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________________ के साधु परमेष्ठी का स्वरूप दसणाणाणसमग्गं मागं मोक्खस्स जो हु चारित्तं । । • साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ॥ ५४ ॥ दर्शनज्ञानसमग्रं मार्ग मोक्षस्य यः हि चारित्रम् । । साधयति नित्यशुद्धं साधुः सः मुनिः नमः तस्मै ।। ५४ ॥ यथार्थ-दर्शन तथा ज्ञान से नियम रुप से सहित रहे, . . निरतिचार वह 'चारित' ही है "मोक्षमार्ग" यह विदित रहे। इसी चरित की "साधु"-साधना सदा-सर्वदा करता है, ध्यान-साधु का करो इसी से सभी आपदा हरता है।॥ ५४॥ [जो] 3 [मुणी] भुमि हु] निश्यची. [दसणणाणसमग्गं] ४शन भने शान अति [मोक्खस्स] भान [मग्गं] [३५ [चारित्तं] यात्रिने [णिच्चसुद्ध] सहा शुदतथी [साधयदि] छ [स साहू] ते साधु (५२४ी )छ: [तस्स णमो] तेमने नम२२ . । जो दर्शन और ज्ञान से पूर्ण, मोक्ष के मार्गभूत, सदाशुद्ध चारित्र को प्रकट रूप से साधते हैं वे मुनि 'साधु परमेष्ठी' हैं, उनको मेरा नमस्कार हो ।। ५४ ।। That sage who really practises well conduct which is always pure and which is on the path of liberation with right faith and knowledge is a Sadhu. Obeisance to him. के निश्चय - ध्यान का स्वरूप जं किंचिवि चिंतंतो, णिरीहवित्ती हवे जदा साहू । लण य एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं ॥ ५५ ॥ यत् किञ्चित् अपि चिन्तयन् निरीहवृत्तिः भवति यदा साधुः । लब्ध्वा च एकत्वं तदा आहुः तत् तस्य निश्चयं ध्यानम् ।। ५५ । चिन्ता क्या है, चिन्तन कुछ भी साधु करें वह, पर इतना, ध्यान रहे बस निरीहता का साधुपना पनपे. उतना। . एक-ताजगी निरी-एकता पाता निश्चित साधु वही, यही "ध्यान है निश्चय" समझो साधु बनो ! पर स्वादु नहीं ॥ ५५॥ [जदा या [साहू साधु [एयत्तं] IAL [लटूण य] AUHAR [जं किंचिवि] (ध्यान ४२॥ योग्य वस्तु) चिंतंतो] तिन ७२ता [णिरीहवित्ती] ६२७ २त. पाय छ [तदा] त्यारे [तं तस्स णिच्छयं] ते २५४थी तन श्यथी. [झाणं] ध्यान [हवे] य. ध्येय में एकाग्र चित्त होकर जिस किसी पदार्थ का ध्यान करता हुआ साधु जब निष्ग्रह वृत्ति (समस्त इच्छाओं से रहित) होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय ध्यान होता है ।। ५५ ।। N When a sadhu attaining concentration, without expectations by meditating on anything whatever, that state is called real meditation. दया धर्म वर धर्म है, अदया-भाव अधर्म । अधर्म तज प्रभु धर्म ने, समझाया पुनि धर्म ॥ धर्मनाथ को नित नमू, सधे शीघ्र शिव शर्म । .. धर्म-मर्म को लख सकूँ, मिटे मलिन मम कर्म ॥ .
SR No.005954
Book TitleDravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
PublisherSamtaben Khandhar Charitable Trust
Publication Year
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size4 MB
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