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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आराधनास्वरूप । [४७ पंच महावृत पंच सुमति । त्रय गुप्तीजी धरायो । अठवीस मूलगुण जाके सोहीए । रागद्वेष नहीं पायो ॥ऐसे०॥२॥ तीन काल वे जोग जे साधे । पंचम गती मन भायो। बावीस परीसह सहते धीरज । शत्रु मित्रु सम मायो ।ऐसे०॥३॥ ग्रीषम काल परवत पर गडे । रवीसम दृष्टी लगायो । वरषाकाल वृक्ष तले उभे । सीत सरीता तट जायो ।ऐसे०॥४॥ पंच प्रमाद रहित ऐसे मुनी । क्षपक श्रेणी मन भायो । अष्ट करमकुं दूर कीए जीने । सीवरमणी वर पायो ।ऐसे०॥५॥ ऐसे मुनीकुं निशदिन वंदित । कर्म कलंक नसायो । सीवलाल पंडित मन वच तनते। करजोडी सीस नमायो॥ऐसे०॥६॥ सो है जैनका रागी । अवधु सो है जैनका रागी। जाकी सुरत मुल धुन लागी ॥अबधु० ॥१॥ साधु अष्ट करम सुंझ घढे । सुन्य बांधे धर्मशाला । सोहं सबका धागा साधे । जपे अजपा माला ॥अबधु०॥२॥ गंगा जुमना मध्य सरस्वती । अधर वहे जलधारा । करी स्नान मगन होइ बैठे । तोडे कर्मदल भारा ॥अबधु०॥३॥ आप अभ्यंतर जोत वीराजे । बंकनाळ ग्रहे मुळा। पश्चिम दीशकी खडकी खोलो। तो बाजे अणहद तुरा||अबधु०४॥ पंच भूतका भर्म मिटाया । छठे मांही समाया । विनय प्रभु शुंज्योत मिली जब । फिर संसार न आया।।अबधु०॥५॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020069
Book TitleAradhana Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Harjivandas
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages61
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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