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२०]
दिगंबर जैन ।
बहुरि अपने आत्माके मांहि अनादिके मिथ्यात्वादिक मल रागादिक कामादिक मल तिनकुं दूरि करि अपने आत्माका प्रभाव रत्नत्रय धारणकरि प्रकट करना, सो प्रभावना नाम अंग है । तथा दान तप जिनपूजा त्याग इत्यादिकरि जिनधर्मका प्रभाव जगतमें प्रकट करै, मिथ्यादृष्टीहू देखि प्रशंसा करै " जो, ऐसा शील जैनीहीकै होय, जिनका निर्लोभपणा, दयालुपणा, दातारपणा, क्षमावान्पणा, तथा त्याग, वैराग्य, शील, संयम, सत्य इत्यादिक देखि बालगोपालहू महिमा करै, " ताकै प्रभावना अंग होइ है। जो महावत अणुव्रत धोरै, सो प्राण जातें हिंसा, झूठ, परधनहरण, कुशील, परिग्रहमें नहीं प्रवृत्ति करै ऐसा धर्मका महिमा प्रकट दिखावै, अपनी मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति करि धर्मकी निंदा नहीं करावै, अर अभ्यंतर अपने आत्माकू मिथ्यात्वादिकनितै मलिन नही होने देवै, ताकै प्रभावना नाम अंग होय है ॥ ऐसें मम्यक्त्वके अष्ट गुण कहे ॥ कार्तिकेयस्वामीने ऐसे कह्या है
जो ण कुणदि परतत्ति । पुणुपुणु भावेदि सुद्धमप्पाणं ।। इंदियमुहणिरवेख्खो। णिस्संकाई गुणा तस्स ॥१॥
अर्थ-जो जीव परकी निंदा नही करे है, अर वारंवार रागादिरहित शुद्ध आत्माकू भावे है-अनुभवे है, अर इंद्रियजनितसुखमें जिनकै वांछाका अभाव है, तिनकै निःशंकितादि गुण जानिये है ॥
ओरहू प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य ये सम्यक्रवके लक्षण हैं | संवेग, निवेग, निंदा, गर्दा, उपशम, भक्ति, अनुकंपा
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