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________________ १७८ आश्रय लेकर अध्यापकजी शूद्रों तथा दस्साओं को जिन पूजा के अधिकार से वश्चित करना चाहते हैं उसके २६वें सर्गमें वसुदेवकी मदनवेगा सहित 'सिद्धकूटजिनालय' की यात्राके प्रसङ्गपर उस जिनालय में पूजावन्दना के बाद अपने-अपने स्तम्भका आश्रय लेकर बैठे हुए' मातङ्ग (चाण्डाल) जातिके विद्याधरोंका जो परिचय कराया गया है वह किसी भी ऐसे आदमी की आँखें खोलने के लिये पर्याप्त है जो शूद्रों तथा दस्साओं के अपने पूजन- निषेधको हरिवंशपुराणके आधारपर प्रतिष्ठित करना चाहता है । क्योंकि उसपरसे इतना ही स्पष्ट मालूम नहीं होता कि मातङ्ग जातियों के चाण्डाल लोग भी तब जैनमन्दिर में जाते और पूजन करते थे बल्कि यह भी मालूम होता है कि श्मशान भूमिकी हड्डियों के आभूषण पहने हुए, वहाँ की राख बदनसे मले हुए तथा मृगछालादि ओढ़े, चमड़े के वस्त्र पहिने और चमड़ेकी मालाएँ हाथोंमें लिये हुए भी जैनमन्दिर में जा सकते थे, और न केवल जा ही सकते थे बल्कि अपनी शक्ति और भक्ति अनुसार पूजा करनेके बाद उनके वहाँ बैठने के स्थान भी नियत थे, जिससे उनका जैनमन्दिर में जाने आदिका और भी नियत अधिकार पाया जाता है। अनेकान्त १ कृत्वा जिनमह खेटाः प्रवन्ध प्रतिमागृहम् । तस्थुः स्तम्भानुपाश्रित्य बहुवेषा यथायथम् ॥ ३॥ २ देखो, श्लोक १४ से २३ तथा 'विवाहक्षेत्र प्रकाश' पृष्ठ ३१ से ३५ | यहाँ उन दसमेंसे दो श्लोक नमूने के तौरपर इस प्रकार हैं— श्मशानास्थि कृतोत्तसा भस्मरेणु - विधूसराः । श्मशान - निलयास्त्वेते श्मशान स्तम्भमाश्चिताः ||१६|| कृष्णाऽजिनधरास्त्वेते कृष्णचर्माम्बर - स्रजः । कानील- स्तम्भध्येत्य स्थिताः काल-श्व- पाकिनः || १८ || ३ यहाँपर इस उल्लेखपरसे किसीको यह समझने की भूल न करनी चाहिए कि लेखक आजकल वर्तमान जैनमन्दिरोंमें भी ऐसे पवित्र वेषसे जानेकी प्रवृत्ति चलाना चाहता है । ४ श्री जिनसेनाचार्यने ६वीं शताब्दी के वातावरणके अनुसार Jain Education International [ वर्ष ९ मेरे उक्त लेखांश और उसपर अपने वक्तव्य के अनन्तर अध्यापकजीने महावीरस्वामीके समवसरण - वर्णनसे सम्बंध रखने वाला धर्मसंग्रहश्रावकाचारका एक श्लोक निम्न प्रकार अर्थसहित दिया है"मिध्यादृष्टिरभव्योप्यसंज्ञी कोऽपि न विद्यते । यश्चानध्यवसायोऽपि यः संदिग्धो विपर्ययः ॥ १३६ ॥ अर्थात् - श्रीजिनदेव के समोशरण में मिध्यादृष्टिअभव्य असंज्ञा अनध्यवसायी संशयज्ञानी तथा मिथ्यात्वी जीव नहीं रहते हैं।" इस लोक और उसके गलत अर्थको उपस्थित करके अध्यापकजी बड़ी धृष्टता और गर्वोक्तिके साथ लिखते हैं "बाबू जुगलकिशोर जीके निराधार लेखको और धर्मसंग्रहश्रावकाचार के प्रमाण सहित लेखको आप मिलान करें- पता लग जायगा कि वास्तव में आगमके विरुद्ध जैन जनताको धोखा कौन देता है ?" मेरा जिनपूजाधिकार मीमांसा वाला उक्त लेख निराधार नहीं है यह सब बात पाठक ऊपर देख चुके हैं; अब देखना यह है कि अध्यापकजीके द्वारा प्रस्तुत धर्मसंग्रहश्रावकाचारका लेख कौनसे प्रमाण को साथमें लिये हुए है और उन दोनोंके साथ आप मेरे लेखकी किस बात का मिलान कराकर आगमविरुद्ध कथन और धोखादही जैसा नतीजा निकालना चाहते हैं ? धर्मसंग्रहश्रावकाचारके उक्त श्लोकके साथ अनुवादको छोड़कर दूसरा कोई प्रमाण-वाक्य नहीं है । मालूम होता है अध्यापकजीने अनुवादको ही दूसरा प्रमाण समझ लिया है, जो मूलके अनुरूप भी नहीं है और न मेरे उक्त लेखक साथ दोनोंका कोई सम्बंध ही हैं। मेरे लेखमें चारों वर्णोंके मनुष्यों के समवसरण - में जाने और व्रत ग्रहण करनेकी बात कही गई हैं, जब कि धर्मसंग्रहश्रावकाचारके उक्त श्लोक और अनु भी ऐसे लोगोंका जैनमन्दिरमें जाना आदि आपत्तिके योग्य नहीं ठहराया और न उससे मन्दिर के अपवित्र हो जानेको ही सूचित किया। इससे क्या यह न समझ लिया जाय कि उन्होंने ऐसी प्रवृत्तिका अभिनन्दन किया अथवा उसे बुरा नहीं समझा ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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