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________________ * परम - ध्यान का लक्षण मा चिठह मा जंपह मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो । अप्या अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं ॥ ५६ ॥ मा चेटत मा जल्पत मा चिन्तयत किं अपि येन भदति स्थिरः । आत्मा आत्मनि रतः इदं एव परं भवति ध्यानम् ।। ५६ ॥ कुछ भी स्पन्दन तन में मत ला बन्द-मुखी हो, जल्प न हो, . चिन्ता, चिन्तन मन में मत कर चेतन. फलतः निश्चल हो। अपने ही आतम में अपना अविचल हो, जो रमना है, ध्यान रहे यह परम-ध्यान है और ध्यान तो भ्रमणा है॥५६॥ . भव्य पु२५!) [किं वि] 46 48 [मा चिट्ठह] (शरीरथी) येथ 10..[मा जंपह] (भोथी) - बोसो, [भा चिंतह) (भनधी) र्थितन् न से [जेण अप्पा] थी भात्मा [अप्पम्मि] भात्मामi [थिरो होइ] स्थिर 45 [रओ] बीन याय छे. [इणमेव परं] . ४ ५२५ (Gce) [ज्झाणं] ध्यान [हवे] आय . हे भव्य पुरुषो ! तुम कुछ भी चेय मत करो (काय की क्रिया मत करो) कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो (संकल्प-विकल्प न करो) जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मा में तल्लीन स्थिर होवे, आत्मा में लीन होना परमध्यान है ।। ५६ ॥ . Do not act (move any part of the body), do not talk, do not think, so that the soul may be attached to and fixed in itself. This only is excellent meditation. * ध्यान की प्राप्ति का उपाय तयसुववदवं चेदा झाणरहधुरंधरो हवे. जम्हा । तम्हा तत्तियणिरवा तल्लीए. सदा होह ॥ ५७ ॥ तपःश्रुतव्रतवान् चेता ध्यानरथधुरन्धरः भवति यस्मात् । तस्मात् तत्रिकनिरताः तलब्ध्यै सदा भवत ।। ५७ ।।.. व्रत के धारक, तप के साधक श्रुत-आराधक बना हुआ, .वही ध्यान-रथ-धुरा सुधारे नियम रहा यह बन्धा हुआ। इसीलिए यदि सुनो तुम्हें भी ध्यानामृत को चखना है, व्रत में, तप में, श्रुत में निज को निश-दिन तत्पर रखना है।। ५७॥ .. [जम्हा] १२ तवसुदवदव] तर, श्रुत आने इतने धा२३ २नार [चेदा भात्मा ज्झाणरहधुरंधुरो] ध्यान३५२यनी धुराने ॥२१ ४२नार [हवे तम्हा] थाय छ, ७८२९थी [तल्लद्धीए से५२मध्याननी UA माटे [सदा] &A [तत्तियणिरदा] (त५, श्रुत माने त) मे समा बीन [होइ] थामा क्योंकि तप, श्रुत और व्रत का घारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला होता है, इस कारण हे भव्य पुरुषो ! तुम उस ध्यान की प्राप्ति के लिये निरन्तर तप, श्रुत और व्रत में तत्पर होवो || ५७ ॥ . । | As a soul which (practises) penances, (holds) vows and has knowledge of scriptures, becomes capable of holding the axle of the chariot of meditation, so to attain excellent meditation be always engaged in these three (i.e. penances, vows and scriptural knowledge).: शान्तिनाथ हो शान्त, कर सातासाता सान्त । केवल, केवल-ज्योतिमय, क्लान्ति मिटी सब ध्वान्त ॥
SR No.005954
Book TitleDravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
PublisherSamtaben Khandhar Charitable Trust
Publication Year
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size4 MB
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