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________________ १७४ अनेकान्त [वर्ष ९ अनुवादकको भारी भ्रान्ति हुई जान पड़ती है। खाता लतावनं सालं वनानां च चतुष्टयम् ॥१८॥ 'परियन्ति' वर्तमानकाल-सम्बन्धी बहुवचनान्त पद द्वितीयसालमुत्क्रम्य ध्वजान्कल्प विलिम् । है, जिसका अर्थ होता है 'प्रदक्षिणा करते हैं'-न कि स्तूपान्प्रासादमाला च पश्यन् विस्मयमाप सः ॥१७॥ 'प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार करते थे। और 'वहिस्ततः' । ततो दौवारिकैर्देवैः सम्भ्रायद्भिः प्रवेशितः । का अर्थ है उसके बाहर । उसके किसके ? समवसरण श्रीमण्डपस्य वैदग्धीं सोऽपश्यत्स्वर्गजिन्वरीम् ॥१६॥ के नहीं बल्कि उस श्रीमण्डपके बाहर जिसे पूर्ववर्ती ।। ततः प्रदक्षिणीकुर्वन्धर्मचक्रचतुष्टयम् । त' पदके द्वारा उल्लेखित किया है, जहाँ लक्ष्मीवान्पूजयामास प्राप्य प्रथमपीठिकाम् ॥१९॥ भगवान्की गन्धकुटी होती है और जहाँ चक्रपीठपर ततो द्वितीयपीठस्थान विभोरष्टौ महाध्वजान् । चढ़कर उत्तम भक्तजन भगवानकी तीन वार प्रदक्षिणा सोऽर्चयामास सम्प्रीतः पूतैर्गन्धादिवस्तुभिः ॥२०॥ करते हैं, अपनी शक्ति तथा विभवके अनुरूप यथेष्ट मध्ये गन्धकुटीद्धद्धिं पराये हरिविष्टरे । पूजा करते हैं, वन्दना करते हैं और फिर हाथ जोड़े। ___उदयाचलमूर्धस्थमिवाकै जिनमैक्ष्यत ॥२१॥ हुए अपनी-अपनी सोपानोंसे उतर कर आनन्दके साथ -आदिपुराण पर्व २४ यथा स्थान बैठते हैं। और जिसका वर्णन आगेके इन सब प्रमाणोंकी रोशनीमें 'वहिस्ततः' पदोंका निम्न पद्योंमें दिया है: वाच्य श्रीमण्डपका बाह्य प्रदेश ही हो सकता हैक्षत्रचामरभृङ्गाद्यवहाय जयाजिरे । . समवसरणका बाह्य प्रदेश नहीं; जो कि पूर्वाऽपर प्राप्तैरनुगताः कृत्वा विशन्त्यंजलिमीश्वराः ॥१७४।। कथनोंके विरुद्ध पड़ता है। और इस लिये पं० गजाप्रविश्य विधिवद्धतथा प्रणम्य मणिमौलयः । धरलालजीने १७२वें पद्यमें प्रयुक्त हुए 'अन्तः' पदका चक्रपीठं समारुह्य परियन्ति त्रिरीश्वरम् ॥१७५।। अर्थ “समवसरणमें" और १७३वें पद्यमें प्रयुक्त पूजयन्तो यथाकामं स्वशक्तिविभवार्चनैः । 'वहिस्ततः' पदोंका अर्थ 'समवसरणके बाहर' करके सुराऽसुरनरेन्द्राद्या नामादेश(?) नमन्ति च ॥१७६।। भारी भूल की है। अध्यापकजीने विवेकसे काम न ततोऽवतीर्य सोपानैःस्वैः स्वैःस्वाञ्जलिमौलयः । लेकर अन्धानुसरणके रूपमें उसे अपनाया है और रोमाञ्चव्यक्तहर्षास्ते यथास्थानं समास्ते ॥१७७। इसलिये वे भी उस भूलके शिकार हुए हैं। उन्हें अब -हरिवंशपुराण सर्ग ५७ समझ लेना चाहिये कि हरिवंशपुराणका जो पद्य इन पद्योंके साथमें आदिपुराणके निम्न पद्योंको उन्होंने प्रमाणमें उपस्थित किया है वह समवसरणमें भी ध्यानमें रखना चाहिये, जिनमें भरतचक्रवर्तीके शादिकोंके जानेका निषेधक नहीं है बल्कि उनके समवसरणस्थित श्रीमण्डप-प्रवेश आदिका वर्णन जानेका स्पष्ट सूचक है। क्योंकि वह उनके लिये समहै और जिनपरसे संक्षेपमें यह जाना जाता है कि वसरणमें श्रीमण्डपके बाहर प्रदक्षिणा - विधिका मानस्तम्भोंको आदि लेकर समवसरणकी कितनी विधायक है। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये भूमि और कितनी रचनाओंको उल्लङ्घन करनेके कि 'शूद्राः' पदके साथमें जो 'विकुर्वाणाः' विशेषण बाद अन्तःप्रवेशकी नौबत आती है, और इस लिये लगा हा है वह उन शुद्रोंके असत् शूद्र होनेका अन्तःप्रवेशका आशय श्रीमण्डप-प्रवेशसे है, जहाँ सचक है जो खोटे अथवा नीचकर्म किया करते चक्रपीठादिके साथ गन्धकुटी होती है, न कि सम- हैं, और इसलिये सतशद्रोंसे इस प्रदक्षिणा-विधिका वसरण-प्रवेशसे: सम्बन्ध नहीं है-वे अपनी रूचि तथा भक्तिके परीत्य पूजयन्मानस्तम्भानत्यत्ततः परम् । अनरूप श्रीमण्डपके भीतर जाकर गन्धकुटीके पाससे १ प्रादक्षिण्येन वन्दित्वा मानस्तम्भमनादितः । भी प्रदक्षिणा कर सकते हैं । प्रदक्षिणाके समउत्तमाः प्रविशन्त्यन्तरुत्तमाहितभक्तयः ॥ १७२ ॥ वसरणमें दो ही प्रधान मार्ग नियत होते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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