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________________ १८६ अनेकान्त [वर्ष व्याख्यानकी बात थी सो तो हो चुकी । अब मैं समझता हूँ अच्छा ही होरहा है। पाप करके आपके नगरके एक बड़े आदमीका कुछ आग्रह है सो लक्ष्मीका संचय जिनके लिये करना चाहते हो वे प्रकट करता हूँ। भैया ! मैं तो ग्रामोफोन हूँ, चाहे जो उसके फल भोगनेमें शामिल न होंगे। बाल्मीकिका बजा लेता है जो मुझे जैसी कहता है वैसी ही कह किस्सा है। बाल्मीकि, जो एक बड़ा ऋषि माना देता हूँ। इन बड़े आदमियोंकी इतनी बात माननी जाता है, चोरी-डकैती करके अपने परिवारका पालन पड़ती है; क्योंकि उनका पुण्य ही ऐसा है । अभी करता था। उसके रास्ते जो कोई निकलता उसे वह यहाँ बैठनेको जगह नहीं है पर सेठ हुकुमचन्द्र लूट लेता था। एकबार एक साधु निकले। उनके आजाय तो सब कहने लगोगे, इधर आओ, इधर हाथमें कमण्डलु था । बाल्मीकिने कहा-रख दो आओ । अरे ! हमारी तुम्हारी बात जाने दो, तीर्थङ्कर यहाँ कमण्डलु । साधुने कहा-बच्चे ! यह तो डकैती की दिव्यध्वनि तो समयपर ही खिरती है पर यदि है, इसमें पाप होगा। बाल्मीकिने कहा-मैं पापचक्रवर्ती पहुँच जाय तो असमयमें भी खिरने लगती पुण्य कुछ नही जानता, कमण्डलु रख दो। साधुने है। अपने राग-द्वेष है पर उनके तो नहीं है। चक्र- कहा-अच्छा, मैं यहाँ खड़ा रहूँगा, तुम अपने घरके वर्तीकी पुण्यकी प्रबलतासे भगवानकी दिव्यध्वनि लोगोंसे पूछ आओ कि मैं एक डकैती कर रहा हूँ अपने आप खिरने लगती है । हाँ, तो यह सिंघईजी उसका जो फल होगा, उसमें शामिल हो, कि नहीं ? कह रहे हैं कि महिलाश्रमके लिये अभी कुछ होजाय लोगोंने टकासा जवाब दे दिया-तुम चाहे डकैती तो अच्छा है फिर मुश्किल होगा। भैया ! मैं विद्या- करके लाओ, चाहे साहुकारीसे। हम लोग तो खाने लयको तो मांगता नहीं और उस वक्त भी नहीं मांगे भरमें शामिल है। बाल्मीकिको बात जम गई और थे, पर बिना मांगे ही सेठ २५०००) दे गया तो मैं वापिस आकर साधुसे बोला-बाबा ! मैंने डकैती क्या करूँ मै तो बाहरकी संस्थाओंको देता था, पर छोड़ दी। आप मुझे अपना चेला बना लीजिये। मुझे कह आया कि यदि सागर इतने ही और देवे तो सब वही लेले । आप लोगोंने बहत मिला दिये। बात वास्तविक यही है। आप लोग पाप-पुण्यके कुछ बाकी रह गये सो आप लोग अपना वचन न द्वारा जिनके लिये सम्पत्ति इकट्ठी कर रहे हो वे निभाओगे तो किसीसे भीख मांग दंगा। यह बात कोई साथ देने वाले नहीं हैं। अत: समय रहते महिलाश्रमकी है जैसे बच्चे तैसे बच्चियाँ। आपकी ही सचेत हो जाओ । देखें, आप लोगोंमेंसे कोई हमारा तो हैं । इनकी रक्षामें यदि आपका द्रव्य लगता है तो साथ देता है या नहीं । समय रहते सावधान ! Rece जौलौ देह तेरी काहू रोगसों न घेरी जौलौं, जरा नाहि नेरी जासों पराधीन परि है। जौलौ जमनामा बैरी देय न दमामा जौलौं, माने कान रामा बुद्धि जाइ न विगरि है ॥ तौलौं मित्र ! मेरे निज कारज सँवार ले रे, पौरुष थकेंगे फेर पीछे कहा करि है। अहो आग आये जब झोंपरी जरन लागे, कुआके खुदाये तब कौन काज सरि है॥ -कवि भूधरदास + Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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