________________
* निश्चय – चारित्र का स्वरूप
।
बहिरब्भंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणास गाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारितं ॥ ४६ ॥
बहिरभ्यन्तरक्रियारोधः भवकारणप्रणाशार्थम् । ज्ञानिनः यत् जिनोक्तं तत् परमं सम्यक्चारित्रम् || ४६ ॥
बाहर की भी, भीतर की भी क्रिया मात्र को बन्द किया, भव के कारण पूर्ण-मिटाना यही मात्र सौगन्द लिया । उस ज्ञानी का जीवन ही वह रहा परम 'शुचि-चारित' है, जिन-वाणी का यही बताना मुनीश्वरों से धारित है ॥ ४६ ॥
[भवकारणप्पणासट्ठ] eri अशनी नाश करवा माटे [णाणिम् ] ज्ञानीखोनुं [जं बहिरब्धंतरकिरियारोहो] के जाहा भने- अभ्यंतर क्रियाओ सेवु छे [तं] ते [जिणुत्तं] [४नेन्द्रदेव हे [परमं] उत्कृष्ट (निश्वय) [सम्मचारितं ] सम्यग्यरित्र छे.
ज्ञानी जीव के जो संसार के कारणों को नष्ट करने के लिये बाह्य और अन्तरङ्ग क्रियाओं का निरोध है; वह श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र है ॥ ४६ ॥
"That (preventing) checking of external and internal actions by Jnani (one who has knowledge), in order to destroy the causes of samsar (misery), is the excellent Samyak Charitra(right conduct) mentioned by the Jina.. *
कराल काला व्याल सम, कुटिल चाल का काल । मार दिया तुमने उसे, फाड़ा उसका गाल ॥
* ध्यान की उपयोगिता
दुविहं पि मुक्खहे झाणे पाउणदि जं' भुणी णियमा । तह्या पयत्तचित्ता जूयं झाणं समम्भसह ॥ ४७ ॥
द्विविधं अपि मोक्षहेतुं ध्यानेन प्राप्नोति यत् मुनिः नियमात् । तस्मात् प्रयत्नचित्ताः यूयं ध्यानं समभ्यस्त ।। ४७ ।।
निश्चय औ व्यवहार भेद से द्विविध यहाँ शिव-पन्थ रहा, ध्यान - काल में निश्चित उसको पाता है मुनि-सन्त अहा !! इसीलिए तुम दत्तचित्त हो एक-मना हो विजित-मना, सतत करो अभ्यास ध्यान का शीघ्र वनो फिर विगत-मना ॥ ४७ ॥
[जं] अर [गुणी] भुनि [दुविहं पि] पत्रे प्रहारना पt [मुक्खहेउं] भोक्षना अरशीने [णियमा] नियमथी [झाणे] ध्यानथी [ पाउणदि] प्राप्त रे छे. [तह्मा] तेथी [जूयं] तमे [पयत्तचित्ता ] (सावधान यह) तेमां प्रयत्नशील • वर्धने [झाणं] ध्याननी [समव्यसह ] सारी रीते अभ्यास पुरी.
मुनि ध्यान के करने से जो नियम से निश्चय और व्यवहाररूप मोक्षमार्ग को पाता है । इस कारण तुम चित्त को एकाग्र करके उस ध्यान का अभ्यास करो ।। ४७ ।।
Because surely (by the rule) a sage gets both the (Vyavahara and Nischaya) causes of liberation by meditation, therefore (all of) you practise meditation with careful mind.
*
मोह - अमल वश समल बन, निर्बल मैं भगवान विमलनाथ ! तुम अमलं हो, संबल दो भगवान ॥
४७