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________________ * सम्यग्ज्ञान का स्वरूप संसयविमोहविन्भमविवज्जियं अप्पपरसरुवस्स । . गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु ॥ ४२ ॥ संशयविमोहविभ्रमविवर्जितं आत्मपरस्वरूपस्य । ग्रहणं सम्यक् ज्ञानं साकारं अनेकभेदं च ।। ४२ ।। विमोह-विभ्रम जहाँ नहीं हैं संशये से जो दूर रहा, निज को निज ही, पर को पर ही जान रहा, ना भूल रहा। . समीचीन बस 'ज्ञान' वही है बहुविध हो साकार रहा, . मन-यच-तन से गुणी-जनों का जिसके प्रति सत्कार रहा ।। ४२ ।। के दर्शन का स्वरूप . जं सामण्णं गहणं भावाणं व कटुमायारं । अवसेसिदूण अठे दंसणमिवि भण्णए समए-॥ ४३ ॥ यत् सामान्यं ग्रहणं भावानां नैव कृत्वा आकारम् । , अविशेषयित्वा अर्थान् दर्शनं इति भण्यते समये ॥ ४३ ॥ दृश्य रही कुछ, अदृश्य भी हैं लघु-कुछ, गुरु-कछ 'वस्त' रही, इसी तरह बस तरह-तरह की स्वभाववाली अस्तु सही।.. 'दर्शन' तो सामान्य-मात्र को विषय बनाता अपना है, विषय-भेद तो 'ज्ञान' कराता जिन-मत का यह जपना है ॥ ४३ ॥ [अह्र] पचा- [अवसेसिदूण] विशेष संशन Ags विन [आयार] भरने [व] न& [कट्ट (ASR.) ४२di [जं] [भावाणं] पहायोनु [सामाण्णं] सामान्य [गहणं] AA Bखुत दिसणं] ''0' [इदि] मेम [समए] शास्त्रमा [भण्णए 5 0. यह सफेद है, यह काला है इत्यादि रूप से पदार्थों की विशेषता न करके और विकल्प को न करके पदार्थों का सामान्य से जो सत्तावलोकनरूप ग्रहण करना है उसको परपागम में 'दर्शन' कहा गया है ।। ४३ ।। That perception of generalities of things (i.e. existence only of things) in which there is no grasping of details, is called Darsana in (Jain) scriptures. [संसयविमोहविभमविवज्जियं] संशय, विमा भने विस्मया हित [सायारं मार सहित [अप्पपरसरूवस्स] भामा भने ५२॥ स्व३पर्नु [गहणं] AGE 5२बुत [सम्मण्णाणं] सभ्यशान छ [तु] भने त [अणेय भेयं सने .. आत्मस्वरूप और अन्य पदार्थ के स्वरूप का जो संशय, विमोह (अनध्यवसाय) और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञान से रहित जानना है वह सम्यग्ज्ञान है । यह आकार (विकल्प) सहित है और अनेक भेदोंवाला है ।। ४२ ॥ . Samyak Jnana (right knowledge) is the detailed cognition of the soul (self) and other elements, is free from samsay,' vimoha' and vibhrama, and is of many varieties. । 1. Doubt. 2. Perversity. 3. Indefiniteness. अनेकान्त की कान्ति से, हटा तिमिर एकान्त । नितान्त हर्षित कर दिया, क्लान्त विश्व को शान्त ॥ निश्रेयस सुख-धाम हो, हे जिनवर श्रेयांस । तव थुति अविरल मैं करूँ, जब लौं घट में श्वास - ४२
SR No.005954
Book TitleDravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
PublisherSamtaben Khandhar Charitable Trust
Publication Year
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size4 MB
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