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आराधनास्वरूप।
संग्रहकर्तामुनीम धरमचंदजी हरजीवनदास-पालीताणा।
'जैनविजय प्रेस-सूरत।
घोघा (भावनगर) निवासी स्वर्गवासी सेठ ठाकरसी नत्थुभाईके स्मरणार्थ "दिगंबरजैन के ग्राहकोंको
नवमें वर्षका चौथा उपहार ।
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BIDIO
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सर्वोपयोगी नवीन ग्रन्थजैन-इतिहास,
(प्रथम भाग)
कई वर्षोंसे संक्षिप्त जैन इतिहासकी एक पुस्तक प्रगट होनेकी आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति बाबू सूरजमल्लजी जैन (संपादक "जैन प्रभात ॥ इन्दौर) ने यह पुस्तक प्रकट करके की है, जो जैन अजैन सभीको पढ़ने योग्य है और हरएक पाठशाला, विद्यालयादिमें तो अवश्य प्रवेश करनेयोग्य है। इस प्रथम भागमें कुलकरोंसे लेकर श्री वासुपूज्यस्वामी तकका इतिहास है। पृष्ठ १५०, उत्तम छपाई, सचित्र और मूल्य से सिर्फ बारह आने। सब प्रकारके जैन ग्रन्थ और पवित्र केशर मिलनेका पता
मैनेजर, दिगंबरजैनपुस्तकालय-सूरत.
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प्रथमावृत्ति.
दिगंबर जैन ग्रंथमाला नं. ४५.
॥ श्रीवतरागाय नमः ॥
आराधनास्वरूप ।
( अनेक स्तुतिएं, पदों आदि सहित )
संग्रहकर्ता --
मुनीम धरमचंदजी हरजीवनदास - पालीताणा.
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प्रकाशक
मूलचंद किसनदास कापड़िया - सूरत.
Oxec
वीर सं. २४४२ प्रतियाँ २१००
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घोघा (भावनगर) निवासी स्वर्गवासी शेठ ठाकरशी नत्थुभाईके स्मरणार्थ 'दिगंबर जैन' के ग्राहकको सेवा वर्षका पांचवाँ उपहार । खा.श्री. वाससागर हरि ज्ञान मंदिर श्री मद्र, कोबा
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taara
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Printed by :Moolchand Kisondas Kapadia at bis 'Jain Vijaya'
printing press, near Khapatia chakla,
Laxminarayan'a wadi-Surat.
Published by :--- Moolchand Kisondas Kapadia, Proprietor, D. Jain Poostakalaya & Hon: Editor, ‘Digambar Jain,'
from Khapatia chakla, Chandawadi-Surat.
..
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ए तो नि:संशय छे के 'दिगंबर जैन ' पत्रना ग्राहकोने अमुक अमुक ग्रहस्थो के व्हेनोना स्मरणार्थे पुस्तको भेट आपवानी योजना शरु थई छे त्यारथी ए दिशा तरफ अमारा गुजरातना केटलाक भाईओनु लक्ष दोरायुं छे अने प्रथम ज्यारे सूचनाओ करवाथीज तेमां फळीभूत थवातुं हतुं त्यारे हवे तो विना सूचना कर्ये आवी सहायता मळती जाय छे, एनो दाखलो आज पुस्तक छे के जे माटे रु. १२५) घोघा (भावनगर) निवासी स्वर्गवासी शेठ ठाकरशी नत्थुभाईना स्मरणार्थे शास्त्रदान माटे तेमना पुत्र छगनलालभाईए मोकलवा इच्छा दर्शावेली, ते उपरथी ए माटे एक पुस्तकनी पसंदगी अमो करवाना हता, पण ते पहेलो भाई छगनलालना स्नेही पालीताणा निवासी मुनीम धरमचंदजी हरजीवनदासे जणाव्यु के ए माटे हुँ जे पुस्तक तैयार करी मोकलुं तेज छपाववानुं छे, जेथी पछी एमणे आ पुस्तक के जेमां सदासुखजीविरचीत ‘भगवतीआराधना'. मांथी पाने ४०९ थी ४२२ सुधीनो, तेनी मूळ भाषामां उतारो करेलो छे ते तथा परचुरण पदो, स्तुतिओ, उपयोगी बोध वगेरेनो संग्रह लखी मोकलेलो, ते दाखल करीने आ पुस्तक 'दिगंबर जैन 'ना ग्राहकोने नवमा वर्षेनी पांचमी भेट तरीके प्रकट कर्यु छे.
वळी आ पुस्तकमां प्रथम स्वर्गवासी शेठ ठाकरशी नत्थुभाईना जीवननी ढूंक नोंध जे तेमना निकटना स्नेही .. आंकळावनिवासी शा माणेकचंद फूलचंदे लखी मोकलेली छे ते पण दाखल करी छे, जे बांचवाथी वांचकोने अणाशे के एक साधारण स्थितिना ग्रहस्थे पोता पाछळ शुभ कार्यों माटे रु. १५००) नी अखावत योग्य व्यवस्थापूर्वक करी छे. जैनोमां दाननी रकमो तो हजारो रुप्या नीकळे छे, पण तेनो बराबर रीते उपयोग थतो नथी, माटे समयने
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अनुसरीने हाल तो दाननी रकमोनो उपयोग विद्यादान, शाम्रदान, जीर्णोद्धार अने जीवदया माटेज करवो जरूरनो छे. आपणे इच्छीशुं के आरु. १५००) ना दान- अनुकरण आपणा बीजा भाईओ करशेज. वीर सं. २४४१ ।
जैनजातिसेवकज्येष्ठ बदी २ । मूलचंद किसनदास कापड़िया ता. १७-६-१६
सूरत. स्वर्गवासी शेठ ठाकरसी नत्थुभाश्ना
जीवननी ट्रक माध. रत्नो धूळमाथी मळी आवेछे, एवी आपणी परापूर्वन्त गुजराती कहेवतने स्वीकार्या सिवाय चालशे नहि. आजथी दश वर्ष पहेलां भारतवर्षने एवां स्वप्नो पण नहि आवेलां के देशसुधारानी प्रगतिमां आटलो आगळ वधारो थशे, पण आजकाल हिंदमां हस्ती धरावती संख्याबंध पारमार्थिक संस्थाओ अने ते सघळा उपर उन्नतिनो झूडो स्थापनार घणाखरा गरीब अवस्थामां उछळी, अचानक बहार आवी, महान पुरुषोमां गणना पामेला जणाया छे. तेमनां सत्कार्यों तथा आनंदमंगळनी महुलीओ देशना वनाओने वारसारूप छे. अत्यारे जे व्यक्तिना जीवनप्रदेश तरफ आपणे वळीए छीए, ते व्यक्ति महान पुरुषोना पत्रकमां नाम नोंधावी गयेल नथी, तेम तेवा प्रसंगो अने संयोगोमां तेमनुं उछळवू पण थयु नहोतुं, महद् भाग्य ने महद इच्छाना तेओ साधक नहोता, एटले सर्वसाधारण पण स्वच्छतादर्शक हतुं. उपर जणाव्या मुजब तेओ महान पुरुष नहोता, पण महान पुरुषोना गुणोनो कईक अंश तेमनामां हतो, एम निर्विवाद लखवू पडेछे.
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दरियाइ मार्गपर काठियावाडने किनारे घोघा बंदर छ, त्यां दिगंबर जैन दशाहुमड ज्ञातिमां शेठ नत्थुभाई झवेरचंदनुं कुटुंब जाणातुं हतुं अने आ चरित्रना नायक शेठ ठाकरसीभाईनो जन्म तेज कुटुंबमां शेठ नत्थुभाईने त्यां थयो हतो. तेमना पिताए घोघामां एक कुशळ गांधी व्यापारी तरीके सारी ख्याति मेळवी हती; तेमने बे पत्नी हतां, जेमांनी बीजी हाल हयात छे. प्रथम पत्नीथी तेमने बे पुत्रो हता, जेमां मोटानुं नाम टोकरसी अने बीजा आ निबंधनायक ठाकरसीभाई हता.
वीसमी सदीनी शरूआतमां अत्यारना प्रमाण करतां केळवणी पामवाने सगवड तथा साधनो घणां ओछां हतां, जेथी ते जमानाना पुरुषो स्कुलकेळवणी करतां संसार के व्यवहारकुशळ बनवू वधारे पसंद करता, अने तेवोज क्रम रा. ठाकरशीभाई माटे तेमना पिता तरफथी योजवामां आव्यो हतो. आपणी देशी केळवणीनो बनी शके तेटलो योग्य अभ्यास कराव्या बाद लग्नसंबंधथी तेमने जोडवामां आव्या. त्यार बाद रा० ठाकरशीभाईए संसारसमुद्रमा पोतानी जीवननौका झोंकावी अने ते समये व्यापारमा व्यवहारज्ञ एक कुशळ सुकानी तरीके तेमणे सारी नामना मेळवी. रा. वताए एक ठेकाणे लख्यु छे के " दैव्यनी वातो विचित्र होय छे, हर्षशोकनी रंगीन ध्वजापताका दुनियामां क्षणे क्षणे फरक्या करे छे अने दशी वीसी या उदय अस्तना पडदा निरंतर ऊंचा नीचा थया जाय छे." ए सुत्रोनो अनुभव रा. ठाकरसीभाईने पण लेवो पडयो. संवत १९५७मां तेमना पेढीनायक पिता शेठ नत्थु गांधीनो स्वर्गवास थयो, व्यापारमा नुकशान आववा लाग्युं, जळमार्गी
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वहाणोमां पण कुदरतनी गेची लाकडी अचानक अथडाई, त्यार पछीनी स्थितिने सुधारवाना इरादाथी नोकरी नापसंद करता होवाथी कोई स्वतंत्र व्यापार अर्थे संवत १९५९मां रा. ठाकरसीभाई भावनगर आव्या, पण सारी मूडी मळे नहि अने पूर्वनी जाहोजलालीमां तुर्तातुर्त पेसवु ए बनी शके तेम नहोतुं; जेथी तेओए थोडे पैसे स्वतंत्रतानो अनुभव लेवा दुधनी दुकान खोली, तेमांप्रमाणिकपणे काम चालवाथी तेमां तेमने फायदो मळवा मांडयो. काम आगळ वधारवानी इच्छाथी मदद अर्थे तेमना पुत्र छगनलाल जे ते समये गुजराती स्कूलमां मास्तर हता, तेमने नोकरी मुकावी आ कार्यमा योज्या..
प्रवृत्ति वधतां पैसानी प्राप्ति थवा मांडी. सत्यज छे के कार्य प्रति हिंमत न हारतां स्वाश्रय-खंत-बिनप्रमाद निखालसी ह्रदय साथे धर्म प्रति श्रद्धा अने आ उन्नत्तिना शंगे चढावनारी केटलीक सडकोमांनी आ मर्छम ठाकरसीभाईमां दृष्टिगोचर थती हती.
तेमना त्रण पुत्रो श्रीयुत्-छगनलाल,अमरचंद तथा हीरालाल अने बे पुत्रीओ वगेरे सारी स्थितिमां दिवस निर्गमन करे छे. आ सुखी युथ स्वजन स्नेहीने बाह्य चक्षुथी छेल्लां निरखी संवत १९७२ ना कारतक वद ३ ने बुधवारना प्रभाते दिव्य चक्षुथी संतोषातां परलोकगमन थयु. प्रभो! आ भविक आत्माने शांति-शांति बक्षो.
नामांकित जनो तथा मातबर श्रीमंतोना संबंधी घj लखवामां आवे छे, पण अनुकरणीय सद्गुणसंपन्न साधारण पुरुषोने ढंकायेल गुप्त राखवानी रीतमा सुधारो करवा जैनेत्तरे विचारवा जेवु छे,
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गमे तेवी हालतना पण चारित्रवान पुरुषोने बहार लाववानी भावना जैन प्रजाना हृदयतटपर चित्राववी जोईए..
श्रीमंतोना करोडो रूपिया करतां स्वाश्रयी साधारण मनुष्यना सो रुपीआ वधारे बरकतवाळा होय छे, ए दाखलो अंतरमा उतारी वांचके स्वर्गवासी ठाकरशीभाईना अवसान समयनी दान-व्यवस्था तरफ दृष्टि करवानी छे. छेक्टमां मारा मित्र रा. वताना शब्दोमांज वांचकने ध्यानमा राखवा सोनेरी कलम हस्तगत करावी विलोकी शेठ ठाकरसीभाईना आत्माने पुनः पुनः शांति याचतो विरमीश. __ "उच्च कोटीनांजीवनचरित्रो अवलोकवां अने आचरणमां मूकवां ए वांचकना भावी उदयनो अनुपम आरसो छे" नीचेनी तेमनी दान व्यवस्था तरक नजर फेरवीशु१७५) गरीबोने अनाज, कपडां तथा पशुओने घास विगेरेमां. १२५) जीवदयामां.
२५) तेओना अवसाननी तिथिए कसाईवाडे जीव
छोडाववा सारु. १००) तेओभीनी अवसानतिथिए हर वर्षे घोघामा माछ
लानी जाळ छोडाववामां ते रकमना व्याजमांथी
उपयोग. १५०) भावनगरना दहेरासरजी माटे इंद्रध्वजानी गाडी करावी. १२५) भावनगरना दहेरासरजी माटे चांदीनुं तोरण कराववामां. ५०) भावनगरना दहेरासरजीमां दर साले अमुक तिथिए अभि
षेक, पूजा तथा प्रभावना तेना न्याजमांथी थाव. १००) भावनगरमां विद्यानंदगुरुनां पगलां गाम बहार छे तेना
जीर्णोद्धारमां.
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१००) घोघाना दहेरासरजीना जीर्णोद्धारमां. १००) श्री 'दिगंबर जैन' पत्रमा एक पुस्तक भेट आपवा माटे. १६५) विद्यादानमां तथा अनाथाश्रमोमां नीचे मुजब आप्या२०) भावनगरनी दि. जै. संतोकव्हेन पाठशाळामां
भणती बाळाओने इनाम वहेंचवामां. हस्तिनापुरना रूषभ ब्रह्मचर्याश्रममां. बनारसना स्याद्वाद महाविद्यालयमां.
मुरादाबादना श्राविकाश्रममां, २५) दिल्हीना अनाथाश्रममां. १०) मुंबाईना श्राविकाश्रममां. १०) महाविद्यालय-मथुरा.
प्रे. मा. दिगंबर जैन बोर्डिंग अमदावादना विद्या
र्थीने स्कोलरशीप आपवामां. ५) नडियाद अनाथाश्रममां.
मुगां बहेरांनी शाळा-अमदावादमां. ३) बोरसदना अनाथाश्रममां. २) वडोदराना श्री फतेसिंहराव अनाथाश्रममां.
१०९०) उपर मुजब रु. १०९०)नो हाल व्यय थई चुक्यो छे अने रु. ४१०)नो योग्य समये व्यय थतो जशे, एटले एकंदरे रु. १५००) जेवी सारी रकम समयने अनुसरता कार्यो माटे आ साधारण स्थीतिना ग्रहस्थ काढी गया छे तेज साधारण मनुष्योने जीवनमा जोडवा योग्य नमुनेदार दाखलो छे. अस्तु. ___ आंकाव (खेडा)
स्नेहांकितवीर सं. २४४२. ज्येष्ठ सुद ११४
ता. ११-६-१६ माणेकलाल फूलचंद शाह.
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Tali
Ansaan
15
स्वर्गवासी शेठ ठाकरशी नत्थुभाई
घोघा ( भावनगर )
'जैन विजय" प्रेस–सूरत.
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॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥
आराधनास्वरूप।
MEENADA
वीस व्यहरमान स्तुति (सवैया ३१ सा)
श्री मंदिर आदि जिन राजत विदेह माहि पानसे धनुष बपु धारे भगवंत है । कोटपूर्व आउ जान नंत ज्ञान दर्शवान सुखद अनंत जाके वीरज अनंत है ।। सिंहासन आसनपे आपश्री वीराजमान खीरे तीहुं काल वाणी सुणे सब संत है । अब है वस्तमान ध्यावे नित इंद्र आन मे हुं वंदु बीस जिन शिवतिय कंत है ॥
॥ श्लोक ॥
अर्हन्तः सिद्धाचार्योपाध्यायसाधवः परमेष्टिनः । तेपि स्फुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटि मे शरणम् ॥ ___अर्थ-अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये पंच परमेष्टी है तेही मेरे आत्मामें तिष्टे हैं इससे आत्मा ही मुझे शरण है।
भावार्थ-यह परभेष्टी आत्मामें तब ही ठहर सकता है जब की उनका स्वरूप चिंतवन कर आत्मामें ज्ञेयाकार वा ध्येया
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rrrrrrrran
२]
दिगंबर जैन । कार किया होय इससे परमेष्टीको नमस्कार किया जानना और आगम भाव निक्षेप कर जब आत्मा जिसका ज्ञाता होता है तब वह उसी स्वरूप कहलाता है। इससे अहंतादिकके स्वरूपको ज्ञेयरूप करनेवाला जीवात्मा भी अर्हन्तादि स्वरूप हो जाता है और जब वह निरंतर ऐसाही बना रहे है तब समस्त कर्म क्षयरूप शुद्ध अवस्था (मुक्त) हो जाती है। जो समस्त जीवोंको संबोधन करनेमें समर्थ है सो अर्हन्त हैं अर्थात् जिसके ज्ञान दर्शनसुख वीर्य परिपूर्ण निरावरण हो जाते हैं सो ही अर्हन्त हैं, समस्त कर्मके क्षय होनेसे जो मोक्ष प्राप्त हो गया हो सो सिद्ध है, शिक्षा देनेवाले और पांच आचारोंको धारण करनेवाले आचार्य है। श्रुतज्ञानोपदेशक हो तथा स्वप्रमत्तका ज्ञाता हो सो उपाध्याय है। और रत्नत्रयको साधन करे मो साधु है।
यहां कोई प्रश्न करे कि, नमस्कार करनेकी योग्यता परमात्मामें कैसे है इसका उत्तर यह जीव नामा पदार्थ निश्चयसे स्वयंही परमात्मा है किन्तु अनादि कालसे कर्माच्छादित होनेके कारण जबतक अपने स्वरूपकी प्राति नहीं होती है तबतक इसको जीवात्मा कहते है। जीव अनेक हैं, इस कारण जो जीव कर्म काटकर परमात्मा अर्थात् सिद्ध हो गये हैं; उनका स्वरूप जान उन्हीं जैसा अपना भी स्वरूप जानै तो उनके स्मरण ध्यानसे कर्माको काटकर जीवात्मा स्वयम् उस पदको प्राप्त होता है । अत: जबतक कर्म काटकर उनके जैसा न होय, तबतक उस परमात्माके स्वरूपको नमस्कार करना आवश्यक है तथा उसका स्मरण ध्यान करना भी उचित है।
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आराधनास्वरूप ।
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प्रश्न-तीन रत्न और सम्यक् तप कहांपर तिष्ठे है ?
उत्तर-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप यह चारो आत्मामें ही तिष्टे है तिससे आत्मा ही मेरे शरण है। भावार्थ-दर्शन ज्ञान चारित्र और तप ये च्यारों आराधना मुझे शरण हो, आत्माका श्रद्धान आत्मा ही करे है, आत्माक। ज्ञान आत्मा ही करे है, आत्माकी साथ एकमेक भाव आत्मा ही होता है और आत्मा आत्मामें ही तपे है, वही केवलज्ञान ऐश्वर्यको पावे है, ऐसे चारों प्रकार कर आत्माहीको ध्यावे इससे आत्मा ही मेरा दुःख दूर करनेवाला है, आत्मा ही मंगलरूप है ।
CA09 सम्यक्त्वको पीछान।
अनंतानुबंधी ४, मिथ्यात्व १, सम्यग् मिथ्यात्व १ सम्यक्त्व १ इन सात प्रकृतिनिका उपशम उपशम सम्यकत्व होइ अर इन सप्त प्रकृतिनिके क्षयतै क्षायिक सम्यक्त्व होय है। बहुरि अनंतानुबंधी कषायनिका अप्रशस्त उपशमको होते अथवा विसंयोजन होते बहुरि दर्शनमोहका भेद जो मिथ्यात्व कर्म अर सम्यग् मिथ्यात्व कर्म इन दोऊनिकू प्रशस्त उपशम रूप होते वा अप्रशस्त उपशम होते वा क्षय होनेके सन्मुख होते बहुरि सम्यक्त्वप्रकृतिरूप देशचातिस्पर्द्धकनिका उदय होते ही जो तत्वार्थका श्रद्धान है लक्षण जाका ऐसा सम्यक्त्व होइ सो वेदक ऐसा नाम धारक है । जहां विवक्षित प्रकृति उदय आवने योग्य नही होइ अर स्थिति अनुभाग
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दिगंबर जैन ।
घटने वधने वा संक्रमण होनेयोग्य होइ तहां अप्रशस्तोपशम जानना । बहुरि जहां उदय आवने योग्य नही होइ अर स्थिति अनुभाग घटने वधने वा संक्रमण होने योग्य भी नही होइ तहां प्रशस्तोपशम जानना । बहुरि तिहां सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय होते देशघातिस्पर्द्धकनिकै तत्वार्थ श्रद्धान नष्ट करनेकी सामर्थ्यका अभाव है । अर श्रद्धानकू चल मल अगाढ दोष करि दूषित करे है । जाते सम्यक्त्वप्रकृतिका उदयकै तत्त्वार्थश्रद्धानकै मल उपजावनेमात्रहीका सामर्थ्य है । तिह कारण” तिस सम्यक्त्वप्रकृतिकै देशघातिपना है। तिस सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयकू अनुभव करता जीवकै उत्पन्न भया जो तत्वार्थश्रद्धान, सो वेदकसम्यक्त्व है, इसही• क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहिये है। जारौं दर्शनमोहके सर्ववातिस्पर्द्धकनिका उदयका अभाव है लक्षण जाका ऐसा क्षय होः बहुरि देशघातिस्पर्द्धकरूप सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय होते बहुरि तिसहीका वर्तमानसमय संबंधीत उपरिके निषेक उदयकू नहीं प्राप्त भये तिन संबंधी स्पर्द्धकनिका सत्ता अवस्थारूप हैं लक्षण जाका ऐसा उपशम होतै वेदकसम्यक्त्व होय है, तातै याहीका दूसरा नाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है ।।
अब इस सम्यक्त्वप्रकृतिका उदयतें जो श्रद्धानकै चलादिक दोष लागे है तिनिका लक्षण कहे हैं। अपने ही "जे आप्त आगम पदार्थरूप " श्रद्धानके भेदनिविर्षे चलायमान होइ सो चल है। जैसे अपना कराया हुवा अर्हत्प्रतिबिम्बादिक घि. "यह मेरा देव है।"
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आराधनास्वरूप।
ऐसे ममता करी बहुरी अन्यका कराया अर्हत्प्रतिबिंबादिक विषै “ अन्यका है" ऐसे परका मानि परिणाममें भेद करे है ताते चल कह्या है।
इहां दृष्टांत कहे है-जैसे नाना प्रकार कल्लोलनिकी पंक्ति विषै जल एक ही तिष्ठे है तथापि भी नाना रूप होई चले है, तैसें सम्यक्त्वप्रकृतिका उदयतें श्रद्धान है सो भ्रमणरूप चेष्टा करे है । भावार्थ-जैसे जल तरंगनिविर्षे चंचल होई परंतु अन्य भावकू न भजै; तैसें वेदक सम्यग्दृष्टिहू अपना वा अन्यका कराया जिनबिम्बादिक बि , " यह मेरा है यह अन्यका है " इत्यादिक विकल्प करे है, परंतु अन्य रागी द्वेषी देवादिकळू नाही भने है।
अब मलिनपणा कहे हैं-जैसे शुद्ध सोनाहू मलका संयोगतें मैला होई है; तैसें सम्यक्त्वहू सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयतें शंकादिक मलदोषका संयोग” मलीन होई है । अब अगाढ कहे है। जैसै वृद्धका हस्तकी लाठी स्थानमें तिष्ठतीहू कंपायमान रहे हैगिर नहीं तोडू दृढ नहीं है तैसें आप्त आगम पदार्थनिका श्रद्धानरूप अवस्था तिस विषै तिष्ठता हुवा भी परिणाममें कांपे है, दृढ नहीं रहै, ताकू अगाढ कहिये है । ताका उदाहरण ऐसा-समस्त अरहंत परमेष्ठीनिकै अनंतशक्तिपना समान होते जाकै ऐसा विचार होई इस शांतिक्रिया विर्षे शांतिनाथ स्वामी ही समर्थ है, बहुरि इस विघ्ननाशन आदि क्रिया विर्षे पार्धनाथस्वामी ही समर्थ है इत्यादि प्रकार करि रुचि-प्रतीतीकी शिथिलता है तातें बूढेका हाथ विषे लाठीका शिथिलसंबंधपना करि अगाढका दृष्टांत है । ऐसें सम्यकृत्व
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दिगंबर जैन |
प्रकृतिके उदयकरि श्रद्धा चलमल अगाढ दोष क्षयोपशमसम्यकूत्व में आवे हैं अर कर्मका नाश करनेकं समर्थ है।
बहुरि अनंतानुबंधी ४, दर्शनमोहनीय ३, इन सात प्रकृतिनिका सर्व उपशम होनेकरि औपशमिक सम्यक्त्व होय है । अर इन सात प्रकृतिनिका क्षय क्षायिक सम्यकृत्व होय है । इन दोऊ सम्यक्त्वमें शंकादिक मलनिका अंश भी नाहीं तातैं निर्मल है । अर परमागममें कहे पदार्थनिके श्रद्धानमें कहूं भी नहीं स्खलित होइ है । तातैं दोऊ सम्यक्त्व निश्चल है। अर आप्त आगम पदार्थ, भगवान्के कहे तिनमें तीत्र रुचि धारे हैं, तातैं दोऊ ही सम्यक्त्व गाढरूप है । जातैं चलमल अगाढ दोष उत्पन्न करनेवाली सम्यकृत्वप्रकृतिके उदयका अभाव है । तांते ये दौहृ सम्यक्त्व निर्दोष है ।
अब व्यवहार सम्यक्त्वका विशेष कहे है- जो सत्यार्थ आप्त आगम गुरुका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। आप्तका स्वरूप ऐसा हैजो क्षुधा, तृषा, जन्म, जरा, मरण, राग, द्वेष, शोक, भय, विस्मय, मद, मोह, निद्रा, रोग, अरति, चिंता, स्वेद, खेद ये अठारह दोषरहित होय; अर समस्त पदार्थनि के भूत भविष्यत् वर्त्तमान त्रिकालवर्त्ती समस्त गुणपर्यायनि क्रमरहित एकैकाल प्रत्यक्ष जानता ऐसा सर्वज्ञ होय; बहुरि परमहितरूप उपदेशका कर्ता होय सो आल अंगीकार करना । जातै जो रागी द्वेषी होइ सो सत्यार्थ वस्तुका रूप नही कहे, अर जो आपही काम क्रोध मोह क्षुधा तृषादिक दोषसहित होइ, सो अन्यकूं निर्दोष कैसे करे ? अर जाकै इंद्रियां के आधीन ज्ञान होय अर क्रमवर्ती होय सो समस्तपदार्थनिकं अनंता
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आराधनास्वरूप ।
नंतानंतपरिणति सहित कैसे जाने ? अर दूरवर्ती स्वर्ग नरक मेरु कुलाचलादिनिकू अर पूर्व भये जे भरतादिक रामरावणादिक अर सूक्ष्म परमाणू आदिक सर्वज्ञविना कोन जाने ? बहुरि परम हितोपदेशक विना जगतके जीवनिका उपकार कैसे होय ? तातै वीतराग सर्वज्ञ परम हितोपदेशक विना आप्तपणा नही संभवे हैं।
जिनकै शस्त्रादिक ग्रहण करना तो असमर्थता अर भयभीतपणा प्रकट दिखावे है, अर स्त्रीनिका संग वा आभरणादिक प्रकट कामीपणा रागीपणा दिखावे है तिनकै आप्तपणा कदाचित नही संभव है। तातै परीक्षा करि जाकै सर्वज्ञता अर वीतरागता अर परम हितोपदेशकता ये तीन गुण होइ, सो आप्त है । जाकै वीतरागता ही होइ अर सर्वज्ञपणा नही होई तो वीतरागता तो वटपटादिक अचेतन द्रव्यनिकैह क्षुधा तृषा रागद्वेषादिकके अभावः पाइये है, तिनकै आप्तपणा प्राप्त होइ. वा सर्वज्ञत्व विशेषण आप्तका नहि होय तो इंद्रियनिके आधीन किंचित् किंचित् मूर्तिक स्थूल निकटवर्ती वर्तमान वस्तूके जाननेवालेके वचनकी प्रमाणता होई । सो अल्पज्ञके कहे वचन प्रमाण नहीं । तातें अल्पज्ञानीकै आतपणा नहीं संभवे है तातै वीतराग " सर्वज्ञ" ऐसा कह्या । अर वीतरागता अर सर्वज्ञपणा दोय विशेषण ही आप्तकै कहिये तो वीतराग सर्वज्ञपणा तो मोक्षस्थानमें सिद्धनिकै पाइये है । यातैं परम हितोपदेशकपणा विना आप्तपणा नहीं बने है । तातै सर्वज्ञता वीतरागता परम हितोपदेशकता अरहंतहीकै संभवे है । बहरि श्रुत जो आगम ताका लक्षण श्री रत्नकरंड नाम परमागममें ऐसा कह्या है
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दिगंबर जैन ।
आप्तो पज्ञमनुलंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकं । तत्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ १ ॥ अर्थ - एते गुणसहित होय सो शास्त्र है। आप्त जो सर्वज्ञ वीतराग ताकी दिव्य ध्वनिकरी प्रकट कीया होय अर जाका अर्थ तथा शब्द वादि प्रतिवादी करि तिरस्कारकूं नही प्राप्त होइ, एकांतीनिकी मिथ्या युक्ति करी द्या नही जाय, बहुरि प्रत्यक्ष अनुमानकरि जामैं विरोध नही आवै, अर वस्तुका जैसा स्वभाव है तैसा तत्त्वभूत उपदेशका करनेवाला होइ, बहुरि समस्त जीवनिका हितरूप होइ । किसही जीवका अहितकूं नही करता होय, अर कुमार्गका दूरि करनेवाला होय सो शास्त्र है । जातें अल्पज्ञानीका कला तथा रागी द्वेषी का तो प्रमाण ही नही है । तातें आप्तका उपदेश्या आगम है सोही प्रमाण है । अर जाका अर्थ परवादीनिकरी बाधाकूं प्राप्त होइ प्रमाणकरि बाधित होइ सो काहेका आगम ? बहुरि जामैं प्रत्यक्षप्रमाणसुं बाधा आजाय वा अनुमानसूं बाधा आजाय, सो काहेका आगम : बहुरि जामैं सारभूत जीवका कल्याण रूप उपदेश नही, सो काहेका आगम ? बहुरि जो जीवनिका घात करनेवाला दुःखदायी होय, सो शास्त्र शस्त्र है, बुद्धिवानोनिकै आदरनेजोग्य नही है । अर जो संसारके कुमार्गकूं प्रवर्तन करावै, सो खोटा आगम है।
अब गुरुका लक्षण ऐसा हैविषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १ ॥
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आराधनास्वरूप ।
अर्थ-जो पंच इंद्रियानिके विषयनिकी आशाकरिरहित होय, नाकै इंद्रियनिके विषयनिमै वांछा नष्ट हो गई होइ, बहुरि जाकै किंचिन्मात्रहू आरंभ नही होय, अर जाकै तिलतुष मात्र परिग्रह नहीं होय अर जो ज्ञान ध्यान तपमें लीन होयरक्त होय सो तपस्वी प्रशंसा योग्य है । ऐसें आत आगम गुरु मैं जाकै दृढ श्रद्धान होइ सो सम्यग्दृष्टि है । जाते कार्तिकेयस्वामीहू स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाविषे सम्यक्त्वका लक्षण ऐसा कह्या है-जो अनेकांत स्वरूप तत्त्वकू निश्चय करि सप्त भंग करि सहित श्रुतज्ञान करि वा नयनिकरि जीव अजीवादिक नव प्रकारके पदार्थनिकू श्रद्धान करे है। सो शुद्ध सम्यग्दृष्टि है। तथा जो जीव पुत्र कलत्र आदिक समस्त अर्थनिमैं मद गर्व नही करे है-उपशम भाव जे मंद कषायरूप भाव तिनकू भावनारूप करे है अर आपकू तृणवत् लघु माने है अर विषयनिकू सेवन करे है अर समस्त आरंभमें वर्ते है, तोह जाकै मोहका ऐसा विलास है सो समस्त विषयनिकू हेय माने है-त्यागने योग्य माने है। चारित्रमोहकी
बलता विषयनिमैं आरंभमें प्रवर्तताहू विरक्त है-नही राचे है, जो उत्तम सम्यक् गुणनिके ग्रहणमें आसक्त है, अर उत्तम साधुजननिमैं विनयसंयुक्त जाकी प्रवृत्ति है, अर साधर्मीनिमैं जाकै अत्यंत अनुराग है, अर देहसू मिलि रह्याहू अपने आत्माकू अपना ज्ञानगुणकरि भिन्न जाने है, अर जीवसू मिल्या देहळू कंचुक जो वस्त्र वा वकतर समान भिन्न जाने है, सो शुद्ध सम्यग्दृष्टि है।
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१०]
दिगंबर जैन ।
गाथा-णिज्जियदोसं देवं । सव्वजीवाण दयावरं धम्म ।
वज्जियगंथं च गुरुं । जो मण्णादिसोह सदिठी ॥१॥
अर्थ-जो अठरा दोष रहित सर्वज्ञकुं तो देव माने है अर समस्त जीवनिकी दयामैं तत्पर ताळू धर्म माने है, अर समस्त परिग्रहरहित• गुरु माने है, सो सम्यग्दृष्टि है। गाथा-दोससहियं पि देवं । जीवहिंसाइसंजुदं धम्म ।
गंथासत्तं च गुरुं । जोमण्णादि सोहू कुदिठी ॥२॥
अर्थ जो रागद्वेषादिक दोष सहितकुं देव माने है। अर जीवहिंसासहित धर्म माने है, अर परिग्रहमें आसक्तकू, गुरु माने है सो मिथ्यादृष्टि है। कोऊ देव मनुष्यादिक इस जीवकू लक्ष्मी नहीं दे है। अर इस जीवका कोऊ, उपकार नही करे है। उपकार अर अपकारकू अपना उपार्जन कीया पुण्यपापरूप कर्म करे है। कोउर्दू काऊ अशुभ कर्म हरनेको अर शुभ कर्म देनेको तीन लोकमें देव दानव इंद्र अहमिंद्र जिनेंद्र समर्थ नहीं है-कर्म तो अपने शुभ अशुभ परिणामके अनुकूल बंधे है-अर द्रव्य क्षेत्र काल भावका निमित्त• पाय अपना रस देय निजरे है । तातै पर तो निमित्त मात्र है। जो भक्ति करि पूजे इये व्यंतर योगिनी यक्ष क्षेत्रपालादिकही लक्ष्मी देवै तो धर्म करना व्यर्थ होजाइ। समस्त व्यंतरनिहीकू पनि अपना हित करै, पूना दान ध्यान शील संयमादिक निष्फल होनाइ । जाते सुख आवै सो सातावेदनीयकर्मके उदयतै आवै अर दुःख आवै सो असातावेदनीयकर्मके उदयतै आवै ।
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आराधनास्वरूप।
[११
अर कर्म कोउर्दू कोऊ देनेडू समर्थ नहीं है । तातै अन्यकुं दूषण देना वा राग करना मिथ्या है । जो हितके इच्छक हो तो परम धर्म में प्रवर्तन करा ॥
बहरि जिस जीवके जिस देशमें जिस कालमें जिस विधानकरिकै जन्म वा मरण, सुख, दुःख, लाभ, अलाम, संयोग वियोग होना जिनेंद्र भगवान् केवलज्ञानकरि निश्चित जान्या है-देख्या है तिस जीवकै तिस देशमें, तिस कालमें, तिस विधानकरिकै तैसेंही होयगा। इसकू अन्यथा करनेकू चलायमान करने इंद्र वा अहमिंद्र वा जिनेंद्र समर्थ नहीं है। ऐसैं जो निश्चय नयतें समस्त द्रव्यनिके समस्त पर्यायगुणनिके परिणमनकू जाने है सो शुद्ध सम्यग्दृष्टि है। अर जो इसमें शंका करै सो मिथ्यादृष्टि है। बहुरि जो तत्व जाननेकू समर्थ नहीं है सो जिनेंद्रके वचननिहीमें श्रद्धान करे है। जो जिनेंद्र भगवान् दिव्य ज्ञान देखि करि कह्या है, सो समस्तमैं समयक् इच्छा करूं हूं-प्रमाण करूं हूं, ग्रहण करुं हुं ऐसा जाकै दृढ निश्चय है, सो मंदज्ञानी सम्यग्दृष्टि है।
सम्यग्दर्शनके पचीस दोष है-तिनकू टारि श्रद्धानकू उज्वल करना । तिनमैं मूढता तीन ३, अष्टमद ८, शंकादिक दोष आठ ८, अनायतन छह ये पचीस दोष हैं तिनमैं मूढताकू वर्णन करे हैनदीस्नानमें धर्म माने, समुद्रकी लहरीनिके स्नानमें धर्म माने, पाषाणका वालूका पूंज करनेमें धर्म माने, पर्वत” पडनेमें अग्निमें प्रवेश करनेमें धर्म माने, संक्रांतिमें दान करनेमें, ग्रहणमें स्नान करनेमें धर्म माने,
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१२]
दिगंबर जैन |
सो लौकिक मूढ है । बहुरी हमारा वांछित देव देगा ऐसी आशा करना; तथा ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी, यक्ष, क्षेत्रपाल, सूर्य, चंद्रमा, शनैश्वरादिकनिकूं वांछितकी सिद्धीके अर्थि पूजा करना, दान करना सो देवमूढता है । तथा जे च्यारि निकाय के देवनिके स्वरूप करि रहित अर देव देवाधि - सर्वज्ञपणाकरि रहित जिनका विकारी रुप वा तिर्यचनिकेसे मुख जिनका हस्तीकासा मुख सिंहकासा मुख गर्दभमुख वानरा से मुख सूर केसे मुख पूंछ सींग इत्यादि सहितकूं देव मानना, तथा त्रिमुख चतुर्मुख चतुर्भुज इत्यादिक प्रकट दिव्य देवके रूपरहित विकराल जिनके रूप तथा लींग योनि इत्यादिक विपरीत रूप जिनकूं देखे लज्जा उपजै तिनमैं, देवत्वबुद्धि करै अर देव मानी पूजा वंदना करै, देवनिके अर्थि बकरा भैसा इत्यादिकनिकं मारि चढावै, तथा देवतानै मद्यमांसके भक्षक जानै, सो समस्त तीन मिथ्यात्वके उदयतें देवमूढता कहिये हैं।
जे आरंभ परिग्रह हिंसाकरि सहित, पाखंडी, कुलिंगी, विषयनिके लोलपी, अभिप्रानि गुरु मानी सत्कार वंदना पूजादिक करै सो गुरुमूढता जाननी ॥ बहुरी ज्ञानका मद, कुलमद, जातिमद, बलमद, ऐश्वर्यमः तपोमद, रूपमद, शिल्पिमद, ये आठ मद सम्य
के घातक हैं | इंद्रियजनित विनाशिक ज्ञानमें अहंकार करना तथा जाति, कुल, रूप, बल, ऐश्वर्य ये कर्मके उदयजनित हैं, तथा पर हैं, विनाशिक हैं, इनमें आपा धरना सो अष्ट मद मिथ्यात्वके उदयतें हैं | तथा कुदेव, कुधर्म, कुगुरु, अर इनके सेवक तिनकूं अनायतन कहे हैं। रागी द्वेषी मोही तथा जे देवपणार हित
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ये कुदेव, अर जामैं तीव्र हिंसाकी प्रवृत्ति दयारहित सो कुधर्म, अर परिग्रहवारी विषयकषायकै वशीभूत सो कुगुरु, तीन तो ये भये । अर कुदेव, कुधर्म, कुगुरु, इनी तीननिके सेवन करनेवाले ये छहही 'आयतन ' कहिये धर्मके स्थान नही हैं, तातै इनकू अनायतन कहिये है। इनकी प्रशंसा करना, इनमें मले गुन जानना मिथ्यात्वके उदयतें हैं। ___ बहुरि शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टिता, अनुपगृहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना ये आठ दोष सम्यक्त्वके हैं। इनिके प्रतिपक्षी अष्टगुण हैं । तिनमैं जो सर्वज्ञभाषित धर्ममें संशयका अभाव, सो निःशङ्कित है । सर्वज्ञ वीतरागही आराधनायोग्य देव है-अन्य रागी द्वेषी नही, रत्नत्रयके धारक विषयकषायनिके जीतनेवाले निग्रंथ ही गुरु हैं-अन्य आरंभी परिग्रही नही, दयाभाव ही धर्म है-हिंसाभाव धर्म नही, देवगुरुके निमित्तकरि हुई हिंसा पापही फले है धर्मकू नही उपनावे है। ऐसें देव-गुरु-धर्मके स्वरूपमें संशयरहित निःशंक प्रवते ताकै निःशंङ्कित गुण होय है ॥ बहुरि इहलोकभय, परलोकमय, मरणभय, वेदनाभय, अनारक्षाभय, अगु. प्तिभय, अकस्माद्भय इनि सप्तभयनिकरि रहित निशंकित गुण होय है ॥ दशप्रकारके परिग्रहके वियोग होनेका भय, सो इस लोकका भय है । अर दुर्गति जानेका भय, सो परलोकका भय है। प्राणनिका नाश होनेका भय, सो मरणका भय है। रोगका भय सो वेदनाभय है । कोऊ हमारा रक्षक नही ऐसा अनारक्षाभय होय है। चोरनिका भय, सो अगुप्तिभय है। अचानक कोऊ आपत्ति दुःख
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१४]
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आवै ताका भय, सो अकस्माद्भय है। इनि सप्तभयनिका अभाव जाकै होय, सो निःशंकितगुणका धारक नियमतें सम्यग्दृष्टि होय है॥
सम्यग्दृष्टि इस लोकके भयके जीतनेषं ऐसे चिंतवन करे हैनख लगाय शिखापर्यंत समस्त देहकू अवगाहन करि जो ज्ञान तिष्ठे है, सो मेरा अविनाशी निज धन है, अनादिनिधन है, नवीन उत्पन्न नही, अर अनंनकालमें विनसे नही, यह मेरै निश्चय है, अर जो धन धान्य स्त्री पुत्र परिवार कुटुंब राज्य संपदा हैं ते परद्रव्य हैं, विनाशीक हैं, जहां उत्पत्ति है तहां प्रलय है, और जिसका संयोग है तिसका वियोग है, इनका मेरै अनेकवार संयोग भया अर वियोग भया, जानैं परिग्रहके नाश होतें मेरा नाश नही अर परिग्रहका उत्पाद होतें मेरा उत्पाद नही-उत्पादविनाश दोऊ परद्रव्यनिमैं हैं तातै परद्रव्यका नाश होते स्वभाव अचल है-नाश नही, ऐसे सम्यग्दृष्टि अपना रूपकू अखंड अविनाशी ज्ञाता द्रष्टा देखे है-अनुभवे है । ताते दशप्रकारका परिग्रह विनशनेका भय-जो मेरी धनसंपदा, मेरा स्त्रीपुत्र कुटुंब, मेरा ऐश्वर्य मति कदाचित विनशि जाय ऐसें परिणाममें शंका सो, इसलोकका भय ताकू सम्यग्ज्ञानी नहीं प्राप्त होय है ।।
परलोकमें दुर्गति जानेका भय, सो परलोकभय है, सो सम्यरदृष्टीकै नही है । सम्यग्दृष्टि ऐसा विचार करे है-ज्ञान है सो मेरा वसनेका लोक है, इस अविनाशी ज्ञानलोकहीमें मेरा निश्चल बसना है, अर जे नरक स्वर्ग मनुष्य तिर्यच महादुःखनिके भरे लोक है सोमेरा लोक नही है-पुण्यपापा” उपज्या है, पुण्यका उदय होई तदि जीव शुभ-गतिकुं प्राप्त होय है, सुगति दुर्गति दोऊ बिनाशिक हैं, कर्मकृत
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हैं, मै चिदानंद चैतन्य ज्ञाताद्रष्टा अखंड शिवनायक कर्मः भिन्न अपने ज्ञानलोकमें रहूं, ज्ञानलोकविना अन्य मेरा लोकही नही, ऐसे चिंतन करतै परलोकका भय नही होय है | जो सुगतिदुर्गतिसंबंधी इंद्रियनित सुखदुःखमें आपा धारे है, ताकै परलोकका भय है। अर जो निःशंक कर्मकलंकरहित अपना स्वरूपकू अविनाशिक अखंड अनुभवे है, ताकै परलोकका भय नही होय है ।
अब रोगकी वेदनाका भयकू निराकरण करे है । जो अचल निनज्ञान• वेदे है-अनुभवे है, सो वेदना है, सो अनुभव करनेवाला जीव अर जिस भावकू वेदे है-अनुभवे है सोहू जीव है, जो अपने स्वभावकू वेदना-अनुभवना सो वेदना तो अविनाशीक है, मेरा रूप है, सो देहमें नहीं है। अर जो कर्मकरि करी हुई सुखदुःखरूप वेदना है सो मोहका विकार है, पुद्गलमें है, विनाशिक है, देहमें जाकै ममता है ताकै है। अर देहका घात करनेवाले रोगादिक ते देहमें हैं, देहका नाश करेगा । मै ज्ञाता द्रष्टा अमूर्तिक अविनाशी ताका एक प्रदेशकू चलायमान करनेकुं समर्थ नही है। ऐसे देहतै अर देहमें उपजी वेदनाः अपने स्वरूपकू अखंड अविनाशी अनुभवे है, ताकै वेदनाभय नही प्राप्त होय है ॥
अब मरणभयका निराकरण करे हैं ॥ प्राणनिके नाशकू मरण कहिये है । सो पंच इंद्रिय, मनोबल, वचनबल; कायबल, आयु, श्वासोश्वास ये दश प्राण हैं, सो देहकै हैं । विनाश होनैं इनका देहका विनाश होय है। ज्ञानप्राणसंयुक्त अमूर्त अखंड ऐसा मै आत्मा, तिसका नाश नहीं है। ऐसें देहतै अर देहननित मूर्तिक विनाशिक दश
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प्राणनितें आपकू भिन्न अनुभवे है, ताकै मरणका भय नहीं होय है। जो मूढ देहका मरणकू आत्माका मरण होना अनुभवे है, ताकै मरणका भय होइ । याते सम्यग्दृष्टि अपने आत्माकू ज्ञान दर्शन सुख सत्ता इत्यादि भवप्राणरूप अनुभवै, ताकै मरणमय नही होय है। ___अब कोऊ हमारा रक्षक नही ऐसा अनारक्षा भयकं कहे हैं। जगतविषे जो सत् है तिसका विनाश नही है ऐसे वस्तुकी स्थिति प्रकट है । सत्का विनाश नही असत्का उत्पाद नहीं । मेरा ज्ञान सत् है, सो तीन कालमें इसका नाश हैं नही, ऐसा मेरै निश्चय है । याते मेरा चैतन्यस्वभावका अन्य कोऊ रक्षक नहीं, अर अन्य कोऊ भक्षक नही, पर्याय उपजे हैं पर्याय विनसे हैं। मेरा स्वभाव पुद्गलपर्यायतें भिन्न अविनाशी ज्ञानमय है, याका रक्षक भक्षक कोऊ है नही । तातै सम्यग्दृष्टि निःशंक निर्भय अपना ज्ञानमय निनस्वभावकू वेदे है-अनुभवे है ॥
चोरका भय सो अगुप्तिभय है, ताहि जनावे है, जो वस्तुका निजस्वरूप है सोही सर्वोत्कृष्ट गुप्ति है । अपना निजस्वरूपवि कोऊ परद्रव्य प्रवेश करनेवू अशक्त है, मेरा सर्वोत्कृष्ट चैतन्य स्वरूप है, अन्य कोऊ इसमें प्रवेश नही करि सके है। अर मेर चैतन्य रूप कोऊ हरनेकू समर्थ नहीं है, मेरा स्वरूप अक्षय अनंतज्ञानस्वरूप अविनाशि धन है, तिसळू चोर कैसे ग्रहण करे ? इसमें कोऊ अन्यद्रव्यका प्रवेशही नही, ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यरूप मेरा अविनाशी धन कोऊ हरनेकू समर्थ नहीं । ऐसें अनुभव करता निःशंक निर्भय अपने ज्ञानस्वभाव में तिष्ठते सम्यग्दृष्टीकै अगुप्तिभय नही होय है।
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___ अब अकस्माद्भयकू निराकरण करे हैं ॥ मेरा स्वरूप स्वभावहीते शुद्ध है, ज्ञानस्वरूप है, अनादिका है, अविनाशी है, अचल है, एक है, इसमें दूजेका प्रवेश नही है, चैतन्यका विलासरूप समस्तव्यनिका जामैं प्रकाश हो रह्या है, अर समस्तविकल्परहित अनंतसुखका स्थान है, तिसमैं अचानक कुछ होना नहीं है । ताते ज्ञानी सम्यग्दृष्टि अपना स्वरूपमें अनंतानंत काल होतेहूं द्रव्यकृत भावकृत कुछह उपद्रव होना नहीं माने है। केवल ऐसा साहस सम्यग्दृष्टि जीवही करनेकुं समर्थ है। जो भयकरिक चलायभान जो त्रैलोक्य तानै छांडी है प्रवृत्ति जातें ऐसा वज्रपातळू पडतेह अपने स्वभावकी निश्चलताकरिकै समस्तही शंकाकू त्यागिकरिकै अर अपना स्वरूपकू अविनाशी ज्ञानमय जानत है अर ज्ञान नही च्युत होय है। भावार्थ-ऐसा वज्रपात पडै ! जो लोक चालते हालते खाते पीते जैसेके तैसे अचल रहिनाय ऐसा भयंकर कारण होतें जो अपना ज्ञानमय आत्माकू अविनाशी जानता भयकू नही प्राप्त होय, तिसकै निःशंकित अंग होय है ॥
बहुरि इंद्रियजनित सुखमें जाकै अभिलाष नही, धर्मसेवनकरि धर्मके फलवू नही चाहै, सो निष्कांक्षित गुण है। जाते सम्यग्दृष्टीकू इंद्रियनिके विषयजनित सुख दुःखरूप भासे हैं। कैसे हैं विषयनिके सुख ? कर्मके परवशी हैं, पुण्यकर्मका उदय होइ तदि विषय मिले हैं, बहुरि मिलै तोहू थिर नही हैं-अंतसहित हैं, बहुरि बीचिबीचि इष्टवियोगादिक अनेक दुःखनिके उदयकरि सहित हैं, पापका बीन हैं। ऐसे इंद्रियजनित सुखमें वांछाका अभाव सो निष्कांक्षित अंग है।।
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बहुरी रोगी दरिद्री देखि ग्लानि नहीं करै, तथा आपकै अशुभ कर्मका उदय देखि ग्लानि नही करै तथा पुद्गलनिकी मलिनता देखि ग्लानि नहीं करै, जाते देह तो रोगमय है अर कर्मके उदयकी अनेक परिणति हैं, पुद्गलनिके नाना परिणमन हैं, इनके परिणमन देग्दि रागद्वेषकरि परिणामकू मलीन नहीं करै, ताकै निर्विचिकित्सा अंग होइ ।।
बहुरि जो भयतें लज्जारौं लाभते हिंसाके आरंभळू धर्म नही मानै अर जिनेंद्रकी आज्ञामैं लीन हुवा मिथ्यादृष्टि एकांतीनिका चलायमान कीया तत्त्वते नही चलै, सो अमूढदृष्टि नामा अंग है ।। तथा मिथ्यादृष्टीनिका प्ररूप्या एकांतरूप कुमार्ग तथा कुमार्गीनिका आचरण कुमार्गीनिका ज्ञान ध्यान तप त्याग देखि मन-वचन-कायकरि प्रशंसा नही करे। तथा मंत्र यंत्र तंत्र पूजा मंडल होम यज्ञादिककरि तथा व्यंतरादिकदेवनिकी पूजा करी तथा गृहादिकनिकी पूजदिककरि अशुभकर्मका अभाव होना अर साताका उदय होनेका श्रद्धान नही करै । जाते अशुभकर्मका अभाव होना अर शुभकर्मके देने त्रैलोक्यमें कोऊ समर्थ नहीं है। अपने परिणामनिकरि बांध्या हुवा कर्म आपके शुद्ध परिणाम करिही निनरै, और कोऊ दूरि करना समर्थ नहीं है। ऐसा दृढ श्रद्धान सो अमूदृदृष्टि है ।।
बहुरि जो परके दोपळू आच्छादन करै-ढाकै अर अपना भला कर्तव्य तिसका प्रकाश नही करै । जाते संसारी जीव रागद्वेषके वशीभूत हैं, अपना आपा भूलि रहे हैं, परमार्थते पराङ्मुख हैं, स्वरूपका अवलोकनरहित हैं, ज्ञानावरणकरि आच्छादित हैं ता” परवश हुवा दोषरूप प्रवते हैं, इनका दोष प्रकट कीये
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अवज्ञा होयगी; तथा यो धर्ममें प्रवर्ते हैं, धर्मकी हास्य होयगी; ताते परके दोषकू ढाकै अर अपनी बढाई नही कर " मै केवलज्ञानरूप परमात्मरूप होइ विषयकषाननिमैं फसि रह्या हूं!" ऐसैं आत्मनिंदा कर, अर जैसे सर्वज्ञभगवान् देख्या है तैसें होयगा ऐसैं भवितव्यभावनामैं रत होइ, ताकै उपगृहन अंग होइ है ॥
कोड पुरुष रोगकरि वा उपसर्गकरि वा क्षुधातृषाकी वेदनाकरि या व्रत पालनेमें शिथिलताकरि तथा असहायताकरि तथा निर्धनताकरि मुनिधर्मः वा श्रावकधर्म चलायमान होता होय ताळू धर्मोपदेश देनेकरि तथा शरीरकी टहल चाकरी करि वा औषध भोजनपान देनेकरि वा निराकुल वसतिका वा गृहादिक देनेकरि वा उपद्रबादिक दूरि करनेकरि धर्ममें स्तंभ करै, धर्मः चलवा नही दे, ताकै स्थितीकरण अंग है।
बहुरि जो धर्मविर्षे वा धर्मात्मा पुरुषवि वा धर्मायतन कहिये जिनमंदिर जिनप्रतिमाविर्षे वा सत्यार्थधर्मके प्ररूपक जिनेंद्रका आग. -मके पठनविर्षे श्रवणविर्षे उपदेश देनेविर्षे जिनकै अत्यंत प्रीति होय ताकै वात्सल्य अंग होय है ॥
संसारी जीवनिकै अपनी स्त्रीविर्षे वा पुत्रादिककुटुंबवि वा धनपरिग्रहादिकवि तीत्र अनुराग लगि रह्या हैं, धर्ममें धर्मात्मापुरुषनिमैं राग नहीं है, सत्यार्थ स्वपरका निर्णय करि जो परमधर्मक जाणे चतुर्गतिका दुःखसुं भयभीत होय, अर जाकू विषय विवसमान भासै अर आत्मिकमुख जाळू सुख दीखे, ताकै धर्ममें वात्सल्य होय है ॥
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दिगंबर जैन ।
बहुरि अपने आत्माके मांहि अनादिके मिथ्यात्वादिक मल रागादिक कामादिक मल तिनकुं दूरि करि अपने आत्माका प्रभाव रत्नत्रय धारणकरि प्रकट करना, सो प्रभावना नाम अंग है । तथा दान तप जिनपूजा त्याग इत्यादिकरि जिनधर्मका प्रभाव जगतमें प्रकट करै, मिथ्यादृष्टीहू देखि प्रशंसा करै " जो, ऐसा शील जैनीहीकै होय, जिनका निर्लोभपणा, दयालुपणा, दातारपणा, क्षमावान्पणा, तथा त्याग, वैराग्य, शील, संयम, सत्य इत्यादिक देखि बालगोपालहू महिमा करै, " ताकै प्रभावना अंग होइ है। जो महावत अणुव्रत धोरै, सो प्राण जातें हिंसा, झूठ, परधनहरण, कुशील, परिग्रहमें नहीं प्रवृत्ति करै ऐसा धर्मका महिमा प्रकट दिखावै, अपनी मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति करि धर्मकी निंदा नहीं करावै, अर अभ्यंतर अपने आत्माकू मिथ्यात्वादिकनितै मलिन नही होने देवै, ताकै प्रभावना नाम अंग होय है ॥ ऐसें मम्यक्त्वके अष्ट गुण कहे ॥ कार्तिकेयस्वामीने ऐसे कह्या है
जो ण कुणदि परतत्ति । पुणुपुणु भावेदि सुद्धमप्पाणं ।। इंदियमुहणिरवेख्खो। णिस्संकाई गुणा तस्स ॥१॥
अर्थ-जो जीव परकी निंदा नही करे है, अर वारंवार रागादिरहित शुद्ध आत्माकू भावे है-अनुभवे है, अर इंद्रियजनितसुखमें जिनकै वांछाका अभाव है, तिनकै निःशंकितादि गुण जानिये है ॥
ओरहू प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य ये सम्यक्रवके लक्षण हैं | संवेग, निवेग, निंदा, गर्दा, उपशम, भक्ति, अनुकंपा
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आराधनास्वरूप ।
[२१
ये सम्यक्त्वके अष्ट गूण हैं ॥ धर्ममें अत्यंत अनुराग होना, सो संवेग है ॥ संसार देह भोगनित विरक्तता, सो निर्वेग है ॥ आपका दोष चितवन करि अंतःकरणमें आपकी निंदा करनी, अपना प्रमादीपणा विषयानुरागीपणा कषायनिके आधीनपणा संयमरहितपणा देखि आपाईं निंदना, सो निंदा है ॥ गुरुनिके निकट अपने दोष प्रगट करि आपकी निंदा करना, सो भक्ति है । बहुरि धर्मात्मा जीवनिमैं प्रीति करना, सो अनुकंपा है। जाकै सम्यग्दर्शन होइ ताकै ये अष्टगुण प्रकट होयही हैं। ऐसे सम्यक्त्वका संक्षेप वर्णन कीया। सम्यग्दर्शनसहित एक देशवतळू धारण करि मरण करे है सो बाल पंडित मरण है अब गृहस्थकै देशबा कैसे है, सो कहे हैं॥ गाथापंच य अगुव्बयाई । सत्त य सिख्खरखाउ देसजदिधम्मो ॥ सब्वेण य देसेण य । तेण जुदो होदि देसजदी ॥२०७५॥
अर्थ-पंच अणुव्रत अर सप्त शिक्षावत ये बारा व्रत देशयति जो एकदेशव्रती ताका धर्म है । जो श्रावक ये बारा व्रत समस्तपणाकरि वा इनिका एकदेशकरि जो युक्त होय, सो श्रावक एकदेश यति वा एकदेश संयमी वा व्रती होइ है ॥ अब पंच अणुव्रत तिनके नाम कहे हैं || गाथापाणिवधमुसावादा । दत्तादाणपरदारगमणेहिं ॥ अपरिसिदिच्छादो विय। अणुव्यायाइं विरमणाई ॥७६।।
अर्थ-हिंसा, असत्य, अदत्तादान, परदारागमन परिमाणरहित परिग्रह इनि पंच पापनिका एकदेशत्याग, सो पंच अणुव्रत है। अब तीन प्रकार गुणवतके नाम कहे हैं ॥ गाथा
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२२]
दिगंबर जैन । mmmmmmmmmmmmmmmmmmm. जं च दिसावेरमणं । अणत्थदंडहि जं च वेरमणं ।। देसावगासियं पि य । गुणवयाई भवे ताई ।। ७८ ॥
अर्थ--जो मरणपर्यंत दश दिशानिमैं गमनादिककी मर्यादा करना, सो दिग्विरति व्रत है । अनर्थदंडनिका त्याग, सो अनर्थदंडविरति वन है। अर कालकी मर्याद करि क्षेत्रमें गमन करनेकी मर्यादा, मो देशावकाशिक है। ऐसे तीन गुणत्रत हैं ॥ अब च्यारिप्रकार शिक्षाव्रतनिकू कहे है ॥ माथाभोगाणं परिसंखा । सामाइयमतिहिसंविभागो य ।। पोसहविधी य सबो । चदुरो सिख्वाउ वृत्ताः ॥ ७८ ॥ __ अर्थ-भोगोपभोगकी मर्यादा, सो भोगोपभोगपरिमाणवत है। सामायिककी प्रतिज्ञा करना, सो सामायिक नाम शिक्षात्रत है। च्यारि पर्वनिमैं उपवासादिक प्रोषध विधि करना, सो प्रोषघोपवास नामा शिक्षाबत है। ऐमैं च्यारि शिक्षाबत कहे ॥ पंच अणुव्रत, तीन गुणवत, च्यारि शिक्षाबत ऐसे ये बारह व्रत गृहस्थ अवस्थामैं श्रावककै कहे ॥
इहां ऐसा विशेष जानना-सम्यग्र्शनका धारक जीवकै समस्त व्रतादिक होइ हैं । तातें जो पहली जिनेंद्रभाषित सूत्रकी आज्ञाप्रमाण तत्त्वार्थनिका श्रद्धानम्वरूप सम्यग्दर्शन धारण करिक अर जो जूवा, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री इन सात व्यसनका त्याग; अर पंच उदुंवरफलादिकका त्याग; तथा जिनमैं त्रसजीवनिकी उत्पत्ति ऐसा बीजफलादिकका त्याग करे है; सो दर्शनप्रतिमाका धारक श्रावक हैं।
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बहुरि जो विशुद्धता वधि जाय तो व्रत नामा दूसरी प्रतिमा, तिसमैं बारा व्रत धारण करे है । तिन व्रतनिका ऐसा संक्षेप हैजो अपनी बुद्धिपूर्वक नियम करना, सो व्रत है । तिनमैं जो अपने संकल्प सजीवनिकी हिंसा करनेका त्याग करै; मन वचन काय संकल्पकर सजीवनिका बात नही करे, अन्य मन वचन कायकरिकैं नही करावै; अन्य करता होय तिसकूं मन वचन कायकर भला नही जाने - प्रशंसा नही करें; रोगादिककी पीडाकरि वा धनके लोकरि वा भयकरि, वा लज्जाकरि, कदाचित् अपना प्राण जाय तो वे इंद्रियादिक त्रसका घात नही करै; जातें गृहस्थकै एकेंद्रियकी हिंसाका त्याग तो बणि सकै नही; जाकी चूला उखणी, भुवारी, परीडा, अर द्रव्यका उपार्जन ये कर्म पापहीके हैं, ता पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, पवनकाय, वनस्पतिकाय इनिके आरंभ मैं तो अत्यंत घटाय यत्नाचारपूर्वक प्रवर्तन करै अर संकल्पी त्रसहिंसाका त्याग करै; अर आरंभ में यत्नाचारपूर्वक प्रवर्ततैहू जो कदाचित् विराधना होइ तो आपकै संकल्प है नही, कोऊ लाख धन देकरि एक कोडी मरावै, वा भयकरि मरावै, तो प्राण जावो! वा धन जावो! परंतु अपने संकल्प एक जीवकूं नही मारै; ताकै अहिंसा नामा अणुव्रत होय है । जातैं रागादिकनिकी उत्पत्ति सो हिंसा है, अर रागादिकनिकी उत्पत्तिका अभाव, सो अहिंसा है। जो वीतरागता नहि विस्मरण होता निरंतर यत्नाचाररूप प्रवर्ते अर दयाधमक एक क्षण विस्मरण नही होय, ताकै अहिंसा नाम अणुव्रत है ॥
बहुरि जो हिंसाके करनेवाले वचन नही बोले, वा कर्कश वचन नही कहै, वा अन्यकै दुःख उत्पन्न करनेवाला सत्य वचनहू
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दिगंबर जैन ।
नही है, अन्यकं असत्यवचन नही बुलावै, तथा जो वचन कहै सो समस्त छ कायके जीवनिके हितरूप कहै अर प्रमाणीक कहै, अर समस्त जीवनिकै संतोष करनेवाला वचन कहैं, अर धर्मका प्रकाश करनेवाले वचन कहै, ताकै सत्य नामा अणुव्रत होइ है |
बहुरि विनादिया धनका ग्रहण करना, सो चोरी है । यातें कोऊ आपमें धन स्थाप्या होइ, वा कोऊ नगर ग्राम उपवन में पड्या होइ, वा जमी मैं पड्या होइ, वा कोऊ भूमी मैं पटक गया होइ, वा आपकूं सोपि भूलि गया होइ, ऐसा परधनका जो त्याग करें, सो अचौर्य नामा अणुव्रत है। तथा बहुत मोलकी वस्तु अल्पमोलमें । नही ग्रहण करे, अर गिया, पड्या, भूल्या, विस्मरण हुवा परके वस्तूको नही ग्रहण करे तथा अल्प लाभमें संतोष करै, ताकै अचौर्य नामा अणुव्रत है ।
बहुरि जो अपनी विवाहिता स्त्रीविना अन्य समस्त स्त्रीनिका त्याग करै, ताकै ब्रह्मचर्य नाम अणुव्रत है || बहुरि जो धनधान्यादिक समस्त परिग्रहका परिमाण करि तिसतें अधिकमें तृष्णाका अभाव करि संतोष धारण करै, ताकै परिग्रहपरिणाम नामा अणुव्रत होय है | ऐसें पंच अणुव्रत कहे || बहुरि लोके नाशके अर्थ जो यावज्जीव दश दिशानिका परिमाण, सो दिग्बिरतित्रत है || बहुरि जिसतें आपका कार्य तो कुछ सिद्ध नही होय अर जातै नित्य पापकर्मका बंध होइ, सो अनर्थदंड अनेकप्रकार है । तथापि सामान्यपणाकरि पंच भेद कहे हैं। पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुतिसेवन, प्रमादचर्या ये पंच
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आराधनास्वरूप ।
[ २५
प्रकार अनर्थदंडके नाम हैं । तिनमें जो खेती करनेका, पशु पालनेका, पापके विणजका, तिर्यच मनुष्यनिकूं मारनेका, दृढ बांधनेका, पुरुपस्त्रीनिके संयोगका, तथा छह कायके जीवनिका घात जातैं होय ऐसा उपदेश करना, सो पापोपदेश नामा अनर्थदंड है ||
बहुरि हिंसा उपकरण जे खड्ग, बाण, छुरी, कटारी, फावडा, खुरपा, कुंदाल, विष, अग्रि, रस, जेवडा, वेडी, सांकल, चाबका, जाल, पींजरा इत्यादिकका देना, सो हिंसादान नामा अनर्थदंड है । तथा मार्जार, कूकरा, तीतर, कूकडा इत्यादिक मांसभक्षी जीवनिका पालना तथा आयुधनिका बेचना, लोहका विणज करना, तथा लाख खलि इत्यादिक " जिवनिकी हिंसा जिनतें प्रवर्तें तिनका " विणज व्यवहार करना; सोह हिंसादान नामा अनर्थदंड है ||
बहुरि जो रागी द्वेषी हुवा अन्यजीवनिके स्त्रीपुत्रादिकनिका मरण चाहना; तथा अन्यजीवनिकै राजाकरि कीया तीत्रदंड, वा सर्वस्वहरण, वा चौरादिककरि धनका नाश, तथा जगत मैं अपवाद, कलंक इत्यादिककी वांछा करना; तथा अन्यजीवनिका अंगका छेद, बुद्धीका नाश, मारण, ताडनकी चाह करना; परका उदय देखि क्लेशित होना, अन्यकै आपदा आजाय वा अपमानादिक होय तदि आनंद मानना; सो अपध्यान नामा अनर्थदंड है | तथा अन्य मनुष्य तिर्यचनिकी राडि कलह देखना या देखिकरि हर्ष मानना, अन्यजीवनिके दोष ग्रहण करना, परकी धन संपदा देखि वांछा करना, अन्यकी स्त्रीका "देखने में अनुराग करना, आपका अभिमानकी वृद्धि चाहना, परका अपमान चाहना इत्यादिक अपध्यान नामा अनर्थदंड है |
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२६ । rrimewwmwwwmamarrimariwwwnewwww.
दिगंबर जैन ।
बहुरि जिस शास्त्रमें हिंसा मैं धर्म कह्या; तथा जिनमैं भंडकथा, कामकथा, वशीकरण, कपट, छलवर्णन, तथा युद्धशास्त्र तथा रागद्वेष मिथ्यात्वके वधावनेवारे खोटे शास्त्रनिका श्रवण करना; सो दुःश्रुति नाम अनर्थदंड है ।। बहुरि जो प्रयोजनविना दोडना, कूटना, जलकू सीचना, काटना, विनाप्रयोजन अमिका बधावना, पवनका उडावना, वनस्पतीका छेदना इत्यादिक निष्कलव्यापार-प्रवृत्ति करना, सो प्रमादचर्या नामा अनर्थदंड है। ऐसे पंचप्रकारके अनर्थदंडनिका छोडना सो अनर्थदंडत्याग नामा दूसरा गुणवत है ।।
बहुरि जो यावज्जीव दशदिशामैं गमनका प्रमाण कीया, सो तो दिग्विरतिव्रत है। तिसमैं जो दिनप्रति मर्याद करै-जो मै आजि इतनी दूरही गमन करूंगा ऐमैं जो कालकी मर्याद करि गमनका परिमाण निति करै-ताकै देशावकाशिकाशिकवत कहिये हैं । बहुरि अपनी भोगोपभोगसंपदाकू जाणिकरिकै अर रागभावके घटावने जो इंद्रियनिके विषयनिका परिमाण करे, ताकै भोगोपभोग नामा शिक्षाव्रत है ॥ तिनमैं मद्य, मांस, मधु, नवनीत जो लुण्यो, कंद, मूल, हलद, आदो, निंब, केवडा, केतकी इत्यादिकनिके पुष्प इनिमें तो नियम नही; ये तो बहुत सजीवनिका स्थान कहै, ता” यावज्जीव त्याग करना उचित है। अर जो आपकै उदरशूलादिक दुःख करनेवाला जो प्रकृतिविरुद्ध है, ताका त्याग करै । जाते जो अपनै दुःख होना, रोगका बधना, मरण होना, इनकू नही गिणता जिव्हा इंद्रियका लोलपी होइ प्रकृतिविरुद्ध आहार करे है, ताकै तीव्ररागजनित अशुभकर्मका बंध होय है ॥
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[ २७
बहुरि जिसमें जीवनिकी विराधना तो नही, परंतु उत्तमकुलमें ग्रहणयोग्य नही, ते अनुपसेव्य हैं। जाते शंखचूर्ण, गजके दंत,
औरहू हाड, गायका मूत्र, उंटका दुग्ध, तांबूलका उद्गाल, मुखकी लाल, मूत्र, मल, कफ, तथा उच्छिष्ट भोजन, तथा अशुद्धभूमिमै पड्या भोजन, तथा म्लेछादिकनिकरि स्पा भोजन, पान, तथा अस्पृश्य शूद्रका ल्याया जल, तथा शूद्रादिकका कीया भोजन, तथा अयोग्य क्षेत्रमें धया मोजन, तथा मांसभोजन, तथा नीचकुलके गृहनिमैं प्राप्त भया भोजन जलादिक अनुपसेव्य हैं । यद्यपि प्रासुक होइ हिंसारहित होइ तथापि अनुपसेव्यपणातें अंगीकार करनेयोग्य नहीं है बहुरि विकार करनेवाला भेष, वस्त्र, आभरण, नीच पुरूषनिकै योग्य, रागकारी कामादिकके बधावनेवाले चित्राम, गीत, नत्य, भंडवचनश्रवण इत्यादिह अनुपसेव्य हैं। तातै अनिष्ट अर अनुपसेव्यकू वर्जन करिकै जो न्यायोपार्जित त्रसनीवनिकी विराधनारहित भोजनादिक भोग अर वस्त्रादिक उपभोग, तिनमैं प्रमाण करि अंगीकार करै, तिसकै भोगोपभोगपरिमाण नाम व्रत हैं।
जो एकवार भोगनेमें आवै, सो तो भोजन, जल, पुष्प, गंधविलेपनादिकनिळू भोग कहिये हैं । अर जे वस्त्र, आभरण, स्त्री, शयन, आसन, असवारी, महल, इत्यादिक वारंवार भोगनेयोग्य ते उपभोग हैं । तिन भोगोपभोगका यावज्जीव त्याग करना, ताकुं यम कहिये हैं। अर जो एकदिन, दोयदिन, वा रात्रि, वा पक्ष, मास, चतुर्मास, एक वर्ष इत्यादिक कालकी मर्यादारूप त्याग करना, सो नियम है। तिनमें अयोग्य अनुपसेव्य त्रसनिका घात
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दिगंबर जैन ।
करनेवाले भोजनका तो यावज्जीव त्याग करी यमही करै । अर योग्यविषयनिमैं कालकी मर्यादपूर्वक त्याग करि नियम धारै ॥ ऐसे समस्त पंच इंद्रियनिक विषयनिमैं यमनियम करै, सो भोगोपभोगपरिमाण नामा शिक्षावत है ॥
बहुरि जिनकै पुण्यके उदयतें नानाप्रकारकी भोगोपभोगसामग्री घरमें मौजूद तिष्ठे है, तिनमैं” अल्प ग्रहण करि बहुतका त्याग करे हैं अर आगामी कालमें भोगोपभोगकी वांछारहित हैं अर वर्तमान कालमें कर्मके उदयतें भोगनेमें आवे है, तिनमैं अति उदासीन हुवा मंदरागसहित भोगे हैं, तिनके व्रत इंद्रनिकरि प्रशंसायोग्य समस्त कर्मकी स्थितिका छेद करे हैं।
___ बहु समस्त चेतन अचेतन द्रव्यनिविर्षे रागद्वेषको त्याग करि साम्यभावकू आलंबन करिकै अर प्रातःकाल अर संध्याकालके विर्षे अविचल मन-वचन---कायकू करि अवश्य नित्यही सामायिकका अवलंबन करना, सो सामायिक नामा शिक्षात्रत है। सो सामायिक करनेके अर्थ क्षेत्रशुद्धता देखनी । जहां कलकलाट शब्द नही होय, जहां स्त्रीनिका आगमन नही होय, नपुंसकनिका प्रचार नहीं होय, तिर्यचनिका संचार नहीं होय, वा गीत नृत्य वादिनादिकनिका शब्दरहित कलह विसंवादरहित होय, तथा जहां डांस मांछर मांखी बीछू सादिकनिकी बाधारहित, शीत उष्ण वर्षा पवनादिकके उपद्रवरहित,एकांत अपने गृहमें निराला प्रोषधोपवास करनेका स्थान होइ, वा जिनमंदिरमें वा नगरपामबाह्य वनका मंदिर वा मठ मकान सूना गृह गुफा बाग इत्यादिक बाधारहित क्षेत्र होइ तहां सामायिक करनेकू तिष्ठै ॥
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बहुरि प्रातःकाल वा मध्याह्नकाल तथा संध्याकाल इन तीन कालनिमैं समस्त पापक्रियाको त्याग करिकै सामायिक करै । इतनैं कालपर्यंत मैं समस्त सावद्ययोगका त्यागी हूं; इनि कालनिविर्षे भोजन, पान, विणन, सेवा, द्रव्योपार्जनके कारण लेण देण, विकथा आरंभ, विसंवादादिक समस्तका त्याग करौ। सामायिकके अर्थि काल दे देवै तिन कालनिमैं अन्यकार्यका त्याग करी। बहुरि सामायिकके अवसरमें आसनकी दृढ़ता करै। जो पूर्व अपनै स्थिर आसनका अभ्यास नही करि राख्या होय तासु लौकिक कार्यही नहीं होय तो परमार्थका कार्य कैसें बनै! ताः आसनकरि अचल होइ तिसहीकै सामायिक होय है।
बहुरि सामायिकका पाठ वा देववंदना वा प्रतिक्रमणादिकके पाठके अक्षरनिमैं, वा इनके अर्थमें, वा अपने स्वरूपमें, वा जिनेंद्रके प्रतिबिंबमें, वा कर्मनिके उदयादिकस्वभावमें चित्त• लगाय, अर इंद्रियनिका विषयनिमें प्रवृत्तिकू रोकिकरिकै मन-वचन-कायकी शुद्धता करि सामायिक करै तथा शीत उष्ण पवनकी बाधा, डांस, मांछर, मक्षिका, कोडा, कोडी, बीछू, सादिककरि आया परीषहतै चलायमान नही होइ तथा दुष्ट व्यंतरदेवादिक अर मनुष्य अर तिर्यंच अर अचेतनकृत उपसर्गकू समभावनिकरि सहै चलायमान नही होय-परिणाममैं सकंप नही होय-देह चल जाय तोह जिनका परिणाम क्षोभकू नहीं प्राप्त होइ, ताकै सामायिक नाम शिक्षाबत होय है॥
बहुरि जो अष्टमी चतुर्दशी एकमासमें च्यारि पर्व तिनमें उपवास ग्रहण करैः च्यारिप्रकारका आहारका त्याग, अर स्नान,
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दिगंबर जैन |
विलेपन, आभूषण, स्त्रीनिका संसर्ग, अत्तर, फुलेल, पुष्प, धूप, दीप, अंजन, नाशिका मैं सूंघनेकी नाश, तथा विणज व्यवहार, सेवा, आरंभ, कामकथा इत्यादिकनिका त्याग करि धर्मध्यानसहित रहै अर च्यारिप्रकारका आहारका त्याग करै; ताकै प्रोष - धोपवास होय है |
तथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा नाम ग्रंथ मैं ऐसें कहा है- जो एकवार भोजन करै वा नीरस आहार वा कांजिका करै, ताकैह प्रोषधोपवास नामा शिक्षात्रत है । बहुरि जो उत्तमपात्र जो मुनि अर मध्यमपात्र अणुव्रती गृहस्थ अर जघन्यपात्र अत्रतसम्यग्दृष्टि गृहस्थ तिनके अर्थ जो भक्तिसहित दान करे है, ताकै अतिथिसंविभाग व्रत है | आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान, वसतिकादान ये च्यारिप्रकार दान करना, सो भक्तिपूर्वक करना । -राग, द्वेष, असंयम, मद, दुःख, भयादिक जिस वस्तुतैं नही होय; सो वस्तु संयमीनिके अर्थ दान देनेयोग्य है | वैयावृत्य अर दान एक अर्थ है । जो तपस्वीनिका शरीरका टहल करना, सो वैयावृत्य है; तथा अरहंत भगवानका पूजन सो अद्वैयावृत्त्य है; जिनमंदिरकी उपासना करना वा उपकरण चमर छत्र सिंहासन कलशादिक जिनमंदिर के अर्थ देना, सो समस्त जिनमंदिरका चैयावृत्य है; सो महान दान है । सो वडा आदरपूर्वक करना । ऐसे दानका प्रकार समस्तही वैयावृत्य में जानना | ऐसे संक्षेपकरि श्रावकके बारह व्रत कहे वा इनके अतीचार कहे सो श्रावका - चारादिक ग्रंथनिमैं प्रसिद्ध है । इनि बारहप्रकार तानकूं धारै सो दूसरी पैड़ीका धारक व्रती श्रावक है ||
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[३१
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जातें जो सम्यग्दर्शनकरि शुद्ध हुवा संसार देह भोगनितें विरक्त, अर पंचपरमगुरुका शरण ग्रहण करता, सप्तव्यसनका त्याग करि समस्त रात्रिभोजनादिक अभक्ष्यका त्याग करै, ताकै दर्शन नामा प्रथम स्थान है ।। बहुरि पंच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, च्यारि शिक्षाव्रत इनि बारहव्रतनि• धारण करै सो व्रती श्रावक दूसरा पदका धारक है । बहुरि तीनकाल साम्यभाव धारण करि सामायिकका नियम करै, सो सामायिक पदवीका धारक तीजा भेद है । बहुरि एकएक मासवि च्यारिच्यारि पर्वविय जो अपनी शक्तीकू नहीं छिपाय करिकै जो प्रोषधापवास धारण करै, ताकै चोथा प्रोषधस्थान है । याका विशेष ऐसा
जो सप्तमी वा त्रयोदशीके दिन मध्याह्नकालपहली भोजन कारिकै, अर पाछै अपराहकालविर्षे जिनेंद्र के मंदिरमें जायकरिकै, अर मध्याह्नसंबंधी क्रिया करिकै, च्यारिप्रकारके आहारका त्याग करि उपवास ग्रहण करै, अर समस्त ग्रहके आरंभका त्याग करि जिनमंदिरमें वा प्रोषधोपवासके गृहमें वा वनके चैत्यालयमें वा साधुनिके निवासमें समस्त विषयकषायका त्याग करिके सोलह प्रहरपर्यंत नियम करै, तहां सप्तमी त्रयोदशीका अर्धदिन धर्मध्यान स्वाध्यायतें व्यतीत करि अर संध्याकालसंबंधी सामायिक वंदनादिक करि रात्रिनैं धर्मचिंतन धर्मकथा पंचपरमगुरुके गुणनिका स्मरणादिककरि पूर्ण कारकै, अर अष्टमीचतुर्दशीके प्रातःकालमें प्रभातसंबंधी क्रिया करिकै, अर समस्तदिवसकू शास्त्रके अभ्यासतें व्यतीत करिकै, बहुरि संध्याकालमें देववंदना करिकै, अर रात्रिकू
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दिगंबर जैन । तैसेंही धर्मध्यानौं व्यतीत कारकै, प्रातःकाल देववंदना करिकै, अर पश्चात् पूजनविधिकरि अर पात्रकू भोजन कराय करिकै जो पारणा करै, ताकै प्रोषधोपवास होय है ॥ एकहू निरारंभ उपवास उपशांत भया जो करे है, सो बहुतप्रकारका चिरकालतें संचय कीया कर्मकी लीलामात्रकरिकै निर्जरा करे है। अर जो पुरुष उपवासके दिनहू आरंभ करे है, सो केवल अपने देहकू शोषण करे है अर कर्मका लेशहू नही नष्ट करे है ॥ ऐसें प्रोषध नामा चौथा स्थान है ॥
बहुरि जो मूल फल पत्र साक शाखा पुष्प कंद बीज कुंपल इत्यादि अपक्क सचित्त नही भक्षण करै, सो सचित्तका त्याग नामा पंचम स्थान है । जाते आग्निमैं तप्त कीया, तथा अमिकरि पकाया, तथा शुष्क भया, तथा आंमिली लूणकरि मिल्या हुवा द्रव्य, तथा जंत्र काष्ठपाषाणादिकके अनेकप्रकारके उपकरण तिनिकरि छेद्या जे समस्त द्रव्य, ते प्रासुक हैं, सो भक्षण करनेयोग्य हैं । जो त्यागी आप सचित्त भक्षण नहीं करै, ताळू अन्यके अर्थि सचित्त भोजन करावना युक्त नहीं है । जातें भक्षण करनेमें अर करावनेमें कुछ भी विशेष नहीं है। जो पुरुष सचित्तवस्तुका त्याग करे है, सो बहुत जीवनिकी दया धारण करे है अर जो सचित्तका त्याग कीया, सो कापुरुषनिकरि नही जीती जाय ऐसी जिव्हाकुं जीते है अर जिनेंद्रका वचन पालत है॥ ऐसें सचित्तके त्यागीका पंचम स्थान कहा ॥
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आराधनास्वरूप ।
[३३
बहुरि जो अन्न पान खाद्य स्वाद्य ऐसे च्यारिप्रकारका भोजन रात्रिविर्षे करै नही, करावै नही, अन्य भोजन करै ताकी प्रशंसा कर नही, तिसकै रात्रिभोजनत्याग नामा छदा स्थान है ॥ जो रात्रिभोजनका त्याग करिकै अर रात्रिके विर्षे आरंभकाहू त्याग करे है; सो एकवर्षमें छह महीनेके उपवास करे है ।। बहुरि जो अपनी विवाही स्त्रीकाहू त्याग करि स्त्रीमात्र विरक्त हुवा गृहमें तिष्ठे है अर अपनी स्त्री रागरूप कथा तथा पूर्वे भोगे भोगनिकी कथाकू वनिकरिके कोमलशय्या आसन विकाररूप वस्त्र आभरणके त्याग करिकै स्त्रीनितें भिन्नस्थानमें शय्या आसन ब्रह्मचर्यत्रत पाले है, ताकै ब्रह्मचर्य नामा सातवा स्थान होइ है ।
बहुरिजो सेवा कृषि वाणिज्य शिल्पि इत्यादिक धन उपार्जन करनेके कारण तथा हिंसाके कारण आरंभकू त्यागिकरि, अर अपने गृहमें द्रव्य होय तिनका स्त्रीपुत्रकुटुंबादिकनिका विभाग करि, अर अपने योग्य• आप ग्रहण करि, अन्यमें ममता त्यागि नवीन उपार्जनका त्याग करि, अपने परिग्रहमें संतोष करि, जो अपने निकट द्रव्य राखि लीया तावू अन्न वा वस्त्रादिक भोगनिमैं वा पूजा दान इत्यादिकमैं व्यतीत करता वा सज्जनादिकनिळू देता वांछारहित काल व्यतीत करें, ताकै आरंमत्याग नामा अष्टमस्थान होय है ।। इहां इतना विशेष जानना-जो आप अल्प धन अपने खाने पीने दानपूजादिकके निमित्त राख्या था, ताळू कदाचित् चोर वा दुष्ट राजा वा दायियादार वा कपूतपुत्रादिक हरण करै, तो नीचा नही उतरै, " जो मेरा जीवनेका निमित्त धन था, सो जाता रह्या,
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३४]
दिगंबर जैन।
नवीन उपार्जनका मेरै त्याग है, अब मै कहां करूं ! कैसे जीg ! ऐसे अरतिकुं नहीं प्राप्त होय है, धैर्यका धारक धर्मात्मा विचारे है-यइ परिग्रह दोऊ लोकमें दुःखका देनेवाला है, सो मै अज्ञानी मोहकरि अध हुवा ग्रहणकरि राख्या था, सो अब दैव. मेरा बडा उपकार कीया, जो, ऐसें बंधनतें सहज छूटया" ऐसा चिंतन करता परिग्रहत्याग नामा नवमी पयडी• प्राप्त होय है, उलटा आरंभ करि परिग्रहग्रहणमें चित्त नही करे है, ताकै आरंभत्याग नामा आठमा स्थान होय ॥
बहुरि जो राग द्वेष काम क्रोधादिक अभ्यंतर परिग्रहकू अत्यंत मंद करिकै, अर धन धान्यादिक परिग्रहळू अनर्थ करनेवाले जानि, बाह्यपरिग्रहतें विरक्त होइ करिक, शीत उष्णादिककी वेदना निवारणेके कारण प्रमाणीक वस्त्र तथा पीतल तामाका जलका पात्र वा भोजनका एक पात्र इनि विना अन्य सुवर्ण रूपा वस्त्र आभरण शय्या यान वाहन गृहादिक अपने पुत्रादिकनिकू समर्पण करि, अपने गृहमें भोजन करताडू अपनी स्त्रीपुत्रादिक उपरि कोड प्रकार उजर नहीं करता, परमसंतोषी हुवा, धर्मध्यानते काल व्यतीत करें, ताकै परिग्रहत्याग नामा नवमा स्थान है।
बहुरि गृहके कार्य जे धनउपार्जन वा विवाहादिक वा मिष्टभोजनादिक स्त्रीपुत्रादिकनिकरि कीये, तिनकी अनुमोदनाका त्याग करै वा कडवा खाटा खाये अलूणा भोजन जो भक्षण करनेमें आवै ताळू खाये अलुगा बुरा भला नही कहै, ताकै अनुमतित्याग नाम दशमा स्थान है।
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आराधनास्वरूप ।
[ ३५
बहुरि जो गृहकू त्यागि मुनिनके निकटि जाय व्रत ग्रहण करि, समस्त परिग्रहका त्याग करि, कमंडलु पीछी ग्रहण करै, अर एक कौपीन राखै, तथा शीतादिकके परीषह निवारण करनेइं एक वस्त्र राखै-जिसौं समस्त अंग नही आच्छादन होय ऐसा वोछा वस्त्र राखे, वा अपने उद्देश्य कहिये आपके निमित्त कीया भोजनकू नही ग्रहण करता समितिगुप्तीकू पालता मुनीश्वरनिकी नाइ भिक्षा भोजन करै, मौन जाय याचनारहित लालसारहित रस मेरस ऋडवा मीठा जो मिलै तामैं मलिनतारहित शुद्ध भोजन करे, ताकै उद्दिष्ट आहारत्याग नामा ग्यारमा स्थान है ॥ ऐसें ये ग्यारह प्रतिमा वर्णन करी, इनमैं जो जो स्थान होय सो सो पूर्वपूर्वसहित होय । इनि एकादशस्थाननिमैते कोऊ स्थान धारि जो सल्लेखनामरण करै, सो बालपंडितमरण है । सो अब कहे हैं। गाथा
आमुकारे मरणे अव्वे छिण्णाए जीविदासाए । णादीहि वा अमुको । पच्छिमसल्लेहणमकासी ॥२०७९॥
अर्थ-श्रावकबतके धारकका शीघ्र मरण आवता संता अर जीवितकी आशा नही छूटता संता वा अपने कुटुंबीनिकरि नही छूटते पश्चिम सल्लेखनाकू करै ॥ भावार्थ-अणुवतीका मरन तो नजीक आजाय अर आपकै जीवनेमें आशा घटी नही अर स्त्री पुत्र कुटुंब बंधुनन आपकू छोड्या नही-दीक्षा लेने दे नही, तदि अणुव्रतनिसहित गृहमें तिष्ठताही सल्लेखना करै । जाते जो धर्मात्मा गृहस्थ मुनिपणा अंगीकार किया चाहै, सो अपने कुटुंबके जननिर्व ऐसे पूछि अर बंधुसमूहळू अर माता पिता स्त्री पुत्रादिकनिते
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दिगंबर जैन ।
आपकूं छुडावे, अपने बंधुसमूहकूं ऐसें पूछें - अहो ! इस हमारे शरीरके बंधुसमूहमें वर्तनेवाले आत्मा हो ! इस मेरे आत्माके माहि तिहारा कुछ नहीं है, या निश्चयतें तुम जानत हो, तातें तुमारेताई पूछत हूं, अबार हमारा आत्माकै ज्ञानज्योति उदय भया हैं, तातें मेरा अनादिका बंधु जो मेरा आत्मा ताकूं प्राप्त भया चाहे है, मेरा शुद्धात्माही मेरा बंधु है; अन्य बंधुके देहका संबंध मेरे देहते है, मोत नाही । अहो ! इस शरीर के उत्पन्न करनेवाले जनकके आत्मा तथा अहो ! मेरे शरीरकूं उत्पन्न करनेवाली जननीके आत्मा ! मेरे आत्माकूं तुम नही उत्पन्न कीया है, या निश्चयकरिकै तुम जानत हो, तातैं अब मेरे आत्माकूं तुम छांडो । अब हमारा आत्माकै ज्ञानज्योति प्रकट भया है, तातैं आपका अनादिका माता पिता जो अपना आत्मा ताकूं प्राप्त होय है । अहो ! इस शरीर के आत्मा ! मेरे आत्माकं तू नही रमावत है, ऐसें तूं जाणि मेरा इस आत्माकं छांडडू, अब हमारे आत्माकै ज्ञानज्योति प्रकट भया है, तातैं आत्मानुभूतीही जो मेरा आत्माकूं रमावनेवाली अनादिकी रमणी ताही प्राप्त भया चाहे है । अहो ! इस शरीर के पूत्रका आत्मा हो ! मेरा आत्मा तुमकूं नही उत्पन्न कीया है, या तुम निश्चयकरि जाणो, तातैं मेरे आत्माकूं छांड हूँ। अब मेरा आत्माकै ज्ञानज्योति प्रकट भया है, तातैं आपका आत्माही जो अनादितें उपज्या अपना पुत्र, ताही प्राप्त हुवा चाहे है । ऐसें बंधुजन वा पिता माता स्त्री पुत्रनितैं आप आपकूं छुड़ावै । अर जो कुटुंबी जन आपकूं निराला नही होने दे, दिगंबरी दीक्षा नही धारण करने दे, तो अपने गृह - विषैी पश्चिमसल्लेखना करै ॥ गाथा
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आलोचिदणिस्सल्लो । सघरे चेवासाहित्तु संथारे ॥ जदि मरदि देसविरदो ।तं वुत्तं वालपंडिदयं ॥२०८०॥
अर्थ-शभ्यरहित हुवा पंचपरमेष्ठीके अर्थि आलोचना करि अपने गृहविही शुद्ध संस्तरविर्षे तिष्ठिकरि जो देशविरतिका धारी गृहस्थ मरण करै, सो बालपंडितमरण भगवान् परमागममें कह्या है || गाथा
जो भत्तपदिण्णाए । उयकमो वित्थरेण णिदिहो।। सो चेव वालपंडिद- । मरणे गेर्ड जहाजोगो॥ ८१ ॥
अर्थ-जो भक्तप्रतिज्ञामैं संन्यासका विस्तार करिकै कथन कीया, सोही बाल पंडितमरणविर्षे यथायोग्य जानना योग्य है ॥ गाथावेमाणिएमु कप्पो- । वर्गसु णियमेण तस्स उववादो। णियमा सिज्झदि उक्क- । स्सएण सो सत्तमम्मि भवे ॥४२॥ ____ अर्थ-तिस बालपंडितमरण करनेवालेका उत्पाद स्वर्गनिवासी वैमानिक देवनिवि नियमतें होय है। अर सो समाधिमरणके प्रभावतै उत्कृष्टताकरि सप्तम भवविर्षे नियमते सिद्ध होय है ॥ गाथा
इय वालपडियं हो-। दि मरणमरहंतसासणे दिठं ॥
एत्तो पंडिदपंडिद-। मरणं वोच्छं समासेण ||८३॥ ___ अर्थ-इसप्रकार बालपंडितमरण होय है । सो अरहंतके आगममें कह्या है ॥ तिस परमागमके अनुसार इस ग्रंथविर्षे दिखाया। मैं मेरी रुचिविरचित नही कह्या है। भगवानके अनादिनिधन परमागममें अनंतकालतें अनंत सर्वज्ञ देव ऐसेंही कह्या है। अब आगे
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दिगंबर जैन ।
पंडितपंडितमरणकूं संक्षेपकरि कहूंगा । ऐसें बालपंडितमरणकूं दश
गाथानि वर्णन कीया ||
श्रावकके १७ नियम |
भोजेने पटेरसे पाने, कुंकुमादि विलेपने । पुष्प ताम्बुलगीतेषु नृत्यादि ब्रह्मचर्यके ॥ १ ॥ स्नोनं भूषण वस्त्रेषू वोने शेर्ये नोर्सेने । सचित्तं दिशात्याज्य मेतत् सप्त दशानि च ||२||
जिनमतका मूल सिद्धांत |
अहिंसा परमो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः ।।
प्रश्न - हिंसा किसको कहते है ?
उत्तर – (१) अपने मनमें अपनी आत्माका बुरा व दूसरोंका बुरा विचारना हिंसा है। अपने वचनोंसे दूसरोंके मनको और शरीरको दुख देना हिंसा है। अपने शरीरसे दूसरोंके शरीर को दुख पहुंचाना हिंसा है ।
प्रश्न-दया किसको कहते है ?
उत्तर --- (१) अपनी आत्माको क्रोध मान माया लोभ मोह और कामसे बचाना दया है । (२) दूसरोंके हरप्रकारके दुःखको अपनी शक्तिभर दूर करना दया है । (३) दया परिणामों (भावों) के आधीन है । (४) किसी प्राणीका अपना शरीरसे नाश
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[ ३९
होजानेपर भी यदि हमारे परिणाम उसकी रक्षाके है तो हिंसा नहीं
दया है।
(५) ध्यानके बलसे अपनी आत्माका आपमें लीन होजाना दया है ।
प्रश्न - चार योग याने वेढ़ कौन कौनसे कहते है उसका नाम क्या है ?
उत्तर – प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग |
प्रश्न - उपर कहे चार योगकी ओलख क्या है ? दोहा ।
सुदेव सद्गुरूए कह्यां, सदआगम सुनो भेद । हिंसा जीव जहां नहीं, सत्य शौचनो भेड़ प्रथमानु शुभ योगमां, कथा प्रवर्त सार | उत्तम त्रेसठ पुरूषनी, सुणजो तेह मोजार अवर योग उत्तम कह्यो, करणानु अभीधान । कथा अनोपम तेहमां, त्रीलोकसारनुमान निर्मल मुनिवरनी क्रिया, श्रावकनो आचार । त्रतिय योग चरणानुए, सांभळजो निरधार तत्व अर्थ खट द्रव्यसुं, पंचास्तीकाय । द्रव्यानु शुभ योगमां, बोले जिनवरराय देव शास्त्र गुरु सत्य ए, परम पराये जान । वचन विरोध जहां नही, ते शुभ शास्त्र प्रमाण
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॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
॥ ४ ॥
॥ ५ ॥
॥ ६ ॥
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दिगंबर जैन ।
प्रश्न-६३ सलाका पुरुष किसको कहते है ?
उत्तर-नव नारायण, नव प्रति नारायण, नव बलभद्र, बारा चक्रवर्ती और चौवीस तीर्थंकर।
दो इंद्रिसें पंचेंद्रि तककी पीछान ॥ शंख सीपो ने अळसीया, कुरमी कीतक जोय । जलो वाळो अलबधीया, भादरवा बहु होय ॥ १ ॥ जीव बे इंद्रि ये कह्या, इयेल देह याद । तेह तणी रक्षा करो, मुकी सकल प्रमाद ॥ चांचड मांकड जूं बहु, मंकोडा मन आण । वीछु कीडी कंथुवा, ए इंद्रि जाण ॥ २ ॥ डंम मंस माखी घणी, भमरा तीड पतंग । इ आदे बहु विधि कह्या, चौ इंद्रि जीव चंग ॥ ४ ॥ नरक पशु सुर भानवी, चौगतिमें उपजंत । अस पंचेंद्रि ये कह्या, जाणी करो जतन ॥ ५ ॥ प्रश्न-रत्नत्रय किसको कहते है ?
उत्तर–सम्यक् दर्शनजी, सैम्यक् ज्ञानजी और सम्यक् चारित्रजी।
प्र०–सम्यक् दर्शन किसको कहते है ?
उ.-रागादिक मिटावनेका श्रद्धान होय सोइ श्रद्धान सम्यक् दर्शन है।
प्रश्न-सम्यक्ज्ञान किसको कहते है ?
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आराधनास्वरूप ।
[ ४१
उत्तर - जैसे रागादिक मिटाबनेका जानना होय सोइ जानना सो सम्यक ज्ञान है ।
प्रश्न – सम्यक् चारित्र किसको कहते है ? उत्तर—जैसे रागादिक मिदे सोही आधार सम्यकुचारित्र है ऐसा मोक्षमार्ग प्रकाश पृष्ठ ३२६ में कहा है । प्रश्न - राग किसको कहते है ?
उत्तर - किसी पदार्थको इष्ट (मनकुं प्रसन करे) ऐसा जानकर उसमें प्रीतिरूप परिणाम उसको राग कहते है । प्रश्न - द्वेष किसको कहते है ?
उत्तर -- किसी पदार्थको अपना अनिष्ट (अप्रिय) ज्ञान उसमें अप्रीति परिणाम उसीको द्वेष कहते है ।
शिष्यका प्रश्न |
ज्ञानवंतको भोग निर्जरा हेतु है। अज्ञानीको भोग बंध फल देतु है | यह अचरजकी बात हिये नहि आवही, पुछे कोउ शिष्य गुरू समझावही || उत्तर (सवैया ३१ सा. 1)
दया दान पूजादिक विषय कषायादिक दुहु कर्म भोगये दुहूको एक खेत हे || ज्ञानी मूढ करम करत दीसे एकसे पैं परिणाम भेद न्यारो न्यारो फल देत है ॥ ज्ञानवंत करनी करे पैं उदासीन रूप ममता न घरे ताते निर्जराको हेतु है | वह करतुति मुढ करे पे मगन रूप अंध भयो ममतासों बंध फल लेत है ।
अष्टांग वंदनाकी स्तुति ।
जुगल पानी जुगल पांड, पंचम शीस सपर्श भूवी । विमल मनोवच काय, यह अष्टांग प्रणाम हुवी ॥
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MARJUNIORNA
।। श्लोक ॥ पुनः हस्तो पादौ तथा द्वौ द्वौ शिरो भूमौ च पंचमः । मनोवाक्काय शुद्धि च प्रणमोऽष्टांगमुच्यते ॥ १ ॥
अष्टांगवंदना करतेसमय निम्नलिखित पढ़ो
मन वचन कायकी शुद्धता करके वंदो हों; मस्तक नमायके, पृथ्वीसों लगायके, खुशालीसों, प्रफुल्लिततासों, बड़ा हर्ष सहित मैं वंदो हों, दंडवत् करों हों, नमस्कार करों हों, अरहंतदेवको वा पंच परमेष्टीजीको, जय बोलो अरहंत महाराजकी जय।
अरज करते समय निम्नलिखित पढ़ो।
धन घड़ी धन्य भाग्य, आजका दिन मेरा जन्म सफल भया, मेरी काया सफल हुई, मेरे नेत्र सफल भये, हे भगवान् । दुराचरणथी दूर करी सारे चरणे चलावी तुमारी शरणे लो। जय बोलो पंच परमेष्टी महाराजकी जय ।
20शिखामणका पद । घडी दो घडी मंदिरजीमें आय करो । आय करो मन लगाय करो ॥ घडी० ॥ जग धंधेमें सब दिन खोयो । कुच्छ तो
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[४३
धरममें बीताय करो ॥ घडी० ॥ जग धंधेमें सब धन खोयो। कुच्छ तो धरममें लगाय करो ॥ घडी० ॥ कहे सो ग्यानी सुन भव प्राणी । आवत मनको लगाय करो । घड़ी दो घडी मंदरजीमें आय करो।।
राग भेरवी। ___ गुरूजी मैंने औगुण बोत किये, प्रमुजी मैंने औगुण बोतः किये ॥ पांउ धरे धरनीपे उतने खून भये ॥ गुरुजी० ॥ जितनी नारी नजर भर देखी, उतने पाप भये ॥ गुरुजी० ॥
स्त्री उवाच-जिते पुरुष नजर भर देखे । उतनन पाप भये। ॥ गुरुजी० ॥ रतनचंदकी यही अरज है, बोना बोत भये, औगुण बोत किये ॥ गुरुजी० ॥
राग--शार्दूल पुरुष उवाचमोटी ते सहु मात्र तुल्य गणुं हुं छोटी गणुं पुत्रीओ। जे होये सम वर्षमां मुज तणां तेने गणुं भगीनीयो । एवी मानव मात्रमा मुज थजो प्रीति तणी वृष्टीयो ।।
आ काले मुजने प्रभु करी कृपा आशिष एवी दायो । स्त्री उवाच--- मोटा ते सहु पित्र तुल्य गणुं हुं छोटा गणुं पुत्रओ ॥ जे होये समवर्षमां मुज तणा तेने गणु बन्धुओ ॥ एवी मानव मात्रमा मुन थजो प्रीति तणी वृष्टीओ॥ आ काळे मुनने प्रभु करी कृपा आशीष एवी दीयो ।
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जिनेन्द्र जन्माभिषेक। प्रभू पर इंद्र कलश भरी लायो ।
शैलराजपर सजि समाज सब, जनम समय नहवायो टेका। क्षीरोदक भरि कनक कुंभमें, हाथो हाथ सुर लायो । मंत्र सहित सो कलश सचीपति, प्रमु शिरधार ढरायो ॥प्रभू॥१॥ अघघघ भभ भभ घघ घघ बघ घघ, धुनि दशहूं दिशि छायो । साढ़े बारह कोड़ जातिके, वाजन देव बजायो ॥प्रभू०॥२॥ सचि रचि रचि शृंगार सँवारत, सो नहिं जात वतायो। भूषन वसन अनूपम सो सजि, हरषित नाच रचायो । प्रभू०॥३॥ पग नूपुर झननननन वाजत, तननन तान उठायो। घननननन घंटा घन नादत, ध्रुगत ध्रुगत गत छायो ॥०॥४॥ दिम दिम दिम मृदंग गत वाजत, थेइ थेइ थेइ पग पायो। सगृहि सरंगि घोर सोर सुनि, भवीक मोर विहसायो ||प्र०॥५॥ तांडव निरत सचीपति कीनों, निन भवको फल पायो। 'निज नियोग करि तब सब सुर मिलि, प्रभुहि पिता घर लायो ||प्र॥६॥ मातु गोदमें सोंपि प्रभू कहँ, बहु विधि सुख उपजायो॥ प्रभुसेवा हित देव राखि कैं, सुर निज धाम सिधायो ।प्रभू०॥७॥ प्रमुके वय समान सुरतन धरि, सेवा करत सहायो। देवी दास वृंद जिनवरको, जनम कल्यानक गायो ॥प्रभू०॥६॥
हजूरी पद (राग धनाश्री) आ वसंत चले महागीरपर आज प्रभूजीका न्हवन करेंगे|आ वसंत ॥टेक।। कंचन कलस धरे सीर ऊपर। क्षीरदधी जल छान भरेंगे।
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केसर और कपुर मिलाके । लाय प्रभूनीका न्हवन करेंगे|आ वसंत०॥१॥ अष्ट दरवमें पूजा करके । अक्षय पदकी प्राप्ति करेंगे। पुष्प चढाय मंगाय महाचरू। दीपक जोति जगाय धरेंगे|आ वसंत० ॥२॥ खेवे धुप सुगंध चरन बीच । जात करमके बंस चलेंगे। फल चहायके अरघ आरती । अब हम पुन्न भंडार भरेंगे |आ वसंत ॥३॥ चरन पकड़ और यसर पसरके । झघर जघर अरज दास करेंगे। दग सुख सन्मुख होय प्रमुके । मोक्ष लिये वीन नाही टरेगे|आ वसंत०४॥
जाप करनेके सात प्रकारके महामंत्र ।
(१) पेतिस अक्षरका मंत्र । णमो अरहंताणं। णमो सिद्धाणं । णमो आइरियाणं । णमो उवझायाणं । णमो लोए सब्ब साइणं ।।
(२) सोलह अक्षरका मंत्र । अरहंत सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहू ॥ अर्थात्-अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः ॥
(३) छह अक्षरका मंत्र । ॥ अरहंत सिद्ध ॥
(४) पांच अक्षरका मंत्र ।। " असिआउसा" ॥ यह पंच परमेष्ठीके आदि अक्षर है।
(५) चार अक्षरका मंत्र । " अरहंत "
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(६) दो अक्षरका मंत्र॥ " सिद्ध याने अहं । "
एक अक्षरका मंत्र । "ॐ" इसमें पंचपरमेष्टीके आदि अक्षर सर्व हैं। जैसे अरहंतका अ, अशरीर कहिये सिद्ध तिसका अ, आचार्यका अ, उपाध्यायका उ, और मुनिका म, ऐसे पांच अक्षर-अ अ आ उ म=ओम् अर्थात् ॐ हुवा ऐसा सिद्ध है ॥
॥ गाथा ॥ अरहंता अशरीरा आईरिया तह उवझाया मुणिणो । पढमक्खरणिप्पराणो ओंकारो पंच परमेठ्ठी ॥ १ ॥
अर्थ-ऊपरके सात प्रकारके महामंत्र कहलाते हैं। इनका जाप करना श्रेष्ठ है और कर्मबंधके एकसो आठ भेद अर्थात् द्वार है। इसका कारण १०८ मणि अर्थात दानेकी मालासे स्मरण करना चाहिये । माला ऊपर तीन दाने होते हैं उनपर सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ऐसा पढ़ना चाहिये ।
--00Co----
मुनि महाराजका पद । ऐसे मुनी हमरे मनमें भायो । नाके बंदत पाप नसायो ।ऐसे०॥ च्यार वीस परिगृह जाने त्यागे । निग्रंथ नाम कहायो। तरण तारण वे मुनीवर । कहिए परम जती पद पायो ॥ऐसे०॥१॥
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पंच महावृत पंच सुमति । त्रय गुप्तीजी धरायो । अठवीस मूलगुण जाके सोहीए । रागद्वेष नहीं पायो ॥ऐसे०॥२॥ तीन काल वे जोग जे साधे । पंचम गती मन भायो। बावीस परीसह सहते धीरज । शत्रु मित्रु सम मायो ।ऐसे०॥३॥ ग्रीषम काल परवत पर गडे । रवीसम दृष्टी लगायो । वरषाकाल वृक्ष तले उभे । सीत सरीता तट जायो ।ऐसे०॥४॥ पंच प्रमाद रहित ऐसे मुनी । क्षपक श्रेणी मन भायो । अष्ट करमकुं दूर कीए जीने । सीवरमणी वर पायो ।ऐसे०॥५॥ ऐसे मुनीकुं निशदिन वंदित । कर्म कलंक नसायो । सीवलाल पंडित मन वच तनते। करजोडी सीस नमायो॥ऐसे०॥६॥
सो है जैनका रागी । अवधु सो है जैनका रागी। जाकी सुरत मुल धुन लागी ॥अबधु० ॥१॥ साधु अष्ट करम सुंझ घढे । सुन्य बांधे धर्मशाला । सोहं सबका धागा साधे । जपे अजपा माला ॥अबधु०॥२॥ गंगा जुमना मध्य सरस्वती । अधर वहे जलधारा । करी स्नान मगन होइ बैठे । तोडे कर्मदल भारा ॥अबधु०॥३॥ आप अभ्यंतर जोत वीराजे । बंकनाळ ग्रहे मुळा। पश्चिम दीशकी खडकी खोलो। तो बाजे अणहद तुरा||अबधु०४॥ पंच भूतका भर्म मिटाया । छठे मांही समाया । विनय प्रभु शुंज्योत मिली जब । फिर संसार न आया।।अबधु०॥५॥
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४८]
दिगंबर जैन।
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अवधु वैराग बेटा जाया । वाने खोज कुटंब सब खाया ।अबधु।। जेने ते खाइ ममता माया । सुख दुःख दोनुं भाई । काम क्रोध दोनोको खाइ खाइ प्रश्नाबाई । अब० ॥ १ ॥ दुरमत दादी मच्छर दादा मुख देखत ही मुआ। मंगलरूपी बधाइ बाजी ए जब बेटा हुआ ॥ अब० ॥२॥ पुन्य पाप पडोशी खाइ । मान काम दोउ मामा । मोह नगरका राजा खाया। पीछे प्रेम ते गामा । अब० ॥ ३ ॥ भाव नाम धर्यो बेटाको । महीमा वर्णव्यो न जाय। आनंद घन प्रभु भाव प्रगट करो। घट घट रहो समाय ||अव०॥४॥
आत्माका गुण । आतमके गुन गाउ । अत्र मैं आतमके गुन गाउ । और कछु नहीं ध्याउं ॥ अब मैं० ॥ टेक ॥ आप ही ब्रह्मा आप महेसुर । आप ही वीष्णु कहाउं । आप धर्मेंद्र चक्रवत आप ही। आप ही आप समाऊं ॥अब मैं ०॥१॥ आप ही ज्ञानी आप ही ध्यानी। आप ही संत कहाउं । आप ही वक्ता आप ही श्रोता। आप ही आप मनाउं ॥अब मैं ०॥२॥ आप निरंजन आप ही अंजन । आप ही आप नचाऊं । आप ही कर्मन आप अकर्मन । आप ही आप बताउं ॥अब मैं ०॥३॥ आप ही सुखी आप ही दुखी। आप ही धर्म दिढाऊं । आप ही आप अपनमें सेवा । आत्मराम लखाऊं । अब मैं ॥४॥
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