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दिगंबर जैन |
विलेपन, आभूषण, स्त्रीनिका संसर्ग, अत्तर, फुलेल, पुष्प, धूप, दीप, अंजन, नाशिका मैं सूंघनेकी नाश, तथा विणज व्यवहार, सेवा, आरंभ, कामकथा इत्यादिकनिका त्याग करि धर्मध्यानसहित रहै अर च्यारिप्रकारका आहारका त्याग करै; ताकै प्रोष - धोपवास होय है |
तथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा नाम ग्रंथ मैं ऐसें कहा है- जो एकवार भोजन करै वा नीरस आहार वा कांजिका करै, ताकैह प्रोषधोपवास नामा शिक्षात्रत है । बहुरि जो उत्तमपात्र जो मुनि अर मध्यमपात्र अणुव्रती गृहस्थ अर जघन्यपात्र अत्रतसम्यग्दृष्टि गृहस्थ तिनके अर्थ जो भक्तिसहित दान करे है, ताकै अतिथिसंविभाग व्रत है | आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान, वसतिकादान ये च्यारिप्रकार दान करना, सो भक्तिपूर्वक करना । -राग, द्वेष, असंयम, मद, दुःख, भयादिक जिस वस्तुतैं नही होय; सो वस्तु संयमीनिके अर्थ दान देनेयोग्य है | वैयावृत्य अर दान एक अर्थ है । जो तपस्वीनिका शरीरका टहल करना, सो वैयावृत्य है; तथा अरहंत भगवानका पूजन सो अद्वैयावृत्त्य है; जिनमंदिरकी उपासना करना वा उपकरण चमर छत्र सिंहासन कलशादिक जिनमंदिर के अर्थ देना, सो समस्त जिनमंदिरका चैयावृत्य है; सो महान दान है । सो वडा आदरपूर्वक करना । ऐसे दानका प्रकार समस्तही वैयावृत्य में जानना | ऐसे संक्षेपकरि श्रावकके बारह व्रत कहे वा इनके अतीचार कहे सो श्रावका - चारादिक ग्रंथनिमैं प्रसिद्ध है । इनि बारहप्रकार तानकूं धारै सो दूसरी पैड़ीका धारक व्रती श्रावक है ||
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