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आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित
द्रव्य-संग्रह
संस्कृत छाया, हिन्दी पद्यानुवाद, गुर्जर अन्वयार्थ तथा
हिन्दी गाथार्थ तथा अंग्रेजी भावार्थ सहित
* मंगलाचरण मूल गावा : जीवमजीवं दव्वं जिणवस्वसहेण जेण णिहिट्ठ ।
देविंदविंदबंदं वंदे तं सव्वदा सिरसा ॥ १ ॥ संस्कृत' जीवमजीवं द्रव्यं जिनवरवृषभेण येन निर्दिष्टम् ।
छाया: देवेन्द्रवृन्दवन्द्यं वन्दे तं सर्वदा शिरसा ।। १ ॥ पद्यानुवाद : जीव सचेतन द्रव्य रहे हैं, तथा अचेतन शेष रहें, जिनवर में भी जिन-पुंगव वे, इस विध जिन-वृषभेश कहें। शत-शत सुरपति शत-शत वन्दन, जिन-चरणों में सर धरते,
उन्हें न, मैं भाव-भक्ति से, मस्तक से झुक झुक कर के ॥१॥ "अन्वयार्थ : जेण जिणवरवसहेण] निवर धाम भगवाने [जीवमजीवं दव्यं] 04 भने म ध्यन णिद्दिट्ठ वायु, दिविंदविंदवंद] દેવેન્દ્રોના સમૂહથી વંદનીય તિ] તે પ્રથમ તીર્થંકર વૃષભદેવને હું (શ્રી , नमियन्द्र CAline4) [सव्वदा] [सिरसा मस्त नमावीन वन्दे] વંદન કરું છું. हिन्दी मैं (नेमिचन्द आचाय) जिस जिनवरों में प्रधान ने जोव और अजीव गायार्थ : द्रव्य का वर्णन किया उस देवेन्द्रादिकों के समूह से वंदित तीर्थंकर परमदेव को सदा मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ॥१॥ Translatien : I always salute with my head that eminent one among the great Jinas, who is worshipped by the host of Indras' and who has described the Dravyas (substances) Jiva' and Ajiva'.
हिन्दी पद्यानुवादक आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज
संकलनकर्ता श्री परिमल किशोरभाई खंधार, बंबई
प्रकाशक : श्रीमती समताबहेन खंधार चेरिटेबल ट्रस्ट २, आशियाना स्टर्लिंग पार्क, ड्राइव-इन सिनेमा के पास,
... अहमदाबाद-३८००५२
1. King of Devas. 2. Living Substances. 3. Non - living
substances.
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* जीव द्रव्य का कथन
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो बिस्ससोढगई ॥ २ ॥
जीवः उपयोगमयः अमूर्तिः कर्ता स्वदेहपरिमाणः । भोक्ता संसाररथः सिद्धः सः विस्रसा ऊर्ध्वगतिः ॥ २ ॥
सुनो ! जीव उपयोग-मयी है, तथा अमूर्तिक कहलाता,
स्व-तन- वराबर प्रमाणंवाला, कंर्त्ता-भोक्ता है भाता । ऊर्ध्व-गमनका स्वभाववाला, सिद्ध तथा है अविकारी, स्वभाव के वश, विभाव के वश, कसा कर्म से संसारी ॥ २ ॥
[सो] ते (छ) [जीवो] कुठे छे दिव्य भने भावप्राथी) [उवओगमओं] (पयोगमय छे [अमुत्ति] अमूर्ति छे, [कत्ता ] [ छे: [सदेहपरिमाणो] भोतानां शरीरप्रभाश रहेवावानी छे, [भोत्ता ] लोडता छे; [ संसारत्यो] संसारमा रहेवावाणी छे [सिद्धो] [सद्ध छे; [विस्तसा] स्वभावथी [उड्ढगई] अर्ध्वगमन उरवावाणी छे.
जो जीता है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्त्ता है, अपने शरीर के बराबर है, भोक्ता है, संसारमें स्थित है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करनेवाला है, वह जीव है ॥ २ ॥
Jiva is characterised by upayoga1, is formless and an agent, has the same extent as its own body, is the enjoyed (of the fauits of Karma), exists in samsar, is Siddha and has a characteristic upward motion.
*
1. Menifestation of conciousness. 2. doer. 3. accomplished liberated souls.
* जीव का लक्षण
तिक्काले चपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य । यवहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ॥ ३ ॥
त्रिकाले चतुः प्राणाः इन्द्रियं बलं आयुः आनप्राणः च । व्यवहारात् सः जीवः निश्चयनयतस्तु चेतना यस्य || ३ || आयुश्वास औ बल इन्द्रिय यूँ, चार-प्राण को धार रहा, विगत- अनागत- आगत में यह, जीव रहा व्यवहार रहा । किन्तु जीव का सदा-सदा से, मात्र चेतना श्वास रहा, निश्चय नय का कथन यही है "यह हम को" विश्वास रहा || ३ || - दिला हमें विश्वास रहा ||
[ववहारा] व्यवहार नयथी [जस्स] २ [तिक्काले] त्रशेय अणमां [इंदियबलमाउ] ईन्द्रिय, जाग, खायु [आणपाणो य] अने श्वासोच्छ्वास [चदुपाणा] मे थार प्राप्त होय छे, [दु] भने [णिच्छयणयदो] निश्वयनयधी [जस्स] ४ [चेदणा] येतना होय छे [सो] ते [जीवो] व छे.
व्यवहार नय से तीनकाल में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वास निःश्वास इन चारों प्राणों को जो धारण करता है, वह जीव है, और निश्चयनय से जिसके चेतना है, वही जीव है।
According to Vyavahara Naya1, that is called Jiva, which is possessed of four Pranas viz., Indriya (the senses), Bal (force), Ayu (life) ard Ana-Pranal (respiration) in the three periods of time ( viz., the present, the past and the future), and according to Nischaya Naya that which has consciousness is called Jiva.
*
1. Ordinary point of view. 2. Real point of view.
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माना जाता है,
* उपयोग के भेद . उवओगो दुवियप्पो वंसणणाणं च सणं चदुधा । . . चक्नु अचक्खू ओही सणमध केवलं णेयं ॥४॥ उपयोगः द्विविकल्पः दर्शनं ज्ञानं च दर्शनं चतुर्धा । चक्षुः अचक्षुः अवधिः दर्शनं अथ केवलं ज्ञेयम् ।। ४ ।। आतम में उपयोग द्विविध है, आगम ने यह गाया है, ज्ञान-रूप औ दर्शन-पन में, गुरुवर ने सपझाया है। ज्ञात रहे फिर दर्शन भी वह, चउविध माना जाता है, अचक्षु-दर्शन, चक्षु, अवधि औ केवल-दर्शन साता है।
[उदओगो] 64यो [दुवियप्पो] .t२2 [दसणणाणं च] शन भने न दिसणं] शन 6पयोगा [चदुधा] या२ 1.2-1. [णेयं] eneral - [चक्खुअवक्खूओही] यानि, अयशन, विहान [अघ] भने [केवलं दंसणं] 3am शन
उपयोग दो प्रकार का है -- दर्शन और ज्ञान । उसमें दर्शनोपयोग चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन एसे चार प्रकार का जानना चाहिये ॥ ४ ॥
Upayoga is of two Kinds, Darshana' and Jnana'.. Darshana is of four kinds. Darshana is known to be (divided into) Chaksu', Achaksu ,Avadhi and Kevala'.
* ज्ञानोपयोग के भेद
णाणं अट्ठवियप्पं मदिसुदिओही अणाणणाणाणि । मणपञ्जवकेवलमवि पञ्चक्खपरोक्खभेयं च ॥५॥ ज्ञानं अर्थविकल्पं मतिश्रुतावधयः अज्ञानज्ञानानि । मनःपर्थयः केवलं.अपि प्रत्यक्षपरोक्षभेदं च ॥ ५ ॥ मति-श्रुत दो-दो और अवधि दो उलटे-सुलटे चलते हैं, मन-पर्यय औ केवल दो यूँ ज्ञान-भेद वसु मिलते हैं। मति-श्रुत परोक्ष, शेष सभी हो विकल-सकल-प्रत्यक्ष रहे. लोकालोकालोकित करते त्रिभुवन के अध्यक्ष कहें ॥ ५ ॥
[गाणं] धन (16पयो) [अट्टवियप्पं] 16 M२-1 छ. [मदिसुदिओहि] भति, श्रुत, भवधि [अणाणणाणाणि न मने मान भने [मणपज्जव] मन:पयशान, [केवलं] 4muन. [अवि] भने (भ Aurlपयोग) [पञ्चक्खपरोक्खभेयं च प्रत्यक्ष माने पाया 45 छ.
कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल, ऐसे आठ प्रकार का ज्ञान है। इनमें कुअवधि, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल ये चार प्रत्यक्ष हैं, और शेष चार परोक्ष हैं।। ५॥
Jnana is of eight kinds, viz. Jnana and Ajnana of Matil, Sruta', and Avadhi', Manah-paryaya and Kevala'. It is also divided into Pratyaksha' and ' Paroksha' (from another point of view).
1. Perception of existence. 2. Knowledge. 3. Darshana through
the eye. 4. Darshana through senses other than eyes. 5. Psychic perception limited by space & time and obtained directly by soul. 6. Absolute, perfect Darshana.
1. Knowledge derived through the Senses and mind. 2.
Knowledge derived through scriptures, signs, symbols mainly using mind. 3. Psychic knowledge directly acquired by the soul. 4. Knowledge which can read thoughts of others. 5. Omniscience absolute Knowledge or Knowledge unlimited as to time, space or intensity. 6. Direct Knowedge of soul. 7. Indirect knowledge of Soul using senses and mind.
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* नय- विवक्षासे जीव का पुनः लक्षण
अटूट चतु णाणदंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं । बबहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं णाणं ॥ ६ ॥
अष्ट चतुर्ज्ञानदर्शने सामान्यं जीवलक्षणं भणितम् । - व्यवहारात् शुद्धनयात् शुद्धं पुनः दर्शनं ज्ञानम् ॥ ६
आम का साधारण लक्षण वसु-चउ-विध उपयोग रहा, गीत रहा व्यवहार गा रहा सुनो ! जरा उपयोग लगा । किन्तु शुद्ध-नय के नयनों में शुद्ध-ज्ञान-दर्शन वाला, आतम प्रतिभासित होता है बुध-मुनि-मन हर्षणहारा ॥ ६ ॥
[ववहारा] व्यवहारनयथी [अट्ठचदुणाणदंसण] 2016 प्रहार ज्ञान अने या प्रकार हर्शन [सामण्णं] सामान्यथी [जीवलक्खणं] वनुं सक्ष [भणि] वायां खायुं छे. [पुण] भने [सुद्धणया] शुद्ध निश्चयनयथी [सुद्ध] शुद्ध [दंसणं गाणं] ६र्शन भने ज्ञान [जीवलक्खणंभणियं] वनं લક્ષણ કહેવામાં આવ્યું છે.
व्यवहार नयसे आठ प्रकार के ज्ञान और चार प्रकार के दर्शन का जो धारक है वह सामान्य रूप से जीव का लक्षण है, और शुद्धनय की अपेक्षा जो शुद्ध ज्ञान दर्शन है वह जीव का लक्षण कहा गया है।
According to Vyavahara Naya, the general characteristics of Jiva are said to be eight kinds of Jnana and four kind of Darshana'. But according to Suddha Naya, (the characteristic of Jiva) are pure Jnana and Darshana.
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1. Knowledge having eight facets & Darshana having four facets is the interpretion of Vyavahara Naya. 2. Suddha Nischay Naya.
* जीव का मूर्तिक और अमूर्तिक रूप
यण रस पंच गंधा दो फासा अटूट णिच्छया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो ॥ ७ ॥
वर्णाः रसाः पंच गन्धौ द्वौ स्पर्शाः अष्टथै निश्चयात् जीवे । नो सन्ति अमूर्तिः ततः व्यवहारात् मूर्ति बन्धतः ॥ ७ ॥ पञ्च रूप, रस पञ्च, गन्ध दो, आठ-स्पर्श, सब ये जिन में, होते ना हैं, 'जीव' वही है कथन किया है यूँ जिन-ने । इसीलिए हैं जीव अमूर्तिक निश्चय-नय ने माना है, जीव, मूर्त व्यवहार बताता कर्मबन्ध का बाना है ॥ ७ ॥
[[णिच्छया] निश्चयनयथी [जीवे] वभi [वण्ण रस पंच] पांथ व पायरस [गंधा दो] जे. गंध भने [फासा अट्ठ] आठ स्पर्श [णो संति] होता नथी [तदो] तेथी [अमुत्ति] अमूर्ति छे [ववहारां] व्यवहारनयथी [बंधादो] उर्भबंधी अपेक्षा [मुत्ति]वं भूर्ति छे.
निश्चय नय से जीव में पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श नहीं हैं, इसलिये जीव अमूर्तिक है और व्यवहार नयकी अपेक्षा कर्म-बंध होने के कारण जीव मूर्तिक है |! ७ ॥
According to Nischaya Naya, Jiva is without form, because the five kinds of colour and taste, two kinds of smell, and eight kinds of touch are not present in it. But according to Vyavahara Naya [Jiva] has form through the bondage (of Karma ).
*
आदिम तीर्थंकर प्रभो, आदिनाथ मुनिनाथ । आधि व्याधि अघ मद मिटे, तुम पदमें मम माथ ॥
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* जीव का कर्तृत्व पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारयो दुणिच्छयदो। चेवणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥८॥ पुद्गलकर्मादीनां कर्ता व्यवहारतः तु निश्चयतः । चेतनकर्मणां आत्मा शुद्धनयात् शुद्धभावानाम् ॥ ८॥ पुदगल कर्मादिक का कर्ता जीव रहा व्यवहार रहा, रागादिक चेतन का कर्ता अशुद्ध-नय से क्षार रहा। विशुद्ध-नय से शुद्ध-भावका कर्ता कहते सन्त सभी, शुद्ध-भाव का स्वागत कर लो, कर लो भव का अन्त अभी ॥८॥
[आदा] भामा विवहारदो] यानयथा पुग्गलकम्मादीणं] (IनIReule) पुरानो [कत्ता] sol छ, णिच्छयदो] (शुद्ध) निशयनयी दिंदणकम्माणं] (Aue भा454) येतनभान छे. [६] भने [सुद्धणया] शुद्ध (निश्चय) नयी सुद्धभावाणं] (शुद्ध જ્ઞાન-દર્શનાદિ) શુદ્ર ભાવોનો કતાં છે.
आत्मा व्यवहारनयसे पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है, निश्चयनयसे चेतनकर्म का कर्ता है और शुद्धनय की अपेक्षा से शुद्ध भावों का कर्ता है ।। ८॥
According to Vyavahara Naya Jiva is the doer of the Pudgala Karmas. According to Nischaya Naya' (Jiva is the doer of) Thought Karmas. Accordirg to Suddha Naya Jiva is the doer of Suddha Bhavas
* जीव का भोक्तृत्व यवहारा सुहदुक्खं पुग्गलकर्मफलं पभुंजेदि । आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आवस्स ॥९॥ व्यवहारात् सुखदुःखं पुद्गलकर्मफलं प्रभुङ्क्ते ।। आत्मा निश्चयनयतः चेतनभावं खलु आत्मनः ॥ ९ ॥ आतम को कृत-कर्मों का फल सुख-दुख मिलता रहता है, जिसका वह व्यवहार-भाव से भोक्ता बनता रहता है। किन्तु निजी शुचि चंतन-भावों का भोक्ता यह आतम है, निश्चय-नय की यही द्रष्टि है कहता यूँ परमागम है॥१॥
[आदाभात्मा [ववहारा] व्यपारनयी [सुडदुक्खं] सुम-६५३५ [पुग्गलकम्मफलं] पुस भनु म [प जेदि] लोग छ भने [णिच्छयणयदो]. शयनयी [आदस्स] पोतन [चेदणभावं] (LENन३५) यतन्यमयने खु] लयमयी [प जेदि] लोग छ.:
।
व्यवहार नयसे आत्मा सुख दुःखरूप पुद्गल कर्मों को भोगता है और निश्चयनय से अपने चेतन स्वभाव को भोगता है ।। ९॥ ..
According to Vyavahara Naya, Jiva enjoys happiness and misery the fruits of Pudgal Karmas. According to Nischaya Naya, Jiva has conscious Bhavas Only.
1. Suddha Jnana, Suddha Darshana...etc.
शरण, चरण हैं आपके, तारण तरण जहाज । भव-दधि-तट तक ले चलो, करुणाकर जिनराज ||
1. Impure Nischaya Naya 2. Attachment, aversion etc. 3.
Suddha Jnana, Suddha Darshana etc..
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* जीव का प्रमाण अणुगुरुदेहपमाणो उपसंहारप्पसप्पदो चेदा । असनुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥ १०॥
अणुगुरुदेहप्रमाणः उपसंहारप्रसर्पतः चेतयिता ।
। असमुद्घातात् व्यवहारात् निश्चयनयतः असंख्यदेशो वा ।। १०॥ समुद्घात बिन सिकुडन-प्रसरण स्वभाव को जो धार रहा, लघु-गुरु तन के प्रमाण होता 'जीव' यही व्यवहार रहा । स्वभाव से तो जीवात्मा में असंख्यात-परदेश रहे, निश्चव-नय का यही कथन है सन्तों के उपदेश रहे ||.१०॥ ( [चेदा] आत्मा [ववहारा] व्यवनयी [असमुहदो] समुधात . भवस्थाने छोडने अन्य अवस्थामामा [उवसंहारप्पसप्पदो] सय भने. विस्तार ॥२. [अणुगुरुदेहपमाणो] नाना-मो शरीर माम. छ; [वा] भने, णिच्छयणयदो] नियनयथा [असंखदेसो] संन्यात प्रशिवाको
* जीव के भेद
पुढविजलतेयवाऊ वणफदी विविहथावरेइंदी । विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा होति संखावी ॥११॥ पृथिवीजलतेजोवायुवनस्पतयः विविधस्थावरैकेन्द्रियाः । .. द्विकत्रिकचतुःपञ्चाक्षाः त्रसजीवाः भवन्ति शंखादयः ।। ११ ॥ पृथवी-जल-अंगनी-कायिक औ वायु-वृक्ष-कायिक सारे, बहुविध 'स्थावर' कहलाते हैं मात्र एक-इन्द्रिय धारे । द्वय-तिय-चउ-पथेन्द्रिय-धारक त्रस-कायिक' प्राणी जाने, भव-सागर में भ्रमण कर रहे कीट-पतंगे मन माने ॥ ११॥
[पुढविजलतेयवाऊवणफदी] पृथ्वीय, ४६., भानिय, वायु.१५ भने वनस्पतिय विविहथावरेइंदि] भने २- स्थावर मरन्द्रय ®® अने[सखादि] शंाहि [विगतिगचदुपंचक्खा बन्द्रय, तन्द्रिय, यौन्द्रिय भने पंथन्द्रिय [तसजीवा] १२१. 4. [होंति] डाय छ.. .
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन भेदों से नाना प्रकार के स्थावर जीव हैं और ये सब एक स्पर्शन इन्द्रिय के ही धारक हैं, तथा शंख आदि दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियों के धारक त्रसजीव होते हैं ॥ ११ ॥
The earth, water, fire, air and plants are various kinds of sthavara' possessed of one sense (i.e. touch) and conches... etc. are Trasa Jivas, are possessed of two, three, four and five senses.
समुद्रघात के बिना यह जीव व्यवहार-नय से संकोच तथा विस्तार से अपने छोटे और बड़े शरीर के प्रमाण रहता है और निश्चयनय से असंख्यात प्रदेशों का धारक है ।। १०॥
According to Vyavahara Naya, the conscious Jiva, being without Samudghata (the exit of Jiva from the body to another form, without leaving the original body altogether), becomes equal in extent to a small or a large body, by its ability of contraction and expansion; but according to Nischaya Naya (it) is existent in innumerable Pradesas'.
1. That portion of Akasa which is occupied by one indivisible
atom).
1. Immobile, not capable of spontaneous movement in case
of trouble... etc. 2 Mobile, capable of spontaneous . movement in case of trouble...etc.
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* चौदह जीवसमास
समणा अमणा णेया पंचिंदिय णिम्मणा परे सब्बे । बादरसुहमेइंदी सव्वे पनत्त इदरा य ॥ १२ ॥ समनस्काः अमनस्काः ज्ञेयाः पञ्चेन्द्रियाः निर्मनस्काः परे सर्वे । बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियाः सर्वे पर्याप्ताः इतरे च ।। १२ ।। द्विविध रहे हैं 'पञ्चेन्द्रिय' भी रहित-मना औ सहित-मना, शेष जीव सब रहित मना हैं कहते इस विध विजित-मैना। स्थावर, बादर-सूक्ष्स द्विविध हैं, दुख से पीडित हैं भारी, फिर सब ये पर्याप्त तथा हैं पयतितर संसारी ।। १२ ।।
[पंचिंदिय] पयन्द्रिय ®d [समणा] संsa (भन सरित.) भने [आमणा) Mislu (भनलित) [णेया] वामे [परे] शेष [सबे] बधा (Sal) [णिम्मणा] संजी. [णेया] वा; तमi [एइंदि] इन्द्रिय ®4 [बादरसुहमा बा६२ भने सूक्ष्म अम न छ. सिव्वे] भने बधा [पज्जत्त] / [इदरा य] भने अपाय छे.
पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो तरह के जानने चाहिये शेष सब (एकेन्द्रिय, दो-इन्द्रिय, ते-इन्द्रिय, चौ-इन्द्रिय) जीव मनरहित असंज्ञीं हैं । एकेन्द्रिय जीव बादर और सूक्ष्म दो प्रकार के हैं। और ये सातों जीव पर्याप्त तथा अपर्याप्त होते हैं। इस तरह जीवसमास १४ हैं ।। १२ ।।
Jivas possessing five senses are known to be divided into Samana' and Amana. All the rest are Amana. Jivas. having one sense are divided into two classes Badara and Suksama. All of these Jivas are seen to be Paryapta and Aparyapta.' 1. Samana - Sanjni, those having mind..2.-Asanjni, those
without mind. 3. Gross, visible through naked eyes. 4. Subtle, not visible through naked eyes. 5. One who will complete his requirements. 6. One who will not complete his requirements.
* मार्गणा और गुणस्थानकी अपेक्षा जीव के भेद मगणगुणठाणेहि य चउवसहि हवंति तह असुद्धणया । विण्णेया संसारी सबे सुद्धा हु सुद्धणया ॥ १३ ॥ मार्गणागुणस्थानैः च चतुर्दशभिः भवन्ति तथा अशुद्धनयात् । विज्ञेयाः संसारिणः सर्वे शुद्धाः खलु शुद्धनयात् ॥ १३ ॥ तथा मार्गणाओं में चौदह गुणथानों में मिलते हैं,
अशुद्ध-नय से प्राणी-भव में युगों-युगों से फिरते हैं। 'किन्तु सिद्ध-सम विशुद्ध-तम हैं सभी जीव ये अधिकारी, विशुद्ध-नय का विषय यही है विषय त्याग दे अधकारी ॥ १३ ॥
[तह तथा [संसारी] संरी 4 [असुद्धणया] अशुद्धनयथा (4ववारनयची) [मग्गणगुणठाणेहि य] भास्थान, भने स्थाननी अपेक्षाची [चउदसहि यौह शौहरन हिवंत छ. [सुद्धणया] शुद्ध निश्चयनयथा [सव्वे] 4 4 ह] नियमथा. [सुद्ध] शुद्ध विण्णेया] यावा.
संसारी जीव अशुद्धनय की दृष्टि से चौदह मार्गणा तथा चौदह गुणस्थानों से चौदह-चौदह प्रकार के होते हैं और शुद्धनय से सभी संसारी जीव शुद्ध हैं ॥ १३ ॥
Again according to impure (Vyavahara) Naya Samsari Jivas are of fourteen kinds according to Margana? and Gunasthana'. According to pure (Nischaya) Naya all Jivas should be understood to be
pure.
1. Unliberated. 2. States or conditions in which Jivas are
found. 3. The gradual Stages of development of soul with reference to delusion and yoga (activity).
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* सिद्धों का स्वरूप णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिचा उप्पादवएहि संजुत्ता ॥ १४ ॥ निष्कर्माणः अष्टगुणाः किञ्चिदूनाः चरमदेहतः सिद्धाः ।, लोकाग्रस्थिताः नित्याः उत्पादव्ययाभ्यां संयुक्ताः ।। १४ ।। अष्ट-कर्म से रहित हुये हैं अष्ट-गुणों से सहित हुये, अन्तिम. तन से कुछ कम आकृति ले अपने में निहित हुये। तीन-लोक के अग्र-माग पर सहज-रूप से निवस रहें, उदय-नाश-ध्रुव स्वभाव युत हो शुद्ध-'सिद्ध' हो दिवस रहें ॥ १४ ॥
[णिकम्मा) नाव२४ महिमा भाषा हित [अट्ठगुणा] सभ्यत्वाहि माथी सहित चरमदेहदो] अन्तिम शरीरथी (किंचूणा] 38 न्यून णिच्चा नित्य [उप्पादवएहिं] 64 भने व्यथा [संजुत्ता] संयुक्त लोयग्गठिदा] बोsi MAHIT स्थित सिद्धा] सिद्ध
* अजीवद्रव्यों के नाम और उनके मूर्तिक
अमूर्तिकपने का वर्णन . . अजीयो पुण णेओ पुग्गलधम्मो अधम्म आया । कालो पुग्गत मुत्तो स्वादिगुणो अमुत्ति सेसा हु॥ १५ ॥ अजीवः पुनः ज्ञेयः पुद्गलः धर्मः अधर्मः आकाशम् । कालः पुद्गलः मूर्तः रूपादिगुणः अमूर्ताः शेषाः तु ॥ १५ ॥ पुद्गल-अधर्म-धर्म-काल-नम-पाँच-द्रव्य इन को मानो, चेतनता से दूर रहें ये 'अजीव ता पहिचानो। रूपादिक गुण धारण करता मूर्त-द्रव्य 'पुद्गल' नाना, 'शेष द्रव्य हैं अमूर्त, क्यों फिर मूर्तों पर मन मचलाना ? ॥ १५ ॥
[पुण] पुग्गल] पुल [धम्मो ध[अधम्म भवन (आयास) भश भने - [कालो] ग भेने [अञ्जीवो] 24 [णेओ] Me4l, [रूवादिगुणो] ३ असोधी युति [पुग्गल] पाल [मुत्तो भूति छ [सेसा दु] भने austri यो [अमुत्ति] भभूति छ.
पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अजीव द्रव्य जानने चाहिये ! 'इनमें रूप आदि गुणों का धारक पुद्गल तो मूर्तिमान है और शेष चारों द्रव्य अमूर्तिक हैं ।। १५ ॥
Again Ajivas should be known to be Pudgala', Dharma , Adharma', Akasa' and Kala'. Pudgala has form and the qualities dolour, smell..etc. and the rest are without form.
।
जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों के धारक हैं और अन्तिम शरीर से कुछ कम आकारवाले हैं, वे सिद्ध हैं और ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद, व्यय से युक्त हैं ।। १४ ॥
The siddhas' are free from the bondage of all Karmas, possessed of eight qualities, slightly less than the final body, eternal, possessed of utpada' and vyaya' and permanently existent at the summit of loka.
1. Liberated souls. 2. Origination or generation. 3. destruction.
4. The part of Space where all six substances exist.
1. Matter with nature of formation of deformation. 2. The
principle or fulcrum of motion. 3. The principle of stationariness or the fulcrum of rest..4. Space..5. Time...
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* पुदगल-द्रव्य की पर्याय - सहो बंधो मुहुमो धूलो संठाणभेदतमछाया । • . उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्यस्स पञ्जाया ॥ १६ ॥
शब्दः बन्धः सूक्ष्मः स्थूलः संस्थानभेदतमश्छायाः । उद्योतातपसहिताः पुद्गलद्रव्यस्य पर्यायाः ॥ १६ ।। टूटन-फूटन रूप भेद औ सूक्ष्म-स्थूलता आकृतियाँ, श्रवणेन्द्रिय के विषय-शब्द भी प्रतिछवि छाया या कृतियाँ । चन्द्र, चाँदनी, रवि का आतप अन्धकार आदिक समझो, 'पुद्गल की ये पर्यायें हैं पर्यावों में मत उलझो ॥ १६ ॥
[सहो] २०६, [बंधो] बंध, [मुहुमो] सूक्ष्म, [थूलो स्थूग, [संठाण] भास२, भेद 3 ), तिम) भंडार, [छाया] स्या, [उज्जोद] उधोत. [आदव-सहिया] भने माता सहित [पुग्गल-दव्वस्स] पुगत दयनी [पञ्जाया] पायो छे.
शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आतप सहित सब पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं ।। १६ ॥
Sound, union', fineness, grossness, shape, division, darkness, image, Atapa and udhyota are modifications of the substance known as Pudgala.
*धर्म-द्रव्य का स्वरूप गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाणं गमणसहयारी । तोयं जह. पच्छाणं अच्छंताणेव सो णेई ॥ १७ ॥ गतिपरिणतानां धर्मः पुद्गलजीवानां गमनसहकारी ! तोयं यथा मत्स्यानां अगच्छतां नैव सः नयति ।। १७ ॥ गमन-कार्य में निरत रहे जब जीव तथा पुद्गल-भाई, 'धर्म-द्रव्य' तब बने सहायक प्रेरक बनता पर नाही । मीन तैरती सरवर में जब जल बनता तब सहयोगी, रुकी मीन को गति न दिलाता उदासीन भर हो, योगी ! ॥ १७ ॥
[जह] ठेवी 2 [गइपरिणयाण [मच्छाणं] Huelोने [गमणसहयारी] अमन थामी साय [तोय) पी थाप छ [तह तवा शत. [गइपरिणयाण] गति ४२ पुग्गलीवाण] ® भने पुरखने [गमणसहयारी] मन (यालामi) ४२वामा सय [धम्मो] दिव्य छ, पर [सो] ते पदव्य [अच्छंता] याने (04-पुहबने) (णेव णेइ) यातुं नयी
गमन में परिणत पुद्गल और जीवों को गमन में सहकारी धर्मद्रव्य है, जैसे जल मछलियों को गमन में सहकारी है। गमन करते हुए यानी - ठहरे हुए पुद्गल और जीवों को धर्मद्रव्य गमन नहीं कराता ।। १७ ॥
1. Bondage 2. Heat & light caused by sun. 3. Light resulting
from the moon, fire-fiy, jewel...etc. things which are not hot or without heat.
As water assists the movement of moving fish, Dharma assists the movement of moving Jiva and Pudgala. But it does not move Jiva and Pudgala which are not moving.
जित-इन्द्रिय जित-मद बने, जित-भव विजिंत-कषाय । अजित-नाथ को नित नमू, अर्जित दुरित पलाय ॥ .
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* अधर्म-द्रव्य का स्वरूप टाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई ॥ १८ ॥ स्थानयुतानां अधर्माः पुद्गलजीवानां स्थानसहकारी । छाया यथा पथिकानां गच्छतां नैव सः धरति ॥ १८ ॥ किसी यान में रुकते में जब जीव तथा पुद्गल भाई, 'अधर्म उसमें बने सहायक प्रेरक बनता पर नाही।
रुकने वाले पथिकों को तो छाया कारण बनती है, • चलने वालों को न रोकती उदासीनता ठनती है ।। १८ ॥
जह वी शत छाया] छया [ठाणजुदाण स्थिर हा पहियाणं] भुसाशन ठाणसहयारी] स्थिर वाम सरी थाय छ [तह सेवा शत. [पुग्गलजीवाण] पुरा भने पान (स्थि२ २४वाम सरी) अधम्मो] अधदिव्य छ ५० [सो] पदव्य [गच्छंता] याबवावा ®4 भने पुसलादल्याने [णेव धरई) 24.रानी ..
ठहरे हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य । है। जैसे छाया यात्रियों को ठहरने में सहकारी है । गमन करते हुए जीव तथा । पुद्गलों को अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता ॥ १८॥
As shadow assists the staying of travellers, Adharma substance assists the staying of the pudgalas and Jivas which are stationary. But it doesn't hold back moving Jiva and Pudgala.
* आकाश-द्रव्य का स्वरूप _अवगासदाणजोगं जीवादीणं वियाण आयासं ।
जेण्डं लोगागास अल्लोगागासमिवि दुविहं ॥ १९ ॥ अवकाशदानयोग्यं जीवादीनां विजानीहि आकाशम् ।। जैनं लोकाकाशं अलोकाकाशं इति द्विविधम् ।। १९ ।। योग्य रहा अवकाश दान में जीवादिक सब द्रव्यों को, वही रहा 'आकाश-द्रव्य है समझाते जिन, भव्यों को। दो भागों में हुआ विभाजित बिना किसी से वह भाता, एक ख्यात है लोक-नाम से अलोक न्यारा कहलाता ॥ १९ ॥
[जीवादीणं] 94 भाहियोन [अवगासदाणजोग्गं] 14.50 भाषा, योग्य जण्ह लिनेन्द्र मावाने से [आयासं] माश-द्रव्य [वियाण]
. मा भा.शदव्य लोगागास] लाश, भने [अल्लोगागास] भLA [इदि] भै [दुविहं] सर्नु छ.
जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश देने वाला है उसको जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो । लोकाकाश और अलोकाकाश इन भेदों से वह आकाश दो प्रकार का है ॥ १९॥
Know that which is capable of allowing space to Jiva...etc., to be 'Akasa' as told by the Jinendradeva (Tirthankara). This Akasa is of two kinds Lokakasa and Alokakasa.
1. That which allows space to other substances.
कोंपल पल-पल कों पले, वन में ऋतु-पति आय । पुलकित मम जीवन-लता, मन में जिन पद पाय ॥
तुम-पद-पंकज से प्रभो, झर-झर-झरी पराग । जब तक शिव-सुख ना मिले, पीऊँ षट्पद जाग ॥
१८
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* आकाश-द्रव्य के भेद धम्माघम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये। आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्ति ॥ २०॥ धमाधर्मी कालः पुद्गलजीवाः च सन्ति यावतिके । आकाशे सः लोकः ततः परतः अलोकः उक्तः । २०॥ जीव-द्रव्य औ अजीव-पुद्गल काल-द्रव्य आदिक सारे, जहाँ रहें बस 'लोक' वही है लोक पूज्य जिन-मत पारे। तथा लोक के बाहर, केवल फैला जो आकाश रहा, 'अलोक' वह है केवल दर्पण में लेता अवकाश रहा ॥ २०॥
[जावदिये] क्षl [आयासे] ALLAH [धमाधम्मा] , मर्म [कालो] आग [य] भने पुग्गलजीवा] पुराल भने 4 [संति छ. [सो] ते [लोगो] els छ, [तत्तो] eLLIEN [परदो] बार ते [अलोगुत्तो] ASLIL sali भावे छ.
धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव ये पाँचों द्रव्य जितने आकाश में हैं, वह "लोकाकाश" है और उस लोकाकाश के बाहर अलोकाकाश है ॥२०॥
Lokakasa is that in which Dharma, Adharma, Kala, Pudgala and Jiva exist. That which is beyond this Lokakasa is called Alokakasa.'.
* कालद्रव्य का स्वरूप व उसके दो भेद . वव्वपरिवहरूबो जो सो कालो हवेइ यवहारो । परिणामादीलक्खो बट्टणलक्खो य परमट्ठो ॥२१॥ द्रव्यपरिवर्तनरूपः यः सः कालः भवेत् व्यवहारः । परिणामादिलक्ष्यः वर्तनालक्षणः च परमार्थः ॥ २१ ॥ जीव तथा पुद्गल-पर्यायों की स्थिति अवगत जिससे हो, लक्षण वह 'व्यवहार-काल'का परिणामाविक जिसके हो । तथा वर्तना-लक्षण जिसका 'काल' रहा परमार्थ वही, समझ काल को उदासीन, पर वर्णन का फलितार्थ यही ॥ २१ ॥
[जो रे [दव्वपरिवट्टरूपो] Avi (Bq, पुस, धम् माहि) પરિવર્તનમાં (મિનિટ, કલાક, માસ... વગેરે રૂપ છે) કારણ છે અને [परिणामादीलक्खो] परिमन माह audel 00 २५५५ [सो] ते [ववहारो] या छ [य] मने विट्टणलक्खो पतनक्षवाणी [परमट्ठो] ५२मा (निश्चय॥१) छे.
जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक, परिणामादि रूप है, वह व्यवहारकाल है और वर्तना-लक्षणवाला जो काल है वह निश्चयकाल है ।। २१ ॥
Vyavahara Kala' is that which helps to produce changes in substances and which is known from modifications' while Parmarthik (Nischaya) Kala is characterised by Vartana'.
1. Empty space, where no other substance exists.
भय-भय, भव-वन भ्रमित हो, भ्रमता-भ्रमता आज । संभय-जिन भव शिव मिले, पूर्ण हुआ मम काज ॥
1. Time from the ordinary point of view eg. day, week,
minute... etc. 2. produced in substances. 3. Continuity.
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* निश्चय-काल का स्वरूप
लोयायासपदेसे इकिके जे ठिया हु इकिका । रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्याणि ॥ २२ ॥ लोकाकाशप्रदेशे एकैकस्मिन् ये स्थिताः हि एलेकाः । रलानां राशिः इव ते कालाणवः असंख्यद्रव्याणि ।। २२ ।। इक-इक इस आकाश-देश में इक-इक कर ही काल रहा. रतनों की वह राशि यथा हो फलतः अणु, अणु-काल कहा। परिगणनायें ये सब मिलकर अनन्त ना, पर अनगिन हैं, स्वभाव से तो निष्क्रिय इन को कौन देखते, बिन जिन हैं ? ॥२२॥
इक्विके] मे मे [लोयायासपदेसे] ALLIAFi प्रश ५२ [जे] है [रवणाणं] २ला- [रासी इव] राशि अर्थात मान समान [इक्किका (मे- कालाणू] पदव्या भाभी [ठिया स्थित छ [] त Sugो हु] निश्ययी [असंखदव्वाणि] मन्यात यछ.
जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रनों के ढेर समान परस्पर भिन्न होकर एक एक स्थित हैं, वे कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं ।। २२ ॥
Those innumerable substances which exist one by one on each pradesa of Lokakasa, like heaps of jewels, are kalanu'.
* पाँच अस्तिकाय ' एवं छड्भेयमिदं जीवाजीवप्पभेवदो दव्वं ।
उत्तं कालविजुत्तं णादवा पंच अत्यिकाया दु ॥ २३ ॥ एवं षड्भेदं इदं जीवाजीवप्रभेदतः द्रव्यम् । उक्तं कालवियुक्तं ज्ञातव्याः पञ्च अस्तिकायाः तु ।। २३ ।। जीव-भेद से अजीव-पन से द्रव्य मूल में द्विविध रहा, धर्मादिक वशषइविध हो फिर उपभेदों से विविध रहा।' किन्तु काल तो अस्तिकायपन से वर्जित ही. माना है, शेष द्रव्य हैं अस्तिकाय यूँ "ज्ञानोदय" का गाना है ॥ २३ ॥
[एवं] भा प्रभाव [जीवाजीवप्पभेददो] ® भने भवन Malal [इदं] भादव्यं] दव्य [छब्मेयं] ७.[उत्तं] वाम भाव्या छ. [] भने तमा [कालविजुत्तं] द्रव्य सिवाय [पंच अस्थिकाया] पांथ मस्तिय [णादव्वा] वा
इस तरह जीव और अजीव द्रव्य के प्रभेदरूप छह प्रकार के द्रव्यों का निरुपण किया । इन छह द्रव्यों में से कालद्रव्य के बिना शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय जानने चाहियें ॥ २३ ॥
In this manner this Dravya (substance) is said to be of six kinds, is subdivided in two kinds Jiva & Ajiva. The five, without kala, should be understood to be Astikayas."
1. Points of time.
1. One which has many Pradesas.
विषयों को विष लख तनँ, बनकर विषयातीत । . विषय बना ऋषि-ईश को, गाऊँ उनका गीत ॥
गुण धारे पर मद नहीं, मूदुतम हो नवनीत । . अभिनन्दन जिन ! नित न, मुनि बन मैं भवभीत ॥
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* अस्तिकाय का लक्षण संति जदो तेणेदे अत्यित्ति भणति जिणवरा जमा । काया इव बहुवेसा तझा काया य अत्थिकाया य ॥ २४ ॥ सन्ति यतः तेन एते अस्ति इति भाणन्ति जिनवराः यस्मात् । काया इव बहुदेशाः तस्मात् कायाः च अस्तिकायाः च ।। २४ ।। चिर से हैं ये सारे चिर तक इनका होना नाश नहीं, . इन्हें इसी से 'अस्ति' कहा है जिन-ने, जिनमें त्रास नहीं । काया के सम बहु-प्रदेश जो धारे उनको. 'काय' कहा, तभी अस्ति औ काय मेल से अस्तिकाय' कहलाय यहाँ ॥ २४ ॥
[जदोथी शन एदे] भL (@LE ७) द्रव्य [संति] सहा विधान २ छ तिण] ते जिणवरा] निन्द्रटेन [अत्यित्ति] अस्ति' मेभ [भणंति] छ [य] भने [जम्हा या 50 [काया इव] शरीर-1 संभान बिहुदेसा] 4u प्रदेशमा [तम्हा] तथा [काया] 'stu' acाय छ [य] भने [अस्थिकाया] u भगाने मस्तिय वाय छ..
* द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या
होति असंखा जीवे धम्माधम्मे अणंत आयासे । . मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ॥ २५ ॥
भवन्ति असंख्याः जीवे धर्माधर्मयोः अनन्ताः आकाशे । मूर्ते त्रिविधाः प्रदेशाः कालस्य एकः न तेन सः कायः ॥ २५ ॥ एक जीव में नियम रूप से असंख्यात-परदेश रहे, धर्म-द्रव्य औ अधर्म भी वह उतने ही परदेश गहे। अनन्त नभ में, पर पुद्गल में संख्यासंख्यानन्त रहे, एक काल में तभी काल ना काय रहा, अरहन्त कहें ॥ २५ ॥
[जीवे म [धम्माधम्मे] धर्म भने अ न्योल [असंखा मण्यात [आयासे] ALLAGAvi [अणंत भनid [मुते] पु l [तिदिह २ Astri संvrut, असंन्यात भने अन्त पदेसा] प्रशो [होति य छ [कालस्स] दमन [एगो में प्रदेश तिण] तथा [सो] a stu [काओ] 314. अथात महेश [ण] नथ..
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँचों द्रव्य विद्यमान हैं इसलिए जिनेश्वर इनको 'अस्ति' (है) ऐसा कहते हैं और ये शरीर के समान बहुप्रदेशी हैं इसलिए इनको 'काय' कहते है। अस्ति तथा काय दोनों को मिलाने से ये पाँचों 'अस्तिकाय' होते हैं ॥ २४ ॥
एक जीव, धर्म तथा अधर्म द्रव्य में असंख्यात प्रदेश हैं और आकांश में अनन्त हैं। पुद्गल में संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश है और काल के एक ही प्रदेश है इसलिये काल 'काय' नहीं है ।। २५ ॥
___As these (five substances) exist, they are called 'Asti' by the great Jinas, and because they have many pradesas, like bodies therefore they are called kayas. Hence they are called 'Astikayas'
In Jiva, Dharma and Adharma, the pradesas are innumerable in Akasa (the pradesas are) infinite and in that which has form (viz. Pudgala) Pradesas are of three kinds (viz. numerable, innumerable and infinite). Kala (Time) has one Pradesa. Therefore, it is not called 'kaya.'
२४
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* प्रदेश का लक्षण . एयपदेसो वि अणू णाणाखंघप्पदेसदो होदि । बहुदेसो उक्यारा तेण य काओ भणति सव्यण्ड ॥ २६ । एकप्रदेशः अपि अणुः नानास्कन्धप्रदेशतः भवति । बहुदेशः उपचारात् तेन च कायः भणन्ति सर्वज्ञाः ॥ २६ ॥ प्रदेश इक ही पुद्गल-अणु में यद्यपि हमको है मिलता, रूखे-चिकने स्वभाव के वश नाना-स्कन्धों में ढलता ! होता बहुदेशी इस विध अणु यही हुआ उपचार यहाँ, सर्वज्ञों ने अस्तिकाय फिर उसे कहा श्रुत-धार यहाँ ।। २६ ॥
[एयपदेसो वि] में प्रदेशका ७i [अणू] पुगब ५२भानु [णाणाखंघप्पदेसदो] विविध सं५३५. प्रशिवाणो यो पाने ४२५ [बहुदेसो] महेशी [होदि] पाय छ [य] भने तिण] १२थी. [सवण्हु) स व' पुस५२माने [उवयारा]. ५यारथी [काओ] 14 मधात बहेश भणंति] .
एक प्रदेशी भी परमाणु अनेक स्कन्धरूप बहुप्रदेशी हो सकता है इस कारण सर्दशदेव उपचार से पुद्गल परमाणु को 'काय' कहते हैं ॥ २६ ॥
An atom (of Pudgala), though having one Pradesa, becomes of many pradesas, through being Pradesa in many skandhas.'. For this reason, from the ordinary point of view, the omniscient ones call (it to be) 'Kaya.'
के प्रदेश का लक्षण
जावदियं आया अविभागीपुग्गलाणुउद्धं । तं तु पदेसं जाणे सव्वाणुढाणदाणरिहं ॥ २७ ॥ . यावतिकं आकाशं अविभागिपुद्गलाण्वष्टश्चम् । ' तं खलु प्रदेशं जानीहि सर्वाणुस्थानदानाहम् ॥ २७ ॥ जिसमें कोई भाग नहीं उस अविभागी पुद्गल-अणु से, व्याप्त हुआ आकाश-भाग वह प्रदेश माना है जिनसे । किन्तु एक आकाश देश में सब अणु मिलकर रह सकते,..
वस्तु तत्त्व में बुध-जन रमते जड़-जन संशय कर सकते ॥ २७॥ . (जावदियं] हेलु [आयासं] भL [अविभागीपुग्गलाणुउदृद्ध में અવિભાગી અથતુ જેનો બીજો ભાગ ન થઈ શકે એવા પુદ્ગલ પરમાઇ द्वारा छ ति] ते [ख] निश्चयची [सव्वाणुट्ठाणदाणरिहंसर्व भाभाने स्थान का योग्य [पदेस] प्रदेश [जाणे] को
जितमा आकाश अविभागी पुद्गलाणु - से रोका जाता है उसको सब परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ 'प्रदेश' जानो ॥ २७॥
।
Know that to be surely Pradesa, the space of which is occupied by one undivisible atom of Pudgala and which can give space to all particles.
सुमतिनाथ प्रभु सुमति दो, मम मति है अति मंद । बोध कली खुल-खिल उठे, महक उठे मकरन्द ॥
1. Modifications of Pudgala achieved when many atoms
combine together.
तुम जिन मेघ मयूर मैं, गरजी बरसो नाथ । चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा, ऊपर करके माथ ॥
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* सात पदार्थों का नाम-निर्देश
आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खो सपुण्णपाया जे।।। जीवाजीबबिसेसा तेवि समासेण पभणामो ॥ २८॥ आसवबंधनसंवरनिर्जरमोक्षाः सपुण्यपापाः ये। . जीवाजीवविशेषाः तान् अपि समातेन प्रभणामः ॥ २८ ॥ आग्रव-बन्धन-संवर-निर्जर-मोक्ष-तत्त्व भी बतलाया, सात-तत्त्व, नव पदार्थ होते पाप-पुण्य को मिलवाया। जीव-द्रव्य औ-पुद्गल की ये विशेषतायें मानी है, कुछ वर्णन अब इनका करती जिन-गुरु-जन की वाणी है ॥२८॥
जि] [आसवबंधणसंवरणिज्जरमोक्खो भाशय, अंध, संदर, निर, भोला सिपुण्णपावा] पु१५ भने ५५ सहित त तप छ । [जीवाजीवविसेसा] 0 भने भ व्य मे तिवि] तेगाने ५५ [समासेण] संदेपथी [पभणामो] भाग में छी.
अब जीव, अजीव के भेदरूप जो आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य तथा पाप ऐसे सात पदार्थ हैं, इनको संक्षेप से कहते हैं ।। २८ ॥
We shall describe briefly those varieties of Jiva and Ajiva which are (known as) Asrava, Bandha, Samvara, Nirjara and Moksha with Punya' and Papa.?
* आम्रव का स्वरूप
आसवदि जेण कर्म परिणामेणप्पणो स विण्णेओ । भावासको जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि ॥ २९ ॥ आस्रवति येन कर्म परिणामेन आत्मनः सः विज्ञेयः । भावासवः जिनोक्तः कर्मास्रवणं परः भवति ।। २९ ।। द्रव्याखव औ भावासव यों माने जाते आसव दो. आतम के जिन परिणामों से कर्म बने 'भावासव' सो । कर्म-वर्गणा जड़ है जिन का कर्म रूप में ढल जाना, 'द्रव्याखव' बस यही रहा है जिनवर का यह बतलाना ॥ २९ ॥
[अप्पणो] भान [जेण] के [परिणामेण] परिणामयी [कम्म] पुनल 5 [आसवदि] भावे छ [स] २ [जिणुत्तो निद्राने ideal ___ [भावासवो भावास [विण्णेओ] neो रोई माने [कम्मासवणं] पुसख
भनु भाव त परो] द्रव्यानव [होदि] छ.
आत्मा के जिस परिणाम से कर्म का आस्रव होता है उसे श्री जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ भावास्रव जानना चाहिए कर्मों का और जो ज्ञानावरणादिक रूप कर्मों का आस्रव है सो द्रव्याखव है ॥ २९ ॥
That modification of the soul by which Karma gets into it is to be known as Bhavasrava as told by the Jina and the influx of Karma is to be known as the other kind of Asrava, Dravyasrava.
1. Auspicious Bhava. 2. Inauspicious Bhava.
शुभ्र-सरल तुम, बाल तव, कुटिल कृष्णन्तम नाग । तव चिति चित्रित ज्ञेय से, किन्तु न उसमें दाग ॥
विराग पद्मप्रभु आपके, दोनों पाद-सराग । रागी मम मन जा वहीं, पीता तभी पराग ॥
२८
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* भावानव के भेद मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओऽथ विष्णेया। पण पण पणदस तिय यदु कमसो भेदा दु पुष्यसि ॥ ३०॥ मिथ्यात्वाविरतिप्रमाद योगक्रोधादयः अथ विज्ञेयाः । पश्च पञ्च पञ्चदश त्रयः चत्वारः क्रमशः भेदाः तु पूर्वस्य ॥ ३०॥ मिथ्या-अविरति पाँच-पाँच हैं त्रिविध योग का बाना है, पन्द्रह-विध है प्रमाद होता कषाय-चउविध माना है। भावात्रव के भेद रहे ये रहे ध्यान में जिन-वचना, ध्येय रहे आस्रव से बचना जिन-वचना में रच-पचना ॥ ३०॥
[अथ] भने पुव्वरस] पूर्व मतभावास [मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ] मध्यात्प, भविशति, प्रमा, यो भने उपाय [भेदा) मे [९] भने कमसो] तेन ॐ शन [पण पण पणदस तिय चदु] पांय, पाय, ५४२, र भने या२ मधे [विण्णेया] Seal भे..
पहले यानी भावास्रवके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग और क्रोधादि कषाय ऐसे पाँच भेद जानने चाहिये । उनमें से मिथ्यात्व आदि के क्रमसे पाँच, पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद हैं ॥ ३०॥
Then it should be known that the subdivisions of the former (i.e. Bhavasrava) are Mithyatva', Avirti', Pramad', Yoga and Kasaya' which are again of five, five, fifteen, three and four classes respectively.
* द्रव्यानव का स्वरूप व भेद ‘णाणावरणावीणं जोगं जं पुग्गलं समासवदि । वव्यासयो सणेओ अणेयभेओ जिणक्खादो ॥ ३१ ॥ ज्ञानावरणादीनां योग्यं यत् पुद्गलं समास्रवति । द्रव्यास्रवः सः ज्ञेयः अनेकभेदः जिनाख्यातः ॥ ३१ ॥ ज्ञानावरणादिक कर्मों में ढलने के क्षमता वाले, पुद्गल-आम्रव, 'द्रव्यासव' है जिन कहते समतावाले । रहा एक विध, द्विविध रहा वह चउविध, वसुविध, विविध रहा, दुखद तथा है, जिसे काटता निश्चित ही मुनि-विबुध रहा ॥ ३१ ॥
[णाणावरणादीणं] UPuReule 5 ३५ [जोगं] 44 योग्य [ज] हे पुग्गल] पुस (staafgu) समासवदि] भाव छ [स] से जिणक्खादो] नेप्रो . दिव्यासवो] व्यास [अगेयभेओ] भने ભેદવાળો પ્રકારનો જાણવો જોઈએ.
ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो पुद्गल आता है उसको द्रव्यासव जानना चाहिये । वह अनेक भेदोंवाला है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।।३१॥
That influx of matter which is capable of causing Karmas, Jnanavarnia'..etc. is to be known as Dravyasrava as called by the Jina and possessing many varieties.
1. Hindering the true qualities of the soul.
अबंध भाते काट के, बसु विध विधिका बंध । सुपार्श्व प्रभु निज प्रभु-पना, पा पाये आनन्द ॥
1. delusion. 2. Lack of control. inability to take vow. 3.. _Inadvertance. 4. Activities. 5. Passion, anger...etc. .
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*बन्धतत्व का स्वरूप बज्झवि कम्मं जेण तु चेदणभावेण भावबंधो सो। . . कम्मादपदेसाणं अण्णोष्णपवेसणं इदरो ॥ ३२ ॥ बध्यते कर्म येन तु चेतनभावेन भावबन्धः सः । कर्मात्मप्रदेशानां अन्योन्यप्रवेशनं इतरः ।। ३२ ॥
द्रव्य-भावमय 'बन्ध तत्त्व-भी द्विविध रहा है तुम जानो, ' चेतन-भावों से विधि बँधता 'भाव-बन्ध' सो पहिचानो।
आत्म-प्रदेशों कर्म-प्रदेशों का आपस में घुल-मिलना, 'द्रव्य-बन्ध है बन्धन टूटे आपस में हम तुम मिलना ॥ ३२ ॥
[जेण] [चेदणभावेण] यैतन्याभql (Alcula ३५ भात्मपरिम) [कम्म] [बज्झदि] बंधाय छ [सो त परिणाम [भावबंधो] भाव [६] भने किम्मापदेसाणं] [ भने प्रदेशोनी [अण्णोण्णपर्वसणं] में प्रवेश यवतन [इदरो] द्रव्य छ.
जिस चेतनभाव से कर्म बँधता है, वह 'भावबन्ध' है, और कर्म. तथा आत्मा के प्रदेशों का परस्पर प्रवेश अर्थात कर्म और आत्मा के प्रदेशों का एकमेक होना 'द्रव्य-बन्ध' है ।। ३२ ।।
That conscious state by which Karma is bound (with the soul) is called Bhava-bandha, while the interpenetration of the Pradesas of Karma and the soul is the other (i.e. Dravyabandha)
* बन्ध के भेद व कारण पयडिढिदिअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो । जोगा पयडिपदेसा ठिविअणुभागा कसायदो होति ॥ ३३ ॥ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदात् तु चतुर्विधः बन्धः । . 'योगात् प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतः भवतः ॥ ३३ ॥ प्रदेश-अनुभव तया प्रकृति-थिति 'द्रव्य-बन्ध भी चउविध है, प्रशम-भाव के पूर जिनेश्वर-पद-पूजंक कहते बुध हैं। . प्रदेश का औ प्रकृति-बन्ध का 'योग' रहा वह कारण है, अनुभव-थिति बन्धों का कारण कषाय' है वृष-मारण है ॥ ३३ ॥
[बंधो] ६५ [पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदा] पति, स्थिति, अनुमान मन प्रशना था. [वदुविधो] यार - छ. म [पयडिपदेसा] प्रतिबंध भने प्रदेश जोगा] योगथी मने [ठिदिअणुभागा] स्थिति भने मनुभाग [कसायदो] पायथा [होति] थाय छे.
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश; इन भेदों से बन्ध चार प्रकार का है। योगो से प्रकृति तथा प्रदेशबन्ध होते है और कषायों से स्थिति तथा अनुभाग बन्ध होते है।
Bandha is of four kinds, according to the (subdivisions, viz.) Prakriti, Sthiti,? Anubhaga and. Pradesa.' Prakiti and Pradesa are (produced) from Yoga, but sthiti and Anubhaga are from Kasaya.
बांध-बांध विधि-बंध मैं, अन्ध बना मति-मन्द । ऐसा बल दो अंध को, बंधन तोहूँ बन्द ॥
'
1. Nature of the Karma. 2. The period for which the various
kinds of Karma will stay in a soul. 3. The intensity of the results Karma may produce. 4. The mass of the Karma attached to the soul.
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* संवर - तत्व का स्वरूप एवं भेद
चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू । सो भावसंवरो खलु दव्यासवरोहणे अण्णो ॥ ३४॥ चेतनपरिणामः यः कर्मणः आस्रवनिरोधने हेतुः । सः मावसंवरः खलु द्रव्यास्रवरोधने अन्यः ।। ३४ ।। चेतन गुण से मण्डित जो है आतम का परिणाम रहा, कमसिव के निरोध मैं है कारण, सो अभिराम रहा । यही 'भाव-संवर' है माना स्वाश्रित है सम्बल-थर है, कत्रिव का रुक जाना ही रहा 'द्रव्य-संवर' जड़ है ॥ ३४ ॥
[जो] [चेदणपरिणामो] सामान परिम [कम्मस्स] भना [आसवणिरोहणे] भासपने मां हिंदू ॥२८. [सो] . [भावसंवरो] भावसंव२ छ भने [दव्वासदरोहणे] ३५ ५६ बयना मास 40 sal निश्ची [अण्णो] अन्य भात व्यसं५२ छ.
आत्मा का जो परिणाम कर्मके आस्रव को रोकने में कारण है, उसको भावसंवर कहते हैं और जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण है सो द्रव्यसंवर है । ॥ ३४ ॥
* भाव - संबर के भेद
बदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य । • चारित्तं बहुभेया णायया भावसंवरविसेसा ॥ ३५ ॥
व्रतसमितिगुप्तयः धर्मानुप्रेक्षाः परीषहजयः च । चारित्रं बहुभेदाः ज्ञातव्याः भावसंदरविशेषाः ॥ ३५ !! पञ्च-समितियाँ, तीन-गुप्तियाँ पञ्च-व्रतों का पालन हो, बार-दोर बारह भावन भी दश-धर्मों का धारण हो। तथा विजय हो परीषहों पर बहुविध-चारित में रमना,
भेद, 'भाव-संवर' के ये सब रमते इनमें वे श्रमणा ॥ ३५ ॥ - [वदसमिदीगुत्तीओ] प्रत, समिति भने अलि [धन्माणुपेहा] , अनुप्रेक्षu परीसहजओ] परीचय [य] भने [चारित्तं] यास्त्रि [बहुभेया] मे मनः ॥२- [भावसंवर - विसेसा] भावसंवरनो [णायव्वा]
That Modification of Consciousness which is the cause of checking Asrava (influx) of Karma, is surely Bhavasamvara, and the other (known as Dravyasamvara is known from) checking Dravyasrava.
. पांच द्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस , परीषह-जय तथा अनेक प्रकार का चारित्र इस तरह ये सब भावसंवर के भेद जानने चाहिये ।। ३५ ॥
The Vratas (vows), Samitis (attitudes of carefulness), Guptis (Restraints), Dharmas (observances), Anupreksas (meditations), Parisaha-jayas (the victories over troubles) and various kinds of charitra (conduct) are to be known as varieties of Bhavasamvara.
चंद्र कलंकित, किन्तु हो, चन्द्रप्रभु अकलंक । वह तो शंकित केतु से, शंकर तुम निःशंक ॥
रंक बना हूँ मम अत, मेटो मन का पंक । जाप जपूँ जिन-नाम का, बैठ सदा. पर्यंक ॥
मनाका पंक।
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चना
* निर्जरा-तत्व का स्वरूप - जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण।
भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि णिजरा दुविहा ॥ ३६॥ यथा कालेन तपसा च भुक्तरसं कर्मपुद्गलं येन । भावेन सडति. ज्ञेया तस्सडनं चेति निर्जरा द्विविधा -।। ३६ ।। अपने सुख-दुख फल को देकर जिन भावों से विधि झड़ना, यथा-काल या तप-गरमी से 'भाव-निर्जरा' उर धरना । पुद्गल कर्मों का वह झड़ना 'द्रव्य-निर्जरा' यहाँ कही, भाव-निर्जरा द्रव्य-निर्जरा सुनो ! निर्जरा द्विधा रही ॥ ३६ ॥
[जह कालेण] समय भाव्यथा (Aal पूरी थाl) [य] भने. [तवेण] तपथी [भुत्तरस] हेर्नु ण भोगवा पुंछ मेवा [कम्पपुग्गलं]
पक्ष जण भावेण] भावी [सडदि] जाय छेतेने भावनि। [णेया] वी [य] भने [तस्सडणं] भानु जरी ते द्रव्यानि छ. [इदि] मा प्रभार णिज्जरा] AN [दुविहा]. रे [णेया] 8वी
यथा समय (उदयकाल में) फल देकर अथवा तप द्वारा (बिना फल दिये) आत्मा के जिस भाव से कर्म नष्ट होता है, वह भाव निर्जरा है और कर्म पुद्गलों का आत्मा से नष्ट होना द्रव्य निर्जरा है। निर्जरा के सविपाक (फल देकर कर्मों का झड़ना) और अविपाक (तप द्वारा. बिना फल दिये हो कर्मों का झड़ना) दो भेद हैं ।। ३६ ॥
That Bhava (modification of the soul) by which the matter of Karma disappears in proper time after the fruits (of such Karma) are enjoyed (is called Bhava-Nirjara), also (the destruction of Karmic matter) through penances (is known as Bhava-Nirjara). And that destruction (itself) (is known as Dravya-Nirjara) Thus Nirjara should be known of two kinds.
* मोक्ष-तत्व का स्वरूप . सबस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो । .. णेयो स भावमुक्खो दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावो ॥ ३७॥ सर्वस्य कर्मणः यः क्षयहेतुः आत्मनः हि परिणामः । ज्ञेयः सः भावमोक्षः द्रव्यविमोक्षः च कर्मपृथग्भावः ।। ३७ ।। सब कर्मों के क्षय में कारण आतम का परिणाम रहा, 'भाव-मोक्ष' वह यही बताता जिनवर मत अभिराम रहा। आत्म-प्रदेशों से अति न्यारा तर का, विधि का हो जाना, 'द्रव्य-मोक्ष' है, मोक्ष-तत्त्व भी द्रव्य-भावमय, सो पाना ॥ ३७॥
[अप्पणो मात्माना [जो] [परिणामो] परिणाम [सव्बस्स] समस्त [कम्मणो] भान [खयहेदू] क्षय याम ॥२९ [स] [] निश्यथा [भावमुक्खो भावभो.व. [य] भने [कम्मपुहभावो] भामाथी. व्यानु शुधा त दिव्यमुक्खो] द्रव्यमोक्ष [णेयो] पो. . सब कर्मों के नाश का कारण आत्माका जो परिणाम है, उसको 'भाव-मोक्ष' जानना चाहिये और कर्मों का जो आत्मा से सर्वथा भिन्न होना है, वह 'द्रव्य-मोक्ष है ।। ३७ ॥
That modification of the soul which is the cause of the destruction of all Karma, is surely to be known as Bhava moksha and (actual) separation of the Karmas is Dravya-moksha.
सुविध ! सुविधि के पूर हो, विधि से हो अति दूर । मम मन से मत दूर हो, विनती हो मंजूर ॥
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* पुण्य और पाप का निरूपण
सुहअसुहभावजुत्ता पुण्ण पावं हवंति खलु जीवा । सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥ ३८॥ शुभाशुभभावयुक्ताः पुण्यं पापं भवन्ति खलु जीवाः । सातं शुभायुः नाम गोत्रं पुण्यं पराणि पापं च ॥ ३८ ॥ शुभ-मावों से सहित हुआ सो जीव "पुण्य" हो आप रहा, अशभ-भाव से घिरा हुआ ही जीव आप हो "पाप" रहा। . सुर-नर-पशु की आयु-तीन ये उधगोत्र औ सुखसाता, नाम-कर्म सैंतीस पुण्य हैं शेष पाप हैं दुख-दाता ॥ ३८॥ " [सुहअसुहभावजुत्ता] शुभ भने अशुभ माथी युति [जीवा] 4 [खलु शयथा [पुण्णं पावं] पु१५३५ भने ५३५ [हवंति] थाय छे. [साद]uriनीय, [सुहाउ] शुभ मायु, [णाम] शुभ नाम, [गोदं] 6थ्य मान में सर्व पुण्णं] पु ति छ [च] भने [पराणि] सातवहनीय, अशुभ माथु, भशुमनाम भने नीय गोत्र तथा यार पातिमा [पावं] પાકૃતિ છે.
शुभ तथा अशुभ परिणामों से युक्त जीव पुण्य पाप रूप होते हैं। साता वेदनीय, शुभ आयु-शुभ नाम-शुभ गोत्र- ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं और शेष सब पाप प्रकृतियाँ . हैं।। ३८॥
The Jivas consist of Punya and Papa surely having auspicious and inauspicious Bhavas (respectively). Punya is Satavedaniya," auspicious life, name and class, while Papa is (exactly) the opposite (of these).
* मोक्ष का कारण सम्मईसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे। यवहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ जिओ अप्पा ॥ ३९ ॥ सभ्यग्दर्शनं ज्ञानं चरणं मोक्षस्य कारणं जानीहि । व्यवहारात् निश्चयतः तत्रिकमयः निजः आत्मा ॥ ३९ ॥ सच्चा दर्शन, तत्त्व ज्ञान भी सञ्चा, सच्चा चरण तथा, 'मोक्षमार्ग-व्यवहार' यही है प्रथम यही है शरण-कथा। परन्तु 'निश्चय-मोक्षमार्ग तो निज-आतम ही कहलाता, क्योकि आतमा इन तीनों से तन्मय होकर वह भाता ॥ ३९ ॥
[ववहारा] व्यवहारययी [सम्मईसणणाणं चरणं] सम्पशन, सभ्य भने सभ्ययात्रिने [मोक्खस्स] भानु [कारणं जाणे] ॥२ nu. णिच्छयदो] निश्यनयी तित्तियमइओ] सभ्यशन, सम्यान भने सभ्यध्यारित्र (अमे६३५) सहित [णिओ] पोतानो [अप्पा] भात्मा મોક્ષનું કારણ છે.
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सन्यचारित्र इन तीनों के समुदाय को व्यवहार नय से मोक्ष का कारण जानो । निश्चय नय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्रस्वरूप निज आत्मा को मोक्ष का कारण जानो ॥ ३९ ॥
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।
Know that from the ordinary point of view, right faith, right knowledge and right conduct are the cause of liberation. According to Nischaya Naya one's own soul consisting of these three is the cause of liberation.
1. Karma which produces pleasure and procures objects
causing pleasure.
बाल मात्र भी ज्ञान ना मुझमें मैं मुनि-बाल । ' बबाल भव का मम मिटे, प्रभु-पद में मम भाल ॥
३८
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* रत्नत्रययुक्त आत्मा ही.मोक्ष का कारण क्यों ? स्यणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियहि । तह्या तत्तियमइउ होदिहुमुक्खस्स कारणं आदा ॥४०॥ रलत्रयं न वर्तते आत्मानं मुक्त्वा अन्यद्रव्ये । .. तस्मात् तत्रिकमयः भवति खलु मोक्षस्य कारणं आत्मा ।। ४० ॥ ज्ञानादिक ये तीन रतन तो आतभ में ही झिल-मिलते, शेष सभी द्रव्यों में झाँको कभी किसी को ना मिलते । इसीलिए इन रलों में नित तन्मय हो प्रतिभासित है, माना निश्चय मोक्ष-सौख्य का कारण आतम-भावित है।॥ ४०॥
[रयणत्तयं] २लत्रय (सभ्यशन, सभ्यन मन सभ्ययारित्र) [अप्पाणं] मामाने [मुइत्तु] छोजन [अण्णदवियwि] 40 द्रव्यमा [ण वट्टइ] हेतु नथी [तला . st२४थी तित्तियमइउ] रत्नत्रय सहित (Asu३५) [आदा] मात्मा हु] निश्यथा [मोक्खस्स] मोक्षनु [कारण होदि] १२५. छे.
आत्मा को छोड़ कर अन्य द्रव्य में रलत्रय - नहीं रहता, इस कारण उस रलत्रयमय आत्मा ही निश्चय से मोक्ष का कारण है ।। ४०।।
776,
के सम्यक्दर्शन किसे कहते हैं
जीवादीसहहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु । दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जहि ॥ ४१ ॥ जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं रूपं आत्मनः तत् तु । दुरभिनिवेशविमुक्तं ज्ञानं सम्यक् खलु भवति सति यस्मिन् ।। ४१ ।। जीवा-जीवादिक तत्त्वों पर करना जो श्रद्धान सही, 'सम-दर्शन' है वह आतम का स्वरूप माना, जान सही। जिसके होने पर क्या कहना संशय-विभ्रम भगते हैं, समीचीन तो ज्ञान बने वह प्राण-प्राण झट जगते हैं ।। ४१ ॥
[जीवादीसद्दहणं] ® माहि सात तत्यानुदान २९ [सम्मत्तं] सभ्यशन [२] [अप्पणो] मात्मानु [रूवं] स्व३५ छ [तु] भने [जमि. सम्पशन तi [दुरभिणिवेसविमुक्क] विपरीत अभिनिवेशधी (संशय, विम अने मनध्यवरu4) रहित [णाणं] - [ख] निश्चयची. [सम्म होदि] सभ्य खोय.
जीव आदि पदार्थों का जो श्रद्धान करना है वह तो सम्यक्त्व है और वह सम्यक्त्व. आत्मा का स्वरूप है । तथा इस सम्यक्त्व के होने पर संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय इन तीनों दुरभिनिवेशों से रहित सम्यग्ज्ञान होता है ।। ४१ ॥
Samyak Darshana is the right faith in Jiva...etc. seven Tatvas (essential elements). That is a quality of soul, and when right faith is acquired, Jnana (knowledge), being free from errors, surely becomes right.
___The three jewels (i.e. right faith, right knowledge and right conduct) do not exist in any other substance except the soul. Therefore, the soul (with right faith, right knowledge and right conduct together) surely is the cause of liberation.
शीतल चन्दन है नहीं, शीतल हिम ना नीर । शीतल जिन ! तव मत रहा शीतल, हरता पीर ॥
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सुचिर काल से मैं रहा, मोह-नींदसे सुप्त । . मुझे जगा कर, कर कृपाए प्रभो करो परितृप्त ॥
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* सम्यग्ज्ञान का स्वरूप संसयविमोहविन्भमविवज्जियं अप्पपरसरुवस्स । . गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु ॥ ४२ ॥ संशयविमोहविभ्रमविवर्जितं आत्मपरस्वरूपस्य । ग्रहणं सम्यक् ज्ञानं साकारं अनेकभेदं च ।। ४२ ।।
विमोह-विभ्रम जहाँ नहीं हैं संशये से जो दूर रहा,
निज को निज ही, पर को पर ही जान रहा, ना भूल रहा। . समीचीन बस 'ज्ञान' वही है बहुविध हो साकार रहा, . मन-यच-तन से गुणी-जनों का जिसके प्रति सत्कार रहा ।। ४२ ।।
के दर्शन का स्वरूप . जं सामण्णं गहणं भावाणं व कटुमायारं । अवसेसिदूण अठे दंसणमिवि भण्णए समए-॥ ४३ ॥ यत् सामान्यं ग्रहणं भावानां नैव कृत्वा आकारम् । , अविशेषयित्वा अर्थान् दर्शनं इति भण्यते समये ॥ ४३ ॥ दृश्य रही कुछ, अदृश्य भी हैं लघु-कुछ, गुरु-कछ 'वस्त' रही, इसी तरह बस तरह-तरह की स्वभाववाली अस्तु सही।.. 'दर्शन' तो सामान्य-मात्र को विषय बनाता अपना है, विषय-भेद तो 'ज्ञान' कराता जिन-मत का यह जपना है ॥ ४३ ॥
[अह्र] पचा- [अवसेसिदूण] विशेष संशन Ags विन [आयार] भरने [व] न& [कट्ट (ASR.) ४२di [जं] [भावाणं] पहायोनु [सामाण्णं] सामान्य [गहणं] AA Bखुत दिसणं] ''0' [इदि] मेम [समए] शास्त्रमा [भण्णए 5 0.
यह सफेद है, यह काला है इत्यादि रूप से पदार्थों की विशेषता न करके और विकल्प को न करके पदार्थों का सामान्य से जो सत्तावलोकनरूप ग्रहण करना है उसको परपागम में 'दर्शन' कहा गया है ।। ४३ ।।
That perception of generalities of things (i.e. existence only of things) in which there is no grasping of details, is called Darsana in (Jain) scriptures.
[संसयविमोहविभमविवज्जियं] संशय, विमा भने विस्मया हित [सायारं मार सहित [अप्पपरसरूवस्स] भामा भने ५२॥ स्व३पर्नु [गहणं] AGE 5२बुत [सम्मण्णाणं] सभ्यशान छ [तु] भने त [अणेय भेयं सने ..
आत्मस्वरूप और अन्य पदार्थ के स्वरूप का जो संशय, विमोह (अनध्यवसाय) और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञान से रहित जानना है वह सम्यग्ज्ञान है । यह आकार (विकल्प) सहित है और अनेक भेदोंवाला है ।। ४२ ॥
. Samyak Jnana (right knowledge) is the detailed cognition of the soul (self) and other elements, is free from samsay,' vimoha' and vibhrama, and is of many varieties.
।
1. Doubt. 2. Perversity. 3. Indefiniteness.
अनेकान्त की कान्ति से, हटा तिमिर एकान्त । नितान्त हर्षित कर दिया, क्लान्त विश्व को शान्त ॥
निश्रेयस सुख-धाम हो, हे जिनवर श्रेयांस । तव थुति अविरल मैं करूँ, जब लौं घट में श्वास
-
४२
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* दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति का नियम
दंसणपु णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा । जुगवं जह्मा केबलिणाहे जुगवं तु ते दो बि ॥ ४४ ॥
"
"दर्शनपूर्वं ज्ञानं छद्मस्थानां न दी उपयोगी ।
युगपत् यस्मात् केवलिनाथे युगपत् तु तौ द्वौ अपि ॥ ४४ ॥
पूर्ण- ज्ञान वह जिन्हें प्राप्त ना उन्हें प्रथम तो दर्शन हो,
बाद ज्ञान उपयोग, नहीं दो एक-साथ, कब दर्शन हो ? पूर्ण- ज्ञान से पूर्ण- सुशोभित केवल- ज्ञानी बने हुये, एक साथ उपयोग धेरै दो अन्तर्यामी बने हुये ॥ ४४ ॥
[छदमत्याणं] अल्पज्ञानीओने [दंसणपुब्बं] हर्शनपूर्व [णाणं] ज्ञान होय छे [जा] [भ] [दोण्णि उवउग्गा] नेपयोग [जुगवं ण] खेडसाथ होता नथी [तु] परंतु [केवलिणाहे] ठेवणी भगवानने [ते दो वि] ते पत्रे उपयोग [ जुगवं ] भेडसाये होय छे.
छद्मस्थ जीवों के दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। क्योंकि, छद्मस्थों के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते। तथा केवली भगवान् के ज्ञान तथा ' दर्शन ये दोनों ही उपयोग एक साथ होते हैं ।। ४४ ।
In Chhadmastha, Jnana is preceded by Darshana. For this reason the two Upayogas (viz. Jnana and Darshana) do not arise simultaneously (in them ). But in Kevalis, both of these Upayogas arise simultaneously.
*
1. Samsari Jivas with incomplete knowledge. 2. The Omniscients.
* व्यवहार -
चारित्र का स्वरूप
अहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥ ४५ ॥
अशुभात् विनिवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिः च जानीहि चारित्रम् । व्रतसमिति गुप्तिरूपं व्यवहारनयात् तु जिनभणितम् ॥ ४५ ॥
अशुभ भावमय पाप-वृत्ति को मन-वचन्तन से जो तजना, शुभ में प्रवृत्ति करना समुचित 'चारित' है मन रे भज ना ! यह 'चारित व्यवहार' कहाता समिति गुतिव्रतनाला है, इसविध जिन-शासन है गाता सुधा-सुपूरित प्याला है ।। ४५ ।।
[ववहारणया ] व्यवहारनयधी [असुहादो] अशुल अर्थथी [विणिवित्ती] निवृत्त यवु [य] अने [हे] शुभ अर्थभां [पवित्ती] प्रवृत्ति रवी तेने [जिणभणियं] विनेन्द्र भगवान हे [चारितं ] यारित्र [जाण] भी [दु] अने ते यारित्र [वदसमिदिगुत्तिरूवं] व्रत, समिति, गुप्ति ३५ छ.
जो अशुभ कार्य से निवृत्त (दूर) होना और शुभ कार्य में प्रवृत्त होना (लगना) है उसको चारित्र जानना चाहिये। श्री जिनेन्द्रदेवने व्यवहारनय से उस चारित्र को ५ व्रत, ५ समिति और 3 गुप्तिस्वरूप कहा है ।। ४५ ।।
According to Vyavahara Naya know charitra (conduct) to be 'Refraining from what is harmful and engagement in what is beneficial,' as told by the Jina. And that conduct consists of Vratas,! Samities2 and Guptis.
*
1. Vows. 2. Attitudes of carefulness. 3. Restraints.
४५
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* निश्चय – चारित्र का स्वरूप
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बहिरब्भंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणास गाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारितं ॥ ४६ ॥
बहिरभ्यन्तरक्रियारोधः भवकारणप्रणाशार्थम् । ज्ञानिनः यत् जिनोक्तं तत् परमं सम्यक्चारित्रम् || ४६ ॥
बाहर की भी, भीतर की भी क्रिया मात्र को बन्द किया, भव के कारण पूर्ण-मिटाना यही मात्र सौगन्द लिया । उस ज्ञानी का जीवन ही वह रहा परम 'शुचि-चारित' है, जिन-वाणी का यही बताना मुनीश्वरों से धारित है ॥ ४६ ॥
[भवकारणप्पणासट्ठ] eri अशनी नाश करवा माटे [णाणिम् ] ज्ञानीखोनुं [जं बहिरब्धंतरकिरियारोहो] के जाहा भने- अभ्यंतर क्रियाओ सेवु छे [तं] ते [जिणुत्तं] [४नेन्द्रदेव हे [परमं] उत्कृष्ट (निश्वय) [सम्मचारितं ] सम्यग्यरित्र छे.
ज्ञानी जीव के जो संसार के कारणों को नष्ट करने के लिये बाह्य और अन्तरङ्ग क्रियाओं का निरोध है; वह श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र है ॥ ४६ ॥
"That (preventing) checking of external and internal actions by Jnani (one who has knowledge), in order to destroy the causes of samsar (misery), is the excellent Samyak Charitra(right conduct) mentioned by the Jina.. *
कराल काला व्याल सम, कुटिल चाल का काल । मार दिया तुमने उसे, फाड़ा उसका गाल ॥
* ध्यान की उपयोगिता
दुविहं पि मुक्खहे झाणे पाउणदि जं' भुणी णियमा । तह्या पयत्तचित्ता जूयं झाणं समम्भसह ॥ ४७ ॥
द्विविधं अपि मोक्षहेतुं ध्यानेन प्राप्नोति यत् मुनिः नियमात् । तस्मात् प्रयत्नचित्ताः यूयं ध्यानं समभ्यस्त ।। ४७ ।।
निश्चय औ व्यवहार भेद से द्विविध यहाँ शिव-पन्थ रहा, ध्यान - काल में निश्चित उसको पाता है मुनि-सन्त अहा !! इसीलिए तुम दत्तचित्त हो एक-मना हो विजित-मना, सतत करो अभ्यास ध्यान का शीघ्र वनो फिर विगत-मना ॥ ४७ ॥
[जं] अर [गुणी] भुनि [दुविहं पि] पत्रे प्रहारना पt [मुक्खहेउं] भोक्षना अरशीने [णियमा] नियमथी [झाणे] ध्यानथी [ पाउणदि] प्राप्त रे छे. [तह्मा] तेथी [जूयं] तमे [पयत्तचित्ता ] (सावधान यह) तेमां प्रयत्नशील • वर्धने [झाणं] ध्याननी [समव्यसह ] सारी रीते अभ्यास पुरी.
मुनि ध्यान के करने से जो नियम से निश्चय और व्यवहाररूप मोक्षमार्ग को पाता है । इस कारण तुम चित्त को एकाग्र करके उस ध्यान का अभ्यास करो ।। ४७ ।।
Because surely (by the rule) a sage gets both the (Vyavahara and Nischaya) causes of liberation by meditation, therefore (all of) you practise meditation with careful mind.
*
मोह - अमल वश समल बन, निर्बल मैं भगवान विमलनाथ ! तुम अमलं हो, संबल दो भगवान ॥
४७
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* ध्यान करने का उपाय . मा मुज्ाह मा रजह मा दूसंह इट्ठणिठ्ठअट्ठेसु।
थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ॥ ४८॥ मा मुहात मा रज्यत मा द्विष्यत इथनिष्टार्थेषु । . स्थिरं इच्छत यदि चित्तं विचित्रध्यानप्रसिद्ध्यै ।। ४८ ॥ शुद्धातम के सहज ध्यान में होना जब है तलीना. चञ्चल मन को अविचल करना चाहो यदि निज-आधीना । मोह करो मत, राग करो मत, द्वेष करो मत, तुम तन में, इष्ट रहे कुछ, अनिष्ट भी हैं पदार्थ मिलते त्रिभुवन में ॥ ४८ ॥
विचित्तझाणणसिद्धीए वियित्र भात अन १२-यानी शिद भाट [जइ हो चित्तं चित्तने थिरं] स्थिर ४२वा [इच्छहि] २७ d [इणिठ्ठअढेसु) ' मने भनिट पोंभ [मा मुज्झह भो s, [मा रजह] नये, [मा दूसह द्वेष नसे.
यदि तुम नाना प्रकार के ध्यान की सिद्धि के लिए चित्त को स्थिर करना . चाहते हो तो इट तथा अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में राग द्वेष और मोह मत. करो ॥ ४८ ॥
If you wish to have your mind fixed (focussed) in order to succeed in various kinds of meditation, do not be deluded by or attached to beneficial objects and do not be averse to harmful objects.
। । ।
के ध्यान करने योग्य मन्त्र पणतीससोलछप्पणचउदुगमेगं च जवह ज्याएह। परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरूवएसेण ॥ ४९ ॥ पञ्चत्रिंशत् षोडश षट् पञ्च चत्वारि द्विकं एकं च जपत ध्यायत । परमेष्ठिवाचकानां अन्यत् च गुरूपदेशेन ॥ ४९ ॥ णमोकार "पैंतीस-वर्ण" का मन्त्र रहा "सोलह"-"छह" का, "पाँच" "चार" "दो" "क" वर्णों का द्वार-ध्यान का, निज-गृह का. . यों परमेष्ठी-दाचक वर्णों का नियमित जप-ध्यानं करों, या गुरु-संकेतों पर मन को कीलित कर अवधान करो ॥ ४९ ॥
[परमेट्ठिवाचयाणं] ५२२वाय [पणतीससोलछप्पणचउगं] uizle, सोम, ७, पांय, यार, [च एगं] भने में अक्षर- भंजनी [जवह 14 5 [ज्झाएंहध्यान से [च भने [अण्ण] अन्य मंत्री [गुरूवएसेण] ગુરુના ઉપદેશ પ્રમાણે જપ અને ધ્યાન કરો.
पञ्च परमेष्ठियों को कहने वाले जो पैंतीस, सोलह, छः, पाँच, चार, दो और एक अक्षररूप मन्त्रपद हैं, उनका जाप करो और ध्यान करो । इनके सिवाय अन्य जोमन्त्रपद हैं उनको भी गुरु के उपदेशानुसार जपो और ध्यावो ।। ४९ ॥ .. Repeat (Japa) and meditate on the Mantras,1 signifying the Panch Paramesthis? and consisting of thirty-five, sixteen, six, five, four, two and one letter. And other Mantras taught and given by the Guru.
अनन्त गुण पा कर दिया, अनन्त भवं का अन्त । अनन्त सार्थक नाम तव, अनन्त-जिन जयवन्त
1. Blessed, proven energetic letter/s, word/s. 2. The five ' supreme beings. 3. Preceptor, spiritual teacher.
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* अरहंत परमेष्ठी का स्वरूप
णट्ठचदुघाइकम्मो दंसणसुहणाणवीरियमईओ । सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचितिजो ॥ ५० ॥
नष्टचतुर्घातिकर्मा दर्शनसुखज्ञानवीर्यमयः । शुभदेहस्थः आत्मा शुद्धः अर्हन् विचिन्तनीयः ॥ ५० ॥
धाति-कर्म च समाप्त करके शुद्ध हुये जो, आप्त हुये, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख-बल पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हुये । परमीदारिक तन धारक हो परम पूज्य "अरहन्त" हुये, इन्हें बनाओ "ध्येय" ध्यान में जय ! जय ! जय ! जयवन्त हुये ॥ ५० ॥
[णट्टचदुघाइकम्पो] भेजे यार प्रहारना घाती भनो नाश क्यों छे, [दंसणसुहणाणवीरियमईओ] के (अनंत) दर्शन, सुज, ज्ञान भने तीर्थ सहित छे, [सुहदेहत्थों] शुभ हेड (सात धातु रहित परमौहारिक शरीर )भां रहेआ छे [सुद्धो] ते शुद्ध (१८ छोष रहित ) [ अप्पा ] आत्मा [अरिहो] अरिहंत छे अने ते [विचितिजो] ध्यान उरवा योग्य छे.
चार घातिया कर्मों को नष्ट करनेवाला, अनन्त दर्शन, सुख, ज्ञान और दीर्घ का धारक, उत्तम देह में विराजमान और शुद्ध-आत्मा 'अरिहंत' है, उसका ध्यान करना चाहिये ॥ ५० ॥
That pure soul existing in an auspicious body, possessed of (infinite) faith, happiness, knowledge and power, which has destroyed the four Ghatiya karmas' is to be meditated on as an Arhat.
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1. Karmas like Jnanavarniya...etc. which directly obstructs the menifestations of the quality of the soul like perfect Jnana...etc. 2. Arihant.
५०
* सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप
ठठकम्भदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा । पुरिसायारो अप्पा सिद्धो झाएह लोयसिहरत्थो ॥ ५१ ॥
नष्टाष्टकर्मदेहः लोकालोकस्य ज्ञायकः द्रष्टा । पुरुषाकारः आत्मा सिद्धः ध्यायेत लोकशिखरस्थः ॥ ५१ ॥
लोक-शिखर पर निवास करते तीन-लोक के नायक हैं.. लोकालोकाकाश तत्त्व के केवल दर्शक-ज्ञायक हैं। पुरुषरूप आकार लिए हैं "सिद्धातम" हैं कहलाते, स्व-तन-कर्म को नष्ट किये हैं ध्यावें उनको हम तातें ॥ ५१ ॥
[णट्ठट्ठकम्मदेहो ] भेरे (ज्ञानावरसहि) २४ કર્મો અને (औधारिहाधि) पाय शरीरनो नाश उर्यो छे [लोयालोवस्स] सोड-दोनां [जाणओ दट्ठा] भवा अने जवावाणा छे [पुरिसायारो] पुरुषना खारे [लोयसिहरत्यो] सोनां शिजर पर स्थित [ अप्पा ] आत्मा [सिद्धो] सिद्ध परमात्मा छे, तेनुं [झाएह] ध्यान २ २६२२.
नष्ट हो गया है अष्टकर्मरूप देह जिसके लोकाकाश तथा अलोकाकाश को जानने देखनेवाला, पुरुष के आकारवाला और लोक के शिखर पर विराजमान ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी है, इस कारण तुम सब उस 'सिद्ध' का ध्यान करो ।। ५१ ।।
Meditate on the Siddha-the soul which is bereft of the bodies produced by eight kinds of Karmas, which is the seer and knower of Loka and Aloka, which has a shape like a human being and which stays at the summit of the Loka.
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५१
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* आचार्य-परमेष्ठी का स्वरूप दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतबायारे । अप्पं परं च मुंजइ सो आयरिओ मुणी झेओ ॥ ५२ ॥ दर्शनज्ञानप्रधाने वीर्यचारित्रवरतप आचारे । आत्मानं परं च युनक्ति सः आचार्यः मुनिः ध्येयः ।। ५२|| दर्शन-ज्ञानाचार प्रमुख कर चरित-वीर्य-तप खुद पालें, पालन करवाते औरों से शिव-पथ पर चलने वाले । ये हैं मुनि-"आचार्य' हमारे पूज्य-पाद पालंक प्यारे, ध्यान इन्हीं का करें रात-दिन विनीत हम बालक सारे ॥ ५२॥
[जो] [मुणी] मुनि. दिसणणाणपहाणे] शन भने धननी प्रधानता सहित. [चीरियचारित्तवरतवायारे] वाय, यास्त्रि तथा श्रेष्ठ तपायारमा . [अप्पं] पोताने [च परं] तम ४ बजाने [जुंजइ छ [सो आयरिओ] ते. मायार्थ (परमेष्ठी) [झेओ] ध्यान ४२५ योग्य छे.
दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, चारित्राचार और तपाचार, इन पांचों आचारों में जो आप भी तत्पर होते हैं और अन्य शिष्यों को भी लगाते हैं ऐसे 'आचार्य-मुनि' ध्यान करने योग्य हैं।। ५२॥
That sage who attaches himself and others to the . practice of Virya (power),Charitra (conduct) and Tapa (penance) in which faith and knowledge are eminent is to be meditated as Acharya.
* उपाध्याय - परमेष्ठी का स्वरूप जो रयणत्तयजुत्तो णिच्च धम्मोवदेसणे णिरदो।" सो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ॥ ५३ ॥ यः रत्नत्रययुक्तः नित्यं धर्मोपदेशने निरतः । सः उपाध्यायः आत्मा यतिवरवृषभः नमः तस्मै ।। ५३ ।। भव्य-जनों को धर्म-देशना देने में नित-निरत रहे, तीन-रतन से मण्डित होते लौकिकता से विरत रहे। "उपाध्याय" ये पूज्य कहाते यतियों के भी दर्पण हैं, मनसा-यवसा-वपुषा इन को नमन कोटिशः अर्पण है ।। ५३ ॥
रयणत्तयजुत्तो] २लत्रय युत जो] [अप्पा) भात्या णिच्चं] ॥ [धम्मोवदेसणे] भाप ४२वामा [णिरदो] तत्५२ (बीन) २३ छ [सो] त. मात्मा [जदिवरवसहो] यतिमीमा श्रेष्ठ [उवज्झाओ] 6ध्याय (५२ ) ®. तिस्स] तमने [णमो] नम२५२ .
जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय से सहित है; निरन्तर धर्म का उपदेश देने में तत्पर है; वह मुनीश्वरों में प्रधान 'उपाध्याय परमेष्ठी' कहलातो है । उसको में नमस्कार करता हूँ॥ ५३ ॥
That being, the greatest of the great sages who being possessed of three jewels, is always engaged in preaching the reilgious trruths, is known as Upadhyaya (teacher teaching scriptures). Obeisance to him.
अनन्त सुख पाने सदा, भव से हो भयवन्त । अन्तिम क्षण तक मैं तुम्हें, स्मरूं स्मरें सब सन्त ॥
1
1. One who practises the five kinds of Acharas i.e. kinds of
condut and makes his disciples to perform the same.
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के साधु परमेष्ठी का स्वरूप
दसणाणाणसमग्गं मागं मोक्खस्स जो हु चारित्तं । । • साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ॥ ५४ ॥
दर्शनज्ञानसमग्रं मार्ग मोक्षस्य यः हि चारित्रम् । । साधयति नित्यशुद्धं साधुः सः मुनिः नमः तस्मै ।। ५४ ॥ यथार्थ-दर्शन तथा ज्ञान से नियम रुप से सहित रहे, . . निरतिचार वह 'चारित' ही है "मोक्षमार्ग" यह विदित रहे। इसी चरित की "साधु"-साधना सदा-सर्वदा करता है, ध्यान-साधु का करो इसी से सभी आपदा हरता है।॥ ५४॥
[जो] 3 [मुणी] भुमि हु] निश्यची. [दसणणाणसमग्गं] ४शन भने शान अति [मोक्खस्स] भान [मग्गं] [३५ [चारित्तं] यात्रिने [णिच्चसुद्ध] सहा शुदतथी [साधयदि] छ [स साहू] ते साधु (५२४ी )छ: [तस्स णमो] तेमने नम२२ . । जो दर्शन और ज्ञान से पूर्ण, मोक्ष के मार्गभूत, सदाशुद्ध चारित्र को प्रकट रूप से साधते हैं वे मुनि 'साधु परमेष्ठी' हैं, उनको मेरा नमस्कार हो ।। ५४ ।।
That sage who really practises well conduct which is always pure and which is on the path of liberation with right faith and knowledge is a Sadhu. Obeisance to him.
के निश्चय - ध्यान का स्वरूप
जं किंचिवि चिंतंतो, णिरीहवित्ती हवे जदा साहू । लण य एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं ॥ ५५ ॥ यत् किञ्चित् अपि चिन्तयन् निरीहवृत्तिः भवति यदा साधुः । लब्ध्वा च एकत्वं तदा आहुः तत् तस्य निश्चयं ध्यानम् ।। ५५ । चिन्ता क्या है, चिन्तन कुछ भी साधु करें वह, पर इतना, ध्यान रहे बस निरीहता का साधुपना पनपे. उतना। . एक-ताजगी निरी-एकता पाता निश्चित साधु वही, यही "ध्यान है निश्चय" समझो साधु बनो ! पर स्वादु नहीं ॥ ५५॥
[जदा या [साहू साधु [एयत्तं] IAL [लटूण य] AUHAR [जं किंचिवि] (ध्यान ४२॥ योग्य वस्तु) चिंतंतो] तिन ७२ता [णिरीहवित्ती] ६२७ २त. पाय छ [तदा] त्यारे [तं तस्स णिच्छयं] ते २५४थी तन श्यथी. [झाणं] ध्यान [हवे] य.
ध्येय में एकाग्र चित्त होकर जिस किसी पदार्थ का ध्यान करता हुआ साधु जब निष्ग्रह वृत्ति (समस्त इच्छाओं से रहित) होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय ध्यान होता है ।। ५५ ।।
N
When a sadhu attaining concentration, without expectations by meditating on anything whatever, that state is called real meditation.
दया धर्म वर धर्म है, अदया-भाव अधर्म । अधर्म तज प्रभु धर्म ने, समझाया पुनि धर्म ॥
धर्मनाथ को नित नमू, सधे शीघ्र शिव शर्म । .. धर्म-मर्म को लख सकूँ, मिटे मलिन मम कर्म ॥ .
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* परम - ध्यान का लक्षण मा चिठह मा जंपह मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो । अप्या अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं ॥ ५६ ॥ मा चेटत मा जल्पत मा चिन्तयत किं अपि येन भदति स्थिरः । आत्मा आत्मनि रतः इदं एव परं भवति ध्यानम् ।। ५६ ॥ कुछ भी स्पन्दन तन में मत ला बन्द-मुखी हो, जल्प न हो, . चिन्ता, चिन्तन मन में मत कर चेतन. फलतः निश्चल हो। अपने ही आतम में अपना अविचल हो, जो रमना है, ध्यान रहे यह परम-ध्यान है और ध्यान तो भ्रमणा है॥५६॥ .
भव्य पु२५!) [किं वि] 46 48 [मा चिट्ठह] (शरीरथी) येथ 10..[मा जंपह] (भोथी) - बोसो, [भा चिंतह) (भनधी) र्थितन् न
से [जेण अप्पा] थी भात्मा [अप्पम्मि] भात्मामi [थिरो होइ] स्थिर 45 [रओ] बीन याय छे. [इणमेव परं] . ४ ५२५ (Gce) [ज्झाणं] ध्यान [हवे] आय .
हे भव्य पुरुषो ! तुम कुछ भी चेय मत करो (काय की क्रिया मत करो) कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो (संकल्प-विकल्प न करो) जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में तल्लीन स्थिर होवे, आत्मा में लीन होना परमध्यान है ।। ५६ ॥ .
Do not act (move any part of the body), do not talk, do not think, so that the soul may be attached to and fixed in itself. This only is excellent meditation.
* ध्यान की प्राप्ति का उपाय तयसुववदवं चेदा झाणरहधुरंधरो हवे. जम्हा । तम्हा तत्तियणिरवा तल्लीए. सदा होह ॥ ५७ ॥ तपःश्रुतव्रतवान् चेता ध्यानरथधुरन्धरः भवति यस्मात् । तस्मात् तत्रिकनिरताः तलब्ध्यै सदा भवत ।। ५७ ।।.. व्रत के धारक, तप के साधक श्रुत-आराधक बना हुआ, .वही ध्यान-रथ-धुरा सुधारे नियम रहा यह बन्धा हुआ। इसीलिए यदि सुनो तुम्हें भी ध्यानामृत को चखना है, व्रत में, तप में, श्रुत में निज को निश-दिन तत्पर रखना है।। ५७॥ .. [जम्हा] १२ तवसुदवदव] तर, श्रुत आने इतने धा२३ २नार [चेदा भात्मा ज्झाणरहधुरंधुरो] ध्यान३५२यनी धुराने ॥२१ ४२नार [हवे तम्हा] थाय छ, ७८२९थी [तल्लद्धीए से५२मध्याननी UA माटे [सदा] &A [तत्तियणिरदा] (त५, श्रुत माने त) मे समा बीन [होइ] थामा
क्योंकि तप, श्रुत और व्रत का घारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला होता है, इस कारण हे भव्य पुरुषो ! तुम उस ध्यान की प्राप्ति के लिये निरन्तर तप, श्रुत और व्रत में तत्पर होवो || ५७ ॥
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As a soul which (practises) penances, (holds) vows and has knowledge of scriptures, becomes capable of holding the axle of the chariot of meditation, so to attain excellent meditation be always engaged in these three (i.e. penances, vows and scriptural knowledge).:
शान्तिनाथ हो शान्त, कर सातासाता सान्त । केवल, केवल-ज्योतिमय, क्लान्ति मिटी सब ध्वान्त ॥
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________________ मंगलभावना * ग्रन्थकार की प्रार्थना दव्यसंगहमिणं मुणिणाहा दोससंचयधुदा युएपुग्णा। सोधयंतु तणुसुत्तपरेण पोमिचंदमुपिणा भणियं // 58 // द्रव्यसंग्रहं इस मुनिनाथाः दोषसंचयच्युताः श्रुतपूर्णाः / / शोधयन्तु तनुश्रुतधरेण नेमिचन्द्रमुनिना मणितं यत् // 58 / / बिन्दु-मात्र श्रुत का धारक हूँ पार सिन्धु का का पाता? "नेमिचन्द्र" नामक मुनि, मुझसे लिखा "द्रव्य-संग्रह" साता / दूर हुये दोषों से कोसों श्रुत-कोशों से पूर हुये, शोधे वे "आचार्य" इसे यदि भाव यहाँ प्रतिकूल हुये // 58 // तणुसुत्तधरेण] अल्पशानन पार [णेमिचंदमुणिणा] नेमियन्द्र मुनि जिं] [इणं दव्यसंगहं] मा UAHANIमन च [भणियं] हो छ, त. [सुदपुण्णा] unu Auru (श्रुतानमा पू) [दोससंचयचुदा] होना समूडा २त, मेवा [मुणिणाहा] मुनि (मुनिमोन स्वामी) [सोधयंतु] शुद्ध 50. अल्पज्ञान के धारक मुझ नेमिचन्द्र मुनि ने जो यह द्रव्यसंग्रह कहा है इसको : दोषों से रहित और ज्ञान से पूर्ण ऐसे आचार्य शुद्ध करें / / 58 // मेरा तेरा-पन मिटे, भेद-भाव का नाश / रीति-नीति सुधरे सभी, येव-भाव में वास // भाग्य भला वह क्या रहा, उदय कर्म का मात्र / यहां देख मत, देख ले, जहां धर्म का पात्र // 2 // नातो पर पर रोष हो, ना कर्मों का दोष। है अपना अपराध यह, खोया है निज-होश // 3 // सदा सरलता साथ लो, और कुटिलता त्याग / बनो धवल तुम हंस से, विरागता से राग // 4 // काले बादल बन, तपी-भूपर बरसो आप / भरे पाप-घट पुण्य में, बदले अपने आप // 5 // लाभ उलटता हो भला, भला. उलटता लाभ / हो सब ज्यों का त्यों सदा, भले रहे बदलाय // 6 // स्थान एवं समय परिचय मुक्तागिरि पर मुक्त मुनि, साढे तीन करोड़ / मुक्तागिरि को नित नमूं, नत-सिर हो कर-जोड़ // 7 // "स्वर-आतम-रस-गन्ध का, अक्षय-तृतीया योग / / .. पूर्ण हुआ अनुवाद यह, देता ध्रुव-आलोक // 8 // Let the great sages, full of the knowledge of sastras (scriptures) and freed from the collection of faults, correct this Dravya-samgraha which is spoken by the sage Nemichandra who has little knowledge of the sastras. (In this last verse, the author, Nemichandra Muni, in all humility belittles himself and acknowledging that there may be faults in his work, requests the great sages to correct the same). *7-1-5-2 'आहाना वामतो गतिः' के अनुसार वीर निर्वाण संवत 2517 अक्षय तृतीया ..