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दिगंबर जैन । तैसेंही धर्मध्यानौं व्यतीत कारकै, प्रातःकाल देववंदना करिकै, अर पश्चात् पूजनविधिकरि अर पात्रकू भोजन कराय करिकै जो पारणा करै, ताकै प्रोषधोपवास होय है ॥ एकहू निरारंभ उपवास उपशांत भया जो करे है, सो बहुतप्रकारका चिरकालतें संचय कीया कर्मकी लीलामात्रकरिकै निर्जरा करे है। अर जो पुरुष उपवासके दिनहू आरंभ करे है, सो केवल अपने देहकू शोषण करे है अर कर्मका लेशहू नही नष्ट करे है ॥ ऐसें प्रोषध नामा चौथा स्थान है ॥
बहुरि जो मूल फल पत्र साक शाखा पुष्प कंद बीज कुंपल इत्यादि अपक्क सचित्त नही भक्षण करै, सो सचित्तका त्याग नामा पंचम स्थान है । जाते आग्निमैं तप्त कीया, तथा अमिकरि पकाया, तथा शुष्क भया, तथा आंमिली लूणकरि मिल्या हुवा द्रव्य, तथा जंत्र काष्ठपाषाणादिकके अनेकप्रकारके उपकरण तिनिकरि छेद्या जे समस्त द्रव्य, ते प्रासुक हैं, सो भक्षण करनेयोग्य हैं । जो त्यागी आप सचित्त भक्षण नहीं करै, ताळू अन्यके अर्थि सचित्त भोजन करावना युक्त नहीं है । जातें भक्षण करनेमें अर करावनेमें कुछ भी विशेष नहीं है। जो पुरुष सचित्तवस्तुका त्याग करे है, सो बहुत जीवनिकी दया धारण करे है अर जो सचित्तका त्याग कीया, सो कापुरुषनिकरि नही जीती जाय ऐसी जिव्हाकुं जीते है अर जिनेंद्रका वचन पालत है॥ ऐसें सचित्तके त्यागीका पंचम स्थान कहा ॥
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