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________________ * भावानव के भेद मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओऽथ विष्णेया। पण पण पणदस तिय यदु कमसो भेदा दु पुष्यसि ॥ ३०॥ मिथ्यात्वाविरतिप्रमाद योगक्रोधादयः अथ विज्ञेयाः । पश्च पञ्च पञ्चदश त्रयः चत्वारः क्रमशः भेदाः तु पूर्वस्य ॥ ३०॥ मिथ्या-अविरति पाँच-पाँच हैं त्रिविध योग का बाना है, पन्द्रह-विध है प्रमाद होता कषाय-चउविध माना है। भावात्रव के भेद रहे ये रहे ध्यान में जिन-वचना, ध्येय रहे आस्रव से बचना जिन-वचना में रच-पचना ॥ ३०॥ [अथ] भने पुव्वरस] पूर्व मतभावास [मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ] मध्यात्प, भविशति, प्रमा, यो भने उपाय [भेदा) मे [९] भने कमसो] तेन ॐ शन [पण पण पणदस तिय चदु] पांय, पाय, ५४२, र भने या२ मधे [विण्णेया] Seal भे.. पहले यानी भावास्रवके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग और क्रोधादि कषाय ऐसे पाँच भेद जानने चाहिये । उनमें से मिथ्यात्व आदि के क्रमसे पाँच, पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद हैं ॥ ३०॥ Then it should be known that the subdivisions of the former (i.e. Bhavasrava) are Mithyatva', Avirti', Pramad', Yoga and Kasaya' which are again of five, five, fifteen, three and four classes respectively. * द्रव्यानव का स्वरूप व भेद ‘णाणावरणावीणं जोगं जं पुग्गलं समासवदि । वव्यासयो सणेओ अणेयभेओ जिणक्खादो ॥ ३१ ॥ ज्ञानावरणादीनां योग्यं यत् पुद्गलं समास्रवति । द्रव्यास्रवः सः ज्ञेयः अनेकभेदः जिनाख्यातः ॥ ३१ ॥ ज्ञानावरणादिक कर्मों में ढलने के क्षमता वाले, पुद्गल-आम्रव, 'द्रव्यासव' है जिन कहते समतावाले । रहा एक विध, द्विविध रहा वह चउविध, वसुविध, विविध रहा, दुखद तथा है, जिसे काटता निश्चित ही मुनि-विबुध रहा ॥ ३१ ॥ [णाणावरणादीणं] UPuReule 5 ३५ [जोगं] 44 योग्य [ज] हे पुग्गल] पुस (staafgu) समासवदि] भाव छ [स] से जिणक्खादो] नेप्रो . दिव्यासवो] व्यास [अगेयभेओ] भने ભેદવાળો પ્રકારનો જાણવો જોઈએ. ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो पुद्गल आता है उसको द्रव्यासव जानना चाहिये । वह अनेक भेदोंवाला है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।।३१॥ That influx of matter which is capable of causing Karmas, Jnanavarnia'..etc. is to be known as Dravyasrava as called by the Jina and possessing many varieties. 1. Hindering the true qualities of the soul. अबंध भाते काट के, बसु विध विधिका बंध । सुपार्श्व प्रभु निज प्रभु-पना, पा पाये आनन्द ॥ 1. delusion. 2. Lack of control. inability to take vow. 3.. _Inadvertance. 4. Activities. 5. Passion, anger...etc. .
SR No.005954
Book TitleDravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
PublisherSamtaben Khandhar Charitable Trust
Publication Year
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size4 MB
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