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________________ किरण ५] समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश १७५ एक गन्धकुटीके पास चक्रपीठकी भूमिपर और दूसरा फलस्वरूप श्रावकके व्रतोंको भी ग्रहण करते हैं, जिन श्रीमण्डपके बाह्य प्रदेशपर । हरिवंशपुराणके उक्त के ग्रहणका पशुओंको भी अधिकार है, यह स्वत: श्लोकमें श्रीमण्डपके बाह्य प्रदेशपर प्रदक्षिणा करने सिद्ध हो जाता है। फिर आदिपुराण-उत्तरपुराणके वालोंका ही उल्लेख है और उनमें प्राय: वे लोग आधारपर उसको अलगसे सिद्ध करनेकी जरूरत शामिल हैं जो पाप करनेके आदी है-आदतन भी क्या रह जाती है ? कुछ भी नहीं। (स्वभावतः) पाप किया करते हैं, खोटे या नीच कर्म इमके सिवाय, किसी कथनका किसी ग्रन्थमें करने वाले असत शूद्र हैं, धूर्तताके कायेमें निपुण यदि विधि तथा प्रतिषेध नहीं होता तो वह कथन (महाधूत) हैं, अङ्गहीन अथवा इन्द्रियहीन हैं और उस ग्रन्थके विरुद्ध नहीं कहा जाता। इस बातको पागल हैं अथवा जिनका दिमाग चला हुआ है। आचाय वीरसेनने धवलाके क्षेत्रानुयोग-द्वारमें निम्न और इस लिये समवसरणमें प्रवेश न करने वालोंके वाक्य-द्वारा व्यक्त किया हैसाथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। छठे, अध्यापकजीने व्याकरणाचार्यजीके सामने "ण च सत्तरज्जुबाहल्लं करणाणिोगसुत्त: उक्त श्लोक और उसके उक्त अर्थको रखकर उनसे जो विरुद्धं, तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो" (पृ०.२२) यह अनुरोध किया है कि "आप अन्य इतिहासिक अर्थात्-लोककी उत्तरदक्षिण सर्वत्रसातराजु ग्रन्थों (आदिपुराण-उत्तरपुराण के प्रमाणों द्वारा इसके मोटाईका जो कथन है वह 'करणानुयोगसूत्र'के अविरुद्ध सिद्ध करके दिखलावें और परस्परमें विरोध विरुद्ध नहीं है, क्योंकि उस सूत्रमें उसका यदि होनेका भी ध्यान अवश्य रक्खें" वह बड़ा ही विधान नहीं है तो प्रतिषेध भी नहीं है। .. विचित्र और बेतुका मालूम होता है ! जब अध्यापक . - शूद्रोंका समवसरणमें जाना, पूजावन्दन करना . जी व्याकरणाचार्यजीके कथनको आगमविरुद्ध सिद्ध और श्रावकके व्रतोंका ग्रहण करना इन तीनों बातोंकरनेके लिये उनके समक्ष एक आगम-वाक्य और का जब आदिपुराण तथा उत्तरपुराणमें स्पष्टरूपसे उसका अर्थ प्रमाणमें रख रहे हैं तब उन्हींसे उसके कोई बिधान अथवा प्रतिषेध नहीं है तब इनके .. अविरुद्ध सिद्ध करनेके लिये कहना और फिर अवि कथनको आदिपुराण तथा उत्तरपुराणके विरुद्ध नहीं रोधमें भी विरोधकी शङ्का करना कोरी हिमाकतके कहा जा नकता। वैसे भी इन तीनों बातोंका कथन सिवाय और क्या हो सकता है ? और व्याकरणा आदिपुराणादिकी रीति, नीति और पद्धतिके विरुद्ध चार्यजी भी अपने विरुद्ध उनके अनुरोधको माननेके लिये कब तैयार हो सकते हैं ? जान पड़ता है नहीं हो सकता; क्योंकि आदिपुराणमें मनुष्योंकी वस्तुतः एक ही जाति मानी है, उसीके वृत्तिअध्यापकजी लिखना तो कुछ चाहते थे और लिख (आजीविका)भेदसे ब्राह्मणादिक चार भेद बतलाये • गये कुछ और ही हैं, और यह आपकी स्खलित हैं', जो वास्तविक नहीं हैं। उत्तरपुराणमें भी साफ भाषा तथा असावधान लेखनीका एक खास नमूना है जिसके बल-बूतेपर आप सुधारकोंको लिखित कहा है कि इन ब्राह्मणादि वर्णो-जातियोंका आकृति आदिके भेदको लिये हुए कोई शाश्वत लक्षण भी शास्त्रार्थका चैलेंज देने बैठे हैं !! गा-श्रश्वादि जातियोंकी तरह मनुष्य-शरीरमें नहीं .. सातवें, शूद्रोंका समवसरणमें जाना जब अध्याप- पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योगसे ब्राह्मणी कजीके उपस्थित किये हुए हरिवंशपुराणक प्रमाणसे ही आदिकमें गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो सिद्ध है तब वे लोग वहाँ जाकर भगवानकी पूजावन्दनाके अनन्तर उनकी दिव्य वाणीको भी सुनते १. मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा । हैं, जो सारे समवसरणमें व्याप्त होती है, और उसके वृक्तिभेदा हि तद्भदाच्चर्विध्यमिहाश्नुते ॥ ३८-४५ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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