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________________ * अस्तिकाय का लक्षण संति जदो तेणेदे अत्यित्ति भणति जिणवरा जमा । काया इव बहुवेसा तझा काया य अत्थिकाया य ॥ २४ ॥ सन्ति यतः तेन एते अस्ति इति भाणन्ति जिनवराः यस्मात् । काया इव बहुदेशाः तस्मात् कायाः च अस्तिकायाः च ।। २४ ।। चिर से हैं ये सारे चिर तक इनका होना नाश नहीं, . इन्हें इसी से 'अस्ति' कहा है जिन-ने, जिनमें त्रास नहीं । काया के सम बहु-प्रदेश जो धारे उनको. 'काय' कहा, तभी अस्ति औ काय मेल से अस्तिकाय' कहलाय यहाँ ॥ २४ ॥ [जदोथी शन एदे] भL (@LE ७) द्रव्य [संति] सहा विधान २ छ तिण] ते जिणवरा] निन्द्रटेन [अत्यित्ति] अस्ति' मेभ [भणंति] छ [य] भने [जम्हा या 50 [काया इव] शरीर-1 संभान बिहुदेसा] 4u प्रदेशमा [तम्हा] तथा [काया] 'stu' acाय छ [य] भने [अस्थिकाया] u भगाने मस्तिय वाय छ.. * द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या होति असंखा जीवे धम्माधम्मे अणंत आयासे । . मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ॥ २५ ॥ भवन्ति असंख्याः जीवे धर्माधर्मयोः अनन्ताः आकाशे । मूर्ते त्रिविधाः प्रदेशाः कालस्य एकः न तेन सः कायः ॥ २५ ॥ एक जीव में नियम रूप से असंख्यात-परदेश रहे, धर्म-द्रव्य औ अधर्म भी वह उतने ही परदेश गहे। अनन्त नभ में, पर पुद्गल में संख्यासंख्यानन्त रहे, एक काल में तभी काल ना काय रहा, अरहन्त कहें ॥ २५ ॥ [जीवे म [धम्माधम्मे] धर्म भने अ न्योल [असंखा मण्यात [आयासे] ALLAGAvi [अणंत भनid [मुते] पु l [तिदिह २ Astri संvrut, असंन्यात भने अन्त पदेसा] प्रशो [होति य छ [कालस्स] दमन [एगो में प्रदेश तिण] तथा [सो] a stu [काओ] 314. अथात महेश [ण] नथ.. जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँचों द्रव्य विद्यमान हैं इसलिए जिनेश्वर इनको 'अस्ति' (है) ऐसा कहते हैं और ये शरीर के समान बहुप्रदेशी हैं इसलिए इनको 'काय' कहते है। अस्ति तथा काय दोनों को मिलाने से ये पाँचों 'अस्तिकाय' होते हैं ॥ २४ ॥ एक जीव, धर्म तथा अधर्म द्रव्य में असंख्यात प्रदेश हैं और आकांश में अनन्त हैं। पुद्गल में संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश है और काल के एक ही प्रदेश है इसलिये काल 'काय' नहीं है ।। २५ ॥ ___As these (five substances) exist, they are called 'Asti' by the great Jinas, and because they have many pradesas, like bodies therefore they are called kayas. Hence they are called 'Astikayas' In Jiva, Dharma and Adharma, the pradesas are innumerable in Akasa (the pradesas are) infinite and in that which has form (viz. Pudgala) Pradesas are of three kinds (viz. numerable, innumerable and infinite). Kala (Time) has one Pradesa. Therefore, it is not called 'kaya.' २४
SR No.005954
Book TitleDravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
PublisherSamtaben Khandhar Charitable Trust
Publication Year
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size4 MB
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