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आराधनास्वरूप ।
अर्थ-जो पंच इंद्रियानिके विषयनिकी आशाकरिरहित होय, नाकै इंद्रियनिके विषयनिमै वांछा नष्ट हो गई होइ, बहुरि जाकै किंचिन्मात्रहू आरंभ नही होय, अर जाकै तिलतुष मात्र परिग्रह नहीं होय अर जो ज्ञान ध्यान तपमें लीन होयरक्त होय सो तपस्वी प्रशंसा योग्य है । ऐसें आत आगम गुरु मैं जाकै दृढ श्रद्धान होइ सो सम्यग्दृष्टि है । जाते कार्तिकेयस्वामीहू स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाविषे सम्यक्त्वका लक्षण ऐसा कह्या है-जो अनेकांत स्वरूप तत्त्वकू निश्चय करि सप्त भंग करि सहित श्रुतज्ञान करि वा नयनिकरि जीव अजीवादिक नव प्रकारके पदार्थनिकू श्रद्धान करे है। सो शुद्ध सम्यग्दृष्टि है। तथा जो जीव पुत्र कलत्र आदिक समस्त अर्थनिमैं मद गर्व नही करे है-उपशम भाव जे मंद कषायरूप भाव तिनकू भावनारूप करे है अर आपकू तृणवत् लघु माने है अर विषयनिकू सेवन करे है अर समस्त आरंभमें वर्ते है, तोह जाकै मोहका ऐसा विलास है सो समस्त विषयनिकू हेय माने है-त्यागने योग्य माने है। चारित्रमोहकी
बलता विषयनिमैं आरंभमें प्रवर्तताहू विरक्त है-नही राचे है, जो उत्तम सम्यक् गुणनिके ग्रहणमें आसक्त है, अर उत्तम साधुजननिमैं विनयसंयुक्त जाकी प्रवृत्ति है, अर साधर्मीनिमैं जाकै अत्यंत अनुराग है, अर देहसू मिलि रह्याहू अपने आत्माकू अपना ज्ञानगुणकरि भिन्न जाने है, अर जीवसू मिल्या देहळू कंचुक जो वस्त्र वा वकतर समान भिन्न जाने है, सो शुद्ध सम्यग्दृष्टि है।
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