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________________ * प्रदेश का लक्षण . एयपदेसो वि अणू णाणाखंघप्पदेसदो होदि । बहुदेसो उक्यारा तेण य काओ भणति सव्यण्ड ॥ २६ । एकप्रदेशः अपि अणुः नानास्कन्धप्रदेशतः भवति । बहुदेशः उपचारात् तेन च कायः भणन्ति सर्वज्ञाः ॥ २६ ॥ प्रदेश इक ही पुद्गल-अणु में यद्यपि हमको है मिलता, रूखे-चिकने स्वभाव के वश नाना-स्कन्धों में ढलता ! होता बहुदेशी इस विध अणु यही हुआ उपचार यहाँ, सर्वज्ञों ने अस्तिकाय फिर उसे कहा श्रुत-धार यहाँ ।। २६ ॥ [एयपदेसो वि] में प्रदेशका ७i [अणू] पुगब ५२भानु [णाणाखंघप्पदेसदो] विविध सं५३५. प्रशिवाणो यो पाने ४२५ [बहुदेसो] महेशी [होदि] पाय छ [य] भने तिण] १२थी. [सवण्हु) स व' पुस५२माने [उवयारा]. ५यारथी [काओ] 14 मधात बहेश भणंति] . एक प्रदेशी भी परमाणु अनेक स्कन्धरूप बहुप्रदेशी हो सकता है इस कारण सर्दशदेव उपचार से पुद्गल परमाणु को 'काय' कहते हैं ॥ २६ ॥ An atom (of Pudgala), though having one Pradesa, becomes of many pradesas, through being Pradesa in many skandhas.'. For this reason, from the ordinary point of view, the omniscient ones call (it to be) 'Kaya.' के प्रदेश का लक्षण जावदियं आया अविभागीपुग्गलाणुउद्धं । तं तु पदेसं जाणे सव्वाणुढाणदाणरिहं ॥ २७ ॥ . यावतिकं आकाशं अविभागिपुद्गलाण्वष्टश्चम् । ' तं खलु प्रदेशं जानीहि सर्वाणुस्थानदानाहम् ॥ २७ ॥ जिसमें कोई भाग नहीं उस अविभागी पुद्गल-अणु से, व्याप्त हुआ आकाश-भाग वह प्रदेश माना है जिनसे । किन्तु एक आकाश देश में सब अणु मिलकर रह सकते,.. वस्तु तत्त्व में बुध-जन रमते जड़-जन संशय कर सकते ॥ २७॥ . (जावदियं] हेलु [आयासं] भL [अविभागीपुग्गलाणुउदृद्ध में અવિભાગી અથતુ જેનો બીજો ભાગ ન થઈ શકે એવા પુદ્ગલ પરમાઇ द्वारा छ ति] ते [ख] निश्चयची [सव्वाणुट्ठाणदाणरिहंसर्व भाभाने स्थान का योग्य [पदेस] प्रदेश [जाणे] को जितमा आकाश अविभागी पुद्गलाणु - से रोका जाता है उसको सब परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ 'प्रदेश' जानो ॥ २७॥ । Know that to be surely Pradesa, the space of which is occupied by one undivisible atom of Pudgala and which can give space to all particles. सुमतिनाथ प्रभु सुमति दो, मम मति है अति मंद । बोध कली खुल-खिल उठे, महक उठे मकरन्द ॥ 1. Modifications of Pudgala achieved when many atoms combine together. तुम जिन मेघ मयूर मैं, गरजी बरसो नाथ । चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा, ऊपर करके माथ ॥
SR No.005954
Book TitleDravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
PublisherSamtaben Khandhar Charitable Trust
Publication Year
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size4 MB
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