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आराधनास्वरूप ।
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बहुरि जो गृहकू त्यागि मुनिनके निकटि जाय व्रत ग्रहण करि, समस्त परिग्रहका त्याग करि, कमंडलु पीछी ग्रहण करै, अर एक कौपीन राखै, तथा शीतादिकके परीषह निवारण करनेइं एक वस्त्र राखै-जिसौं समस्त अंग नही आच्छादन होय ऐसा वोछा वस्त्र राखे, वा अपने उद्देश्य कहिये आपके निमित्त कीया भोजनकू नही ग्रहण करता समितिगुप्तीकू पालता मुनीश्वरनिकी नाइ भिक्षा भोजन करै, मौन जाय याचनारहित लालसारहित रस मेरस ऋडवा मीठा जो मिलै तामैं मलिनतारहित शुद्ध भोजन करे, ताकै उद्दिष्ट आहारत्याग नामा ग्यारमा स्थान है ॥ ऐसें ये ग्यारह प्रतिमा वर्णन करी, इनमैं जो जो स्थान होय सो सो पूर्वपूर्वसहित होय । इनि एकादशस्थाननिमैते कोऊ स्थान धारि जो सल्लेखनामरण करै, सो बालपंडितमरण है । सो अब कहे हैं। गाथा
आमुकारे मरणे अव्वे छिण्णाए जीविदासाए । णादीहि वा अमुको । पच्छिमसल्लेहणमकासी ॥२०७९॥
अर्थ-श्रावकबतके धारकका शीघ्र मरण आवता संता अर जीवितकी आशा नही छूटता संता वा अपने कुटुंबीनिकरि नही छूटते पश्चिम सल्लेखनाकू करै ॥ भावार्थ-अणुवतीका मरन तो नजीक आजाय अर आपकै जीवनेमें आशा घटी नही अर स्त्री पुत्र कुटुंब बंधुनन आपकू छोड्या नही-दीक्षा लेने दे नही, तदि अणुव्रतनिसहित गृहमें तिष्ठताही सल्लेखना करै । जाते जो धर्मात्मा गृहस्थ मुनिपणा अंगीकार किया चाहै, सो अपने कुटुंबके जननिर्व ऐसे पूछि अर बंधुसमूहळू अर माता पिता स्त्री पुत्रादिकनिते
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