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________________ * रत्नत्रययुक्त आत्मा ही.मोक्ष का कारण क्यों ? स्यणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियहि । तह्या तत्तियमइउ होदिहुमुक्खस्स कारणं आदा ॥४०॥ रलत्रयं न वर्तते आत्मानं मुक्त्वा अन्यद्रव्ये । .. तस्मात् तत्रिकमयः भवति खलु मोक्षस्य कारणं आत्मा ।। ४० ॥ ज्ञानादिक ये तीन रतन तो आतभ में ही झिल-मिलते, शेष सभी द्रव्यों में झाँको कभी किसी को ना मिलते । इसीलिए इन रलों में नित तन्मय हो प्रतिभासित है, माना निश्चय मोक्ष-सौख्य का कारण आतम-भावित है।॥ ४०॥ [रयणत्तयं] २लत्रय (सभ्यशन, सभ्यन मन सभ्ययारित्र) [अप्पाणं] मामाने [मुइत्तु] छोजन [अण्णदवियwि] 40 द्रव्यमा [ण वट्टइ] हेतु नथी [तला . st२४थी तित्तियमइउ] रत्नत्रय सहित (Asu३५) [आदा] मात्मा हु] निश्यथा [मोक्खस्स] मोक्षनु [कारण होदि] १२५. छे. आत्मा को छोड़ कर अन्य द्रव्य में रलत्रय - नहीं रहता, इस कारण उस रलत्रयमय आत्मा ही निश्चय से मोक्ष का कारण है ।। ४०।। 776, के सम्यक्दर्शन किसे कहते हैं जीवादीसहहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु । दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जहि ॥ ४१ ॥ जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं रूपं आत्मनः तत् तु । दुरभिनिवेशविमुक्तं ज्ञानं सम्यक् खलु भवति सति यस्मिन् ।। ४१ ।। जीवा-जीवादिक तत्त्वों पर करना जो श्रद्धान सही, 'सम-दर्शन' है वह आतम का स्वरूप माना, जान सही। जिसके होने पर क्या कहना संशय-विभ्रम भगते हैं, समीचीन तो ज्ञान बने वह प्राण-प्राण झट जगते हैं ।। ४१ ॥ [जीवादीसद्दहणं] ® माहि सात तत्यानुदान २९ [सम्मत्तं] सभ्यशन [२] [अप्पणो] मात्मानु [रूवं] स्व३५ छ [तु] भने [जमि. सम्पशन तi [दुरभिणिवेसविमुक्क] विपरीत अभिनिवेशधी (संशय, विम अने मनध्यवरu4) रहित [णाणं] - [ख] निश्चयची. [सम्म होदि] सभ्य खोय. जीव आदि पदार्थों का जो श्रद्धान करना है वह तो सम्यक्त्व है और वह सम्यक्त्व. आत्मा का स्वरूप है । तथा इस सम्यक्त्व के होने पर संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय इन तीनों दुरभिनिवेशों से रहित सम्यग्ज्ञान होता है ।। ४१ ॥ Samyak Darshana is the right faith in Jiva...etc. seven Tatvas (essential elements). That is a quality of soul, and when right faith is acquired, Jnana (knowledge), being free from errors, surely becomes right. ___The three jewels (i.e. right faith, right knowledge and right conduct) do not exist in any other substance except the soul. Therefore, the soul (with right faith, right knowledge and right conduct together) surely is the cause of liberation. शीतल चन्दन है नहीं, शीतल हिम ना नीर । शीतल जिन ! तव मत रहा शीतल, हरता पीर ॥ . .. सुचिर काल से मैं रहा, मोह-नींदसे सुप्त । . मुझे जगा कर, कर कृपाए प्रभो करो परितृप्त ॥
SR No.005954
Book TitleDravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
PublisherSamtaben Khandhar Charitable Trust
Publication Year
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size4 MB
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