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________________ * आचार्य-परमेष्ठी का स्वरूप दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतबायारे । अप्पं परं च मुंजइ सो आयरिओ मुणी झेओ ॥ ५२ ॥ दर्शनज्ञानप्रधाने वीर्यचारित्रवरतप आचारे । आत्मानं परं च युनक्ति सः आचार्यः मुनिः ध्येयः ।। ५२|| दर्शन-ज्ञानाचार प्रमुख कर चरित-वीर्य-तप खुद पालें, पालन करवाते औरों से शिव-पथ पर चलने वाले । ये हैं मुनि-"आचार्य' हमारे पूज्य-पाद पालंक प्यारे, ध्यान इन्हीं का करें रात-दिन विनीत हम बालक सारे ॥ ५२॥ [जो] [मुणी] मुनि. दिसणणाणपहाणे] शन भने धननी प्रधानता सहित. [चीरियचारित्तवरतवायारे] वाय, यास्त्रि तथा श्रेष्ठ तपायारमा . [अप्पं] पोताने [च परं] तम ४ बजाने [जुंजइ छ [सो आयरिओ] ते. मायार्थ (परमेष्ठी) [झेओ] ध्यान ४२५ योग्य छे. दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, चारित्राचार और तपाचार, इन पांचों आचारों में जो आप भी तत्पर होते हैं और अन्य शिष्यों को भी लगाते हैं ऐसे 'आचार्य-मुनि' ध्यान करने योग्य हैं।। ५२॥ That sage who attaches himself and others to the . practice of Virya (power),Charitra (conduct) and Tapa (penance) in which faith and knowledge are eminent is to be meditated as Acharya. * उपाध्याय - परमेष्ठी का स्वरूप जो रयणत्तयजुत्तो णिच्च धम्मोवदेसणे णिरदो।" सो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ॥ ५३ ॥ यः रत्नत्रययुक्तः नित्यं धर्मोपदेशने निरतः । सः उपाध्यायः आत्मा यतिवरवृषभः नमः तस्मै ।। ५३ ।। भव्य-जनों को धर्म-देशना देने में नित-निरत रहे, तीन-रतन से मण्डित होते लौकिकता से विरत रहे। "उपाध्याय" ये पूज्य कहाते यतियों के भी दर्पण हैं, मनसा-यवसा-वपुषा इन को नमन कोटिशः अर्पण है ।। ५३ ॥ रयणत्तयजुत्तो] २लत्रय युत जो] [अप्पा) भात्या णिच्चं] ॥ [धम्मोवदेसणे] भाप ४२वामा [णिरदो] तत्५२ (बीन) २३ छ [सो] त. मात्मा [जदिवरवसहो] यतिमीमा श्रेष्ठ [उवज्झाओ] 6ध्याय (५२ ) ®. तिस्स] तमने [णमो] नम२५२ . जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय से सहित है; निरन्तर धर्म का उपदेश देने में तत्पर है; वह मुनीश्वरों में प्रधान 'उपाध्याय परमेष्ठी' कहलातो है । उसको में नमस्कार करता हूँ॥ ५३ ॥ That being, the greatest of the great sages who being possessed of three jewels, is always engaged in preaching the reilgious trruths, is known as Upadhyaya (teacher teaching scriptures). Obeisance to him. अनन्त सुख पाने सदा, भव से हो भयवन्त । अन्तिम क्षण तक मैं तुम्हें, स्मरूं स्मरें सब सन्त ॥ 1 1. One who practises the five kinds of Acharas i.e. kinds of condut and makes his disciples to perform the same.
SR No.005954
Book TitleDravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
PublisherSamtaben Khandhar Charitable Trust
Publication Year
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size4 MB
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