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________________ चना * निर्जरा-तत्व का स्वरूप - जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण। भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि णिजरा दुविहा ॥ ३६॥ यथा कालेन तपसा च भुक्तरसं कर्मपुद्गलं येन । भावेन सडति. ज्ञेया तस्सडनं चेति निर्जरा द्विविधा -।। ३६ ।। अपने सुख-दुख फल को देकर जिन भावों से विधि झड़ना, यथा-काल या तप-गरमी से 'भाव-निर्जरा' उर धरना । पुद्गल कर्मों का वह झड़ना 'द्रव्य-निर्जरा' यहाँ कही, भाव-निर्जरा द्रव्य-निर्जरा सुनो ! निर्जरा द्विधा रही ॥ ३६ ॥ [जह कालेण] समय भाव्यथा (Aal पूरी थाl) [य] भने. [तवेण] तपथी [भुत्तरस] हेर्नु ण भोगवा पुंछ मेवा [कम्पपुग्गलं] पक्ष जण भावेण] भावी [सडदि] जाय छेतेने भावनि। [णेया] वी [य] भने [तस्सडणं] भानु जरी ते द्रव्यानि छ. [इदि] मा प्रभार णिज्जरा] AN [दुविहा]. रे [णेया] 8वी यथा समय (उदयकाल में) फल देकर अथवा तप द्वारा (बिना फल दिये) आत्मा के जिस भाव से कर्म नष्ट होता है, वह भाव निर्जरा है और कर्म पुद्गलों का आत्मा से नष्ट होना द्रव्य निर्जरा है। निर्जरा के सविपाक (फल देकर कर्मों का झड़ना) और अविपाक (तप द्वारा. बिना फल दिये हो कर्मों का झड़ना) दो भेद हैं ।। ३६ ॥ That Bhava (modification of the soul) by which the matter of Karma disappears in proper time after the fruits (of such Karma) are enjoyed (is called Bhava-Nirjara), also (the destruction of Karmic matter) through penances (is known as Bhava-Nirjara). And that destruction (itself) (is known as Dravya-Nirjara) Thus Nirjara should be known of two kinds. * मोक्ष-तत्व का स्वरूप . सबस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो । .. णेयो स भावमुक्खो दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावो ॥ ३७॥ सर्वस्य कर्मणः यः क्षयहेतुः आत्मनः हि परिणामः । ज्ञेयः सः भावमोक्षः द्रव्यविमोक्षः च कर्मपृथग्भावः ।। ३७ ।। सब कर्मों के क्षय में कारण आतम का परिणाम रहा, 'भाव-मोक्ष' वह यही बताता जिनवर मत अभिराम रहा। आत्म-प्रदेशों से अति न्यारा तर का, विधि का हो जाना, 'द्रव्य-मोक्ष' है, मोक्ष-तत्त्व भी द्रव्य-भावमय, सो पाना ॥ ३७॥ [अप्पणो मात्माना [जो] [परिणामो] परिणाम [सव्बस्स] समस्त [कम्मणो] भान [खयहेदू] क्षय याम ॥२९ [स] [] निश्यथा [भावमुक्खो भावभो.व. [य] भने [कम्मपुहभावो] भामाथी. व्यानु शुधा त दिव्यमुक्खो] द्रव्यमोक्ष [णेयो] पो. . सब कर्मों के नाश का कारण आत्माका जो परिणाम है, उसको 'भाव-मोक्ष' जानना चाहिये और कर्मों का जो आत्मा से सर्वथा भिन्न होना है, वह 'द्रव्य-मोक्ष है ।। ३७ ॥ That modification of the soul which is the cause of the destruction of all Karma, is surely to be known as Bhava moksha and (actual) separation of the Karmas is Dravya-moksha. सुविध ! सुविधि के पूर हो, विधि से हो अति दूर । मम मन से मत दूर हो, विनती हो मंजूर ॥
SR No.005954
Book TitleDravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Acharya, Vidyasagar Maharaj, Kishor Khandhar
PublisherSamtaben Khandhar Charitable Trust
Publication Year
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size4 MB
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