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________________ समवसरणाम शूद्रोंका प्रवेश [सम्पादकीय] जैन तीर्थङ्करोंके दिव्य समवसरणमें, जहाँ सभी शीर्षक है “१०० रुपयेका पारितोषिक-सुधारकोंको भव्यजीवोंको लक्ष्यमें रखकर उनके हितका उपदेश लिखित शास्त्रार्थका खुला चेलेंज" और जो 'जैन दिया जाता है, प्राणीमात्रके कल्याणका मार्ग सुझाया बोधक' वर्ष ६३ के २७वें अङ्कमें प्रकाशित हुआ है। जाता है और मनुष्यों-मनुष्योंमें कोई जाति-भेद न इस लेख अथवा चेलेंजको पढ़कर मुझे बड़ा कौतुक करके राजा-रङ्क.सभी गृहस्थोंके बैठनेके लिये एक ही हुआ और साथ ही अध्यापकजीके साहसपर कुछ वलयाकार मानवकोठा नियत रहता है; जहाँके हँसी भी आई। क्योंकि लेख पद-पदपर स्खलित हैप्रभावपूर्ण वातावरणमें परस्परके वैरभाव और प्राकृ- स्खलित भाषा, अशुद्ध उल्लेख, गलत अनुवाद, तिक जातिविरोध तकके लिये कोई अवकाश नहीं अनोखा तक, प्रमाण-वाक्य कुछ उनपरसे फलित कुछ, रहताः जहाँ कुत्ते-बिल्ली, शेर-भेड़िये, साँप-नेवले, और इतनी असावधान लेखनीके होते हुए भी चैलेंज गधे-भैंसे जैसे जानवर भी तीर्थङ्करकी दिव्यवाणीको का दुःसाहस ! इसके सिवाय, खुद ही मुद्दई और सुननेके लिये प्रवेश पाते हैं और सब मिलजुलकर खुद ही जज बननेका नाटक अलग !! लेखमें अध्याएक ही नियत पशुकोठेमें बैठते हैं, जो अन्तका १२वाँ पकजीने बुद्धिबलसे काम न लेकर शब्दच्छलका होता है, और जहाँ सबके उदय-उत्कर्षकी भावना एवं आश्रय लिया है और उसीसे अपना काम निकालना साधनाके रूपमें अनेकान्तात्मक 'सर्वोदय तीर्थ' प्रवा- अथवा अपने किसी अहंकारको पुष्ट करना चाहा है; हित होता है वहाँ श्रवणं, ग्रहण तथा धारणकी शक्ति- परन्तु इस बातको भुला दिया है कि कोरे शब्दच्छल से सम्पन्न होते हुए भी शूद्रोंके लिये प्रवेशका द्वार से काम नहीं निकला करता और न व्यर्थका अहंकार एक दम बन्द होगा, इसे कोई भी सहृदय विद्वान ही पुष्ट हुआ करता है। अथवा बुद्धिमान माननेके लिये तैयार नहीं होसकता। . आप दूसरोंको तो यह चैलेंज देने बैठ गये कि परन्तु जैनसमाजमें ऐसे भी कुछ पण्डित हैं जो वे आदिपुराण तथा उत्तरपुराण-जैसे आर्षग्रन्थोंके अपने अद्भून विवेक, विचित्र संस्कार अथवा मिथ्या आधारपर शूद्रोंका समवसरणमें जाना, पूजाधारणाके वश ऐसी अनहोनी बातको भी माननेके वन्दना करना तथा श्रावकके बारह व्रतोंका ग्रहण लिये प्रस्तुत हैं, इतना ही नहीं बल्कि अन्यथा प्रति- करना सिद्ध करके बतलाएँ और यहाँ तक लिख गये पादन और गलत प्रचारके द्वारा भोले भाइयोंकी कि "जो महाशय हमारे नियमके विरुद्ध कार्य कर आँखोंमें धूल झोंककर उनसे भी उसे मनवाना चाहते समाधानका प्रयत्न करेंगे (दूसरे आर्षादि ग्रन्थों के हैं। और इस तरह जाने-अनजाने जैन तीर्थङ्करोंकी आधारपर तीनों बातोंको सिद्ध करके बतलायेंगे) महती उदार-सभाके श्रादर्शको गिरानेके लिये प्रयत्न- उनके लेखको निस्सार समझ उसको उत्तर भी नहीं शील हैं। इन पण्डितोंमें अध्यापक मङ्गलसेनजीका दिया जावेगा।" परन्तु स्वयं आपने उक्त दोनों ग्रन्थों नाम यहाँ खासतौरसे उल्लेखनीय है, जो अम्बाला के आधारपर अपने निषेध-पक्षको प्रतिष्ठित नहीं छावनीकी पाठशालामें पढ़ाते हैं। हाल में आपका एक किया-उनका एक भी वाक्य उसके समर्थनमें सवादो पेजी लेख मेरी नजरसे गुज़रा है, जिसका उपस्थित नहीं किया, उसके लिये आप दूसरे ही ग्रंथों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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