________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
२२]
दिगंबर जैन । mmmmmmmmmmmmmmmmmmm. जं च दिसावेरमणं । अणत्थदंडहि जं च वेरमणं ।। देसावगासियं पि य । गुणवयाई भवे ताई ।। ७८ ॥
अर्थ--जो मरणपर्यंत दश दिशानिमैं गमनादिककी मर्यादा करना, सो दिग्विरति व्रत है । अनर्थदंडनिका त्याग, सो अनर्थदंडविरति वन है। अर कालकी मर्याद करि क्षेत्रमें गमन करनेकी मर्यादा, मो देशावकाशिक है। ऐसे तीन गुणत्रत हैं ॥ अब च्यारिप्रकार शिक्षाव्रतनिकू कहे है ॥ माथाभोगाणं परिसंखा । सामाइयमतिहिसंविभागो य ।। पोसहविधी य सबो । चदुरो सिख्वाउ वृत्ताः ॥ ७८ ॥ __ अर्थ-भोगोपभोगकी मर्यादा, सो भोगोपभोगपरिमाणवत है। सामायिककी प्रतिज्ञा करना, सो सामायिक नाम शिक्षात्रत है। च्यारि पर्वनिमैं उपवासादिक प्रोषध विधि करना, सो प्रोषघोपवास नामा शिक्षाबत है। ऐमैं च्यारि शिक्षाबत कहे ॥ पंच अणुव्रत, तीन गुणवत, च्यारि शिक्षाबत ऐसे ये बारह व्रत गृहस्थ अवस्थामैं श्रावककै कहे ॥
इहां ऐसा विशेष जानना-सम्यग्र्शनका धारक जीवकै समस्त व्रतादिक होइ हैं । तातें जो पहली जिनेंद्रभाषित सूत्रकी आज्ञाप्रमाण तत्त्वार्थनिका श्रद्धानम्वरूप सम्यग्दर्शन धारण करिक अर जो जूवा, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री इन सात व्यसनका त्याग; अर पंच उदुंवरफलादिकका त्याग; तथा जिनमैं त्रसजीवनिकी उत्पत्ति ऐसा बीजफलादिकका त्याग करे है; सो दर्शनप्रतिमाका धारक श्रावक हैं।
For Private And Personal Use Only