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दिगंबर जैन ।
गाथा-णिज्जियदोसं देवं । सव्वजीवाण दयावरं धम्म ।
वज्जियगंथं च गुरुं । जो मण्णादिसोह सदिठी ॥१॥
अर्थ-जो अठरा दोष रहित सर्वज्ञकुं तो देव माने है अर समस्त जीवनिकी दयामैं तत्पर ताळू धर्म माने है, अर समस्त परिग्रहरहित• गुरु माने है, सो सम्यग्दृष्टि है। गाथा-दोससहियं पि देवं । जीवहिंसाइसंजुदं धम्म ।
गंथासत्तं च गुरुं । जोमण्णादि सोहू कुदिठी ॥२॥
अर्थ जो रागद्वेषादिक दोष सहितकुं देव माने है। अर जीवहिंसासहित धर्म माने है, अर परिग्रहमें आसक्तकू, गुरु माने है सो मिथ्यादृष्टि है। कोऊ देव मनुष्यादिक इस जीवकू लक्ष्मी नहीं दे है। अर इस जीवका कोऊ, उपकार नही करे है। उपकार अर अपकारकू अपना उपार्जन कीया पुण्यपापरूप कर्म करे है। कोउर्दू काऊ अशुभ कर्म हरनेको अर शुभ कर्म देनेको तीन लोकमें देव दानव इंद्र अहमिंद्र जिनेंद्र समर्थ नहीं है-कर्म तो अपने शुभ अशुभ परिणामके अनुकूल बंधे है-अर द्रव्य क्षेत्र काल भावका निमित्त• पाय अपना रस देय निजरे है । तातै पर तो निमित्त मात्र है। जो भक्ति करि पूजे इये व्यंतर योगिनी यक्ष क्षेत्रपालादिकही लक्ष्मी देवै तो धर्म करना व्यर्थ होजाइ। समस्त व्यंतरनिहीकू पनि अपना हित करै, पूना दान ध्यान शील संयमादिक निष्फल होनाइ । जाते सुख आवै सो सातावेदनीयकर्मके उदयतै आवै अर दुःख आवै सो असातावेदनीयकर्मके उदयतै आवै ।
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