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________________ किरण ५ ] वादमें उसके विरुद्ध कुछ भी नहीं है । क्या अध्यापक जी शूद्रोंको सर्वथा मिध्यादृष्टि, अभव्य, असंज्ञी (मनरहित) अनध्यवसायी, संशयज्ञानी तथा विपरीत ( या अपने अर्थके अनुरूप 'मिथ्यात्वी') ही समझते हैं और इससे उनका समवसरणमें जाना निषिद्ध मानते हैं ? यदि ऐसा है तो आपके इस आगमज्ञान और प्रत्यक्षज्ञानपर रोना आता है; क्योंकि आगमसे अथवा प्रत्यक्षसे इसकी कोई उपलब्धि नहीं होती - शुद्र लोग इनमेंसे किसी एक भी कोटिमें सर्वथा स्थित नहीं देखे जाते । और यदि ऐसा नहीं है अर्थात् अध्यापकजी यह समझते हैं कि शूद्र लोग सम्यग्दृष्टि, भव्य, संज्ञी, अध्यवसायी, असंशयज्ञानी और विपरीत ( मिथ्यात्वी) भी होते हैं तो फिर उक्त श्लोक और उसके अर्थको उपस्थित करनेसे क्या नतीजा ? वह उनका कोरा चित्तभ्रम अथवा पागलपन नहीं तो और क्या है ? क्योंकि उससे शूद्रों के समवसरणमें जानेका तब कोई निषेध सिद्ध नहीं होता । खेद है कि अध्यापकजी अपने बुद्धिव्यवसाय के इसी बल-बूतेपर दूसरोंको आगमकं विरुद्ध कथन करने वाले और जनताको धोखा देने वाले तक लिखने की धृष्टता करने बैठे हैं !! . समवसरण में शूद्रोंका प्रवेश अब यह बतला देना चाहता हूँ कि अध्यापक जीका उक्त लोकपरसे यह समझ लेना कि समवसरणमें मिथ्यादृष्टि तथा संशयज्ञानी जीव नहीं होते कोरा भ्रम है-उसी प्रकारका भ्रम है जिसके अनुसार वे 'विपर्यय' पदका अर्थ 'मिथ्यात्वी' करके 'मिध्यादृष्टि' और 'मिध्यात्वी' शब्दों के अर्थ में अन्तर उपस्थित कर रहे हैं — और वह उनके आगमज्ञानके दिवालियेपन को भी सूचित करता है। क्योंकि श्रागम में कहीं भी ऐसा विधान नहीं है जिसके अनुसार सभी मिध्यादृष्टियों तथा संशयज्ञानियोंका सम वसरण में जाना वर्जित ठहराया गया हो । बल्कि जगह-जगहपर समवसरण में भगवान् के उपदेशके अनन्तर लोगोंके 'सम्यक्त्व ग्रहणकी अथवा उनके संशयोंके उच्छेद होने की बात कही गई हैं और जो इस बात की स्पष्ट सूचक हैं कि वे लोग उससे पहले Jain Education International १७९ मिथ्यादृष्टि थे अथवा उन्हें किसी विषय में सन्देह था । दूर जानेकी भी जरूरत नहीं, अध्यापकजीके मान्य ग्रन्थ धर्मसंग्रहश्रावकाचारको ही लीजिये, उसके निम्न पद्यमें जिनेन्द्रसे अपनी अपनी शङ्काके पूछने और उनकी वाणीको सुनकर सन्देह-रहित होने की बात कही गई हैनिजनिज-हृदयाकूतं पृच्छन्ति जिनं नराऽमरा मनसा । श्रुत्वाऽनक्षरवाणीं बुध्यन्तः स्युर्वसन्देहाः ||३-५४|| हरिवंशपुराणके ५८वें सर्गमें कहा है कि नेमिनाथकी वाणीको सुनकर कितने ही जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुए, जिससे प्रगट होता है कि वे पहले सम्यग्दर्शनसे रहित मिध्यादृष्टि थे । यथाःते सम्यग्दर्शनं केचित्संयमासंयमं परे । संयमं केचिदायाताः संसारावास भीरवः || ३८७|| भगवान् आदिनाथ के समवसरणमें मरीचि - मिध्यादृष्टिके रूपमें ही गया, जिनवाणीको सुनकर उसका मिथ्यात्व नहीं छूटा, और सब मिथ्या तपस्वियोंकी श्रद्धा बदल गई और वे सम्यक् तपमें स्थित होगये परन्तु मरीचिकी श्रद्धा नहीं बदली और इस लिये अकेला वही प्रतिबोधको प्राप्त नहीं हुआ; जैसा कि जिनसेनाचार्य के आदिपुराण और पुष्दन्त-कृत महापुराणके निम्न वाक्योंसे प्रकट है" मरीचि वर्ज्याः सर्वेऽपि तापसास्तपसि स्थिताः।” - आदिपुराण २४-८२ "दंसणमोहणीय-पडिरुद्धउ एक्कु मरीइ णेय पडिबुद्ध उ” - महापुराण, संधि ११ वास्तव में वे ही मिध्यादृष्टि समवसरण में नहीं जा पाते हैं जो अभव्य होते हैं- भव्य मिध्यादृष्टि तो असंख्याते जाते हैं और उनमें से अधिकांश सम्यग्दृष्टि होकर निकलते हैं और इस लिये 'मिध्यादृष्टिः' तथा 'अभव्योऽपि' पदोंका एक साथ अर्थ किया जाना चाहिये, वे तीनों मिलकर एक अर्थके वाचक हैं और वह अर्थ है - 'वह मिध्यादृष्टि जो अभव्य भी है' । धर्मसंग्रहश्रा के उक्त लोकका मूलस्रोत तिलोयपणन्तीकी निम्न गाथा है, जिसमें For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527255
Book TitleAnekant 1948 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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