Book Title: Anekant 1948 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनका त का वैशाख, संवत् २००५ :: मई, सन् १९४८ संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरसावा वर्ष है ★ किरण ५ सञ्चालक व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी साधु-विवेक सम्पादक-मंडल असाधु वस्त्र रँगाते मन न रँगाते, कपट-जाल नित रचते हैं; 'हाथ सुमरनी पेट कतरनी', पर-धन-वनिता तकते हैं। आपा - परकी खबर नहीं, परमार्थिक बातें करते हैं; ऐसे ठगिया साधु जगतकी, गली-गलीमें फिरते हैं। जुगलकिशोर मुख्तार प्रधान सम्पादक मुनि कान्तिसागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय डालमियानगर (बिहार) साधु राग, द्वेष जिनके नहिं मनमें, प्रायः विपिन विचरते हैं; क्रोध,मान, मायादिक तजकर, पञ्च महाव्रत धरते हैं । ज्ञान - ध्यानमें लीन - चित्त, विषयों में नहीं भटकते हैं: वे हैं साधु, पुनीत, हितैषी, तारक जो खुद तरते हैं। ___-पं० दलीपसिंह काग़ज़ी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय प्रय १६७ १६८ १६६ १८१ १८२ १८३ १८६ १ सम्यम्दृष्टि-[स्व. कवि बनारसीदास २ परमात्मराज-स्तोत्र (भीपद्मनन्दि मुनिकृत) ३ समवसरणमें शुद्रोंका प्रवेश-[प्र. सम्पादक ३ वर्णीजीका हालका एक आध्यात्मिक पत्र ५ कुत्ते (कहानी)-[गोयलीय ६ त्यागका वास्तविक रूप-[पं० श्रीगणेशप्रसाद वर्णी ७ समय रहते सावधान (कविता)-[स्व० कवि भूधरदास ८ संगीतपुरके सालुवेन्द्र नरेश और जैनधर्म-[ बा० कामताप्रसाद ६ जैनधर्म बनाम समाजवाद-[पं. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य १० सन्मति-विद्या-विनोद-जुगलकिशोर मुख्तार ११ मुजफ्फरनगरका परिषद्-अधिवेशन-[बा० माईदयाल बी० ए. १२ बर्नार्डशाके पत्रका एक अंश [बा. ज्योतिप्रसाद जैन १३ पाकिस्तानी-पत्र-[गोयलीय १४ सम्पादकीय-[अयोध्याप्रसाद गोयलीय १५ कथित स्वोपज्ञ भाष्य-[-बा. ज्योतिप्रसाद एम. ए. १८७ १८६ •१६७ २०४ २०६ २०७ २०८ २११ कीरशासन-जयन्ती मनाइये श्रावण कृष्ण-प्रतिपदाकी पुण्यतिथि प्रारही है इस वर्ष आगामी २२ जुलाई १९४८ बृहस्पतिवार- महत्व है। भारतवर्षमें पहले वर्षका प्रारम्भ इसी को श्रावणकृष्णाप्रतिपदाकी पुण्य - तिथी अर्थात् दिनसे हुआ करता था। . वीरशासनजयन्ती अवतरित हो रही है । इस दिन इस तरह यह पुण्यतिथि-वीरशासन जयन्ती भगवान महावीरका तीथे (शासन) प्रवर्तित हुआ था- सभीके द्वारा समारोहके साथ मनाये जानेके योग्य इसी दिन उन्होंने अपना लोक-कल्याणकारी सर्वप्रथम है। सब जगह प्रत्येक गांव और शहरके लोगोंको उपदेश दिया था, उनकी दिव्यध्वनि वाणी पहले पहल अभीसे उसको मनानेकी तैयारियां शुरू कर देनी खिरी थी, जिसे सुन कर दुखी और अशान्त जनताने चाहिये । वीरसेवामन्दिर इस बार इस पुण्य पर्वको सुख-शान्तिका अपूर्व अनुभव किया था साथ ही मनानेकी कुछ विशिष्ट आयोजनाएँ तत्परताके साथ धर्मके नामपर होनेवाले बलिदानों और अत्याचारों कर रहा है । इस दिन अहिंसा और अपरिग्रह-जैसे की रोक हुई थी। भगवान वीरने हिंसा अहिंसा जैन सिद्धान्तोंका प्रचारक सुन्दर साहित्य लोकमें तथा धर्म-अधर्मका तत्त्व इसी दिनसे समझाना प्रचर मात्रामें प्रचारित किया जाना चाहिये, महावीरप्रारम्भ किया था, अहिंसा और अपरिग्रह धर्मका सन्देशको घर घरमें पहुंचाना चाहिये और उसके लोगोंको यथार्थ स्वरूप समझाया था और इसलिये । अनुसार चलनेका पूरा प्रयत्न होना चाहिये । यह दिन कृतज्ञ संसारके लिये बड़े महत्वका है। इसके सिवाय, इस तिथिका ऐतिहासिक भी -दरबारीलाल कोठिया (न्यायाचार्य) For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॐ अहम् . नतत्त्व-सघातक विश्वतत्त्व-प्रकाशक - . वार्षिक मूल्य ५) एक किरणका मूल्य ॥ | नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् ।। | परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः । वर्ष ९ । किरण ५ वीरवासना वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जिला सहारनपुर वैशाख शुक्ल, वीरनिर्वाण-संवत २४७४, विक्रम संवत २०५५ १९४८ सम्यग्दृष्टि भेदविज्ञान जग्यौ जिन्हके घट, सीतलचित्त भयौ जिम चन्दन । केलि करें सिवमारगमैं, जगमाहिं जिनेसुरके लघुनन्दन ॥ सत्यसरूप सदा जिन्हकै, प्रगटयो अवदात मिथ्यात-निकन्दन । सांतदशा तिन्हकी पहिचानि, करै करजोरि बनारसि बन्दन ॥१॥ स्वारथके साँचे परमारथके साँचे चित, साँचे साँचे बैन कहैं साँचे जैनमती हैं। काहू के विरोधिनाहिं परजाय-बुद्धि नाहिं, आतमगवेषी न गृहस्थ हैं न जती हैं । र सिद्धि रिद्धि वृद्धि दीसै घटमैं प्रगट सदा, अन्तरकी लच्छिसौं अजाची लच्छपती हैं । . दास भगवन्तके उदास रहैं जगतसौं, सुखिया सदैव ऐसे जीव समकिती हैं ॥२॥ 1. जाकै घट प्रगट विवेक गणधरकौसी, हिरदै हरखि महामोहकौं हरतु है ।। a साँचौ सुख मानै निज महिमा अडौल जाने, श्रापुहीमें आपनौ सुभाउ ले धरतु है ॥ By जैसे जल-कर्दम कतकफल भिन्न करै, तैसैं जीव अजीव विलच्छनु करतु है । • आतम सकति साथै ग्यानको उदी अराधे, सोई समकिति भवसागर तरतु है ॥३॥ -कवि बनारसीदास l For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मराज-स्तोत्र . (श्रीपद्मनन्दिमुनि विरचित) यस्य प्रसाद -वशतो वृषभादयोऽपि प्रापुर्जिनाः परम-मोक्षपुराऽधिपत्यम् । आद्यन्तमुक्त-महिमानमनन्त-शक्तिं भक्तया नमामि तमहं परमात्मराजम् ॥१॥ त्वां चिघनं समयसारमखण्डमूर्ति ज्योतिःस्वरूपममलं पर-भाव-मुक्तम् । स्तोतुन सूक्ष्म-मतयोयतयोऽपि शक्ताः कोऽहं चिदात्मक पुनर्जडिमैक-पात्रम् ॥२॥ प्रोक्तं कथश्चिदिह तत्त्वविदांवरेण चिद्रूप तत्र भवतोभवतः स्वरूपम् । नो बुद्धचते बुधजनोऽप्यथवा प्रबुद्धं तन्मोक्षमक्षय-सुखं द्रुतमातनोति ।।३॥ यो ज्ञानवान्स्व-परयोः कुरुते विभेदं ज्ञानेन नीर-पयसोरिव राजहंसः । सोऽपि प्रमोद-भर-निर्भरमप्रमेय-शक्तिं कथञ्चिदिह विन्दति चेतनत्वम् ॥४॥ तादात्म्य-वृत्तिमिह कर्म-मलेन साकं यः स्वात्मनो वितनुते तनुधीः प्रमादात् । .. स त्वां चिदात्मक कथं प्रथितप्रकाशं विश्वाऽतिशायि-महिमानमवैति योगी ॥५॥ चित्राऽऽत्म-शक्ति-समुदाय-मयं चिदात्मन् ये त्वां श्रयन्ति मनुजा व्यपनीत-मोहाः । ते मोक्षमक्षय-सुखं त्वरितं लभन्ते मूढास्तु संमृति-पथे परितो भ्रमन्ति ॥६॥ चित्पिण्ड-चण्डिम-तिरस्कृत-कर्मजाले ज्योतिर्मये त्वयि समुल्लमति प्रकामम् । निक्षेपधीः क नय-पक्ष-विधिः क शास्त्रं कुत्राऽऽगमः क च विकल्प-मति:क मोहः ॥ ७॥ स्याद्वाद-दीपित-लसन्महसि त्वयीशे प्राप्तोदये विलयमेति भव-प्रसूतिः । चश्चत्प्रताप-निकरेऽभ्युदयं दिनेशे याते हि वल्गति कियत्तमसः समूहः ।।८॥ कुर्वन्तु तानि विविधानि तपासि शीलं चिन्वन्तु शास्त्र-जलधिं च तरन्त्वगाधम् । चिद्रप ते हृदय-वागतिवर्ति-धाम्नो ध्यानं विना न मुनयोऽक्षय-सौख्य-भाजः ॥९॥ सिद्धान्त - लक्षण- सध्ययनेन चित्तमात्मीयमत्र नियतं परिरञ्जयन्ति । ये ते बुधाः प्रतिगृहं बहवश्चिदात्मन् ये त्वत्स्वरूप-निरता विरलास्त एव ॥१०॥ दृग्गोचरत्वमुपयासि न वा ममत्वं धत्से न संस्तवनतोऽपि न तुष्टिमेसि । कुर्वे किमत्र तदपि त्वमसि प्रियो मे यस्माद्भवाऽऽमय-हृतिर्भवदाश्रितेयम् ॥११।। आनन्द-मदुरमिदं भवतः स्वरूपं नृणां मनः स्पृशति चेक्षणमप्यमोहात । दुःखानि दुर्द्धर-भव-भ्रमणोद्भवानि नश्यन्ति चेत्तदिह किं कुरु कंचिदात्मन ॥१२॥ ज्ञानं त्वमेव वरवृत्तमपि त्वमेव त्वं दर्शन त्वमपि शुद्धनयस्त्वमीशः । . पुण्यः पुराणपुरुषः परमस्त्वमेव यत्किञ्चनत्वमपि कि बह-जल्पितेन ॥१३॥ सञ्चिञ्चमत्कृति-चिताय जगन्नुताय शुद्धस्फुरत्समरसैक-सुधाणेवाय । दुःकर्म-बन्धन-भिदेऽप्रतिम-प्रभाय चिद्रूप तत्र भवते भवते नमोऽस्तु ॥१४॥ अच्छोच्छलत्परमचित्ति-चितं कलङ्क-मुक्तं विविक्त-महसं परमात्मराजम् । यो ध्यायते प्रतिदिनं लभते यतीन्द्रो मुक्ति स भव्य-जन-मानस-पद्मनन्दी ॥१५॥ इति परमात्मराज-स्तुतिः (स्तोत्रम् ) *यह स्तोत्र कैराना ज़ि० मुजफ्फ़रनगरकी उसी षट्पत्रात्मक ग्रन्थप्रतिपरसे उपलब्ध हुअा है जिसपरसे पिछली किरणों में प्रकाशित 'स्वरूपभावना' और 'रावण-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' उपलब्ध हुए थे। -सम्पादक - - । SE For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरणाम शूद्रोंका प्रवेश [सम्पादकीय] जैन तीर्थङ्करोंके दिव्य समवसरणमें, जहाँ सभी शीर्षक है “१०० रुपयेका पारितोषिक-सुधारकोंको भव्यजीवोंको लक्ष्यमें रखकर उनके हितका उपदेश लिखित शास्त्रार्थका खुला चेलेंज" और जो 'जैन दिया जाता है, प्राणीमात्रके कल्याणका मार्ग सुझाया बोधक' वर्ष ६३ के २७वें अङ्कमें प्रकाशित हुआ है। जाता है और मनुष्यों-मनुष्योंमें कोई जाति-भेद न इस लेख अथवा चेलेंजको पढ़कर मुझे बड़ा कौतुक करके राजा-रङ्क.सभी गृहस्थोंके बैठनेके लिये एक ही हुआ और साथ ही अध्यापकजीके साहसपर कुछ वलयाकार मानवकोठा नियत रहता है; जहाँके हँसी भी आई। क्योंकि लेख पद-पदपर स्खलित हैप्रभावपूर्ण वातावरणमें परस्परके वैरभाव और प्राकृ- स्खलित भाषा, अशुद्ध उल्लेख, गलत अनुवाद, तिक जातिविरोध तकके लिये कोई अवकाश नहीं अनोखा तक, प्रमाण-वाक्य कुछ उनपरसे फलित कुछ, रहताः जहाँ कुत्ते-बिल्ली, शेर-भेड़िये, साँप-नेवले, और इतनी असावधान लेखनीके होते हुए भी चैलेंज गधे-भैंसे जैसे जानवर भी तीर्थङ्करकी दिव्यवाणीको का दुःसाहस ! इसके सिवाय, खुद ही मुद्दई और सुननेके लिये प्रवेश पाते हैं और सब मिलजुलकर खुद ही जज बननेका नाटक अलग !! लेखमें अध्याएक ही नियत पशुकोठेमें बैठते हैं, जो अन्तका १२वाँ पकजीने बुद्धिबलसे काम न लेकर शब्दच्छलका होता है, और जहाँ सबके उदय-उत्कर्षकी भावना एवं आश्रय लिया है और उसीसे अपना काम निकालना साधनाके रूपमें अनेकान्तात्मक 'सर्वोदय तीर्थ' प्रवा- अथवा अपने किसी अहंकारको पुष्ट करना चाहा है; हित होता है वहाँ श्रवणं, ग्रहण तथा धारणकी शक्ति- परन्तु इस बातको भुला दिया है कि कोरे शब्दच्छल से सम्पन्न होते हुए भी शूद्रोंके लिये प्रवेशका द्वार से काम नहीं निकला करता और न व्यर्थका अहंकार एक दम बन्द होगा, इसे कोई भी सहृदय विद्वान ही पुष्ट हुआ करता है। अथवा बुद्धिमान माननेके लिये तैयार नहीं होसकता। . आप दूसरोंको तो यह चैलेंज देने बैठ गये कि परन्तु जैनसमाजमें ऐसे भी कुछ पण्डित हैं जो वे आदिपुराण तथा उत्तरपुराण-जैसे आर्षग्रन्थोंके अपने अद्भून विवेक, विचित्र संस्कार अथवा मिथ्या आधारपर शूद्रोंका समवसरणमें जाना, पूजाधारणाके वश ऐसी अनहोनी बातको भी माननेके वन्दना करना तथा श्रावकके बारह व्रतोंका ग्रहण लिये प्रस्तुत हैं, इतना ही नहीं बल्कि अन्यथा प्रति- करना सिद्ध करके बतलाएँ और यहाँ तक लिख गये पादन और गलत प्रचारके द्वारा भोले भाइयोंकी कि "जो महाशय हमारे नियमके विरुद्ध कार्य कर आँखोंमें धूल झोंककर उनसे भी उसे मनवाना चाहते समाधानका प्रयत्न करेंगे (दूसरे आर्षादि ग्रन्थों के हैं। और इस तरह जाने-अनजाने जैन तीर्थङ्करोंकी आधारपर तीनों बातोंको सिद्ध करके बतलायेंगे) महती उदार-सभाके श्रादर्शको गिरानेके लिये प्रयत्न- उनके लेखको निस्सार समझ उसको उत्तर भी नहीं शील हैं। इन पण्डितोंमें अध्यापक मङ्गलसेनजीका दिया जावेगा।" परन्तु स्वयं आपने उक्त दोनों ग्रन्थों नाम यहाँ खासतौरसे उल्लेखनीय है, जो अम्बाला के आधारपर अपने निषेध-पक्षको प्रतिष्ठित नहीं छावनीकी पाठशालामें पढ़ाते हैं। हाल में आपका एक किया-उनका एक भी वाक्य उसके समर्थनमें सवादो पेजी लेख मेरी नजरसे गुज़रा है, जिसका उपस्थित नहीं किया, उसके लिये आप दूसरे ही ग्रंथों For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अनेकान्त _ [वर्ष ९.. का गलत आश्रय लेते फिरे हैं जिनमें एक 'धर्मसंग्रह- लक्ष्यमें लेकर लिखा गया है-तीन ही उसमें नम्बर श्रावकाचार' जैसा अनार्ष ग्रन्थ भी शामिल है, जो हैं। पहले नम्बरपर व्याकरणाचार्य पं० वन्शीधरजी विक्रमकी १६वीं शताब्दीके एक पण्डित मेधावीका का नाम है, दूसरे नम्बरपर मेरा नाम (जुगलकिशोर) बनाया हुआ है। यह है अध्यापकजीके न्यायका एक . 'सुधारकशिरोमणि' के पदसे विभूषित ! और नमूना, जिसे आपने स्वयं जजका जामा पहनकर तीसरे नम्बरपर 'सम्पादक जैनमित्रजी' ऐसा नामोअपने पास सुरक्षित रख छोड़ा है और यह घोषित ल्लेख है । परन्तु इस चैलेञ्जकी कोई कापी अध्यापककिया है कि "इस चैलेंजका लिखित उत्तर सीधा जीने मेरे पास भेजनेकी कृपा नहीं की। दूसरे हमारे पास ही आना चाहिये अन्यथा लेखोंके हम विद्वानोंके पास भी वह भेजी गई या कि नहीं, इसका जुम्मेवार नहीं होंगे।" मुझे कुछ पता नहीं, पर खयाल यही होता है कि __ इसके सिवाय, लेखमें सुधारकोंको 'आगमके शायद उन्हें भी मेरी तरह नहीं भेजी गई है और विरुद्ध कार्य करने वाले', 'जनताको धोखा देने वाले' यों ही-सम्बद्ध विद्वानोंको खासतौरपर सूचित किये । और 'काली करतूतों वाले' लिखकर उनके प्रति जहाँ बिना ही-चैलेञ्जको चरितार्थ हुआ समझ लिया अपशब्दोंका प्रयोग करते हुए अपने हृदय-कालुष्यको गया है ! अस्तु । व्यक्त किया है वहाँ उसके द्वारा यह भी. व्यक्त कर लेखमें व्याकरणाचार्य पं० वन्शीधरजीका एक दिया है कि आप सुधारकोंके किसी भी वाद या वाक्य, कोई आठ वर्ष पहलेका, जैनमित्रसे उद्धृत प्रतिवाद के सम्बन्धमें कोई जजमेंट (फैसला) देनेके किया गया है और वह निम्न प्रकार हैअधिकारी अथवा पात्र नई ___"जब कि भगवानके समोशरणमें नीचसे नीच गालबन इन्हीं सब बातों अथवा इनमेंसे कुछ व्यक्ति स्थान पाते हैं तो समझमें नहीं आता कि आज बातोंको लक्ष्यमें लेकर ही विचार-निष्ठ विद्वानोंने दस्सा लोग उनकी पूजा और प्रक्षालसे क्यों रोके अध्यापकजीके इस चैलेंज-लेखको विडम्बना-मात्र जाते हैं।" समझा है और इसीसे उनमेंसे शायद किसीकी भी इस वाक्यपरसे अध्यापकजी प्रथम तो यह अब तक इसके विषयमें कुछ लिखनेकी प्रवृत्ति नहीं फलित करते हैं कि "दस्साओंके पूजनाधिकारको हुई; परन्तु उनके इस मौन अथवा उपेक्षाभावसे सिद्ध करनेके लिए ही आप (व्याकरणाचार्यजी) अनुचित लाभ उठाया जा रहा है और अनेक स्थलों समोशरणमें शूद्रोंका उपस्थित होना बतलाते हैं।" पर उसे लेकर व्यर्थकी कूद-फाँद और गल-गर्जना की इसके अनन्तर-"तो इसके लिये हम आदिपुराण जाती है । यह सब देखकर ही आज मुझे अवकाश और उत्तरपुराण आपके समक्षमें उपस्थित करते हैं" न होते हुए भी लेखनी उठानी पड़ रही है । मैं अपने ऐसा लिखकर व्याकरणाचार्यजीको बाध्य करते हैं इस लेख-द्वारा यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कि वे उक्त दोनों ग्रन्थों के आधारपर “शूद्रोंका किसी अध्यापकजीका चैलेंज कितना बेहूदा, बेतुका तथा भी तीर्थकरके समोशरणमें उपस्थित होना प्रमाणों आत्मघातक है और उनके लेखमें दिये हुए जिन द्वारा सिद्ध करके दिखलावें।" साथ ही तर्कपूर्वक प्रमाणोंके बलपर कूदा जाता है अथवा अहंकारसे पुणे अपने जजमेंटका नमना प्रस्तत करते हुए लिखते है बातें की जाती है वे कितने निःसार, निष्प्राण एवं -"यदि आप इन ऐतिहासिक ग्रन्थों द्वारा शुद्रोंका असङ्गत हैं और उनके आधारपर खड़ा हुआ किसी समोशरणमें जाना सिद्ध नहीं कर सके तो दस्साओं का भी अहङ्कार कितना बेकार है। के पूजनाधिकारका कहना आपका सर्वथा व्यर्थ सिद्ध उक्त चैलेंज लेख सुधारकोंके साथ आमतौरपर हो जायगा" और फिर पूछते हैं कि "सङ्गठनकी आड सम्बद्ध होते हुए भी खासतौरपर तीन विद्वानोंको लेकर जिन दस्साओंको आपने आगमके विरुद्ध For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] समवसरणमें शूद्रों का प्रवेश उपदेश देकर पूजनादिका अधिकारी ठहराया है उस पाते हैं । उनके इस प्रकट प्रवेशकी बातको लेकर ही पापका भागी कौन होगा।" इसके बाद, यह लिख बुद्धिको अपील करते हुए ऐसा कहा गया है कि जब कर कि “अब हम जिस आगमके विरुद्ध आपके नीचसे नीच तिर्यश्च प्राणी भी भगवानके समवसरण कहनेको मिथ्या बतलाते हैं उसका एक प्रमाण लिख में स्थान पाते हैं तब दस्सा लोग तो, जो कि मनुष्य कर भी आपको दिखलाते हैं", जिनसेनाचार्यकृत होनेके कारण तिर्यञ्चोंसे ऊँचा दर्जा रखते हैं, समहरिवंशपुराणका 'पापशीला विकुर्माणाः' नामका वसरणमें जरूर स्थान पाते हैं, फिर उन्हें भगवानके एक श्लोक यह घोषणा करते हुए कि उसमें "भगवान पूजनादिकसे क्यों रोका जाता है ? खेद है कि नेमिनाथके समोशरणमें शूद्रोंके जानेका स्पष्टतया अध्यापकजीने इस सहज-ग्राह्य अपीलको अपनी निषेध किया है" उद्धृत करते हैं और उसे ५९वें बुद्धिके कपाट बन्द करके उस तक पहुँचने नहीं सर्गका १९०वा श्लोक बतलाते हैं। साथ ही पण्डित दिया और दूसरेके शब्दोंको तोड़-मरोड़कर व्यर्थमें गजाधरलालजीका अर्थ देकर लिखते हैं-"हमने चैलेंजका षड्यन्त्र रच डाला !! यह आचार्य वाक्य आपको लिखकर दिखलाया है दूसरे, व्याकरणाचार्यजीको एक मात्र आदि आप अन्य इतिहासिक ग्रन्थों (आदिपुराण-उत्तरपुराण) पुराण तथा उत्तरपुराणके आधारपर किसी तीर्थकरके के प्रमाणों द्वारा इसके अविरुद्ध सिद्ध करके दिखलावें समवसरणमें शूद्रोंका उपस्थित होना सिद्ध करनेके और परस्परमें विरोध होनेका भी ध्यान लिये बाध्य करना किसी तरह भी समुचित नहीं कहा अवश्य रक्खें।" जासकता; क्योंकि उन्होंने न तो शूद्रोंके समवसरण, अध्यापकजीका यह सब लिखना अविचारितरम्य प्रवेशपर अपने पक्षको अवलम्बित किया है और न एवं घोर आपत्तिके योग्य है, जिसका खुलासा उक्त दोनों प्रन्थोंपर ही अपने पक्षका आधार रक्खा निम्न प्रकार है: है। जब ये दोनों बातें नहीं तब यह प्रश्न पैदा होता प्रथम तो व्याकरणाचार्यजीके वाक्यपरसे जो है कि क्या अध्यापकजीकी दृष्टिमें उक्त दोनों ग्रन्थ ही अर्थ स्वेच्छापूर्वक फलित किया गया है वह उसपर- प्रमाण हैं, दूसरा कोई जैनग्रन्थ प्रमाण नहीं है? से फलित नहीं होता, क्योंकि "शुद्रोंका समोशरणमें यदि ऐसा है तो फिर उन्होंने स्वयं हरिवंशपुराण और उपस्थित होना" उसमें कहीं नहीं बतलाया गया- धर्मसंग्रहश्रावकाचारके प्रमाण अपने लेखमें क्यों 'शद्र' शब्दका प्रयोग तक भी उसमें नहीं है। उसमें उद्धृत किये ? यदि दूसरे जैनग्रन्थ भी प्रमाण हैं तो साफतौरपर नीचसे नीच व्यक्तियोंके समवसरणमें फिर एक मात्र आदिपुराण और उत्तरपुराणके प्रमाणों स्थान पानेकी बात कही गई है और वे नीचसे नीच को उपस्थित करनेका आग्रह क्यों ? और दूसरे ग्रंथोंव्यक्ति 'शूद्र' ही होते हैं ऐसा कहीं कोई नियम के प्रमाणोंकी अवहेलना क्यों ? यदि समान-मान्यता अथवा विधान नहीं है, जिससे 'नीचसे नीच व्यक्ति' के ग्रन्थ होनेसे उन्हींपर पक्ष-विपक्षके निर्णयकाका वाच्यार्थ 'शूद्र' किया जासके। उसमें 'नीचसे नीच' आधार रखना था तो अपने निषेधपक्षको पुष्ट करनेशब्दोंके साथ 'मानव' शब्दका भी प्रयोग न करके के लिये भी उन्हीं ग्रन्थोंपरसे कोई प्रमाण उपस्थित 'व्यक्ति' शब्दका जो प्रयोग किया गया है वह अपनी करना चाहिए था; परन्तु अपने पक्षका समर्थन करने खास विशेषता रखता है। नीचसे नीच मानव भी के लिये उनका कोई भी वाक्य उपस्थित नहीं किया .एक मात्र शुद्ध नहीं होते, नीचसे नीच व्यक्तियोंकी तो गया और न किया जा सकता है क्योंकि उनमें कोई बात ही अलग है। 'नीचसे नीच व्यक्ति' शब्दोंका भी वाक्य ऐसा नहीं है जिसके द्वारा शुद्रोंका समप्रयोग उन हीन तिर्यश्चोंको लक्ष्यमें रखकर किया वसरणमें जाना निषिद्ध ठहराया गया हो। और जब गया जान पड़ता है जो समवसरणमें खुला प्रवेश उक्त दोनों ग्रन्थों में शूद्रोंके समवसरणमें जाने-न-जाने For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सम्बन्धी कोई स्पष्ट उल्लेख अथवा विधि-निषेधपरक वाक्य ही नहीं तब ऐसे ग्रन्थोंके आधारपर चैलेंज की बात करना चैलेंज की कोरी विडम्बना नहीं तो और क्या है ? इस तरहके तो पूजनादि अनेक विषयोंके सैंकड़ों चैलेंज अध्यापकजीको तत्त्वार्थसूत्रादि ऐसे ग्रन्थोंको लेकर दिये जा सकते हैं जिनमें उन विषयोंका विधि या निषेध कुछ भी नहीं है । परन्तु ऐसे चैलेंजोंका कोई मूल्य नहीं होता, और इसीसे अध्यापकजीका चैलेंज विद्वद्दष्टिमें उपेक्षणीय ही नहीं किन्तु गर्हनीय भी है । तीसरे, अध्यापकजीका यह लिखना कि "यदि आप इन ऐतिहासिक ग्रन्थों द्वारा शूद्रोंका समोशरणमें जाना सिद्ध नहीं कर सके तो दस्साओं के पूजनाधिकारका कहना आपका सर्वथा व्यर्थ सिद्ध हो जायगा" और भी विडम्बनामात्र है और उनके अनोखे तर्क तथा अद्भुत न्यायको व्यक्त करता है ! क्योंकि शूद्रोंका यदि समवसरणमें जाना सिद्ध न किया जासके तो उन्हींके पूजनाधिकारको व्यर्थ ठहराना था न कि दस्साओं के, जिनके विषयका कोई प्रमाण माँगा ही नहीं गया ! यह तो वह बात हुई कि सबूत किसी विषयका और निर्णय किसी दूसरे ही विषयका ! ऐसी जजीपर किसे वर्स अथवा रहम नहीं आगा और वह किसके कौतुकका विषय नहीं बनेगी !! अनेकान्त यदि यह कहा जाय कि शूद्रोंके पूजनाधि - कारपर ही दस्साओं का पूजनाधिकार अवलम्बित है —वे उनके समानधर्मा हैं - तो फिर शूद्रोंके स्पष्ट पूजनाधिकार-सम्बन्धी कथनों अथवा विधि-विधानों को ही क्यों नहीं लिया जाता ? और क्यों उन्हें छोड़ कर शूद्रोंके समवसरण में जाने न जानेकी बातको व्यर्थ उठाया जाता है ? जैन शास्त्रोंमें शूद्रोंके द्वारा पूजनकी और उस पूजनके उत्तम फलकी कथाएँ ही नहीं मिलतीं बल्कि शुद्रोंको स्पष्ट तौर से नित्यपूजनका अधिकारी घोषित किया गया है। साथ ही जैनगृहस्थों, अविरत - सम्यग्दृष्टियों, पाक्षिक श्रावकों और व्रती श्रावकों सभीको जिनपूजाका अधिकारी बतलाया गया है और शूद्र भी इन सभी कोटियोंमें आते हैं, [ वर्ष ९ इतना ही नहीं बल्कि श्रावकका ऊँचा दर्जा ११वीं प्रतिमा तक धारण कर सकते हैं और ऊँचे दर्जेके नित्यपूजक भी हो सकते हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य के शब्दों में 'दान और पूजा श्रावकके मुख्य धर्म हैं, इन दोनोंके विना कोई श्राबक होता ही नहीं, ('दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मो ण सावगो तेण विरणा') और शूद्र तथा दस्सा दोनों जैनी तथा श्रावक भी होते हैं तब वे पूजन के अधिकार से कैसे वश्चित किये जासकते हैं ? नहीं किये जा सकते। उन्हें पूजनाधिकार से वचित करनेवाला अथवा उनके पूजनमें अन्तराय (बिघ्न ) डालनेवाला घोर पापका भागी होता है, जिसका कुछ उल्लेख कुन्दकुन्दकी रयणसारगत 'खय कुटु-सूलमूलो' नामकी गाथासे जाना जाता है। इन सब विषयोंके प्रमाणोंका काफी संकलन और विवेचन 'जिनपूजाधिकारमीमांसा' में किया गया है और उनमें आदिपुराण तथा धर्मसंग्रहश्रावकाचार के प्रमाण भी संगृहीत हैं । उन सब प्रमाणों तथा विवेचनों और पूजन- विषयक जैन सिद्धान्तकी तरफ से आँखें बन्द करके इस प्रकारके चैलेंज की योजना करना अध्यापकजी के एकमात्र कौटिल्यका द्योतक है । यदि कोई उनकी इस तर्कपद्धतिको अपनाकर उन्हीं से उलटकर यह कहने लगे कि 'महाराज, आप ही इन आदिपुराण तथा उत्तरपुराणके द्वारा शूद्रोंका समवसरण में जानो निषिद्ध सिद्ध कीजिये, यदि आप ऐसा सिद्ध नहीं कर सकेंगे तो दस्साओंके पूजनाधिकारको निषिद्ध कहना आपका सर्वथा व्यर्थ सिद्ध हो जायगा' तो इससे अध्यापकजीपर कैसी बीतेगी, इसे वे स्वयं समझ सकेंगे । उनका तर्क उन्हीं के गलेका हार हो जायेगा और उन्हें कुछ भी उत्तर देते बन नहीं पड़ेगा; क्योंकि उक्त दोनों ग्रन्थोंके आधारपर प्रकृत विषय के निर्णयकी बातको उन्हींने उठाया है और उनमें उनके अनुकूल कुछ भी नहीं है । चौथे, 'उस पापका भागी कौन होगा' यह जो अप्रासङ्गिक प्रश्न उठाया गया है वह अध्यापकजी की हिमाक़तका द्योतक है । व्याकरणाचार्यजीने तो आगमके विरुद्ध कोई उपदेश नहीं दिया, उन्होंने तो For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश अधिकारीको उसका अधिकार दिलाकर अथवा स्पष्टतया कोई निषेध नहीं है, जिसकी अध्यापकजीने अधिकारी घोषित करके पुण्यका ही कार्य किया है। अपने चैलेञ्जमें घोषणा की है । मालूम होता है अध्यापकजी अपने विषयमें सोचें कि वे जैनी अध्यापकजीको पं० गजाधरलालजीके गलत अनुवाद दस्साओं तथा शूद्रोंके मर्व साधारण नित्यपूजनके अथवा अर्थपरसे कुछ भ्रम होगया है, उन्होंने ग्रन्थके अधिकारको भी छीनकर कौनसे पापका उपार्जन कर पूर्वाऽपर सन्दर्भपरसे उसकी जाँच नहीं की अथवा रहे हैं और उस पापफलसे अपनेको कैसे बचा अर्थको अपने विचारोंके अनुकूल पाकर उसे जाँचने सकेंगे जो कुन्दकुन्दाचार्यकी उक्त गाथामें क्षय, कुष्ठ, की जरूरत नहीं समझी, और यही सम्भवतः उनकी शूल, रक्तविकार, भगन्दर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, भ्रान्ति, मिथ्या धारणा एवं अन्यथा प्रवृत्तिका मूल है। शिरोवेदना, शीत-उष्णके आताप और (कुयोनियों- पं० गजाधरलालजीका हरिवंशपुराणका अनुवाद में) परिभ्रमण आदिके रूप में वर्णित है। साधारण चलता हुआ अनुवाद है, इसीसे अनेक पाँचवें, हरिवंशपुराणका जो श्लोक प्रमाणमें हारवशपुराणका जा श्लाक प्रमाणम स्थलोंपर बहुत कुछ स्खलित है और ग्रन्थ-गौरवके उद्धृत किया गया है वह अध्यापकजीकी सूचनानुसार अनुरूप नहीं है। उन्होंने अनुवादसे पहले कभी इस न तो ५९वें सर्गका है और न १९०वें नवम्बरका, ग्रन्थका स्वाध्याय तक नहीं किया था, सीधा सादा बल्कि ५७वें सर्गका १७३वाँ श्लोक है। उद्धृत भी वह पुराण ग्रन्थ समझकर ही वे इसके अनुवादमें प्रवृत्त गलतरूपमें किया गया है, उसका पूर्वार्ध तो मुद्रित होगये थे और इससे उत्तरोत्तर कितनी ही कठिनाइयाँ प्रतिमें जैसा अशुद्ध छपा है प्रायः वैसा ही रख दिया झेलकर 'यथा कथश्चित्' रूपमें वे इसे पूरा कर पाये गया है' और उत्तरार्ध कुछ बदला हुआ मालूम होता थे, इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं अपनी प्रस्तावना है। मुद्रित प्रतिमें वह "विकलाँगेंद्रियोाता परियति (पृ. ४) में किया है और अपनी त्रुटियों तथा वहिस्ततः" इस रूपमें छपा है, जो प्रायः ठीक है; परन्तु अशुद्धियोंके आभासको भी साथमें व्यक्त किया है । अध्यापकजीने उसे अपने चैलेञ्जमें "विकलांगेन्द्रियो- इस श्लोकके अनुवादपरसे ही पाठक इस विषयका ज्ञाता पारियत्ति वहिस्तताः" यह रूप दिया है, जिसमें कितना ही अनुभव प्राप्त कर मकेंगे। उनका वह 'ज्ञाता', 'पारियत्ति' और 'तताः' ये तीन शब्द अशुद्ध अनुवाद, जिसे अध्यापकजीने चैलेञ्जमें उद्धत किया हैं और श्लोकमें अर्थभ्रम पैदा करते हैं। यदि यह है, इस प्रकार है• · रूप अध्यापकजीका दिया हुश्रा न होकर प्रेसकी किसी "जो मनुष्य पापी नीचकर्म करने वाले शूद्र गलतीका परिणाम है तो अध्यापकजीको चैलेञ्जका पाखण्डी विकलांग और विकलेन्द्रिय होते वे समाअङ्ग होनेके कारण उसे अगले अङ्कमें सुधारना शरणके बाहर ही रहते और वहाँसे ही प्रदक्षिणा चाहिये था अथवा कमसे कम सुधारकशिरोमणिके पूर्वक नमस्कार करते थे।" पास तो अपने चैलेञ्जकी एक शुद्ध कापी भेजनी इसमें 'उद्भ्रान्ताः' पदका अनुवाद तो बिल्कुल चाहिये थी: परन्तु चैलेजके नामपर यदि यों ही वाह- ही कट गया है, 'पापशीला:'का अनुवाद 'पापी' तथा वाही लूटनी हो तो फिर ऐसी बातोंकी तरफ ध्यान पाखण्डपाटवा'का अनुवाद 'पाखण्डी' दोनों ही तथा उनके लिये परिश्रम भी कौन करे.? अस्तु; अपर्ण तथा गौरवहीन हैं और "समोशरणके बाहर उक्त श्लोक अपने शुद्धरूपमें इस प्रकार है: ही रहते और वहाँसे ही प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार पापशीला विकुर्वाणाः शूद्राः पाखण्ड-पाटवाः । करते थे" इस अर्थके वाचक मूलमें कोई पद ही नहीं विकलांगेन्द्रियोद्भ्रान्ताः परियन्ति वहिस्ततः ॥१७॥ हैं. भतकालकी क्रियाका बोधक भी कोई पद नहीं है; इसमें शूद्रोंके समवसरणमें जानेका कहीं भी फिर भी अपनी तरफसे इस अर्थकी कल्पना करली १ यथा-"पापशीलाः विकुर्माणाः शन्द्राः पाखण्ड पांडवाः” गई है अथवा 'परियन्ति बहिस्ततः' इन शब्दोंपरसे For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अनेकान्त [वर्ष ९ अनुवादकको भारी भ्रान्ति हुई जान पड़ती है। खाता लतावनं सालं वनानां च चतुष्टयम् ॥१८॥ 'परियन्ति' वर्तमानकाल-सम्बन्धी बहुवचनान्त पद द्वितीयसालमुत्क्रम्य ध्वजान्कल्प विलिम् । है, जिसका अर्थ होता है 'प्रदक्षिणा करते हैं'-न कि स्तूपान्प्रासादमाला च पश्यन् विस्मयमाप सः ॥१७॥ 'प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार करते थे। और 'वहिस्ततः' । ततो दौवारिकैर्देवैः सम्भ्रायद्भिः प्रवेशितः । का अर्थ है उसके बाहर । उसके किसके ? समवसरण श्रीमण्डपस्य वैदग्धीं सोऽपश्यत्स्वर्गजिन्वरीम् ॥१६॥ के नहीं बल्कि उस श्रीमण्डपके बाहर जिसे पूर्ववर्ती ।। ततः प्रदक्षिणीकुर्वन्धर्मचक्रचतुष्टयम् । त' पदके द्वारा उल्लेखित किया है, जहाँ लक्ष्मीवान्पूजयामास प्राप्य प्रथमपीठिकाम् ॥१९॥ भगवान्की गन्धकुटी होती है और जहाँ चक्रपीठपर ततो द्वितीयपीठस्थान विभोरष्टौ महाध्वजान् । चढ़कर उत्तम भक्तजन भगवानकी तीन वार प्रदक्षिणा सोऽर्चयामास सम्प्रीतः पूतैर्गन्धादिवस्तुभिः ॥२०॥ करते हैं, अपनी शक्ति तथा विभवके अनुरूप यथेष्ट मध्ये गन्धकुटीद्धद्धिं पराये हरिविष्टरे । पूजा करते हैं, वन्दना करते हैं और फिर हाथ जोड़े। ___उदयाचलमूर्धस्थमिवाकै जिनमैक्ष्यत ॥२१॥ हुए अपनी-अपनी सोपानोंसे उतर कर आनन्दके साथ -आदिपुराण पर्व २४ यथा स्थान बैठते हैं। और जिसका वर्णन आगेके इन सब प्रमाणोंकी रोशनीमें 'वहिस्ततः' पदोंका निम्न पद्योंमें दिया है: वाच्य श्रीमण्डपका बाह्य प्रदेश ही हो सकता हैक्षत्रचामरभृङ्गाद्यवहाय जयाजिरे । . समवसरणका बाह्य प्रदेश नहीं; जो कि पूर्वाऽपर प्राप्तैरनुगताः कृत्वा विशन्त्यंजलिमीश्वराः ॥१७४।। कथनोंके विरुद्ध पड़ता है। और इस लिये पं० गजाप्रविश्य विधिवद्धतथा प्रणम्य मणिमौलयः । धरलालजीने १७२वें पद्यमें प्रयुक्त हुए 'अन्तः' पदका चक्रपीठं समारुह्य परियन्ति त्रिरीश्वरम् ॥१७५।। अर्थ “समवसरणमें" और १७३वें पद्यमें प्रयुक्त पूजयन्तो यथाकामं स्वशक्तिविभवार्चनैः । 'वहिस्ततः' पदोंका अर्थ 'समवसरणके बाहर' करके सुराऽसुरनरेन्द्राद्या नामादेश(?) नमन्ति च ॥१७६।। भारी भूल की है। अध्यापकजीने विवेकसे काम न ततोऽवतीर्य सोपानैःस्वैः स्वैःस्वाञ्जलिमौलयः । लेकर अन्धानुसरणके रूपमें उसे अपनाया है और रोमाञ्चव्यक्तहर्षास्ते यथास्थानं समास्ते ॥१७७। इसलिये वे भी उस भूलके शिकार हुए हैं। उन्हें अब -हरिवंशपुराण सर्ग ५७ समझ लेना चाहिये कि हरिवंशपुराणका जो पद्य इन पद्योंके साथमें आदिपुराणके निम्न पद्योंको उन्होंने प्रमाणमें उपस्थित किया है वह समवसरणमें भी ध्यानमें रखना चाहिये, जिनमें भरतचक्रवर्तीके शादिकोंके जानेका निषेधक नहीं है बल्कि उनके समवसरणस्थित श्रीमण्डप-प्रवेश आदिका वर्णन जानेका स्पष्ट सूचक है। क्योंकि वह उनके लिये समहै और जिनपरसे संक्षेपमें यह जाना जाता है कि वसरणमें श्रीमण्डपके बाहर प्रदक्षिणा - विधिका मानस्तम्भोंको आदि लेकर समवसरणकी कितनी विधायक है। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये भूमि और कितनी रचनाओंको उल्लङ्घन करनेके कि 'शूद्राः' पदके साथमें जो 'विकुर्वाणाः' विशेषण बाद अन्तःप्रवेशकी नौबत आती है, और इस लिये लगा हा है वह उन शुद्रोंके असत् शूद्र होनेका अन्तःप्रवेशका आशय श्रीमण्डप-प्रवेशसे है, जहाँ सचक है जो खोटे अथवा नीचकर्म किया करते चक्रपीठादिके साथ गन्धकुटी होती है, न कि सम- हैं, और इसलिये सतशद्रोंसे इस प्रदक्षिणा-विधिका वसरण-प्रवेशसे: सम्बन्ध नहीं है-वे अपनी रूचि तथा भक्तिके परीत्य पूजयन्मानस्तम्भानत्यत्ततः परम् । अनरूप श्रीमण्डपके भीतर जाकर गन्धकुटीके पाससे १ प्रादक्षिण्येन वन्दित्वा मानस्तम्भमनादितः । भी प्रदक्षिणा कर सकते हैं । प्रदक्षिणाके समउत्तमाः प्रविशन्त्यन्तरुत्तमाहितभक्तयः ॥ १७२ ॥ वसरणमें दो ही प्रधान मार्ग नियत होते हैं For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश १७५ एक गन्धकुटीके पास चक्रपीठकी भूमिपर और दूसरा फलस्वरूप श्रावकके व्रतोंको भी ग्रहण करते हैं, जिन श्रीमण्डपके बाह्य प्रदेशपर । हरिवंशपुराणके उक्त के ग्रहणका पशुओंको भी अधिकार है, यह स्वत: श्लोकमें श्रीमण्डपके बाह्य प्रदेशपर प्रदक्षिणा करने सिद्ध हो जाता है। फिर आदिपुराण-उत्तरपुराणके वालोंका ही उल्लेख है और उनमें प्राय: वे लोग आधारपर उसको अलगसे सिद्ध करनेकी जरूरत शामिल हैं जो पाप करनेके आदी है-आदतन भी क्या रह जाती है ? कुछ भी नहीं। (स्वभावतः) पाप किया करते हैं, खोटे या नीच कर्म इमके सिवाय, किसी कथनका किसी ग्रन्थमें करने वाले असत शूद्र हैं, धूर्तताके कायेमें निपुण यदि विधि तथा प्रतिषेध नहीं होता तो वह कथन (महाधूत) हैं, अङ्गहीन अथवा इन्द्रियहीन हैं और उस ग्रन्थके विरुद्ध नहीं कहा जाता। इस बातको पागल हैं अथवा जिनका दिमाग चला हुआ है। आचाय वीरसेनने धवलाके क्षेत्रानुयोग-द्वारमें निम्न और इस लिये समवसरणमें प्रवेश न करने वालोंके वाक्य-द्वारा व्यक्त किया हैसाथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। छठे, अध्यापकजीने व्याकरणाचार्यजीके सामने "ण च सत्तरज्जुबाहल्लं करणाणिोगसुत्त: उक्त श्लोक और उसके उक्त अर्थको रखकर उनसे जो विरुद्धं, तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो" (पृ०.२२) यह अनुरोध किया है कि "आप अन्य इतिहासिक अर्थात्-लोककी उत्तरदक्षिण सर्वत्रसातराजु ग्रन्थों (आदिपुराण-उत्तरपुराण के प्रमाणों द्वारा इसके मोटाईका जो कथन है वह 'करणानुयोगसूत्र'के अविरुद्ध सिद्ध करके दिखलावें और परस्परमें विरोध विरुद्ध नहीं है, क्योंकि उस सूत्रमें उसका यदि होनेका भी ध्यान अवश्य रक्खें" वह बड़ा ही विधान नहीं है तो प्रतिषेध भी नहीं है। .. विचित्र और बेतुका मालूम होता है ! जब अध्यापक . - शूद्रोंका समवसरणमें जाना, पूजावन्दन करना . जी व्याकरणाचार्यजीके कथनको आगमविरुद्ध सिद्ध और श्रावकके व्रतोंका ग्रहण करना इन तीनों बातोंकरनेके लिये उनके समक्ष एक आगम-वाक्य और का जब आदिपुराण तथा उत्तरपुराणमें स्पष्टरूपसे उसका अर्थ प्रमाणमें रख रहे हैं तब उन्हींसे उसके कोई बिधान अथवा प्रतिषेध नहीं है तब इनके .. अविरुद्ध सिद्ध करनेके लिये कहना और फिर अवि कथनको आदिपुराण तथा उत्तरपुराणके विरुद्ध नहीं रोधमें भी विरोधकी शङ्का करना कोरी हिमाकतके कहा जा नकता। वैसे भी इन तीनों बातोंका कथन सिवाय और क्या हो सकता है ? और व्याकरणा आदिपुराणादिकी रीति, नीति और पद्धतिके विरुद्ध चार्यजी भी अपने विरुद्ध उनके अनुरोधको माननेके लिये कब तैयार हो सकते हैं ? जान पड़ता है नहीं हो सकता; क्योंकि आदिपुराणमें मनुष्योंकी वस्तुतः एक ही जाति मानी है, उसीके वृत्तिअध्यापकजी लिखना तो कुछ चाहते थे और लिख (आजीविका)भेदसे ब्राह्मणादिक चार भेद बतलाये • गये कुछ और ही हैं, और यह आपकी स्खलित हैं', जो वास्तविक नहीं हैं। उत्तरपुराणमें भी साफ भाषा तथा असावधान लेखनीका एक खास नमूना है जिसके बल-बूतेपर आप सुधारकोंको लिखित कहा है कि इन ब्राह्मणादि वर्णो-जातियोंका आकृति आदिके भेदको लिये हुए कोई शाश्वत लक्षण भी शास्त्रार्थका चैलेंज देने बैठे हैं !! गा-श्रश्वादि जातियोंकी तरह मनुष्य-शरीरमें नहीं .. सातवें, शूद्रोंका समवसरणमें जाना जब अध्याप- पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योगसे ब्राह्मणी कजीके उपस्थित किये हुए हरिवंशपुराणक प्रमाणसे ही आदिकमें गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो सिद्ध है तब वे लोग वहाँ जाकर भगवानकी पूजावन्दनाके अनन्तर उनकी दिव्य वाणीको भी सुनते १. मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा । हैं, जो सारे समवसरणमें व्याप्त होती है, और उसके वृक्तिभेदा हि तद्भदाच्चर्विध्यमिहाश्नुते ॥ ३८-४५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अनेकान्त [वर्ष ९ . वास्तविक जाति भेदके विरुद्ध है । । इसके सिवाय, और धर्मश्रवणके लिये शूद्रोंका समवसरणमें जाना आदिपुराणमें दूषित हुए कुलोंकी शुद्धि और अन- प्रगट है।" क्षरम्लेच्छों तकको कुलशुद्धिादिके द्वारा अपनेमें इस अंशको 'समोशरण' जैसे कुछ शब्द-परिमिला लेनेकी स्पष्ट आज्ञाएँ भी पाई जाती हैं । ऐसे वर्तनके साथ उद्धृत करनेके बाद अध्यापकजी लिखते उदार उपदेशोंकी मौजूदगीमें शुद्रोंके समवसरणमें हैं-"इस लेखको आप संस्कृत हरिवशपुराणके जाने आदिको किसी तरह भी आदिपुराण तथा प्रमाणों द्वारा सत्य सिद्ध करके दिखलावें। आपको उत्तरपुराणके विरुद्ध नहीं कहा जा सकता । इसकी असलियत स्वयं मालूम होजावेगी।" विरुद्ध न होनेकी हालतमें उनका 'अविरुद्ध' होना मेरी जिनपूजाधिकारमीमांसा पुस्तक आजसे सिद्ध है, जिसे सिद्ध करनेके लिये अध्यापकजी १००) कोई ३५ बर्ष पहले अप्रेल सन् १९१३में प्रकाशित रु०के पारितोषिककी घोषणा कर रहे हैं और उन हुई थी। उस वक्त तक जिनसेनाचार्यके हरिवंश को बाब राजकृष्ण प्रेमचन्दजी दरियागज पुराणकी पं. दौलतरामजी कृत भाषा वचनिका ही कोठी नं० २३ देहलीके पास जमा बतलाते हैं। लाहौरसे (सन् १९१०में) प्रकाशमें आई थी और वही चैलेख-लेखमें मेरी जिनपूजाधिकामीमांसा' अपने सामने थी। उसमें लिखा थापुस्तकका एक अंश उद्धृत किया गया है, जो निम्न . "जिस समय जिनराजने व्याख्यान किया उस प्रकार है समय समवसरणमें सुर-असुर नर तिरयश्च सभी ___"श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण (सर्ग २) थे, सो सबके समीप सर्वज्ञने मुनिधर्मका व्याख्यान में, महावीर स्वामीके समवसरणका वर्णन करते हुए किया, सो मुनि होनेको समर्थ जो मनुष्य तिनमें लिग्वा है-समवसरणमें जब श्रीमहावीर स्वामीने केईक नर संसारसे भयभीत परिग्रहका त्याग कर मुनिधर्म और श्रावकधर्मका उपदेश दिया तो उसको मुनि भये शुद्ध है जाति कहिये मातृपक्ष कुल कहिये सुनकर बहुतसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग मुनि पितृपक्ष जिनके ऐसे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य सैकड़ों होगये और चारों वर्गों के स्त्री-पुरुषोंने अर्थात साधु भये ।। १३१, १३२ ॥ "और कैएक मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंने श्रावकके बारह चारों ही वर्णके पश्च अणुव्रत तीन गुणव्रत चार । व्रत धारण किये । इतना ही नहीं किन्तु उनकी पवित्र- शिक्षा व्रत धार श्रावक भये । और चारों वर्णकी वाणीका यहाँ तक प्रभाव पड़ा कि कुछ तिर्यश्चोंने कईएक स्त्री श्राविका भई ॥१३४।। और सिंहादिक भी श्रावकके व्रत धारण किये। इससे, पूजा-वन्दना तिर्यंच बहुत श्रावके व्रत धारते भये, यथाशक्ति १ वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । नेमविषै तिष्ठे ।।१३।।" ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधान-प्रवर्तनात् ।। इस कथनको लेकर ही मैंने जिनपूजाधिकारनास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाऽश्ववत् । मीमांसाके उक्त लेखांशकी सृष्टि की थी । पाठक श्राकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ॥-उ. पु. गुणभद्र देखेंगे, कि इस कथनके आशयके विरुद्ध उसमें कुछ २ "कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुलं सम्प्राप्तदूषणम् । भी नहीं है । परन्तु अध्यापकजी इस कथनको शायद 'सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्वं यदा कुलम् ॥४०-१६८ मुलग्रन्थके विरुद्ध समझते हैं और इसी लिये संस्कृत तदाऽस्थोपनयाहत्वं पुत्र-पौत्रादि-सन्ततौ । हरिवंशपुराणपरसे उसे सत्य सिद्ध करनेके लिये न निषिद्ध हि दीक्षाहें कुले चेदस्य पूर्वजाः ॥-१६६॥ कहते हैं। उसमें भी उनका श्राशय प्रायः उतने ही "स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान् प्रजा-बाधा-विधायिनः । अशसे जान पड़ता है जो शूद्रोंके समवसरणमें कुलशुद्धि-प्रदानाद्यः स्वसात्कुर्यादुपत्रमैः ॥ ४२-१७६ ॥ उपस्थित होकर व्रत ग्रहणसे सम्बन्ध रखता है और -श्रादिपुराणे, जिनसेनः। उनके प्रकृत चैलेंज-लेखका विषय है। अतः उसीपर Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] ममवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश यहाँ विचार किया जाता है और यह देखा जाता है है बल्कि मानुषाः'जैसेसामान्यपदका प्रयोग करके और कि क्या पंडित दौलतरामजीका वह कथन मूलके उसके विशेषणको 'नाना' पदसे विभूषित करके सब श्राशयके विरुद्ध है । श्रावकीय व्रतोंके ग्रहणका उल्लेख के लिये उसे खुला रक्खा गया है । साथमें 'विद्याधरकरने वाला मूलका वह वाक्य इस प्रकार है:- पुरस्सराः' विशेषण लगाकर यह भी स्पष्ट कर दिया है पंचधाऽणुव्रतं केचित त्रिविधं च गुणवतम्। कि उस कोठेमें विद्याधर और भूमिगोचरी दोनों शिक्षाव्रतं चतुर्भेदं तत्र स्त्री-पुरुषा दधुः ॥१३४॥ प्रकारके मनुष्य एक साथ बैठते हैं। विद्याधरका इमका सामान्य शब्दार्थ तो इतना ही है कि 'अनेक' विशेषण उनके अनेक प्रकारोंका द्योतक है, 'ममवसरण-स्थित कुछ स्त्रीपुरुषोंने पंच प्रकार अणु- उनमें मातङ्ग (चाण्डाल) जातियोंके भी विद्याधर होते व्रत तीन प्रकार गुणव्रत और चार प्रकार शिक्षाव्रत हैं और इस लिये उन सबका भी उसके द्वारा समाग्रहण किये। परन्तु 'विशेषार्थकी दृष्टिसे' उन स्त्रीपुरुषों वेश समझना चाहिए। को चारों वर्गों के बतलाया गया है। क्योंकि किसी भी . (ख) ५८वें सर्गके तीसरे पद्यमें भगवान नेमिनाथ वर्णके स्त्री-पुरुषोंके लिये समवसरणमें जाने और की वाणीको 'चतुर्वर्णाश्रमाश्रया' विशेषण दिया गया व्रतोंके ग्रहण करनेका कहीं कोई प्रतिबन्ध नहीं है। है, जिसका यह स्पष्ट आशय है कि समवसरणमें इसके सिवाय, ग्रन्थक पूर्वाऽपर कथनोंसे भी इसकी भगवानकी जो वाणी प्रवर्तित हुई वह चारों वर्षों पुष्टि होती है और वही अर्थ समीचीन होता है जो और चारों आश्रमोंका आश्रय लिये हुए थी अर्थात् पर्वाऽपर कथनोंको ध्यानमें रखकर विरोध रूपसे चारों वर्षों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शद और चारों किया जाता है । समवसरणमें असत् शूद्र भी जाते हैं आश्रमों ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यस्तको यह हम श्रीमण्डपसे बाहर उनके प्रदक्षिणा-विधायक लक्ष्यमें रखकर प्रवर्तित हुई थी। और इसलिये वह वाक्यके विवेचनपरसे ऊपर जान चुके हैं । यहाँ पूर्वाऽ- समवसरणमें चारों वर्षों तथा चारों आश्रमोंक पर कथनोंके दो नमूने और नीचे दिये जाते हैं:- . प्राणियोंकी उपस्थितिको और उनके उसे सुनने तथा (क) समवसरणके श्रीमण्डपमें वलयाकार कोष्ठ- ग्रहण करनक अधिकारको सूचित करती है। कोंक रूपमें जो बारह सभा-स्थान होते हैं उनमेंसे ऐसा हालतमें पं० दौलतरामजीने अपनी भाषा मनुष्योंके लिये केवल तीन स्थान नियत होते है- वनिकामें 'स्त्रीपुरुषाः' पदका अर्थ जो 'चारों वर्णके पहला गणधरादि मुनियोंके लिये, तीसरा आयिकाओं स्त्रीपुरुष' सुझाया है वह न तो असत्य है और न के लिये और ११वा शेष सब मनुष्यों के लिये । इस मूलग्रन्थके विरुद्ध है । तदनुसार जिनपूजाधिकारमी११वें कोठेका वर्णन करते हुए हरिवंशपुराणके दूसरे मासाकी उक्त पंक्तियोंमें मैंने जो कुछ लिखा है वह सर्गमें लिखा है भी न असत्य है और न ग्रन्थकारके आशयके विरुद्ध सपुत्र-वनिताऽनेक-विद्याधर-पुरस्सराः । है। और इसलिये अध्यापकजीने कोरे शब्दछलका न्यषीदन् मानुषा नाना-भाषा-वेष-रुचस्ततः ॥८६॥ आश्रय लेकर जो कुछ कहा है वह बुद्धि और विवेक अर्थात-१०वें कोठेके अनन्तर पुत्र और वनि- से काम न लेकर ही कहा जा सकता है। शायद ताओं-सहित अनेक विद्याधरोंको आगे करके मनुष्य अध्यापकजी शूमि स्त्री-पुरुषों का होना ही न मानते बैठे, जो कि (प्रान्तादिके भेदोंसे) नाना भाषाओंके हो और न उन्हें मनुष्य ही जानते हों, और इसीसे बोलने वाले, नाना वेषोंको धारण करने वाले और 'मानुषाः' तथा 'स्त्री-पुरुषाः' पदोंका उन्हें वाच्य ही न नाना वर्णों वाले थे।" समझते हों !!! इममें किसी भी वर्ण अथवा जाति-विशेषके यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता मानवोंके लिये ११वें कोठेको रिजर्व नहीं किया गया हूँ कि जिस हरिवंशपुराणके कुछ शब्दोंका गलत For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आश्रय लेकर अध्यापकजी शूद्रों तथा दस्साओं को जिन पूजा के अधिकार से वश्चित करना चाहते हैं उसके २६वें सर्गमें वसुदेवकी मदनवेगा सहित 'सिद्धकूटजिनालय' की यात्राके प्रसङ्गपर उस जिनालय में पूजावन्दना के बाद अपने-अपने स्तम्भका आश्रय लेकर बैठे हुए' मातङ्ग (चाण्डाल) जातिके विद्याधरोंका जो परिचय कराया गया है वह किसी भी ऐसे आदमी की आँखें खोलने के लिये पर्याप्त है जो शूद्रों तथा दस्साओं के अपने पूजन- निषेधको हरिवंशपुराणके आधारपर प्रतिष्ठित करना चाहता है । क्योंकि उसपरसे इतना ही स्पष्ट मालूम नहीं होता कि मातङ्ग जातियों के चाण्डाल लोग भी तब जैनमन्दिर में जाते और पूजन करते थे बल्कि यह भी मालूम होता है कि श्मशान भूमिकी हड्डियों के आभूषण पहने हुए, वहाँ की राख बदनसे मले हुए तथा मृगछालादि ओढ़े, चमड़े के वस्त्र पहिने और चमड़ेकी मालाएँ हाथोंमें लिये हुए भी जैनमन्दिर में जा सकते थे, और न केवल जा ही सकते थे बल्कि अपनी शक्ति और भक्ति अनुसार पूजा करनेके बाद उनके वहाँ बैठने के स्थान भी नियत थे, जिससे उनका जैनमन्दिर में जाने आदिका और भी नियत अधिकार पाया जाता है। अनेकान्त १ कृत्वा जिनमह खेटाः प्रवन्ध प्रतिमागृहम् । तस्थुः स्तम्भानुपाश्रित्य बहुवेषा यथायथम् ॥ ३॥ २ देखो, श्लोक १४ से २३ तथा 'विवाहक्षेत्र प्रकाश' पृष्ठ ३१ से ३५ | यहाँ उन दसमेंसे दो श्लोक नमूने के तौरपर इस प्रकार हैं— श्मशानास्थि कृतोत्तसा भस्मरेणु - विधूसराः । श्मशान - निलयास्त्वेते श्मशान स्तम्भमाश्चिताः ||१६|| कृष्णाऽजिनधरास्त्वेते कृष्णचर्माम्बर - स्रजः । कानील- स्तम्भध्येत्य स्थिताः काल-श्व- पाकिनः || १८ || ३ यहाँपर इस उल्लेखपरसे किसीको यह समझने की भूल न करनी चाहिए कि लेखक आजकल वर्तमान जैनमन्दिरोंमें भी ऐसे पवित्र वेषसे जानेकी प्रवृत्ति चलाना चाहता है । ४ श्री जिनसेनाचार्यने ६वीं शताब्दी के वातावरणके अनुसार [ वर्ष ९ मेरे उक्त लेखांश और उसपर अपने वक्तव्य के अनन्तर अध्यापकजीने महावीरस्वामीके समवसरण - वर्णनसे सम्बंध रखने वाला धर्मसंग्रहश्रावकाचारका एक श्लोक निम्न प्रकार अर्थसहित दिया है"मिध्यादृष्टिरभव्योप्यसंज्ञी कोऽपि न विद्यते । यश्चानध्यवसायोऽपि यः संदिग्धो विपर्ययः ॥ १३६ ॥ अर्थात् - श्रीजिनदेव के समोशरण में मिध्यादृष्टिअभव्य असंज्ञा अनध्यवसायी संशयज्ञानी तथा मिथ्यात्वी जीव नहीं रहते हैं।" इस लोक और उसके गलत अर्थको उपस्थित करके अध्यापकजी बड़ी धृष्टता और गर्वोक्तिके साथ लिखते हैं "बाबू जुगलकिशोर जीके निराधार लेखको और धर्मसंग्रहश्रावकाचार के प्रमाण सहित लेखको आप मिलान करें- पता लग जायगा कि वास्तव में आगमके विरुद्ध जैन जनताको धोखा कौन देता है ?" मेरा जिनपूजाधिकार मीमांसा वाला उक्त लेख निराधार नहीं है यह सब बात पाठक ऊपर देख चुके हैं; अब देखना यह है कि अध्यापकजीके द्वारा प्रस्तुत धर्मसंग्रहश्रावकाचारका लेख कौनसे प्रमाण को साथमें लिये हुए है और उन दोनोंके साथ आप मेरे लेखकी किस बात का मिलान कराकर आगमविरुद्ध कथन और धोखादही जैसा नतीजा निकालना चाहते हैं ? धर्मसंग्रहश्रावकाचारके उक्त श्लोकके साथ अनुवादको छोड़कर दूसरा कोई प्रमाण-वाक्य नहीं है । मालूम होता है अध्यापकजीने अनुवादको ही दूसरा प्रमाण समझ लिया है, जो मूलके अनुरूप भी नहीं है और न मेरे उक्त लेखक साथ दोनोंका कोई सम्बंध ही हैं। मेरे लेखमें चारों वर्णोंके मनुष्यों के समवसरण - में जाने और व्रत ग्रहण करनेकी बात कही गई हैं, जब कि धर्मसंग्रहश्रावकाचारके उक्त श्लोक और अनु भी ऐसे लोगोंका जैनमन्दिरमें जाना आदि आपत्तिके योग्य नहीं ठहराया और न उससे मन्दिर के अपवित्र हो जानेको ही सूचित किया। इससे क्या यह न समझ लिया जाय कि उन्होंने ऐसी प्रवृत्तिका अभिनन्दन किया अथवा उसे बुरा नहीं समझा ? For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] वादमें उसके विरुद्ध कुछ भी नहीं है । क्या अध्यापक जी शूद्रोंको सर्वथा मिध्यादृष्टि, अभव्य, असंज्ञी (मनरहित) अनध्यवसायी, संशयज्ञानी तथा विपरीत ( या अपने अर्थके अनुरूप 'मिथ्यात्वी') ही समझते हैं और इससे उनका समवसरणमें जाना निषिद्ध मानते हैं ? यदि ऐसा है तो आपके इस आगमज्ञान और प्रत्यक्षज्ञानपर रोना आता है; क्योंकि आगमसे अथवा प्रत्यक्षसे इसकी कोई उपलब्धि नहीं होती - शुद्र लोग इनमेंसे किसी एक भी कोटिमें सर्वथा स्थित नहीं देखे जाते । और यदि ऐसा नहीं है अर्थात् अध्यापकजी यह समझते हैं कि शूद्र लोग सम्यग्दृष्टि, भव्य, संज्ञी, अध्यवसायी, असंशयज्ञानी और विपरीत ( मिथ्यात्वी) भी होते हैं तो फिर उक्त श्लोक और उसके अर्थको उपस्थित करनेसे क्या नतीजा ? वह उनका कोरा चित्तभ्रम अथवा पागलपन नहीं तो और क्या है ? क्योंकि उससे शूद्रों के समवसरणमें जानेका तब कोई निषेध सिद्ध नहीं होता । खेद है कि अध्यापकजी अपने बुद्धिव्यवसाय के इसी बल-बूतेपर दूसरोंको आगमकं विरुद्ध कथन करने वाले और जनताको धोखा देने वाले तक लिखने की धृष्टता करने बैठे हैं !! . समवसरण में शूद्रोंका प्रवेश अब यह बतला देना चाहता हूँ कि अध्यापक जीका उक्त लोकपरसे यह समझ लेना कि समवसरणमें मिथ्यादृष्टि तथा संशयज्ञानी जीव नहीं होते कोरा भ्रम है-उसी प्रकारका भ्रम है जिसके अनुसार वे 'विपर्यय' पदका अर्थ 'मिथ्यात्वी' करके 'मिध्यादृष्टि' और 'मिध्यात्वी' शब्दों के अर्थ में अन्तर उपस्थित कर रहे हैं — और वह उनके आगमज्ञानके दिवालियेपन को भी सूचित करता है। क्योंकि श्रागम में कहीं भी ऐसा विधान नहीं है जिसके अनुसार सभी मिध्यादृष्टियों तथा संशयज्ञानियोंका सम वसरण में जाना वर्जित ठहराया गया हो । बल्कि जगह-जगहपर समवसरण में भगवान् के उपदेशके अनन्तर लोगोंके 'सम्यक्त्व ग्रहणकी अथवा उनके संशयोंके उच्छेद होने की बात कही गई हैं और जो इस बात की स्पष्ट सूचक हैं कि वे लोग उससे पहले १७९ मिथ्यादृष्टि थे अथवा उन्हें किसी विषय में सन्देह था । दूर जानेकी भी जरूरत नहीं, अध्यापकजीके मान्य ग्रन्थ धर्मसंग्रहश्रावकाचारको ही लीजिये, उसके निम्न पद्यमें जिनेन्द्रसे अपनी अपनी शङ्काके पूछने और उनकी वाणीको सुनकर सन्देह-रहित होने की बात कही गई हैनिजनिज-हृदयाकूतं पृच्छन्ति जिनं नराऽमरा मनसा । श्रुत्वाऽनक्षरवाणीं बुध्यन्तः स्युर्वसन्देहाः ||३-५४|| हरिवंशपुराणके ५८वें सर्गमें कहा है कि नेमिनाथकी वाणीको सुनकर कितने ही जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए, जिससे प्रगट होता है कि वे पहले सम्यग्दर्शनसे रहित मिध्यादृष्टि थे । यथाःते सम्यग्दर्शनं केचित्संयमासंयमं परे । संयमं केचिदायाताः संसारावास भीरवः || ३८७|| भगवान् आदिनाथ के समवसरणमें मरीचि - मिध्यादृष्टिके रूपमें ही गया, जिनवाणीको सुनकर उसका मिथ्यात्व नहीं छूटा, और सब मिथ्या तपस्वियोंकी श्रद्धा बदल गई और वे सम्यक् तपमें स्थित होगये परन्तु मरीचिकी श्रद्धा नहीं बदली और इस लिये अकेला वही प्रतिबोधको प्राप्त नहीं हुआ; जैसा कि जिनसेनाचार्य के आदिपुराण और पुष्दन्त-कृत महापुराणके निम्न वाक्योंसे प्रकट है" मरीचि वर्ज्याः सर्वेऽपि तापसास्तपसि स्थिताः।” - आदिपुराण २४-८२ "दंसणमोहणीय-पडिरुद्धउ एक्कु मरीइ णेय पडिबुद्ध उ” - महापुराण, संधि ११ वास्तव में वे ही मिध्यादृष्टि समवसरण में नहीं जा पाते हैं जो अभव्य होते हैं- भव्य मिध्यादृष्टि तो असंख्याते जाते हैं और उनमें से अधिकांश सम्यग्दृष्टि होकर निकलते हैं और इस लिये 'मिध्यादृष्टिः' तथा 'अभव्योऽपि' पदोंका एक साथ अर्थ किया जाना चाहिये, वे तीनों मिलकर एक अर्थके वाचक हैं और वह अर्थ है - 'वह मिध्यादृष्टि जो अभव्य भी है' । धर्मसंग्रहश्रा के उक्त लोकका मूलस्रोत तिलोयपणन्तीकी निम्न गाथा है, जिसमें For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ष ९ 'मिच्छादिट्टिश्रभव्वा' एक पद है और एक ही है ? – और स्वयं ही नहीं बतलाया बल्कि देवोंने— प्रकारके व्यक्तियोंका वाचक हैअर्हन्तों तथा गणधरोंने- बतलाया है ऐसा स्पष्ट मिच्छाइट्टिभव्वा तेसुमसरणी ण होंति कहाई । निर्देश किया हैतह य अज्मवसाया संदिद्धा विविधविवरीदा || ४-९३२ ।। " व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।"११-२०३ ऐसी हालत में उन चाण्डालोंको समवसरण में जानेसे कौन रोक सकता है ? ब्राह्मण होनेसे उनका दर्जा तो शुद्रोंसे भी ऊँचा होगया ! इसी तरह 'संदिग्धः ' पद भी संशयज्ञानीका वाचक नहीं है - संशयज्ञानी तो असंख्याते समवसरणमें जाते हैं और अधिकांश अपनी अपनी शकाओंका निरसन करके बाहर आते हैं- बल्कि · उन मुश्तभा प्राणियोंका वाचक है जो बाह्यवेषादिके कारण अपने विषय में शङ्कनीय होते हैं अथवा कपटवेषादिके कारण दूसरोंके लिये भयङ्कर (dangerous, risky) हुआ करते हैं। ऐसे प्राणी भी सम बसरण-सभाके किसी कोठेमें विद्यमान नहीं होते हैं। तीसरे नम्बरपर अध्यापकजीने सम्पादक जैनमित्रजीका एक वाक्य निम्न प्रकारसे उद्धृत किया है--- "समोशरण में मानवमात्रके लिये जानेका पूर्ण अधिकार है चाहे वह किसी भी वर्णका अर्थात् जाति का चाण्डाल ही क्यों न हो ।” - इसके सिवाय, म्लेच्छ देशों में उत्पन्न हुए म्लेच्छ मुनि हो सकते हैं ऐसा श्रीवीरसेनाचार्यने जयधवला मनुष्य भी सकल संयम (महाव्रत ) धारण करके जैन atara र श्रीनेमिचन्द्राचार्य (द्वितीय) ने लब्धिसार गाथा १९३की टीकामें व्यक्त किया है' । तब उन मुनियोंको समवसरण में जानेसे कौन रोक सकता है ? कोठे में बैठेंगे, उनके लिये दूसरा कोई स्थान ही नहीं है। तो गन्धकुटी के पास के सबसे प्रधान गणधर मुनि ऐसी स्थिति में अध्यापकजी किस किस आचार्यकी बुद्धिपर 'बलिहारी' होंगे ? इससे तो बेहतर यही हूँ कि वे अपनी ही बुद्धिपर बलिहारी होजाएँ और ऐसी अज्ञानतामूलक, उपहासजनक एवं आगमविरुद्ध व्यर्थ की प्रवृत्तियों से बाज आएँ । वीरसेवामन्दिर, सरसावा । ता० २-६-१६४८ १८० अनेकान्त इसपर टीका करते हुए अध्यापकजीने केवल इतना ही लिखा है - " सम्पादक जैनमित्रजी अपने से बिरुद्ध विचारवालेको पोंगापन्थी बतलाते हैं । और अपने लेख द्वारा समोशरणमें चाण्डालको भी प्रवेश करते हैं । बलिहारी आपकी बुद्धिकी ।" इससे सम्पादक जैनमित्रजी बहुत सस्ते छूट गये हैं ! निःसन्देह उन्होंने बड़ा ग़जब किया जो अध्यापकजी जैसे विरुद्ध विचारवालोंको 'पोंगापन्थी' बतला दिया ! परन्तु अपने रामकी राय में अध्यापक जीन उससे भी कहीं ज्यादा ग़जब किया है जो समसरणमें चाण्डालको भी प्रवेश कराने वालेकी बुद्धिपर 'बलिहारी' कह दिया !! क्योंकि पद्मपुराणके कर्ता श्रीरविषेणाने व्रती चाण्डालको भी ब्राह्मण बतलाया है - दूसरे सतशुद्रादिकों की तो बात ही क्या और स्वामी समन्तभद्रने तो रत्नकरण्ड श्रावकाचार (पद्य २८) में व्रती चाण्डाल को भी सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न होनेपर 'देव' कह दिया है और उन्होंने भी स्वयं नहीं कहा वल्कि देवोंने वैसा कहा है ऐसा 'देवा देवं विदु:' इन शब्दोंके द्वारा स्पष्ट निर्देश किया है। तब उस देव चाण्डालको समवसरण में जानेसे कौन रोक सकता है, जिसे मानव होनेके अतिरिक्त देवका भी दर्जा मिल गया ? जुगलकिशोर मुख्तार १ देखो, उक्त टीकाएँ तथा 'भगवान महावीर और उनका समय' नामक पुस्तक पृ० २६ For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीजीका हालका एक प्राध्यात्मिक पत्र श्रीयुत् लाला जिनेश्वरदासजी (सहारनपुर) योग्य- किया जाता है वह समय स्वात्म-चिन्तनमें लगाओ, आपका पत्र श्रीभगतजीके पास आया- स्वाध्यायका यही मर्म है। मेरी तो यह सम्मति है समाचार जानकर आश्चर्य हुआ । इतनी व्यग्रताकी जो काम करो अपना हितका अंश पहले देखो। आवश्यकता नहीं । यहाँ कोई प्रकारकी असुविधा यदि उसमें आत्महित न हो तब चाहे श्रीभगवत्का नहीं । संसारमें पुण्य-पापके अनुकूल सर्वसामग्री अर्चन हो और चाहे संसार-सम्बन्धी कार्य हो, स्वयमेव मिल जाती है और यह जो सामग्री है सो करनेकी आवश्यकता नहीं । जिस कार्यके करनेसे कुछ कल्याण-मार्गकी साधक नहीं, कल्याण-मागकी आत्मलाभ न हो वह कार्य करना व्यर्थ है। सम्यग्दृष्टि साधक तो अन्तरङ्गकी निर्मलता है, जहाँ परसे भगवत्-अर्चा करता है वहाँ उसे अशुभोपयोगकी तटस्थता है । तटस्थता ही संसार-बन्धनको पैनी निवृत्तिसे शान्ति मिलती है । शुभोपयोगको तो छैनी है । न तो संसार अपना बुरा करने वाला है शान्तिका बाधक ही मानता है, परन्तु क्या करै मोहऔर न कोई महापुरुष हमारा कल्याणका जनक है। के उदयमें उसे करना पड़ता है, यह तो शुभोपयोगकी हमने आजतक अपनेको न जाना और न जाननेका बात रही। जिस समय उसकी विषयादिमें प्रवृत्ति प्रयत्न है, केवल परके व्यामोहमें पड़कर इस अनन्त होती है उस समय उस कार्यको वेदनाका इलाज संसारके पात्र बने । अतः अब इस पराधीनताको समझकर करता है और जैसे कड़वी औषध पीकर त्यागो, केवल अपनेको बनायो । जहाँ श्रात्मा केवल रोगी रोगको दूर करता है तब विचारो रोगीको बन जावेगी, बस सर्व आपत्तियोंका अन्त हो कड़वी औषधसे प्रेम है या रोग-निवृत्तिसे । एवं उस जावेगा। यह भावना त्यागो-जो हमसे परोपकार ज्ञानीकी दशा है जो चारित्र-मोहके उदयमें विषयेहोता है या परसे हमारा उपकार होता है । न तो सेवन करता है । यद्यपि बहुतसे मनुष्य इस मर्मको कोई उपकारक है और न अपकारक है । जैसे न समझें, परन्तु जिनने शास्त्रका मर्म जाना है उन्हें चिड़िया जालमें फंस जाती है इसीतरह हम भी तो इसे समझना कोई कठिन नहीं । अतः आप इस इनके द्वारा कल्याण होगा-इस व्यामोहसे परके ओरकी चिन्ताको छोड़कर स्वाध्यायमें संलग्न रहिए। जालमें फँस जाते हैं, नाना प्रकारकी चेष्टाएँ कर विशेष क्या लिखें, हम स्वयं इस जालमें आगए परको प्रसन्न करना चाहते हैं । प्रथम तो वह हमारे अन्यथा आपको पत्र लिखनेकी ही क्या आवश्यकता अधीन नहीं और न उसका परिणमन हमारे अधीन थी। आपके परिणमनके हम स्वामी नहीं, व्यर्थ ही है। थोड़े समयको कल्पना करो, उसका परिणमन चेष्टा कर रहे हैं, जो आप यों करो। हमारे अनुकूल हो भी गया तब उस परिणमनसे हमें नोट-मैंने तो अन्तरङ्गसे यह निश्चय कर क्या लाभ ? हमारा लाभ और अलाभ हमारे लिया जो आपकी प्रवृत्ति हमारे अनुकूल न हुई और के अधीन है। अतः कल्याणकी आकांक्षा है न है और न होगी। एवं मेरी भी यही दशा है जो तब इन भूरिशः विकल्पजालोंको त्यागो, जिस दिन आपके अनुकूल न हूँ और न था और न हँगा। यह परिणमन होगा, स्वयमेव कल्याण हो जावेगा। इसी प्रकार सर्व संसारकी जानना। समयानुकूल जो होवे. सो होने दो, किसीके अधीन प्रा. शु.चि. मत रहो। अपने आपको आप समझो, परकी चिन्ता गणेशप्रसाद वर्णी त्यागो। और जो समय इन पत्रोंके लिखनेमें व्यय (वैसशाखसुदि) For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-कहानी "माँ ! यह आज इन्सानोंको क्या होगया है" ? नाम ही तो जिन्दगी है। जिन्दगीकी ख्वाहिशात . “यह बावले होगये हैं बेटा" ! क्या हैं? "बावले"? _. “दूसरोंके मुँहसे छीछड़े और हड्डियाँ छीननेके "हाँ, बावले"। लिये आपसमें लड़ना, एक दूसरेको काटना, और "क्या इन्सान भी बावले हुआ करते हैं माँ"! अपनी जिन्सको औरतोंसे ........................" उफ, "अब यह इन्सान कहाँ रहे ? हमारी तरह कुत्ते उफ़, उफ़ ! इन्सानी कुत्ते भी अब हमारी तरह बन गये हैं यह लोग"। सोचने लगे हैं। लेकिन यह बुरुजवा किस-शै का नाम है ? शायद कुत्ता बननेसे पहले इन्सानको "हाँ, हाँ, कुत्ते" ! बुरजुश्रा कहते थे। "लेकिन, माँ ! इनकी सूरत तो हमारी तरह नहीं बदली। जल्सेसे लौट रहा था कि सामनेसे बेहिजाब "सूरत नहीं बदली तो क्या ? करतूत तो हमारे फैशनेबिल औरतोंका गोल मुस्कराता, कहकहे जैसे होगये हैं बेटा! सूरत भी बदल जायगी। __लगाता आ रहा था। नज़दीक आनेपर मैंने सुना.. "और यह तड़-तड़की आवाजें क्या थीं माँ"! "अब औरतें मर्दोकी मुहताज नहीं रहेंगी, वे "यह इनके बावलेपनकी दवा है। इन्सान हमारे खद कमाकर खाएँगी"। बावलेपनका इलाज जहरकी गोलियोंसे करते हैं और "यूरुपमें तो औरत हर किस्मकी गुलामीसे बन्दूककी गोलियोंसे उनका बावलापन दूर होता है"। आज़ाद होचुकी है"। * * * * मैंने इत्मीनानकी साँस ली. हमारी कौमकी परेडके मैदानमें मैले-कुचैले इन्सानोंकी भीड़में औरतें भी तो खुद कमाकर खाती हैं। वे भी तो लाल झण्डेके नीचे बरफकी तरह सुफेद कपड़े पहने किसीकी गुलाम बनकर नहीं रहतीं । मैं अपने हुए एक इन्सान कह रहा था-"रोटी और दुनियावी खयालोंमें डूबा हुआ था कि कानोंमें सुरीली ख्वाहिशात हासिल करनेका नाम ही ज़िन्दगी है। आवाज़ आई:बाकी सब बातें बुरजुआ लोगोंकी मनघड़न्त हैं"। "ऐ इश्क़ कहीं ले चल इस पापकी दुनियासे”। __जिन्दगी, बस रोटी और ख्वाहिशात हासिल आवाज़की सीधमें निगाह दौड़ाई, दो नौजवान करनेका नाम है ! उफ ! उफ़ !! उफ़ !!! मेरी माँ ने लड़के आँखें फाड़-फाड़कर इन औरतोंको देख रहे बिल्कुल सच कहा था, आदमके बेटे कुत्ते बन गये थे। उनके ओठोंपर हसी खेल रही थी और आँखों हैं कत्ते। लेकिन इनकी सरत तो अभी तक नहीं में वही बेहया चमक थी जो हम कुत्तोंकी आँखोंमें बदली। वह भी बदल जायेगी। मन और वचन कुत्तियोंको देखकर आ जाती है । जब बदल गये हैं तो कायाको भी बदलते क्या * ागरेसे प्रकाशित मार्च माहके उर्दू शायर' से जनाब देर लगेगी? श्राज़ाद शाहपुरीकी कहानीका यह संक्षिप्त अंश साभार .. आखिर हमारी कौमी लुग़त (जातीय कोष) में दिया जारहा है। भी तो खाने-पीन और ख्वाहिशात हासिल करनेका -गोयलीय For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यागका कास्तविक रूप [परिशिष्ट] (प्रवक्ता पूज्य श्रीतुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्य) ताज अकिञ्चन्य धर्म है, पर दो द्वादशी होजानेसे बड़ी बात पूछी, उसमें क्या है ? वही तो अयोध्या है " आज भी त्याग धर्म माना जायगा । त्याग- जिसमें रामचन्द्रजी पैदा हुए थे। अच्छा, बालकाण्डका स्वरूप कल आप लोगोंने अच्छी तरह सुना था। में क्या है ? खूब रही, इतने काण्ड हमने बतलाये, आज उसके अनुसार कुछ काम करके दिखलाना है। एक काण्ड तुम्हीं बतला दो। सभी काण्ड हम ही से __मूर्छाका त्याग करना त्याग कहलाता है। जो पूछना चाहते हो। इसी प्रकार हमारा भी कहना है चीज आपकी नहीं है उसे आप क्या छोडेंगे? वह कि इतने धर्म तो हमने बतला दिये । अब एक त्याग तो छूटी ही है। रुपया, पैसा, धन, दौलत सब आपसे धर्म तुम्हीं बतला दो। और हमसे जो कुछ कहो सो जुदे हैं। इनका त्याग तो है ही। आप इनमें मुर्छा हम त्याग करनेको तैयार हैं-कहो तो चले जायें । छोड़ दो, लोभ छोड़ दो; क्योंकि मूर्छा और लोभ (हँसी)। आपके त्यागसे हमारा लाभ नहीं-आपका नो आपका है-आपकी आत्माका विभाव है । धनका लाभ है। आपकी समाजका लाभ है, आपके राष्ट्रका त्याग लोभकषायके अभावमें होता है । लोभका लाभ है । हमारा क्या है ? हमें तो दिनमें दो रोटियाँ अभाव होनेसे आत्मामें निर्मलता आती है। यदि चाहिएँ, सो आप न दोगे, दूसरे गाँववाले दे देंगे। कोई लोभका त्यागकर मान करने लग जाय-दान आप लुटिया न उठाओगे तो (चुल्लकजीके हाथसे करके अहङ्कार करने लग जाय तो वह मान, कषायका पीछी हाथमें लेकर) यह पीछी और कमण्डलु उठाकर दादा हो गया। 'चूल्हेसे निकले भाडमें गिरे जैसी स्वयं बिना बुलाये आपके यहाँ पहुँच जाऊँगा। पर कहावत होगई। सो यदि एक कषायसे बचते हो तो अपना सोच लो । आज परिग्रहके कारण सबकी उससे प्रबल दूसरी काय मत करो। आत्मा (हाथका इशारा कर) यों काँप रही है। रातदेखें, आप लोगोंमेंसे कोई त्याग करता है या दिन चिन्तित हैं-कोई न ले जाय । कँपने में क्या नहीं। मैं तो आठ दिनसे परिचय कर रहा हूँ । आज धरा? रक्षाके लिये तैयार रहो। शक्ति सश्चित करो।। दूसरेका मुँह क्या ताकते हो ? या अटूट श्रद्धान तुम भी कर लो । इतना काम तुम्ही कर लो। रक्खो जिस कालमें जो बात जैसी होने वाली है वह ____एक आदमीसे एकने पूछा--श्राप रामायण उस कालमें वैसी होकर रहेगी। जानते हो तो बताओ उत्तरकाण्डमें क्या है ? उसने कहा-अरे, उत्तरकाण्डमें क्या धरा ? कुछ ज्ञान 'यदभावि न तद्भावि भावि चेन्न तदन्यथा । ध्यानकी बातें हैं। अच्छा, अरण्यकाण्डमें क्या है ? नग्नत्वं नीलकण्ठस्य महाहिशयनं हरेः ।।' उसमें क्या धरा ? अरण्य वनको कहते हैं, उसीकी यह नीति बच्चोंको हितोपदेशमें पढ़ाई जाती है। कुछ बातें हैं। लङ्काकाण्डमें क्या है ? अरे, लङ्काको जो काम होने वाला नहीं वह नहीं होगा और जो कौन नहीं जानता ? वही तो लङ्का है जिसमें रावण होने वाला है वह अन्यथा प्रकार नहीं होगा । रहा करता था। भैया! अयोध्याकाण्डमें क्या है ? महादेवजी तो दुनियाके स्वामी थे, पर उन्हें एक वस्त्र For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ - अनेकान्त [वर्ष ९ भी नहीं मिला। और हरि (कृष्ण) संसारके रक्षक मैं श्रद्धाकी बात कहता हूँ। वरुआसागरमें मूलचन्द्र थे उन्हें सोनेके लिये मखमल आदि कुछ नहीं मिला। था। बड़ा श्रद्धानी था। उसके पाँच विवाह हुए थे। क्या मिला? सर्प। पाँचवीं स्त्रीके पेट गर्भ था। कुछ लोग बैठे थे, जो जो देखी वीतरागने सो सो होसी वीरा रे ।। मूलचन्द्र था, मैं भी था। किसीने कहा कि मूलचन्द्र अनहोनी होसी नहि कबहूँ काहे होत अधीरा रे॥ ___के बच्चा होगा, किसीने कहा बच्ची होगी, इस प्रकार सभीने कुछ न कुछ कहा । मूलचन्द्र मुझसे बोलाहोगा तो वही जो वीतरागने देखा है, जो बात आप भी कुछ कह दो । मैंने कहा भैया ! मैं निमित्तअनहोनी है वह कभी नहीं होगी। ज्ञानी तो हूँ नहीं जो कह दूं कि यह होगा। वह दिल्लीकी बात है। वहाँ हरजसराय(?) रहते थे। बोला-जैसी एक-एक गप्प इन लोगोंने छोड़ी वैसी करोड़पति आदमी थे । बड़े धर्मात्मा थे। जिन- आप भी छोड़ दीजिए । मुझे कह आया कि बच्चा पूजनका उनके नियम था । जब संवत् १४ (?) की होगा और उसका श्रेयांसकुमार नाम होगा । समय गदर पडी तब सब लोग इधर-उधर भाग गये। आनेपर उसके बच्चा हुआ। उसने तार देकर बाईजीइनके लड़कोंने कहा-पिता जी ! समय खराब है को' तथा मुझे बुलाया। हम लोग पहुँच गये । बड़ा इस लिये स्थान छोड़ देना चाहिये। हरजसरायने खुश हुआ। उसने खुशीमें बहुत सारा गल्ला गरीबोंको कहा-तुम लोग जाओ, मैं वृद्ध आदमी हूँ। मुझे बाँटा और बहुतोंका कर्ज छोड़ दिया । नाम-संस्करण धनकी आवश्यकता नहीं । हमारे जिनेन्द्रकी पूजा के दिन एक थालीमें सौ-दो-सौ नाम लिकर रक्ग्वे कौन करेगा? यदि आदमी रखा जायगा तो वह भी और एक पाँच वर्षकी लड़कीसे उनमेंसे एक कागज इस विपत्तिके समय यहाँ स्थिर रह सकेगा, यह निकलवाया । सो उसमें श्रेयांसकुमार नाम निकल सम्भव नहीं। पिताके आग्रहसे लड़के चले गये । एक आया। मैंने तो गप्प ही छोड़ी थी। पर वह सच घण्टे बाद चोर आये । हरजसरायने स्वयं अपने निकल आई । एक बार श्रेयांसकुमार बीमार पड़ा तो हाथों सब तिजोरियाँ खोल दी । चोरोंने सब सामान गाँवके कुछ लोगोंने मूलचन्द्रसे कहा कि एक सोनेका इकट्ठा किया। लेजानेको तैयार हुए, इतने में एकाएक राक्षस बनाकर कुएको चढ़ा दो। मूलचन्द्रने बड़ी उनके मनमें विचार आया कि कितना भला आदमी दृढताके साथ उत्तर दिया कि यह लड़का मर जाय, है ? इसने एक शब्द भी नहीं कहा । लूटने के लिये मूलचन्द्र मर जाय, उसकी स्त्री मर जाय, सब मर सारी दिल्ली पड़ी है, कौन यही एक है, इस धर्मात्मा- जायें; पर मैं राक्षस बनाकर नहीं चढ़ा सकता। को सताना अच्छा नहीं। हरजसरायने बहुत कहा, श्रेयांसकुमार उसके पाँच विवाह बाद उत्पन्न एक ही चोर एक कणिका भी नहीं ले गये और दूसरे चोर लड़का था फिर भी वह अपने श्रद्धानपर डटा रहा । आकर इसे तङ्ग न करें, इस खयालसे उसके दरवाजे सो श्रद्धान तो यही कहता है। जो मौका आनेपर पर ५ डाकुओंका पहरा बैठा गये। मेरा तो अब भी विचलित होजाते हैं उनके श्रद्धानमें क्या धरा ? विश्वास है कि जो इतना दृढ श्रद्धानी होगा उसका यह पञ्चाध्यायी ग्रन्थ है। इसमें लिखा है कि कोई बाल बाँका नहीं कर मकता। 'बाल न बाँका कर सम्यग्दृष्टि निःशङ्क होता है-निर्भय होता है। मैं सके जो जग ही रिपु होय ।' जिसका धर्मपर अटल आपसे पूछता हूँ कि उसे भय है ही किस बातका ? विश्वास है सारा संसार उसके विरुद्ध होजाये तो भी वह अपने आपको जब अजर, अमर, अविनाशी परउसका बाल बाँका नहीं हो सकता । तुम ऐसा विश्वास पदार्थसे भिन्न श्रद्धन करता है, उसे जब इस बातका करो, तुम्हारा कोई कुछ भी बिगाड़ ले तो मैं विश्वास है कि पर पदार्थ मेरा नहीं है, मैं अनाद्यनन्त जिम्मेदार हूँ; लिखा लो मुझसे । १ वर्णीजीकी माता श्री चिरोंजाबाईजी।-सं० । For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] नित्योद्योत विशद - ज्ञानज्योति स्वरूप हूँ। मैं एक हूँ। पर - पदार्थ से मेरा क्या सम्बन्ध ? अणुमात्र भी परद्रव्य मेरा नहीं है। हमारे ज्ञानमें ज्ञेय आता है पर वह भी मुझसे भिन्न है । मैं रसको जानता हूँ पर रस मेरा नहीं हो जाता। मैं नव पदार्थों को जानता हूँ पर नव पदार्थ मेरे नहीं हो जाते। भगवान् कुन्दकुन्द - स्वामी ने लिखा है त्यागका वास्तविक रूप "अट्टमिको खलुं सुद्धो दंसण-गाणमइओ सदाऽरूवी । वि अस्थिमज्झ किंचि वि अरणं परमाणुमित्तं पि ॥" मैं एक हूं, शुद्ध हूं, दर्शन - ज्ञानमय हूं, अरूपी हूं । अधिककी बात जाने दो परमाणुमात्र भी परद्रव्य मेरा नहीं है। * पर बात यह है कि हम लोगोंने तिलीका तेल खाया है, घी नहीं । इसलिये उसे ही सब कुछ समझ रहे हैं। कहा है- 'तिलतैलमेव मिष्टं येन न दृष्टं घृतं कापि । श्रविदितपरमानन्दो जनो वदति विषय एव रमणीयः ।।' जिसने वास्तविक सुखका अनुभव नहीं किया वह विषयसुखको ही रमणीय कहता है। इस जीवकी हालत उस मनुष्यके समान होरही है जो सुवर्ण रखे तो अपनी मुट्ठी में है पर खोजता फिरता है | अन्यत्र कहाँ धरा ? आत्माकी चीज आत्मामें ही मिल सकती है । एक भद्रप्राणी था । उसे धर्मकी इच्छा हुई। मुनिराजके पास पहुँचा, मुझे धर्म चाहिए । मुनिराजने कहा- भैया ! मुझे और बहुतसा काम करना है । अतः अवसर नहीं । इस पासकी नदीमें चले जाओ उसमें एक नाकू रहता है । मैंने उसे अभी अभी धर्म दिया है वह तुम्हें दे देगा। भद्रप्राणी नाकूके पास जाकर कहता है कि मुनिराजने धर्मके अर्थ मुझे आपके पास भेजा है, धर्म दीजिये । नाकू बोला, अभी लो, एक मिनिटमें लो, पर पहले एक काम मेरा कर दो। मैं बड़ा प्यासा हूँ, यह सामने किनारेपर एक कुा है उससे लोटा भर पानी लाकर मुझे पिला दो, फिर मैं आपको धर्म देता हूँ । भद्रप्राणी कहता हैतू बड़ा मूर्ख मालूम होता है, चौबीस घण्टे तो पानी - १८५ में बैठा है और कहता है कि मैं प्यासा हूं । नाकूने कहा कि भद्र ! जरा अपनी ओर भी देखो। तुम भी चौबीसों घण्टे धर्ममें बैठे हो, इधर-उधर धर्मकी खोजमें क्यों फिर रहे हो ? धर्म तो तुम्हारा आत्माका स्वभाव है, वह अन्यत्र कहाँ मिलेगा । सम्यग्दृष्टि सोचता है जिस कालमें जो बात होने वाली होती है उसे कौन टाल सकता है ? भगवान् आदिनाथको ६ माह श्रहार नहीं मिला । पाण्डवोंको अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान होने वाला था, ज्ञानकल्याण का उत्सव करनेके लिये देवलोग आने वाले थे । पर इधर उन्हें तप्त लोहेके जिरह वख्तर पहिनाये जाते हैं। देव कुछ समय पहले और आजाते ! आ कैसे जाते ? होना तो वही था जो हुआ था । यही सोच कर सम्यग्दृष्टि न इस लोकसे डरता है, न परलोकसे । न उसे इस बात का भय होता है कि मेरी रक्षा करने वाले गढ़, कोट आदि कुछ भी नहीं है । मैं कैसे रहूंगा ? न उसे आकस्मिक भय होता है और सबसे बड़ा मरणका भय होता है सो सम्यग्दृष्टिको वह भी नहीं होता वह अपनेको सदा 'अनाद्यनन्तनित्योद्योतविशदज्ञानज्योति' स्वरूप मानता है । सम्यग्दृष्टि जीव संसारसे उदासीन होकर रहता है । तुलसीदासने एक दोहे में कहा है 'जगतै रहु छत्तीस हो रामचरण छह तीन ।' संसारसे ३६के समान विमुख रहो और रामचन्द्र जीके चरणों में ६३के समान सम्मुख | वास्तवमें वस्तुतत्त्व यही है कि सम्यग्दृष्टिकी आत्मा बड़ी पवित्र होजाती है, उसका श्रद्धान गुण बड़ा प्रबल हो जाता है । यदि श्रद्धान न होता तो आपके गाँव में जो २८ उपवास वाला बैठा है वह कहाँसे आता ? इस लड़कीके (काशीबाईकी श्रोर संकेत करके) आज आठवाँ उपवास है । नत्था कहीं बैठा होगा उसके बारहवाँ उपवास है और एक-एक, दो-दो उपवासवालों की तो गिनती ही क्या है ? 'अलमा कौन पियादों में' ? वे तो सौ, दो-सौ होंगे । यदि धर्मका श्रद्धान न होता तो इतना क्लेश फौकट में कौन सहता ? For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अनेकान्त [वर्ष व्याख्यानकी बात थी सो तो हो चुकी । अब मैं समझता हूँ अच्छा ही होरहा है। पाप करके आपके नगरके एक बड़े आदमीका कुछ आग्रह है सो लक्ष्मीका संचय जिनके लिये करना चाहते हो वे प्रकट करता हूँ। भैया ! मैं तो ग्रामोफोन हूँ, चाहे जो उसके फल भोगनेमें शामिल न होंगे। बाल्मीकिका बजा लेता है जो मुझे जैसी कहता है वैसी ही कह किस्सा है। बाल्मीकि, जो एक बड़ा ऋषि माना देता हूँ। इन बड़े आदमियोंकी इतनी बात माननी जाता है, चोरी-डकैती करके अपने परिवारका पालन पड़ती है; क्योंकि उनका पुण्य ही ऐसा है । अभी करता था। उसके रास्ते जो कोई निकलता उसे वह यहाँ बैठनेको जगह नहीं है पर सेठ हुकुमचन्द्र लूट लेता था। एकबार एक साधु निकले। उनके आजाय तो सब कहने लगोगे, इधर आओ, इधर हाथमें कमण्डलु था । बाल्मीकिने कहा-रख दो आओ । अरे ! हमारी तुम्हारी बात जाने दो, तीर्थङ्कर यहाँ कमण्डलु । साधुने कहा-बच्चे ! यह तो डकैती की दिव्यध्वनि तो समयपर ही खिरती है पर यदि है, इसमें पाप होगा। बाल्मीकिने कहा-मैं पापचक्रवर्ती पहुँच जाय तो असमयमें भी खिरने लगती पुण्य कुछ नही जानता, कमण्डलु रख दो। साधुने है। अपने राग-द्वेष है पर उनके तो नहीं है। चक्र- कहा-अच्छा, मैं यहाँ खड़ा रहूँगा, तुम अपने घरके वर्तीकी पुण्यकी प्रबलतासे भगवानकी दिव्यध्वनि लोगोंसे पूछ आओ कि मैं एक डकैती कर रहा हूँ अपने आप खिरने लगती है । हाँ, तो यह सिंघईजी उसका जो फल होगा, उसमें शामिल हो, कि नहीं ? कह रहे हैं कि महिलाश्रमके लिये अभी कुछ होजाय लोगोंने टकासा जवाब दे दिया-तुम चाहे डकैती तो अच्छा है फिर मुश्किल होगा। भैया ! मैं विद्या- करके लाओ, चाहे साहुकारीसे। हम लोग तो खाने लयको तो मांगता नहीं और उस वक्त भी नहीं मांगे भरमें शामिल है। बाल्मीकिको बात जम गई और थे, पर बिना मांगे ही सेठ २५०००) दे गया तो मैं वापिस आकर साधुसे बोला-बाबा ! मैंने डकैती क्या करूँ मै तो बाहरकी संस्थाओंको देता था, पर छोड़ दी। आप मुझे अपना चेला बना लीजिये। मुझे कह आया कि यदि सागर इतने ही और देवे तो सब वही लेले । आप लोगोंने बहत मिला दिये। बात वास्तविक यही है। आप लोग पाप-पुण्यके कुछ बाकी रह गये सो आप लोग अपना वचन न द्वारा जिनके लिये सम्पत्ति इकट्ठी कर रहे हो वे निभाओगे तो किसीसे भीख मांग दंगा। यह बात कोई साथ देने वाले नहीं हैं। अत: समय रहते महिलाश्रमकी है जैसे बच्चे तैसे बच्चियाँ। आपकी ही सचेत हो जाओ । देखें, आप लोगोंमेंसे कोई हमारा तो हैं । इनकी रक्षामें यदि आपका द्रव्य लगता है तो साथ देता है या नहीं । समय रहते सावधान ! Rece जौलौ देह तेरी काहू रोगसों न घेरी जौलौं, जरा नाहि नेरी जासों पराधीन परि है। जौलौ जमनामा बैरी देय न दमामा जौलौं, माने कान रामा बुद्धि जाइ न विगरि है ॥ तौलौं मित्र ! मेरे निज कारज सँवार ले रे, पौरुष थकेंगे फेर पीछे कहा करि है। अहो आग आये जब झोंपरी जरन लागे, कुआके खुदाये तब कौन काज सरि है॥ -कवि भूधरदास + For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतपुरके सालुवेन्द्र नरेश और जैनधर्म ले०-कामताप्रसाद जैन, सम्पादक 'वीर' अलीगञ्ज (एटा) बाक्षिण भारतके राजवंशोंमें होय्सल राजवंश सर्व मान बादशाहोंसे न जा मिलते तो दक्षिण भारतमें १ अन्तिम हिन्दूशासक कहा जाय तो ब्रेजा नहीं। हिन्दू राज्यका पतन शायद ही होता ! प्रस्तुत लेखमें मुहम्मदराजनीने उसी वंशके राजाको पराजित हम पाठकोंके समक्ष विजयनगर साम्राज्यके एक करके मुसलमानी शासनकी नीव दक्षिणमें डाली थी। प्रसिद्ध सामन्त राजवंशका परिचय उ हिन्दू अपनी स्वाधीनताको खोती हुई देखकर तिल- हैं, जो इतना प्रभावशाली था कि अन्ततो गत्वा उसी मिला उठे। सबका माथा ठनका और सबने यवनोंका वंशका एक पराक्रमी राजा विजयनगर साम्राज्यका विरोध करना निश्चय किया। पहले वैष्णव, शैव, अधिकारी हुआ था। लिङ्गायत और जैनोंकी आपसमें स्पर्धा घलती थी- तुलुबदेशमें संगीतपुर एक बड़ा नगर था। वह यवनोंके आक्रमणने उस स्पर्धाका अन्त कर दिया। हाडुहल्लि नामसे प्रसिद्ध था। आजकल यह स्थान वैष्णव, शैव, जैन और लिङ्गायत कन्धासे कन्धा उत्तर कनाड़ा जिले में है। उस समय यहाँ सालुवेन्द्र मिलाकर जननी जन्मभूमिकी रक्षाके लिये जुट पड़े। नरेश राज्याधिकारी थे। सारे तौलब देशपर उनका सबने मिलकर विजयनगर साम्राज्यकी स्थापना की! शासन चलता था। उनका वंश काश्यपगोत्री चन्द्रहोयसल नरेशके प्रान्तीय शासक महामण्डलेश्वर कुल का क्ष त्रयवंश था। सङ्गीतपुर उस समय निस्संदेह हरिहरराय एक पराक्रमी शासक थे। जनताने उनको एक महान नगर था.। जैनधर्मका वहाँ प्राबल्य था। ही अपना नेता चुनकर विजयनगरके राजसिंहासन- सन् १४८८ ३०के एक शिलालेखमें लिखा है कि पर बैठाया। उनके संरक्षणमें हिन्दू-शासनकी रक्षा "तौलबदेशमें सङ्गीतपुर सौभाग्यका ही निकेत था। हुई ! किन्तु यह हिन्दू साम्राज्य साम्प्रदायिकताके उसमें उत्तुङ्ग चैत्यालय बने हुए थे। वहाँपर सुखी, विषसे मुक्त था। पाकिस्तानकी तरह उसमें अल्प- समुदार और भोग-विलासमें मग्न नागरिक रहते थे। संख्यकोंका शोषण और निष्कासन नहीं किया गया हाथी-घोड़ोंसे वह भरा था। वहाँ बड़े-बड़े योद्धा, था। मुसलमान भी विजयनगरके हिन्दू साम्राज्यमें उच्चकोटिके कविगण, वादी और प्रवक्ता रहते थे । आजादीसे रहते ही नहीं, बल्कि राज्यशासनमें उच्च- मानो वह नगर सरस्वतीका आवास होरहा था। पदोंपर आसीन थे। विजयनगरके कई सेनापति भी उच्च साहित्यका निर्माण जो वहाँ होता था। अपनी मुसलमान थे। इन मुसलमान कर्मचारियोंने हमेशा ललित कलाओंके लिये भी वह प्रसिद्ध था।" मतसहिष्णुताका परिचय दिया–यहाँ तक कि उन्होंने सङ्गीतपुरमें उस समय महामण्डलेश्वर सालुवेन्द्र हिन्दू देवता और गुरुको दान भी दिये । किन्तु शासन कर रहे थे । वह सालुवेन्द्र नरेश जिनेन्द्र इतना होते हुए भी उन्होंने हिन्दुओंकी समुदार-वृत्ति- चन्द्रप्रभुके चरण-चश्चरीक बने हुए थे। उनका हृदय का अवसर मिलते ही दुरुपयोग किया ! कदाचित् रत्नत्रयधर्मके लिए सुदृढ़े मंजूषा था। उन्होंने सङ्गीतविजयनगर हिन्दू साम्राज्यके कतिपय सामन्तगण पुरमें अतीव उत्तुङ्ग और नयनाभिराम जिन चैत्यालय स्वार्थमें बहकर राजद्रोह न करते और विजयनगरकी बनवाये थे, जिनके विशाल मण्डप और सुन्दर मुसलमान सेना और सेनापति धोखा देकर मुसल- मानस्तम्भ बने हुए थे। धातु और पाषाणकी भव्य For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ मूर्तियाँ भी उन्होंने निर्माण कराई थीं । नगर में मनोरम पुष्पवाटिकाएँ ( Parks) बनवाकर उन्होंने नगरकी शोभाको बढ़या था और नागरिकों को सुखसुविधा प्रदान की थी। नागरिक उनमें जाकर नन्दकेलि करते थे । इतनेपर भी सालुवेन्द्रको इस बात का ध्यान था कि नगर में धर्ममर्यादा अक्षुण्णं रहे । इसीलिये वह मन्दिरोंकी धर्मव्यवस्था ठीक रखनेके लिए सतर्क रहते थे । मन्दिरोंमें नियमित धर्म क्रियाएँ होती रहें, इसके लिए उन्होंने दानव्यस्था की थी । देवपूजा, चतुविध दान और विद्वानोंको निरन्तर वृत्तियाँ दी जाती थीं । सारांश यह कि सालुवेन्द्र नरेशने राजत्वके आदर्शको निभाया और धर्ममर्यादाको आगे बढ़ाया था ! अनेकान्त इन सालुवेन्द्र नरेशके राजमन्त्री भी राजवंशके रत्न थे । उनका नाम पद्म अथवा पद्मण था । राजमर्यादाको स्थिर रखने में उनका उल्लेखनीय हाथ था । इसी से प्रसन्न होकर सालुवेन्द्रने उनको श्रगेयकेरे नामक ग्राम भेंट किया ! किन्तु पद्म इतने समुदार और धर्मवत्सल थे कि उन्होंने वह ग्राम जिनधर्मके उत्कर्षके लिये दान कर दिया । 'जैनंजयतु- शासनं ' सूत्र मूर्तमान इस प्रकार ही था । उन्होंने अपने नामपर 'पद्माकरपुर' नामक ग्राम बसाया था । सन् १४९८ ई० में उन्होंने उस ग्राममें एक भव्य जिनालय निर्माण कराया और उसमें भगवान पार्श्वनाथ की दिव्यमूर्ति विराजमान की थी। महामण्डलेश्वर इन्दगरस घोडेयरकी इच्छानुसार उन्होंने उसके लिए भूमिदान दिया था । उस मन्दिरमें निरन्तर अभय ज्ञान - भैषज्य आहार दान दिया जाता था। जैन मन्दिर लोकोपकारक शिक्षाके केन्द्र होरहे थे - वे भुवनाश्रय थे । जीवमात्र उनमें पहुँच कर अपना आत्मकल्याण करते थे । महामण्डलेश्वर इन्दगरस सालुवेन्द्रनरेशके छोटे थे । वे महामण्डलेश्वर साङ्गिराज के पुत्र थे । इन्दगरस 'इम्मडि सालुवेन्द्र' नामसे प्रसिद्ध थे। उनका नाम सैनिक प्रवृत्तियों के कारण खूब चमक रहा था । वह एक बहादुर योद्धा थे । सन् १४९१के एक शिलालेख [- वर्ष ९ में उनके शौर्यका विवरण है। उसमें लिखा है कि उन्होंने शौर्य देवताको जीत लिया था । कर्मसूर होनेके साथ वह धर्मसूर भी थे । धर्मकार्य वह निरन्तर करते थे । बिडिरू ( वेणुपुर ) में वर्द्धमान स्वामीका मन्दिर था । इन्दगरसने उस मन्दिर के प्राचीन भूमिदानका पुनरुद्धार जैनधर्मको उन्नत बनानेके लिये किया था । सङ्गीतपुर के अवशेष नरेशों में सालुब मल्लिराय, सालु देवराय और सालुब कृष्णदेव जैनधर्मके प्रसङ्गमें उल्लेखनीय है । कृष्णदेवकी माता पद्माम्बा विजयनगर सम्राट् देवराय प्रथमकी बहन थीं । सन १५३० ई० के दानपत्रसे स्पष्ट है कि इन तीनों राजाओं ने प्रसिद्ध जैनगुरु वादी विद्यानन्दको आश्रय दिया था। सालुब मल्लिराय और सालुब देवरायने राजदरबारों में उन्होंने परवादियोंसे सफल वाद किया था । कृष्णदेवने श्रीविद्यानन्दके पाद- पद्मोंकी पूजा की थी । (मेडियावल जैनीज्म, पृष्ठ ३१४-३१८ देखें) -सन् १५२९ ई०के एक लेखसे स्पष्ट है कि सम्राट कृष्णराय के शासनकाल में सङ्गीतपुरका शासनसूत्र गुरूरायके हाथमें था, जो जेरसप्पे के शासकोंसे सम्बन्धित थे । गुरूराय भी अपने पूर्वजोंके समान जैनधर्मके अनन्य भक्त थे । वह 'रत्नत्रयधर्माराधक''जैनधर्मध्वजारोहक ' - 'स्वर्णिम जिनमन्दिरों और मूर्तियोंके निर्माता' कहे गये हैं। इन विरुदोंसे उनकी जिनधर्मके प्रति भक्ति और श्रद्धा प्रगट होती है । इनकी सन्ततिमें हुए भैरव नरेशने आचार्य वीरसेनकी आज्ञानुसार वेणुपुर के 'त्रिभुवनचूड़ामणि- वस्ती' नामक मन्दिरकी छतपर ताँबेके पत्र लगवाये थे । उनके कुलदेव भगवान पार्श्वनाथ और राजगुरु पण्डिताचार्य वीरसेन थे। उनकी रानी नागलदेवी भी भक्तवत्सला श्राविका थी उन्होंने उपर्युक्त मन्दिर के सम्मुख एक सुन्दर मानस्तम्भ बनवाया था। उनकी पुत्रियाँ (१) लक्ष्मीदेवी और (२) पण्डितादेवी भी अपनी माँकी तरह धर्मात्मा थीं । वे निरन्तर जैन साधुओं को दान दिया करती थीं। जब भैरव नरेश For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म बनाम समाजवाद (लेखक-पं० नेमिचन्द्र जैन शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, साहित्यरत्न ) माजके प्रगतिशील युगमें वे ही शक्तियाँ, सामा- सब आत्माओंका स्वभाव एक समान है; किन्तु इन का जिकप्रथाएँ एवं प्राचारके नियम जीवित्त संसारी आत्माओं में संस्कार-कर्मजन्य मैल रहता है रह सकते है जो लोग समाजको चरम विकासकी जिससे इनके भावोंमें, शरीरकी रचनामें तथा इनके ओर ले जा सकें । जैनधर्मका लक्ष्य विन्दु भी अन्य क्रिया-कलापोंमें अन्तर है । यदि यह संस्कारएकमात्र मानव समाजको आध्यात्मिक, आर्थिक, विषय वासना और कषायोंसे उत्पन्न कर्मजन्य सामाजिक और राजनैतिक दृष्टिसे विकासकी ओर मलिनता दूर हो जाय तो सबका स्वभाव एक समान लेजाना है। जैनाचार्योने जीवन के प्रारम्भिक विन्दुको प्रकट हो जायगा' । उदाहरणके तौरपपर यों कहा (Starting point) उसी स्थानपर रखकर जीवन- जा सकता है कि कई एक जलके भरे हुए घड़ोंमें गति रेखाको आरम्भ किया है, जहाँसे मानव नाना प्रकारका रङ्ग घोल दिया जाय तो उन घड़ोंका समाजके निर्माणका कार्य प्रारम्भ होता है। पानी एकसा नहीं दिखलाई पड़ेगा; रङ्गोंके सम्बन्धसे ___ जिस प्रकार स्वतन्त्रता व्यक्तिवाद (Indivi- नाना प्रकारका मालूम होगा । किन्तु बुद्धि पूर्वक dualism)की कुञ्जी मानी जाती है, उसी प्रकार विचार करनेसे सभी घड़ोंका पानी एकसा है, केवल समानता समाजवादकी । जैनधर्ममें समस्त जीव- परसंयोगी विकार के कारण उनके जल में कुछ भिन्नता धारियोंको आत्मिक दृष्टि से समानत्वका अधिकार मालूम पड़ती है। अतएव सभी प्राणियोंकी आत्माएँ प्राप्त है। इसमें स्वातन्त्र्यको बड़ी महत्ता दी गई है। समान है-All souls are similar as regards संसारके सभी प्राणियोंकी आत्मामें समानशक्ति है their true real nature. तथा प्रत्येक संसारी प्राणीकी आत्मा अपनी भूलसे आध्यात्मिक दृष्टिसे समस्त समाजको एक स्तरपर अवनति और जागरूकतासे उन्नति करती है, इसका लानेके लिये ही सबसे आवश्यक यह है कि समस्त भाग्य किसी ईश्वर विशेषपर निर्भर नहीं है। प्रत्येक प्राणियोंको परमात्मस्वरूप माना जाय । जैनधर्ममें जीवधारीके शरीरमें पृथक् पृथक आत्मा होनेपर भी इसीलिये परमात्माकी शक्ति जीवात्मासे अधिक नहीं रोगग्रस्त हुए तो वह जिनेन्द्र भगवानकी शरणमें मानी है और न जीवात्मासे भिन्न कोई परमात्मा ही पहुँचे। रोगमुक्त होनेके लिये उन्होंने जिन पूजा की . माना है । इस प्रकार परमात्मा एक नहीं, अनेक हैं। और दान दिया। ऐसे दृढ़ श्रद्धानी यह राजपुरुष थे। जो कषाय और वासनाओंसे उत्पन्न अशुद्धतासे छट उनकी धर्म श्रद्धा उन्हें सुखी और सम्पन्न बनाने में कर मुक्त हो जाता है, वही एक समान गुणधारी कारणभूत थी। आजका जगत उनके आदर्शको देखे परमात्मा हो जाता है । अल्पज्ञानी एवं विषय और धर्मके महत्वको पहिचाने तो दुख-शोक १–नयत्यात्मानमात्मैव जन्मनिर्वाणमेव च । भूल जावे ! गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ॥ ___ इस प्रकार विजयनगर साम्राज्यके एक जैन -समाधिशतक श्लोक ७५ धर्मानुयायी सामन्त राजवंशका परिचय है। इनके २-स्वबुद्धथा यावद गृहीयात् कायवाचेतसा त्रयम् । - साथ अन्य सामन्तगण भी जिनेन्द्र भक्त थे। उनका संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निवृतिः ॥ परिचय कभी आगे पाठकोंकी नजर करेंगे। -समाधिशतक श्लोक ६२ For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० अनेकान्त [वर्ष ९ वासनाओंमें आसक्त प्राणीको भी यह परमात्मा विशेषताओंके कारण अपने उत्थान और पतनमें होनेकी योग्यता वर्तमान है। परमात्मा हो जानेपर पुद्गल (Matter) को निमित्त कारण-सहायक इच्छाओंका अभाव होजता है और शरीर, मन, बना लेता है। इसलिये जीवके परिणामोंकी प्रेरणा वचन नहीं रहते जिससे उन्हें किसी भी कामके करने मन, वचन और कायके परिस्पन्दनसे पुद्गलके की चिन्ता नहीं होती है, न किसी कामकी वे. परिमाणु अपनी शक्ति विशेषके कारण जीवसे आकर आज्ञा देते हैं, अतएव जगतकतृत्वका प्रसङ्ग इन चिपट जाते हैं, जिससे जीवके स्वाभाविक गुण राग-द्वेषसे रहित स्वतन्त्र परमात्माओंको प्राप्त मलिन होजाते हैं। यह मलिनता सदासे चली आरही नहीं होता' है। है, जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा इसे अलग कर पर____यह विश्व सदासे है और सदा रहेगा; (world मात्मा बन जाता है। is eternal) न कभी बना है और न कभी नाश पुगल-यह द्रव्य मूर्तिक है, इसमें रूप, रस, होगा। इसमें प्रधानतः जड और चेतन दो प्रकारके गन्ध और स्पशे चार गुण पाये जाते हैं। जितने पदार्थ हैं । इनका कभी नाश नहीं होता है, पदार्थ हमें आँखोंसे दिखलाई पड़ते हैं वे सब केवल इनकी अवस्थाएँ बदला करती हैं। इस परि- पौगलिक हैं । इसमें मिलने और बिछुड़नेकी योग्यता वर्तनमें भी कोई बाह्य ईश्वरादि शक्ति कारण नहीं है यह स्कन्ध-पिण्ड और परमाणुके रूपमें पाया है; किन्तु षड्द्रव्योंका स्वाभाविक परिणमन ही जाता है। शब्द (sound), बन्ध (union), सूक्ष्म कारण है। जैन मान्यतामें जीव, पुदल, धर्म, अधर्म, (ineness), स्थूल (grassness), संस्थान-भेदआकाश और काल ये छः द्रव्य माने गये हैं. इन तमच्छाया (shape, division, darkness and समवाय-एकीकरण ही लोक२ है। इन image),.उद्योत-आतप (lustre heat) ये सब द्रव्योंमें गुण और पर्याय ये दो प्रकारकी शक्तियाँ हैं। पुद्गल द्रव्यकी पर्यायाएँ (modification) हैं। इसके जो एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यसे पृथक् करता है उसे अनेक भेद-प्रभेद और भी बताये गये हैं, जिनसे गुण एवं द्रव्योंकी जो अवस्थाएँ बदलती हैं उन्हें जीवोंके प्रायः सभी व्यवहारिक कार्य चलते हैं। पयोय कहते हैं। गुण और पर्यायोंके कारण ही धर्मद्रव्य'-जैन आम्नायमें इसे पुण्य-पापरूप द्रव्योंकी व्यवस्था होती है। नहीं माना गया है, किन्तु जीवों और पुद्गलोंके हलन___ जीव-चैतन्य ज्ञानादि गुणोंका धारी जीव चलनमें बाहिरी सहायता (Assists the moveद्रव्य है। यह अपनी उन्नति और अवनति करने में ment of moving) प्रदान करने वाले सूक्ष्म स्वतन्त्र है, किसी के द्वारा शासित नहीं है, इसका अमूत्ते पदार्थको धर्मद्रव्य माना है। यह आते, जाते, विकास अपने हाथों में है, इसे स्वतन्त्र होनेके लिये " गिरते, पड़ते, हिलते, चलते पदार्थों को उनकी गतिमें किसीके आश्रित रहनेकी आवश्यकता नहीं। किन्त मदद करता है, बलपूर्वक किसीको नहीं चलाता, इतनी बात अवश्य है कि जीव अपनी स्वाभाविक किन्तु उदासीनरूपसे चलते हुए पदार्थोंकी गतिमें सहायक होता है । इसका अस्तित्व समस्त लोकमें १ अट्टविहकम्मवियला सीदीभदा णिरंजणा णिच्च । पाया जाता है। अगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥ The Jain philosophers mean by Dha-गो० सा० जी० गा०६८ rama kind of ether, which is the ful २ लोगो अकिट्टिमो खलु अणाइ णिहणो सहावणिव्वत्तो । crum of Motion, with the help of जवाजीवहिं फुडो सब्वागासावयवो णिच्चो । Dharam, Pudgala and Jiva move. -त्रिलोकसागर गा०४ -द्रव्यसंग्रह पृष्ट ५२ For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] जैनधर्म बनाम समाजवाद १९१ अधर्मद्रव्य-यह अमूर्तिक पदार्थ स्थिर होने समाजमेंसे शोषित और शोषक वर्गकी समाप्ति कर वाले जीव और पुदलोंको स्थिर होने में सहायता आथिक दृष्टि से समाजको उन्नत स्तरपर लाते हैं। (Assists the staying of) करता है। उसका अहिंसा-प्रधान जैनधर्ममें समस्त प्राणियोंके साथ अस्तित्व भी समस्त लोकमें पाया जाता है। मैत्रीभाव रखकर समाजके विकासपर जोर दिया • आकाशद्रव्य-जो सब द्रव्योंको अवकाश- है। मानवकी कोई भी क्रिया केवल अपने स्वार्थकी स्थान (space) देता है उसे आकाशद्रव्य कहते हैं। पूर्तिके लिये नहीं होनी चाहिये, बल्कि उसे समस्त इसके दो भेद हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । समाजके स्वार्थको ध्यानमें रखकर अपनी प्रवृत्ति अनन्त आकाशके मध्यमें जहाँ तक जीव, पुद्गल, धर्म, करनी चाहिये । इसी कारण समस्त समाजको सुखी अधर्म पाये जायँ उसे लोकाकाश' (universe) बनानेके लिये व्यक्तिसे समाजको अधिक महत्व और जहाँ केवल आकाशद्रव्य ही हो उसे अलोका- दिया गया है तथा समाजकी इकाईके प्रत्येक घटकका काश (non-universe) कहते हैं। दायित्व समानरूपमें बताया गया है। ___ कालद्रव्य-जिसके निमित्तसे वस्तुओंकी अव- अपरिग्रहवाद-अपने योगक्षेमके लायक भरणस्थाएँ बदलती हैं उसे कालद्रव्य कहते हैं। पोषणकी वस्तुओंको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर अभिप्राय यह है कि इन छः द्रव्यों (Subs- जीवन यापन करना, अन्याय और अत्याचार-द्वारा tences) में काम करने वाले (Actors) संसारी- पुञ्जीका अजेन न करना अपरिग्रह है। शास्त्रीय दृष्टिअशुद्ध जीव और पुदल हैं, ये चलना, ठहरना, से पूर्ण परिग्रहका त्याग तो साधु-अवस्थामें ही स्थान पाना एवं बदलना-परिवर्तन ये चार कार्य सम्भव है, किन्तु उपयुक्त परिभाषा गृहस्थ जीवनकी करते रहते हैं। उनके कार्यों में क्रमशः धर्मद्रव्य, दृष्टिसे दी गई है । जैन संस्कृतिमें परिग्रहपरिमाण 'के अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य निमित्त साथ भोगोपभोगपरिमाणका भी कथन किया है। कारण (Auxiliary cause) अर्थात् सहायक होते जिसका तात्पर्य यह है कि वस्त्र, आभरण, भोजन, हैं। इस प्रकार विश्वकी सारी व्यवस्था बिना किसी ताम्बूल आदि भोगोपभोगकी वस्तुओंके सम्बन्धमें प्रधान शासक-ईश्वर कर्त्ताके सुचारुरूपसे बन भी समाजकी परिस्थितिको देखकर उचित नियम जाती है । सभी द्रव्य अपने अपने विशेष गुणोंके करना मानवमात्रके लिये आवश्यक है । उपर्युक्त कारण अपने-अपने कार्यको करते रहते हैं। इन दोनों व्रकि समन्वयका अभिप्राय यह है कि समस्त सांसारिक कार्योंमें जीव और पुद्गल उपादान कारण मानव समाजकी श्राथिक अवस्थाको उन्नत बनाना। और अन्य द्रव्य निमित्त कारण होते हैं । चन्द लोगोंको इस बातका कोई अधिकार नहीं कि वे १ वास्तु क्षेत्र धान्यं दासी दासश्चतुष्पद भाण्डम् । - आर्थिक दृष्टिकोण . परिमेयं कर्त्तव्यं सर्व सन्तोषकुशलेन ॥ आर्थिक दृष्टिसे समाजको समान स्तरपर लाना -अमितगतिश्रावकाचार पृष्ठ १६२ जैनधर्मका एक विशिष्ट सिद्धान्त है। जैन संस्कृतिके ममेदमिति संकल्पश्चिदचिन्मिश्रवस्तुष । प्रधान अङ्ग अपरिग्रह और संयमवाद ये दोनों ही ग्रन्थस्तत्कर्शनात्तेषां कर्शनं तत्प्रमाव्रतम् ॥ १ धम्माधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये। -सा० ध० अ०४, श्लोक ५९ श्रायासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥ २ तांबूलगन्धलेपनमजनभोजनपुरोगमो भोगः । -द्रव्यसंग्रह गा०२० उपभोगो भषास्त्रीशयनासनवस्त्रवाहाद्याः ॥ लोकतीति लोक:-लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति भोगोपभोगसंख्या विधीयते शक्तितो भक्तथा। लोकः । -तत्त्वार्थ राजवार्त्तिक ५। १२ अमितगतिश्रावकाचार पृ० १६८ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ शोषण कर आर्थिक दृष्टिसे समाज में विषमता उत्पन्न करें । यद्यपि इतना सुनिश्चित है कि समस्त मनुष्यों में उन्नति करनेकी शक्ति एकसी न होनेके कारण समाज आर्थिक दृष्टि समानता स्थापित होना कठिन है, तो भी जैनधर्म समस्त मानव समाजको लौकिक उन्नति के समान अवसर एवं अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार उन्नति करने के लिये स्वतन्त्रता देता है । क्योंकि परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाण का एक मात्र लक्ष्य समाजकी आर्थिक विषमताको दूर कर सुखी बनाना है । वस्तुतः अपरिग्रहवाद पूंजीवादका विरोधी सिद्धान्त है और यह समाजको समाजवादकी प्रणालीपर संगठित होनेके लिये प्रेरणा देता है । इसी लिये जैन ग्रन्थोंमें परिग्रहको महा - पाप बतलाया है, क्योंकि शोषणकर्त्ता हिंसा, झूठ, चोरी आदि सभी पापों को करने वाला ' 1 अनेकान्त परिग्रहके दो भेद हैं- बाह्य परिग्रह और अन्तरङ्ग परिग्रह । बाह्य परिग्रह में धन, भूमि, अन्न, वस्त्र आदि बस्तुएँ परिगणित हैं । इनके सञ्चयसे समाजको आर्थिक विषमताजन्य कष्ट भोगना पड़ता है, अतः वश्यकता भर ही इन वस्तुओंको ग्रहण करना चाहिये, जिससे समाज के किसी भी सदस्यको कष्ट न हो और समस्त मानवसमाज सुखपूर्वक अपने जीवनको बिता सके । अन्तरङ्गपरिग्रहमें वे भावनाएँ शामिल हैं जिनसे धन-धान्यका संग्रह किया जाता है, दूसरे शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि सञ्चयशील बुद्धिका नाम ही अन्तरङ्गपरिग्रह है । यदि बाह्य परिग्रह छोड़ भी दिया जाय और ममत्व बुद्धि बनी रहे तो समाजकी छीना१ तन्मूलाः सर्वदोषानुषगाः - स परिग्रहो मूल मेषां ते तन्मूलाः । के पुनस्ते सर्वदोषानुषंगाः, ममेदमिति हि सति संकल्पे रक्षणादयः संजायते । तत्र च हिंसावश्यं भाविनी तदर्थंमनृतं जल्पति चौर्य चाचरति मैथुने च कर्मणि प्रतियतते । - राजवार्तिक पृ० २७६ अविश्वासतमोनक्कं लोभानलघृताहुतिः । श्रारम्भमकराम्भोधिरहो श्रेयः परिग्रहः ॥ - सागारधर्मामृत ० ४ श्लो० ६३ [ वर्ष ९ झपटी दूर नहीं हो सकती । इसलिये जैन मान्यताने अन्तरङ्ग, लोभ, माया, क्रोध आदि कषायोंके छोड़ने को विशेष महत्व दिया है । सारांशरूपमें अपरिग्रहकी स्पष्ट परिभाषा यों कही जा सकती है कि यह वह सिद्धान्त है जो पूंजी और जीवनोपयोगी अन्य आवश्यक वस्तुओंके अनुचित संग्रहको रोककर शोषणको बन्द करता है, जिससे मानवीय दशाओंकी भीषणता लुप्त होजाती है । पूंजी की प्राप्तिको ईश्वर की कृपा या भाग्यका फल एवं दरिद्रता - गरीबीको ईश्वर की कृपा या भाग्यका कुपरिणाम जैनधर्म में नहीं माना गया है। बल्कि जैन' कर्मसिद्धान्त में स्पष्टरूपसे कहा गया है कि साताकर्मके उदयसे परिणामोंमें शान्ति और असाता कर्मके उदयसे परिणामों में अशान्ति होती है । लक्ष्मीकी प्राप्ति किसी कर्मके उदयसे नहीं होती है, किन्तु सामाजिक व्यवस्था ही पूंजी के अर्जनमें कारण है। हाँ धनकी प्राप्ति, अप्राप्तिको साता, असाताके उदयमें नोकर्म-कर्मोदय में सहायक कारण माना जा सकता है । अतएव सामाजिक व्यवस्था में सुधार कर समाज के प्रत्येक सदस्यको उन्नतिके समान अव सर प्रदान करना प्रत्येक मानवका कर्त्तव्य है । संयमवाद—संसारमें सम्पत्ति एवं भोगोपभोग की सामग्री कम है, भोगने वाले ज्यादा हैं और तृष्णा भी अधिक है, इसीलिये प्राणियों में परस्पर संघर्ष और छीना-झपटी होती है, फलतः समाजमें नाना प्रकार के अत्याचार और अन्याय होते हैं जिससे अहर्निश समाजमें दुःख बढ़ता जाता है । परस्पर में ईर्षा, द्वेषकी मात्रा और भी अधिक है जिससे एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिको उन्नतिका अवसर ही नहीं मिलने देता । इन सब बातोंका परिणाम यह होता है। कि समाज में संघर्षकी मात्रा बढ़कर विषमतारूपी जहर उत्पन्न होजाता है । १ देखें, श्री पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित कर्मव्यवस्था शीर्षक निबन्ध, जो शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] जैनधर्म बनाम समाजवाद १९३ इस हलाहलकी एकमात्र औषधि संयमवाद है। और उसके विकासका साधन तो माना ही है, पर यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छाओं, वासनाओं और इसका रहस्य सामाजिक आर्थिक व्यवस्थाको सुदृढ कषायों पर नियन्त्रण रखकर छीना-झपटीको दूर बनाना है। शासित और शासक या शोषित और कर दे तो समाजमेंसे आर्थिक विषमता अवश्य दर शोषक इन वाँकी बुनियाद भी संयमके पालन-द्वारा होजाय तथा सभी सदस्य शारीरिक आवश्यकताओं दूर होजायगी। क्या आजका समाज स्वार्थ-त्यागकी की पूर्ति निराकुलरूपसे कर सकें। कठिन तपस्या कर वर्गसंघर्षको दूर कर सकेगा। __ संयमके दो भेद हैं-इन्द्रियसंयम और प्राणि सामाजिक दृष्टिकोण । संयम । इन्द्रियोंको वशमें करना इन्द्रियसंयम है । इस ___समस्त प्राणियोंको उन्नतिके अवसरों में समानता संयमका पालने वाला अपने जीवनके निर्वाहके लिये प्रदान करना जैनधर्मका सामाजिक सिद्धान्त है । इस इन्द्रियजय-द्वारा कमसे कम सामग्रीका उपभोग सिद्धान्तका व्यावहारिकरूप अहिंसाकी बुनियादपर करता है, शेष सामग्री अन्य लोगोंके काम आती है, आश्रित है। इसी कारण जैन अहिंसाका क्षेत्र इतना इससे संघर्ष कम होता है और विषमता दूर होती है। अधिक विस्तृत है कि उससे जीवनका कोई भी कोना यदि एक मनुष्य अधिक सामग्रीका उपभोग करे तो अछूता नहीं है । परस्पर भाई-भाईकासा व्यवहार दूसरोंके लिये सामग्री कम पड़ेगी तथा शोषणकी करना, एक दूसरेके दुःखदर्दमें सहायक होना, दूसरों शरुपात भी यहींसे हो जायगी। समाजमें पूंजीका को ठीक अपने समान समझना, हीनाधिककी समान वितरण होजानेपर भी जबतक तृष्णा शान्त भावनाका त्याग करना, अन्य लोगोंकी सुखसुविधाओं नहीं होगी, अवसर मिलनेपर मनमाना उपभोग को समझना तथा उनके विपरीत आचरण न करना लोग करते ही रहेंगे तथा वर्ग-संघष चलता रहेगा। अहिंसा है। जैनधर्मकी अहिंसाका ध्येय केवल मानव अतएव आर्थिक वैषम्यको दूर करने के लिये अपनी समाजका ही कल्याण करना नहीं है, किन्तु पशु, इच्छाओं और लालसाओंको प्रत्येक व्यक्तिको पक्षी, कीडे, मकोड़े आदि समस्त प्राणियोंको जानदार नियन्त्रित करना होगा, तभी समाज सुखी और समझकर उन्हें किसी प्रकारका कष्ट न देना, उनकी समृद्धिशाली बन सकेगा। उन्नति और विकासकी चेष्टा करना, सर्वत्र सुख और प्राणिसंयम-अन्य प्राणियोंको किश्चित् भी शान्ति स्थापित करनेके लिये विश्वप्रेमके सुत्रमें आबद्ध दुःख न देना प्राणिसंयम है । अर्थात संसारके होना सम्प्रदाय, जाति या वगगत वैषम्यको दूर समस्त प्राणियोंकी सुख-सुविधाओंका पूरा-पूरा करना है। खयाल रखकर अपनी प्रवृत्ति करना, समाजक प्रति मानवका सामाजिक सम्बन्ध कुछ हद तक पाशअपने कतव्यको अदा करना एव व्यक्तिगत स्वार्थ विक शक्तियों के द्वारा सचालित होता आ रहा है। भावनाको त्याग कर समस्त प्राणियोक कल्याणकी इसका प्रारम्भ कुछ अधिनायकशाही मनोवृत्तिके भावनासे अपने प्रत्येक कार्यको करना प्राणिसंयम है। व्यक्तियों द्वारा हुआ है जो अपनी सत्ता समाजपर इतना निश्चित है कि जबतक समर्थ लोग संयम- लादकर उसका शोषण करते रहते हैं। अहिंसा ही पालन नहीं करेंगे तबतक निर्बलोंको पेट भर भोजन एक ऐसी वस्तु है जो मानवकी मानवताका मूल्याङ्कन नहीं मिल सकेगा और न समाजका रहन-सहन ही कर उपर्युक्त अधिनायकशाहीकी मनोवृत्तिको दूर कर ऊँचा हो सकेगा । जैनाचार्योंने संयमको आत्मशुद्धि सकती है। पाखण्ड और धोखेबाजीकी भावनाएँ ही १ कषत्यात्मानमिति कषायः क्रोधादिपरिणामः, कषति ससारमें अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्राज्यवादकी हिनस्त्यात्मानं कुगतिप्रापणादिति कषायः । नींवको दृढ करती हैं। क्योंकि सत्ता और धोखा -राजवार्तिक पृ० २४८ ये दोनों ही एक दूसरेपर आश्रित हैं तथा इन्हें एक For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ अनेकान्त [वर्ष ९ ही कार्यके दो भेद कहा जा सकता है । चन्द व्यक्ति यथार्थ रीतिसे सम्पादित करने के लिये विश्वासघातक, सत्ताके द्वारा जिस कार्यको सम्पादित नहीं कर सकते, परनिन्दा एवं परपीड़ाकारक, आत्मप्रशंसक एवं स्वार्थउसीको धोखे द्वारा पूरा करते हैं। जब शोषितवर्ग साधक वचनोंका त्याग करना चाहिये । सचाई ही उस सत्ताके प्रति बगावत करता है तो ये सत्ताधारी समाजकी व्यवस्थाको मजबूत बना सकती है। अपने प्रचार और बल प्रयोग द्वारा उसे दबानेका अस्तैय (अचौर्य) की भावना मानवके हृदयमें प्रयत्न करते हैं; इस प्रकार सघर्षका क्रम चलता अन्य व्यक्तियोंके अधिकारोंके लिये स्वाभाविक रहता है। अहिंसाकी दैवीशक्ति ही इस संघर्षकी सम्मान जागृत करती है। इसका वास्तविक रहस्य प्रक्रियाका अन्त कर वर्गसंघर्षको दूर कर सकती है। यह है कि किसीको दूसरेके अधिकारोंपर हस्तक्षेप जैनधर्ममें कुविचार' मात्रको हिंसा कहा है। करना उचित नहीं है, बल्कि प्रत्येक अवस्थामें दंभ, पाखंड, ऊँच-नीचकी भावना, अभिमान, स्वार्थ- सामाजिक हितकी भावनाको ध्यान में रखकर ही बुद्धि, छल-कपट, प्रभृति समस्त भावनाएँ हिंसा हैं। कार्य करना उचित है। यहाँ इतना स्मरण रखना समाजको सुव्यवस्थित करने के लिये अहिंसाका आवश्यक है कि अधिकार वह सामाजिक वातावरण विस्तार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहके है जो व्यक्तित्वकी वृद्धिके लिये आवश्यक और रूपमें किया गया है। सहायक होता है। यदि इसका दुरुपयोग किया जाय तो सामाजिक जीवनका विकास या हास भी सत्य (truthfullness)-अहिंसाकी भावना सच्चाईके सिद्धान्तसे पूरी तरह सम्बद्ध है। यह पहले इसीपर अवलम्बित होजाता है। इसलिये जैनाचार्यों अधिकारको व्यक्तिगत न मानकर सामाजिक माना कहा गया है कि सत्ता और धोखा ये दोनों ही है और उनका कथन है कि समाजके प्रत्येक घटकको समाजके अकल्याणकारक हैं, इन दोनोंका जन्म अपने अधिकारोंका प्रयोग ऐसा करना होगा जिससे झूठसे होता है, झूठा व्यक्ति आत्मवश्वना तो करता ही है किन्तु समाजकी नींवको घुनकी भांति खा जो वैयक्तिक जीवनमें अधिकार है सामाजिक जीवन अन्य किसीके अधिकारमें बाधा उपस्थित न हो। जाता है । प्रायः देखा जाता है कि मिथ्याभाषणका में वही कर्तव्य होजाता है, इमलिये अधिकार और आरम्भ खुदगर्जीकी भावनासे होना है, सर्वात्महित __ कर्त्तव्य एक दूसरेके आश्रित हैं, ये एक ही वस्तुके दो वादकी भावना असत्य भाषणमें बाधक हैं । स्व __रूप हैं । जब व्यक्ति अन्यकी सुविधाओंका खयाल च्छन्दता और उच्छृङ्खलता जैसी समाजको जर्जरित कर अधिकारका प्रयोग करता है तो वह अधिकार करने वाली कुभावनाएँ असत्य भाषणसे ही उत्पन्न समाजके लिये अनुशासनके रूपमें हितकारक बन होती हैं। क्योंकि मानव समाजका समस्त व्यवहार जाता है। वचनोंसे ही चलता है वचनोंमें दोष आजानेसे समाजकी बड़ी भारी क्षति होती है। लोकमें भी प्रसिद्धि है ___ यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकारोंपर जोर दे और अन्यके अधिकारोंकी अवहेलना करे तो उसे कि इसी जिह्वामें विष और अमृत दोनों हैं अर्थात् किसी भी अधिकारको प्राप्त करनेका हक नहीं है। समाजको उन्नत स्तरपर ले जाने वाले अहिंसक वचन अधिकार और कर्तव्यके उचित प्रयोगका ज्ञान प्राप्त अमृत और समाजको हानि पहुँचाने वाले हिंसक करना ही सामाजिक जीवन-कलाका प्रथम पाठ है पचन विष हैं। अतएव मानव समाजके व्यवहारको जिसे प्रत्येक व्यक्तिको प्रचौर्य भावनाके अभ्यास १ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । द्वारा स्मरण करना चाहिये । तेषांमेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। ___ब्रह्मचर्य-अधिकार और कर्त्तव्यके प्रति आदर पुरुषार्थसिद्धथु पाय श्लोक ४४ ऐसी चीजें नहीं हैं जिन्हें किसीके ऊपर जबर्दस्ती For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] जैनधर्म बनाम समाजवाद १९५ लादा जा सके। नैतिकता और बलप्रयोग ये दोनों कम्मुणा बम्भणो होई कम्मुणा होई खत्तियो । परस्पर विरोधी हैं। अतएव जैनधर्मने ब्रह्मचर्यकी वइसो कम्मुणा होई सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ भावना-द्वारा स्वनिरीक्षणकी प्रवृत्तिपर जोर दिया है, इस प्रकार सामाजिक भेद-भावकी खाईको क्योंकि इस प्रक्रिया-द्वारा नैतिक जीवनका श्रीगणेश जैनाचार्योंने दूरकर समाजको एक संगठनके भीतर होता है । अहिंसाका पालन भी ब्रह्मचर्यके पालनपर आबद्ध करनेका प्रयत्न किया है। आश्रित है । सामाजिक जीवनमें संगठनकी शक्ति भी राजनैतिक दृष्टिकोण इसीके द्वारा जागृत होती है। बिना संयमके समाजकी व्यवस्था सुचारुरूपसे नहीं की जा सकती है, ____यद्यपि धर्मका राजनीतिसे सम्बन्ध नहीं है, फिर भी समाज और व्यक्तिके साथ सम्बन्ध रहनेसे राजक्योंकि सामाजिक जीवनका आधार नैतिकता ही है। नीतिके साथ भी सम्बन्ध मानना पड़ता है । जैनधर्म प्रायः देखा जाता है कि संसारमें छीना-झपटीकी दो सदासे प्रजातन्त्र राज्यका समर्थक रहा है। इतिहास ही वस्तुएँ हैं, कामिनी और कञ्चन । जबतक इन दोनोंके प्रति आन्तरिक संयमकी भावना उत्पन्न न इस बातका साक्षी है कि भगवान महावीरके पिता महाराज सिद्धार्थ वैशालीकी जनता-द्वारा चुने गये होगी तबतक सामाजिक जीवन कण्टकाकीर्ण माना शासक थे। जैसे प्राचीन राजनीतिके प्रन्थ कौटिलीय जायगा। सारांश यह है कि जीवन-निर्वाह-शोरीरिक अर्थशास्त्रमें राजाको ईश्वरीय अंश मानकर उसकी आवश्यकताकी पूर्ति के लिये अपने उचित हिस्सेसे सर्वोपरि शक्ति स्वीकार को है, वैसे जैनधर्ममें नहीं । अधिक ऐन्द्रियिक सामग्रीका उपयोग न करना व्याव __ जैन राजनीतिमें राजा शब्दका प्रयोग राज्यकी जनता हारिक ब्रह्म-भावना है। अपरिग्रहकी भावना-द्वारा समाजमें सख और द्वारा निवोचित व्यक्तिके रूपमें ही हआ है. इसीलिये शान्ति स्थापित की जाती है। इसके सम्बन्ध में पहले राजाको जनताके धर्म, अर्थ और काम इन तीनों लिखा जा चुका है। वोंकी समानरूपसे उन्नति करनेवाला, संगठनसमाजमें ऊँच-नीच और लालतकी भावनाको कर्ता माना है । राज्यके प्रत्येक व्यक्तिके वैयक्तिक पुष्ट करनेवाली जन्मना वर्ण-व्यवस्थाको जैनधर्ममें आचरणका विश्लेषण करते हुए कहा गया है नहीं माना है। जैनाचार्योंने स्पष्टरूपसे समाजके समस्त "सर्वसत्त्वेषु' हि समता सवोचरणानां परमाचरणम" . . सदस्योंको मानवताकी दृष्टिसे एक स्तरपर लानेके अर्थात-उस राष्ट्र के समस्त प्राणियोंमें समानतालिये आचारको महत्ता दी है । जिस व्यक्तिका सदा- का व्यवहार करना ही परमाचरण है । तात्पर्य यह है चार जितना ही समाजके अनुकूल होगा, वह व्यक्ति कि लौकिक दृष्टिसे व्यक्ति-स्वातन्त्र्यको स्वीकार करते उतना ही समाजमें उन्नत माना जायगा, किन्तु स्थान हुए भी समाजको उच्च स्थान प्रदान कर उसके उसका भी सामाजिक सदस्यके नाते वही होगा जो प्रत्येक घटकके साथ भाई-भाईकासा व्यवहार अनुअन्य सदस्योंका है । दलितवर्गका शोषण और शासित ढङ्गसे सम्पन्न करना परम कर्तव्य निर्धारित जातिवादके दुरभिमानको, जिससे समाजको अहर्निश किया गया है। इस कर्त्तव्यकी अवहेलना जनता खतरोंका सामना करना पड़ता है, जैनधर्ममें स्थान द्वारा निर्वाचित राजा भी नहीं कर सकता है। नहीं दिया है। जैन तीर्थङ्करोंने एक मनुष्य जाति लोकतन्त्रके सिद्धान्तों-द्वारा समाजके सभी मानकर व्यवहार-मूलक वर्णव्यवस्था' बतलाई है- सदस्योंके हितकी बातोंमें सभीका मत लेना आवश्यक १ मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा । है। जैन राजनीतिकारोंने तो स्पष्टरूपसे कहा है कि वृत्तिभेदा हि तभेदाच्चतुर्विध्यमिहाश्नुते ॥श्रा.पु. ३८४५ मनुष्य और उसके विचार समयकी आर्थिक परिनास्ति जातिकृती भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । प्राकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ॥ -गुणभद्र १ नीतिवाक्यामृत धर्मसमुद्देश। सूत्र ४ For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ अनेकान्त [वर्ष ९ स्थितियोंसे निर्मित और परिवर्तित होते हैं। अतः १–भौतिक और बौद्धिक उन्नतिके साथ नैतिक उन्नतिसमस्त समाजकी यदि भोजन-छादनकी सुव्यवस्था को चरम लक्ष्य स्वीकार करना । होजाय तो फिर सभी आध्यात्मिक उन्नतिकी ओर २-आत्माको अमर मानकर उसके विकासके लिये अग्रसर हो सकें । अतएव शक्तिके अनुसार कार्य वैयक्तिकरूपसे प्रयत्न करना । जहाँ भौतिक और आवश्यकतानुसार पुरस्कारवाले नुस्खेका उन्नतिमें समाजको सर्वोपरि महत्ता प्राप्त है, वहाँ प्रयोग समाज और व्यक्ति दोनोंके विकासमें अत्यन्त आत्मिक उन्नतिमें व्यक्तिको। सहायक होगा। ३–बलप्रयोग-द्वारा विरोधी शक्तियोंको नष्ट न करना, - उपर्युक्त जैनधर्मके सिद्धान्तोंकी आजके समाज- बल्कि विचार-सहिष्णु बनकर सुधार करना । वादके सिद्धान्तोंके साथ तुलना करनेप ज्ञात होगा ४-अधिनायकशाहीकी मनोवृत्ति-जो कि । कि आजके समाजवादमें जहाँ व्यक्ति-स्वातन्त्र्यको समाजवादमें कदाचित् उत्पन्न हो जाती है और विशेष महत्ता नहीं, वहाँ जैनधर्मके समाजवादमें । नेशनके नामपर व्यक्तिके विचार-स्वातन्त्र्यको .. व्यक्ति-स्वातन्यको बड़ी भारी महत्ता दी गई है, और कुचल दिया जाता है, जैनधर्ममें इसे उचित उसे समाजकी इकाई स्वीकार करते हुए भी समाजकी। नहीं माना है। श्रीवृद्धिका उत्तरदायी माना है । यद्यपि आज भी ५-हिंसापर विश्वास न कर अहिंसा द्वारा समाजका समाजवादके कुछ आचार्य उसकी कमियोंको समझकर सङ्गठन करना तथा प्रेम-द्वारा समस्त समाजआध्यात्मिकवादका पुट देना उचित मानते हैं तथा की विपत्तियोंका अन्त कर कल्याण करना। उसे भारतीयताके रङ्गमें रङ्गकर उपयोगी बनानेका ६–व्यक्तिकी आवाजकी कीमत करना तथा बहुमत प्रयत्न कर रहे हैं। जैनधर्मके उपर्युक्त सिद्धान्त निम्न या सर्वमत-द्वारा समाजका निर्माण और विकास समाजवादके सिद्धान्तोंके साथ मेल खाते हैं करना । १-समाजको अधिक महत्व देना, पर व्यक्तिके वर्तमान जैनधर्मानुयायी ऊपर जबरदस्ती किसी भी बातको न लादना । आज जैनधर्मके अनुयायियोंके आचरणमें इकाईके समृद्ध होनेपर ही समाज भी समृद्ध हो समाजवादकी गन्ध भी नहीं है। इसीलिये प्रायः सकेगाके सिद्धान्तको सदा ध्यानमें रखना। लोग इसे साम्राज्यवादी धर्म समझते हैं। वास्तविक २-एक मानव-जाति मानकर उन्नतिके अवसरोंमें बात यह है कि देश और समाजके वातावरणका समानताका होना। प्रभाव प्रत्येक धर्मके अनुयायियोंपर पड़ता है। अतः ३-विकासके साधनोंका कुछ ही लोगोंको उपभोग समय-दोषसे इस धर्मके अनुयायी भी बहुसंख्यकोंके करनेसे रोकना और समस्त समाजको उन्नतिके प्रभावमें आकर अपने कर्त्तव्यको भूल बैठे, केवल रास्तेपर ले जाना। बाह्य आचरण तक ही धर्मको सीमित रखा । अन्य ४-पूजीवादको प्रोत्साहन न देना, इसकी विदाईमें संस्कृतियोंके प्रभावके कारण कुछ दोष भी समाजमें ही समाजकी भलाई समझना। प्रविष्ट होगये हैं तथा अहिंसक समाजकी अहिंसा ५-हानिकारक स्पर्धाको जड़से उखाड़ फेंकना। केवल बाह्य आडम्बर तक ही सीमित है। फिर भी ६-शोषण, हीनाधिकताकी भावना, ऊँच-नीचका इतना तो निष्पक्ष होकर स्वीकार करना पड़ेगा कि व्यवहार, स्वार्थ, दम्भ आदिको दूर करना। भगवान महावीरकी देन जैन समाजमें इतनी अब ७-समाजको प्रेम-द्वारा सङ्गठित करना। १ सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । जैनधर्मके समाजवादमें आजके समाजवादी सर्वापदामन्तकर निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।। सिद्धान्तोंसे मौलिक विशेषताएँ -युक्तयनुशासन श्लो०६१ For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृतिकी रेखाए सन्मति - विद्या - विनोद प्यारी पुत्रियो ! सन्मती और विद्यावती ! आज तुम मेरे सामने नहीं हो— तुम्हारा वियोग हुए युग बीत गये; परन्तु तुम्हारी कितनी ही स्मृति आज भी मेरे सामने स्थित हैं - हृदयपटलपर अति है । भले ही कालके प्रभाव से उसमें कुछ धुंधलापन आ गया है, फिर भी जब उधर उपयोग दिया जाता है तो वह कुछ चमक उठती है । बेटी सन्मती, तुम्हारा जन्म असोज सुदि ३ संवत् १९५६ शनिवार ता० ७ अक्तूबर सन् १८९९ को दिन १२ बजे सरसावामें उसी सूरजमुखी चौबारे में हुआ था जहाँ मेरा, मेरे सब भाइयोंका, पिता- पितामहका और न जाने कितने पूर्वजोंका जन्म हुआ था और जो इस समय भी मेरे अधिकार में सुरक्षित है। भाई-बाँके अवसरपर उसे मैंने अपनी ही तरफ लगा लिया था । भी शेष है कि एक लंगोटी लगाने वाला जिसके पास दो शाम खानेको है, वह भी अपना एक शामका भोजन दान कर सकता है । जहाँ जैनियोंके परिग्रह संचयके उदाहरण हैं वहाँ परिग्रह त्यागके भी सैकड़ों उदाहरण वर्तमान हैं । इसीलिये ये बिना सरकारी सहायता के शिक्षा प्रचार एवं अन्य सामाजिक उन्नतिके कार्य जैन समाज द्वारा अनेक होरहे हैं। 1 आज स्वतन्त्र भारतमें भगवान महावीरके उपर्युक्त समाजवाद के प्रचारकी नितान्त आवश्यकता हैं। इससे समाजको बड़ी भारी शान्ति मिलेगी। क्या प्रमुख नेता लोग इधर ध्यान देंगे ? क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको राष्ट्रपाल: काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुर्भिक्ष चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्मभूञ्जीवलोके, जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ॥ 9 . बालकोंके जन्म समय इधर ब्राह्मणियाँ जो बधाई गाती थीं वह मुझे नापसन्द थी तथा असङ्गत-सी जान पड़ती थी और इसलिये तुम्हारे जन्मसे दो एक मास पूर्व मैंने एक मङ्गलबधाई' स्वयं तैयार की थी और उसे ब्राह्मणियों को सिखा दिया था । ब्राह्मणियोंको उस समय बधाई गानेपर कुछ पैसे टके ही मिला करते थे, मैंने उन्हें जो मिलता था उससे दो रुपये अधिक अलग से देनेके लिये कह दिया था और इससे उन्होंने खुशी-खुशी बधाईको याद कर लिया था । तुम्हारे जन्मसे कुछ दिन पूर्व ब्राह्मणियों की तरफ से यह सवाल उठाया गया कि यदि पुत्रका जन्म न होकर पुत्रीका जन्म हुआ तो इस बधाईका क्या बनेगा ? मैंने कह दिया था कि मैं पुत्र-जन्म और पुत्रीके जन्ममें कोई अन्तर नहीं देखता हूँ- मेरे लिये दोनों समान हैं— और इसलिये यदि पुत्रीका जन्म हुआ तब भी तुम इस बधाईको खुशी से गासकती हो और गाना चाहिए । इसीसे इसमें पुत्र या सुत जैसे शब्दों का प्रयोग न करके 'शिशु' शब्दका प्रयोग किया गया है और उसे ही 'दें आशिश शिशु हो गुणधारी' जैसे वाक्य द्वारा आशीर्वाद के दिये जानेका उल्लेख किया गया है । परन्तु रूढिवश पिताजी और बुधाजी आदिके विरोधपर ब्राह्मणियोंकों तुम्हारे जन्मपर बधाई गाने की हिम्मत नहीं हुई; फिर भी तुम्हारी माताने अलग से ब्राह्मणियोंको अपने पास बुलाकर बिना गाजे-बाजेके ही बधाई गवाई थी और उन्हें गवाईके वे २) रु० भी दिये थे। साथ ही दूसरे सब नेग भी यथाशक्ति पूरे किये थे जो प्रायः पुत्र-जन्म के अवसरपर दूसरोंको कुछ देने तथा उपहारमें आये हुए १ इस मंगल बधाईकी पहली कली इस प्रकार थी"गावो री बधाई सखि मंगलकारी ।" For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ अनेकान्त वर्ष ९] जोड़े-झग्गों आदिपर रुपये रखने आदिके रूपमें से नीचे दौड़ी चली आकर किवाड खोला करती थी, किये जाते हैं। __तुम्हें अँधेरेमें भी डर नहीं लगता था, जब कि तुम्हारा नाम मैंने केवल अपनी रुचिसे ही नहीं तुम्हारी माँ कहा करती थी कि मुझे तो डर लगता रक्खा था बल्कि श्रीआदिपुराण-वर्णित नामकरण- है, यह लड़की न मालूम कैसी निडर निभय प्रकृतिसंस्कारके अनुसार १००८ शुभ नाम अलग-अलग -शभ नाम अलग-अलग की है जो अँधेरे में भी अकेली चली जाती है। तम्हारी कागजके टुकड़ोंपर लिखकर और उनकी गोलियाँ बना- इस हिम्मतको देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती थी। कर उन्हें प्रसूतिगृहमें डाला था और एक बच्चेसे एक एक दिन रातको मुझे स्वप्न हुआ कि एक अर्धनग्न गोली उठवाकर मँगाई गई थी। उस गोलीको खोलने श्यामवर्ण स्त्री अपने आगे पीछे और इधर उधर मरे पर 'सन्मतिकुमारी' नाम निकला था और यही हुये बच्चोंको लटकाए हुए एक उत्तरमुखी हवेलीमें तुम्हारा पूरा नाम था। यों आम बोल-चालमें तुम्हें प्रवेश कर रही है जो कि ला० जवाहरलालजी जैन 'सन्मती' कहकर ही पुकारा जाता था। की थी। इस बीभत्स दृश्यको देखकर मुझे कुछ - तुम्हारी शिक्षा वैसे तो तीसरे वर्ष ही प्रारम्भ भय-सा मालूम हुआ और मेरी आँख खुल गई। होगई थी परन्तु कन्यापाठशालामें तुम्हें पाँचवें वर्ष अगले ही दिन यह सुना गया कि ला० जवाहरलालबिठलाया गया था। यह कन्यापाठशाला देवबन्दकी जीके बड़े लड़के राजारामको लेग होगई, जिसकी थी, जहाँ सहारनपुरके बाद सन् १९०५ में मैं हालमें ही शादी अथवा गौना हुआ था ! यह लड़का मुख्तारकारीकी प्रेकटिस करनेके लिये चला गया था बड़ा ही सुशील, होनहार और चतुर कारोबारी था और कानूगोयानके मुहल्ले में ला० दूल्हाराय जैन साबिक तथा अपनेसे विशेष प्रेम रखता था । तीन-चार दिन पटवारीके मकानमें उसके सूरजमुखी चौबारेमें रहता में ही यह कालके गालमें चला गया !! इस भारी था । निद्धी पण्डित, जो तुम्हें पढाता था, तुम्हारी बद्धि जवान मौतसे सारे नगरमें शोक छागया और लेग और होशयारीकी सदा प्रशंसा किया करता था। मुझे भी जोर पकड़ती गई। तुम्हारे गुणोंमें चार गुण बहुत पसन्द थे-१ सत्य- कुछ दिन बाद तुम्हारी माताने कोई चीज बनावादिता, २ प्रसन्नता, ३ निर्भयता और ४ कार्य- कर तुम्हारे हाथ ला० जवाहरलालजीके यहाँ भेजी कुशलता । ये चारों गुण तुममें अच्छे विकसित होते थी वह शायद शोकके मारे घरपर ली नहीं गई तब जारहे थे। तुम सदा सच बोला करती थी और प्रसन्न- तुम किसी तरह ला० जवाहरलालजीको दुकानपर चित्त रहती थी। मैंने तुम्हें कभी रोते-रडाते अथवाजिद्द उसे दे आई थी। शामको या अगले दिन जब ला० करते नहीं देखा। तुम्हारे व्यवहारसे अपने-पराये जवाहरलालजी मिले तो कहने लगे कि-'तुम्हारी सब प्रसन्न रहते थे और तुम्हें प्यार किया करते थे। लड़की तो बड़ी होशयार होगई है, मेरे इन्कार करते सहारनपुर मुहल्ले चौधरियानके ला० निहालचन्दजी __हुए भी मुझे दुकानपर ऐसी युक्तिसे चीज दे गई कि और उनकी स्त्री तो, जो मेरे पासकी निजी हवेलीमें मैं तो देखकर दङ्ग रह गया।' इस घटनासे एक या रहते थे, तुमपर बहुत मोहित थे, तुम्हें अक्सर अपने दो दिन बाद तुम्हें भी लेग होगई ! और तुम उसीमें पास खिलाया-पिलाया और सुलाया करते थे, उसमें माघ सुदी १०मी संवत् १९६३ गुरुवार तारीख २४ सुख मानते थे और तुम्हें लाड़में 'सबजी' कह जनवरी सन् १९८७को सन्ध्याके छह बजे चल बसी!! कर पुकारा करते थे-तुम्हारे कानोंकी बालियोंमें उस कोई भी उपचार अथवा प्रेम-बन्धन तुम्हारी इस वक्त सबजे पड़े हुये थे। जब कभी मैं रातको देरसे विवशा गतिको रोक नहीं सका !!! घर पहुँचता और इससे दहलीज़के किवाड बन्द हो तुम्हारे इस वियोगसे मेरे चित्तको.बडी चोट जाते तब पुकारनेपर अक्सर तुम्ही अँधेरेमें ही ऊपर लगी थी और मेरी कितनी ही आशाओंपर पानी फिर For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] सम्मति-विद्या-विनोद १९९ गया था ! एक वृद्ध पुरुष श्मशानभूमिमें मुझे यह होरही थीं। जन्मसे कुछ दिन बाद तुम्हारा नाम कह कर सान्त्वना दे रहे थे कि 'जाओ धान रहो 'विद्यावती' रक्खा गया था; परन्तु श्राम बोल-चालमें क्यारी, अबके नहीं तो फिरके बारी'। फिर तुम्हारी तुम्हें 'विद्या' इस लघु नामसे ही पुकारा जाता था। माताके दुख-दर्द और शोककी तो बात ही क्या है ? तुम्हारी अवस्था अभी कुल सवा तीन महीनेकी उसने तो शोकसे विकल और वेदनासे विह्वल होकर ही थी जब अचानक एक वज्रपात हुआ, तुम्हारे तुम्हारे नये-नये वस्त्र भी बक्सोंमेंसे निकालकर फेंक ऊपर विपत्तिका पहाड़ टूट पड़ा ! दुर्दैवने तुम्हारे दिये थे! वे भी तुम्हारे बिना अब उसकी आँखोंमें सिरपरसे तुम्हारी माताको उठा लिया !! वह देवबन्द चुभने लगे थे । परन्तु मैंने तुम्हारी पुस्तकों आदिके के उसी मकांनमें एक सप्ताह निमोनियाकी बीमारीसे उस बस्तेको जो काली किरमिचके बैगरूपमें था और बीमार रहकर १६ मार्च सन् १९१८ को इस असार जिसे तुम लेकर पाठशाला जाया करती थी तुम्हारी संसारसे कूच कर गई !!! और इस तरह विधिके स्मृतिके रूपमें वर्षों तक ज्योंका त्यों कायम रक्खा है। कठोर हाथों-द्वारा तुम अपने उस स्वाभाविक भोजन अब भी वह कुछ जीर्ण-शीर्ण अवस्थानमें मौजूद है- -अमृतपानसे वश्चित करदी गई जिसे प्रकृतिने असे बाद उसमेंसे एक दो लिपि-कापी तथा पुस्तक तुम्हारे लिये तुम्हारी माताके स्तनोंमें रक्खा था ! दूसरोंको दीगई हैं और सलेटको तो मैं स्वयं अपने साथ ही मातृ-प्रेमसे भी सदाके लिये विहीन होगई !! मौन वाले दिन काममें लेने लगा हूँ। इस दुर्घटनासे इधर तो मैं अपने २५ वर्षके तपे नामकरणके बाद जब तुम्हारे जन्मकी तिथि तपाये विश्वस्त साथीके वियोगसे पीडित ! और उधर और तारीखादिको एक नोटबुकमें नोट किया गया उसकी धरोहर-रूपमें तुम्हारे जीवनकी चिन्तासे था तब उसके नीचे मैंने लिखा था 'शुभम् । मरणके आकुल !! अन्तको तुम्हारे जीवनकी चिन्ता मेरे लिये बाद जब उसी स्थानपर तुम्हारी मृत्युकी तिथी आदि सर्वोपरि हो उठी । पासके कुछ सज्जनोंने परामर्शलिखी जाने लगी तब मुझे यह सूझ नहीं पड़ा कि उस रूपमें कहा कि तुम्हारी पालना गायकं दूध, बकरीके दैविक घटनाके नीचे क्या विशेषण लगाऊँ ! 'शुभम्' दूध अथवा डब्बेके दूथसे होसकती है; परन्तु मेरे तो मैं उसे किसी तरह कह नहीं सकता था; क्योंकि आत्माने उसे स्वीकार नहीं किया । एक मित्र बोलेवैसा कहना मेरे विचारोंके सर्वथा प्रतिकूल था। और लड़कीको पहाड़पर किसी धायको दिला दिया 'अशुभम्' विशेषण लगानेको एकदम मन जरूर जायगा, इससे खर्च भी कम पड़ेगा और तुम बहुतहोता था परन्तु उसके लगानेमें मुझे इसलिये संकोच सी चिन्ताओंसे मुक्त रहोगे। घरपर धाय रखनेसे तो हुआ था कि मैं भावीकं विधानको उस समय कुछ बड़ा खर्च उठाना पड़ेगा और चिन्ताओंसे भी बराबर समझ नहीं रहा था--वह मेरे लिए एक पहेली बन घिरे रहोगे ।' मैंने कहा-'पहाड़ोंपर धाय द्वारा बच्चों गया था। इसीसे उसके नीचे कोई भी विशेषण देने की पालना पूर्ण तत्परताके साथ नहीं होती। धायको में मैं असमर्थ रहा था। अपने घर तथा खेत-क्यारके काम भी करने होते हैं, बेटी विद्यावती, वह बच्चेको यों ही छोड़कर अथवा टोकरे या मूढे तुम्हारा जन्म ता०७ दिसम्बर सन् १९१७ को आदिके नीचे बन्द करके उनमें लगती है और बच्चा सरसावामें मेरे छोटे भाई बा० रामप्रसाद सबओवर रोता विलखता पड़ा रहता है। धाय अपने घरपर सियरकी उस पूर्वमुखी हवेलीके सूरजमुखी निचले जैसा-तैसा भोजन करती है, अपने बच्चेको भी मकानमें हुआ था जो अपनी पुरानी हवेलीके सामने पालती है और इसलिये दूसरेके बच्चेको समयपर अभी नई तैयार कीगई थी और जिसमें भाई रामप्रसाद यथेष्ठ भोजन भी नहीं मिल पाता और उसे व्यर्थक ' के ज्येष्ठ पुत्र चि० ऋषभचन्दके विवाहकी तैयारियाँ अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसके सिवाय, यह मी For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त वर्ष ९] सुना जाता है कि पहाड़ोंपर बच्चे बदले जाते हैं और तुम अपनी अबोध-दशासे इतने अर्सेतक धायके लोभके वश दूसरोंको बेचकर मृत घोषित भी किये पास रही, उसकी गोदी चढ़ी, उसका दूध पिया, जाते हैं । परन्तु इन सबसे अधिक बड़ी समस्या जो उसके पास खेली-सोई और वह माताकी तरह मेरे सामने है वह संस्कारोंकी है। और सब कुछ दूसरी भी तुम्हारी सब सेवाएँ करती रही; फिर भी ठीक होते हुए भी वहाँके अन्यथा संस्कारोंको कौन तुमने एक बार भी उसे 'माँ' कहकर नहीं दियारोक सकेगा ? मैं नहीं चाहता कि मेरी लड़की मेरे दूसरोंके यह कहनेपर भी कि 'यह तो तेरी मां है' दोषसे अन्यथा संस्कारोंमें रहकर उन्हें ग्रहण करे।' तुम गर्दन हिला देती थी और पुकारनेके अवसरपर और इसलिये अन्तको यही निश्चित हुआ कि घरपर उसे 'ए-ए !' कहकर ही पुकारती थी। यह सब विवेक धाय रखकर ही तुम्हारा पालन-पोषण कराया जाय। तुम्हारे अन्दर कहाँसे जागृत हुआ था वह किसीकी तदनुसार ही धायके लिये तार-पत्रादिक दौड़ाये गये। भी कुछ समझमें नहीं आता था और सबको तुम्हारी _ भाई रामप्रसादजी आदिके प्रयत्नसे एककी ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्तिपर आश्चर्य होता था। जगह दो धाय आगराकी तरफसे आगई, जिनमेंसे दो-ढाई वर्षकी छोटी अवस्थामें ही तुम्हारी बड़े रामकौर धायको तुहारे लिये नियुक्त किया गया, जो आदमियों जैसी समझकी बातें, सबके साथ 'जी'की प्रौढावस्थाको होनेके साथ-साथ श्यामवर्ण भी थी- बोली, दयापरिणति, तुम्हारा सन्तोष, तुम्हारा धैर्य उस समय मैंने कहीं यह पढ़ रक्खा था कि श्यामा और तुम्हारी अनेक दिव्य चेष्टाएँ किसीको भी अपनी गायके दूधकी तरह बच्चोंके लिये श्यामवर्णा धायका भार आकृष्ट किये बिना नहीं रहती थीं। तुम साधादूध ज्यादा गुणकारी होता है । अतः तुम्हारे हितकी रण बच्चोंकी तरह कभी व्यर्थकी जिद करती या दृष्टिसे अनुकूल योजना हो जानेपर मुझे प्रसन्नता रोती-राती हुई नहीं देखी गई । अन्तकी भारी हुई। धायक न आने तक गाय-बकरीका दूध पीकर बीमारीकी हालतमें भी कभी तुम्हारे कूल्हने या तुमने जो कष्ट उठाया, तुम्हारी जानके जो लाले कराहने तककी आवाज़ नहीं सुनी गई: बल्कि जब तक पड़े और उसके कारण दादीजी तथा बहनगुण- तुम बोलती रही और तुमसे पूछा गया कि 'तेरा जी मालाको जो कष्ट उठाना पड़ा उसे मैं ही जानता हूँ। कैमा है' तो तुमने बड़े धैर्य और गाम्भीर्यसे यही धायके आजानेपर तुम्हें साता मिलते ही सबको उत्तर दिया कि 'चोखा है। वितर्क करनेपर भी इसी माता मिली। आशयका उत्तर पाकर आश्चर्य होता था ! स्वस्थातम धायके साथ अधिकतर नानौता दादीजीके वस्था में जब कभी कोई तम्हारी बातको ठीक नहीं पास, सरसावा मेरे पास और तीतरों अपने नाना समझता था या समझने में कुछ गलती करता था तो मुन्शी होशयारसिंहजीके यहाँ रही हो । जब तुम कुछ तुम बराबर उसे पुनः पुनः कहकर या कुछ अते-पते टुकड़ा-टेरा लेने लगी, अपने पैरों चलने लगी, बोलने की बातें बतलाकर समझानेकी चेष्टा किया करती थी बतलाने लगी और गायका दूध भी तुम्हें पचने लगा और जबतक वह यथार्थ बातको समझ लेनेका तब तुम्हारी धाय रामकौरको विदा कर दिया गया इजहार नहीं कर देता था तबतक बराबर तुम 'न और वह अपना वेतन तथा इनाम आदि लेकर शब्दके द्वारा उसकी गलत बातोंका निषेध करती ३० जून सन् १९१९ को चली गई । उसके चले जाने रहती थी। परन्तु ज्यों ही उसके मुंहसे ठीक बात पर तुम्हारे पालन-पोषण और रक्षाका सब भार निकलती थी तो तुम 'हाँ' शब्दको कुछ ऐसे लहजेमें पूज्य दादीजी, बहन (बुआ) गुणमाला और चि० लम्वा खींचकर कहती थी, जिससे ऐसा मालूम होता जयवन्तीने अपने ऊपर लिया और सबने बड़ी था कि तुम्हें उस व्यक्तिकी समझपर अब पूरा तत्परता एवं प्रेमके साथ तुम्हारी सेवा की है। सन्तोष हुआ है। For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] सन्मति-विद्या-विनोद २०१ ___ तुम हमेशा सच बोलती थी और अपने अपराध- एक दिन सुबहके वक्त तुम मेरे कमरेके सामनेकी को खुशीसे स्वीकार कर लेती थी। बुद्धि विकासके बगड़ीमें दौड़ लगा रही थी और तुम्हारे शरीरकी साथ-साथ आत्मामें शुद्धिप्रियता, निर्भयता, निस्पृहता, छाया पीछेकी दीवारपर पड़ रही थी। पासमें खड़ी हृदयोचता और स्पष्टवादिता जैसे गुणोंका विकास हुई भाई हींगनलालजीकी बड़ी लड़कियाँ कह रही भी तेजीसे होरहा था। धायके चले जानेके बादसे थीं 'देख, विद्या ! तेरे पीछे भाई आरहा है।' पहले तुम मैले-कुचैले वस्त्र पहने हुए किसी भी स्त्री या तो तुमने उनकी इस बातको अनसुनीसी कर दिया, लड़की आदिकी गोद नहीं चढ़ती थी, जिसका अच्छा जब व बारबार कहती रही तब तुमने एकदम गम्भीर परिचय शामलीके उत्सवपर मिला, जबकि तुम्हें होकर डपटते हुए स्वर में कहा "नहीं, यह तो छाँवला गोदीमें उठाये चलनेके लिये दादीजीने एक लड़कीकी है।" तुम्हारे इस 'छाँवला' शब्दको सुनकर सबको योजना की थी; परन्तु तुमने उसकी गोदी चढ़कर हँसी आगई ! क्योंकि छाया, छाँवली अथवा पडछाई नहीं दिया और कहा कि 'मैं अपने पैरों आप चलूंगी' की जगह 'छाँवला' शब्द पहले कभी सुननेमें नहीं और तुम हिम्मतके साथ बरावर अपने पैरों चलती आया था। आमतौरपर बच्चे बतलाने वालोंके अनुरही जबतक कि तम्हें थकी जानकर किसी स्वच्छ स्त्री रूप अपनी छायाको भाई समझकर अपने पीछे या लड़कीने अपनी गोद नहीं उठाया। मुझे बड़ी भाईका आना कहने लगते हैं, यही बात भाईकी प्रमन्नता होती थी, जब मैं अपने यहाँके दुकानदारोंसे लड़कियाँ तुम्हारे मुखसे कहलाना चाहती थीं, जिससे यह सुनता था कि 'तुम्हारी विद्या इधर आई थी, हम तुम्हारी निर्दोष बोली कुछ फल जाय; परन्तु तुम्हारे उसे कुछ चीज देनेके लिये बुलाते रहे परन्तु वह यह विवेकने उसे स्वीकार नहीं किया और 'छावला' कहती हुई चली गई कि "हमारे घर बहुत चीज है।" शब्दकी नई सृष्टि करके सबको चकित कर दिया। तुम्हारा खुदका यह उत्तर तुम्हारे सन्तोष, स्वाभिमान एक रोज़ मैं अपने साथ तुम्हें लिची, खरबूजा तुम्हारी निस्पृहताका अच्छा परिचायक होता था। आदि कुछ फल खिला रहा था, तय्यार फलोंको स्वाते एकबार बहन गुणमालाने चि. जयवंतीकी पाछा- खाते तुमने एकदम अपना हाथ सिकोड़ लिया और . पाड धोतीमेंसे तुम्हारे लिये एक छोटी धोती सवादो • मेरे इस पूछनेपर कि 'और क्यों नहीं खाती ?' गजके करीब लम्बी तैयार की, जिसके दोनों तरफ तुमने साफ कह दिया कि “मेरे पेटमें तो लिचीकी चौड़ी किनारी थी और जो अच्छी साफ सुथरी धुली. भूख है।" तुम्हारी इस स्पष्टवादितापर पुझे बड़ी हुई थी। वह धोती जब तुम्हें पहनाई जाने लगी तो प्रसन्नता हुई और मैंने लिचीका भरा हुआ बोहिया तुमने उसके पहननेसे इनकार किया और मेरे इस तुम्हारे सामने रखकर कहा कि इसमेंसे जितनी इच्छा कहनेपर कि 'धोती बड़ी साफ सुन्दर है पहन लो' हो उतनी लिची खालो। तुमने फिर दो-चार लिची तुमने उसके म्पर्शमे अपने शरीरको अलग करते हुए और खाकर ही अपनी तृप्ति व्यक्त कर दी। इससे साफ कह दिया “यह तो कत्तर है।" तुम्हारे इस मुझे बड़ा सन्तोष हुआ; क्योंकि मैं सङ्कोचादिके वश उत्तरको सुनकर मब दङ्ग रह गये ! क्योंकि इतने बड़े अनिच्छापूर्वक किसी ऐसी चीजको खाते रहना पड़ेको 'कत्तर' का नाम इससे पहले किसीने नहीं स्वास्थ्यके लिये हितकर नहीं समझता जो रुचिकर सुना था । बहन गुणमाला कहने लगी-भाई जी! न हो। और मेरी हमेशा यह इच्छा रहती थी कि तुम तो विद्याको सादा जीवन व्यतीत कराना चाहते तुम्हारी स्वाभाविक इच्छाओंका विघात न होने पावे हो, इसके कान-नाक बिंधवानेकी भी तुम्हारी इच्छा और अपनी तरफसे कोई ऐसा कार्य न किया जाय नहीं है परन्तु इसके दिमाराको तो देखो जो इतनी जिससे तुम्हारी शक्तियोंके विकासमें किसी प्रकारकी बड़ी धोतीको भी 'कत्तर' बतलाती है!' वाधा उपस्थित हो या तुम्हारे आत्मापर कोई बुरा For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ असर अथवा संस्कार पड़े । जब तुम नानौतासे मेरी तथा दादी आदिके साथ देहली होती हुई पिछली बार मेरी साथ ता० २२ मई सन् १९२०क्को सरसावा आई तब मैंने तुम्हें यों ही विनोदरूपमें अपनी लायब्रेरीकी कुछ अलमारियाँ खोलकर दिखलाई थीं, देखकर तुमने कहा था "तुम्हारी यह अलमारी बड़ी चोखी हैं।" इसपर मैंने जब यह कहा कि बेटी ! ये सब चीजें तुम्हारी हैं, तुम इन सब पुस्तकों को पढ़ना' तब तुमने तुरन्त ही उलट कर यह कह दिया था कि "नहीं, तुम्हारी ही हैं तुम्हीं पढ़ना ।" तुम्हारे इन शब्दोंको सुनकर मेरे हृदयपर एकदम चोटसी लगी थी और मैं क्षणभरके लिये यह सोचने लगा था कि कहीं भावीका विधान ही तो ऐसा नहीं जो इस बच्ची के मुँहसे ऐसे शब्द निकल रहे हैं। और फिर यह खयाल करके ही सन्तोष धारण कर लिया था कि तुमने आदर तथा शिष्टाचार के रूप में ही ऐसे शब्द कहे हैं । इस बातको अभी महीनाभर भी नहीं हुआ था कि नगरमें चेचकका कुछ प्रकोप हुआ, घरपर भाई हींगनलालजीकी लड़कियों को एक-एक करके खसरा निकला तथा कंठी नमूदार हुई और उन सबके अच्छा होनेपर तुम्हें भी उस रोगने आ घेरा - कण्ठी अथवा मोतीझारेका ज्वर हो आया ! इधर दादीजीका पत्र आया कि वे बहून गुणमाला तथा चि० जयवन्तीको पं० चन्दाबाईके पास चारा छोड़कर वापिस नानौता आगई हैं और पत्र में तुम्हें जल्दी ही लेकर आनेकी प्रेरणा की गई थी। मैंने भी सोचा कि इस बीमारीमें तुम्हारी अच्छी सेवा और चिकित्सा दादीजी के पास ही हो सकेगी, और इसलिये मैं १७ जूनको तुम्हें लेकर नानौता आगया । दो-चार दिन बीमारीको कुछ शांति पड़ी और तुम्हारे अच्छा होनेकी आशा बँधी कि फिर एकदम बीमारी लौट गई। उपायान्तर न देखकर २६ जूनको तुम्हें सहारनपुर जैन शकाखाने में लाया गया, जहाँ २७की रातको तुमने दम तोड़ना शुरू किया और २८की सुबह होते होते तुम्हारा प्राण पखेरू एकदम उड़ गया !! किसीकी कुछ भी न अनैकान्तं [ वर्ष ९ चली !!! उसी वक्त तुम्हारे मृत शरीरको अन्तिम संस्कार के लिये शिक्रम में रखकर सरसावा लाया गया - साथमें दादीजी और एक दूसरे सज्जन भी थे। खबर पाते ही जनता जुड़ गई। कुटुम्ब तथा नगरके कितने ही सज्जनोंकी यह राय थी कि तुम्हारा दाहसंस्कार न करके पुरानी प्रथाके अनुसार तुम्हारे मृतदेहको जोहड़के पास गाड़ दिया जाय और उसके आस-पास कुछ पानी फेर दिया जाय; परन्तु मेरे आत्माको यह किसी तरह भी रुचिकर तथा उचित प्रतीत नहीं हुआ, और इसलिये अन्तको तुम्हारा दाह-संस्कार ही किया गया, जो सरसावामें तुम्हारे जैसे छोटी उम्र के बच्चोंका पहला ही दाह-संस्कार था । इस तरह लगभग ढाई वर्षकी अवस्थामें ही तुम्हारा वियोग होजानेसे मेरे चित्तको बहुत बड़ा आघात अहुँचा था; क्योंकि मैंने तुम्हारे ऊपर बहुतसी आशाएँ बाँध रक्खी थीं और अनेक विचारोंको कार्य में परिणत करने का तुम्हें एक आधार अथवा साधन समझ रक्खा था । मैं तुम्हें अपने पास ही रखकर एक आदर्श कन्या और स्त्री समाजका उद्धार करने वाली एक आदर्श स्त्रीके रूपमें देखना चाहता था और तुम्हारे गुणों का तेजी से विकास उस सबके अनुकूल जान पड़ता था । परन्तु मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतनी थोड़ी आयु लेकर आई हो । तुम्हारे वियोग में उस समय सुहृद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमी बम्बईने 'विद्यावती वियोग' नामका एक लेख जैन हितैषी (भाग १४ क ९) में प्रकट किया था । और उसमें मेरे तात्कालिक पत्रका कितना ही अंश भी उद्धृत किया था । ऋण चुकाना - पुत्रियो ! जहाँ तुम मुझे सुख-दुख दे गई हो वहाँ अपना कुछ ऋण भी मेरे ऊपर छोड़ गई हो, जिसको चुकाने का मुझे कुछ भी ध्यान नहीं रहा । गत ३१ दिसम्बर सन् १९४७को उसका एकाएक ध्यान आया है । वह ऋण तुम्हारे कुछ जेवरों तथा भेंट आदि में मिले हुए रुपये-पैसोंके रूपमें हैं जो मेरे पास अमानत थे, जिन्हें तुम मुझे स्वेच्छासे दे नहीं For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] गई बल्कि वे सब मेरे पास रह गये हैं और जिन्हें मैंने बिना अधिकारके अपने ही काममें ले लिया है - तुम्हारे निमित्त उनका कुछ भी खर्च नहीं किया है । जहाँ तक मुझे याद हैं सन्मतीके पास पैरोंमें चाँदी के लच्छे व झाँवर, हाथोंमें चाँदी के कड़े व पलेली, कानोंमें सोनेकी बाली - भूमके, सिरपर सोनेका चक और नाक में एक सीनेकी लोङ्ग थी, जिन सबका मूल्य उस समय १२५ ) रु० के लगभग था । और विद्याके पास हाथोंमें दो तोले सोनेकी कडूलियाँ चाँदीकी सरीदार, जिन्हें दादीजीने बनवाकर दिया था, तथा पैरोंमें नोखे थे, जिन सबकी मालियत ७५) रु०के करीब थी । दोनों के पास ५०) रु०के करीब नक़द होंगे। इस तरह जेवर और नकदीका तखमीना २५०) रु०के करीबका होता है, जिसकी मालियत आज ७००) रु०के लगभग बैठती है । और इस लिये मुझे ७००) रु० देने चाहियें, न कि २५०) रु० । परन्तु मेरा अन्तरात्मा इतनेसे भी सन्तुष्ट नहीं होता है, वह भूलचूक आदि के रूपमें ३००) रुपये उसमें और भी मिलाकर पूरे एक हजार कर देना चाहता है । अतः पुत्रियो ! आज मैं तुम्हारा ऋण चुकाने के लिये १०००) रु० ' सन्मति - विद्या - निधि' के रूपमें वीर सेवामन्दिरको इसलिये प्रदान कर रहा हूं कि इस निधिसे उत्तम बाल - साहित्यका प्रकाशन किया जाय – 'सन्मति विद्या' अथवा 'सन्मति -विद्याविनोद' नामकी एक ऐसी आकर्षक बाल-ग्रन्थमाला निकाली जाय जिसके द्वारा बिनोदरूपमें अथवा बाल-सुलभ सरल और सुबोध पद्धति से सन्मति जिनेन्द्र (भगवान् महावीर ) की विद्या - शिक्षाका समाज और देशके बालक-बालिकाओं में यथेष्टरूपसे सवार किया जाय - उसकी उनके हृदयोंमें ऐसी जड़ जमा दी जाय जो कभी हिल न सके अथवा ऐसी छाप लगा दी जाय जो कभी मिट न सके । सन्मति विद्या विनोद मेरी इच्छा- मैं चाहता हूँ समाज इस छोटीसी निधिको अपनाए, इसे अपनी ही अथवा अपने ही बच्चों की पवित्र २०३ निधि समझकर इसके सदुपयोगका सतत् प्रयत्न करे और अपने बालक-बालिकाओं को सन्तान -दर- सन्तान इस निधि से लाभ उठानेका अवसर प्रदान करे। विद्वान् बन्धु अपने सुलेखों, सलाह-मशवरों और सुरुचिपूर्ण चित्रादिके आयोजनों द्वारा इस ग्रन्थमाला को उसके निर्माण कार्य में अपना खुला सहयोग प्रदान करें और धनवान बन्धु अपने धन तथा साधन सामग्रीकी सुलभ योजनाओं द्वारा उसके प्रकाशन-कार्य में अपना पूरा हाथ बटाएँ । और इस तरह दोनों ही वर्ग इसके संरक्षक और संबर्द्धक बनें । मैं स्वयं भी अपने शेष जीवनमें कुछ बाल-साहित्य के निर्माणका विचार कर रहा हूँ । मेरी राय में यह ग्रन्थमाला तीन विभागों में विभाजित की जायप्रथम विभागमें ५ से १० वर्ष तक के बच्चोंके लिये, दूसरे में ११ से १५ वर्ष तककी आयु वाले बालकबालिकाओंके लिये और तीसरे में १६ से २० वर्षकी उम्र के सभी विद्यार्थियोंके लिये उत्तम बाल-साहित्यका आयोजन रहे और वह साहित्य अनेक उपयोगी विषयोंमें विभक्त हो; जैसे बाल-शिक्षा, बाल-विकास, बालकथा, बालपूजा, बालस्तुति प्रार्थना, बालनीति, बालधर्म, बालसेवा, बाल-व्यायाम, बाल- जिज्ञासा, बालतत्त्व-चर्चा, बालविनोद, बाल-विज्ञान, बालकविता, बालरक्षा और बाल न्याय आदि । इस बालसाहित्यके आयोजन, चुनाव, और प्रकाशनादिका कार्य एक ऐसी समिति के सुपुर्द रहे, जिसमें प्रकृत विषयके साथ रुचि रखने वाले अनुभवी विद्वानों और कार्यकुशल श्रीमानोंका सक्रिय सहयोग हो । कार्यके कुछ प्रगति करते ही इसकी अलगसे रजिस्टरी और ट्रस्टकी कार्रवाई भी कराई जा सकती है। इसमें सन्देह नहीं कि जैनसमाज में बाल-साहित्य का एकदम श्रभाव है- जो कुछ थोड़ा बहुत उपलब्ध है वह नहीं के बराबर है, उसका कोई विशेष मूल्य भी नहीं है । और इसलिये जैनदृष्टिकोण से उत्तम बाल-साहित्य के निर्माण एवं प्रसारकी बहुत बड़ी जरूरत है । स्वतन्त्र भारतमें उसकी आवश्यकता और भी अधिक बढ़ गई है। कोई भी समाज अथवा For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुजफ्फरनगर-परिषद् अधिवेशन ( बा० माईदयाल जैन बी० - परिषद के मुजफ्फरनगर अधिवेशनमें सम्मिलित होनेके प्रश्नने मेरे मनमें डाँवाडोलपन तथा दुविधा पैदा करदी | हृदय और मस्तिष्क में एक द्वन्द्व उत्पन्न होगया । परिषदकी शिथिलता के कारण उसके प्रति उदासीनता होना स्वाभाबिक है । परन्तु स्थापनाकाल से उससे सम्बन्ध होने के कारण उसके प्रति एक मोह सा भी है, कुछ उससे आशाएँ हैं । समस्त बातें सोचकर, मैं १५ मईको प्रातः देहलीसे मुजफ्फरनगर के लिये रवाना होगया । देश जो उत्तम बाल-साहित्य न रखता हो कभी प्रगति नहीं कर सकता । बालकोंके अच्छे-बुरे संस्कारोंपर ही समाजका सारा भविष्य निर्भर रहता है और उन संस्कारोंका प्रधान आधार बाल-साहित्य ही होता है । यदि अपने समाजको उन्नत, जीवित एवं प्रगतिशील बनाना है, उसमें सच्चे जैनत्वकी • भावना भरना है और अपनी धर्म - संस्कृतिको, जा ब्रिश्वके कल्याणमें सविशेषरूपसे सहायक है, अनुराग रखना है तो उत्तम बाल-साहित्य के निर्माण एव प्रसारकी ओर ध्यान देना ही होगा । और उसके लिये यह ‘सन्मति-विद्या-निधि' नीवकी एक ईटका काम दे सकती है । यदि समाजने इस निधिको अपनाया, उसकी तरफसे अच्छा उत्साहवर्द्धक उत्तर मिला और फलतः उत्तम बाल-साहित्य के निर्माणादि की अच्छी सुन्दर योजनाएँ सम्पन्न और सफल होगई तो इससे मैं अपनी उस इच्छा को बहुत अंशोंमें पूरी हुई समभूंगा जिसके अनुसार मैं अपनी दोनों पुत्रियोंको यथेष्टरूपमें शिक्षित करके उन्हें समाजसंवाक लिये अर्पित कर देना चाहता था । वीर सेवामन्दिर, सरसावा - ३१ मई १४-जुगल किशोर मुख्तार ए०, बी० टी०) १२ बजे दिनकी सख्त गर्मीमें गाड़ी स्टेशनपर पहुँची । वहाँ स्वयंसेवक और सवारियाँ तैयार थीं। सनातनधर्म-कालेजके विशाल छात्रावास में ठहरने और भोजनका प्रबन्ध था । सभाओंका प्रबन्ध स्थानीय जैन हाई स्कूल की बिल्डिङ्ग और टाउन हाल के मैदान में था । मुजफ्फरनगर की जैन बिरादरी के उत्साह, सुप्रबन्ध प्रेमपूर्ण आतिथ्य तथा सुव्यवस्थित पुर-तकुल्लुक भोजन और नाश्ते की जितनी प्रशंसा कीजाय कम हैं । शामको पक्का खाना । प्रबन्ध इतना अच्छा कि किसी सुबह ठंडाई - सहित नाश्ता, फिर कच्चा भोजन और को किसी बातकी जरा भी शिकायत नहीं । भोजनप्रबन्धके बारेमें मैं इतना ही कहूँगा कि हमें कुछ सादगी से काम लेना चाहिए, जिससे हरएक स्थानकी बिरादरी परिषद अधिवेशनको आसानी से बुला सके, या कमसे कम मुनासिब खर्च में ठीक प्रबन्ध होसके । पुराने कार्यकर्ताके अतिरिक्त बा० श्रीजयप्रकाशज मुजफ्फरनगरकी बिरादरी में श्रीबलवीरसिंहजी तथा श्रीसुमतिप्रसादजी एडवोकेट, एम० एल० ए० काँग्रेसी कार्यकर्ता दो ऐसे रत्न हैं जिनका जैन समाज - को अधिक उपयोग करना चाहिये । श्रीसुमतिप्रसादजीको तो प्रेरणा करके सामाजिक कार्योंमें भी आगे लाना चाहिए और उन्हें उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सुपुर्द करना चाहिये। मुझे आश्चर्य यही है कि अब तक उनकी सेवाओं का लाभ क्यों नहीं उठाया गया । पर जैन समाज में पुराने कार्यकर्ताओंको उदासीन न होने देने और नये नेता तथा कार्यकर्ता खोजने की लग्न यारा ही किसे है ? • परिषद में दूर-दूर स्थानोंसे डेढ़ सौ दो सौ के लगभग नए-पुराने नेता तथा कार्यकर्ता आए । उनके For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] हृदयों में बड़ा जोश तथा अरमान था, किन्तु वह समाज के किसी काम भी नहीं आया । कुछ इने-गिने महानुभावोंने ही इतना समय ले लिया कि औरोंकों अपने हृदयकी बात कहनेका अवसर ही नहीं मिला । पास-पास ठहरे हुए होते हुए भी किसीका किसीसे कोई परिचय नहीं कराया गया, न पारस्परिक सम्पर्क ही स्थापित हुआ । महिला कार्यकर्ताओं तथा नेताओं में सिर्फ श्रीमती लेखवती जैन थीं। यह दूसरी कमी हैं कि जैनसमाज स्त्री-शिक्षा - प्रचारके इस युग में अभी तक दो-चार भी महिला लीडर पैदा नहीं कर सका। मैं यह मानने को तैयार नहीं कि जैनसमाज में उच्च शिक्षा प्राप्त योग्य महिलाओं का अभाव है । दर्जनों नाम मैं गिनवा सकता हूं जिनमें श्रीमती रमारानी जैन धर्मपत्नी साहु शान्तिप्रसादजी, धर्मपत्नी ला० राजेन्द्रकुमार जी, पंडिता जयवन्तीदेवी, धर्मपत्नी श्री ऋषभसेन सहारनपुर, श्रीमती रामचन्द्र मिंगल सोनीपत आदि कुछ हस्तियाँ हैं जिनपर किसी भी समाजको गर्व हो सकता है । पर बात वास्तव में यह है कि जैनसमाजमें योग्यसे योग्य व्यक्ति, कार्यकर्ता, विद्वान् होते हुए भी, एक प्रेरक, संयोजक, संग्राहक तथा संचालक शक्तिका अभाव है । और परिषद् से वह शक्ति पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी तथा बैरिस्टर श्रीचम्पतरायजीके स्वगवासके पश्चात् समाप्त होगई। अब दरी काम हैं, पारस्परिक सम्पर्कका सर्वथा अभाव है | और सब शिथिलताका यही कारण है । मुजफ्फरनगर-परिषद् अधिवेशन अधिवेशनकी समस्त कार्यवाही देखनेके बाद यह कहा जा सकता है कि परिषद वैधानिक तथा प्रतिनिधित्व की दृष्टिसे (Constitutional and Representative points of views ) से बहुत कमजोर है। ऐसा मालूम होता था कि जैसे परिषद किसी विधानके नीचे काम ही नहीं कर रही। विधान के किसी भी प्रश्नपर चैलेंज करनेपर परिषद के मुख्य संचालकों के पास कोई उत्तर नहीं होता था । प्रतिनिधिकी दृष्टि से तो यह कहा जासकता है कि हर एक उपस्थित महानुभाव अपना ही प्रतिनिधि था । जहाँ २०५ परिषदका केन्द्रीय ऑफिस अत्यन्त कमजोर तथा अव्यवस्थित है, वहाँ शाखा सभाएँ तो न होने के बराबर हैं। यदि इस वर्षमें सभापति श्रीरतनलालजी और मन्त्री श्रीतनसुख रायजी इन त्रुटियोंको दूर कर सकें तो बड़ा काम होगा । विषय-निर्धारिणी सभामें चन्दा करते समय बताया गया कि पिछले पाँच वर्षोंमें श्रीसाहू शान्तिप्रसादजीने ९० हजार रुपया परिषदकी सहायता के लिए दिया । यह बहुत बड़ी रकम है और उसके लिये समाज तथा परिषद साहूजीका जितना उपकार मानें कम है। इस बड़ी रकमके अतिरिक्त समाजसे भी पाँच वर्षमें चन्दे, सहायता आदिके रूपमें २०, २५ हजार रुपये आये होंगे। किन्तु क्या यह कहा जा सकता है कि इतने रुपये खर्च करके भी परिषद इन वर्षों में कुछ काम कर सकी हैं, सिवाय इसके कि परिषद को इतने वर्ष सिर्फ जिन्दा रख दिया गया है, मरने नहीं दिया गया । परिषद के अधिवेशनमें जो प्रस्ताव पास हुए हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव वह है जिसमें हरिजनमन्दिर प्रवेश बिलों और दानके ट्रस्टोंके कानून बनाने में सरकार से जैनोंको अपना दृष्टिकोण पेश करने का अवसर देनेकी माँग है । यह अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण, नीतिपूर्ण और व्यवहार कुशलता परिचायक प्रस्ताव है । इस प्रस्तावका अनुमोदन करते हुए श्रीसाहू शान्तिप्रसादजीने जिस योग्यता तथा सभा चातुर्यका परिचय दिया वह अत्यन्त सराहनीय था । श्रीसुमतिप्रसादजीका समर्थक भाषण तो ऐसा था जैसा किसी धारासभा में बहुत ही सुलझे हुए स्टेटस्मैनका धारा प्रवाही भाषण हो । प्रस्तावका विरोध इतना युक्तिहीन, असंयत-भाषापूर्ण, तथा जिद भरा था कि जनता पर उसका जरा भी असर नहीं हुआ । प्रस्ताव अत्यन्त बहुमत से पास होगया । आने वाले वर्षोंमें जैन समाजको संगठित होकर अत्यन्त जागरूक तथा चौकन्ना रहकर निहायत होशियारी तथा प्रभावपूर्ण ढङ्गसे कार्य करना चाहिए ताकि भविष्य में बनने वाले कानून अधिक से अधिक For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ हमारे अनुकूल बन सकें। यदि हमने जरा-सी भूल की तो उसकी हानि जैन समाजको सैकड़ों वर्षों तक उठानी पड़ेगी। यदि यह कार्य जैनसमाजके तीनों सम्प्रदाय मिलकर करें, तो और भी अच्छा है । प्रबन्धक कमेटी के चुनाव के समय जो आलोचना हुई, उससे हमें काफी सीखना चाहिये। नामालूम हम नुमायशी, निकम्मी कमेटियोंके चक्कर से कब निकलेंगे और ठोस काम करने वाली कमेटियाँ बनाना कब सीखेंगे ? अनेकान्त महामन्त्री पद से श्रीराजेन्द्रकुमारजोने त्यागपत्र दिया। वह स्वीकृत होगया । आपकी सेवाएँ जैनसमाज और परिषद् के लिए महान हैं। परिषद् के स्थापनाकाल से ही आपका परिषद्से सम्बन्ध रहा है । तन-मन-धन से उसका कार्य आप २०, २५ वर्षसे कर रहे हैं । इतने वर्ष कार्य करने पर अवकाश चाहना सर्वथा उचित ही था । आपके स्थानपर श्री - तनसुखरायजी महामंत्री चुने गये। लाला तनसुखराय [ वर्ष ९ जी एक सिपाही ढंगके कार्यकर्ता हैं। आशा है कि वे परिषद् के संगठन कार्यको ठीकरूपसे करेंगे और आपको समाजका पूरा सहयोग मिलेगा । परिषद् सभापति श्रीरतनलालजी हैं। आपकी योग्यता, कार्यकुशलता, त्याग, देशभक्ति आदि की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। समाज आपसे यही चाहती है कि समाजका नेतृत्व ठीक-ठीक करके समाजसे काम लें । गाजियाबाद के एक भाईने नवयुवकों को कई बार इकट्ठा किया, किन्तु उसके परिणामस्वरूप किसी खास बात या कामका ज़िकर नहीं सुना । समस्त बातों को देखते हुए परिषद्का यह अधिवेशन न विशेष उत्साहवर्धक ही था और न निराशापूर्ण । सब आलोचक काम देखते हैं, काम चाहते हैं, किन्तु काम करना कोई नहीं चाहता । और इसी लिए काम नहीं होता । काश, हम सब स्वयं कुछ काम करना सीखें ! बर्नार्डशा के पत्रका एक अंश सुप्रसिद्ध अँग्रेज विद्वान् विचारक जार्ज बर्नार्डशा अपने २१ अप्रैल सन् १९४८के एक पत्र में, जो उन्होंने बाबू अजितप्रसादजी जैन एम० ए०, लखनऊको उनके पत्रके उत्तर में भेजा है, लिखते हैं कि'बहुत वर्ष हुए जब उनसे पूछा गया था कि प्रचलित धर्मों में से कौनसा धर्म ऐसा है जो उनके अपने धार्मिक विश्वास के सर्वाधिक निकट पहुँचता है, उन्होंने उत्तर दिया था कि क्वेकर मित्रमण्डलका पन्थ और जैनधर्म । किन्तु जब वे भारत आये और यहाँ एक जैन मन्दिरको देखा तो उन्होंने इस मन्दिरको अत्यन्त भद्दी घोड़ेके मूंडवाली मूर्तियोंसे भरा पाया । तीर्थङ्कर प्रतिमाएँ अवश्य ही जादू असर, सुन्दर और शान्तिदायक थीं, किन्तु वे भी भोले मूर्तिपूजकों द्वारा सामान्य देवी-देवताओं की भाँति पूजी जा रही थीं । अज्ञ जनसाधारणको प्रभाबित करने के लिये सब ही धर्मोंको उन अनुयायियोंकी योग्यताके अनुसार मूर्तियों एवं अतिशय चमत्कारादि द्वारा निचले स्तरपर लाना पड़ता ही है ।' For Personal & Private Use Only ज्योतिप्रसाद जैन, - लखनऊ, ता० १८-५-१९४८ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाकिस्तानी - पत्र [हमारे कई मित्रोंके पास पाकिस्तानसे पत्र श्राते रहते हैं और कुछ उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं, जिनसे साम्प्रदायिक उपद्रवोंपर काफ़ी प्रकाश पड़नेके अतिरिक्त लिखने वालोंकी स्वच्छ और वास्तविक मनोवृत्तिका पता लगता है । देशके बटवारेसे लोगोंको जो श्राघात पहुँचा है, उसका भी दिग्दर्शन होता है । हम ऐसे बहुमूल्य पत्र इस स्तम्भमें देनेका प्रयत्न करेंगे । नीचेका पत्र 'शायरके' सम्पादकको लिखा गया है और मार्चके शायरसे उसका श्रावश्यक श्रंश धन्यवादपूर्वक प्रकाशित किया जा रहा है । अनेकान्तकी अगली किरणोंमें और भी महत्वपूर्ण पत्र प मित्रोंसे मँगाकर देनेका विचार है । — गोयलीय ] लाहौर, ८ अप्रेल १९४८ गये । कितने सब कुछ लुटाकर खाली हाथ मुर्दोंसे भी बदतर जिन्दगी बसर करनेके लिये बच रहे । पञ्जाब, अब वोह पहला-सा पञ्जाब नहीं, जहाँ हर वक्त फारिग उलबाली और खुशीके सोते उबलते रहते थे । अब वह लाखों बेघर चलती-फिरती लाशोंका दफ़न है । बिरादरे मुहतरिम, तस्लीम ....... पञ्चाबकी खानाजङ्गीकी खूँ चाँ दास्तानोंका कुछ हिस्सा आप तक पहुँचता रहा होगा। क्या बयान करूँ इस शादाब और मसरूर ख्रित्तेको इसके अपने ही बेटोंने लाखों बेगुनाहोंके खूनसे किस क़दर दारादार बना दिया है। हजारों बरस पेश्तरके इन्सानोंके दिमाग़ और रूहपर से तहजीब और तमहुन का मुलम्मा काक्रूर हो गया था और अपने पीछे इन्सान के भेस में एक वहशी दरिन्दा छोड़ गया था, जिसने अपने भाइयोंको फाड़ खाया, अपने बेटोंका कलेजा नोच लिया, अपने बापदादाओंकी बूढी हड्डियोंको पाँवसे कुचला और अपनी माँ, बहनों और बेटियोंपर वोह सितम ढाये कि खुद जुल्म ब दरिन्दगी भी अँगुश्तबदन्दाँ रह गए । अल्लाह, अल्लाह, कैसा इन्कलाब हो गया ! अपनी क़िस्मका पहला अनोखा तबाहकुन इन्कलाब ! कितने अहबाब व अजीज इस खूनी सैलाब में बह इन आँखोंने महाजनकी तबाही और खस्तगी के बहुत जाँगुदाज, सीन देखे हैं। दुनियासे जी बेतार हो गया था, कुछ भी अच्छा नहीं लगता था । हरवक्त दिलपर गहरी उदासी छाई रहती थी। खुदाए पाकका शुक्र है कि अब लोगोंकी तकलीफें कुछ कम हुई हैं। अच्छे-बुरे सब अपने-अपने ठिकाने लग गये हैं, ख़ुदा उनपर अपना फज्रल फरमाए । बतनकी यादकी तकलीफ यूं मरते दमतक दिलको कचोके देती रहेगी, लेकिन अब इसकी शिद्दत में कुछ कमी गई है। For Personal & Private Use Only आपकी बहन शीरीं Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भारतीय स्थिति - मिल जानेसे प्रत्येक प्रान्तवाले स्वच्छन्द और उन्मत्त हो उठे हैं । मानो बन्दरोंके हाथमें डण्डे देकर उनके भारतके बेर और फूट दो प्रसिद्ध मेवे हैं, इन्हीं हा समक्ष गुड़की भेली डाल दीगई है, जो गुड़का उपभोग की बदौलत भारतको अनेक दुर्दिन देखने पड़े हैं। . है। न करके एक-दूसरेको मार भगानेमें व्यस्त हैं। धार्मिक संकीर्णता, अनुदारता, प्रान्तीयता और जातिमदको परतन्त्रताका अभिशाप समझा जाता प्रत्येक प्रान्तवाले अपने-अपने प्रान्तमें नौकरी, था । लोगोंका विचार था कि जिस रोज परतन्त्रता- व्यापार, उद्योग-धन्धे और राजकीय सुविधाएँ सब राक्षसीका जनाजा निकलेगा, ये दूषित विचार स्वयं अपने प्रान्तवालोंके लिये सुरक्षित रखना चाहते हैं। उसके साथ दफन हो जाएँगे । परन्तु यह धारणा अभारतीयसे अधिक अब अन्य प्रान्तीय विदेशी स्वप्नकी तरह क्षणभरको भी मधुरं न हो सकी- समझा जाने लगा है । और तारीफ यह है कि इस प्रान्तीय रोगसे ग्रसित प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रान्तके : "वही रफ्तार वेद पहले थी सो अब भी है।" अतिरिक्त अन्य प्रान्तोंमें भी अपने प्रान्तवालोंके लिये स्वतन्त्र होनेके बाद देश-विभाजनके फलस्वरूप परी सविधा चाहता है। भारतवासी होनेके नाते ये जो नर-मेध-यज्ञ, सीता-हरण और लङ्का-दहन-काण्ड लोग भारतके हर कोनेमें व्यापार, उद्योग-धन्धे, हए हैं, उसपर वर्द्धमान-कालीन यज्ञोंके पराजित नौकरियों आदिमें समान अधिकार चाहते हैं, किन्तु पुरोहित, रावण और दुर्योधन, राक्षस और हलाकू- अपने प्रान्तमें अन्य प्रान्तवासीको फूटी आँखसे भी चेंगेज, तैमूर-नादिरशाह, डायर-श्रोडायरके प्रेत देखा देखना नहीं चाहते। "जब तुम हमारे घर आओगे ठहाका मारकर हँस रहे हैं। दरिन्दे जानवर अपनेको तो क्या लाओगे ? और जब हम तुम्हारे यहाँ भनगा समझने लगे हैं, गधे हमारी करतूतोंपर आएँगे तो क्या दोगे ?" किसी कजूसका कहा हुआ मुस्करा रहे हैं और चील-कौओं, शृगाल और गिधों यह वाक्य इस समय शतप्रतिशत चरितार्थ हो रहा है। को इस बातका अभिमान है कि वे मनुष्य नहीं हैं। "बङ्गाल बङ्गालियोंका है, ये मारवाड़ी यहूदी हैं, भारतकी इस दयनीय स्थितिको संक्रमण (प्रसव) पञ्जाबी उद्दण्ड और झगड़ालू हैं" यह धारणा बङ्गकाल समझकर धैर्य रखे हुए थे कि सम्भवतया वासियों में बैठाई जा रही है। बिहारमें बिहारी, स्वतन्त्रताके बाद ऐसा होना आवश्यक था। किन्तु बङ्गाली, उडियाको लेकर सङ्घर्ष चलने लगे हैं । यह संक्रमणकाल तो भारतको संक्रामक-कीटाणुओं- महाराष्ट्रीय, गुजराती, पारसी, मद्रासी कभी प्रान्तीयता की तरह नष्टप्राय किये दे रहा है। भारतकी यह और जातीयताके कूपसे निकले ही नहीं। सी० पी०, नाजक हालत देखकर देशके कर्णधारोंके मुँहसे बर्बस यापी और दिल्ली प्रान्त इस छुतकी बीमारीसे निकल पड़ा है-“यदि भारतकी यही स्थिति रही तो अछूते थे; किन्तु जबसे पाकिस्तानी हिन्दुओंका प्रवेश वह अपनी स्वतन्त्रताको खो बैठेगा।" हुआ है, तबसे उनके संक्रामक-कीटाणु इनमें भी ___ जो कुसंस्कार और कुविचार परतन्त्रताकी विषैली प्रवेश करते जारहे हैं। यदि शीघ्र इस बीमारीका बायुसे मान्दसे दीख पड़ने लगेथे, वे हीस्वच्छन्दताके उपचार न हुआ तो भारत जैसा विशाल देश ऍरुप, झोंकेसे प्रज्वलित हो उठे हैं । प्रान्तीय स्वतन्त्रता इङ्गलेण्ड, फ्रान्स, बेलजियम, स्वीडन, डेनमार्क, For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] सम्पादकीय २०९ हालेण्ड, जर्मन आदिकी तरह छोटे-छोटे क्षेत्रोंमें था। अब तो यह अपनी मनोभिलषित इच्छाओंकी विभाजित हो जायगा। पूर्तिका अमोघ उपाय बन गया है । स्वतन्त्रताके बाद - जाति-मदका अब यह हाल है कि अब यह तप-त्यागकी आवश्यकता नहीं रही, अतः बड़े-बड़े चतुर्वणों में सीमित न रहकर हजारों शाखा-उप देश-द्रोही भी अब अपनेको देशभक्त बेझिझक कहते शाखाओं में फूट निकला है। ये चतुर्वर्ण एक दूसरेसे हैं । जो अधिकारी गान्धी कैपको देखकर भड़क लड़ते ही थे अब परस्परमें भी ताल ठोकने लगे हैं। उठते थे, वे अब गान्धीजीके चित्रकी पूजा करते हैं। म्यूनिस्पलकमेटियों, डिस्ट्रिक्टबोडोंके चुनावों में संघर्ष- जिन अधिकारियोंने देश-भक्तोंको फांसीपर लटका समाचार हमारे सामने हैं। अब केवल चार वर्षों में दिया, गोलियोंसे भून दिया, जेलों में सड़ा-सड़ाकर ही संघर्ष नहीं रहा, अपितु चौबे-पाण्डे, मिश्र-द्विवेदी, मार डाला, वे भी आज देशभक्तिका जामा पहन कर गहलोत-राठौड़, चौहान-कछवाहे, जाट-अहीर, गूजर- बड़ी शानसे निकलते है। माली, अग्रवाल-श्रोसवाल, माहेश्वरी-खण्डेलवाल, देश-सेवक जूझते रहे, भूखे मरते रहे, उनके श्रीवास्तव-सक्सेना, सुनार-लुहार, धोबी-तेली, चमार. बच्चे बिलखते रहे, औरतें सिसकतीं रहीं और जो भनी आदि हजारों उपजातियोंको लेकर संघर्ष होने ठाटसे नौकरी करते रहे, क्लबोंमें पीते-नाचते रहे, लगे हैं । भील-कोल, द्राविड़-आदिवासी और अछूत- खजाने भरते रहे, वे ही आज हमको कर्तव्यका बोध समस्या अभी हल हो नहीं पा रही है कि यह जाति- करानेमें गर्वका अनुभव कर रहे हैं । मालूम होता है मदका विषधर और फन फैलाकर खड़ा होगया है। सारी भूखी बिल्लियाँ भगतन बन गई हैं। हम उन मोहन (गान्धी) की अनुपस्थितिमें इस कालीदहमें सब सज्जनोंको भी जानते हैं जो युद्ध में अंग्रेजोंको कूदकर कौन कालिनागको विष रहित करे, यह सूझ सहायता करते रहे । जर्मन-विजयकी खुशी भी बड़े नहीं पड़ रहा है। यदि शीघ्र इसका विषहरण नहीं ठाटसे मनानेमें पेशपेश रहे। वे ही हवाका रुन किया गया तो सारे भारतमें यह विष फैलते बदलते ही आजाद हिन्द फौजकी सहायताको झोली देर नहीं लगेगी। लेकर निकल पड़े और अपने दूधमुंहे बच्चोंको ___साम्प्रदायिक और धार्मिक उन्माद महात्माजीके इंक़लाब भगतसिंह जिन्दाबाद और पूंजीवाद मुर्दाबादबलिदानसे खुमारी लेते नज़र आरहे हैं, पर बरसाती के नारे लगाते देख फूल उठते हैं। क्योंकि वे जानते हैं हवा पाते ही यह उन्माद यदि फिर उठ खड़ा हुआ तो कि अब इसमें जानको जोखिममें डालनेका प्रभाव न फिर यह राक्षस रामके मारे भी नहीं मरेगा। रहकर जानको मुटियानेका अमर गया है। __ इसके अतिरिक्त भारतमें पाकिस्तानी अङ्कर अब देशभक्ति राजनैतिक अधिकारियोंकी स्थली धीरे-धीरे बढ़ ही रहा है। काश्मीर और हैदराबादका बन गई है । चर्खा- दङ्गली, काँग्रेसी, सोसलिष्ट, समस्या भयावह बनी हुई है । कम्यूनिष्ट घुनके कीड़ों. कम्यूनिष्ट आदि इस अखाड़ेमें लगर बाँधकर उतरे की तरह भारतको जर्जरित कर ही रहे हैं। भ्रष्टाचार हुए हैं। भारतका हित किसमें है, इतना सोचनेका और घूसखोरीका यह हाल है कि मालूम होता है हम इन्हें अवकाश कहाँ ? अपनी पार्टीका हित किसमें है भारतमें न रहकर ठगों-चोरोंके मुल्कमें बस गये हैं। और विरोधी पक्ष किस दावपर पछाड़ा जाय, यही . अब देश-सेवा आत्मशुद्धिका साधन न रहकर चिन्ता इन्हें हरवक्त बनी रहती है। गनीमत है कि स्वार्थ और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओंकी साधक बन १००-५० खरे देशरत्न अभी जीवित हैं और उनके गई है। वे दिन हवा हुए जब देशके लिये त्याग हाथमें शासनकी बागडोर है, वे मन-वचन-कायसे करना और कष्ट सहना नैतिक कर्तव्य समझा जाता भारतकी स्थिति सुधारने में अहर्निश प्रयत्न कर रहे था और देशभक्त कहलाना आत्म प्रतिष्ठाका द्योतक हैं और प्रान्तीयता, साम्प्रदायिकता आदिकी जड़ोंमें . For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनेकान्त भीमट्ठा दे रहे हैं। फिर भी जबतक हम सभी भारत पुत्र अपने कर्तव्यको न समझें और उस ओर प्रयत्नशील न हों तबतक कैसे हमारे देश की उन्नति हो सकेगी ? जैन समाजका कर्तव्य - अतः अब जैनसमाजका कर्तव्य हो जाता हैं कि वह स्वार्थसाधन करने वाली देशभक्ति से बचे, राजनैतिक दल दलसे दूर रहे और सही अर्थों में भारतीय सपूत बने । (१) किसी भी जैनको म्यूनिस्पल कमेटियों, डिस्ट्रिक्टबोर्डों, कोन्सिलों और व्यवस्थापक सभाके लिये स्वतंत्र उम्मीदवार के नाते कभी भी खड़ा नहीं होना चाहिये । स्वतन्त्र खड़े होनेमें साम्प्रदायिक उत्पातकी हर समय सम्भावना है । अतः किसी भी व्यक्तिको यह अधिकार नहीं है कि वह व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं के लिये समूची समाजको खतरे में डाल दे । यदि कोई स्वार्थी ऐसा करनेका दुःसाहस करे भी तो समाजका उसका साथ हर्गिज नहीं देना चाहिये । चुनाव-निर्वाचनकी उम्मीदवारी के लिये उसी व्यक्तिका खड़ा होना चाहिये और उसीका हमें समर्थन करना चाहिये जिसको उसके त्याग, बलिदान या योग्यता के बलपर देशके अधिकारी वर्गने खड़ा किया हो । जिस कार्यमें देशकी भलाई हो, बहुसंख्यक जनता जिस वर्गके कार्यको सराहे, उसे विश्वस्त समझे हमें उसी वर्गकी लोक-हितैषी योजनाओंमें भाग लेना चाहिये। व्यर्थके राजनैतिक दलदल में नहीं फँसना चाहिये । यह वह दलदल है कि एक बार भी भूल से फँस जानेपर फिर कभी उद्धार नहीं । अतः हमारी समाजका कर्तव्य है कि अब वह अपनी संस्कृति और धार्मिक आचार-विचारका बड़ी योग्यता प्रसार करे । और यह प्रसार तभी हो सकता है जब हम जैनधर्मके मूल सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारें । (२) हमारे देशमें अब माँस-मदिराका प्रसार उत्तरोत्तर बड़े वेग से बढ़ता जारहा है। दिन-पर-दिन इस तरहके रेस्टोरेण्ट और होटल बड़ी संख्या से खुलते [ बर्ष ९ जारहे हैं। दिल्लीके जिस चाँदनीचौक में मुसलमानी सल्तनतमें भी कभी माँस नहीं बिका, वहाँ अब हर १० गज की दूरी पर कबाब और गोश्त -रोटी बिकने लगे हैं। अण्डों का प्रचार होता जारहा है। हमारी नई दिल्ली भी इस दूषित खान-पानसे प्रभावित हो रही है । क्लबोंमें सभ्य सोसायटीके नामपर शराब और जू जरूरी होगया है । सिनेमाओंके हुस्नोइश्कके नामोंसे अश्लीलता निर्लज्जताका जो पाठ हमारे बालक-बालिकाएँ जवानीकी चौखटपर पाँव रखनेसे पहले पढ़ लेते हैं, उससे हमारी नस्लों में घुन लगने लगा है । अब समय आगया है कि श्वेताम्बर जैन साधु श्राश्रमोंसे निकल आएँ । गलीगली, कूँचे- कूँचे में सभाएँ करके माँस-मदिराका श्रम जनतासे त्याग करायें । मद्य-माँस-निषेधिनी सभा स्थापित करके - सिनेमा और समाचारपत्रोंके विज्ञापनों द्वारा, पोस्टरों द्वारा, छोटे-छोटे ट्रेक्टों और व्याख्यानों द्वारा इस बढ़ती प्रथाको रोकें । हमारे जिन पूर्वजोंने यज्ञ- याज्ञादि और उच्च वर्णों में हिंसा सर्वथा त्याज्य करादी थी, निम्न श्रेणी के भी बहुत कम उसका प्रयोग करते थे। आज उनके हम वंशज उनके किये हुए अनथक कार्यपर पानी फिरते देख रहे हैं और हाथपर हाथ बाँधे चुपचाप बैठे हैं । कहीं-कहीं वेश्यानृत्य भी चालू होगये हैं। हमें चाहिए तो यह था कि हम पूर्वजों के कार्यको आगे बढ़ाते । इनका समूचे भारतमें विरोध करके हम यूरुप और इस्लामी देशों में पहुँचते और कहाँ हम अपनी आँखोंके समक्ष इस धर्मघाती भावनाको उत्तरोत्तर बढ़ती हुई देख रहे हैं । भारतीय पूर्ण शक्तिशाली और बलवान हों, अहिंसक हों, उनके हृदयमें दूसरोंके प्रति दया-ममता हो । वह महावीर की तरह पशु-पक्षियोंके पीड़ित होनेपर दयार्द्र हो उठे, पतित-से-पतितको भी ईसाकी तरह उवार सकें । (३) हमारी वाणी में जादू हो, हमारी वाणी से जो भी वाक्य निकले उसका कुछ क़ीमती अर्थ हो । लोग हमारी बातको निरर्थक न समझकर मूल्यवान समझें । जनताको यह विश्वास हो कि प्रत्येक जैन For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] कथित स्वोपज्ञ भाष्य २११ अपनी बातका धनी होता है । जो वायदा करता है सम्बन्धमें भी हमें अपने पूर्वजोंकी त्यागवृत्ति, सन्तोष उसे जानपर खेलकर भी पूरा करता है । सूर्य-चन्द्रकी और परिमाणवृत्ति फिरसे अपनानी होगी। गति बदल सकती है, परन्तु इनकी बात नहीं बदल जब हम इस तरहके आत्म-शुद्धिके कार्य अपने सकती । जानसे कीमती वचनको समझते हैं। जीवनमें उतारेंगे तभी हमारा यह लोक और परलोक (४) जैनोंसे कभी धोखेकी सम्भावना नहीं, सुधरेगा। और तभी सच्चे अर्थों में जैनधर्मका प्रसार जो वस्तु देंगे, खरी और पूरी देंगे। इनसे बिन गिने होगा और संसार इसकी ओर आकर्षित होगा। रुपये लेनेपर भी पाईका फर्क नही पड़ेगा। इनका उक्त विचार आज शायद कुछ नवीन और अटटिकट चैक करना, चुङ्गीपर पूछना वर्जित है । जैन पटेसे प्रतीत होते हों, परन्तु हमारे धर्मकी भित्ति ही कह देनेका ही यह अर्थ होना चाहिए कि जैन इन ईंटोंपर खड़ी की गई है । अगर जैनधर्मको राजकीय नियमके विरुद्ध कोई वस्तु नहीं रखते जीवित रखना है तो उसकी इन नींवकी ईंटोंको और न राजकीय या प्रजाहितके साधनोंका दुरुपयोग हरगिज़ हरगिज़ नहीं हिलने देना होगा। ही करते हैं। यह मिट्टी और पानी भी पूछकर लेते हैं। हम भारतके आदि - निवासी हैं। भारत हमार __(५) हमारा शील-स्वभाव ऐसा हो कि निर्जन है । हमारा हर प्रयत्न, हर श्वास इसके लिये स्थानमें भी किसी अबलाको हमारे प्रति सन्देह न’ उपयोगी हो। हमसे स्वप्नमें भी इसका अहित न हो। हो । वह अपने निकट हमारी उपस्थिति रक्षककी इसके लिये हमें सदैव जागरूक रहना होगा। आज भाँति समझे। जैन भी बलात्कारी या कुशील हो स्वार्थके लिये धन-लोलुप पाकिस्तानी क्षेत्रोंमें अपने सकता है यह उसके मनमें कल्पना ही न पाकर दे। देश-भाइयोंका गला काटकर कपड़ा और अन्न भेज (६) परिग्रहवादको लेकर आज सारा संसार रहे हैं और अनेक षडयन्त्रोंमें लिप्त होरहे हैं । ऐसे त्रस्त है। इस आपा-धापीके कारण ही युद्ध होते हैं, अधम कार्योंसे-मनुष्योंसे हमें दूर रहना होगा । हम जीवनोपयोगी वस्तुओंपर कण्ट्रोल लगाते हैं। मज- अपने अच्छे कार्योसे जैन-समाजकी कीति यदि न बाजीपति संघर्ष चलते हैं। अतः हमें अपने बढा सकें तो हमें पूर्वजोंके किये हए सत्कार्योंपर पानी जीवनमें 'जीयो और जीनेदो'का सिद्धान्त उतारना फेरनेका कोई अधिकार नहीं है। होगा। पैसा इकट्रा करना पाप नहीं, उसके बलपर डालमियानगर ) • शोषण करना-अत्याचार ढाना पाप है । परिग्रहके १४ मई १६४८ ) -गोयलीय कथित स्कोपज्ञ भाष्य (लेखक-बा० ज्योतिप्रसाद जैन एस. ए.) वाचार्य उमास्वामि-कृत तत्त्वार्थाधिगम सूत्र तम दिगम्बर टीका इस समय उपलब्ध है वह प्राचार्य दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों देवनन्दी पूज्यपाद (५वीं शताब्दी ई०) द्वारा रचित में समानरूपसे परम मान्य ग्रन्थ है, और दोनों ही 'सर्वार्थसिद्धि' है । तदुपरान्त, ७वीं शताब्दी ई०में सम्प्रदायोंके उद्भट विद्वानों-द्वारा, प्राचीन कालसे ही, भट्टाकलङ्कदेवने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक', ८वीं शताब्दी जितने बहुसंख्यक टीका-ग्रन्थ इस एक धर्मशास्त्रपर ईमें विद्यानन्दस्वामीने 'श्लोकवार्तिक' तथाउनके रचे गये उतने शायद किसी अन्य जैन, और सम्भवतया पश्चात् अन्य अनेक टीकाएँ दिगबर विद्वानोंने रची हैं। अजैन ग्रन्थपर भी नहीं रचे गये । उसकी सर्वप्रथम श्वेताम्बर विद्वानों द्वारा इस ग्रन्थकी ठीकाएँ टीका दूसरी शताब्दी ई में आचार्य स्वामिसमन्त- प्रायः ९वीं शताब्दी ई०के पश्चात् रची जानी प्रारम्भ भद्रद्वारा रची गई बताई जाती है, किन्तु वह टीका हुई। किन्तु श्वेताम्बर आम्नायमें इस सूत्र प्रन्थका . वर्तमानमें अनुपलब्ध है । तत्त्वार्थसूत्रकी जो प्राचीन- एक प्राचीन भाष्य भी प्रचलित रहता आया है, जिसे For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनेकान्त . [ वर्ष ९ कि उक्त आम्नायके विद्वानों द्वारा स्वोपज्ञ भाष्य मान्यताओं एवं क्रियाओंका समर्थन करता है, उक्त अर्थात स्वयं ग्रन्थकर्ता उमास्वातिकृत समझा और आम्नायके अनुयायियों द्वारा स्वयं उमास्वातिकी कृति बताया जाता रहा है। कुछ वर्ष हुए, अनेकान्त आदि माना जाता है। श्वेताम्बरोंका उक्त भाष्यको उमा पत्रों में इस विषयको लेकर श्वेताम्बर तथा दिगम्बर स्वामि कृत मानना कहाँ तक सङ्गत है, यह कहना विद्वानोंके बीच पर्याप्त वादविवाद चला था, और तो जरा कठिन है, किन्तु हमें इस बातको खुले हृदयउसका परिणाम प्रायः यही निकला था कि कथित से स्वीकार करनेमें अवश्य ही कोई झिझक नहीं स्वोपज्ञ भाष्य आचार्य उमास्वामीके समयसे बहुत होनी चाहिये कि अपने ही ग्रन्थपर स्वोपज्ञ भाष्य पीछेकी रचना है और वह उनके स्वयंके द्वारा रची लिखनेका श्रेय हम आधुनिक विद्वानोंने भी अनेक जानी सम्भव नहीं है। किन्तु दिगम्बर विद्वानों द्वारा ग्रन्थकारोंको दे डाला है। अस्तु, 'अर्थशास्त्र के स्वयंके प्रस्तुत प्रबल एवं अकाट्य प्रमाणोंसे और युक्तियों के एक श्लोकके सुस्पष्ट अभिधेयाथेके बावजूद 'अर्थशास्त्र बावजूद उदारसे उदार श्वेताम्बर विद्वान भी भाष्य- जिस रूपमें आज उपलब्ध है उसी रूपमें स्वयं की स्वोपज्ञतापर अविश्वास करनेको तैयार नहीं होते। कौटिल्य द्वारा रचा कहा जा रहा है, जबकि वास्तव इसी विषयपर, प्रसगवश, प्राचीन इतिहास- में वह मूलग्रन्थकी विष्णुगुप्त नामक एक विद्वान विशेषज्ञ प्रो. सी. डी. चटर्जी महोदय ने अपने एक द्वारा रचित टीकामात्र है, जिसमें कि भूल अर्थशास्त्रलेखमें' सुन्दर प्रकाश डाला है। उक्त लेखके फुटनोट के पद्योंको अधिांशतः गद्यरूप दे दिया गया है, और नं०४१ में आप कथन करते हैं कि- शेष पद्योंमेंसे कुछकी व्याख्या कर दी गई है तथा कुछ "यह विश्वास करना अत्यन्त कठिन है कि एकको उनके स्वरूपमें ही उद्धृत कर दिया गया है। उमास्वामी को 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' जैसा जैनसिद्धान्त इस प्रकारके उदाहरण एक दो नहीं, अनेक हैं । हम (तत्त्वज्ञान एवं प्राचार) का अपूर्व सार-सङ्कलन, लोगोंने धनञ्जयके 'दशरूपक'पर रचे गये 'अवलोक' जोकि जैनधर्ममें वही स्थान रखता है जैसा कि का कतृत्व धनञ्जयको ही प्रदान किया, और यह बौद्धधर्ममें 'विशुद्धिमग्ग' दिगम्बर श्राम्नाय द्वारा माना कि उस 'अवलोक'को उसने 'धनिक' नामसे अपने अङ्ग एवं अङ्गवाह्य श्रुत-द्वयका स्वरूप तथा रचा, और यह नाम उसने अपने ग्रन्थपर स्वयं ही आकार पूर्णतया सुनिश्चितकर लिये जाने के पूर्व ही टीका रचनेके लिये उपनामके रूपमें धारण किया लिखा जा सका हो । था ! इसी प्रकार इतिहासकार महानाभको अपने "यह कि, उमास्वाति अथवा उमास्वामी एक 'महावश'पर स्वयं ही टीका रचनेका श्रेय दिया गया दिगम्बर आचार्य थे इस बातमें तनिक भी सन्देह है. इस बातकी भी अवहेलना करते हुए कि स्वयं नहीं है, किन्तु साथ ही यह बात भी उतनी ही सत्य ग्रन्थका पाठ इस बातको प्रसिद्ध कर रहा है। है कि उन्होंने अपने ग्रन्थमें दिगम्बरों और श्वे. हमारी इस प्रकारकी अज्ञ-विश्वास-प्रियताके ये ताम्बरोंके बीच विवादास्पद विषयोंका समावेश न कतिपय ज्वलन्त उदाहरण है। और यदि हम (आधुकरनेमें प्रयत्नपूर्वक सावधानी बरती है। तत्त्वाथा- निक विद्वान ) तत्त्वार्थाधिगमके कथित मूलभाष्यका धिगमसूत्रका मूलभाष्य (बिबलियोथेका इडिका कतत्व भी उसके स्वयंके रचयिता, उमास्वामिको ही १९०३-५) जो कि बहुलताके साथ श्वेताम्बर प्रदान करते हैं, दिगम्बर विद्वानोंकी प्रबल पुष्ट १ Dr. B.C. Law Volume, Part I में प्रकाशित आपत्तियोंकी भी अवहेलना करते हुए, तब भी हम २ और अपने लेखमें अन्यत्र अापने कथन किया है कि कोई नई मिसाल पैदा नहीं कर रहे हैं, क्योंकि यह "पूर्ण सम्भावना यही है कि कुन्दकुन्द और उमास्वामी रिवाज तो हमने पहलेसे ही भली प्रकार स्थापित । दोनों सन् ई० पूर्व ७५से सन् ई० ५०के बीच में हए थे।" कर लिया है।" For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन ७. मुक्ति-दुत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रौमाँम) मू०४॥) ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनों में उदाहरण देने योग्य । मूल्य ३)। १. महाबन्ध-(महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग । हिन्दी टीका सहित मूल्य १२)। २. करलक्खण-(सामुद्रिक-शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १)। ३. मदनपराजय- कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावना सहित । जिनदेवके कामके पराजयका सरस रूपक । सम्पादक और अनुवादक-पं० राजकुमारजी सा० । मू०5) ४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्दू विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनके एफ० ए० के पाठ्यक्रममें निर्धारित । मुखपृष्ठपर - महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४) ५. हिदी जैन-साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन-साहित्यका इतिहास र तथा परिचय । मूल्य २)। ६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ||)। ९. पथचिह्न-( हिन्दी साहित्यकी अनुपम पुस्तक ) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २)। १०. पाश्चात्यतक शास्त्र-(पहला भाग ) एफ० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि–अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी | पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४||| . ११. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्नमूल्य २)। १२. कबडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवसदि तथा अन्य ग्रन्थभण्डार कारकल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय प्रन्थोंके सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमें तथा शास्त्र-भण्डारमें विराजमान करने योग्य । मूल्य १०) । वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस । For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. A-731 कीरसेकामन्दिरके नये प्रकाशन 1 अनित्यभावना- मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी 6 न्याय-दीपिका (महत्वका नया संस्करण) के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित / इष्टवियोगादिके न्यायाचार्य प० दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित कारण कैसा ही शोकसन्तप्त हृदय क्यों न हो, इसको एक और अनुवादित न्यायदीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण बार पढ़ लेनेसे बड़ी ही शान्तताको प्राप्त हो जाता है। अपनी खास विशेषता रखता है। अबतक प्रकाशित इसके पाठसे उदासीनता तथा खेद दूर होकर चित्तमें संस्करणोंमें जो अशुद्धियाँ चली प्रारही थीं उनके प्राचीन पसन्नता और सरसता आजाती है। सर्वत्र प्रचारके प्रतियोंपरसे संशोधनको लिये हुए यह सस्करण मूलग्रन्थ योग्य है। मूल्य / ) और उसके हिन्दी अनुवादके साथ पाक्कथन, सम्पादकीय, 2 आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र-नया 101 पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना. विषयसूची और कोई - प्राप्त संक्षिप्त सूत्रगन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी परिशिष्टोंसे संकलित है, साथमें सम्पादक-द्वारा नवनिर्मित सानुवाद व्याख्या सहित / मूल्य / ) 'काशाख्य' नामका एक संस्कृत टिप्पण भी लगा हुआ है,. जो ग्रन्थगत कठिन शब्दों तथा विषयोंको खुलासा करता 3 सत्साधु-स्मरण-मङ्गलपाठ-मुख्तार श्री हा विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके कामकी चीज जुगलकिशोरजीकी अनेक प्राचीन पद्योंका लेकर नई योजना, सुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि-सहित / इसमें श्रीवीर है। लगभग 400 पृष्ठों के इस सजिल्द वृहत्संस्करणका वर्द्धमान और उनके बादके, जिनसेनाचार्य पर्यन्त,२१ लागत मूल्य 5) 20 है। कागजकी कमीके कारण थोड़ी महान् श्राचार्योंके अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों द्वारा ही पतियाँ छपी हैं और थोड़ी ही अवशिष्ट रह गई हैं। किये गये महत्वके 136 पुण्य स्मरणोंका संग्रह है और अतः इच्छुकांको शीघ्र ही मँगा लेना चाहिये। शुली 1 लोकमंगल-कामना, 2 नित्यकी श्रात्म-प्रार्थना 7 विवाह-समुहेश्य-लेखक पं० जुगलकिशोर 3 साधुवेषनिदर्शन-जिनस्तुति, 4 परमसाधुमुखमुद्रा और मुख्तार, हाल में प्रकाशित चतुर्थ संस्करण / 5 सत्साधुवन्दन नामके पाँच प्रकरण हैं। पुस्तक पढ़ते ___ यह पुस्तक हिन्दी साहित्यमें अपने दंगकी एक ही समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और चीज है। इसमें विवाद-जैसे महत्वपूर्ण विषयका बड़ा ही साथ ही प्राचार्योंका कितना ही इतिहास सामने श्राजाता मार्मिक और तात्त्विक विवेचन किया गया है। अनेक है। नित्य पाठ करने योग्य है। मू०) विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-प्रवृत्तियों से उत्पन्न हुई 4 अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड--यह पञ्चाध्यायी विवाहकी कठिन और जटिल समस्याओंको बड़ी युक्तिके तथा लाटी संहिता आदि ग्रन्थोंके कर्ता कविवर राजमल्ल साथ दृष्टिके स्पष्टीकरण-द्वारा सुलझाया गया है और इस की अपूर्व रचना है / इसमें अध्यात्मसमुद्रको कजेमें बन्द तरह उनमें दृष्टिविरोधका परिहार किया गया है / विवाह किया गया है। साथमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी क्यों किया जाता है? धर्मसे. समाजसे और गृहस्थाश्रमकोठिया और पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीका सुन्दर से उसका क्या सम्बन्ध है ? वह कब किया जाना चाहिये? अनुवाद, विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोर उसके लिये वर्ण और जातिका क्या नियम होसकता है? जीकी लगभग 80 पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। विवाद न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है ? बड़ा ही उपयोगी अन्य है। मू० 1||) इत्यादि बातोंका इस पुस्तकमें बड़ा ही युक्ति-पुरस्सर 5 उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा-मुख्तार एवं हृदयग्राही वर्णन है / बढ़िया पार्ट पेपरपर छपी है। श्रीजुगलकिशोरजीकी ग्रन्थपरीक्षाओंका प्रथम अंश, विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य हैं। मू०॥) अन्थ-परीक्षाओंके इतिहासको लिये हुये 14 पेजकी नई प्रकाशन विभागपस्तावना-सहित / मू०) वीरसेवामन्दिर, सरसावा (संहारनपुर) . - . - . . प्रकाशक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ काशीके लिये आशाराम खत्री द्वारा राँयल प्रेस सहारनपुर में मुद्रित