________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आराधनास्वरूप।
-
ये कुदेव, अर जामैं तीव्र हिंसाकी प्रवृत्ति दयारहित सो कुधर्म, अर परिग्रहवारी विषयकषायकै वशीभूत सो कुगुरु, तीन तो ये भये । अर कुदेव, कुधर्म, कुगुरु, इनी तीननिके सेवन करनेवाले ये छहही 'आयतन ' कहिये धर्मके स्थान नही हैं, तातै इनकू अनायतन कहिये है। इनकी प्रशंसा करना, इनमें मले गुन जानना मिथ्यात्वके उदयतें हैं। ___ बहुरि शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टिता, अनुपगृहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना ये आठ दोष सम्यक्त्वके हैं। इनिके प्रतिपक्षी अष्टगुण हैं । तिनमैं जो सर्वज्ञभाषित धर्ममें संशयका अभाव, सो निःशङ्कित है । सर्वज्ञ वीतरागही आराधनायोग्य देव है-अन्य रागी द्वेषी नही, रत्नत्रयके धारक विषयकषायनिके जीतनेवाले निग्रंथ ही गुरु हैं-अन्य आरंभी परिग्रही नही, दयाभाव ही धर्म है-हिंसाभाव धर्म नही, देवगुरुके निमित्तकरि हुई हिंसा पापही फले है धर्मकू नही उपनावे है। ऐसें देव-गुरु-धर्मके स्वरूपमें संशयरहित निःशंक प्रवते ताकै निःशंङ्कित गुण होय है ॥ बहुरि इहलोकभय, परलोकमय, मरणभय, वेदनाभय, अनारक्षाभय, अगु. प्तिभय, अकस्माद्भय इनि सप्तभयनिकरि रहित निशंकित गुण होय है ॥ दशप्रकारके परिग्रहके वियोग होनेका भय, सो इस लोकका भय है । अर दुर्गति जानेका भय, सो परलोकका भय है। प्राणनिका नाश होनेका भय, सो मरणका भय है। रोगका भय सो वेदनाभय है । कोऊ हमारा रक्षक नही ऐसा अनारक्षाभय होय है। चोरनिका भय, सो अगुप्तिभय है। अचानक कोऊ आपत्ति दुःख
For Private And Personal Use Only