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* अधर्म-द्रव्य का स्वरूप टाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई ॥ १८ ॥ स्थानयुतानां अधर्माः पुद्गलजीवानां स्थानसहकारी । छाया यथा पथिकानां गच्छतां नैव सः धरति ॥ १८ ॥ किसी यान में रुकते में जब जीव तथा पुद्गल भाई, 'अधर्म उसमें बने सहायक प्रेरक बनता पर नाही।
रुकने वाले पथिकों को तो छाया कारण बनती है, • चलने वालों को न रोकती उदासीनता ठनती है ।। १८ ॥
जह वी शत छाया] छया [ठाणजुदाण स्थिर हा पहियाणं] भुसाशन ठाणसहयारी] स्थिर वाम सरी थाय छ [तह सेवा शत. [पुग्गलजीवाण] पुरा भने पान (स्थि२ २४वाम सरी) अधम्मो] अधदिव्य छ ५० [सो] पदव्य [गच्छंता] याबवावा ®4 भने पुसलादल्याने [णेव धरई) 24.रानी ..
ठहरे हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य । है। जैसे छाया यात्रियों को ठहरने में सहकारी है । गमन करते हुए जीव तथा । पुद्गलों को अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता ॥ १८॥
As shadow assists the staying of travellers, Adharma substance assists the staying of the pudgalas and Jivas which are stationary. But it doesn't hold back moving Jiva and Pudgala.
* आकाश-द्रव्य का स्वरूप _अवगासदाणजोगं जीवादीणं वियाण आयासं ।
जेण्डं लोगागास अल्लोगागासमिवि दुविहं ॥ १९ ॥ अवकाशदानयोग्यं जीवादीनां विजानीहि आकाशम् ।। जैनं लोकाकाशं अलोकाकाशं इति द्विविधम् ।। १९ ।। योग्य रहा अवकाश दान में जीवादिक सब द्रव्यों को, वही रहा 'आकाश-द्रव्य है समझाते जिन, भव्यों को। दो भागों में हुआ विभाजित बिना किसी से वह भाता, एक ख्यात है लोक-नाम से अलोक न्यारा कहलाता ॥ १९ ॥
[जीवादीणं] 94 भाहियोन [अवगासदाणजोग्गं] 14.50 भाषा, योग्य जण्ह लिनेन्द्र मावाने से [आयासं] माश-द्रव्य [वियाण]
. मा भा.शदव्य लोगागास] लाश, भने [अल्लोगागास] भLA [इदि] भै [दुविहं] सर्नु छ.
जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश देने वाला है उसको जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो । लोकाकाश और अलोकाकाश इन भेदों से वह आकाश दो प्रकार का है ॥ १९॥
Know that which is capable of allowing space to Jiva...etc., to be 'Akasa' as told by the Jinendradeva (Tirthankara). This Akasa is of two kinds Lokakasa and Alokakasa.
1. That which allows space to other substances.
कोंपल पल-पल कों पले, वन में ऋतु-पति आय । पुलकित मम जीवन-लता, मन में जिन पद पाय ॥
तुम-पद-पंकज से प्रभो, झर-झर-झरी पराग । जब तक शिव-सुख ना मिले, पीऊँ षट्पद जाग ॥
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