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________________ * दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति का नियम दंसणपु णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा । जुगवं जह्मा केबलिणाहे जुगवं तु ते दो बि ॥ ४४ ॥ " "दर्शनपूर्वं ज्ञानं छद्मस्थानां न दी उपयोगी । युगपत् यस्मात् केवलिनाथे युगपत् तु तौ द्वौ अपि ॥ ४४ ॥ पूर्ण- ज्ञान वह जिन्हें प्राप्त ना उन्हें प्रथम तो दर्शन हो, बाद ज्ञान उपयोग, नहीं दो एक-साथ, कब दर्शन हो ? पूर्ण- ज्ञान से पूर्ण- सुशोभित केवल- ज्ञानी बने हुये, एक साथ उपयोग धेरै दो अन्तर्यामी बने हुये ॥ ४४ ॥ [छदमत्याणं] अल्पज्ञानीओने [दंसणपुब्बं] हर्शनपूर्व [णाणं] ज्ञान होय छे [जा] [भ] [दोण्णि उवउग्गा] नेपयोग [जुगवं ण] खेडसाथ होता नथी [तु] परंतु [केवलिणाहे] ठेवणी भगवानने [ते दो वि] ते पत्रे उपयोग [ जुगवं ] भेडसाये होय छे. छद्मस्थ जीवों के दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। क्योंकि, छद्मस्थों के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते। तथा केवली भगवान् के ज्ञान तथा ' दर्शन ये दोनों ही उपयोग एक साथ होते हैं ।। ४४ । In Chhadmastha, Jnana is preceded by Darshana. For this reason the two Upayogas (viz. Jnana and Darshana) do not arise simultaneously (in them ). But in Kevalis, both of these Upayogas arise simultaneously. * 1. Samsari Jivas with incomplete knowledge. 2. The Omniscients. * व्यवहार - चारित्र का स्वरूप अहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥ ४५ ॥ अशुभात् विनिवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिः च जानीहि चारित्रम् । व्रतसमिति गुप्तिरूपं व्यवहारनयात् तु जिनभणितम् ॥ ४५ ॥ अशुभ भावमय पाप-वृत्ति को मन-वचन्तन से जो तजना, शुभ में प्रवृत्ति करना समुचित 'चारित' है मन रे भज ना ! यह 'चारित व्यवहार' कहाता समिति गुतिव्रतनाला है, इसविध जिन-शासन है गाता सुधा-सुपूरित प्याला है ।। ४५ ।। [ववहारणया ] व्यवहारनयधी [असुहादो] अशुल अर्थथी [विणिवित्ती] निवृत्त यवु [य] अने [हे] शुभ अर्थभां [पवित्ती] प्रवृत्ति रवी तेने [जिणभणियं] विनेन्द्र भगवान हे [चारितं ] यारित्र [जाण] भी [दु] अने ते यारित्र [वदसमिदिगुत्तिरूवं] व्रत, समिति, गुप्ति ३५ छ. जो अशुभ कार्य से निवृत्त (दूर) होना और शुभ कार्य में प्रवृत्त होना (लगना) है उसको चारित्र जानना चाहिये। श्री जिनेन्द्रदेवने व्यवहारनय से उस चारित्र को ५ व्रत, ५ समिति और 3 गुप्तिस्वरूप कहा है ।। ४५ ।। According to Vyavahara Naya know charitra (conduct) to be 'Refraining from what is harmful and engagement in what is beneficial,' as told by the Jina. And that conduct consists of Vratas,! Samities2 and Guptis. * 1. Vows. 2. Attitudes of carefulness. 3. Restraints. ४५
SR No.005954
Book TitleDravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
PublisherSamtaben Khandhar Charitable Trust
Publication Year
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size4 MB
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