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॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥
आराधनास्वरूप।
MEENADA
वीस व्यहरमान स्तुति (सवैया ३१ सा)
श्री मंदिर आदि जिन राजत विदेह माहि पानसे धनुष बपु धारे भगवंत है । कोटपूर्व आउ जान नंत ज्ञान दर्शवान सुखद अनंत जाके वीरज अनंत है ।। सिंहासन आसनपे आपश्री वीराजमान खीरे तीहुं काल वाणी सुणे सब संत है । अब है वस्तमान ध्यावे नित इंद्र आन मे हुं वंदु बीस जिन शिवतिय कंत है ॥
॥ श्लोक ॥
अर्हन्तः सिद्धाचार्योपाध्यायसाधवः परमेष्टिनः । तेपि स्फुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटि मे शरणम् ॥ ___अर्थ-अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये पंच परमेष्टी है तेही मेरे आत्मामें तिष्टे हैं इससे आत्मा ही मुझे शरण है।
भावार्थ-यह परभेष्टी आत्मामें तब ही ठहर सकता है जब की उनका स्वरूप चिंतवन कर आत्मामें ज्ञेयाकार वा ध्येया
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