् ॥ १५५ ॥ सुहस्तिसूरिभिः प्रोक्तं राजन् ! मया तवाग्रतः । प्रभुणा जल्पितं पुण्य- पाळस्वप्नफलं पुनः || १५६ ॥ श्रीभद्रबाहुना चन्द्रगुप्तस्वप्नफलं तथा । दृष्टान्ता लौकिकाः प्रोक्ता अत्र प्रसङ्गतो मया ॥ १५७॥ गौतमस्वामिना पृष्टं, भगवताऽर्पितोत्तरम् । दुष्षमकालसम्बन्धि - भावं वदाम्यतः परम् ॥ १५८ ॥ प्रणम्य गौतमस्वामी, For Private and Personal Use Only ZALA दीपमालिका पर्व- कथा ॥ ९५ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व कथा-संग्रह ReacoconcepcPeacoccamera सर्वभावं विदन्नपि । पप्रच्छ भव्यबोधाय, भगवन्तं जिनेश्वरम् ॥१५९॥ पञ्चमपष्ठयोः स्वामि-बारकयोनिरूप्यताम् । IN 10 दीपमालिका स्वरूपं भगवान् पाइ, हे गौतम ! निशम्यताम् ॥१६०॥ निर्वाणान्मम सार्द्धष्ट-मासोत्तरे त्रिवत्सरे। अतिक्रान्ते चतु-|| IN पर्व-कथा 0 र्यारो-ऽत्र च समुत्तरिष्यति ॥१६१॥ स्थास्यति दुष्षमाख्यश्च, पञ्चमारस्ततः परम् । द्वादशाब्दे गते मोक्षा-न्मे ते शिवं भविष्यति ॥१६२॥ विंशतिवत्सरे याते, निर्वाणान्मम यास्यति । पञ्चमगणभृन्मोक्षं, सुधर्माख्यो मुनीश्वरः॥१६३॥R मम मोक्षाच्चतुःषष्टि-वर्षे गते गमिष्यति । जम्बूर्मोक्षं ततश्छेद, यास्यति दश वस्तुकम् ॥१६४॥ यथा-१ क्षपकोपशम-| श्रेणी २, ३ ज्ञानं च केवलाभिधम् । ४ परमावधिकं ज्ञानं, ५ मनःपर्यवकं पुनः ॥१६५॥ परिहारविशुद्धिश्च, सूक्ष्मादिसम्परायकम् । यथाख्यातं च चारित्रं-त्रयं ६ सदेकभेदकम् ॥ १६६ ॥ ७ आहारकशरीरं च, ८ पुलाकलब्धिक पुनः । ९ जिनकल्पश्च सिद्धयाख्य-१९ गतिरिमे दशेति च ॥१६७॥ ततः श्रीप्रभवस्वामी, जम्बूस्वामिप्रबोधितः। मनकस्य पिता शय्य-म्भवस्वामी ततः क्रमात् ॥१६८॥ श्रीयशोभद्रसूरीश-स्ततस्ततो भविष्यति । सम्भूतिविजयः सूरिभव्यसम्भूतिकारकः॥१६९॥ श्रीभद्रबाहुसरीशः, प्रभूतशास्त्रकारकः। भविष्यति ततः स्थूल-भद्रस्वामी ततः पुनः | ॥१७०॥ श्रुतकेवलिनचैते, षटु चतुर्दशपूर्विणः। ततोऽन्तिमचतुःपूर्व-विच्छेदमत्र यास्यति ॥ १७१॥ आयं संहननं वज्र-पभनाराचसंज्ञकम् । अत्र यास्यति विच्छेद, दुष्षमकालभावतः ॥१७२॥ आर्यमहागिरिः सूरि-स्ततस्ततो भविष्यति । आर्यसुहस्तिसूरीशः, सम्प्रतिभूपबोधकः ॥१७॥ जातजातिस्मृतिज्ञानः, स च सूर्युपदेशतः । सम्पतिभूपति न-धर्ममङ्गीकरिष्यति ॥१७४॥ स च त्रिखण्डभोक्ता च, ज्ञानी दानी पराक्रमी। धर्मज्ञो विनयी न्यायी, राजेश्वरो भविष्यति ॥१७५॥ | श्रीजिनचैत्यचैत्यैः स, भूतलं मण्डयिष्यति । पुनः सोऽनार्यदेशेषु, धर्म प्रवर्तयिष्यति ॥१७६॥ म्लेच्छेषु श्रावकाणांस, 2mcomorromecaCcccccc For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीपमालिका | पर्व-कथा धर्मयोग पुनर्नृपः। कारयिष्यति साधूनां, विहारं धर्महेतवे ॥१७७॥ एतादृशो महाधर्मी, धर्मनिष्ठो गमिष्यति । कृतद्वादशपर्व कृत्यः क्रमात्स्वर्ग, राज॑स्त्वं स चाभवः ॥१७८॥ ततः मुस्थितसूरीशो, भविष्यति च कोटिकः। गणोऽस्मात्सरितोकथा संग्रह ऽच्छिन्न-प्रवाहो निगमिष्यति ॥१७९।। अत्रान्तरे च मन्मोक्षा-दुज्जयिन्यां भविष्यति । विक्रमच गते वर्षे, चतुः ॥९७.IN | शतादिसप्ततौ ॥१८०॥ श्रीसिद्धसेनसूरीशो-पदेशाद्विक्रमो नृपः। भविष्यति गुरौ देवे, भक्तिमाजिनशासने ॥१८॥ पालयिष्यति सम्यक्त्वं, निर्मलं स पुनः सुराः । भविष्यन्त्यग्निवेताला-दयः सत्त्वेन तद्वशे ॥१८२॥ विद्या स्वर्णनरः सिदि, यास्यति तस्य भूपतेः । तत्प्रभावाज्जनान् सर्वान् , स चानृणीकरिष्यति ॥१८३॥ संवत्सरं स लोके स्वनाम्ना प्रवर्तयिष्यति । सोऽन्यतीर्थिगृहोताई-चैत्यानि वाळयिष्यति ॥१८४॥ चैत्यनिर्माणसत्तीर्थ-संघनिष्कासनादिभिः। सत्कृत्यैः शासनोयोतं. कृत्वा स्वर्ग स यास्यति ॥१८५॥ मनिर्वाणाद्गते पञ्च-शतचतुरशीतिके । वर्षे श्रीवज्रसूरीशो, दशपूर्वधरोऽन्तिमः ॥१८६॥ दशपूर्वभृतां मध्ये, दशमो दशपूर्वभृत् । भविष्यति सतां पूज्यः, श्रीशासनप्रभावकः ॥१८७॥ निर्गमिष्यति वज्रीय-शाखाऽस्मात्सरितः पुनः । श्रीवज्रसेनसूरीश-स्ततो भविष्यति व्रती ॥१८८॥ ततः श्रीचन्द्रसूरीश-श्चन्द्र इव भविष्यति । अस्माच्च मूरितश्चन्द्र-कुलं च निर्गमिष्यति ॥१८९॥ वल्लभीपुरि देवद्धि| क्षमाश्रमणयुग्गणिः । मनिर्वाणात्वहस्त्यङ्क (६८०)-वर्षेऽन्यसूरिभिः समम् ॥१९०॥ हीयमानानि चाचारा-ङ्गादिसूत्राणि | तानि च । लेखयिष्यति पत्रादौ, सम्यग् योजनया पुनः ॥१९१॥ युग्मम् ॥ मन्मोक्षाद्गुणखेटाक (९९३), वर्षे कालिकसूरयः। पञ्चमीतश्चतुर्थी हि, समग्रसन्साक्षितः ॥१९२॥ पर्युषणाख्यवार्षीय-पर्व समानयिष्यति । कारणा * साधूनामेकत्र निवासो नाम पर्युषणा, सा च द्विविधा गृहिज्ञाताऽज्ञाता च, तत्र गृहिज्ञाता सांवत्सरिक-कृत्यविशिष्टा भवति, 20ezzecedeiceroeerone emencemecommercene For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्व कथा - संग्रह ॥ ९८ ॥ XoXoz www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न्मानयिष्यन्ति तद्वाक्यं शास्त्रवेदिनः ॥ १९३॥ अत्रान्तरे भविष्यन्ति, श्रीहरिभद्रसूरयः । अनेकग्रन्थकर्तारः, शासनोयदुक्तं तपागच्छाचार्यैः श्रीमद्भिः कुलमण्डनाचार्यैः स्वकृतायां कल्पावचूर्य – “ गृहिज्ञाता तु सा यस्यां सांवत्सरिकातिचारालोचनं, लुबनं, पर्युषणायां कल्पसूत्रकथनं, चैत्यपरिपाटी, अष्टमं तपः, सांवत्सरिकं प्रतिक्रमणं च क्रियते " इति । एषा पर्युषणा " अभिवढियम्मि वीसा, इयरेसु सवीसइमासो" इति । पर्युषणाकल्पनिर्युक्तिः तथा “ अभिवढियवरिसे वसति राते गते। गिहिणा तं करेंति, तिसु चंदवरिसेसु सवीसति राते मासे गते गिहिणा तं करेंति" इति । निशीथचूर्णिः, इत्यादि शास्त्रप्रमाणैः प्राग्जेनटिप्पनककालेऽभिवर्द्धिते वर्षे विंशतिदिनेरनभिवर्द्धिते च वर्षे पञ्चाशद्दिनैः क्रियमाणाऽऽसीत्, यथा चोक्तं तैरेव श्रीकुलमण्डनाचार्यैः कल्पावचूयां-" पचविंशत्या दिनैः पर्युषितव्यमित्युच्यते तत्सिद्धान्तटिप्पनानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते चाषाढ एव वर्द्धते तानि च टिप्पनानि अधुना सम्यग् न ज्ञायन्तेऽतो दिनपश्चाशतैरेव पर्युषणा सङ्गतेति वृद्धाः । " एतेने निश्चियते - यत्साम्प्रतं लौकिक टिप्पने यः कोऽपि मासो वर्द्धतां परं सांवत्सरिककृत्यान्वितायाः पर्युषणायाः करणे पञ्चाशद्दिनानामनुवनमेव शास्त्राज्ञानुपालनं, अन्यथा “सवीसइराइ मासे विइकंते वासावासं पज्जोसवेइ, xxx अंतरावि य से कप्पर, नो से कप्पइ तं स्यणि उवायणावित्तए " इत्येतत्कल्पशास्त्राज्ञाया अतिक्रमणमेव । अन्यञ्च श्रावणभाद्रपदान्यतरवृद्धौ पाश्चात्यानां सप्ततिदिनानामुल्लङ्घनमपि न दोषाय, "नो से कप्पइ तं स्यणि उवायणावित्तए" इत्येतत्कल्पसमाचारपाठेन पौर्वात्यानां पञ्चाशद्दिनानामुल्लङ्घननिषेधवन्न क्वापि सप्ततिदिनानामुल्लङ्घननिषेधो दृश्यते, प्रत्युत “ अभिवढियम्मि वीसा " इत्यनेन कल्पनिर्युक्तिवाक्येन स्पष्टैव पाश्चात्यानां सत्ता, शतदिनानां सत्ता, अतएव हि श्रीकालिकाचार्यैर्नृपशालिवाहनाभ्यर्थनयाऽप्येकपञ्चाशत्तमे षष्ठीदिनेऽकृत्वेकोनपञ्चाशत्तमे चतुर्थीदिने कृता सांवत्सरिककृत्यविशिष्टा पर्युषणा सा च शास्त्रसम्मतत्वात्तकालवर्त्तिसङ्घेनानुमतमिति । For Private and Personal Use Only दीपमालिका पर्व- कथा ।। ९८ ।। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ९९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्योतकारकाः || १९४ ॥ श्रीबप्पभट्टिसूरीशाः सर्वविद्याविशारदाः । भविष्यन्ति पुनश्चाम-भूपतिप्रतिबोधकाः ॥ १९५॥ कारयिष्यति भूपः स तद्वाक्याद् गोपपर्वते । अर्हचैत्यं च विस्तीर्ण, दर्शनीयं मनोरमम् ॥ १९६॥ सार्द्धत्रिकोटिसौवर्णदीनारद्रव्यनिर्मिताम् | जिनेन्द्रप्रतिमामाम- राजा संस्थापयिष्यति ॥ १९७॥ चान्द्रे कुले भविष्यन्ति, श्रीवर्द्धमानसूरयः । तच्छिष्याश्च महाप्राज्ञाः, श्रीजिनेश्वरसूरयः ॥ १९८ ॥ निरुद्धो वसतेर्मार्ग - इचैत्यमढ निवासिभिः । ये चैत्यवासिनो जिल्ला, दुर्लभराजसंसदि || १९९ || मार्ग वाचंयमानां हि तं वसतिनिवासिनाम् । ये प्रकटीकरिष्यन्ति, खेभखचन्द्र (१०८०) वत्सरे ||२००|| युग्मम् || ततश्च विहरिष्यन्ति सर्वत्रास्खलितत्वतः । संविज्ञाः साधवः सर्वे, स्वसाध्वाचार पाळका ॥ २०२ ॥ वादाच प्रतिवादाश्च, साध्वाचाराभिधायकान् । चैत्यस्यैः सूरिभिस्सार्द्धं विधाय राजसाक्षिकम् ॥ २०२ ॥ प्राप्स्यति बिरुदं सूरिः, खरतराभिधं ततः । खरतरगणोऽस्माच्च, सूरीशा निर्गमिष्यति ॥ २०३ ॥ अभयदेवसूरीशो, नवाङ्गवृत्तिकारकः + भावी स स्तम्भने पार्श्व-प्रतिमां प्रकटिष्यति || २०४ || जिनवल्लभसूरीश - स्वस्य शिष्यो भविष्यति । + यतः प्रोक्तं- "पुरा श्रीपत्तने राज्यं, कुर्बाणे भीमभूपतौ । अभूवन् भूतले ख्याताः, श्रीजिनेश्वरसूरयः || १|| सूरयोऽभयदेवाख्यास्तेषां पट्टे दिदीपिरे । येभ्यः प्रतिष्ठामापन्नो गच्छः खरतराभिधः ||२|| ” इत्युपदेशसप्ततिकायां तपागच्छीयश्रीसो मधर्मगणिवरविहितायाम् । अत्र भीमभूपराज्यकर्तृत्वोक्तिस्तु सुचिरं राज्यशासनकालापेक्षिकेव, न तु वादकालापेक्षिका, न ह्यनेनास्तिस्वाभावमपि च सिद्धयति तस्मिन्समये दुर्लभराजस्य, अनिर्णीतत्वादवसानकालस्य तस्येतिहासविद्भिः । * श्रोजिनवल्लभसूरीशैरेव स्वयमुल्लिखितं तदीयोपसम्पद्ग्रहणं तेषामेव च सकाशे श्रुतग्रहणं, तथैव सद्गुरुत्वमपि तेषामेव, तथा हि- " लोकार्यकूर्च पुरगच्छमहाघनोत्थ- मुक्ताफलोज्ज्वल- जिनेश्वरसूरिशिष्यः । प्राप्तः प्रथां भुवि गणिजिनवल्लभोऽत्र, तस्यो For Private and Personal Use Only दीपमालिका पर्व- कथा ॥ ९९ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व कथा संग्रह ॥१०॥ orcecreezee20 दुर्द्धरशुद्धचारित्र-तपज्ञान क्रियाधरः ॥२०५॥ चित्रकूटपुरे वीरे-शाकल्याणकवादिनः । करिष्यति परास्तं यः, चैत्यस्थ IN दीपमालिका | द्रव्यलिङ्गिनः ॥२०६॥ अनेकशास्त्रकर्ता स, सरिः शुद्धप्ररूपकः । प्रबोध्यानेकभव्यात्मान् , धर्मे नियोजयिष्यति ॥२०७॥ IN पर्व-कथा श्रीजिनदत्तमरीश-स्तच्छिष्यो जिनशासने । महापभावको जने. युगवरो भविष्यति ॥२०८॥ सच्चारित्रप्रभावेण, यस्य सेवा सुराअपि । करिष्यन्ति द्विपञ्चाश-द्वीराश्च योगिनीगणः ॥२०९॥ प्रतिबोध्यैकळक्षत्रिंश-त्सहस्रजनान्पुनः । यः स्वदेशनया जैन-धर्म संस्थापयिष्यति ॥२१०॥ अस्यां परम्परायां च, शुद्धायामीदृशा वराः। अनेकशो भविष्यन्ति, धर्माचार्या धुरन्धराः ॥२११॥ तस्मिन्काले भविष्यन्ति, श्रीहेमचन्द्रसूरयः । वरा कुमारपालाख्य-नृपतिप्रतिबोधकाः ॥२२॥ एवं बहव आचार्याः, श्रावकाच प्रभावकाः । भविष्यन्ति करिष्यन्ति, श्रीजिनशासनोन्नतिम् ॥२१३॥ अस्यां पसम्पदमवाप्य ततः श्रुतं च ॥१॥ इति चित्रकूटीयमहावीरप्रशस्तिपराभिधानायामष्टसप्ततिकायां । तथा " के वा सद्गुरवोऽत्र चारुचरणाः श्रीसुश्रुता विश्रुताः ?" इत्येतत्प्रश्नस्योत्तरे "श्रीमदभयदेवाचार्याः" इति जैन-श्रेयस्कर-मण्डल-महेशानाद्वारा मुद्रिते सटीकस्तोत्ररत्नाकरे द्वितीये विभागस्थे प्रश्नोत्तरेकषष्टिशतके । यञ्चोक्तं तत्रैव "हि श्रोजिनवल्लभ ! स्तुतिपदं कीदृग्विधाः १ के सताम्" इति प्रश्नस्योत्तरे “ मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः" इति, तथा अष्टसप्ततिकायां " जिनेश्वरसूरिशिष्यः” इति च, तत्तु स्वं गार्हस्थ्यासमुद्धृत्य धर्मबोधं ज्ञानादिगुणोत्कर्ष च सम्प्रापकत्वादुपकारं संस्मरद्भिश्चत्यवासित्वगुरुत्वमधिकृत्यैवोक्तं तेभ्यः सतां स्तुतिपदत्वं, न छुपसम्पन्नोपसम्पदावस्थायामपि सद्गुरुत्वं, तत्तु युक्तमेव, यतो न भूव॑स्तेऽद्यकालीनक्षुद्रमनुजा इव कृतोपकारिण उपकारस्यास्म रिः कृतघ्नाः; किन्त्वतीवोच्चत्तमाः कृतज्ञाः शिष्टाश्चापि, यदवोचुः श्रीमन्मलयगिरिसूरयः स्वयं षडशीतिवृत्तिप्रारम्भे-" न चायमाचार्यों न शिष्टः" इति, तथा “शिष्टश्चायमण्याचार्यः" इति तस्यैवान्यवृत्तौ श्रीमद्धरिभद्रसूरयः । शिष्टानां त्वेषेव प्रणालिका- INT १००॥ यत्कल्पान्तेऽप्यविस्मरणं कृतोपकारस्मरणस्य लवमात्रस्यापीति । Decemerocococococha For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ १०१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुण्डावसर्पिण्यां, दुष्षमकालभावतः । निर्गमिष्यन्त्यनेकानि मतमतान्तराणि च ॥ २१४॥ स्वमतर सिकाः केचित् केचिदुत्सूत्रभाषिणः । भविष्यन्ति करिष्यन्ति, सूत्रोत्तीर्णी प्ररूपणाम् ॥ २१५ ॥ भविष्यन्ति पुनः केचिच्छिथिला : स्वक्रियादिषु । साधवश्च करिष्यन्त्य-सूयां ज्ञानक्रियावताम् ॥ २१६ ॥ ज्ञानवन्तः क्रियावन्त-वापि केचित्तु साधवः । कषाय बहुलाः क्लेशं करिष्यन्ति परस्परम् ॥ २१७|| लोभदशां गताः केऽपि, धारयिष्यन्ति साधवः । ज्ञानद्रव्यमिषाद्द्रव्यं, ज्ञानक्रियाधरा अपि ॥ २१८ ॥ पुनर्गौतम ! काळोsसौ, यथायथा गमिष्यति । तथातथा जनो नीच गामी कुसङ्गसङ्गतः ॥ २१९ ॥ कषाय बहुलश्चोप- कारादिधर्मवर्जितः । दाक्षिण्यरहितो वक्रः, परार्थादिविनाशकः ||२२०|| स्वजनमातृपित्रादि-द्वेषी स्वार्थप्रसाधकः । मिथ्यात्वमोहितः सारा-साराज्ञश्च भविष्यति || २२१ || त्रिभिर्विशेषकम् || महान्ति नगराण्यथ, ग्रामतुल्यानि दुष्षमे । श्मशानसदृशा ग्रामा, भविष्यन्ति भयङ्कराः || २२२ || भविष्यन्ति स्वमर्यादा- लज्जादिरहिता जनाः । धनEat aforeter, निर्धना दुःखपीडिताः ||२२३|| मर्यादारहिता भूपाः प्रजायाः पाळने पुनः । यमतुल्या भविष्यन्ति, प्रजापीडनतत्पराः ॥२२४॥ पुनर्देवा न दास्यन्ति, मनुष्याणां च दर्शनम् । भविष्यन्ति पुनर्जाति - स्मृत्यादिज्ञानमत्र न ||२२५|| बहवः प्राणिनो दुष्टा, भविष्यन्त्यधकारिणः । विघ्नसन्तोषिणो गाढ - रोषादिधारिणो मिथः ॥ २२६ ॥ धर्मिंजना भविष्यन्ति निर्द्धना दुःखिताः पुनः । सुखिनो धनिनः पापि जना बहुकुटुम्बिनः ॥ २२७ ॥ गौतम ! रम्यवस्तूनां हानिर्भूमौ प्रतिक्षणम् । मन्त्रयन्त्रौषधिज्ञान - विद्यारत्नधनायुषाम् ||२२८|| फलपुष्परसस्पर्श - गन्धरूपसुसम्पदाम् । संहननयशः कीर्त्ति - बलवीर्य सुकर्मणाम् || २२९|| गुणसत्यतपः शौच क्षमादीनां भविष्यति । अल्पफळा रसा नीरं, वनस्पतिव नीरसः ॥ २३०॥ त्रिभिर्विशेषकम् | हानिर्दुष्षमकालेऽस्मिन् भविष्यति दिने दिने । द्रव्याणां विद्यमानानां गुण For Private and Personal Use Only दीपमालिका पर्व- कथा ॥ १०१ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व दीपमालिका पर्व-कथा कथा-संग्रह ॥१०२ ॥ अतस्तस्य, पायन्ति क्रियाशा चतुर्विधस्य यास्यन्ति हो पर्यायधारिणाम् ॥२३१॥ ज्ञानदर्शनचारित्र-वीर्यतपोव्रतादिकम् । शमसंवेगनिर्वेद-करुणाऽऽस्तिक्यपञ्चकम् ॥२२॥ स्वात्मधर्मोद्यमादीनि, दुष्पमारे प्रतिक्षणम् । यास्यन्ति हीनता स्वर्गा-पवर्गसुखदानि च ॥२३३॥ युग्मम् ॥ भविष्यन्ति त्रयोविंश-त्युदयाः पञ्चमारके । चतुर्विधस्य सङ्घस्य, धर्मस्योन्नतिकारकाः ॥२३४॥ द्विसहस्रचतुस्सङ्ख्या, युगप्रधानमूरयः। भविष्यन्ति क्रियाज्ञान-निष्ठा एकावतारिणः ॥२३५॥ महालोभी पुनस्तत्र, कल्कीराजा भविष्यति । दत्तनामा सुतस्तस्य, धर्मोन्नति करिष्यति ॥२३६।। षोडशसहस्राधिक्य-कादशलक्षकाः (१११६०००) पुनः । भविष्यन्ति कलौ भूपाः, श्रीजिनधर्मपाळकाः ॥२३७॥ भविष्यन्त्यत्र कोटयेक-जैनधर्मप्रभावकाः । मन्त्रिणो जिनतच्चज्ञाः, सारासारविचारकाः ॥२३८॥ युगप्रधानतुल्या हि, भविष्यन्ति च सूरयः । वरेकादशलक्षका-दशसहस्रषोडश (११११०१६)॥२३९॥ अकेन्दुवेदशून्याशा-ऽग्निगुण (१३४०४१९) सङ्ख्यकाः पुनः। मध्यमगुणधर्त्तारो, भविष्यन्ति च सूरयः ॥२४०॥ बाणाक्षिबाणबाणेषु-बाणेष्विष्विषु (५५-५५-५५-५२५) सङख्यकाः । भविष्यन्त्यधमाचार्या, दुष्षमपञ्चमारके ॥२४॥ लक्षषष्टिसहस्रचतुः-शतचतुश्चत्वारिंशत्कोट्यः (६००४४४०)। भविष्यन्त्युपाध्यायाः, सिद्धान्तवाचनादायकाः ॥२४२॥ सप्तदशलक्षनवस-सहस्रैकशतैकविंशतिकोटयः। लक्षषष्टिसहस्रका (१७०९०१२१ क्रोड और ६००१०००), भविष्यन्ति साधवः प्रवराः ॥२४३॥ दशकोटाकोटिद्वा-दशशतद्वानवतिकोटयः । (१० कोडाकोडी १२९२ क्रोड) द्वात्रिंशल्लक्षनवनवतिसहस्रैकशत (३२९९१००) साध्व्यः ॥२४४॥ षोडशलक्षत्रिसहस्र-त्रिशतसप्ततिकोटयः (१६०३३७० क्रोड)। चतुरशीतिलक्षा (८४ कक्ष) श्वा-त्रारे भविष्यन्त्युपासकाः ॥२४५॥ पञ्चत्रिंशल्लक्षा-द्वानवतिसहस्रपञ्चशतकोटयः । द्वात्रिशत्कोटयश्च (३५९२५३२ क्रोड), भविष्यन्ति श्राविकाः पुनः ॥२४६॥ (आर्यायामयं गायापञ्चकम् ) ॥ अथ च REPORDEExpende Derrecoeceococcae ॥ १०२॥ For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व कथा-संग्रह पर्व-कथा ॥ १०३ ॥ Tococceroeconomerande केचिदाचार्या, एतत्सममाणकम् । भरतैरवतक्षेत्र-दशसु कथयन्ति च ॥२४७॥ केचित्तु भरतक्षेत्र-पञ्चसु भरतेऽत्र च । केचित्तत्त्वं पुन नि-गम्यमित्यवगम्यते ॥२४८॥ दुष्पमापञ्चमारान्ते, स्वर्गाच्च्युखा भविष्यति। श्रीदुप्पसहसूरीशो, IN | हस्तद्वयशरीरकः ॥२४९॥ दशवकालिकावश्यक-जीतकल्पं च नन्दिकम् । पठिष्यत्यनुयोगद्वा-रं सूत्रपञ्चकं स च ॥२५०॥ N षष्ठोग्रतपः कर्त्ता च, युगवरः सुरैर्नतः । स च सूरिगृहस्थत्वे, यावद्द्वादशवत्सरम् ॥२५१ ॥ साधुत्वे च चतुर्वर्ष, सरित्वे वत्सरं चतुः। ऊषित्वा विंशति वर्ष, सर्वायुषं प्रपाल्य च ॥२५२॥ कुताष्टमतपाः पान्ते, काळं कृत्वा समाधिना। एक सिन्धूपमायुष्को, भविष्यति सुरोत्तमः ॥२५३॥ ततश्च्युखात्र मानुष्यं, सम्पाप्य क्षेत्रभारते । स च प्रपाल्य चारित्र-मपवर्ग गमिष्यति ॥२५॥ दुष्षमाख्यारकमान्ते, धर्मः श्रुतव्रतात्मकः। श्रीदुप्पसहसूरीशः, फल्गुश्रीरार्यिका पुनः ॥२५५॥ नागिलश्रावकः श्राद्धी, सत्यश्रीश्च चतुर्विधः। सङ्घोऽयं प्रथमे यामे, विच्छेदं यास्यति प्रभोः ॥२५६॥ विमलवाहनो भूपः, सुमुखो धीसखा पुनः । मध्याह्वेऽग्निश्च सन्ध्यायां, विच्छेदं च गमिष्यति ॥२५७॥ एकविंशतिसहस्र-वर्षमानश्च दुष्षमः । पञ्चमारश्च सम्पूर्णो, भविष्यति यदात्र च ॥२५८॥ तदा षष्ठारको नेष्टो, दुष्पमदुष्षमाभिधः । तावन्मात्रप्रमाणस्त-दधिकारोऽत उच्यते ॥ २५९ ॥ वासना धर्मतत्वस्य, गमिष्यति जनोऽखिलः । मातृपित्रादिमर्यादा-रहितश्च भविष्यति ॥२६०।। बहुधूलियुताऽनिष्टा, निष्ठुरा वायवः पुनः। प्रवास्यन्ति दिशाः सर्वाः, सधूम्रा च भविष्यति ॥२६१॥ वर्षिष्यन्ति च षष्ठारा-रम्भे सप्त धना इमे । भस्म-ग्रावा-नल-क्षार-विष-मलाख्यविद्युतः ॥२६२॥ एकैकोऽम्भोधरो यावत् , सप्तसप्तदिनानि च । मुशलधारया नित्यं, भस्मादि वर्षयिष्यति ॥२६३॥ 10 यैः काशश्वासशूलाच, कुष्ठज्वरजलोदराः । शिरोऽतिप्रमुखा रोगा, भविष्यन्त्यतिकष्टदाः ॥२६४॥ अङ्गारसदृशा भूमि pezoeaeroeezoeaeezaerzzaeezc ॥ १०३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्यकथा-संग्रह मालिका | पर्व-कथा ॥ १०४ ॥ भविष्यति जलादिभिः। नदीपर्वतगर्तादि-भूमिः समीभविष्यति ॥२६५॥ पुनदुःखेन तिर्यचो, जळस्थलखचारिणः । स्थास्यन्ति शीततापादि-पीडिता मांसभक्षिणः ॥२६६॥ क्षेत्रवाटीवनाराम-धान्यतरुतृणादिकः। सर्वो वनस्पति शं, यास्यति सर्वथा पुनः ॥२६७। वैताढ्यमृषभं कूट, गङ्गासिन्धुसरिद्वयम् । एतच्चतुष्टयं मुक्खा, सर्वः समो भविष्यति ॥२६८॥ भरतभूभविष्यति, क्लिन्नकर्दमभूमिभिः । ग्रावैः कचित्क्वचिच्चाति-संव्याप्ताऽत्यन्तदुर्गमा ॥२६९॥ हस्तदेहाः कठोराङ्गाः, कुवर्णा रोगपीडिताः। निष्ठुरवचना वस्त्र-रहिता अतिकोपनाः ॥२७०॥ चिपटनासिका लज्जा-रहिताः पशुवक्रियाः। निर्विका दयाहीना, भविष्यन्ति नराः स्त्रियः ॥२७१॥ युग्मम् ॥ नृणां विंशतिवर्षायुः, षोडशाब्दायुरत्र च । स्त्रीणां दुष्प्रसवा गर्भान् , पवर्षा स्त्रीर्घरिष्यति ॥२७२॥ शकटचक्रयोर्मध्य-भूप्रमाणं वहिष्यति । गङ्गासिन्धुसरिन्नीर, व्याप्त मत्स्यादिजन्तुभिः ॥२७॥ वैताठ्यपर्वतासन्न-नाभयतटावनौ । द्वासप्तति महादीर्घ-विस्तीर्णानि बिलानि च ॥२७॥ उत्तरदक्षिणाशायां, नद्योः प्रतितटं पुनः । नव नव बिलानि स्युः, सङ्कलने द्विसप्ततिः ॥२७५।। निवसिष्यन्ति तिर्यश्चो, मनुष्यास्तत्र दुःखिताः । बीजमात्राः सदा मत्स्या-दिमांसाहारकारिणः ॥ २७६ ॥ तदानीं मनुजा गङ्गा-सिन्ध्वोर्मत्स्यादिकं जलात् । कृष्णा दिननिशान्ते च, स्थले मोक्ष्यन्ति निघृणाः ॥ २७७ ॥ सूर्यतापेन पक्वांश्च, मोक्ष्यन्ते मच्छकच्छपान् । ते चान्यत्खाद्यवस्तूनि, तदानीं तत्र सन्ति न ॥२७८|| भरतैरवतेष्वेवं, दशक्षेत्रेषु दुष्षमः । दुष्पमदुष्षमश्चापि, कालः समो भविष्यति ॥२७९॥ षष्ठारानन्तरं काल, उत्सर्पिण्या भविष्यति । षष्टारकसमो भावा-तत्र च प्रथमारकः ॥२८०॥ भविष्यति द्वितीयारः प्रथमारे गते पुनः । पञ्चमारसमो वस्तु-तचोत्सर्पणभावतः ॥२८१॥ अथ प्रादुर्भविष्यन्ति, तस्यादौ सप्त सप्त हि । घलान् यावद्घनाः पञ्च, वर्षिष्यन्ति निरन्तरम् ॥ २८२॥ Popcocococope 10 Peeroen For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ १०५॥ OBCCCIPESCERetence पुष्करावर्त्तमेघेन, भूमितापो गमिष्यति । क्षीरोदाख्यद्वितीयेन, धान्यनिष्पत्तियोग्यभूः ॥२८॥ घृतोदकत्तीयेन, भूमिमेघेन चिक्कणा। शुदोदकचतुर्थेन, सवौंषधिसमुद्भवः ॥२८४॥ रसोदकाख्यमेघेन, पञ्चमेन भविष्यति । रसोत्पत्तिश्च IN IN दीपमालिका का पर्व-कथा पञ्चत्रि-शद्दिनमेघवर्षणात् ॥२८५॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ वृक्षौषधिलताधान्य-तृणादीनि तदा स्वयम् । निष्पत्स्यन्तेऽय तान् दृष्ट्वा, यास्यन्ति ते विलाबहिः ॥२८६॥ यदा भरतभूः पुष्प-फळधान्यादिसंयुता । भविष्यति तदा ढोका, भक्षिष्यन्ति फलादिकम् ॥२८७॥ ततो यथायथा काल, आयास्यति तथातथा । संपत्संहननायूंषि, बलवीर्यावगाहना ॥२८८॥ रूपगन्धरसस्पर्शा, अपूर्वाः सर्ववस्तुषु । वदिष्यन्ति नृतिर्यक्षु, धान्यफलतृणादिषु ॥ २८९ ॥ युग्मम् ।। ऋतवः सलिला बाता, भविष्यन्ति मुखाकराः। पुनर्नराश्च तिर्यश्चो, गतरोगाः क्रमेण च ॥ २९० ॥ तस्यादौ मध्यदेशे हि सप्तकुळकराः पुनः। भविष्यन्ति नराधीशा, राज्यनीतिप्रवर्तकाः ॥२९१ ॥ विमलवाहनस्तत्र १, सुदामः २, सङ्गमस्तथा ।। सुपार्थों ४ दत्तको ५ भावी, सुमुखः ६ समुचिः ७ क्रमात् ॥२९२॥ जातजातिस्मृतिस्तत्र, नृपो विमसवाहनः । निवेशयिष्यति ग्राम-पुरादि राज्यहेतवे ॥ २९३ ॥ करिष्यति ततो राजा, हस्तिगोऽश्वादिसङ्ग्रहम् । व्यवहाराणि शिल्पानि, लिपिकां गणितं तथा ॥२९४॥ रन्धनादिक्रियां सर्वां, व्यञ्जयिष्यति भूपतिः। प्रजाहिताय वर्णानां, चतुष्कं स्थापयिष्यति ॥२९५॥ युग्मम् ।। तृतीयारत्रिवर्षे च, साष्टिमासके गते । समुचिभूपतिर-पुरे भद्रा प्रियाऽस्य च ॥२९६॥ चतुर्दशमहास्वप्न-सूचितो नन्दनस्तयोः। द्वासप्ततिवर्षायु-हेमरुक सिंहलाञ्छनः ॥ २९७ ॥ जन्मादिभिर्महावीर-तुल्यः श्रेणिकजीवकः । भविष्यत्याद्यतीर्थेशः, पद्मनाभजिनेश्वरः ॥२९८॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। ततश्च पातिलोम्येन, प्राग्वत्पूर्वार्हतां समाः। भविष्यन्ति तदा सर्वे, क्रमातीर्थङ्करा अमी ॥२९९॥ श्रेणिकभूपतेर्जीवः, पद्म 10॥ १०५॥ camera For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व कथा-संग्रह Excweecareezeraezaeroecemezoem नाभजिनेश्वरः १। ततो जीवः सुपार्श्वस्य, सुरदेवजिनेश्वरः २ ॥३०० ॥ कोणिकतनुजोदायि-जीवः सुपार्वतीर्थ-IN IN दीपमालिका कृत् ।। पोटिलाख्याणगारस्य, जीवो जिनः स्वयम्प्रभः ४। ॥३०१॥ दृढायुः श्राद्धजीवोऽय, सर्वानुभूतितीर्थकृत | पर्व-कथा ५। ततः कार्तिकजीवश्च, देवश्रुतजिनेश्वरः ६ ॥३०२॥ शङ्खश्रावकजीवोऽथ, श्रीउदयजिनेश्वरः ७ । आनन्दश्राद्धजीवोऽथ, श्रीपेढालजिनेश्वरः ८ ॥३०३॥ सुनन्दश्राद्धजीवोऽय, श्रीपोट्टिलजिनेश्वरः ९ शतकश्राद्धजीवोऽथ, शतकी तिजिनेश्वरः १० ॥३०४॥ ततश्च देवकीराज्ञी-जीवः सुव्रततीर्थकृत् ११ । श्रीकृष्णवासुदेवस्य, जीवोऽथाऽममतीर्थNI कृत् १२ ॥३०५॥ विद्याभृत्सत्यकीजीयो, निष्कषायजिनेश्वरः १३ । बलभद्रस्य जीवोऽथ, निष्पुलाकजिनेश्वरः १४ | ॥३०६॥ निर्ममाख्यो जिनो भावी, सुलसाऽम्बडबोधिका १५। रोहिणीश्राविकाजीवः, चित्रगुप्तजिनेश्वरः १६ ॥३०७॥16 रेवतीश्राविकाजीवः, श्रीसमाधिजिनेश्वर: १७। शतालीश्राद्धजीवोऽथ, श्रोसंवरजिनेश्वरः १८ ॥ ३०८ ॥ द्वीपायनस्य जीवोऽथ, यशोधरजिनेश्वरः १९ । ततः श्रीकरणजीवश्च, श्रीविजयजिनेश्वरः २० ॥३०९॥ यः पुरा नारदोऽभूत्स, श्रीमल्लाख्यजिनेश्वरः २१ । ततश्चाम्बड जीवश्च, श्रीदेवाख्यजिनेश्वरः २२ ॥१०॥ श्राद्धामरस्य जीवोऽथा-नन्तवीर्यजिनेश्वरः २३ । स्वातिजीवश्चतुर्विशो, भद्रङ्करजिनेश्वरः २४ ॥३११॥ एते चागामिकाले हि, चतुर्विशतितीर्थपाः । | भविष्यन्ति भवाम्भोधौ, निर्यामकाः शिवङ्गमा: ॥३१२॥ एषां कल्याणकान्यायु-लाञ्छनान्तरवर्णकाः। अधुनार्हत्समाज्ञेयाः, पश्चादनुपूर्वितः पुनः ॥३१३ ॥ दीर्घदन्ताभिधो १ गूढ-दन्ताख्यः २ शुद्धदन्तकः ३। श्रीचन्द्रः ४ श्रीभूति ५ सोमः ६, पद्मो ७ महादिपद्मकः ८ ॥३१४॥ कुसुमो ९ विमलश्चक्रि १०-विमलवाहनः ११ पुनः। भरतोऽ. 10॥ १०६ ॥ न्याभिधोरिष्टो १२, भाविद्वादशचक्रिणः ॥३१५॥ नन्दीश्च १ नन्दिमित्रश्च २, सुन्दरबाहु ३ नामकः। महाबाहु ४ cheezeace For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CARE | रतिबलो ५, महाबलो ६ बलः ७ पुनः ॥३१६॥ द्विपृष्ठाख्य ८ त्रिपृष्ठाख्यो ९, भाविनश्चार्द्धचक्रिणः । तिलको ११ द्वादशपर्व| लोहजडाख्यो २, वज्रजट्टश्च ३ केसरी ४ ॥३१७॥ बलिः ५ प्रहादनामा ६ चा-ऽपराजितश्च ८ भीमकः ८।। दीपमालिका कथा संग्रह पर्व-कथा सुग्रीवाख्य ९ इमे भावी-नवक प्रतिविष्णवः ॥३१८॥ जय १ विजय २ भद्राख्य ३-सुप्रभाख्य ४ सुदर्शनाः ५। ॥ १०७ MINI नन्द ६ नन्दन ७ पद्माख्य ८-सङ्कर्षणा ९ बला नव ॥३१९॥ भविष्यन्त्येवमेते हि, त्रिषष्टिपुरुषोत्तमाः। भविष्य तश्चतुर्थारे, चरमौ जिनचक्रिणौ ॥३२०॥ ततः परं भविष्यन्ति, युगलिका नराः पुनः कल्पवृक्षसमुत्पत्तिधर्माभावश्च पूर्ववत् ॥ १२१ ॥ उत्सपिण्यवसर्पिणी, एवमेव च भारते । गताः पूर्वमनन्ताश्चा-ऽऽयास्यन्त्यनन्तशः पुनः ॥३२२॥ एवं पञ्चमषष्ठार-स्वरूपं च निरूपितम् । मयेदं गौतम ! प्राणि-वर्गप्रज्ञापनाय च ॥१२३ ।। ततश्च कार्तिकस्यामा-वास्यारात्रेश्च पश्चिमे । समये स्वातिनक्षत्रे, निर्वाणमगमत्प्रभुः ३२४॥ इदानीं तु गतो भावो द्योतोऽस्माभिरतः परम् । द्रव्योद्योतं करिष्यामो, जने तत्स्मृतिहेतवे ॥३२५॥ ध्यात्वेति मनुजैः स्वस्य, गृहाणामालकादिषु । धृत्वा रत्नमयान् दीपान , विहिता दीपमालिका ॥ ३२६ ॥ ततो रूप्यमया दीपा-स्ततो जाताश्च मृन्मयाः। प्रतिपदि समुत्पन्नं, केवलं गौतमपभोः ॥३२७॥ भगवद्भगिनी शोकं, दूरीकर्त दिनेऽपरे । स्वगृहे भोजयामास, स्वभ्रातृनन्दिवर्द्धनम् ॥३२८॥ ततो भ्रातृद्वितीयाऽभू-दिति सुहस्तिसरिभिः। प्रोक्तं हे सम्प्रते! दीपा-लिकापर्वेदमुत्तमम् ॥३२९|| अस्मिन्दिने महावीर-प्रभुः शिवङ्गतस्ततः। गौतमस्य समुत्पन्नं, केवलज्ञानदर्शनम् ॥३३०॥ अतो राजन्निदं पर्व, समग्रसिद्धिदायकम् । शुभेच्छुभिः सफलोकार्य, विशिष्टधर्मकर्मणा ॥ ३३१ ॥ युग्मम् ।। eaderzzraepapezoexecommer For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व दीपमालिका पर्व-कथा कथा-संग्रह ॥ १०८॥ DeeDec0e0eoecoom ग्रन्थकृत्प्रशस्ति:खरतरगणे चासन् , जिनमहेन्द्रसूरयः। तत्करदीक्षिता; श्रीमान्मोहनाख्यमुनीश्वराः ॥३२॥ आद्यो जिनयशस्सूरि-स्तेषां शिष्योऽभवद्गुणी । अपरश्च सुचारित्री, श्रीमद्राजनमुनीश्वरः ॥३३३॥ तेषां शिष्या गुणैर्युक्ताः, श्रीजिनरत्नसूरयः। तेषां शिष्यगणिप्रेम-मुनेः समाग्रहेण च ॥३३४॥ पाठकलब्धिनाऽकारि, दुषमारादिगर्भितम् । श्रीदीपमालिकावर्य-माहात्म्यमन्यशास्त्रतः ॥३३५॥ इदं बाणखशून्याक्षि (२००५) वर्षाषाढस्य मेचके । सप्तम्यां मयाऽकार्य-जयमेरुमहापुरे ॥३३६॥ श्रीमोहनमुनीशस्य, पशिष्यगुणिसत्तमाः। शिष्टाश्च गणिपन्यास-केशरमुनयोऽभवन् ॥३३७॥ सूत्रानुयोगाचार्याणां, तेषां शिष्या विशारदाः। श्रीबुद्धिमुनयो गण्या-स्पदेन च विभूषिताः ॥३३८॥ तैः सुज्ञानक्रियावद्भिः, संशोधिता मुमुक्षुभिः । द्वादशपर्व-माहात्म्य-दृष्टान्ता अप्रमादिभिः ॥३३९॥ द्वादशपर्वमाहात्म्यसमारम्भः पुरेऽजनि । जयपुरे समाप्ति चा-मदजयमेरुके ॥३४०॥ श्लोकसङ्ख्या तु विज्ञेयै-पां सङ्कलनयाऽखिला । सप्तदशशतं पञ्च-चचारिंशद्युतं पुनः ॥३४२॥ न्यूनाधिकान्यथा प्रोक्तं, सन्दर्भितं मयान च। तन्मिथ्या दुष्कृतं मेऽस्तु, जिनसिद्धादिसाक्षिकम् ॥ ३४२॥ ॥ इति श्रीदीपमालिका-पर्व-माहात्म्यं समाप्तम् । तत्समाप्तौ च समाप्तोऽयं द्वादशपर्व-कथा-संग्रहः॥ occeDepepepepepeo ॥१०८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ १०९ ॥ www.kobatirth.org श्रीजिनाय नमः | प्राचीनाचार्य पुरन्दर सन्दर्भिता मौनैकादशी माहात्म्यगर्भिता प्राकृतपद्यात्मिकासुव्रतश्रेष्ठी कथा | 11 अस्य प्रव्रज्या नमिजिनपतेर्ज्ञानमतुलं, तथा मल्लेर्जन्म व्रतमपमलं केवलमलम् । ari सहसि सदुद्दाममहसि, क्षितौ कल्याणानां क्षिपतु विपदः पञ्चकमदः ॥ १ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या- ' क्षितौ ' पृथिव्यां अदः कल्याणकानां पञ्चकं ' विपदः ' संसारापदः ' क्षिपतु' परिहरतु । कदा तज्जातं ? तत्राह - 'सहसि मार्गशीर्षमासे वलक्षैकादश्यां मौनैकादशी दिने, इत्यर्थः । कथम्भूते सहसि ? लसदुद्दाममहसि, लसद् 'उद्दामं' उत्कटं महस्तेज उत्सवो वा यत्र स तस्मिन् । किं तत्कल्याणकपञ्चकं जातं ? तदाहअरस्य अष्टादशतीर्थकरस्यात्र दिने ' प्रव्रज्या' दीक्षा समजायत, तथा पुनर्नमिजिनपते - रेकविंशतितमतीर्थङ्करस्य 'अतुलं' अनुपमं 'ज्ञानं' केवलज्ञानमत्र दिने समुत्पेदे । तथा पुनर्मले - रेकोनविंशतितमजिनस्य जन्माथ ' व्रतं ' दीक्षा 'अपमलं' For Private and Personal Use Only सुतष्टी कथा ॥ १०९ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व O कथा कथा-संग्रह 1 ११०॥ ecoecememocom निर्मलं 'अलं' अत्यर्थमथवा सर्वत्रापि समर्थ 'केवलं' केवलज्ञानमिति कल्याणकत्रयमभूत् । अत्र च पूर्वोक्तश्री IN/ सुव्रतश्रेष्ठी अरनाथदाक्षा-नमिनायज्ञानमिति कल्याणकद्वयमीलनेन जातं तत्पश्चकं, अनेन विधिना पश्चस्वपि भरतक्षेत्रेषु सर्वविधिसाम्यात्तद्गणनया जाता तेषां पञ्चविंशतिः। तथाऽनयैव रीत्या समानधर्मखादैरवतक्षेत्रपञ्चकेऽपि तद्भवनात्तत्रापि जाता पञ्चविंशतिरनु च तव्योर्मीळने जाता तेषां पश्चाश[वि.] त् (?), तदनन्तरमतीतानागतवर्तमानकालविवक्षया R त्रिगुणितानां तेषां जातं सार्द्धशतमिति कुखा मार्गशुक्लकादशी महापर्व, तीर्थकरस्य कल्याणकदिनखाद्, अतो देवानामप्यागमनमहोत्सवबहुमानविषयत्वादुक्तं चपंचसुं जिणकल्लाण-एसु महरिसितवाणुभावाओ। जम्मंतरनेहेण य, आगच्छंति सुरा इहयं ॥१॥ अत्रावसरे देवाः सम्भूय नन्दीश्वरद्वीपादावष्टाहिकामहोत्सवकरणेनाराधयन्त्येतत्कल्याणकदिनं, [अतः] साधुश्रावकैरपीत्थं दानशीलतपोभावादिधर्मकृत्यैस्सादरमाराध्यमेतत्कल्याणकदिनमय च मल्लिनाथस्य कल्याणकत्रयभवनाद्दीक्षादिन एव मौनव्रतविधिना केवलज्ञानप्रापणाच मौनैकादशीति महापर्वप्रसिद्धं । अत एतद्दिने मल्लिनाथस्य कल्या-IN णकविधिप्रतिपादनाय श्रीस्थानाङ्गगतसप्तमस्थानकोक्तं समूलं ससूत्रं संक्षिप्ततरमेतच्चरितं लिख्यतेसिरिवीरजिणं नमिऊणं, पुच्छइ सिरिगोयमो समासेणं। भयवं! कहेसु इण्डि, इक्कारसिमोणकरणं मे ॥१॥ वीरो भणेइ गोयम !, निसुणसु इक्कारसीइ माहप्पं । सिरिनेमिणा वि कण्हस्स, जह कहियं तह निसामेह ॥ २ ॥ बारवईनयरीए, समोसढे नेमिजिणवरे पवरे। कण्हो वि सपरिवारो, वंदणयत्यं गओ तत्थ ॥३॥ 10॥ ११ ॥ comonococonomoc For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह |सुत्रतश्रेष्ठी कथा Decccccccccccorecaceae सुणिऊण देसणं तह, पुच्छइ कण्हो य जिणवर नेमि । पव्वाणि सामि ! कित्तिय ?, हवंति पक्खम्मि मासस्स ॥ ४ ॥ पभणइ नेमिजिणंदो, पव्वाणि य पंच एगपक्खम्मि । बीया दुविहे धम्मे, सट्ट जईणं जो भणियं ॥ ५ ॥ पंचमी नाणतवम्मि य, आराहियब्वा य भत्तिपूरेणं। पंचवरिसाणि मासा, पंचेव य धम्मकम्मम्मि ॥ ६ ॥ सत्थियकरणं दीवय-वट्टिय पंचेव सप्पियमएण। फलपंचढोयणं तह, विहिपुव्वं भावपूरेणं ॥ ७॥ बहुपंचमी पुणो तह, पंचय मासाणि जह य सत्तीए। कायव्वा साजवणा, पंच य पवरेण +भावेण ॥ ८ ॥ तह कत्तियपंचमिया, कायव्वा जावजीवपुरिसेण । एकवन्नकणाइमयं, फलाई ढोएइ सध्वंपि ॥९॥ पंचमितवं विहिपुव्वं, आराहई जो उ एगचित्तेण । सो परलोए पावई, नाणलंभोवमं सुत्तं ॥१०॥ तह अट्ठमीयपव्वम्मि, जीवस्स भवेइ कम्मबंधो य। नियमाउयतियभाए, अहवा नवमे य भाए य ॥११॥ अहवा सत्तावीसइमे, भाए आउस्स बंधणं अस्थि । अहवा अंतमुहुत्ते, आउस्साबसेसकालम्मि ॥१२॥ परभविआउं बंधक माएएहिं अट्ठमीइ पुणो। तह चउदसिदिवसम्मि परभवआउं न संदेहो ॥१३॥ अट्ठमि चउदसीमुं, सावओ जइ हविज विरइपरो । तव पोसहाइकरणं, सावजं वज्जए सव्वं ॥ १४ ॥ इकारसी विहिवरा, इकरसंगस्स नामो भणिआ। आराहउ भत्तिपरा, भविया! भावेण परिसंता ॥ १५॥ इक्कारसी तिहिवरा, सविसेसाराहिया पयत्तेण। जिणकल्लाणगपन्नासं, तम्मिय दिवसम्मि य हवंति ॥१६॥ पंच य भरहम्मि पुणो, पंच य एरवयम्मि समकालं । चउवीस [मि] पि? जिणाणं, पंच य कल्लाणगाणि तो ॥१७॥ __ + 'कम्मेण यद्वा 'ठामेण' इति प्रत्यन्तरे. CameezmeroezonezoevereeDo For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह सुव्रतश्रेष्ठी कथा ॥ ११२ ॥ Ccccee8cccccce चउहमी तवकरणं, आउस्स य बंधकरणहेउत्ति । तह चउदपुव्वाराहण-करणं मासा चउद्दसंपि ॥१८॥ चउपची विहिभणिया, अट्ठमि चाउद्दसी पुनिमिया। अमावस्सा य पुणो, तवोविहाणं जो दिढे ॥ १९॥ निस्सेससिद्धिलाभो, चउमासगपज्जुसवणपव्वेसु । उत्तरकरणाइ फळो. तवोविसेसो जो भणियं ॥२०॥ सुयनाणपंचमीए, सूयपूयासोडिवोहिलाभाय । कम्मक्खयट्ठमट्ठमि-उववासो चउदसोइ पुणो ॥२१॥ एवं महानिसीहे, भणियं पव्वेसु तिसु य उववासो। चउमासे पुण छटुं, तह अट्ठमो पज्जुसवणम्मि ॥२२॥ तो पुच्छइ वासुदेवो, भयवं ! कल्ले समागया य तिही। मग्गसिरसुद्धिकारसी, तम्मि य करणे फलं किंपि ? ॥२३॥ तो जिणवरेण भणिय, निसुणसु भावेण सुदमणो। मग्गसिरिगारसम्मी य, कल्लाणगं हवइ पन्नासं ॥२४॥ तम्मि दिणे पोसहवयं, गिण्डसु इह अट्ठपहरमाणं पि। मोणं चिय कायन्वं, आएसिग कहण मुत्तं च ॥२५॥ पारणगम्मि य दिवसेसु, गुरुसमीवम्मि पारए पोसे । नाणं पूएइ तओ, फलाइ ढोइज भावेण ॥२६॥ तत्तोच्चिय जिणभवणे, जिणवरं वंदिऊण भत्तीए। तो गच्छइ नियगेहे, सुसंविभागेण पारेइ ॥ २७ ॥ एवं वरिसेण पुणो, सियगारिसि बारसं (?) च काऊणं, नियनिय सत्तीइ तओ, उज्जवइ तहा इमा नृणं ॥२८॥ अहवा वरिसे वरिसे, मग्गसिरि सेयगारसिं कुणई। बारसवरिसेहिं तो, उज्जवइ विऊ तवो एवं ॥२९॥ कण्हो भणेइ भयवं ! नेमीसर ! कहसु इगारसीतवं । पुदि कइयं केणवि, पावियं तप्फलं विउलं ? ॥३०॥ तो जिणवरेण भणियं, निसुणसु सम्मत्तखायपरिकलिओ। सुव्वयसिटिगारसि, करणे रिद्धि सिवं पत्तो ॥३१॥ तथाहि-बायइसंडे दीवे, इसुयारा दाहिणम्मि विक्खाओ। तम्मि य पच्छिमभाए, विजयपुरं नाम पुररयणं ॥१२॥ DemocreeD0000000 एवं बरिसेण पुणो, सिसिरि सेयगारसिं कुणक ।। पुब्बि कइयं केणवि, सारण रिद्धि सिवं पत्तो For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ११३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्थऽत्थि पुहविपालो, नरचंदो नाम रायराउति । नियपयपाळण निरओ, विजयी तिजयम्मि विक्खाओ ॥ ३३ ॥ चंदवई तसु भज्जा, रूवेणं लडहरूवलावण्णा । नियपइभत्ता सुद्ध-व्वया य सीलेण जुवइजणमुक्खा ॥ ३४ ॥ नयरम्मि तत्थ निवस, सरो नामेण रिद्धिसंपन्नो । सिट्टिएहिं बहुएहिं परियरिओ सव्वजणमुक्खो ॥ ३५ ॥ तस्सऽत्थि लच्छिपवरा, वाहणमज्झम्मि पसर मंडणया । तीरेसु गंतु लाभ, संगहिया सिट्टि मंड (पाया) लया ।। ३६ ।। तह देसेसु य बहुसगड - महिस - बेसर - बइल्ल - खरपमुहेहिं । वणि उत्ता ववसायं कुणंति सव्वत्य ॥ ३७ ॥ रिद्धी समिद्धो वि हू, जिणधम्मे सायरो सपरिवारो। जिणवरभवणे गच्छड, जिणपूयं कुणइ भत्तीए ॥ ३८ ॥ छवि आवस्यम्मि, उज्जुत्तो पइदिणं सुसंविग्गो । भाव भावणं निचं, अणिच्चयाई सयाकालं ॥ ३९ ॥ सो अन्नया कयाइ, सुगुरुसमीवम्मि पुच्छए तत्तो । भयवं ! किंपिय दिज्जउ, अभिग्गदं जेण कम्मक्खओ ॥ ४० ॥ गुरुणा भणियं निसुणसु, पढमं नाणम्मि उज्जमं कुणह । नाणेण विणा जम्हा, जीवाईया न नज्जंति ॥ ४१ ॥ सिरिनाणपंचमीए, तबोविहाणम्मि उज्जमंताणं । + मवईआण हवई सिद्धी, पंचमी तेण कायव्वा ॥ ४२ ॥ सुहकम्माणं बंधणं, अट्ठमिचउद्दसी कायन्त्रं । पोसह सामाईयं, तवचरणं कुणइ सुहकज्जे ॥ ४३ ॥ सूरसिट्टी व पण, तवोविहाणेण निम्मलं देहं । भयवं ! पंचमि अट्ठमि, चउद्दसी य मए इक्कारस अंगाणं, रुद्दसंखाण करणे किं फलं होइ ? । तो गुरुणा भणियं पुण, माहप्पं वण्णियं सुत्ते ॥ निम्मलरूवं सुजसं, पयावसहियं च सबलसिरिं च । रज्जं पावड़ पुरिसो, आरुगं आउयं च तहा कइया ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ॥ + " इक्कार संगभत्ती, इक्कारसिदिणम्मि कायव्वा ” इति प्रत्यन्तरे । For Private and Personal Use Only ४६ ॥ सुत्रतश्रेष्ठी कथा ११३ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व सुव्रतश्रेष्ठी कथा कथा-संग्रह ११४॥ Dececlocococcoom रिद्धीहिं संपन्नो, सुकुटुंबेणं च सयणपरियरियो। दालिई दोहग्गं, रोगाईयं च दरओ नेइ ॥ ४७ ॥ सो सुरनरसुहमणुभविउ, कमेण सिवसंपयं च पाविज्जा। कम्मक्खय संजुत्तो, इकारसितवप्पभावेण ॥४८॥ तत्तो सरेण सिहं, एगारसि एगवरिसियं काउं। आराहिस्सं नाणं, चरणं चित्र तवोविहाणेणं ॥ ४९॥ तत्तो सूरो सिट्ठी, सकुटुंबो भावभावियस्संतो। इक्कारसिदिवसम्मि य, उववास मोणसंजुत्तं ॥५०॥ इकारसि इक्कारस, संखा काऊण निययसत्तीए। इक्कारस अंगाणं, लिहावणं पूपणं च कयं ॥५१॥ एगवगारसंखा-वणिय इकारिगार संखाय । फलविगइढोयणं पुण, वच्छल्लं संघपूर्व च ॥५२॥ तवोविहाणाणंतर-पअरसदिवसेहि भावणाजुत्तो। तकालं चिय सलेणं, निहणं मरो वि पावेइ ॥५३॥ इक्कारसितवकरणेणं, पत्तो कप्पम्मि आरणे देवो। इगवीससागराई, पालइ देवत्तणं तत्व ॥ ५४॥ चविऊणं तत्थ ठिो, जंबुद्दीवम्मि भरहभूमीए । सोरीपुरम्मि नयरे, समिद्धिदत्तस्स सिद्विस्स ॥ ५५ ॥ पीइमईमज्जाए, उयरे पुत्तत्तणे समुप्पनो। नवमाससड्ढसत्तम, दिणम्मि जामो य सुमुहुत्ते ॥५६॥ वह नाळनिक्खणत्यं, खणियभूमीए निहाणं नीसरियं । जणएण पुत्तजम्मे, बद्धावणयं कयं रम्मं ॥ ५७॥ बद्धावणम्मि अक्खय-पचाणि समागयाणि बहुयाणि । वारविलासिणिनहें, गंधवगायणं च तहा ॥ ५८॥ भट्टजण जयजयारव, वादित्तरवेण वाइयं तईया। तोरणझयपढागं, दाणं दीणाण दिन्नं च ॥ ५९॥ बारसगम्मि य दिवसे, मायापियएहि सयणमिलिएहिं । परिभुंजाविय कहियं, एयम्मि य पुत्तगन्मम्मि ॥६॥ सो सबभद्दपरिणामो, जा[ओ]इ (2) गेहम्मि रिदि उच्छाहो । एयस्स नाम दिज्जइ. सुब्वयकुमरुत्ति नामेणं ॥१॥ DeceDeceDepepepepen ॥ ११४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ११५ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो पंचधाविसहिओ, पालिज्जतो विबुद्विमुवणेइ । जाओ पंचवरिसो, नेसाले पडिओ तईया ॥ ६२ ॥ सो सव्वकलाकुसलो, जाओ वरिसत्तिगम्मि तो पच्छा। साहुसमीवम्मि डिओ, छन्विहमावस्सयं भणइ ॥ ६३ ॥ सम्मत्तं नवतत्तं, कम्णद्वयपय डिअट्ठावन्नस । बारसवयाई सम्मं, जाई पाले निच्चपि ॥ ६४ ॥ जुब्वणसमए पिणा, महिढियाणं समागया कन्ना । इकारस परिणाविय, तओ सुकयस्थो पिया जाओ ॥ ६५ ॥ सिरिकंता १ पउमसिरी २, पउमलया ३ गंगया ४ य तारा ५ अ । सृज्जसिरी ६ वन्नसिरी ७, रंभा ८ पडमा ९ गउरि १० गङ्गा ११ ।। ६६ ॥ घरभारं च समगं, समपिऊणं तओ पच्छा। चिंताव्वारविमुको, धम्मं सो कुणई निच्चपि ॥ ६७ ॥ अह अनया कयाई, वुढत्ते अणसणं च काकणं । मरिकगं संपतो, समिद्धिदत्तो दिवं तईया ॥ ६८ ॥ गिहसामी संजाओ, सुव्वयसिट्ठीय कोयमज्झम्मि । इकारकोडिसामी, उवउत्तो कुणइ ववसायं ॥ ६९ ॥ अह अन्नदि सिरिधम्म - घोसरी वणम्मि संपत्तो । सो नयररायसहियो, वंदणयत्थं गयो तत्थ ॥ ७० ॥ सव्ये लोया हरिसेण, पूरिया वैदणागया तत्थ । वंदणपुव्वं सव्वे, उबविट्ठा धरणिपीढम्मि ॥ ७१ ॥ तो धम्मघोससूरी, देसणदाणं करेइ भवियाणं । दाणं सोळं च तवो, भावणभावं कहइ सव्वं ॥ ७२ ॥ उवएसम्म य मज्झे, पव्वतिहि वियारवण्णियम्मि तया । इक्कारसितव चरणं जायं सुच्चयसिट्ठिस्स ॥ ७३ ॥ तईया सुव्वयसिडो, इक्कारसिं सुणिय मुच्छमावन्नो । पुव्यभव विहियगारसिं, जाईसरणेण जाणेई ॥ ७४ ॥ तो परिवारेणं चिय, सो उवयारेणं सुत्थियो कओ । सुव्वयसिट्ठी साह, भयवं ! पुन्त्रभवं संभरियं ॥ ७५ ॥ For Private and Personal Use Only सुव्रतश्रेष्ठी कथा ॥ ११५ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह सुव्रतश्रेष्ठी कथा ॥ ११६॥ vermezmeeDeceedeemeroen पुवभवे इगारसि-तवोविहाणं मए कयं रम्मं । तेणं चिय पुनेणं, आरणदेवो समुप्पनो ॥ ७६ ॥ सत्तोहं इस भरहे, सुब्बयसिट्ठीय रिद्धिसंपन्नो। इक्कारकोडिसामि य, सो सुयदेवी पभावेणं ॥७७॥ भयवं ! कहेसु पुणरवि, इहेब जम्मम्मि किंपि तवचरणं। काहे ही सकुटंबो, परभवसुक्यफलं होई ॥७८॥ तो गुरुणा भणियमिणं, महाणुभागोसि धम्मपरिणामो। पुत्रभवे इक्कारसि, इक्कारसंगि भत्तिकया ॥ ७९ ॥ अहुणा पुण सुयभत्ती, इक्कारसितवं करेसु मोणेणं । पोसहकरणेण पुणो, छज्जीवविवजणवाए ॥ ८॥ विहिणा जइ तं गारसि. करेसि सुफयत्थबोहिलामो य । केवलियनाणलंभो, परभवगहणे न संदेहो ॥ ८१॥ विहिपुव्वं चिय विडियं, धम्माणुट्ठाणमुज्जवणसहिये । नियसत्तिकयं जम्हा, बहुफललाभाय होइत्ति ॥ ८२॥ सुब्धयसिट्ठी य तओ, नियमज्जाए जुओ सपरिवारो। मोणेणेगारसितवं, बरिसेणं एगमासेणं ॥८॥ रुद्दसंखेण मासेणं, इकारसितवं कयं पयत्तेणं । पारणपारणगम्मि य, नाणपूया कया रम्मा ॥८४ ॥ पुण्णे य तवोकम्मे, उज्जमइ निययरिद्धिवित्थारं। इक्कारसंग लेहिय, तव्वष्णसमग्गयं ढोई ॥ ८५॥ साहम्भियवच्छल्लं, संघं पूएइ भत्तिसंजुत्तो। पुणरवि गुरूणापुच्छइ, पुणरवि इकारसी करणे ॥ ८६ ॥ गुरुणा भणियं निमुणसु, मग्गसिरसेयगारसी परिसे। एगा पुण कायव्वा, कम्मक्खयबोहिलाभाय ॥ ८७ ॥ पन्नासं कल्लाणं, हवंति इकारसीदिणे तम्हा। एयम्मि दिणे तेणं, मगसिरिगारसी पवरा ॥८८॥ आरंभह भवियनरा !, मग्गसिरिगारसी महापवरा । मणवइकायविराहणं, मुत्तुं जिणवयणधम्मधरा ॥ ८९ ॥ मोणं चिय विहेयव्वं, भणणगुणणाइ मुत्तु पवरतरं । सव्वं विहिणा सूर्य, सफलं चिय हवइ सयलंपि ॥९॥ For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह सुव्रतश्रेष्ठी कथा ११७IN peopemeocopemocraeoe तो सुबएण भणियं, सह कुटुंबेण विसुद्धभत्तीए। गहियं गारसिचरणं, मोणं सुकुटुंबमाईणं ॥९१॥ तईया बहुयजणेहिं, गहिया इक्कारसी गुरुसमीवे । नियनियगिहम्मि पत्ता, सव्वे लोया य सयमोया ॥१२॥ मिग्गसिरसेयगारसि-दिणम्मि पोसह कुणंति सव्वे वि। मोणेणं चिय भविया, जम्मफलं सयलं गिण्हंति ॥९३॥ तो पभाए गुरुणो, पासम्मि य पोसहं च पारित्ता। सुयभत्तीए फलेणं, पूर्यति तहा सुकयपुन्ना ॥९४॥ अह अनया कयाई, चोरा जाणंति लोयवयणेणं । मोणं सबकुडुंबस्स, पोसह संजुत्तया सव्वे ॥९५ ॥ तम्मि रत्तिम्मि चोरा, धार्टि काऊण गेहमणुपत्ता। गिहमज्झं अंधयारे, उज्जोयं कुणंति सव्वेवि ॥९६॥ तो सकुटुंबेणं चिय, काउस्सग्गो को समाहिपरो। अग्गीजीवाणमिण, अभयदाणं कयं रम्मं ॥९७॥ गिहमज्झे चोरा वि हु, पासंति सुवण्णरुप्पपमुहं च । गिण्हंति जाव तईया, सासणदेवीहि ते गहिया ॥९८॥ ते चित्तमणुय सरिसा, लिप्पमया भिया ठिया तत्थ । सकुटुंबोवि हू सिट्ठी, काउस्सग्गं न भंजेइ ॥१९॥ जाए पभायसमए, सकुडुबो गो य धम्मसालाए । गुरूणो न संति तइया, ठवणायरियस्स पासम्मि ॥१०॥ पोसह पारियित्ता, नाणाईणं च पूयणं किच्चा। नियगेहसमावन्नो. ते चोरे तत्थ पासेई ॥१०॥ तो लोएणं रनो, कहियं चोरागमणं सिट्ठिगिहे। अह रायपेरिएणं, तलायरा तत्थ संपत्ता ॥१०२॥ तइया सिडिवरेणं, मणम्मि एयं च +निच्छियं कीयं । जा चोरा ता मोणं, मए वि कायव्य नियमेणं ॥१०॥ ताव तळारेणं चिय, चोराणं बंधणं समाइदं । सिट्ठी चिंतइ एवं, चोराणं दुक्खं मा होसु ॥१०४॥ + “चितियं तत्थ" इति प्रत्यन्तरे । ॥ १७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org द्वादशपर्वकथा-संग्रह | सुत्रतश्रेष्ठी कथा ११८॥ CODecemedec2eCD सासणदेवीइ तो, तळायरा भिया य तकालं । तं सुणिऊणं राया, सपरियरो आगो गेहे ॥१०५॥ सुव्वयसिट्ठी य तओ, पवरं वत्थं निवस्स ढोइत्ता। विन्नत्तो नरनाहो, सामीहिं किं पि भग्गेमि ॥१०६।। तो नयरसामिणा पुण, कहियं जं +माणसम्मि तं मग्ग। वाणी एसा मे पुण, जं पत्थसि देमि तं सव्वं ॥१०७॥ सिट्ठी पत्येइ तओ, चोराणमभयं देहि दाणं च । दिनं चिय भूवइणा, ता चोरा सिट्टिणा वुत्ता ॥१०८॥ भो चोरा! नियठाणं, गच्छेह समाहिणा कयपमोया । भियमुक्का य गया, नियनियभवणेसु रंगधरा ॥१०९॥ राया भणेइ सिद्धिं, निसि चोरा किंन वारिया तत्थ । सुव्वय भणेइ तत्तो, नियम नियमा न भंजेमि ॥११०॥ आणंदिओ य राया, सिढि सकुडुंबयं समाणेइ । धम्मम्मि निच्चळतं, सुपसंसइ सपरिवारो य ॥१११॥ नियगेहं संपत्ता, रायालोया तळायरप्पमुहा य। जिणधम्मस्स पसंसा-परायणा सव्वकालम्मि ॥११२॥ पुणरवि गारसि दिवसे, तवं च पोसह कुणइ सिट्ठी। अग्गी लग्गो नयरे, कोया सव्वे विय रडंति ॥११॥ पाडोसिएण तईया, बुबा दत्ता य सिद्विगेहेसु । अग्गी कग्गो नीसरसु, गेहाओ पळायणं कुणह ॥११॥ तं सुणिऊणं सिट्ठी, सकुटुंबो काउसग्गमावन्नो । ठिओ य निच्चळमणो, मणवयकाएण महादढो ॥११५॥ अग्गी विहु सिद्धिगिह, हट्ट बक्खारि सिट्टि परिभोगं । मोइत्ता सव्वं चिय, नयर बालेइ जालाए ॥११६॥ जिणभवणं चिय पोसह-सालासाहूहि सहिय मोइत्ता। निर्ण पत्ता सममेव, जंपइ लोओ पसायम्मि ॥११७॥ सिट्ठिपभावेणं चिय, हट्टवक्खारि गिहगयं सव्वं । सिट्ठिसंबंधियं तह, न जालियं अग्गिणावि तहा ॥११८॥ + 'मणसि' " इटुं" च प्रत्यन्तरे । AREconneconomonaCCORDERDCORDCORD ॥ ११८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra द्वादशपर्वकथा-संग्रह ॥ ११९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रायावि तं सुणिता, सपमोओ सिट्ठिगेहमावन्नो । बद्धावियो य सुन्वय - सिट्टी सहिओ पमोयपरो ॥ ११९ ॥ इक्कार पियासहिओ, सिट्टी राएण मंडिओ तम्हा । वत्थालंकरणेणं, धम्मपसंसं च कुणमाणो ॥ १२० ॥ तह भूयपेय डाइणि सायणि पमुहेहि य छळिउमारद्धो । धम्मपभावेण चिय, न छलंति य किण्हसप्पो वि ॥ १२१ ॥ एवं तमि पुण्णे, रयण मुत्तीय पवाल रुप्पाई । सोवण्णं सव्वनाणय, इक्कारससंखपरिमाणं ||१२२ || लड्डूय पकवान, गंठिया कारिया सुरम्मा य । मोणं कयए घट्टी, ताओ कण्णम्मि पविसेह (१) ॥ १२३॥ इय विहिणा सव्वं पि य, इकारसवण्ण धन लक्खाई। मेराईयं च सव्वं, उज्जवियं सिट्टिणा तत्थ ॥ १२४ ॥ तज्जाविय नियनिय-मुज्जवणं मंडयंति ते विहुपिहूयं । सत्तखित्ताण पुरओ, दोयंती य गुरुमाहपं ॥ १२५ ॥ तो कोएणं पच्छा, नियसत्तिमग्गलेण भावेणं । ढोहत्ता मुज्जवणं, नोयं तवं सफलियं तम्हा ॥ १२६ ॥ साम्मीयवच्छलं, संघस्स य पूयणं कथं रम्मं । दीणाइयाण दाणं, गुरुवएसं सुणंतेणं ॥ १२७॥ दानं क्षान्तिकरं सदा हितकरं संसारसौख्याकरं नृणां प्रीतिकरं गुणाकरकरं लक्ष्मीकरं किङ्करम् । स्वर्गवासकरं गतिक्षयकरं निर्वाणसम्पत्रं, वर्णायुर्वबुद्धिवर्द्धनकरं दानं प्रदेयं बुधैः ॥ १२८ ॥ छत्रे काञ्चनकुम्भसंभवभव राज्ये विपक्षक्षयः, श्रीकोटौ शुभपुत्रसन्ततिफलं हारेऽपि चिन्तामणिः । दाने पात्र पवित्रता तनुमतां, दुग्धान्धिमध्ये सिता, हृद्योद्यापनमेवमात्मतपसि श्रेयोभिरेवाप्यते ॥ १२९ ॥ तत्तो सुव्यसिट्ठिस्स, पत्तेयं भारिया पसवियाओ । एगं सयं च पुत्तं, दमुत्तरं च तहा पुत्ती इगारसगं ॥ १३० ॥ परिणाविया य सव्वे, पुत्ता सव्वे वि कन्ननवगं वा । कन्ना पुण दिन्नाओ महिड्द्रियाणं सुयवराणं ॥ १३१ ॥ For Private and Personal Use Only lezen सुत्रतश्रेष्ठी कथा ॥ ११९ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्वकथा-संग्रह। ॥ १२०॥ सुव्रतश्रेष्ठी कथा 20ezee20BCD820cmeeroen तम्मि भवे रिद्धि पुण, समज्जिया कोडि नवन उइमाणा। सत्तवित्तम्मि ववइ, माणुसजम्मं कयत्थेइ ॥१३२॥ अन्नसमयम्मि पत्तो, चउनाणि समिद्ध सयलमुत्तधरो। सिरिजयसेहरसूरि, समोसढो तत्थ उज्जाणे ॥१३३॥ तो वंदणत्थं राया, गो वणे सयळलोयपरियरिओ। तो सुव्वयसेट्ठी पुण, सकुटुंबी वंदइ गुरूणं ॥१४॥ तो सब्वे वंदित्ता, उवविट्ठा सुगुरुपायमूलम्मि। धम्मं सुणंति तत्तो, एगग्गचित्ता सुहपसत्ता ॥१३५॥ दाणं पुण्णतरुस्स मूलमणहं पावाहिमंतक्खरं. दालिदहमकंदलीवणदवो दोहग्गरोगोसहं । सोवाणं गुरुसग्गसेलचढणे मुक्खस्स मग्गो बरो, तद्दायब्वमिण जिणुत्तविहिणा पत्ते सुपत्ते सया ॥१३६॥ सुद्धं समायारमनिंदणिजं. सहस्स अट्ठारस भेयभिन्नं । बंभाभिहाणं च महावयं ति, सीलं तहा केवलिणो वयंति ॥१३॥ बझं तहाभिंतरभेयमेयं, कसायदुब्भेयकुकम्मभेयं । कम्मक्खयत्थं कयपावनासं, तवं तवेडागमियं निरासं ॥१३८॥ चक्रे श्रीभरतो बलानुगमृगः श्रेयानिलापुत्रको, जीर्णश्रेष्ठी मृगावती गृहपतिर्यों भावदेवाभिधः । मुलाध्या मरुदेविका नवमुनिः श्रीचण्ड रुद्रस्य चे-त्याद्याः कस्य न चित्रकारिचरिता भावेन सम्भाविताः॥१३९॥ संसारकारागृहकमंबद्धा, कान्तारिणः शृङ्खलबद्धपादाः। पुत्रादिपाशेश्च गले निबद्धा. मुग्धा मनुष्या स्पृहयन्ति मुक्तिम् ॥१४०॥ गिहवावार मुत्तुं, सर्व विरई पवजह नरा भो !। जं कम्मक्खयं काउं, सिद्धिपुरि झत्ति पावेह ॥१४॥ सुव्वयसिट्ठी पभणइ, भयवं ! मम दिक्खं संपयं देह। घरवावारं पुत्ते, ठविऊणं झत्तिमागच्छे ॥१४२॥ उद्वित्ता गिहपत्तो, पुत्तस्स भळाविऊण घरभारं। नियदव्वं दाऊणं पिया सहिओ य निक्खंतो ॥१४॥ reverenceaeeccaeeeereezeroecenee2 || १२० ॥ For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशपर्व सुव्रतश्रेष्ठी कथा-संग्रह कथा ॥ १२१ IN इक्कारसहि पियाहि, पव्वजं अणसणं च गिण्डित्ता। मासेणं भत्तेणं, केवलनाणेण मुक्खं च ॥१४॥ सुब्बयरिसि चारितं, पालइ सुद्धं विसुद्धचित्तजयं । छ?ऽट्टमाइकरणे, इक्कारसि मोणतवचरणे ॥१४५॥ दोसय छट्ठाणि तो, एगसयं अट्ठमाइतवरत्तो । चोमासी चउ नवरं, छम्मासी य एगवारं च ॥१४६॥ अनदिणे इक्कारसि-दिणम्मि मोणेण संठिए तत्थ । एगस्त य साहुस्स य, कण्णेसु य वेयणा जाया ॥१४७॥ मिच्छादिट्ठी य एगो, तिरो चिंतेइ रिसिं तवाउ चालेमि । रयणिमज्झे य तओ संकमिओ साहुदेहम्मि ॥१४८॥ तेणुत्तो सुब्वयरिसी, गच्छह सावयगिहम्मि दुक्खमिणं । कहियव्वं च जहा ते, तिगिच्छं कुणंति भावधरा ॥१४९॥ चिंतेइ सुव्वयरिसी, इण्डिं मोणं मए कयं अत्थि । उवस्सयाओ बाहिं, गमणं च निसिद्धयं जं मए ॥१५०॥ चिंताए परिकलिओ, जा अच्छइ साहुवेयणाकलिओ। धम्मज्झएण मत्थए, ताडइ य रिसिं च कोवेणं ॥१५१॥ अह चिंतेइ तहि चिय, एसो य रिसी वेयणाकलिओ । मम दोसच्चिय एसो, कहियं एयस्स जं न कयं ॥१५२॥ तह भावंतो भावण कम्मट्टगंठिमुरणं काउं। केवलनाणं पत्तो, दढो कयत्थो महासत्तो ॥१५३॥ तो नयरदेवयाए, केवलमहोच्छवे समाइण्णे। भव्वाण बोहणत्थं, देसणधम्म कयं रम्म ॥१५४॥ पडिबोहिय भवियजणं, अंते संलेहणं च काऊणं। केवलनाणेण सम, पत्तो मुक्खं अणंतसुई ॥१५५॥ सुणिऊणं कण्हो विहु, इक्कारसिपमुहतवस्स माहपं । पालित्ता जह सत्ति, तित्थयरत्तं लभिस्सेही ॥१५६॥ For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsur Gyanmandir द्वादशपर्व कथा-संग्रह // 122 // एवं वीरेण कहियं, गोयमपमुहाण सव्वजीवाणं / सव्वे भावसमेया करति इगारसितवं च // 157 // TOसुव्रतश्रेष्ठी सुणिन्तु सुब्बयरिसिग कहाणयं, इगारसीराहणगं मणोमयं / कथा भव्वा! सयाराहणगा भवंतु, लहेउ रिद्धि तह मुक्खसुक्खं // 158 // // इति श्रीमौनैकादशीमाहात्म्ये श्रीसुव्रतश्रेष्ठिकथा समाप्ता / comconoccCURRECORRECRCccccc // इति श्रीद्वादशपर्वकथा-संग्रह समाप्तः // For Private and Personal Use Only