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दिगंबर जैन ।
प्राणनितें आपकू भिन्न अनुभवे है, ताकै मरणका भय नहीं होय है। जो मूढ देहका मरणकू आत्माका मरण होना अनुभवे है, ताकै मरणका भय होइ । याते सम्यग्दृष्टि अपने आत्माकू ज्ञान दर्शन सुख सत्ता इत्यादि भवप्राणरूप अनुभवै, ताकै मरणमय नही होय है। ___अब कोऊ हमारा रक्षक नही ऐसा अनारक्षा भयकं कहे हैं। जगतविषे जो सत् है तिसका विनाश नही है ऐसे वस्तुकी स्थिति प्रकट है । सत्का विनाश नही असत्का उत्पाद नहीं । मेरा ज्ञान सत् है, सो तीन कालमें इसका नाश हैं नही, ऐसा मेरै निश्चय है । याते मेरा चैतन्यस्वभावका अन्य कोऊ रक्षक नहीं, अर अन्य कोऊ भक्षक नही, पर्याय उपजे हैं पर्याय विनसे हैं। मेरा स्वभाव पुद्गलपर्यायतें भिन्न अविनाशी ज्ञानमय है, याका रक्षक भक्षक कोऊ है नही । तातै सम्यग्दृष्टि निःशंक निर्भय अपना ज्ञानमय निनस्वभावकू वेदे है-अनुभवे है ॥
चोरका भय सो अगुप्तिभय है, ताहि जनावे है, जो वस्तुका निजस्वरूप है सोही सर्वोत्कृष्ट गुप्ति है । अपना निजस्वरूपवि कोऊ परद्रव्य प्रवेश करनेवू अशक्त है, मेरा सर्वोत्कृष्ट चैतन्य स्वरूप है, अन्य कोऊ इसमें प्रवेश नही करि सके है। अर मेर चैतन्य रूप कोऊ हरनेकू समर्थ नहीं है, मेरा स्वरूप अक्षय अनंतज्ञानस्वरूप अविनाशि धन है, तिसळू चोर कैसे ग्रहण करे ? इसमें कोऊ अन्यद्रव्यका प्रवेशही नही, ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यरूप मेरा अविनाशी धन कोऊ हरनेकू समर्थ नहीं । ऐसें अनुभव करता निःशंक निर्भय अपने ज्ञानस्वभाव में तिष्ठते सम्यग्दृष्टीकै अगुप्तिभय नही होय है।
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